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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह. चौथा भाग
उत्पन्न हुवा' इस नाम से सूत्रकार ने संबोधित किया है।
बौद्धों के मूल पिटक ग्रन्थों में 'दीर्घतपस्सी निम्गंठो नातपुतो' वाक्य का उल्लेख अनेक स्थलों में श्राता है। उस वाक्य का 'नातपुत' पद भगवान् महावीर का सूचक है और 'दीर्घ तपस्सी' पद भगवान् की कठोरतम तपोमय साधना का द्योतक है, तथा 'निग्गंठ' पद भगवान् के असाधारण अपरिग्रह व्रत को दर्शाता है। जैन परम्परा की अपेक्षा बौद्ध परम्परा में भगवान् के लिए 'नातपुत ' नाम विशेष प्रतीत होता है ।
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सूत्रों में 'नायाधम्म कहा' नाम का छठा श्रङ्ग है । हमारी समझ में 'नायाधम्म कहा' का श्राद्य 'नाय' पद भगवान् के नाम का द्योतक है । नाय अर्थात् ज्ञात - ज्ञातपुत्र- महावीर, उनसे कही हुई धम्पकहा नायधम्पकहा ज्ञातधर्मकथा । दिगम्बर परम्परा में 'नायम्पका' को 'नाथधर्म कथा' अथवा ' ज्ञातृ धर्म कथा' कहते हैं । 'नाथधर्म कथा' का आद्य 'नाथ' शब्द भगवान महावीर का ही बोधक है । 'नात' नाम भगवान् के पितृ वंश का है उसी नाम का 'नाथ' उच्चारणांतर है। प्राकृत नात, शौरसेनी नाथ । 'नात' शब्द ही किसी प्रकार 'नाथ' रूप में परिणत हो गया है । धनञ्जय नाममाला के प्रणेता महाकवि धनञ्जय ने भगवान् को 'नाथान्वय' कहा है। 'नाथान्वय' का अर्थ जिनका वंश नाथ हो अर्थात् नाथ वंश के । भगवान् के पितृकुल का नाम 'ज्ञात - नात' है और चौद्ध पिटकों में भी 'नातपुत्त' नाम से भगवान् की ख्याति है इसी कारण कविराज धनञ्जय सूचित 'नाथान्वय' पद का चांध 'नाथ' और प्रस्तुत 'ज्ञात' दोनों को समानाक्षर और समानार्थ सपझना चाहिए। 'व' और 'थ' का अक्षर मेद, उच्चारणांतर का ही परिगाम है। यदि 'नाथ' और 'नात' पद समान न समझें तो नाथान्वय' का अर्थ ही ठीक न होगा। 'नाथधर्म कथा' का दूसरा नाम ज्ञातु धर्म