________________
२८१
श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग तन्मय होकर रमण करना, यह निश्चय प्राणातिपात विरमण व्रत है।
(२) मृपावाद विरमण व्रत-असत्य वचन न बोलना व्यवहार मृपावाद विरमण व्रत है। पुद्गलादिक परवस्तुओं को अपनी कहना, जीव को अजीव और अजीव को जीव कहना एवं सिद्धान्तों का झूठा अर्थ करना, यह निश्चय मृषावाद है और इसका न्याग करना निश्चय मपावाद विरपण व्रत है। अदत्तादान विरमण आदि व्रतों फा भंग करने से केवल नारित्र का भंग होता है, समकित और ज्ञान का भंग नहीं होता किन्तु म्षावाद विरमण नत का भंग चारित्र के साथ समकित और ज्ञान को भी दर्पित कर देता है। इस लिए सिद्धान्तों में कहा गया है कि चौथे महावत का खंडन करने वाला साधुमालोचना और प्रायश्चिच से शुद्ध हो जाता है परन्तु सिद्धान्तों फै मपा उपदेश द्वारा दूसरे महावत का भंग करने वाला साधु पालोचना और प्रायश्चित्त द्वारा भी शुद्ध नहीं होता । इसका यही कारण प्रतीत शेता है कि दूसरे व्रतों को दपित करने वाले अपनी आत्मा को ही मलिन करते हैं किन्तु सिद्धान्तों का स्पा उपदेश देने वाले अपने साथ दूसरे जीवों की आत्माओं को भी उन्मार्ग में ले जाते हैं और उन्हें मलिन करते हैं।
(३) अदत्तादान विरमण व्रत-दूसरे की धन धान्यादि वस्तुओं को स्वामी की आज्ञा विना लेना, विशाना या चोरी और ठगाई करके लेना व्यवहार श्रदत्तादान है। इसका त्याग करना व्यवहार अदत्तादान विरमण व्रत है। पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय, पाठ कर्मों की वर्गणा इत्यादि प्रात्मभिन्न वस्तुओं को ग्रहण करना निश्चय अदत्तादान है। उपरोक्त परवस्तुएं श्रात्मा के लिए अग्राह्य हैं। उन्हें ग्रहण करने की इच्छा भी मुमुनु आत्मा को न होनी चाहिए। जो लोग पुण्योपार्जन के लिए शुभ क्रियाएं करते हैं और उन्हें आदरणीय समझते हैं वे व्यवहार भदत्तादान से विरत होते हुए