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श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग
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त्ति, सूर पण्यत्ति, चन्द पण्यति दिन की पहिली या अन्तिम पौरुषी में पढ़े जाते हैं । (सूत्र १५० - १५२) ।
द्वितीय उद्देश तीन लोक (तीन प्रकार से ) । चमरेन्द्र की तीन परिषदाएं । चमरेन्द्र के सामानिक देवों की तीन परिषदाएं । इसी प्रकार त्रायखिंश, अग्रमहिषियों तथा दूसरे इन्द्रों की सभाएं । (सूत्र १५३ - १५४) ।
तीन याम । तीन व्रत। तीन बोधि । तीन बुद्ध । तीन प्रव्रज्या ( चार प्रकार से ) । तीन निर्ग्रन्थ नोसंज्ञोपयुक्त। तीन संज्ञा नोसंज्ञोपयुक्त । तीन भैचभूमियाँ । तीन स्थविर । (सू० १५५ - १५६)
अनेक अपेक्षाओं से पुरुष के तीन तीन भेद । कुल १२७ मेद । शील व्रत आदि से रहित व्यक्ति तीन स्थानों से निन्दित होता है । शील, व्रत आदि वाला तीन स्थानों से प्रशस्त माना जाता है । तीन संसारी जीव । तीन प्रकार के सर्वजीव (तीन अपेक्षाओं से ) । तीन प्रकार से लोकस्थिति । तीन दिशाएं। तीन दिशाओं में जीवों I की गति आदि १३ बोल | ( सू० १६० - १६३) ।
तीन त्रस | तीन स्थावर । तीन अच्छेद्य । इसी प्रकार तीन अभेद्य. दाह आदि आठ बातें | श्रमण भगवान महावीर द्वारा कहे हुए तीन वाक्य - प्राणी दुःख से डरते हैं, प्रमादवश जीव दुःख को पैदा करता है, दुःख श्रप्रमाद के द्वारा भोगा जाता है । (सू० १६४-१६६ ) । क्रिया और फलभोग के विषय में अन्यतीर्थिकों का प्रश्न तथा उत्तर (सू० १६७ ) ।
तृतीय उद्देश -- तीन कारणों से (तीन प्रकार से) मायावी माया करके आलोचना आदि नहीं करता। तीन कारणों से (तीन प्रकार से) आलोचना आदि करता है। तीन प्रधान पुरुष । साधु साध्वियों को तीन प्रकार के वस्त्र कल्पते हैं। तीन प्रकार के पात्र । तीन कारणों से वस्त्र धारण करने चाहिएं | ( सू० १६८ - १७१) ।