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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह. चौथा भाग
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आंगन में कुछ न होने पर भी स्वमद्रष्टा को संदेह होता है कि यह हाथी है या पहाड़ है। ___ समाधान- स्वम में भी संशय का विषय ऐसी वस्तुएं ही हैं जो जाग्रतावस्था से जानी जा चुकी हैं। जिस व्यक्ति ने हाथी को कभी सुना या देखा न हो उसे स्वम में हाथी दिखाई नहीं दे सकता।
संसार को शून्य रूप मानने से स्वम और जाग्रत, सत्य और मिथ्या आदि में कुछ भी मेद नहीं रहेगा।
हस्व दीर्घ आदि की सचा केवल प्रापेक्षिक नहीं है किन्तु अर्थक्रिया का करना रूप सत्व भी उन में पाया जाता है, क्योंकि वे अपने ज्ञान को पैदा करना रूप अर्थक्रिया करती हैं। यदि ये हल दीर्घ या तदुमय रूप धान उत्पन्न करती हैं तो प्रमाण से स्वयंसिद्ध ही हैं। वर्जनी अगली में मोटापन और बड़प्पन दोनों धर्म रहते हैं। कनिष्ठा या मध्यमा की अपेक्षा वे केवल कहे जाते हैं। यदि इन धर्मों के बिना रहे भी इन्हें छोटा या बड़ाकहा जाय तोआकाशकुसुम में भी हस्वतत्व या दीर्घतत्व की प्रतीति होनी चाहिए। किसी लम्बी वस्तु को भी हल कहा जा सकेगा।
सर्वशन्यवाद में और भी अनेक दोषपाते हैं। उनसे पूछा जा सकता है-घट पट आदि सब वस्तुओं को मिथ्या बताने वाला वचन सत्य है या असत्य ? यदि सत्य है तो उसी के वास्तविक हो जाने के कारण शून्यवाद सिद्ध नहीं होगा । यदि असत्य है वो स्वयं अप्रमाण होने के कारण शून्यवाद की सिद्धि नहीं हो सकती। इस तरह किसी प्रकार शून्यता सिद्ध नहीं होती।
यदि वस्तुओं की असता सब जगह समान है तो कार्यकारणभाव का मी लोप हो जाएगा। तिलों से ही तेल निकलता है, वालूरेत से नहीं, इसमें कोई नियामक न रहेगा। आकशकुसुम की तरह असत वस्तुओं से ही सब कुछ उत्पन्न होने लगेगा। कारण विशेष