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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग
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आहार और उपस्थान का विचार ! विग्रहगति समापन और अविग्रहगति समापन का चौवीस दण्डक में विचार | जीव सैन्द्रिय, अनिन्द्रिय, सशरीर, अशरीर, आहारी या अनाहारी, उत्पन्न होता है ? पुत्र के शरीर में रुधिर, मांस और मस्तक की माँजी, ये तीन माता के अङ्ग हैं और अस्थि (हड्डी), अस्थिमिजा, केश, नख आदि तीन पिता के अङ्ग हैं। गर्भ में रहा हुआ जीर मर कर देवलोक और नरक में जाता है या नहीं ? गर्मगत जीव पाठा के सोने से सोता है, माता के बैठने से बैठता है । माता के सुखी होने से सुखी और दुःखी होने से दुःखी । इत्यादि का विस्तृत विचार ।
() उ० - एकान्त पालजीव (मिथ्यादृष्टि जीव) मर कर चारों गतियों में जाता है। एकान्त पण्डितजीव (सर्व विरत साधु) पर कर वैमानिक देव होता है अथवा मोक्ष में जाता है।पालपण्डित जीव (देश विरत सम्यग्दृष्टि श्रावक) मर कर वैमानिक देवताओं में उत्पन्न होता है। मृग मारने वाले मनुष्य को तीन चार यापाँच क्रियाएं लगती हैं। बाण लगने के बाद यदि ग ६ महीने में मर जायतो पॉच क्रियाएं लगती है और यदि मृग ६ महीने के बाद मरे तो चार क्रियाएं लगती हैं। यदि पुरुष पुरुष को मारेतो पाँच क्रियाएं लगती हैं। चौवीस दण्डक में सवीय और अवीर्य का विचार।
(६)उ०-जीव अधोगति का कारण भूत गुरुपना और ऊर्चगति का कारणभूत लघुपना कैसे प्राप्त करता है ? संसार को अन्प, प्रचुर, दीर्घ, हव अनन्त परित्त आदि करने का विचार । सातवीं नारकी के नीचे का प्रदेश गुरुलघु अगुरुलघु है इत्यादि प्रश्न । साधु के लिए लघुता, अमूर्छा, अगृद्धता, अप्रतिवद्धता, अक्रोधता, अमानता, अमायित्व, निर्लोभता आदि प्रशस्त है। रागद्वप से रहित निन्थ संसार काभन्त करता है। अन्पथिकों