________________ श्री जैन सिद्धान्त पोल संमह, चौथा भाग (6) आठवां अनर्थदण्ड त्याग व्रत... बिना प्रयोजन पापारम्भ करना अनथे.दण्ड.है, अनर्थ दगई के चार भेद है। 1) अपभ्यानाचरित - आध्यान और रौद्र ध्यान के वश होकर इष्ट संयोग, अनिष्ट वियोग की चिन्ता करना तथा / किसी प्राणी को हानि पहुँचाने आदि पापकर्म का विचार करना। (2) प्रमादाचरित - विकयां करनी 'एवं असावधानी से काम करना तथा घी, तेल आदि के वर्तनों को उघाड़े रखना। 3) हिंस्र प्रदान- तलवार, बन्दूक,पिस्तोल, तमंचा आदि हिंसाकारी शस्त्र दूसरों को देना। (4) पाप कर्मोपदेश-पापकर्म का उपदेश देना एवं पापकर्म करने की प्रेरणा करना। प्रतिज्ञा... इस प्रकार,मैं यावज्जीवन दोकरण तीन योग से अनर्थदण्ड का त्याग करता हूँ। आठवें व्रतं. के पांच अतिवार - (1) कंदप्पे-काम को उत्पन करने वाली कथाएं करना तथा राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मजाक करना। (2. कुक्कुइए- माड़ों की तरह आंख, नाक, मुख आदि अपने अङ्गो को विकृत करके दूसरों को हंसाने वाली चेष्टा करना। . (3) मोहरिए - ढिठाई के साथ पाचालता से असत्य और उटपटाङ्ग वचन बोलना / / (4) सं चाहिगरणे -- ऊखल और मूसल, शिला और लोढा, वसूला और कुन्हाड़ी, चक्की आदि हिंसाकारी औजारों को एक साथ रखना एवं प्रयोजन से अधिक संग्रह करके रखना।