________________
भी जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग २६३ प्रायश्चित्त आता है । अशुद्ध उपधि लेने वाला सांभोगिक साधु किसी दोष के लगने पर यदि पायश्चित्त अंगीकार नहीं करता तो विरंभोगी हो जाता है। प्रायश्चित्त लेने पर भी चौथी बार दोष लगने पर साधु विसंभोगी कर दिया जाता है अर्थात् तीसरी बार तक तो प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध करके उसे अपने साथ रखा जा सकता है, किन्तु चौथी वार दोप लगने पर प्रायश्चित्त लेकर भी वह शुद्ध नहीं हो सकता, इस लिए विसंभोगी कर दिया जाता है। इसी प्रकार विना किसी कारण के अन्यसंभोगी के साथ उपधि आदि लेने देने का व्यवहार करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रायः श्चित्त न लेने पर वह पहली बार ही विसंभोगी हो जाता है। प्रायश्चित्त ले लेने परतीमरी बार तक शुद्ध हो सकता है, इससे आगे नहीं। चौथी बार प्रायश्चित्त लेने पर भी वह विमभोगी कर दिया जाता है तीन पार तक उसे मासलघु (दोपोरिसी) का प्रायश्चित्त आता है। किसी कारण के उपस्थित होने पर अन्यसंभोगी के साथ उपधि आदि का व्यवहार करता हुआ शुद्ध ही है। इसी प्रकार पासस्था, गृहस्थ और स्वच्छन्द विचरने वालों के साथ भी जानना चाहिए। स्वच्छन्द विचरने वाले के साथ व्यवहार करने से मासगुरु (कासन) का प्रायश्चित्त पाता है। जो साधु पासत्थे श्रादि से
आहार या उपधि लेकर 'घाड़े को दे देता है उसे भी मासलघु प्रायश्चित पाता है। इसी प्रकार साध्वियों के लिए भी जानना चाहिए।
उद्गम की तरह उत्पादना के १६ दोष तथाएषणा के १० दोषों से रहित श्रतएव शुद्ध उपधि को संभोगी के साथ रह कर ग्रहण करने वाला उत्पादन शुद्ध तथा एषणाशुद्ध कहा जाता है। दोष लगने पर प्रायश्चित्त आदि की व्यवस्था पहले सरीखी जाननी चाहिए।
AHENDRA वस्त्र आदि उपधि को उचित परिमाण वाली करके स्थती के काम में आने योग्य बनाना परिकर्मणा है। इसमें चार मांगे होते