________________
१४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
1
नवें वासुदेव श्रीकृष्ण महाराज राज्य करते थे। उनके पिता के एक बड़े भाई समुद्रविजय थे। उनके शिवा देवी नाम की रानी थी। शिवा देवी की कुक्षि से बाईसवें तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। युवावस्था को प्राप्त होने पर उग्रसेन राजा की पुत्री श्रीराजमती से उनका विवाह होना निश्चित हुआ | धूम धान के साथ जब वे बरात लेकर जा रहे थे तो उन्होंने जूनागढ़ के पास बहुत से पशु और पक्षियों को बाड़े और पिंजरों में बन्द देखा । श्री अरिष्टनेमि ने जानते हुए भी जनता को बोध कराने के लिये सारथि से पूछा -- ये पशु यहाँ किस लिये बंधे हुए हैं ? सारथि ने कहा -- हे भगवान आपके विवाह मे साथ श्राये हुए मांसाहारी बरातियों के लिये भोजनार्थ ये पशु और पक्षी यहाँ लाये गये हैं । यह सुनते ही भगवान श्ररिष्टनेमि का चित्त बड़ा उदास हुआ। जीवों की दया से द्रवित होकर उन्होंने विचार किया कि विवाह के लिये इतने पशु पक्षियों का वध होना परलोक मं कल्याणकारी न होगा। यह विचार कर उनका चित्त विवाह से हट गया। भगवान की इच्छानुसार सारथि ने उन बाड़े और पिंजरों के द्वार खोल दिये और उन पशु पक्षियों को बन्धन मुक्त कर दिया । सारथि के इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान ने मुकुट और राज्यचिह्न के सिवाय सम्पूर्ण भूषण उतार कर सारथि को प्रीति दान में दे दिये और आप विवाह न करते हुए अपने घर को वापिस चले आये एक वर्ष पर्यन्त करोड़ों सुवर्ण मुद्राओं का दान देकर एक हजार पुरुषों के साथ उन्होंने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। इन समाचारों को सुन कर राजमती ने भी अपनी अनेक सखियों के साथ संयम स्वीकार कर लिया। संयम लेकर राजमती भगवान् श्ररिष्टनेमि, के दर्शनार्थ रेवती पर्वत पर (जहाँ वे तपस्या कर रहे थे ) चलीं। रास्ते में अकस्मात् अति वेग से वायु चलने
C