________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ..' १८ (४) उ०-दो परमाणु पुद्गल से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त पुद्गल परमाणुओं तक की वक्तव्यता, पुद्गल परिवर्तन के मेद प्रमेद आदि का विस्तृत वर्णन ।
(५) उ०-प्राणातिपातादि क्रोध, मान, माया, लोम, रागद्वेष, वैनयिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाली होती है ? नैरयिक, पृथ्वीकायिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, धर्मास्तिकाय, कृष्णलेश्या आदि में वर्ण, गन्ध, रस आदि विषयक प्रश्न । (६) उ०. चन्द्रमा और राहु का विचार, चन्द्रमा का ग्रहण कैसे होता है ? चन्द्रमा सूर्य और राहु के काममोगों का विचार ।
(७) उ०-लोक का विस्तार, लोक का एक भी परमाणुप्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ पर यह जीव न जन्मा और न मरा हो । इस जीव का इस संसार में प्रत्येक प्राणी के साथ शत्रु, मित्र, माता, पिता, स्त्री पुत्र आदि रूप से सम्बन्ध हो चुका है।
(८) उ०- क्या महर्द्धिक देवता देवलोक से चवकर सर्प और हाथी के भव में जा सकता है और एक भवावतारी हो सकता है ? वानर, कुमकुट (कूकड़ा) आदि मर कर रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्कृष्ट स्थिति वाला नैरयिक रूप से उत्पन्न हो सकता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर। (ह) उ०-देवता के भविक द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव आदि पाँच मेद, ये देव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं कितनी स्थिति होती है ? आयु पूर्ण करके कहाँ जाते हैं ? इनका अन्तर काल, विकुर्वणा, तथा अल्पवहुत्व का विस्तार पूर्वक विवेचन ।
(१०) उ०-ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा आदि आत्मा के आठ मेद, इनका पारस्परिक सम्बन्ध, अल्पबहुत्व, द्विप्रादेशिक, त्रिपादेशिक, चतुः प्रादेशिक, पंचप्रादेशिक स्कन्ध और इनके भंग आदि का विस्तृत विवेचन ।