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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्योंकि इस पडिमा में महान कर्म समूह का क्षय होता है। यह पडिमा हित के लिये, शुभ कर्म के लिए, शक्ति के लिये, मोक्ष के लिये या ज्ञानादि प्राप्ति के लिए होती है।
इस पडिमा का यथासूत्र,यथाकल्प, यथातच सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, अतिचारों से शुद्ध कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर, पाराधन कर भगवान् की आज्ञानुसार पालन किया जाता है। (दशाभुवस्कन्ध सातवीं दशा) (भगवती शतक र उद्देशा ) (समवायाग १२) ७६६-सम्भोग बारह .
समान समाचारी वाले साधुओं के सम्मिलित आहार प्रादि व्यवहार कोसम्भोग कहते हैं। सम्भोग के मुख्य रूप से छः भेद हैं(१)ोषत् उपधि प्रादि (२) अमिग्रह (३)दान और ग्रहण (४)अनुपालना (५) उपपात (६) संवास उपधि आदि सामान्य विषयों में होने वाले संम्भोग को ओष सम्भोग कहते हैं। इसके पारह भेद है-(१) उपधि विषयक (२)श्रत विषयक (३) मक्कपान विषयक(४)अञ्जलिप्रग्रह विषयक (५) दापना विषयक (६) निमन्त्रण विषयक (७)अभ्युत्थान विषयक (८)कृतिकर्म अर्थात् बन्दना विषयक (8)वैद्मावच्च विषयक (१०)समवसरण विषयक (११) सभिषधा विषयक (१२)कथाप्रवन्ध विषयक।।
(१) उपधि विषयक-वस्त्र पात्र आदि उपधि को परस्पर लेने के लिए बने हुए नियम को उपधि विषयक सम्मोग कहते हैं। इसके छ मेद हैं
' (१)उद्गम शुद्ध (२) उत्पादना शुद्ध (३) एषणाशुद्ध(४)परिकर्मणासंभोग(५)परिहरणा संभोग(६)संयोग विषयक संमोग । प्राधाकर्म आदि उद्गम के सोलह दोषों से रहित वस्त्र पात्र आदि उपधि को प्राप्त करना उद्गम शुद्ध उपधि संभोग है। आषाकर्मादि' किसी दोष के लगने पर उस दोष के लिए विधान किया गया,