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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
घोष ने इसे नीचे लिखे अनुसार बताया हैदीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
नैवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चित् विदिशंन काश्चित् ,
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशंन काञ्चित् विदिशं न काञ्चि
क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ अर्थात्-जैसे निर्वाण को प्राप्त हुआ दीपक न पृथ्वी को जाता हैन आकाश को । न किसी दिशा को जाता है न विदिशा को। तेल खतम हो जाने पर अपने श्राप शान्त हो जाता है। उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुआजीवन पृथ्वी को जाता है न आकाश को, न किसी दिशा को न विदिशा को । क्लेश का क्षय हो जाने से अपने श्राप शान्त हो जाता है। ___ अथवा जैसे जैन मानते हैं अर्थात् राग, द्वप, मद, मोह, ज-म, जरा, रोग आदि दुःखों का क्षय हो जाना मोच है। इस मत में निर्वाण हो जाने पर भी जीव का अस्तित्व बना रहता है। ___ अथवा कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि होने से वह अनन्त भी है। जो वस्तु अनादि होती है वह अनन्त भी होती है।
इन सन्देहों को दूर करने के लिए भगवान ने नीचे लिखेअनुसार कहना शुरू किया
कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि होने पर भी छूट सकता • है, यह पहले सिद्ध किया जा चुका है। प्रदीप की तरह पाला का.
सर्वनाशमानना भी ठीक नहीं है। जैसे दूध पर्याय नष्ट होने परद्ध दही के रूप में परिणत हो जाता है, मुद्गर आदि के द्वारा नष्ट किया