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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग . १८७ अवधिज्ञान लगा कर देखा कि राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं। शीघ्र ही वह अपने परिवार सहित भगवान् को वन्दना करने के लिए गई । वन्दना करने के पश्चात् सूर्याम देव की तरह नाट्य विधि दिखला कर अपने स्थान पर चली गई। श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा कि हे भगवन ! काली देवी को यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई? तव भगवान् ने उसका पूर्व भव बतलाया कि इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अमलकल्पा नगरी में काल नाम का गाथापति रहता था। उसके कालश्री नाम की स्त्री थी। उसके फाली नाम की पुत्री थी। बड़ी उम्र की हो जाने पर भी उसका विवाह नहीं हुआ था ।उसे कोई पुरुप चाहता ही नहीं था। एक समय भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के पास धर्म श्रवण कर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। माता पिता की आज्ञा लेकर उसने पुष्पचूला आर्या के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । ग्यारह अङ्ग का ज्ञान पढ़ा। कुछ काल पश्चात् उसे शुचिधर्म पसन्द आया जिससे वह अपने शरीर के प्रत्येक अवयव को धोने लगी तथा सोने, बैठने आदि सभी स्थानों को भी धोने लगी। उसकी गुरुणी ने उसे बहुत समझाया और आलोचना करने के लिए कहा, परन्तु उस काली आर्या ने गुरुणी की एक भी बात नहीं मानी, तव उसे गच्छ से अलग कर दिया गया ।वह दूसरे उपाश्रय में रह कर शौच धर्म का पालन करने लगी। बहुत वर्षों तक वह इसी तरह करती रही । अन्त समय में आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही अनशन पूर्वक मरण प्राप्त कर काली देवी रूप से उत्पन्न हुई। वहाँ पर उसकी ढाई पन्योपम की स्थिति है। वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और वहीं से सिद्धपद को प्राप्त करेंगी। दूसरा अध्ययन-इसमें रानी देवी का वर्णन है। उसके पूर्व भव के