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श्री जैन सिद्धान्त वोल साह, चौथा भाग देव को तथा अपने पूर्वभव के मित्र को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा से यहाँ आये हैं। इस प्रकार संसार की विचित्रता और असारता का विचार करते हुए उन्हें विषय भोगों से घणा एवं संसार से वैराग्य हो गया । राज पाट छोड़ कर दीक्षा अंगीकार कर ली। केवलज्ञान केवलदर्शन उपार्जन कर अन्त में सिद्धपद प्राप्त किया। इनकी विस्तृत कथा ज्ञाता धर्म कथाङ्ग सूत्र के आठवें अध्ययन में है।
(४) एकत्व भावना- नमिराजर्षि ने भाई थी। मिथिला के महाराजा नमिराज दाह ज्वर की दारुण चेदना से पीड़ित हो रहे थे। उस के लिए महारानियाँ पावनगोशीर्ष चन्दन घिम रही थीं। हाथ में पहनी हुई चूड़ियों की परस्पर रगड़ से उत्पन्न होने वाला शब्द महाराज की वेदना में वृद्धि करता था। वह शब्द उनसे सहन नहीं हो सका इम लिए प्रधान मन्त्री को बुला कर उन्होंने कहा- यह शब्द मेरे से सहन नहीं होता, इसे बन्द कराओ । चन्दन घिसने वाली रानियों ने सौभाग्य चिन्ह स्वरूप हाथ में सिर्फ एक एक चूड़ी रख कर पानी की सब उतार डालीं। चूड़ियों के उतरते ही तत्काल शोर बन्द हो गया।
थोड़ी देर बाद नमिराज ने पूछा-क्या कार्य पूरा हो गया ? मन्त्री ने जवाब दिया-नहीं महाराज ! कार्य भी हो रहा है। . नमिराज ने पूछा-शोर चन्द कैसे हो गया १ मन्त्री ने ऊपर की हकीमत कह सुनाई । इस बात को सुनते ही नमिराज के हृदय में यह भाव उठा कि जहाँ पर दो हैं वहीं पर शोर होता है। जहाँ पर एक होता है वहाँ पर शान्ति रहती है । इस गूढ चिन्तन के परिणाम स्वरूप नमिराज को जातिस्मृति ज्ञान पैदा हो गण । शान्ति प्राप्ति के लिये समस्त बाह्य बन्धनों का त्याग कर एकाकी विचरने की उन्हें तीव्र इच्छा जागृत हुई। व्याधि शान्त होते ही वे योगिराज राजपाट और रानियों के भोग विलासों को बोड़ कर मुनि मन