________________ 517 .(परिशिष्ट) बारह भावना मंगलराय कृत पोल नं० 612 (क) दोहा छंद वर्दू श्री अरिहंतपद, वीतराग विज्ञान / चरण वारह भावना, जगजीवनहित जान // 1 // विश्नुपद छंद . कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरतखंड-सारा। कहाँ गये वे राम रुलछमन, जिन रावण मारा / / कहाँ कृष्ण रुक्मिणी सतमामा, अरु सपति सगरी। कहाँ गये वे रगमहल अरु, सुवरण की नगरी // 2 // . नहीं रहे वे लोभी कौरव, जूम मरे रण में / गये राज तज पांडव वन को, अगिन लगी तन में। मोह नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। हो दयाल उपदेश कर गुरु, बारह-भावन को // 3 // 1 अस्थिर (अनित्य) भावना सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आवे / प्यारी घायु ऐसी बीते, पता नहीं पावे / / पर्वतपतित नदी सरिता जल वह कर नहिं हटता, स्वास चलत यों घटे काठ ज्यों, आरेसों कटता // 4 // ओसद न्यौ गले धूप मे, पा अंजुलिं पानी। छिन छिन यौवन धीण होत है क्या समझे पानी / / इन्द्रजाल आकाश नगर सम जगसपति सारी / अथिर रूप संसार विचारो सव नर अरु नारी // 2 अशरण भावना भालसिंह ने मृगचेतन को, घेरा भव वन में। नहीं बचावन हारा कोई, यो समझो मन में मत्र यत्र सेना धन सपति, राज पाट छूटे। पश नहिं चलता काल लुटेरा, काया नगरतूटे। चक्र रतन हलघरसा माई, काम नहीं आया। एक तीर के लगन कृष्ण का, विनश गई काया / / - धर्म गुरुशरणजगत मे, और ना कोई।