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श्री सेठिया जैन अन्धमाला
भी यह प्रतीति होनी चाहिए। आत्मा का निश्चयात्मक ज्ञान हुए बिना 'मैं हूँ' यह निश्चयात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि इस • में भी मैं शब्द का अर्थ आत्मा ही है।
आत्मा के नहीं होने पर प्रात्मा है या नहीं इस प्रकार का संशय भी नहीं हो सकता क्योंकि संशय ज्ञान रूप है और ज्ञान आत्मा का गुण है। गुणी के बिना गुण नहीं रह सकता। ज्ञानको शरीर का गुण नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान अमूर्त और वोध रूप है तथा शरीर मूर्त और जड़ है। दो विरोधी पदार्थ गुण और गुणी नहीं बन सकते । जैसे बिना रूप वाले आकाश का गुण रूप नहीं हो सकता इसी प्रकार मूर्त और जड़ शरीर का गुण अमूर्त और बोध रूप ज्ञान नहीं हो सकता । सभी वस्तुओं का निश्चय आत्मा का निश्चय होने पर ही हो सकता है। जिसे आत्मा में ही सन्देह है वह कर्मबन्ध, मोच तथा घट पट आदि के विषय में भी • संशय रहित नहीं हो सकता।
आत्मा का अभाव सिद्ध करने वाले अनुमान में पक्ष के भी बहुत से दोष हैं। प्रत्यक्ष मालूम पड़ने वाले आत्मा का अभाव • सिद्ध करने से साध्य प्रत्यक्ष बाधित है। आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने वाले अनुमान द्वारा बाधित होने से यह साध्य अनुमान विरुद्ध भी है । 'मैं संशय वाला हूँ 'इसमें 'मैं शब्द से वाच्य ात्मा का अस्तित्व मानते हुए भी उसका निषेध करना अभ्युपगम विरोध है। लोक में जिस वस्तु का निश्चय छोटे से लेकर बड़े सभी व्यक्तियों को हो उसका निषेध करने से लोक बाधित है। अपने ही लिए 'मैं हूँ या नहीं इस प्रकार संशय करना अपनी माता को बन्ध्या बताने की तरह स्ववचन बाधित है । इस प्रकार पक्ष के प्रत्यक्षादि द्वारा बाधित होने के कारण पक्ष में अपक्षधर्मता के कारण हेतु भी प्रसिद्ध है। हिमालय के पलों (चार तोले का