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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २११ (३) अदत्तादान अध्ययन-इसके प्रारम्भ में अदत्तादान (चोरी)का स्वरूप बतलाया गया है और उसके गुणनिष्पन तीस नाम दिये हैं। आगे य- बतलाया गया है कि चोरी करने वाले पुरुष समुद्र, जंगल अदि स्थानों में किस तरह लूटते हैं? इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। संसार को समुद्र की उपमा दी गई है। भागे अदत्त का फल बताया गया है। श्रदत्चादान (चोरी) करने वाले प्राणियों को नरक और तिर्यश्चगति में जन्म लेकर अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं।
(४) अब्रह्म अध्ययन-इसमें अब्रह्म का स्वरूप पतला कर कहा गया है कि इसे जीतना बड़ा कटिन है । इसके गुणनिष्पन तीस नाम हैं । अब्रह्म का सेवन कायर पुरुष ही करते हैं शूरवीर नहीं कितने ही समय तक इसका सेवन किया जाय किन्तु ताप्ति नहीं होती।जो राजा, महाराजा, चलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र, नरेन्द्र श्रादि इसमें फंसे हुए हैं वे अतृप्त अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। इससे निवृत्त होने पर ही सुख और संतोष प्राप्त होता है। इसमें फंसे रहने से प्राणियों को नरक और तिर्यश्च गति में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। .
(५) परिग्रह अध्ययन-परिग्रह का स्वरूप । परिग्रह के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं। लोम के वशीभूत होकर लोग कई प्रकार काअनर्थ करतेहैं । भवनपति से लेकर वैमानिक जाति तक के देवों में लोम की लालसा अधिक होती है। इसमें अधिक फंसने से सुख प्राप्त नहीं होता किन्तु संतोष से ही सुख की प्राप्ति होती है।
दूसरा श्रुतस्कन्ध (१) अहिंसा अध्ययन- इसमें अहिंसा का स्वरूप बतलाया गया है। अहिंसा सब प्राणियों का क्षेम कुशल चाहने वाली है। अहिंसा के दया, रक्षा, अभया, शान्ति प्रादि गुणनिष्पन्न ६. नाम