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श्री जैन सिद्धान्त योल संग्रह, चौथा भाग प्रायश्चित्त लिए अशुद्ध माना जाता है।
(५) दान-साम्भोगिक माधु द्वारा साम्मोगिक को अथवा कारण विशेष से अन्य साम्भोगिक को शिष्यादि देना दानसंभोग है । विना कारण विमम्भोगी को, पासत्थे आदि को देता हुआ दोप का भागी है । वह ऊपर लिखे अनुसार शुद्ध अथवा अशुद्ध होता है।
(६' निमन्त्रण शय्या, उपधि, आहार, शिष्यप्रदान अथवा स्वाध्याय आदि के लिए यदि साम्भोगिक साधु साम्भोगिक को निमन्त्रण देता है तो शुद्ध है, शेष अवस्थाओं में पहले की तरह जानना चाहिए।
(७) अभ्युन्थान-किसी बड़े साधु को आते देख कर भासन से उठना अभ्युत्थान है । सम्भोगी के लिए अभ्युत्थान शुद्ध है, बाकी के लिए पहले की तरह जानना चाहिए । इसी प्रकार किसी पाहुने या ग्लान आदि की सेवा करने में, अभ्यास तथा धर्म से गिरते हुए को फिर से स्थिर करने में और मेलजोल रखने में संभोगी तथा अभोगी समझना चाहिए अर्थात् इन्हें, आगम के अनुसार, करने वाला शुद्ध है और सम्भोगी है, आगम के विपरीत करने वाला अशुद्ध और विसम्भोगी है।
(क) कृतिकर्म- वन्दना आदि विधि से करने वाला शुद्ध है दूसरा अशुद्ध है । वात आदि रोग के कारण शरीर कड़ा हो जाने से जो न उठ सकता है, न हाथ आदि को हिला सकता है वह केवल पाठ का उच्चारण करता है। जो पावन प्रदक्षिणा), सिर झुकाना
आदि कर सकता हो उसे विधिपूर्वक ही वन्दन करना चाहिए। विधिपूर्वक वन्दन करने वाला शुद्ध तथा दूसरा अशुद्ध होता है।
(६) यावच्च-आहार उपधि आदि देना, मल मूत्रादि का परिठवणा, वृद्ध आदि साधुओं की सेवा करना यावृत्य संभोग है।
(१०) समवसरण- व्याख्यान आदि के समय, वर्षा या