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श्री सेठिया जेन ग्रन्थमाला
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रणीय आर्य अथवा देवों का स्वामी ऐसे तीन अर्थ होते हैं और ये तीनों अर्थ जैन दृष्टि के अनुसार महावीर में सुसंगत भी हैं । आवश्यक सूत्र की हरिभद्रसूरि ( विक्रम संवत् नवम शताब्दी ) रचित वृत्ति में भगवान् महावीर का सविस्तर चरित्र लिखा हुआ है। उसमें कई जगह भगवान् को 'देवज - देवार्य' पद से संबोधित किया है और आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में भी भगवान् को 'देवा' नाम से सूचित किया है ।
उक्त नामों के अतिरिक्त वीर, त्रिशला तनय, त्रैशलेय, सिद्धार्थ - सुत आदि नाम भी मिलते हैं परन्तु उनका कोई विशेषार्थ नहीं है इस कारण उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है।
(ले० अध्यापक देवरदास दोशी । जनविद्या Vol 1 No 1 जुलाई )
७७१ - श्रामण्य पूर्विका अध्ययन की ग्यारह
गाथाएं
जैन धर्म में चारित्र को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है । क्योंकि चारित्र धारण किये बिना न तो परिणामों में दृढ़ता श्राती है और न किसी कार्य में सफलता प्राप्त होती है। इस लिए जैन शास्त्रों में चारित्र की बहुत महिमा बतलाई गई है । जितनी चारित्र की महिमा है उतनी ही उसकी श्रावश्यकता भी है और जितना वह आवश्यक है उतना ही वह कठिन भी है । इस लिए जिसकी आत्मा परम धैर्य्यवान् और सम्यग्दर्शन सम्पन्न है वही इसे धारण कर सकता है और वही इसका पालन कर सकता है।
चारित्र के अनेक भेद हैं। कामदेव को जीत लेने पर ही उन सब का सम्यक् पालन हो सकता है। कामदेव का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । मन श्रति चंचल है। उसको जीते विना कामदेव का जीतना कठिन है और कामदेव को जीते विना चारित्र