Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Samaysundar, Haribhadrasuri, 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशवैकालिक - सूत्र. ब - अर्हद्ज्ञान क्षीराब्धि वीचिविं प्रांशित श्री शय्यंजवोकाररूपम् गुर्जरतापासहितं वचूरिसंवलितं, समयसुंदरोपाध्यायकृत दीपिकासनायं, श्रीहरिजप्रसूरि कृत बृहद्वृत्ति विराजितं. स्वमत्यनुसार शुद्ध करीने श्री सकशुदाबादनिवासि बाबुसादेव राय धनपति सिंहजी प्रतापसिंहजी बाहादुरनी श्राज्ञाथी श्री मुंबापुरीमध्ये. शा० जीमसिंह माणकाख्य श्रावकें प्रीतिपूर्वक ८८ निर्णयसागर " मुद्रायंत्रना अधिपति शेठ तुकाराम जावजी दादाजी पासे बपावीने प्रसिद्ध कीधुं. संवत १७५७ सने १५०० मिति कार्तिक शुद्ध पूर्णिमा भोमवासरे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनाः वज एवो होय डे के, कोइ पण मनुष्यना हाथश्री ज्यारे शुन्ज कृत्य थाय ने, त्यारे ते जो तेमनां मनमा अत्यंत खेद निवास करीने रहे . अने वीजानी न्युनता थवाथी तेऊना मनमा अत्यंत हर्ष उत्पन्न थाय . वली तेवा उर्जन माणसो वीजाऊना दोषो कहाडवामां अत्यंत श्रातुरता बतावे . अने बीजानां कल्याणरूप वृ. क्षने बेदवामां ते एक कुहाडानी गरज सारे . अने एवी रीतना असंख्य पुणुणोथी तेवा पुष्ट जनो नरेला होय . अने तेवा उर्जनो खरेखर घुवडसमान होय बे. अने ते हेतुथी तेवा उर्जनो खरेखर जिनवाणीरूपी सूर्यना तेजथी अंध वनीने विपर्यासपणाने पामशे, अने मनमा वेषबुद्धिथी ईर्षा लावीने ते अत्यंत खेद पाम्या करशे, श्रने तेटला माटे हुँ तेमनी क्षमा माय बुं. - ज्ञानना फेलावारूपी शुनकर्म उपार्जन करवामां प्रथम श्रेणिमां गणवालायक महान पुरुष के जेमणे फक्त लोकोना उपकारनेमाटेज पीस्तालीसे जैन आगमो मूल तथा तेजमांथी, जेऊनी टीका, दीपिका अवचूरि विगेरे जे अंगो मली शके बे, ते. सहित मुजित करीने ते उने प्रसिद्ध करवामां, पोतानुं अथाग अव्य खरची उद्योग करेलो . तेवा सजान माणसनी उत्पत्तिविषे किंचित् लखाण था जगोए लखवू. तेने हुँ उचितज मानुं बुं.. बंगाल इलाकामां बालोचर, मकुदाबाद, अथवा मुर्शीदाबाद एवां त्रण सुंदरनामथी उलखातुं एक सुंदर शेहेर श्रावी रहेढुं . के ज्यां कृष्णगढथी श्रावी निवास करनारो.जैशवंशरूपी नंदन वनमां कल्पवृदसरखा उगड नामना गोत्रवाला धर्म न्यायविवेक तथा विनय श्रादिक अत्यंत श्रेष्ठ गुणोथी शोनिता थएला, तेमज सर्व सत्यवादिर्जमां अग्रेसर, महाबुझिना जंडाररूप, दीन अने गरीब साधर्मी जाने तन, मन अने धनथी सहाय आपनार, अत्यंत मनोहर स्वनावे करीने युक्त; पुण्यना प्रत्नावरूपी चंजना प्रकाशथी सघली दिशाउने प्रकाशित करनारा राय " बुद्धसिंहजी बाबु" नामें श्रावक श्री जैनधर्म नपरें अत्यंत श्रझावाला हता. तेमनी सौनाग्यवती कुशलादे नामनी स्त्रीनी कुदियकी संवत् १३ माघवदी एकमने गुरुवारने दिवसे राय प्रतापसिंह नामे कुलदीपक सुपुत्रनो जन्म थयो. ते सर्व धनाढ्योमां शिरोमणिसरखा, जैनधर्मपर अत्यंत प्रीति राखनारा, तेमज दमावान, अने धर्म तथा अधर्मनो निर्णय करवामां शिरोमणि थया. तेमनी चतुर्थ पत्नीनुं नाम सौजाग्यवती महताबबार हतुं. तेमणे उशवंशमां मुक्तामणिसरखा, न्यायमार्गथी लक्ष्मीनु उपार्जन करनारा, तथा धर्म अर्थ श्रने काम, ए त्रणे पुरुषार्थोंने सफल करनारा, तथा प्राणीमात्र । प्रते. दयाऊपणायें करीने युक्त एवा अत्यंत तेजस्वी बे पुत्रोने जन्म प्राप्यो. तेउँमा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. मोटा पुत्रनुं नाम ፡ 'राय लक्ष्मीपति सिंहजी बहादुर " तथा जेमणे श्रवा श्रागम ग्रंथो उपावी प्रसिद्ध करवामां उद्यम कर्यो, ते कनिष्ट पुत्रनुं नाम " रायधनपति सिंहज बहादुर " बे. ए बन्ने उत्तम गृहस्थो उत्तम गुणोना जंडाररूप तथा प्राणिमाना कल्याणमां अत्यंत उत्सुक थएला बे. माटे जिनधर्मपर अत्यंत श्रद्धा राखनारा एवा ते उत्तम पुरुषे या दशवैकालिक नामनो अति उत्कृष्ट श्रगम ग्रंथ बपावी प्रसिद्ध करी खरेखर पोतानुं नाम सफल कर्यु बे. अने एवां पारमार्थिक कार्यो ते जाग्यशाली पुरुषने हाथे दिन प्रतिदिन या एवी श्रमारी वारंवार विज्ञापना बे. दशवैकालिकसूत्रमा कर्ता श्री शय्यंनवस्वामी बे. तेमणे या सूत्र शामाटे रच्युं ? तेनो संबंध नीचे प्रमाणे बे. ज्यारे शय्यंजव स्वामीए दीक्षा लीधी, त्यारे तेमनी स्त्री गर्भवंती हती, त्यारे स्वजनोए तेणीने पूब्युं के, तारा उदरमां कई गर्न जेवो संभव बे, त्यारे तेणीए प्राकृत भाषामां कयुं के, " मणयं < एटले किंचित्मात्र d. अनुक्रमे तेणीए एक मनोहर पुत्रने जन्म प्राप्यो, तथा तेमनी मातुश्रीए कहेला वचन परथी तेनुं " मनक " एवं नाम राखवामां श्रायुं पढी अनुक्रमे ते मनक ज्यारे आठ वर्षनो थयो त्यारे एक दहाडो तेथे तेनी माताने पूब्युं के, हे माताजी, मारा पिताजी क्यों बे ? त्यारे माताए कहुं के, हे पुत्र ! तारा पिताजीए तो चारि अंगीकार कर्यु बे. ते सांजली मनकने पोताना पिताजी पासे जवानी इछा 5. हवे ते समये श्री शय्यं जवखामी चंपानगरीमां बिराजता हता, अने ते खबर मनकने मलवाथी ते पण त्यां पहोंच्यो. ते वखते श्री शय्यंजवस्वामी स्थंडिल जता हता अ मार्गमां तेणे मनकने जोयो. त्यारे तेमणे पूब्युं के तुं कोण बे ? त्यारे तेणे पोतानो सर्व वृत्तांत तेमने कही संजलाव्यो. त्यारे शय्यंजव स्वामिए तेमने फरीने पूब्युं के, तुं श्रहीं शा माटे आव्यो बे ? त्यारे मनके कयुं के मारे दीक्षा लेवी ठे आप जाता हो तो कहो के, ते श्रमारा पिताजी शय्यंनवस्वामी क्यां बे ? त्या श्राचार्यजी एकयुंके, ते तारा पिता ने हुं कई जिन्न नथी, माटे तुं मारी पासे दीक्षा ले ? मनके ते वात कबुल करवाथी श्राचार्यजीए तेमने त्यांज दीक्षा पी. तथा पढी तेमने साथ लेइ श्राचार्य महाराज उपाश्रये श्राव्या, तथा ज्ञानवलथी जाएयुं के, श्रा मनकनुं श्रायुष्य फक्त हवे व मासनुंज वाकी बे; माटे आटली टुक मुदतमां श्रा मनक कृतार्थ शी रीते यह शके ? बेवढे तेमणे विचायुं के, कारण पड्ये चौदपूर्वधारी मुनि पूर्वोमांश्री सूत्रनो उद्धार करे बे, तो मने पण या समये प्रयोजन पड्यंबे, तो हुं पण तेम करूं. एम विचारि श्री शय्यंनव मुनिए पूर्वोमां दश अध्ययननो उद्धार कर्यो; तथा ते दश अध्ययन जणवामां मनकने वरो Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रस्तावना. बर ब मास लाग्या. तथा ब मास संपूर्ण थतांज मनके समाधिमा रही काल कर्यो, त्यारे श्री शय्यंजव श्राचार्यना नेत्रोमांथी हर्षाश्रुनी जलधारा बुटी त्यारे यशोजा दिक साधु ते श्रुनुं कारण पूब्याथी श्राचार्य महाराजे मनकनो सर्व वृत्तांत क ही संजलाव्यो. ते सांजली तेउने मनमां पश्चात्ताप थयो के, अहो ! आपणे गुरुपुत्र मनकनी सेवा करी शक्या नहीं. तथा पढी संघना आग्रहथी श्री शय्यंजवस्वामी ए उधरेला ते दशे अध्ययनो प्रगट राख्यां, अने एवी रीते विकाले ते दश अध्ययननी गुंथणी करवामां आवेली होवाथी ते सूत्रनुं नाम “ दशवैकालिक ” राखवामां श्राव्यं a. तथा उपरनी बे चूलिकार्ड तो श्रीमंधरस्वामीए संघने नेट तरिके मोकलेली बे, ते वात प्रसिद्धज बे. एवी रीते श्रा दशवैकालिक सूत्रनी उत्पत्ति थइ बे. श्री दशवैकालिकसूत्रमा रहेलां दश अध्ययनो तथा बन्ने चूलिका अवश्य साधुने ध्यानमा राखवा लायक बे; अने ते ध्यानमा राख्याथी तेमने तेमना अमूल्य चारित्राचारमा अतिचार दोष लागतो नथी. यहीं ते विषेनुं वधारे व्यान नहीं करतां श्र सूत्र श्राद्यथी ते अंतसुधि वांची जवानी तथा ते ध्यानमा राखवानीज - मो सर्वने लामण करीए बीए. श्री सूत्रपर चौदसोने चम्मालीस ग्रंथना कर्ता महान आचार्य श्री हरिजन सूरिजीए शिष्यबोधिनी नामनी टीका तथा श्रवचुरी रचेली बे. तथा खरतर गछमां थला युग प्रधान श्री जिनचंद्र सूरिना शिष्य श्री सकलचंद्रगणिना शिष्य श्री समय सुंदर गणिए विक्रम संवत १६०१ मां दीपिका नामनी शब्दार्थ वृत्ति पण बनावी a. तेथी श्रमो पण यथामति संशोधन करी करावीने ते हारिनडी टीका, यवचूरि तथा समयसुंदरजीनी दीपिका टीका मूलसहित था ग्रंथमां बापी बे. तेम मूल सूत्रनो गुजराती अर्थ करीने पण या ग्रंथमां बाप्यो बे. या ग्रंथ घणोज उपयोगी होवा बाप प्रसिद्ध कर्यो बे. बेवढे तेमां मूल सूत्रनो संपूर्ण पाठ पण दाखल करवामां आव्यो बे. प्रमादवशथी श्रा ग्रंथमां जे कई बापतां करतां दोष रह्यो होय ते " मिठामि डुक्कडं. " श्रावक. भीमसिंह माणेक. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक. विषय. अनुक्रमणिका. १ मंगलाचरण. २ डुमपुष्पिकाख्य प्रथमाध्ययनम् . ३ श्रावण्य पूर्वकाख्य द्वितीयाध्ययनम ४ कुलाचाराख्य तृतीयाध्ययनम् ५ षट्जीवनिकाख्य चतुर्थाध्ययनम् . ६ पिंडैषणाख्य पंचमाध्ययने प्रथमोद्देशः ७ पिंडेपणाख्य पंचमाध्ययने द्वितीयोद्देशः 5 महाचार कथाख्यषष्टाध्ययनम् . ए वाक्य शुद्धयाख्य सप्तमाध्ययनम् . १० श्राचार प्रविधि नामाष्टमाध्ययनम्. ११ विनयसमाध्याख्य नवमाध्ययने प्रथमोद्देशः १२ विनय समाध्याख्यनवमाध्ययने द्वितीयोद्देशः १३ विनय समाध्याख्यनवमाध्ययने तृतीयोदेशः १४ विनयस माध्याख्यनवमाध्ययने चतुर्थोद्देशः १५ सजिनामदशमाध्ययनम्. १६ दशवैकालिके प्रथमाचूलिका. १७ दशवैकालिके द्वितीयाचूलिका. १० दशवैकालिक मूल सूत्रपाठः .... .... .... .... 6030 **** .... .... .... पृष्ठ. १ ३ ८१ २०७ १४२ হ४ ३२६ ३६६ ४२४ ४८० ५३७ Ման այս ամա ६१० ६३८ ६७० १०१ Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीता सर. ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह. नाग तेतालीसमा. ॥ अथ ॥ श्रीदशवकालिकम् गुर्जरजाषासहितम् अवचूरिसंवलितं समयसुन्दरोपाध्यायकृतदीपिकासनाथ श्रीहरिजलसूरिकृतबृहकृत्तिविराजितं च प्रारभ्यते। धम्मो मंगलमुकि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो॥१॥ ॥ अथ श्रीदशवैकालिक सूत्रनो बालावबोधप्रारंज ॥ (तेमां प्रथम मङ्गलाचरण.) ॥ सर्वान्तरायशमनं, सर्वमङ्गलदायकम् ॥ ॥ सर्वजीवावनकर, सर्वज्ञ नौमि वोधये ॥१॥ जेम कल्पवृक्ष उपरथी पडेला पुष्पोने एकत्र करीने देवता तेमनी, माला गूंथे जे, तेम कल्पवृक्ष सरखा तीर्थंकरोना मुखथकी प्रकट थयेलां, पुष्प सरखां शुद्ध, प्रमादा दिदोषरहित एवां अर्थरूप वचनोने श्रवण करीने गणधरो तेमनां सूत्रो रचे वे. श्रा वात जैन आम्नायमां सुप्रसिद्ध बे. ते माहेढुं दशवैकालिक सूत्र पण श्री सिद्धांनवाचार्ये नव्य जीवोना शारीरक तथा मानसिक दुःख मूकाववाने माटे तथा पोताना पुत्र मनकने प्रतिबोधवाने अर्थे रच्यु . एनुं उपर कहेलु नाम पाडवानुं कारण ए में के, दश विकादें कडं, माटें ए सूत्रने दशवकालिक एवे नामें कहे . हवे.' तेमां प्रथम सिऊंनवाचार्य अनीष्ट स्मरणरूप मंगल एक गाथायें करी कहे ठे. वली ते मांगलिक जे वे, ते अन्यत्र पांच प्रकारनां कहां ठे. तेमां प्रथम पुत्रादि जन्मरूप, ते शुद्ध मांगलिक, वीजुं गृहादिरचनारूप ते अशुद्ध मांगलिक, त्रीजुं विवाहमहोत्सवप्रमुख ते चमत्कारमांगलिक, चोथु धनादिक ते क्षीणमांगलिक अने Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. पांचमुं बकायजीवरक्षणरूप अर्थात् धर्मरूप ते सदामांगलिक ले. तो हवे पांच प्रकारनां मांगलिक कह्यां, तेमां धर्म जे , ते सदा मांगलिक बे,तेमाटें श्रीसिनवाचायें आ दशवैकालिक नामक ग्रंथनी आदिमां धर्मप्रशंसारूप मंगल कमु . वली कोश्क स्थलें मंगल जे जे ते त्रण प्रकारनुं पण कडं . तेमां प्रथम ग्रंथारंन्ने ग्रंथनिर्विघ्नता माटें जे अनीष्ट देवतादिकने नमस्कार करवो, ते आदिमंगल, बीजुं ग्रंथमध्ये जे नमस्कार करवो, ते मध्यमंगल अने ग्रंथने अवसाने शिष्यपरंपरा चालवाने माटें जे नमस्कार करवो, ते अवसानमंगल जाणवू. तेम जोतां ए दशवैकालिक नामक शास्त्रनुं “धम्मो मंगलं" ए आदि मंगल, “नाणदसण संपुन्नं," ए मध्य मंगल अने “ निकम्ममाणा श्य बुद्ध वयणे" ए अवसान मंगल जाणवू. हवे धम्मो मंगल मित्यादि प्रथम सूत्रनो अर्थ लखियें लियें. (अहिंसा के) प्रा. णातिपातविरति अर्थात् सर्वे जीवोनी हिंसा न करवी ते, तथा (संजमो के०) संयमः एटले आश्रवनिरोधते पांच इंजियनो निग्रह, चार कषायनोजय अनेत्रण दंगथी विरति ए सत्तर प्रकारनो संयम,अने (तवो के०) तपः एटले “अणसणमूणोयरिया" इत्यादि वे गाथामां कहेवू बार प्रकारनुं तप ए रूप (धम्मो के०) धर्मः एटले कुगतिने प्राप्त थनारा जीवोने धरीने सन्मार्गे पहोंचाडे ते धर्म ते ( मंगलमुकिळं के) उत्कृष्टं मंगलं, एटले सर्व मंगलमा उत्कृष्ट मंगल . ए धर्मने उत्कृष्ट मंगल कहेवार्नु कारण कहे जे के, (जस्स के ) यस्य एटले जे पुरुष- (धम्मे के ) धर्मे एटले पूर्वोक्त वीतरागनाषित धर्मने विषे ( सया के ) सदा एटले निरंतर ( मणो के०) मनः एटले मन . ( तं के०) तं एटले ते पुरुषने ( देवा वि के ) देवा अपि एटले जवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिक ए चार निकायना देवता पण ( नमसंति के ) नमस्यंति एटले नमस्कार करे , तो राजादिक नमस्कार करे, तेमां तो शीज नवा? अर्थात् धर्म जे , ते उत्कृष्ट मंगल के एम सिक थयुं ॥१॥ ॥ अथ श्रीदशवैकालिकावचूरिः प्रारच्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ संहितादिः षड्विधा व्याख्या।दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलम् । संयम आश्रवनिरोधः। तापयत्यनेकनवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः १ . ॥ अथ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायकृतदीपिका प्रारच्यते ॥ . ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ ॥ श्रीजिनेश्वराय नमः ॥ स्तम्जनाधीशमानम्य, गणिः समयसुन्दरः॥ दशवैका Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । लिके सूत्रे, शब्दार्थं लिखति स्फुटम् ॥ १ ॥ धर्मो दुर्गतिप्रपतन्तुधारणालदण उत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलं वर्तते । को धर्म इत्याह । श्रहिंसा, न हिंसा अहिंसा जीवदया प्राणातिपात विर तिरित्यर्थः । पुनः संयमः पञ्चाश्रव विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः, चतुःकषायजयः, दएकत्रय विरतिश्चेति सप्तदशनेदः । इत्येवं रूपः । पुनस्तपः, " प्रणसणमूगोरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चार्ज || कायकिलेसो संली - या य बझो तवो हो 3 ॥ १ ॥ पायवित्तं वि, वेत्रावञ्चं तदेव सझाई ॥ नाणं उस्सग्गो विअ, - विनंतर तवो होई ॥ २ ॥ इति बाह्याभ्यन्तररूपं द्वादशधा । अथ धर्मकरणे माहात्म्यमाह । देवा अपि । अपिः संभावने । तं धर्मकारकं जीवं नमस्यन्ति, मनुष्यास्तु सुतराम्। तं कम् । यस्य धर्मे धर्मकरणे सदा मनः अन्तःकरणम् । इति प्रथमगाथार्थः ॥१॥ ॥ अथ श्रीहरिभद्रसूरिकृत बृहद्वृत्तिः प्रारज्यते ॥ ॥ तत्र प्रथमाध्ययनम् ॥ ॥ जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् ॥ || विमलासविरहित - स्त्रिलोक चिन्तामणिर्वीरः ॥ १ ॥ हार्थतोऽप्रणीतस्य सूत्रतो गणधरोप निवडपूर्वगतोद्धृतस्य शारीरमानसा दिकटुकडुःखसंतान विनाशदेतोर्देशकालिका निधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते । तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकट विषयैवेष्टदेवतानमस्कारद्वारेणाशेषविघ्नविनायकापोह समर्थं परममङ्गलालयामिमां प्रतिज्ञागाथामाद निर्युक्तिकारः ॥ सिद्धिगमुवगयाणं, कम्मविसुद्धा सब सिद्धाणं ॥ नमिजणं दसका लिय- णिद्युतिं कित्तयिस्सामि ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ सिद्धिगतिमुपगतेच्यो नत्वा दशकालिक निर्युक्तिं कीर्तयिष्यामीति क्रिया । तत्र सिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिलोंकायक्षेत्रलक्षणा । तथा चोक्तम् । “ इह वोंदिं चश्त्ताणं, तब गंतूण सिनइ ” । गम्यत इति गतिः । कर्मसाधनम् । सिद्धिरेव गम्यमानत्वाङ्गतिः सिद्धिगतिस्तामुप सामीप्येन गताः प्राप्तास्तेभ्यः सर्कललोकान्तक्षेत्र प्राप्तेभ्य इत्यर्थः । प्राकृतशैल्या चतुर्थ्यर्थे षष्ठी । यथोक्तम् । बडी विजत्तीए नई ची । तत्र एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका पि तडुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तस्वरूपा नवन्त्यत आह कर्मविशुद्धेभ्यः । क्रियते इति कर्म ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तेन विशुद्धा वियुक्ताः कर्म विशुद्धाः कर्मकलङ्करहिता इत्यर्थः । तेज्यः कर्मविशुद्धेभ्यः । आह । एवं तर्हि वक्तव्यं न सिद्धिगतिमुपगतेन्योऽव्य निचारात् । तथाहि । कर्मविशुद्धाः सिद्धिगतिमुपगता एव जवन्ति । न १:-" शुभ्रलोकान्त - " इति पाठान्तरम् । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. थनियतक्षेत्र विनागोपगतसिझप्रतिपादनपरउर्नयनिरासार्थत्वादस्य। तथाचाहुरेके "रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम् ॥ सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते॥" इत्यवं प्रसङ्गेन । ते च तीर्थादिसिझनेदादनेकप्रकारा नवन्ति । तथाचोक्तम् । तिनसिझा । अतिवसिका।तिबगरसिका। अतिबगरसिका । सयंबुद्धसिद्धा । पत्तेयबुद्धसिझाावुझवोहियसिसा । श्वीलिंगसिका। पुरिसलिंगसिका। नपुंसगलिंगसिका। सलिंगसिझा । अन्नलिंगसिझा । गिहिलिंगसिझा । एगसिका । अणेगसिझा । इत्यत श्राह । सर्वसिजेन्यः । सर्वे च ते सिद्धाश्चेति समासस्तेन्यः । अथवा " सिद्धिगतिमुपगतेन्यः” इत्यनेन सर्वथा सर्वगतात्मसिझपदप्रतिपादनपरपुर्नयस्य व्यवछेदमाद । तथाचोक्तमधिकृतनयमतानुसारिनिः । “ गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्तप्रकृतिक्रियाः॥ मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः ॥” व्यवच्छेदश्चैतेषां सामीप्येन सर्वात्मना सिडिगतिगमनानावात्। “ कर्मविशुऽन्यः” इत्यनेन तु सकर्मकाणिमादिविचित्रैश्वर्यवसिद्धिप्रतिपादनपरस्येति । उक्तं च प्रक्रान्तनयदर्शनानिनिविष्टैः । अणिमाद्यष्टविधं प्रा-प्यैश्वर्यं कृतिनः सदा ॥ मोदन्ते सर्वनावशा-स्तीर्णाः परमास्तरम् ॥ इत्यादि । व्यवछेदश्चैतेषां कर्मसंयोगेन अनिष्ठितार्थत्वावस्तुतः सिद्धत्वानुपपत्तेरिति । “सर्व सिद्धेन्यः" इत्यनेन तु नगथैव सर्वथा अद्वैतपदसिम्प्रतिपादनपरस्येति । तथाचोक्तं प्रस्तुतनयानिप्रायमतावलम्बिनिः॥ एक एव हि नूतात्मा, नूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्डवत् ॥ व्यवछेदश्चास्य सर्वथा अद्वैते वहुवचनगर्नसर्वशब्दाजावात् सिद्धिगतिगमनानावात् । नत्वा प्रणम्येत्यनेन तु समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तवादासाधुत्वमाह। तत्र क्त्वाप्रत्ययार्थानुपपत्तेः। तत्र नित्येकान्तवादे तावदात्मन एकान्तनित्यत्वादप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वन्नावत्वा भिन्नकाल क्रियाघ्यकर्तृत्वानुपपत्तेः । क्षणिकैकान्तवादे चात्मन उत्पत्तिव्यतिरेकेण व्यापारानावा निन्नकाल क्रियाघ्यकर्तृत्वानुपपत्तिरेवेत्यलं विस्तरेण । गमनिकामात्रमेवैतदिति । नवति च चतुर्थ्यप्येवं नमन क्रियायोगेऽधिकृतगाथासूत्रान्यथानुपपत्तेः । श्राप्तश्च नियुक्तिकारः। पित्रे सवित्रे च सदा नमामीत्येवमादिविचित्रप्रयोगदर्शनाच । कर्मणि वा पटी । सर्वसिकेन्यो नत्वा किमित्याह । दशकालिक नियुक्ति कीर्तयिष्यामि । तत्र कालेन निवृत्तं कालिकं प्रमाणकालेनेति नावः। दशाध्ययनन्नेदात्मकत्वादशप्रकारं कालिकं प्रकारशब्दलोपाद्दशकालिकं । विशव्दार्थ तूत्तरत्र व्याख्यास्यामः । तत्र नियुक्तिरिति । निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्तिः परि पाट्या योजनं निर्युक्तयुक्तिरिति वाच्यम् । युक्तशब्दलोपानियुक्तिस्तां विप्रकीर्णार्थयो- जनां व्याख्यास्यामि कीत विप्यामीति गाथार्थः । शास्त्राणि चादिमध्यावसानमगल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । Ա जाञ्जि जवन्तीत्यत श्राह ॥ आईमनवसाणे, काउं मंगलप डिग्गहं विहिणा ॥ नामाइमंगलं पिय, चहिं पनवेऊणं ॥ २ ॥ व्याख्या || शास्त्रस्यादौ प्रारम्ने मध्ये मध्यविजागे अवसाने पर्यन्ते । किं कृत्वा । मङ्गलपरिग्रहम् । कथम् । विधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण | आ | किमर्थं मङ्गलत्रयपरिकल्पनम् । इत्युच्यते । इहा दिमङ्गलपरिग्रहः सकल विघ्नापोहेना जिल पितशास्त्रार्थपारगमनार्थम् । तत्स्थिरीकरणार्थं च मध्यमङ्गपरिग्रहः । तस्यैव शिष्यत्र शिष्य संतानाव्यवच्छेदायावसान मङ्गलपरिग्रह इति । श्रत्र चापरिहारावावश्यक विशेष विवरणादवसेयौ । इति । सामान्यतस्तु सकलमपीदं शास्त्रं मङ्गलं निर्जरार्थत्वात्तपोवत् । नचासिद्धो देतुः । यतो वचन विज्ञानरूपं शास्त्रं ज्ञानस्य च निर्जरार्थता प्रतिपादितैव । यत उक्तं च " जं शेर कम्मं, खवेश वयाहिं वासकोड हिं ॥ तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेश् ऊसासमत्तेणं ” इत्यादि । श्ह चा दिमङ्गलं डुमपुष्पिकाध्ययनादि धर्मप्रशंसाप्रतिपादकत्वात्तत्स्वरूपत्वा दिति । मध्यमङ्गलं तु धर्मार्थकामाध्ययनादि प्रपञ्चाचारकथाय निधायकत्वात् । चरममङ्गलं तु जिवध्ययनादि निकुगुणाद्यवलम्वनत्वादित्येवमध्ययन विभागतो मङ्गलत्रय विजागो निदर्शितः । अधुना सूत्रविभागेन निदर्श्यते । तत्र चादिमङ्गलम् " धम्मोमंगलम् ” इत्यादि सूत्रम् । धर्मोपलक्षितत्वात्तस्य च मङ्गलत्वादिति । मध्यममङ्गलं पुनः पाणदंसत्यादि सूत्रम् । ज्ञानोपल कितत्वात्तस्य च मङ्गलत्वादिति । अवसानमङ्गलं तु “ णिकमाए " इत्यादि निकुगुण स्थिरीकरणार्थं विविक्तचर्या निधायकत्वात् निकुगुणानां च मङ्गलत्वादिति । ह । मङ्गलमिति कः शब्दार्थः । उच्यते । अगिरगिल गिव गिमगीति दएकधातुरस्येदितोनुम् धातोरिति नुमि विहिते उणादिकालच्प्रत्ययान्तस्य अनुवन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमिति रूपं जवति । मङ्गयते हितममङ्गलम् । तेऽधिगम्यते साध्यत इति यावत् । अथवा मङ्ग इति धर्मानिधानम् |ला दाने अस्य धातोर्म उपपदे “ श्रतोऽनुपसर्गे कः " इति कप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते “आतो लोप इटि च कृति" इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति जवति । मङ्गं लातीति मङ्गलं । धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः । अथवा मां गालयति नवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः । तच्च नामादिचतुर्विधम् । तद्यथा - नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं द्रव्यमङ्गलं नावमङ्गलं चेति । एतेषां च स्वरूपमावश्यकविशेषविवरणादवसेयमिति । श्रमुमेव गाथार्थमुपसंहरन्नाह नियुक्तिका - रः ॥ नामा मंगलं पिय, चविहं पन्नवेऊणं ॥ २ ॥ नामादिमङ्गलं चतुर्विधमपि प्रज्ञाप्य प्ररूप्येति गाथार्थः । तत्र समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वाप्रत्यय विधानात् । प्रज्ञाप्यं किमतश्राह ॥ सुयणाणे अणुर्जगे - पाहिगयं सो चविहो होई || चरणकरणा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. णुउँगे, धम्मे काले य दविए य ॥ ३॥ व्याख्या ॥ श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं तस्मिन् श्रुतज्ञानेऽनुयोगेनाधिकृतमनुयोगेनाधिकार इत्यर्थः । श्यमत्र नावना। जावमङ्गलाधिकारे श्रुतज्ञानेनाधिकारः। तथाचोक्तम् । एवं पुण अहिगारो, सुयणाणेणं जर्ड सुएणं तु ॥ सेसाणमप्पणो वि य, अणुचेंगे पश्व दिहतो ॥ तस्य चोद्देशादयः प्रवर्तन्ते इति । उक्तं च 'सुअणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुउँगो पवत्त ॥' तत्रादावेवोदिष्टस्य समुदिष्टस्य समनुज्ञातस्य च सतः अनुयोगो जवतीत्यतो नियुक्तिकारेणाप्यन्यधायि श्रुतझानेऽनुयोगेनाधिकृतमिति । सोऽनुयोगश्चतुर्विधो जवति । कथम्। चरणकरणानुयोगः।चर्यत इति चरणं व्रतादि । यथोक्तम् ॥“ वय (ए) समणधम्म (१०) (१७) वेया-वच्चं (१०) च बंजगुत्ती (ए)॥णाणादितियं (३) तव (१५) को-ह (४) निग्गहो होइ चरण मयं ॥” क्रियते इति करणं पिएमविशुध्यादि । उक्तं च॥"पिंमविसोही (४) समिइं, (५) नावण (१२) पडिमा (१५) य इंदिय निरोहो (५)॥ पडिलेहण (२५) गुत्ती (३),अजिग्गहा (४) चेव करणं तु॥” चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः । अनुरूपो योगोऽनुयोगः । सूत्रस्यार्थेन साईमनुरूपः संबन्धो व्याख्यानमित्यर्थः। एकारशब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमाद्वितीयान्तोऽपि अष्टव्यः । यथा “कयरे आग दित्तरूवे" इत्यादि।धर्म शतिधर्मकथानुयोगः। काले चेति कालानुयोगश्च गणित ति गणितानुयोगश्चेत्यर्थः। अव्यश्चेति अव्यानुयोगश्चातत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगः । कृषिजाषितान्युत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः । सूर्यप्रज्ञप्त्यादीनि गणितानुयोगः । दृष्टिवादस्तु अव्यानुयोगः । इति । उक्तं च “ ॥ कालियसुअंच इसिजा-सिया तश्या य सूरपन्नत्ती ॥ सबो यः दिहिवा, चब होश अणुऊँगो ॥ इति गाथार्थः॥श्ह चार्थतोऽनुयोगो विधा।अपृथक्त्वानुयोगः पृथक्त्वानुयोगश्च। तत्रापृथक्त्वानुयोगो यत्रैकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्तेऽनन्तगमपर्यायार्थकत्वात्सूत्रस्य । पृथक्त्वानुयोगश्च यत्र क्वचित्सूत्रे चरणकरणमेव । क्वचित्पुनर्धर्मकथैवेत्यादि । अनयोश्च वक्तव्यता “ ॥ जावंति अङवश्रा, अजापुहत्तं कालियाणुउंगस्स । ते णारेणपुहत्तं, कालियसुयदिहिवाए य ॥” इत्यादेर्यन्थादावश्यक विशेषविवरणाच्चा-. वसेयेति । श्ह पुनः पृथक्त्वानुयोगेनाधिकारः। तथा चाह नियुक्तिकारः ॥ अपहुत्तपहुत्ता, निहिसिलं एब होश अहिगारो ॥ चरणकरणाणुचेंगे-ण तस्स दारा श्मे । हुँति ॥ ४॥ व्याख्या ॥ अपृथक्त्वपृथक्त्वे लेशतो निर्दिष्टवरूपे निर्दिष्टस्य चात्र प्रक्रमे नवत्यधिकारः । केन।चरणकरणानुयोगेन।तस्य चरणकरणानुयोगस्य धाराणि प्रवेशमुखान्यमूनि वदयमाणलक्षणानि नवन्तीति गाथार्थः ॥ निकेवेगनिरु-तविहिपवित्ति य केण वा कस्स ॥ तदारनेयलरकण-तयरिदपरिसा य सुत्तो ॥५॥ व्या Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके प्रथमाध्ययनम् । 1 1 66 ख्या ॥ अस्याः प्रपञ्चार्थ आवश्यक विशेष विवरणादवसेयः । स्थानाशून्यार्थं तु संदेपार्थः प्रतिपादित इति । केिवेति । अनुयोगस्य निदेपः कार्यः । तद्यथा नामानुयोग इत्यादि । गति । तस्यैव एकार्थकानि वक्तव्यानि । तद्यथा अनुयोग इत्यादि । निरुतति । तस्यैव निरुक्तं वक्तव्यम् । अनुयोजनमनुयोगः । अनुरूप वा योग इत्यादि । विहिति । तस्यैव विधिर्वक्तव्यो वक्तुः श्रोतुश्च । तत्र वक्तुः ॥ "सुत्तो खलु पढमो, बीर्ड पितिमी सिजणि ॥ त य निरवसेसो, एस विही होइ अणुगे ॥ " श्रोतुश्चायम् ॥ सूर्य हुंकारं वा, बाढकारप डिपुछवीमंसा ॥ तत्तो पसंगपारा - यणं च परि निवसत्तम ए ॥" पवित्तियति ॥ अनुयोगस्य प्रवृत्तिश्च वक्तव्या सा चतुर्भङ्गानुरेण विज्ञेयाः । उक्तं च । पिच्चं गुरू पमायी, सीसा विय गुरूण सीसगा तहय ॥ अपमाथि गुरू सीसा, पमा यो दोव पायी ॥ पढमे नहि पवित्ती, बीए त य पछि थोवं वा ॥ चिठि पवित्ती, एवं गोणीय दिहंतो ॥ अप्पहुया उ गोणी, रोव य दोद्धा समुदोद्धुं ॥ खीरस्स कर्ज पसवो, जइ विय बहुखी रगा साज ॥ वितिए विवि खीरं, त विद्यr a as वि ॥ श्रचउछे खीरं, एसुवमा यरियसीसे ॥ गोणी सरितो उः गुरू, दोद्धा इव साहुणो समरकाया ॥ खीरं पवित्ती, नहि तहिं पढ़मविति ॥ श्रहवा विमाण, मवि किं वि उ जोगिणो पवत्तंति ॥ तइए सारं - तंमि, होद्य पवित्ती गुणं वा ॥ अपमाई जब गुरू, सीसा विय विषयगहसंजुत्ता ॥ घयिंत पवित्ती, खीरस्सव चरिमनंगंमि ॥ केणत्ति । केनानुयोगः कर्तव्य इति वक्तव्यम् । तत्र य इयंभूत आचार्यस्तेन कर्तव्यस्तद्यथा ॥ "देसकुलजारूवी, संघ जुणासी ॥ श्रविको अमाई, थिरपडिवाडी गहियवक्को ॥ जियपरिसो जियनिदो, मनो देसकालनावन्नू ॥ आसन्नलयपनो, गाणा विहदेसनासन्नू ॥ पंचविहे श्रायारे, जुत्तो सुतवतनय विहि ॥ आहरणकारण - एय निजणो गाहणाकुसलो ॥ ससमयपरसमय विऊ, गंजीरो दित्तिमं सिवो सोमो ॥ गुणसयक लिजे जुग्गो, पवयणसारं परिकहिलं ॥" श्रासामर्थः कल्पादवसेयः ॥ प्राथमिकदशकालिकव्याख्याने तु लेशत उच्यते । श्रर्यदेशोत्पन्नः सुखाववोधवाक्यो जवतीति देशग्रहणम् । पैतृकं कुलम् । विशिष्टकुलोद्भवो यथोदितनारवहने न श्राम्यति । मातृकी जातिः । तत्संपन्नो विनयान्वितो नवति । रूपवानादेयवचनो नवति । श्रकृतौ च गुणा वसन्ति । संहननधृतियुक्तो व्याख्यानतपोऽनुष्ठानादिषु न खेदं याति । अनाशंसी न श्रोतृभ्यो वस्त्राद्याकाङ्क्षति । श्रविकठनो बहुनापी न वति । श्रमान शाक्येन शिष्यान् वादयति । स्थिरपरिपाटी । स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रं न गलति । गृहीतवाक्योऽप्रतिघातिवचनो जवति । जितपरिषत् परप्रवादि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. दोज्यो न जवति । जितनिरोऽप्रमत्तत्वाट्याख्यानरतिर्नवति, प्रकामनिकामशायिनश्च शिष्यांश्चोदयति । मध्यस्थः संवादको जवति । देशकालनावको देशादिगुणानवबुध्याप्रतिबको विहरति देशनां च करोति । आसन्नलब्धप्रतिनो जात्युत्तरादिना निगृहीतः प्रत्युत्तरदानसमर्थो नवति । नानाविधदेशनाषाविधिज्ञो नानादेशजविनेयप्रत्यायनसमर्थो नवति । ज्ञानादिपञ्चविधाचारयुक्तः श्रद्धेयवचनो नवति । सूत्रार्थोंजयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपको नवति । उदाहरणहेतुकारणनयनिपुणस्तम्यान जावान् सम्यक् प्ररूपयति नागममात्रमेव । ग्राहणाकुशलः शिष्याननेकधा ग्राहयति । वसमयपरसमय वित्सुखं परमतादेपमुखेन स्वसमयं प्ररूपयति । गम्नीरो महत्यप्यकार्ये न रुष्यति । दीप्तिमान् परप्रवादिदोनमुत्पादयति । शिवो मारिरोगाद्युपअवविघातकृनवति । सौम्यः प्रशान्तदृष्टितया सकलजनप्रीत्युत्पादको नवति । चंचूत एव गुणशतकलितो योग्यः प्रवचनमागमस्तस्य सारस्तं कथयितुमिति । यतोऽसावनेकजव्यसत्त्वप्रबोधहेतुर्नवति । उक्तं च ॥ “ गुणसुअिस्स वयणं, घयमहुसितो व पाव नाश् । गुणहीणस्स न सोहर, णेहविहीणो जह पश्वो ॥” तथा चान्येनाप्युक्तम् । “वीरं नाजनसंस्त्रं, न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति ॥ श्रावल्गमानशिरसो, यथा हि मातृस्तनात्पिबतः॥ तद्वत्सुनाषितमयं, दीरं उःशीलनाजनगतं तु ॥ न तथा पुष्टिं जनयति, यथा हि गुणवन्मुखात्पतितम् ॥ शीतेऽपि यंत्र लब्धो, न सेव्यतेऽग्निर्यथा स्मशानस्थः ॥ शील विपन्नस्य वचः, पथ्यमपि न गृह्यते तहत ॥ चारित्रेण विहीनः, श्रुतवानपि नोपजीव्यते सनिः॥ शीतलजलपरिपूर्णः, कुलजैश्चमालकूप श्व ॥” कस्सत्ति । कस्यानुयोग इति वक्तव्यम्। तत्र सकलश्रुतज्ञानस्याप्यनुयोगो जवति। अमुं पुनःप्रारम्नमाश्रित्य दशकालिकस्येति। अत्राह। ननु “दसकालियनिति कित्तयिस्सामित्ति” अस्मादेव वचनतः प्रकृतहारार्थस्यावगतत्वात्तउपन्यासोऽनर्थक इति । न, अधिकृतनिदेपादिछारकलापस्याशेषश्रुतस्कन्धविषयत्वातहलेनैव च नियुक्तिकारेणापि तथोपन्यस्तत्वादस्मादेव स्थानादन्यत्राप्यादौ शास्त्रानिधानपूर्वक उपन्यासः क्रियत इति नावना । व्याख्यातं वेशतो नियुक्तिगाथादलं पश्चाई त्वध्ययनाधिकारे यथावसरं व्याख्यास्यामः। यतस्तत्रैवोपक्रमाद्यनुयोगहारानुपूर्व्यादि तनेदसूत्रादिलक्षणं तदर्हत्पर्षदादयश्च वक्तुं शक्यन्ते, नान्यत्र निर्विषयत्वादित्यलं प्रसङ्गेन । सांप्रतं प्रकृतयोजनामेवोपदर्शयन्नाह नियुक्तिकारः॥ एयाई परूवेजं, कप्पे वलियगुणेण गुरुणा उ ॥ अणुऊंगो दसवेया-लियस्स विहिणा कहेयवो ॥६॥ व्याख्या ॥ एतानि निदेपादिद्वाराणि प्ररूप्य व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गु..२४- यनलब्ध' इति पागन्तरम् । . .... ... . . . . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । . रुणा षट्त्रिंशशुणसमन्वितेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशवकालिकस्य विधिना प्रवचनोक्तेन कथयितव्य आख्यातव्य इति गाथार्थः । संप्रत्यजानानः शिष्यः पृबति । यदि दशकालिकस्यानुयोगस्ततस्तदशकालिकं नदन्त किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धा, अध्ययनमध्ययनानि, उद्देशक उद्देशका ३त्यष्टौ प्रश्नाः। एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खलु प्रयुज्यन्ते। तद्यथा दशकालिकं श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि उदेशकाश्चेति । यतश्चैवमतो दशादीनां निदेपः कर्तव्यः। तद्यथा दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य उद्देशकस्य चेति।तथाचाह नियुक्तिकारः॥ दसकालियं ति नामं संखाए कालय निद्देसो॥ दसकालियसुअखधं अनयणुदेस निस्किविजं ॥७॥ व्याख्या॥ दशकालिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थ मिति एवंनूतं यन्नाम अनिधानम्। इदं किम् ।संख्यानं संख्या तया तथा कालतश्च कालेन चायं निर्देशः। निर्देशनं निर्देशो विशेषानिधानमित्यर्थः। अस्य च निवन्धनं विशेषेण वयामः " मणगं पडुच्च” इत्यादिना ग्रन्थेन । यतश्चैवमतः दसकालियंति कालेन निवृत्तं कालिकं दशशब्दस्य कालशब्दस्य च निक्षेपः। निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः। तथा श्रुतस्कन्धं तथाध्ययनमुद्देशं तदेकदेशनूतम् । किम् । निदेतुमनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति गाथार्थः । तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायादधिकृतशास्त्रानिधानोपयोगित्वाच्च दशशब्दस्यैवादौ निदेपः प्रदर्श्यते।तत्र दशैकाद्यायत्ता वर्तन्ते। एकायनावे दशानामप्यनावादत एकस्यैव तावनिक्षेपप्रतिपिपादयिषयाह ॥ णाम उवणा दविए, माउयपयसंग. हेकए चेव ॥ पधवनावे य तहा, सत्तेए एकगाहोंति ॥॥ व्याख्या ॥ इहैक एव एककः। तत्र नामैकक एक इति नाम।स्थापनैकक एक इति स्थापना।जव्यैककं त्रिधा सचित्तादि । तत्र सचित्तमेकं पुरुषजव्यम्।अचित्तमेकं रूपकजव्यम् । मिश्रं तदेव कटकादिनूषितं पुरुषव्यमिति । मातृकापदैककं मातृकापदम् । तद्यथा उप्पन्ने वेत्यादि । श्ह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादवीजनूतानि मातृकापदानि नवन्ति । तद्यथा “जप्पनेश् वा विगमेश् वा धुवेश्वा" अमूनि च मातृकापदानि "अ आ " इत्येवमादीनि सकलशब्दव्यवहारव्यापकत्वान्मातृकापदानि । इह चानिधेयवसिगावचनानि नवन्तीति कृत्वेसमुपन्यासः। संग्रहैककः शातिरिति । अयमत्र नावार्थः।संग्रहः समु. दायः तमप्याश्रित्यैकवचनगर्नशब्दप्रवृत्तेस्तथा चैकोपि शालिःशालिरित्युच्यते वहवः शालयः शातिरिति लोके तथा दर्शनात् । श्रयं चादिष्टानादिष्टनेदेन सामान्य विशेपनेदेन बिधा। तत्रानादिष्टोयथा शालिः । श्रादिष्टो यथा कलमशासिरिति । एवमादिसानादिष्टन्नेदावुत्तरपदेष्वपि यथारूपमायोज्यौ। पर्यायैकक एकः पर्यायः। पर्यायो विशेपो धर्म इत्यनान्तरम् । स चानादिष्टो वर्णादिः । श्रादिष्टः कृष्णादिरिति । श्रन्ये तु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्षयेठं व्याचदते । अनादिष्टः श्रुतस्कन्धः। श्रादिष्टो दशकालिका Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीसमा. ख्य इति । अन्यस्त्वनादिष्टो दशकालिकाख्यः । श्रादिष्टस्तु तदध्ययन विशेषो कुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे । नचैतदतिचारु तस्य दशकालिकानिधात एवादेशसिझेः। जावैकक एको जावः । स चानादिष्टो नाव इति । आदिष्टस्त्वौदायिका दिरिति । सप्तैतेऽनन्तरोक्ता एकका नवन्ति।हच किल यस्माद्दशपर्याया अध्ययन विशेषाःसंग्रहैककेन संग्रहीतास्तस्मात्तेनाधिकारः। अन्ये तु व्याचदते । यतः किल श्रुतज्ञानं दायोपशमिके नावे वर्तते, तस्मानावैककेनाधिकार इति गाथार्थः । इदानींठ्यादीन् विहाय दशशब्दस्यैव निदेपं प्रतिपादयन्नाह ॥ णामं उवणा दविए, खित्ते काले तहेव नावे अ॥ एसो खलु निरकेवो, दसगस्स उ बविहो हो॥ए॥व्याख्या॥आह। किमिति ट्यादीन् विहाय दशशब्द जपत्यस्तः । उच्यते । एतत्प्रतिपादनादेव ठ्यादीनां गम्यमानत्वात् । तत्र नामस्थापने सुगमे । अव्यदशकं दश अव्याणि सचित्ता चित्तमिश्राणि मनुष्यरूपककटकादिविनूषितानीति । क्षेत्रदशकं दश क्षेत्रप्रदेशाः। कालदशकं दश काला वर्तनादिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः । वयति च वाला किला मंदेत्यादिना । नावदशकं दश नावाः। ते च सांनिपातिकनावे स्वरूपतो नावनीयाः। अथ चैत एव विवदया दशाध्ययनविशेषा इति । एष एवंनूतः खलु निदेपो न्यासो दशशब्दस्य बहुवचनत्वादशानां षडिधो नवति । तत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः । एषं एव प्रक्रान्तोपयोगीति। तुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । नायं दशशब्दमात्रस्य किंतु तछाच्यस्यार्थस्यापीति गाथार्थः । सांप्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वात्कालस्य कालदशकछारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिषयेदमाह ॥ “ बाला किमा मंदा, वला य पन्ना य हायणि पवंचा ॥ पलारमम्मुही सा-यणी य दसमा उ कालदसा॥१॥व्याख्या ॥ बाला क्रीडा च मन्दा च बला च प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपञ्चा प्राग्नारा मृन्मुखी शायिनी । तथाहि एता दश दशा जन्त्ववस्था विशेषलक्षणा नवन्ति । आसां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः ॥ “जाय मित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा॥ण तब सुहपुरकाई, बहु जाणंति बालया ॥१॥ बिश्यं च दसं पत्तो, णाणाकिमाहिं किरई ॥ न तब कामनोगेहिं, तिव्वा उप्पङाई मई ॥५॥ तश्यं च दसं पत्तो, पंचकामगुणे नरो ॥ समबी लुंजिलं नोए, जश् से अलि घरे धुवा ॥३॥ चन्बी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सि ॥ समबो बलं दरिसिजं, जश् होइ निरुवद्दवो ॥४॥ पंचमी तु दसं पत्तो, आणुपुबीच जो नरो ॥ इनिय विचिंतेश्, कुटुंबं वानिकंखई ॥५॥ बही उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सि ॥ विरार य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥६॥ सत्तमि च दसं पत्तो, आणुपुबी जो नरो ॥ निछहर य चिक्कणं खेलं खासई य - १ 'रई' ति पाठान्तरम् । २ 'बहु' इति पाठान्तरम् । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् ।... : ११ अनिकणं ॥ ७ ॥ संकुचियवलीचम्मो संपत्तो अहमी दसं. ॥ णारीणमण निप्पेर्ड जराए परिणामियो ॥ ॥ एवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सि ॥जराघरे विएस्संतो जीवो वस अकामऊं ॥ ए ॥ हीणजिन्नसरो दीणो, विवरी विचित्तः॥ पुब्बलो उरिक सुवइ, संपत्तो दसमी दसं ॥ १०॥"इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः। श्दानी काल निक्षेपप्रतिपादनायाह ॥ दवे अझ अहाउ श्र, उवकमे देसकालकाले य॥ तहय पमाणे वन्ने, नावे पगयंतु नावेणं ॥१९॥ व्याख्या ॥.तत्र अव्य इति वर्तमानादिलक्षणो अव्यकालो वाच्यः । अति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽतृतीयद्वीप समुपान्तर्वर्त्यकाकालः समयादिलक्षणो वाच्यः । तथायुष्ककालो देवाद्यायुष्कलक्षणो वाच्यः । तथा उपक्रमकालोऽनिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः । सामाचार्यायुकनेदनिन्नो वाच्यः। तथा देशकालो वाच्यः । देशः प्रस्तावोऽवसरो विनागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम् । ततश्चान्नीष्टवस्त्ववाप्यवसरः काल इत्यर्थः। तथा कालकालो वाच्यः। तत्रैकः कालशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु सामायिकः कालो मरणमुच्यते । मरण क्रियायाः कलनं काल इत्यर्थः । चः समुच्चये । तथाच । प्रमाणकालोऽकाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः। तथा वर्णकालो वाच्यः। वर्णश्वासौ कालश्चेति । नावेति । औदयिकादिनावकालः सादिसपर्यवसानादिनेदन्निन्नो वाच्यः । इति । प्रकृतं तु नावेनेति । नावकालेन हः पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाधिकारस्तत्रापि तृतीयपौरुष्या तत्रापि वह्वतिक्रान्तयेति । आह । यदुक्तं 'पगयं तु नावेणं ति' तत्कथं न विरुष्यते इत्युच्यते । झायोपशमिकनावकाले शय्यंनवेन नियूढं प्रमाणकाले चोक्तलक्षण इत्यविरोधः । अथवा प्रमाणकालोऽपि नावकाल एव । तस्याझाकालस्वरूपत्वात्तस्य च नावत्वादिति गाथासमुदायार्थः । अवयवार्थस्तु सामायिकविशेषविवरणादवसेयः। तथाचाह नियुक्तिकारः ॥ सामाश्यअणुकमर्ज, वन्ने विगयपोरिसीए उ॥ निबूढं किर सेड-जवेण दसकालियं तेणं ॥१॥व्याख्या ॥सामायिकमावश्यकप्रथमाध्ययनंतस्यानुक्रमः परिपाटी विशेषः । सामायिके वानुकमः सामायिकानुक्रमः । ततः सामायिकानुक्रमतः । सामायिकानुक्रमेण . वर्णयितुमनन्तरोपन्यस्तगाथाहाराणीति प्रक्रमाजम्यते । विगतपौरुष्यामेव तुशब्दस्यावधारपार्थत्वात् । निव्यूढं पूर्वगताकृत्य विरचितम् । किलशब्दः परोदाप्तागमवादसंसूचकः । शय्यंजवेन चतुर्दशपूर्व विदा दशकालिकं प्राग्निरूपितादारार्थ तेन कारणेनोच्यत इति गाथार्थः । श्रुतस्कन्धयोश्च निदेपश्चतुर्विधो अष्टव्यो यथानुयोगद्वारेषु । स्थानाशून्यार्थं किंचिमुच्यते । इह नोआगमतः इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तं जव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तम् । अथवा सूत्रमणमलादि । जावतं त्वागमतो डाता Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. उपयुक्तः।नोश्रागमतस्त्विदमेव दशकालिकं नोशब्दस्य देशवचनत्वात्। एवं नोश्रागमतो इशरीरलव्यशरीरव्यतिरिक्तो अव्यश्रुतस्कन्धः सचेतनादिः। तत्र सचित्तो छिपदादिः । अचित्तो विप्रदेशिकादिः। मिश्रः सेनादिर्देशादिरिति । तथा नावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव । नोआगमतस्तु दशकालिकश्रुतस्कन्ध एवेति नोशब्दस्य देशवचनत्वादिति।श्दानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः।तंचानुयोगद्वारप्रक्रमायातं प्रत्यध्ययनं यथासंजवमोघनिष्पन्नं निदेपे लाघवार्थं वदयाम इति । ततश्च यमुक्तं " दसकालिय सुअखंध, अक्षयणुद्देस णिरिक विजं ॥" अनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति तदंशतः संपादितमिति।सांप्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुबानवक्तव्यतानिधित्सयाह ॥ जेण व जं च पडुच्चा, जत्तो जावंति जह य ते उविया ॥ सो तं च त ताणि य, तहा य कमसो कहेयवं ॥१३॥व्याख्या॥ येन वाचार्येण या वस्तुप्रतीत्यागीकृत्य यतश्चात्मप्रवादादिपूर्वतो यावन्ति वाध्ययनानि यथा च येन प्रकारेण तान्यध्ययनानि स्थापितानि न्यस्तानि स चाचार्यः तच्च वस्तु ततस्तस्मात्पूर्वात् तानि चाध्ययनानि तथाच तेनैव प्रकारेण क्रमशः क्रमेणानुपू कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः । अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति । तत्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवछारेणावहारावयवार्थप्रतिपादनायाह ॥ सेचंनवं गणहरं, जिणपडिमादसणेण पडिबुकं ॥ मणगपिअरं दसका-वियस्स निघूहगं वंदे ॥१५॥ दारं ॥१॥सेचंनवमिति नाम । गणधरमिति अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तं, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुझं तत्र रागद्वेषकषायेन्जियपरीषहोपसर्गादिजेतृत्वाजिनस्तस्य प्रतिमा सनावस्थापनारूपा तस्या दर्शन मिति समासः । तेन हेतुभूतेन प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाज्ञाननिषापगमेन सम्यक्त्व विकाशं प्राप्त, सनकपितरमिति मनकाख्यापत्यजनकं, दशकालिकस्य प्रानिरूपितादरार्थस्य नियूँहकं पूर्वगतोकृतार्थ विरचनाकर्तारं वन्दे स्तौमि इति गाथादरार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । “ एब वझमाणसामिस्स चरमतिबगरस्स सीसो तिबसामी सुहम्मो नाम गणधरो आसी। तस्स वि जंबू णामो तस्स विय पनवोत्ति । तस्सन्नया कया पुत्वरत्तावरत्तम्मि चिंता समुप्पन्ना को मे गणहरो होऊत्ति । अप्पणो गणे य संघे य सवर्ड उवउंगो कर्ज । ण दीसई को अबोडित्तिकरो । ताहे गारबेसु उवउत्तो । उवगे कए रायगिहे सेयंजवं माहणं जन्नं जयमाणं पास । ताहे राअगिहं णगरं आगंतूणं संघाडयं वावारे जनवाडं गंतुं निस्कठा धम्मलाह।तब तुब्ने अतिबाविजिहिह ताहे तुब्ने नणियह। "अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते” इति । त गया साहू । अतिबाविया थ तेहिं • १ पहवेइ ' इति पाठान्तरम् । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । १३ 1 नणि 'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते ' । तेण य सेद्यंनवेण दारमूले विएण तं यसु । ताहे सो विचिंते । एए उवसंता तवस्तिो असतं ण वयं तित्ति काउं अनावगसगासं गंतुं जइ । किं तत्तं । सो जण वेदा तत्तं । ताहे सो प्रसिं कड्डिण नइ सीसं ते विंदामि, जइ मे तुमं तत्तं न कहेसि । त अनावर्ड न३ । पुत्ता मम समए नयिमेयं वेदबे परं सीसछेए कहियवत्ति संपयं कहयामि । जं एव तत्तं एतस्स जूवस्स देहा सवरयणमयी पमिमा रहने साधुवत्ति रिह धम्मो तत्तं । ताहे सो तस्स पाएसु पनि । सो य जन्नवार्जवरको वि तस्स चैव दिलो । ताहे सो गंतू ते साहू गवेसमा गर्न आयरियसगासं । श्रायरियं वंदित्ता साणो न मम धम्मं कह । ताहे आयरिया जवउत्ता जहा इमो सोत्ति । ताहे रिएहिं साधम्मो हि । संबुद्ध पद्य सो चउदसपुर्वी जाये। जया य सो पव तथा य तस्स गुहिणी महिला होगा । तम्मिय पवइए लोगो शियल तं तमस्सति । जहा तरुणाए जन्ता पव पुत्ताए । अवि हि तव किं वि पोट्टेति पुछइ । सान इ जवल रिकमि मागं । तर्ज समएण दारगो जार्ज । ताहे वित्तवारसाहस्स नियलगेहिं, जम्हा पुऊिंतीए मायाए से जणि मणगंति, तम्हा मर्ड से णामं क यंति । जया सो व रिसो जार्ज ताहे सो मातरं पुछर को मम पिया । सा जण5 तव पि । ताहे सो दार णासिकणं पिसगासं पहि । श्रयरिया य तं कालं चंपाए विहरति । सो वि दार चंपामेवागर्न । आयरिएण य ससानू मिगए सो दार दो । दारएण वंदि श्रायरिर्ज । श्रायरियस्स य तं दारगं पितस्स हो जाई । तस्स वि दारगस्स तदेव प्राय रिएहिं पुछियं जो दारग कुतो ते आगमणं । सो दारगो जाइ रायगिहार्ट । श्रयरिएण नयिं रायगिहे तुमं कस्स पुतो नत्तुर्ज वा । सो जइ, सेयंनवो नाम वंजणोत्ति श्रहं तस्स पुत्तो सो य पव । तेहिं जणियं । तुमं के कण श्रागसि । सो नइ अहं पि पव्वस्सं । पठा सो दार जण तो जगह वंजं तुम्हे जाणह । श्रायरिया जयंति जाणेमो | तेण जयिं सो कहिंति । ते जणंति, सोमम मित्तो एगसरीरभूतो पवयाहि तुमं मम सगासे । ते ज िएवं करेमि । तनुं प्रायरिया श्रागंतुं पडिस्सए श्रालोयंति सचित्तो पड़पनो सो प |पछा आयरिया जवउत्ता केवत्तिकालं एस जीवइति । पायं जावं उम्मासा | ताहे आयरियाणं बुद्धी समुप्पन्ना। इमस्स योवगं श्राद्धं किं कायवं ति । तं च 1 1 पुर्वी कहि विकारणे समुप्पन्ने विद्यूह त्ति दसपुर्वी पुण थप त्रिमो व्यवस्समेव पियूहुइ । ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं तो श्रमविद्यिद्दामि । तादे श्राढतो विद्यु हिउं । ते उ लिहितो वियाले णिबूढा घोवावसेसे दिवसे । तेण तं दसवेवासिय न Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. शिद्यत्ति । " अनेन च कथानकेन न केवलं येन चेत्यस्यैव द्वारस्य जावार्थोऽनिहितः । किं तु यद्वा प्रतीत्यैतस्यापीति । तथाचाह निर्युक्तिकारः ॥ मागं पडुच्च सेद्यं - नवेण निघूहिया दस यणा ॥ वेयालियाई वविया तम्हा दसकालियं णामं ॥ १५ ॥ दारं ॥ ॥ २ ॥ मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंजवेनाचार्येण निर्व्यूढानि पूर्वगताशुद्धृत्य विरचितानि दशाध्ययनानि द्रुमपुष्पिकादीनि । वेया लियाइ ववियत्ति । विगतः, कालो विकालः विकलनं वा विकाल इति । विकालोऽसकलः खएमश्चेत्यनर्थान्तरम् । तस्मिनू विकालेऽपराह्ने स्थापितानि न्यस्तानि डुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतः । तस्माद्दशकालिकं नाम । व्युत्पत्तिः पूर्ववत् । दशवैका लिकं वा विकालेन निर्वृत्तम् । संकाशा दिपाठाचातुरर्थिकष्टक, तद्धितेष्वचामादेरित्यादिवृद्धेवैका लिकं दशाध्ययन निर्माणं च तद्वैकालिकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः । एवं येन वा यद्वा प्रतीत्येति व्याख्यातम् । इदानीं यतो निर्व्यूढानीत्येतया चिख्यासुराह ॥ श्रायप्पवायपुवा, निघूढा होइ धम्मपन्नत्ती ॥ कम्मप्पवायपुवा, पिंकस्स उ एसा तिविहा ॥ १६ ॥ सच्चप्पवायपुवा, निघूढा होइ वक्कसुद्धी उ ॥ श्रवसेसा निघूढा, नवमस्स उ तश्यवन्तू ॥ १७ ॥ बीर्ड वि एसोगुणि पिडगार्ड दुवाल संगाउं ॥ एवं किर छूिढं, मणगस्स अणुग्गह हाए ॥१८॥ व्याख्या ॥ इहात्मप्रवादपूर्वं यत्रात्मनः संसारिमुक्ताद्यनेकनेदन्निस्य प्रवदनमिति । तस्मानिर्व्यूढा जवति धर्मप्रज्ञप्तिः षड्जीव निका इत्यर्थः ॥ तथा कर्मप्रवादपूर्वात् । किम् । पिस्य तु एषणा त्रिविधा निर्व्यूढेति वर्तते । कर्मप्रवादपूर्व नाम यत्र ज्ञानावरणी - या दिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति । तस्मात् किम् । पिएकस्यैषणा त्रिविधा गवे - षणाग्रहणैषणायासैषणाभेद जिन्ना निर्व्यूढा सा पुनस्तत्रामुना संबन्धेन पतति । श्रधाकर्मोपजोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृती र्बध्नाति । उक्तं च । " आहाकम्मं लुंजमाणे सम कम्मप्पगडी बंधाई" इत्यादि । शुद्ध पिएकोपभोक्ता चाशुजान्न बनातीत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः । सत्यप्रवादपूर्वान्निर्व्यूढा नवति वाक्यशुद्धिस्तु । तत्र सत्यप्रवादं नाम यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति । वाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्ययनम् । अवशेषाणि प्रथम द्वितीयादीनि निर्व्यूढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यान पूर्वस्य तृती - यवस्तु इति । द्वितीयोऽपि चादेशः । श्रादेशो विध्यन्तरं गणि पिटकादाचार्य सर्वस्वाद्वादशाङ्गादाचारादिलक्षणात् इदं दशकालिकं किलेति पूर्ववत् निर्व्यूढमिति च । किमर्थम् । मनकस्योक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः । एवं यत इति व्याख्यातम् । अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते ॥ डुमपुफिया या खलु दस अयणा सनिरकुयं जाव ॥ श्रहिगारे विय एत्तो वो पत्तेयमेक्वेक्कं ॥ १५ ॥ दारं ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ तत्र डुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम तदादी नि दशाध्ययनानि । स निरकुयं जावत्ति सजि I Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रयमाध्ययनम् । १५ क्ष्वध्ययनं यावत् । खलु शब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । तदन्ये द्वे चूडे यावन्तीति । व्याख्यातं यथा चेत्येतत् । पुनरधिकारानिधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः संबन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह । अधिकारादपि चातो वक्ष्ये प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने । तत्राध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते सोऽधिकारः । इति गाथार्थः ॥ पढमे धम्मपसंसा, सो य इहेव जिएसासम्मित्ति ॥ विइए धिश्ए सक्का, काउं जे एस धम्मोति ॥ २० ॥ तए आयारकहा, उखुड्डिया आयसंजमो वार्ड | तह जीवसंजमो वि य, होइ चमि ॥ २१ ॥ निरकविसोही तव सं-जमस्त गुणकारियाज पंचमए ॥ ब श्रायारकहा, महई जोग्गा महयणस्स ॥ २२ ॥ वयण विजत्ती पुण स - तमम्मि पणिहाणमहमे नणियं ॥ एवमे विषर्ज दसमे, समायिं एस निरकुत्ति ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ प्रथमाध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत श्राह । धर्मप्रशंसा । दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्य प्रशंसा स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधान मित्येवंरूपा । तथान्यैरप्युक्तम् । "धनदोsर्थार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः ॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारंपर्येण साधकः ॥ इत्यादि ॥ स चात्रैव जिनशासने धर्मो नान्यत्र इहैव निरवद्यवृत्तिसङ्गावादेतच्चो त्तरत्रान्यक्षणे वक्ष्यामः । धर्मान्युपगमे च सत्यपि मा मूद जिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतस्तन्निराकरणार्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम् । आह च । द्वितीयेऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः। धृत्या हेतुनूतया शक्यते कर्तुम् । जे इति पूरणार्थी निपातः । एष जैनधर्म इति । उक्तं च । “ जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गई सुलहा ॥ तितपुरिसा, तो वि खलु दुल्हनो तेसिं ॥" सा पुनर्धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् । श्राह च । तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह । श्राचारगोचरा कथा श्राचारकथा सा चेहैवाणु विस्तरभेदात् । यत ह | कुलिका लघ्वी सा चात्मसंयमोपायः । संयमनं संयमः । श्रात्मनः संयम श्रात्मसंयमस्तडुपायः। उक्तं च ॥" तस्यात्मा संयमो यो हि सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमान्धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः॥" इति । स चाचारः पड्जीव निकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम् । अथवात्मसंयमस्तदन्यजीवपरिपालनमेव तत्त्वतः । इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् । प्राह च । तथा जीवसंयमोऽपि नवति चतुर्थेऽध्ययनेऽर्वाधिकार इति । श्रपिशब्दादात्मसंयमपि तद्भाव्येव वर्तते । उक्तं च ॥ "ठसु जीवनिकायेसु जे बुड़े संजए सदा ॥ से चेव होइ विसेए परमत्रेण संजए ॥ " इत्यादि । एवमेव धर्मः सर्वदेहे स्वस्थे सति पाल्यते । स चाहारमन्तरा प्रायः स्वस्थो न जवति । स च सावद्येतरve इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्यतस्तदर्द्धाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति । श्राह च । निक्षावि शोधिस्तपः संयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति । तत्र निक्षण निक्षा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीसमा. णियत्तिः।” अनेन च कथानकेन न केवलं येन चेत्यस्यैव वारस्य जावार्थोऽनिहितः । किं तु यहा प्रतीत्यैतस्यापीति । तथाचाह नियुक्तिकारः ॥ मणगं पडुच्च सेद्यं-नवेण निधूहिया दसञ्जयणा ॥ वेयालिया उविया तम्हा दसकालियं णामं ॥ १५ ॥ दारं ॥ ॥२॥ मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंजवेनाचार्येण नियूंढानि पूर्वगताउकृत्य विरचितानि दशाध्ययनानि अमपुष्पिकादीनि । वेयालिया ववियत्ति। विगतः कालो विकालः विकलनं वा विकाल इति। विकालोऽसकलः खएमश्चेत्यनन्तरम्। तस्मिन विकालेऽपराह्ने स्थापितानि न्यस्तानि जुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतः। तस्माद्दशकालिकं नाम। व्युत्पत्तिःपूर्ववत्। दशवैकालिकं वा विकालेन निवृत्तम् । संकाशादिपागचातुरर्थिकष्ठकू, तहितेष्वचामादेरित्या दिवृझेकालिकं दशाध्ययन निर्माणं च तदैकाविकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः। एवं येन वा यहा प्रतीत्येति व्याख्यातम्। इदानीं यतो नियूंढानीत्येतठ्या चिख्यासुराह ॥आयप्पवायपुवा, निबूढा हो धम्मपन्नत्ती ॥ कम्मप्पवायपुवा, मिस्स उ एसणा तिविहा ॥ १६ ॥ सच्चप्पवायपुवा, निधूढा होश वकसुद्धी उ ॥ अवसेसा निघूढा, नवमस्स उ तश्यवलूळ ॥ १७ ॥ वी वि अ आएसोगणिपिडगा वालसंगा॥एअंकिर णिचूढं, मणगस्स अणुग्गहठाए ॥१॥ व्याख्या॥ श्हात्मप्रवादपूर्वं यत्रात्मनः संसारिमुक्तायनेकनेदजिन्नस्य प्रवदनमिति । तस्मानियूंढा जवति धर्मप्रज्ञप्तिः षड्जीवनिका इत्यर्थः॥ तथा कर्मप्रवादपूर्वात्। किम् । । पिणमस्य तु एषणा त्रिविधा नियूंढेति वर्तते । कर्मप्रवादपूर्व नाम यत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति । तस्मात् किम् । पिएकस्यैषणा त्रिविधा गवेषणाग्रहणैषणायासैषणानेदनिन्ना नियूंढा सा पुनस्तत्रामुना संबन्धेन पतति । आधाकर्मोपजोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीबंधाति । उक्तं च । “आहाकम्मं मुंजमाणे समणे अहकम्मप्पगडी बंधई" इत्यादि । शुरूपिएकोपजोक्ता चाशुजान्न बनातीत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः । सत्यप्रवादपूर्वान्निव्यूंढा जवति वाक्यशुधिस्तु । तत्र सत्यप्रवादं नाम यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदन मिति । वाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्ययनम् । अवशेषाणि प्रथम द्वितीयादीनि नियूंढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति । द्वितीयोऽपि चादेशः । आदेशो विध्यन्तरं गणिपिटकादाचार्यसर्वस्वाड्वादशाङ्गादाचारादिलक्षणात् इदं दशकालिकं किलेति पूर्ववत् नियूंढ मिति च । किमर्थम् । मनकस्योक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः । एवं यत इति व्याख्यातम् । अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते ॥ उमपुफियाश् या खलु, दस अक्षयणा सनिकुयं जाव ॥ अहिगारे विय एत्तो वो पत्तेयमेकेकं ॥१५॥ दारं ॥३॥ व्याख्या॥ तत्र घुमपुष्पिकेतिप्रथमाध्ययननाम तदादीनि दशाध्ययनानि।सनिकुयं जावत्ति सनि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । १५ 1 क्ष्वध्ययनं यावत् । खलु शब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । तदन्ये द्वे चूंडे यावन्तीति । व्याख्यातं यथा चेत्येतत् । पुनरधिकारा निधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः संबन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह । अधिकारादपि चातो वक्ष्ये प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने । तत्राध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते सोऽधिकारः । इति गाथार्थः ॥ पढमे धम्मपसंसा, सो य इहेव जिएसासम्मित्ति ॥ बिश्ए धिइए सक्का, काउं जे एस धम्मोति ॥ २० ॥ तए श्रायारकहा, उखुडिया आयसंजमो वार्ड | तह जीवसंजमो वि य, होइ चटमि ॥ २१ ॥ निरकविसोही तव सं-जमस्स गुणकारियाज पंचम ॥ बहे आयारकहा, महई जोग्गा महयणस्स ॥ २२ ॥ वयण विजत्ती पुण स-त्तमम्मि पणिहाणहमे नयिं ॥ एवमे विषर्ज दसमे, समायिं एस निरकुत्ति ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ प्रथमाध्य कोऽर्थाधिकार इत्यत आह । धर्मप्रशंसा । दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्य प्रशंसा स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपा । तथान्यैरप्युक्तम् । “धनदोऽर्थार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः ॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारंपर्येण साधकः ॥ इत्यादि ॥ स चात्रैव जिनशासने धर्मो नान्यत्र इहैव निरवद्यवृत्तिसङ्गावादेतच्चो तरत्रान्यक्षणे वक्ष्यामः । धर्मान्युपगमे च सत्यपि मा जूद जिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतस्तन्निराकरणार्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम् । श्राह च । द्वितीयेऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः । धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम् । जे इति पूरणार्थी निपातः । एष जैनधर्म इति । उक्तं च । “जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गई सुलहा ॥ मंतपुरा, तो वि खलु डुल्लनो तेसिं ॥" सा पुनर्धृतिराचारे कार्या नवनाचारे इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् । श्राह च । तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह । आचारगोचरा कथा याचारकथा सा चेहैवाणु विस्तरभेदात् । यत ह | कालध्वी सा चात्मसंयमोपायः । संयमनं संयमः । श्रात्मनः संयम श्रात्मसंयमस्तुपायः।उक्तं च ॥" तस्यात्मा संयमो यो हि सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमान्धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः॥” इति । स चाचारः षड्जीव निकाय गोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम्। अथवात्मसंयमस्तदन्यजीव परिपालनमेव तत्त्वतः । इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् । आह च । तथा जीवसंयमोऽपि नवति चतुर्थेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति । श्रपिशब्दादात्मसंयमपि तद्भाव्येव वर्तते । उक्तं च ॥ " बसु जीवनिकायेसु जे बुड़े संजए सदा ॥ से चैव हो विसेए परमत्रेण संजए ॥ " इत्यादि । एवमेव धर्मः सर्वदेहे स्वस्थे सति पाव्यते । स चाहारमन्तरा प्रायः स्वस्थो न जवति । स च सावयेतर - नेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति । श्राह च । निक्षाविशोधिस्तपःसंयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार इति । तत्र निक्षणं - निक्षा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीसमा. तस्या विशोधिः सावद्यपरिहारेणेतरखरूपकथनमित्यर्थः । तपःप्रधानः संयमस्तपःसंयमस्तस्य गुणकारिकैवेयं वर्तते इति ॥ उक्तं च ॥ " से संजए समरकाए निरवद्याहार जे वि॥ धम्मकाय हि सम्मं सुहजोगाए साहए" ॥ इत्यादि । गोचरप्रविष्टेन च सता खाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमदं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यः । श्रपि तु श्रा लये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति । श्राह च । षष्ठेऽध्ययनेऽर्थाधिकार आचारकथा | सापि महती न दुल्लिका योग्या उचिता महाजनस्य विशिष्टपरिषद इत्यर्थः । वक्ष्यति च ॥ " गोरग्गपविधे उन निसिध कब इ ॥ कहं च न पबंधिद्या चिद्विद्या व संजए" ॥ इत्यादि । श्रालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणा निज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्यम् । इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव सप्तममध्ययनमिति । यह च । वयण विजत्तीत्यादि । वचनस्य विनक्तिर्वचन विभक्तिः । विनजनं विनक्तिः एवंभूतमनवद्यमियंभूतं च सावद्ययमित्यर्थः । पुनःशब्दः शेषाध्ययनाश्रधिकारेयः अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थ इति सप्तमेऽध्ययने अर्थाधिकार इति । उक्तं च ॥ " सावद्यणवद्याएं, वयणाणं जो ण या विसेसं ॥ वोतुं पि तस्सन खमं, किमंग पुण देसणं काउं" इत्यादि । तच्च निरवद्यं वचः स्वाचारे प्रणिहितस्य नवति इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति । श्राह च । प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेऽर्थाधिकारत्वेन जणितमुक्तम् । प्रणिधानं नाम विशिष्टश्वेतो धर्म इति । उक्तं च ॥ " पणिहाएर हियस्साहा निरवद्यंति नासियं ॥ सावद्यतुलं विनेयं मनह संवुडं " इत्यादि ॥ श्राचारप्रणिहितश्च यथोचितविनयसंपन्न एव जवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव नवममध्ययनमिति । आह च । नवमेोऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकार इति । उक्तं च ॥ श्रयारपपिहाणं मि, से सम्मं हुई बुदे || पाणादी विणीए जे मोकठा aa ||" इत्यादि ॥ एतेषु एव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग् निकुरित्यनेन संबन्धेन सजिदवध्ययनमिति । श्राह च । दशमेऽध्ययने समाप्तिं नीतमिदं साधु क्रियानिधायकं शास्त्रम् । एतत्क्रियासमन्वित एवं निकुर्भवत्यत श्राह एष निकुरिति गाथाचतुष्टयार्थः । स एवं गुणयुक्तोऽपि निक्कुः कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेत् । ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडाइयमित्याह ॥ दो प्रयणा चूलिय, विसीययंते थिरीकरण मेगं ॥ विइए विवित्तचरिया श्रसीयगुणाइरेगफला ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ द्वे अध्ययने । किम् । चूडा चूडेव चूडा तत्र प्रमादवशाद्विषीदति सति साधौ संयमे स्थिरीकरणमेकं प्रथमं स्थिरीकरणफलमित्य । तथा च तत्रावधानप्रे दिणः साधोः दुःप्रजीवित्वे नरकपातादयो दोषा वर्ण्यन्त इति । तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते । किंभूता सीदनगुणातिरेकफला । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । तत्र विविक्तचयकान्तचर्या अव्यक्षेत्रकालनावेष्वसंबंता । उपलक्षणं चैषानियतचर्यादीनामिति । असीदनगुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथाविधेति गाथार्थः। दसकालिअस्स एसो, पिंम्बो वन्नि समासेणं ॥ एत्तो एकेकं पुण, अनयणं कित्तइस्लामि ॥२५॥व्याख्या॥ दशकालिकस्य प्रानिरूपितशब्दार्थस्यैषोऽनन्तरोदितः पिएकार्थः सामान्यार्थो वर्णितः प्रतिपादितः समासेन संक्षेपेण । अत ऊर्ध्वं पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामीति । पुनःशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः। तत्र प्रथमाध्ययनंजुमपुष्पिका। तस्य च चत्वार्यनुयोगहाराणि नवन्ति।तद्यथा, उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयः। एषां चतुर्णामप्यनुयोगहाराणामध्ययनादावुपन्यासः। तत्रे च क्रमोपन्यासप्रयोजनमावश्यक विशेषविवरणादवसेयं स्वरूपं च प्रायश इति । प्रकृताध्ययनस्य च शास्त्रीयोपक्रमे आनुपादिनेदेषु स्वबुध्यवतारः कार्यः। अर्थाधिकारश्च वक्तव्यः। तथाचाह नियुक्तिकारः॥ पढमायणं कुमपु-फियं ति चत्तारि तस्स दारा॥ वन्नेउवकमाई, धम्मपसंसार अहिगारो ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥प्रथमाध्ययनं सुमपुष्पिकेति। अस्य नामनिष्पन्न निदेपावसर एव शब्दार्थं वदयामः। चत्वारि तस्य छाराण्यनुयोगहाराणि । किम् । वर्णयित्वोपक्रमादीनीति । किम् । धर्मप्रशंसयाधिकारो वाच्य इति गाथार्थः । तत्र निक्षेपः। स च त्रिविधस्तद्यथा, उघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रासापकनिष्पन्नश्चेति।तत्रौघः सामान्यं श्रुतानिधानम्। तथाचाह नियुक्तिकाराहो जं सामन्नं, सुयानिहाणं चजविहं तं च॥अनयणं अप्लीणं,आयलवणाय पत्ते ॥२॥व्याख्या॥ोधोयत्सामान्यं श्रुतानिधानंश्रुतनाम चतुर्विधम्।तच कथम्।अध्ययनमदीणमायः क्षपणा च । इदं च प्रत्येकं पृथक्पृथक्। किम् ॥नामाश्चउप्लेयं,वन्नेऊणं सुआणुसारेणं ॥ उमपुस्फिअ आउँछ, चउसु पि कमेण नावेसु॥२॥व्याख्या॥नामादिचतुर्नेदं वर्णयित्वा । तद्यथा।नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं अव्याध्ययनं नावाध्ययनं चेत्येवमीणादीनामपिन्यासःकर्तव्यः।श्रुतानुसारेणानुयोगहाराख्यसूत्रानुसारेण । किम्। अमपुष्पिका आयोज्या प्रकृताध्ययनं संवन्धनीयम्। चतुर्वप्यध्ययनादिषु क्रमेण नावेविति गाथार्थः । सांप्रतं नावाध्ययनादिशब्दार्थं प्रतिपादयन्नाह ॥ अप्नप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचर्ड उवचित्राणं ॥ अणुवचः श्र नवाणं, तम्हा अप्नयण मिति ॥ २५ ॥ अहिगम्मति अबा, श्मेण अहिगं च नयणमिति ॥ अहिगं च साहुगवश, तम्हा अनयण मिति ॥ ३० ॥ जह दीवा दीवसयं, पश्प्पई सो अ दिप्पई दीवो ॥ दीवसमा आयरिया, दिपंति परं च दीवंति ॥ ३१ ॥ नाणस्स दसणस्स वि, चरणस्स य जेण आगमो होई ॥ सो होइ नाव आर्ज,श्रा लाहोत्ति निहिछो ॥ ३ ॥श्रमविहं कम्मरयं, पोराणं जं खवेश जोगेहिं । एरं नावप्नयणं, नेअवं आणुपुवीए ॥३३॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । एवं रयणबाणगाणि पाणदसणचरित्ताणि चोरबाणिथा विसया कुहिर्जदगबाणिश्राणि फासुगेसणिजाणि अंतपंताणि थाहाराणि श्रादरंतेण ताहे तप्फलेण जहा वाणियगो श्ह नवे सुही जाउँ । एवं साहू वि सुही नविस्सइ त्ति । अडविवाणी संसारं पिबरे३.त्ति । एवमेतान्यर्थंकार्थिकानि अथाधिकारा एवान्य इति गाथार्थः । उक्तो नाम निष्पन्नः सांप्रत सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः। स च प्राप्त-(ल?)-दणोऽपि न निक्षिप्यते । कस्मात् कारणात् । यस्मादस्ति श्ह तृतीयमनुयोगहारमनुगमाख्यं तत्र निप्ति इह निक्षिप्तो नवति । तस्मादाघवार्थ तत्रैव निक्षेप्स्यामः । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यक विशेष विवरणादवसेयो । सांप्रतमनुगमः । स च द्विधा सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च । तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधः। तद्यथा। निदेपनियुक्त्यनुगमः। उपोद्वातनिर्युक्त्यनुगमः । सूत्रस्पर्श निर्युक्त्यगमश्चेति । तत्र निदेपनियुक्त्यनुगमो गतः । य एषोऽध्ययनादिनिक्षेप इति । उपोद्धातनिर्युक्त्यनुगमस्तु घारगाथाघ्यादवसेयः। तच्चेदम् । उद्देसयनिदेसयण्गाहा॥किंकाविहंगाहा॥अस्य च हारगाथाघ्यस्य समुदायाथोऽवयवार्थश्चावश्यक विशेष विवरणादेवावसेय इति । प्रकृतयोजना पुनस्तीर्थकरोपोद्वातमनिधायाचार्यसुधर्मस्य च तत्प्रवचनस्य पश्चाऊम्बूनाम्नस्ततः प्रजवस्य ततोऽप्याचार्यशय्यंजवस्य पुनर्यथा तेनेदं नियूंढमिति तथा कथनेन कार्या इत्याह । जेण व जं च पडुच्चेत्या दिना। यत्पूर्वमुक्तं तदत्रैव क्रमप्राप्तानिधानत्वात्तत्रायुक्तमिति।न,अपान्तरालोपोद्घातप्रतिपादकत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति।थाह । एवमपि महासंवन्धपूर्वकत्वादपान्तरालोपोद्वातस्यात्रैवानिधानं न्याय्यमिति। न, प्रस्तुतशास्त्रान्तरङ्गत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति कृतं प्रसङ्गेनाक्षरगम निकामात्रफलत्वात्प्रयासस्य । गत उपोद्धातनियुक्त्यनुगमः । सांप्रतं सूत्रस्पर्श निर्युक्त्यनुगमावसरः । स च सूत्रे सति जवति । थाह । यद्येव मिहोपन्यासोऽनर्थकः।न, नियुक्तिसामान्यादिति । सूत्रं च सूत्रानुगमे । स चावसरप्राप्त एव । इह चास्खलितादिप्रकारं शुरूं सूत्रमुच्चारणीयम् । तद्यथा । अस्खलितममिलितमव्यक्त्यानेडितमित्यादि यथानुयोगहारेषु । ततस्तस्मिन्नुच्चारते सति केषां चिनगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता नबन्ति केचनानविगताः । तत्रानधिगतार्थाधिगमायाल्पमतिविनेयानुग्रहाय च प्रतिपदं व्याख्येयम् । व्याख्यालक्षणं चेदम् “ ॥ संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः ॥ चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य पविधा ॥” इति । अलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । किं च प्रकृतम् । सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयमिति । तच्चेदं सूत्रम् ॥ . १ एवमेतान्येकाथिकान्याधिकाराण्युक्तानि इति पाठान्तरम् । २ निक्षिप्तो भवति । इह निक्षिप्तस्तत्रनिक्षिप्तो भवति । इति पाठान्तरम् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बढ़ाडुरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. भावना कार्येति । जावार्थस्तु यथा गौश्चरत्येवम विशेषेण साधुनाप्यटितव्यं न विनवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति वणिग्वत्सकदृष्टान्तेनेति । तथा । त्वगिति । त्वगिवासारं जोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात्त्वगुच्यत इति । उक्तं च परममुनिनिः “ जहा चत्तारि घुणा पसत्ता । तं जहा । तयस्काए बल्लिकाए कहकाए सारस्काए । एमेव चत्तारि निरकुगा श्रपन्नत्ता । तं जहा । तयरकाए । बलिकाए कहकाए साररकाए । तरकार णामं एगे नो सारस्काए । साररकाए णामं एगे नो तयरकाए । एगे तयरका - विसारका वि । एगे नो तयरकाए पो साररकाए । तयरकायसमणस्स णं निरकुस्स साररकायसमाणे तवे जवइ । एवं जहा ठाणे तदा एव दट्ठवं । जावार्थस्तु नावतस्त्वक्कल्पासारजोक्तः कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपो जवति । तथोञ्ठ मित्यज्ञात पिएकोंटसूचकत्वादिति । तथा मेष इति । यथा मेषोऽल्पेऽप्यम्नसि अनुहालय वाम्नः पिबति । एवं साधुनापि निक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाकुलेन जिदा ग्राह्येत्येवंविधार्थसूचकत्वादधिकृता निधानप्रवृत्तिरिति । तथा जलौका इति। अनेषणा प्रवृत्तदायकस्य मृदुनाव निवारणार्थ सूचकत्वादिति । तथा सर्प इति । यथासावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचरगतेन संयमैकदृष्टिना जवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति । अथवा । यथा द्रागस्पृशन सर्पो बिलं प्रविशत्येवं साधुनाप्यनास्वादयता जोक्तव्यमिति । तथा व्रण इत्यरक्त द्विष्टेन व्रणलेपदानवोक्तव्यम् । तथाद इत्यकोपाङ्गदानवच्चेति उक्तं च व्रणलेपादोपाङ्गवदसंगयोगजर मात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाच्यवहरेदाहारम् । इसु ति । तथा इषुः शरो नष्यते तत्र सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा " ॥ जह रहिणुवत्तो इसुणा लरकं ण विंध तदेव ॥ साहू गोपत्तो संयम कम्मि नायवा ॥ " गोल इति । "जह जजगोलो अगणि-स्स खाइदूरेण वि सन्ने ॥ सक्कर काऊण तहा, संजभगोलो गिठाणं ॥ दूरे असणाइं, इयरम्मि तेण संकाई ॥ तम्हा मियभूमीए चिह्निद्या गोयरग्गगर्ज ॥ ३ ॥ " पुत्र इति । पुत्रमांसोपमया जोक्तव्यम् । सुसुमादृष्टान्तोऽत्र वक्तव्यः । उदकमिति । पूत्युकोपमानतः खल्वनपानमुपनोक्तव्यमित्यत्रोदाहरणम् । “ जहा एगेणं वाणियपणं दारिका निजूपणं कहिं वि हिंडतेणं रणदीवं पावित्ता तेल्लुक्कसुंदरा अणग्धया या समासादिया | सो ते चोराकुलदी हाणजए ए सक्कर. पिछा विऊण मुवर्टगनू मिमानं । त सो बुद्धिकोसद्वेण ताणि एगम्मि परसे ग्वेऊण जसे जरपहा घेत्तुं परं गहिलवेसेण " रयणवाणिनं गछइ ति " जइ । तिशिवारे जाहे कोण ह । ता घेतू पया अडवीए तिसाए गहिरं जाव कुहियपाणिअं बिरम्मि विष पास। तब बहवे हरिणादयो मया तेण तं सर्व उदगवसाझाया । तादे तं ते अणुस्स सियाए अणासायंतेय. पीयं निष्ठारियाणि श्रणेण रथपाणि । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् ।... २३ तथा विपुलतरं तु प्रनूततरं तु कथयन्ति पुगए ति । शिष्यप्रश्ने सति पटुप्रशोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः ॥ एवं तावत्समासेन व्याख्यालक्षणयोजना ॥ कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे कार्येवमपरेष्वपि ॥१॥ग्रन्थविस्तरदोषान्न वदयामः। उपयोगे तु वदयामः प्रतिसूत्रम्।यतः सूत्रस्पर्शकोऽधुना प्रोच्यते।अनुगमनियुक्ति विनागश्च विशेषतः सामायिकबृहन्नाष्याज्ञयः सूत्रोदितः। यतः " होश कयबो वोत्तुं, सपयझेशं सुअं सुआणुगमे ॥ सुत्तालावगता सो नामा दिला सविपिउँग सुत्तप्फासियनि-त्तिणिजंगासेस5 पयवा॥ पायं सो विय नेगम-णयाश्णयगोरो हो ॥ एवं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकर्ड अ निरकेवो। सुत्तप्फासिथणिज-त्तिणया अ वच्चंति समगं तु॥” इत्यलं प्रसङ्गेन गमनिकामात्रमेतत्। तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्रस्पर्शकनियुक्तिप्रतिपादनायाह ॥ णामं उवणा धम्मो, दवधम्मो अनावधम्मो उ॥ एएसिं नाणत्तं वुछामि अहाणुपुबीए ॥३॥ व्याख्या ॥ णामं उवणा धम्मो त्ति । अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमनिसंवध्यते । नामधर्मः स्थापनाधर्मो अव्यधर्मोजावधर्मश्च । एतेषां नानात्वं नेदं वदयेऽनिधास्ये यथानुपूर्व्या यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः । सांप्रतं नामस्थापने कुलत्वादागमतोनोथागमतश्च ज्ञात्रनुपयुक्त ज्ञशरीरेतरनेदांश्चानादृत्य ज्ञशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तअव्यधर्माद्यनिधित्सयाह ॥ दत्वं च अलिकार्ज, पयारधम्मो अनावधम्मो अ॥ दवस्स पचवा जे,ते धम्मा तस्स दवस्स ॥४0/॥ व्याख्या ॥ इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः। तद्यथा अव्यधर्मः । अस्तिकायधर्मः प्रचारधर्मश्चेति । तत्र अव्यं चेत्यनेन धर्मधर्मिणोः कथं चिदन्नेदाव्यधमेमाह । तथा स्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा उपलदणत्वादवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति । प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन अव्यधर्मदेशमाह । नाथर्मश्चेत्यनेन तु नावधर्मस्य स्वरूपमाह । सांप्रतं प्रथमोदिष्ट व्यधर्मस्वरूपानिधित्सयाह । अव्यस्य पर्याया ये उत्पाद विगमादयस्ते धर्मास्तस्य अव्यस्य । ततच जव्यस्य धर्मा अव्यधर्मा इत्यन्यासंसक्तैकडव्यधर्माजावप्रदर्शनार्थो वहुवचननिश इति गाथार्थः । इदानीमस्तिकाया दिधर्मखरूपप्रतिपिपादयिषयाह ॥ धम्म कायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो ज ॥ लोश्यकुप्पावयणिअ-लोगुत्तरलोगणेगविहो ॥४१॥ व्याख्या ॥ धर्मग्रहणार्मास्तिकायपरिग्रहः । ततश्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्नकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकः अस्तिकायधर्म इति । अन्ये तु याचक्षते । धर्मास्तिकायादिस्वजावोऽस्तिकायधर्म इत्येतच्चायुक्तम् । तत्र धर्मास्तिकादीनां अव्यत्वेन तस्य अव्यधर्माव्यतिरेकादिति। तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव । शब्दस्यैवकारार्थत्वात्। तत्र प्रचरणं प्रचारः। प्रकर्पगमनमित्यर्थः । स एवात्मस्वन्नावबाधर्मः प्रचारधर्मः। स च किम्। विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विपया रूपादयस्तधर्म Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद जाग ४३ मा. धम्मो मंगलमु कि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ तत्रास्खलित पदोच्चारणं संहिता । सा पाठ सिद्धैव । अधुना पदानि । धर्मः : मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः । तत्र “धृञ् धारणे" इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गलरूपं पूर्ववत् । तथा "कृष विलेखने” इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूपमुत्कृष्ट मिति । तथा "तृहि हिसि हिंसायाम्" इत्यस्य " इदितो नुम् धातोः” इति नुमि कृते रूयधिकारे टाबन्तस्य नञ्पूर्वस्येदं रूपं यडुताहिंसेति । तथा " यमु उपरमे " इत्यस्य धातोः संपूर्वस्याच्प्रत्ययान्तस्य संयम इति रूपं जवति । तथा " तप संतापे" इत्यस्य धातोरन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा " दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तु तिखकान्तिगतिषु" इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति जवति । अपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति नवति । तथा नम सत्यस्य प्रातिपदिकस्य " नमो वरिवश्चित्रङः क्यच्” इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्तादेशस्ततश्च नमस्यन्तीति जवति । तथा यदिति सर्वनाम्नः षष्ठयन्तस्य यस्येति नवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले । “ सर्वैकान्यकिंयत्तदः काले दा” इति दाप्रत्ययः । "सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि” इति स आदेशः । सदा । तथा " मन ज्ञाने" इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति जवति । इति पदानि । सांप्रतं पदार्थ उच्यते । तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । तथा चोक्तम् " ॥ दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद्धारयते ततः ॥ धत्ते चैतान् शुने स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ " मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत् । उत्कृष्टं प्रधानम् । न हिंसा अहिंसा प्राणातिपात विरतिरित्यर्थः । संयम याश्रवद्वारोपरमः । तापयन्त्यनेकनवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपोऽनशनादि । दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्यादिनावार्थः । छापिः संभावने । देवा अपि मनुष्यास्तु सुतरां तमित्येवंविशिष्टं जीवं नमस्यन्तीति प्रकटार्थम् । यस्य जीव 1 । किम् । धर्मे प्रागनिहितस्वरूपे सदा सर्वकालं मन इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासनाक्त्वेनेह निबन्धनानावान्न प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाण चिन्तायां यथावसरमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शयन्नाह ॥ कछ पुछइ सीसो कहिं वि पुट्ठा कहंति थायरिया || सीसाणं तु हिया, विपुलतरागं तु पुछाए ॥ ३८ ॥ व्याख्या ॥ क्वचित्किं चिदनवगन्छन् पृष्ठति शिष्यः कथमेतदितीयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानमिवमनयोः प्रवृत्तिः । तथा कचिदपृष्टा एवसन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किंचित्कथयन्त्याचार्याः । तत्प्रत्यवस्थानमिति गम्यते । किमर्थं कथयन्त्यत श्राह । शिष्याणामेव हितार्थम् । तुशब्द एवकारार्थः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. धम्मो मंगलमु कि, हिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ तत्रास्खलित पदोच्चारणं संहिता । सा पाठ सिद्धैव । अधुना पदानि । धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अहिंसा संयमः तपः देवाः श्रपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः । तत्र “धृञ् धारणे” इत्यस्य धातोर्मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गलरूपं पूर्ववत् । तथा "कृष विलेखने" इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्टान्तस्येदं रूपमुत्कृष्ट मिति । तथा "तृहि हिसि हिंसायाम्" इत्यस्य " इदितो नुम् धातोः” इति नुमि कृते रूपधिकारे टान्तस्य नञ्पूर्वस्येदं रूपं यडुताहिंसेति । तथा " यमु उपरमें" इत्यस्य धातोः संपूर्वस्याच्प्रत्ययान्तस्य संयम इति रूपं जवति । तथा " तप संतापे" इत्यस्य धातोर सुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा " दिवु क्रीडा विजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तु तिखकान्तिगतिषु" इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति जवति । श्रपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति नवति । तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य " नमो वरिवश्चित्रङः क्यच्" इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्तादेशस्ततश्च नमस्यन्तीति नवति । तथा यदिति सर्वनाम्नः षष्ठयन्तस्य यस्येति नवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले । " सर्वैकान्यकिंयत्तदः काले दा" इति दाप्रत्ययः । " सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि" इति स श्रादेशः । सदा । तथा " मन ज्ञाने” इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति जवति । इति पदानि । सांप्रतं पदार्थ उच्यते । तत्र दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः । तथा चोक्तम् " ॥ दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् यस्माद्धारयते ततः ॥ धत्ते चैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ " मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि पूर्ववत् । उत्कृष्टं प्रधानम् । न हिंसा श्रहिंसा प्राणातिपात विरतिरित्यर्थः ः । संयम नवद्वारोपरमः । तापयन्त्यनेकजवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपोऽनशनादि । दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्या दिनावार्थः । अपिः संभावने । देवा पि मनुष्यास्तु सुतरां तमित्येवंविशिष्टं जीवं नमस्यन्तीति प्रकटार्थम् । यस्य जीवस् । किम् । धर्मे प्रागनिहितस्वरूपे सदा सर्वकालं मन इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासनाक्त्वे नेद निबन्धनाभावान्न प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाण चिन्तायां यथावसरमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयो: मुनोपायेनेति प्रदर्शयन्नाह ॥ कछ पुछइ सीसो, कहिं वि पुछा कहति श्रायरिया || सीसा तुहिया, विपुलतरागं तु पुछाए ॥ ३८ ॥ व्याख्या ॥ क्वचित्किंचिदनवगच्छन् पृष्वति शिष्यः कथमेतदितीयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानमिवमनयोः प्रवृत्तिः । तथा कचिदष्पृष्टा एवसन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किंचित्कथयन्त्याचार्याः । तत्प्रत्यवस्थानमिति गम्यते । किमर्थं कथयन्त्यत श्राह । शिष्याणामेव हितार्थम् । तुशब्द एवकारार्थः । . Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् ।... २३ तथा विपुलतरं तु प्रनूततरं तु कथयन्ति पुछाए ति । शिष्यप्रश्ने सति पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमा दिति गाथार्थः ॥ एवं तावत्समासेन व्याख्यालक्षणयोजना ॥ कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे कार्येवमपरेष्वपि ॥१॥ग्रन्थविस्तरदोषान्न वक्ष्यामः। उपयोगे तु वक्ष्यामः प्रतिसूत्रम्।यतः सूत्रस्पर्शकोऽधुना प्रोच्यते।अनुगमनियुक्ति विनागश्च विशेषतः सामायिकबृहन्नाव्याज्ज्ञेयः सूत्रोदितः। यतः " हो कयलो वोत्तुं, सपयछेअं सुझं सुआणुगमे ॥ सुत्तालावगता सो नामा दिला सविणिगं॥सुत्तप्फासिनिअ-त्तिणिजंगासेसजे पयबाश्॥पायं सो विय नेगम-णयाश्णयगोअरो होश ॥ एवं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकर्ड श्र निकेवो ॥सुत्तप्फासिषणिजु-त्तिणया अ वच्चंति समग तु॥” इत्यलं प्रसङ्गेन गमनिकामात्रमेतत्। तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्रस्पर्शकनियुक्तिप्रतिपादनायाह ॥ णामं उवणा धम्मो, दवधम्मो अनावधम्मो उ ॥ एएसिं नाणत्तं वुन्छामि अहाणुपुवीए॥३॥ व्याख्या ॥णामं उवणा धम्मो त्ति । अत्र धर्मशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । नामधर्मः स्थापनाधर्मो अव्यधर्मो नावधर्मश्च । एतेषां नानात्वं नेदं वयेऽनिधास्ये यथानुपूर्व्या यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः । सांप्रतं नामस्थापने कुमत्वादागमतोनोश्रागमतश्च झात्रनुपयुक्तज्ञशरीरेतरनेदांश्चानादृत्य झशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तअव्यधर्माद्यनिधित्सयाह ॥ दवं च अल्लिकार्ज, पयारधम्मो अनावधम्मो अ॥ दवस्स पचवा जे,ते धम्मा तस्स दवस्स ॥४०॥ व्याख्या ॥ इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः। तद्यथा अव्यधर्मः । अस्तिकायधर्मःप्रचारधर्मश्चेति । तत्र अव्यं चेत्यनेन धर्मधर्मिणोः कथं चिदानेदाव्यधमेमाह । तथा स्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा उपलक्षणत्वादवयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति । प्रचारधर्मश्चेत्यनेन ग्रन्थेन अव्यधर्मदेशमाह । नावधर्मश्चेत्यनेन तु लावधर्मस्य स्वरूपमाह । सांप्रतं प्रथमोद्दिष्टव्यधर्मस्वरूपानिधित्सयाह । अव्यस्य पर्याया ये उत्पाद विगमादयस्ते धर्मास्तस्य अव्यस्य । ततश्च अव्यस्य धर्मा अव्यधर्मा इत्यन्यासंसक्तैकव्यधर्मानावप्रदर्शनार्थो वहुवचननिदेश इति गाथार्थः । इदानीमस्तिकायादिधर्मखरूपप्रतिपिपादयिपयाह ॥ धम्मकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो न ॥ लोश्यकुप्पावयणिअ-लोगुत्तरलो गविहो ॥४१॥ व्याख्या ॥ धर्मग्रहणाझर्मास्तिकायपरिग्रहः । ततश्च धर्मास्तकाय एव गत्युपष्टम्नकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकः अस्तिकायधर्म इति । अन्ये तु याचक्षते । धर्मास्तिकायादिस्वन्नावोऽस्तिकायधर्म इत्येतच्चायुक्तम् । तत्र धर्मास्तिकाआदीनां अव्यत्वेन तस्य अव्यधर्माव्यतिरेकादिति। तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव । शब्दस्यैवकारार्थत्वात्। तत्र प्रचरणं प्रचारः। प्रकर्षगमनमित्यर्थः । स एवात्मस्वनाववाधर्मः प्रचारधर्मः। स च किम्। विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विपया रूपादयस्तधर्म HOS. "ALLtpher-prem. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. Spe एव । तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यागादिमान् सत्वस्तेषु प्रवर्तत इति । चतु रादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम् । प्रधानसंसार निबन्धन त्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थं द्रव्यधर्मात्पृथगुपन्यासः । इदानीं जावधर्मः । स लौकिका दिनेद जिन्न इति । श्राह च लौकिकः कुप्राबच निकः । लोकोत्तरस्त्वत्र । ले गविहति । लौकिकोऽनेकविध इति गाथार्थः । तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह ॥ पसुदेसर, पुरवरगामगणगो हिराई ॥ सावद्यो उ कुतित्रिय-धम्मो न ि उपसो ॥ ४२ ॥ व्याख्या ॥ तत्र गम्यधर्मो यथा दक्षिणापथे मातुलडुहिता • उत्तरापथे पुनरगम्यैव । एवं जक्ष्याजक्ष्यपेयापेयविभाषा कर्तव्येति । पशुधमों । दिगमनलक्षणः । देशधर्मो देशाचारः । स च प्रतिनियत एव नेपथ्यादि इति । राज्यधर्मः प्रतिराज्यं निन्नः । स च करादिः । पुरवर धर्मः प्रतिपुरवरं क्वचित्कचिद्विशिष्टोऽपि पौरजाषाप्रतिदाना दिलक्षणः । सहितीचा योपिनेह... छतीत्यादिलो वा । ग्रामधर्मः । प्रतिग्रामं जिन्नः । गणाधमों मल्लादि वस्था । यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि । गोष्ठीधर्मो गोष्टी व्यवस्था । . च समवयः समुदायो गोष्टी । तयवस्था पुनर्वसन्तादावेवं कर्तव्यमित्यादि था । राजधर्मो दुष्टेतर निग्रहपरिपालनादिरिति । नावधर्मत चास्य गम्यार्द विवक्षया नावरूपत्वाद्द्रव्यपर्यायत्वाद्वा तस्यैव च द्रव्यानपेविव किकैर्वा ज्जावधर्मत्वेनेष्टत्वात् । देशराज्या दिनेदश्चैकदेश एवाने कराज्य जव इत्येवं सु नाव्यम् । इत्युक्तो लौकिकः । कुप्रावचनिक उच्यते । इत्यसावपि सावद्यप्रायो arrer एव । त ह "सावको उ" इत्यादि । श्रवद्यं पापं सहा वयेन . तुशब्दस्त्वेवकारार्थः । स चावधारणे । सावद्य एव । कः । कुतीर्थिकधः व्राजकादिधर्म इत्यर्थः । कुत एतदित्याह । न जिनैरई मिस्तुशब्दादन्यैश्च कारिभिः प्रशंसितः स्तुतः । सारम्नपरिग्रहत्वात् । अत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु गम निकामात्र फलत्वात्प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः । उक्तः कुप्रावचनिकः । लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह ॥ डुविदो लोगुत्तरि, सुश्रधम्मो खलु चरित्तधम्मो ॥ धम्मो सना, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ ४३ ॥ व्याख्या ॥ द्विविधो - लोकोत्तरो लोकप्रधानो धर्म इति वर्त्तते । तथा चाह । श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्म तत्र श्रुतं द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः । खलुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि हि वाचनादिनेदा चित्र इत्याद च । श्रुतधर्मः स्वाध्यायवाचनादिरूपः तत्त्व चिन्तायां हेतुत्वाद्धर्मइति । तथा चारित्रधर्मश्च तत्र “चर गतिजक्षणयोः" इत्यस्य नसहचरश्त्रन्” इतीत्रन् प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति नवति चरन्त्यनिन्दितमनेने ति .. स ፡ ( Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । . . २५ रित्रं क्योपशमरूपं तस्य ज्ञावश्चारित्रमशेषकर्मक्ष्याय चेष्टेत्यर्थः। ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये । अयं च श्रमणधर्म एवेत्याह । चारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति । तत्र श्राम्यतीति श्रमणः “कृत्यल्युटो वहुलम्" इति वचनात्कर्तरि व्युट्। श्राम्यतीति तपस्यतीति । एतदुक्तं नवति । प्रव्रज्या दिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतौ गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याप्राणोपरमात्तपश्चरतीति। उक्तं च । “॥ यः समः सर्वजूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च ॥ तपश्चरति शुझात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥" इति । तस्य धर्मः स्वन्नावः। श्रमणधर्मश्च दान्त्यादिलक्षणो वदयमाण इति गाथार्थः । उक्तो धर्मः। सांप्रतं मङ्गलावसरः। तच्चप्राग्निरूपितशब्दार्थमेव । तत्पुनर्नामादिन्नेदतश्चतुर्धा। तत्र नामस्थापने कुणत्वात्सादादनादृत्य अव्यनावमङ्गलानिधित्सयाह॥ दवे नावे विश्रमं-गलाई दवम्मि पुन्नकलसााधम्मो उन्नावमंगल-मेत्तो सिफित्ति काऊणं॥४॥ व्याख्या॥जव्यमिति अव्यमधिकृत्य । जाव इति नावमङ्गलम्।अपिशब्दान्नामस्थापने च। तत्र दवम्मि पुन्नकलसाव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि।आदिशब्दात्स्वस्तिकादिपरिग्रहः।धर्मस्तु।तुशब्दोऽवधारणे।धर्म एव नावमङ्गलम्।कुत एतदित्यत आह । अतोऽस्माधर्मात्दान्त्यादिलक्षणा सिकिरिति कृत्वा मोद इति कृत्वा नवगालनादिति गाथार्थः। श्रयमेव चोत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलम् एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च। न पूर्णकलशादि तस्य नेकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च। सांप्रतं यथोद्देशं निर्देश इति कृत्वा हिंसाविपक्षतोऽहिंसा तां प्रतिपादयन्नाह ॥ हिंसाए पडिवरको, हो अहिंसा चजबिहा सा ज॥दवे नावे थतहा, अहिंसजीवाश्वाजत्ति ॥४॥व्याख्या॥ तत्र प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। थस्या हिंसायाः । किम् । प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपदः । अप्रमत्ततया शुजयोगपूर्वकं पाणाव्यपरोपणमित्यर्थः । किम् । नवत्यहिंसेति । तत्र चतुर्विधा चतुःप्रकारा अहिंसा । दवे नावे अति । अव्यतो नावतश्चेत्येको नङ्गः । तथा व्यतो नो नावतः । जावतो न भव्यतः। तथा न व्यतो न नावत इति। तथाशब्दसमुच्चितो नङ्गत्रयोपन्यासः अनुक्तसमुच्चयार्थकत्वादस्येति। उक्तं च। तथा समुच्चयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रेष्ये वित्यादि । तथाचायं नङ्गकलावार्थः। अव्यतोनावतश्चेति।जहा केश पुरिसे मियवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाहियकोदंडजीवे सरं णिसिरिया। से थ मिए तेण सरेण विके मए। सिया एसा व्वर्ड हिंसा नावउँ वि। या पुनई व्यतोन ना.: वतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गठत इति। उक्तं च ॥ उच्चावियम्मि पाए, : रियासमिअस्स संकमाए ॥ वावेजेज कुलिंगी, मरिज तं जोगमासज्जा ॥१॥ 'नय तलिमित्तो वंधो, सुहुमो वि देसि समए ॥जम्ही सो अपमत्तो,साउपमा त्ति नि १ प्रकारवचनेषु । इति पागन्तरम् । २ "अणवज्जो हु पजे, ण सव्वभावेग सो जम्हा ॥" इति पाठान्तरम् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. एव । तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यागादिमान् सत्वस्तेषु प्रवर्तत इति। चतुरादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हृदयम् । प्रधानसंसारनिवन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थं अव्यधर्मात्पृथगुपन्यासः । इदानीं नावधर्मः। स च लौकिकादिन्नेदनिन्न इति। आह च, लौकिकः कुप्रावचनिकः। लोकोत्तरस्त्वत्र । लोगो णेगविहो त्ति। लौकिकोऽनेकविध इति गाथार्थः।तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह ॥ गम्मपसुदेसरचे, पुरवरगामगणगोहिराईणं ॥ सावद्यो उ कुतित्रिय-धम्मो न जिणेहिं ज पसबो ॥ ४२ ॥ व्याख्या ॥ तत्र गम्यधर्मो यथा दक्षिणापथे मातुलहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्यैव । एवं जयाजदयपेयापेयविनाषा कर्तव्येति । पशुधर्मो मात्रादिगमनलक्षणः । देशधर्मों देशाचारः । स च प्रतिनियत्त एव नेपथ्यादिलिङ्गनेद इति । राज्यधर्मः प्रतिराज्यं निन्नः । स च करादिः । पुरवर धर्मः प्रतिपुरवरं जिन्नः क्वचित्वचिहिशिष्टोऽपि पौरनाषाप्रतिदानादिलक्षणः । सछितीया योपिजेहान्तरं गबतीत्यादिलक्षणो वा । ग्रामधर्मः । प्रतिग्रामं जिन्नः। गाधर्मो मलादिगणव्यवस्था । यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि । गोष्ठीधर्मो गोष्टीव्यवस्था । शह च समवयःसमुदायो गोष्ठी । तव्यवस्था पुनर्वसन्तादावेवं कर्तव्यमित्यादिलक्ष णा । राजधर्मो पुष्टेतरनिग्रहपरिपालनादिरिति । जावधर्मत चास्य गम्यादीनां विवक्षया नावरूपत्वाव्यपर्यायत्वाछा तस्यैव च अव्यानपेक्षा कितत्वाखौकिकैर्वा नावधर्मत्वेनेष्टत्वात्।देशराज्यादिनेदश्चैकदेश एवानेकराज्यसव सधिया नाव्यम् । इत्युक्तो लौकिकः । कुप्रावचनिक उच्यते । इत्यसावपि पायो लौकिककल्प एव । यत आह "सावजो ज” इत्यादि । अवयं पापं सहामावदाम। तुशब्दस्त्वेवकारार्थः। स चावधारणे । सावद्य एव । कः। कुतीथिकधपरिब्राजकादिधर्म इत्यर्थः । कुत एतदित्याह। न जिनैरई निस्तुशब्दादन्यैश्च शापर्व कारिनिः प्रशंसितः स्तुतः। सारम्नपरिग्रहत्वात् । अत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु नव्यते गमनिकामात्रफलत्वात्प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः । उक्तः कुप्रावचनिकः । सो लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह ॥ विहो लोगुत्तरि, सुश्रधम्मो खलुचरित्तधम्मोय ॥ अधम्मो सनाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥४३॥ व्याख्या ॥ छिविधो-छिप्रका लोकोत्तरो लोकप्रधानों धर्म इति वर्त्तते । तथा वाह । श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्म तत्र श्रुतं हादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः। खबुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टि। हि वाचनादिन्नेदाच्चित्र इत्याह च।श्रुतधर्मः स्वाध्यायवाचनादिरूपः तत्त्वचिन्तायां हेतुत्वाधर्म इति। तथा चारित्रधर्मश्च तत्र “चर गतिलक्षणयोः"इत्यस्य "... नसहचरश्चन्” श्तीत्रन्प्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति जवति चरन्त्यनिन्दितमनेनेति च HI/ PAA Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । श्य रित्रं क्योपशमरूपं तस्य नावश्चारित्रमशेषकर्मक्याय चेप्टेत्यर्थः। ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये । अयं च श्रमणधर्म-एवेत्याह । चारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति । तत्र श्राम्यतीति श्रमणः “कृत्यब्युटो वहुलम् " इति वचनात्कर्तरि व्युट्। श्राम्यतीति तपस्यतीति । एतमुक्तं नवति । प्रव्रज्या दिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरतौ गुरूपदेशादनशनादि यथाशक्त्याप्राणोपरमात्तपश्चरतीति। उक्तं च । “॥ यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च ॥ तपश्चरति शुखात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥" इति । तस्य धर्मः स्वन्नावः। श्रमणधर्मश्च क्षान्त्यादिलक्षणो वदयमाण इति गाथार्थः । उक्तो धर्मः । सांप्रतं मङ्गलावसरः। तच्चप्राग्निरूपितशब्दार्थमेव । तत्पुनर्नामा दिनेदतश्चतुर्धा। तत्र नामस्थापने कुलत्वात्सादादनात्य अव्यनावमङ्गलानिधित्सयाह॥ दवे नावे विश्रम-गलाई दवम्मि पुन्नकलसााधम्मो उन्नावमंगल-मेत्तो सिफित्ति काऊणं॥४॥ व्याख्या॥ऽव्यमिति अव्यमधिकृत्य । नाव इति जावमङ्गलम्।अपिशब्दान्नामस्थापने च। तत्र दवम्मि पुन्नकलसाइ।अव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि।आदिशब्दात्स्व स्तिकादिपरिग्रहः।धर्मस्तु।तुशब्दोऽवधारणे।धर्म एव नावमङ्गलम्।कुत एतदित्यत आह। अतोऽस्माधर्मात्दान्त्यादिलक्षणासिफिरिति कृत्वा मोक्ष इति कृत्वा नवगालना दिति गाथार्थः । श्रयमेव चोत्कृष्टं प्रधानं मङ्गलम् एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाचन पूर्णकलशादि तस्य नेकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च। सांप्रतं यथोद्देशं निर्देश इति कृत्वा हिंसाविपक्षतोऽहिंसा तां प्रतिपादयन्नाह ॥ हिंसाए पडिवरको, होइ अहिंसा चजबिहा सा ज॥दवे जावे श्र तहा, अहिंसजीवाश्वाजत्ति ॥१५॥व्याख्या॥ तत्र प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा। श्रस्या हिंसायाः। किम् । प्रतिकूलः पदः प्रतिपदः । अप्रमत्ततया शुन्नयोगपूर्वकं पाणाव्यपरोपण मित्यर्थः। किम् । नवत्यहिंसेति । तत्र चतुर्विधा चतुःप्रकारा अहिंसा । दवे नावे अति । अव्यतो नावतश्चेत्येको नङ्गः । तथा अव्यतो नो नावतः । लावतो न अव्यतः। तथा न उव्यतो न लावत इति। तथाशब्दसमुचितो नङ्गत्रयोपन्यासः अनुक्तसमुच्चयार्थकत्वादस्येति। उक्तं च। तथा समुच्चय निर्देशावधारणसादृश्यप्राप्येष्वित्यादि। तथाचायं नङ्गकनावार्थः। अव्यतो नावतश्चेति।जहा केश पुरिसे मियवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता यन्नाहियकोदंडजीवे सरं णिसिरिद्या । सेय मिए तेण सरेण विझे मए। सिया एसा दवर्ड हिंसा नाव वि। या पुन व्यतोन नावतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गठत इति। उक्तं च "॥ उच्चालियम्मि पाए, रियास मिअस्स संकमहाए ॥ वावेजेज कुलिंगी, मरिज तं जोगमासजा ॥१॥ -नय तलिमित्तो बंधो, सुदुमो वि देसिङ समए ॥जम्हा सो अपमत्तो, साउपमा ति नि १ प्रकारवचनेषु । इति पाठान्तरम् । २ "अणवज्जो हु पज, ण सवभावेग सो जम्दा ।। इति पाठान्तरम् । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. दिशा ॥२॥” इत्यादि।या पुनर्जावतो न व्यतः सेयम् । जहा के वि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संहियं इसिवलिअकायं रहुं पासित्ता एस अहि त्ति तबहपरिणामए पिकड़िया सिपत्ते दुशं दुशंबिंदिया। एसा नाव हिंसा न दवर्ड । चरमजङ्गास्तु शून्य इत्येवंजूताया हिंसायाः प्रतिपदोऽहिंसेति । एकार्थिका निधित्सयाह । अहिंसजीवाश्वा त्ति । न हिंसा अहिंसा न जीवातिपातः अजीवातिपातः। तथा च तहतः स्वकर्मातिपातो नवत्येवाजीवश्च कर्मेति नावनीयमिति । उपलक्षणत्वाच्चेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः । सांप्रतं संयमव्या चिख्यासयाह ॥ पुढ विदगअगणिमारुय-वणस्सई बितिचउपणिं दिअजीवे ॥ पेहापेहपमऊण-परिवणमणवश्काए ॥ ४६ ॥ व्याख्या ॥ पुढवाश्याण जाव य, पंचिंदिअ संजमो नवे तेसिं ॥ संघट्टणादि ण करे, तिविहेण करणजोएणं ॥ १॥ अजीवेहिं जेहिं, गहिएहिं असंजमो श्ह जणि ॥ जह पोब दूसपणए, तणपणए चम्मपणए अ॥२॥ गंमी कबवि मुठी, संपुमफलए तहा बिवाडी अ॥एवं पोबहपणयं, पमत्तं वीअराएहिं ॥३॥ बाहापुहत्तेहिं, गंमीपोडो उ तुझगो दीहो ॥ कबवि अंते तणु मने पिहलो मुणेअवो ॥ ४ ॥ चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिति मुहिपोगो अहवा ॥ चउरंगुलदीहो चिय, चउरस्सो सो ज़ विखे ॥ ५॥ संपुमर्ड दुगमाई, फलगा वो बिवाडिमेत्ताहे ॥ तणुपत्तो सिअरूवो, हो बिवाडी बुहा वेंति ॥६॥ दीहो वा हस्सो वा, जो पिठुलो होश अप्पबाहहो॥ तं मुणिशसमयसारा, बिवाडिपोडं नणंतीह ॥ ७॥ दुविहं च दूसपणअं, समास तं पि होइ नायवं ॥ अप्पडिले हियदूसं,छप्पडिलेहं च विमेयं ॥ ७॥ अप्प डिलेहिअदूसे, तूली उवधाणगं च णायवं ॥ गंमुवधाणालिंगिणि, मसूरए चेव पोबगए ॥ ए ॥ पदहविको यवि पावा-रणवतए तहय दाढगाली ॥ दुप्पडिले हिअ दूसे, एवं बीअं नवे पणगं ॥ १० ॥ पदह विहरणं, कोयवर्ड रूअपूरि पडिजे ॥ दढगालिधोपोत्ती, सेस पसिझा नवे नेदा ॥ ११ ॥ तणपणगं पुण जणिशं, जिणेहिं कम्महगंविदहणेहिं ॥ सालीवीहीकोदव,-रालग रमे तणाझं च ॥ १२ ॥ अयएलगाविमहिसी-मियाणमजिणं च पंचमं होई ॥ नलियाखबगवट्टे, कोसगकित्तीयवितिएय ॥ १३ ॥ तह वि अहिरलाई, ताईन गेण्हर असंजमं साहू ॥ गणार जब एए, पेहपमचित्तु तब करे ॥१४॥ एसो पेह उपेहा, पुणो वि दुविहा उ होश नायवा॥ वावारावावारे,वावारे जह उ गामस्स ॥ १५ ॥ एसो नविकगोद अवावारे जहा विणस्संतं॥ किं एयं नु उविकसि, दुविहा एविन अहिआरो ॥१६॥वावारुविकतर्हि, संतोनियसीसगाणचोएई ॥ चोएई श्यरं • पि हु, पावयणीअम्मि कचम्मि ॥१७॥ अबावारउवेकण, विचोए गिहिं तु सीअंतं ॥ । कम्मेसु बहुविहेसु, संजम एसो उवकाए ॥ १७ ॥ पडिसागरिए अपमधिए, सु Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । २७ पाए सुसंजमो होइ ॥ ते चैव पमद्यंते, असागरिए संजमो होड़ ॥ पाणाईसंसतं, त्तं पाहवा व विसुद्धं ॥ जवगरणनत्तमा, जंवा इरित्त होद्याहि ॥१॥ तं परिवणविहीए, वह संजमो वे एसो ॥ कुसलमणवोहो, कुसलाण नदी - रणं चैव ॥ २० ॥ मणव संजम एसो, काए पुण जं श्रवस्सकन म्मि ॥ गमणागमणं नव तं वत्तो कुणइ सम्मं ॥ २३ ॥ तवद्यं कुम्मस्सव, सुसमाहियपाणिपाय कायस्स ॥ हवय काश्यसंजम, चिदंतस्सेव साहुस्स ॥ २४ ॥ " उक्तः संयमः । आह । श्रहिंसैव तत्त्वतः संयम इति कृत्वा तद्भेदेनास्या निधानमयुक्तम् । न संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्संयमिन एव जावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । सांप्रतं तपः प्रतिपाद्यते । तच्च द्विधा । वाह्यमान्यन्तरं च । तत्र तावद्दाह्यप्रतिपादनायाह ॥ । सम्पोरिया, वित्ती संखेवणं रसञ्चानं ॥ काय किलेसो संली या य वनो तवो होई ॥ ४७ ॥ व्याख्या ॥ न अशनमनशनम् श्राहारत्याग इत्यर्थः । तत्पुनर्द्विधा । इत्वरं यावत्कथिकं च । तत्रेत्वरं परिमितकालं तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीयें चतुर्थादिपएमासान्तम् । यावत्कथिकं त्वाजन्मनावि । तत्पुनश्चेष्टाने दोपाधि विशेषत स्त्रिधा । तद्यथा, पादपोपगमन मितिमरणं जक्तपरिज्ञा चेति । तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टातिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तं निःप्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोपगमनं सामीप्येन वर्तनं पादपोपगमनमिति । तच्च द्विधा । व्याघातवन्निर्व्याघातवच्च । तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिंहाद्युपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति । उक्तं च । "सीहादिसु अनि पादवगमणं करे थिरचित्तो ॥ श्राजम्मि पहुप्पंते, विद्याटिं न वर गी ॥ " इत्यादि । निर्व्याघातं च पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्टितः शिष्या निष्पाद्योत्सर्गतः द्वादशसमाः कृतपरिकर्मा तत्काल एव करोति । उक्तं च " ॥ चतारि वि चित्ता, विगई निब्रूहियाएं चत्तारि ॥ संवरे दो सिउ, एगंत रित्र्यं च यायामं ॥ णाविगि अ तवो, बम्मासपरिमियं च श्रायामं ॥ श्रन्ने विध्य ठम्मासे, होइ विहिं तवो कम्मं ॥ वासं कोडी सहियं श्रायामं का श्रणुपुवीए || गिरिकंदरं तु गंतुं, पायवगमणं श्रह करे ॥ " इत्यादि । तथा इंगिते प्रदेशे मरण मितिम रणम् । इदं च संहननापेक्षमनन्तरो दितमशक्रुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोइर्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यमिति । उक्तं च “॥ इंगियदेसंमि सयं च विदाहारचायणिष्फलं ॥ उद्दत्तणादिजुत्तं, गाणेण उ इंगिणी मरणं ॥ इत्यादि । जक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहार विनिवृत्तिरूपा । सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंदननवतो यथासमाधि जावतोऽवगन्तव्येति । उक्तं च ॥ जत्तपरिमाणसणं, तिउचन्दादारचायनिष्फलं ॥ सप डिक्कम्मं नियमा, जहासमाहिं विणि दिनं ॥ इत्याद्युक्तमनशनम्। अधुना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग ४३ मा. 'जनोदरता । छनोदरस्य नाव ऊनोदरता।सा पुनर्जिविधा व्यतो जावतश्च । तत्र - व्यत उपकरणजक्तपान विषया। तत्रोपकरणे जिनकदिपकादीनामन्येषां वा तदन्यासपराणामवगन्तव्या न पुनरन्येषाम् । उपध्यत्नावे समग्रसंयमानावादतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति । उक्तं च “ ॥ जं व उवयारे, उवगरणं तं मि होश उवगरणं ॥ अश्रेग अहिगरणं, अजयं अजउँ परिहरंतो ॥” इत्यादि । जक्तपानोनोदरता पुनरात्मीयाहारादिमानपरित्यागवतो वेदितव्या । उक्तं च ॥ " बत्तीसं किर कवला, आहारो कुछिपूर नणि ॥ पुरिसस्स महि विश्राए, अहावीसं हवे कवला ॥ कवलाण य परिमाणं, कुक्कुडिअंडयपमाणमेत्तं तु ॥ जो वा अवि गिअवयणो, वयणम्मिबुहेद्य वीसबो ॥” इत्यादि । एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरताल्पाहारा दिनेदतः पञ्चविधा नवति । उक्तं च ॥" अप्पाहार अवट्ठा, पुनागपत्ता तहेव किंचूणा॥ अहवालस सोलस, चउवीस तहेकतीसा य ॥" अयमत्र नावार्थः । अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादारज्य यावदष्टौ कवला इत्यत्र चैककवलमाना जघन्या, अष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषनेदा मध्यमा च । एवं नवच्य आरज्य यावद्द्वादश कवलास्तावदपा?नोदरता। 'जघन्या दिनेदा नावनीया इति । एवं त्रयोदशन्य आरन्य यावत्षोडश ताव ट्विनागोनोदरता । एवं सप्तदशज्य आरज्य यावच्चतुर्विंशतिस्तावत्प्राप्ता । वं पञ्चविंशतेरारज्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किंचिदूनोदरता । जघन्या दिनेदाः स्वधियावसेयाः । एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः। एवं योषितोऽपि अष्टव्या इति । जावोनोदरता पुनः कोधादिपरित्याग इति । उक्तं च ॥ “कोहाईणमणु दिणं, चार्ड जिणवयणनावणार्ड अ॥ नावेणोणोदरिया, पमत्ता वीरागेहिं ॥” इत्यादि । उक्तोनोदरता । इदानीं वृत्तिसंकेप उच्यते । स च गोचरा निग्रहरूपः । ते चानेकप्रकाराः। तद्यथा । अव्यतः देवतः कालतो नावतश्च । तत्र अव्यतो निर्लेपादि ग्राह्य मिति । उक्तं च “॥लेवरमलेवमं वा, अमुगं दवं च अद्य पिबामि ॥ अमुगेण य दवेणं, अह दवानिग्गहो नाम ॥ अहल गोअरन्नूमी, एलुगविकंनमित्तगहणं च ॥ सग्गामपरग्गामे, पवश्एयरायखित्तम्मि ॥ उद्युअ गंतुं पञ्चा-गई अ गोमुत्तिया पयंगविही ॥ पेडा य अपेडा, अप्रिंतरबाहिसंयुका ॥ काले अनिग्गहो पुण, श्रादी मने तहवसाणे ॥ अप्पत्ते स काले, आदीविमश्मनतश्ते ॥ दितगपडिबयाणं, नवेद्य सुहुमं पि माहु अवियत्तं ॥ इत्ति---- अपत्तथतीते, पचत्तणंमीय तो मप्ले । उरिकत्तमाश्चरमा, नावजुश्रा खवु अनिग्ग- .. हां होति ॥ गायंतो अरुअंतो, जं देश निसन्नमादी वा ॥ जैसकण अहिसकण-परंमुहालंकि नरो वा वि ॥ नावणयरेण जुर्ज, अह नावानिग्गहो णाम ॥” उक्तो वृत्तिसंदेपः । सांप्रतं रसपरित्याग उच्यते । तत्र रसाः वीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । उक्तं च ॥ विगई विगनीन, विगयगयं जोन चुंजए साहू ॥ विगई विगइसहावा, विगई विगई वला णेश् ॥ विगई परिणश्चम्मो, मोहो जसु रिद्यए दिले अ॥ सुहुचित्तजयपरो, कहं अकयेण चिहिहित्ति ॥ दावानलमलगर्ज, को तवसमध्याश् जलमाइ ॥ सत्ते विण से विद्या, मोहाणलदी विएसुवमा॥"इत्यादि ॥ उक्तो रसपरित्यागः। सांप्रतं कायक्लेश उच्यते । स च वीरासनादिनेदाचित्र इति। उक्तंच “॥वीरासणउनुमुगा-सणाइ लोयाश्यो य विमे ॥ कायकिलेसो संसा-रवास निवेअहेजत्ति ॥ वीरासणासु गुणा, कायनिरोहादयो अ जीवेसु ॥ परलोअगई अ तहा, वहुमाणो चेव अन्नेसि ॥ णिस्संगया य पला,पुरकम्म विवद्यणं च लोअगुणा॥ कुरकसहत्तं नरगा-दिनावणाए य निवेओ ॥” तथान्यैरप्युक्तम् “ ॥ पश्चात्कर्म पुरःकर्म तथा ये च परिग्रहाः॥ - दोपा ह्येते परित्यक्ताः शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥" इत्यादि । गतः कायक्लेशः । सांप्रतं संलीनतोच्यते । श्यं चेन्द्रियसंलीनता दिनेदाचतुर्विधेति । उक्तं च "इंदिअकसायजोए, पडुच्च संतीणया मुणेअदा ॥ तहय विवित्ता चरित्रा, पमत्ता वीअरागेहिं ॥ तत्र श्रोत्रादिनिरिन्डियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरण मिन्जियसंलीनतेति । उक्तं च “॥ सद्देसु अनदयपा-वएसु सोअविसयमुवगएसु ॥ तुरण य, रुहेण य समणेण सया ण होई ॥” एवं शेषेन्डियेष्वपि वक्तव्यम् । यथा। "रूवेसु नद्दगपावएसु" इत्यादि । उक्तेन्जियसंतीणताधुना कषायसंलीनता। सा च उदय निरोधोदीर्ण विफलीकरणलक्षणेति । उक्तं च “॥ उदयस्सेव निरोहो, उदयं पत्ताण वाफलीकरणं ॥ जं च कसायाणं, कसायसंलीनता एसा ॥” इत्यादि । उक्ता कपायसंलीनता सांप्रतं योगसंलीनता । सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानासुदीरण मित्येवंनूतैति । उक्तं च “॥ अपसवाण निरोहो, जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं ॥ कजम्मि यविहगमणं, जोए संदीणया नणिआ॥"इत्यादि । उक्ता योगसंतीनता । अधुना विविक्तचर्या सा पुनरियम् ॥ आरामुजाणादिसु, वीपसुपंडगविवजिएसु जंगणं ॥ फलगाहारादीण य, गहणं तह एसणिजाणं ॥" गता विविक्तचर्या । उक्ता संलीनता। “वो तवो होही"इति । एतदनशनादि वाह्यं तपो नवति । लौकिकरप्याव्यमानं झायत इति कृत्वा वाह्यमित्युच्यते । विपरीतग्राहेण वा कुतीथिर्केर पि क्रियत इति कृत्वा इति गाथार्थः । उक्तं वाह्यं तप दानीसान्यन्तरमुच्यते । तच प्रायवित्ता दिनेदमिति । आह च ॥ पाय ठितं विण, वेश्यावच्चं तदेव सना ॥ काणं नवसग्गो वि अ, अप्रिंतर तवो हो ॥ ४ ॥ व्याख्या ।। तत्र पापं विनत्तीति पापछित । थवा यथाव स्थितं प्रायश्चित्तं शशमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति । उनं च ॥"पा विंद जम्दा, पायचित्तं ति नभए तम्हा॥पाएण वा वि चित्तं, विलोद्दई तेल पहिनं ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. तत्पुनरालोचनादि दशधेति । उक्तं च ॥ "बालोअणपडिकमणे, मीसविवेगे तहा वि उस्सग्गे ॥ तवडेअमूलअणव-च्या य पारंचिए चेव ॥” नावार्थोऽस्या आवश्यक विशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तं सांप्रतं विनय उच्यते। तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय उच्यते॥ विनयफलं शुश्रूषा,गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ॥ज्ञानस्य फलं विरति-विरतिफलं चावनिरोधः ॥ संवरफलं तपोवल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम् ॥ तस्माक्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयो गित्वम् ॥ योगनिरोधानवसं-ततिक्षयः संततिक्ष्यान्मोदः॥ तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां नाजनं विनयः॥" स च ज्ञानादिन्नेदासप्तधा॥ उक्तं च "॥णाणे दंसणचरणे, मणवश्काउँवयारि विण ॥णाणे पंचपगारो, मश्णाणाईण सद्दहणं ॥ जत्ती तह बहुमाणो, तद्दिबाण सम्मन्नावणया ॥ विहिगहणपासो वि अ, एसो विण जिणानिहिर्ज॥सुस्सूसणा अणासा-यणा य विण अ इंसणे . सुविहो॥दसणगुणाहिएसु, कद्यश् सुस्सूसणा विण ॥ सकारहाणे, सम्माणासणअनिग्गहो तहय ॥ आसणअणुप्पयाणं, किश्कम्मं अंजलिगहो अ॥ एतस्सणुगबणया, ठिअस्स तह पावासणा नणिया ॥ गढ़ताणुव्वयणं एसो सुस्सूसणाविण ॥ इह य सकारो थुणणवंदणादि, अनुहाणं जर्ज दीस त चेव कायवं, संमाणो वबपत्ता- . दीहिं पूअणं । आसणानिमुहो पुण अबंतस्सेवायरेणासणाणयणपुवगं उवविसेहएबति नणणं त्ति । आसणअणुप्पदाणं तु गणा गणं संचारणं। किश्कम्मादयो पगडबा । अणासायणाविण पुण पसरस विहो।तं जहा“॥तिबगर-धम्म-आयरिअ-वायग-थेर-कुल-गणे संघे ॥संजोश्य-किरियाए मश्णाणाईण य तहेव ॥” एबजावणा तिबगराणमणासायणा य तिबगरपन्नत्तस्स धम्मस्स अणासायणा । एवं सर्वत्र अष्टव्यम् । "कायवा पुण जत्ती, बहुमाणो तहय वणवार्ड अ॥ अरहंतमाश्याणं, केवलणाणावसाणाणं ॥” उक्तो दर्शनविनयः। सांप्रतं चारित्रविनयः ॥ सामाश्याश्चरणस्त, सद्दहणं तहेव काएणं ॥ संफासणं परूवण-महपुर नवसत्ताणं ॥ मणवश्काश्यविणर्ज, आयरियाईण सबकालं पि ॥ अकुसलमणाश्रोहो, कुसलाणमुदीरणं तह य ॥” श्दानीमौपचारिकविनयः ॥ स च सप्तधा “ ॥ अप्पासबणबंदा-गुवत्तणं कयपमिकिई तह य॥ कारियणि मित्तकरणं, कुरकत्तगवेसणा तह य ॥ तह देसकाल जाणण, सबसु तह यणुमई नणिया ॥ उवारि ज विणजे, एसो नणि समासेणं ॥” तब अप्लासबणं आसणअिस्स णिच्चमेव आअरियस्स अप्लासे अदूरसामन्ते अछेअव्वं । बंदाणुवत्तियवो कयपडिकिई णाम पसमा आयरिया सुत्त तनयाणि दाहिंति णणाम निजारत्ति आहारादिणा जश्यत्वं, कारियणिमित्तकरणं सम्ममनपदमहेद्या विणएण विणए विसेसेण वहिवं तयहाणुशाणं च कायत्वं । सेसनेदा पसिझा । जिनस्य धर्मो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ३१ ;; जिनधर्मः । विनयमूलः । उक्तं च "|| मूलाज खंधप्पनवो मस्स ॥ इत्यादि यतः "विए सासणे मूलं, विएर्ड निवाण साहगो ॥ विण्याज विप्पमुक्कस्त, कर्ज धम्मो कर्ज तव ॥ १ ॥ विया नाणं नापाउ, दंसणं दंसणा चरणं ॥ चरणेहिंतो मुरको, मुरके सुरकं णावाहं ॥ २ ॥ " उक्तो विनय इदानीं वैयावृत्त्यम् । तत्र व्यावृत्तनावो वैयावृत्त्यमिति । उक्तं च ॥ वेावच्चं वाव नावो इह धम्मसाणिमित्तं ॥ सादियाविहिणा, संपायणमेस जावचो ॥ यरिा उवनाए, थेर तबस्सी गिलाणसे हाणं ॥ साहम्मियकुलगणसं -घसंगयं तमिह कायहं ॥ " त यरि पंचविहो । तं जहा पवावायरि दिवारिय सुत्तस्स उद्देसणायरि सुत्तस्य समुद्देस्सणायरिर्ज वायणाय रिउत्ति | वनाया पसिद्धा चेव । थेरो नाम जो गछस्स संचितिं करे‍ । जाइसुपरियायासु वा थेरो । तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरई । गिलाणो नाम रोगानिनू । सिकागो पाम जो हुणा पव | साहम्मि णाम एगो पवयार्ड ए लिंगर्ड, एगो लिंग ए पarud, एगो लिंग वि पवयार्ड वि, एगो ए लिंग ण पवया । गणसंघा पसिद्धा चेव । इदानीं सना | सो पंचविहो वायणा पुत्रणा परिश्रणा अणुप्पेहा धम्मका । वाया नाम सिस्सस्स अावणं । पुत्रणा सुत्तस्स स्स वा हवई । परिणा नाम परिश्रांति वा अस्सां ति वा गुणणं ति एगट्टा । णुप्पेहा नाम जो मासा परि णो वायाए । धम्मकहा णाम जो अहिंसा लरकणं सवसुणी धम्मं अणुगं वा कहे । एसा धम्मका । गतः स्वाध्यायः । इदानीं ध्यानमुच्यते । तत्पुनरार्ता दिनेदाच्चतुर्विधम् । तद्यथा । श्रार्तध्यानं रौद्रध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यानं चेति । तत्र “| राज्योपजोग शयनासनवाहनेपु, स्त्री गन्धमाल्यमणिरलविभूषणेषु ॥ इवानिलापमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यानं तदार्तमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ संवेदनैर्दहननञ्जनमारणैश्च वन्धप्रहारदमनैश्च निकृन्तनैश्च ॥ यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ २ ॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमहेतु चिन्ता ॥ पञ्चेन्द्रियव्युपरम दया च नूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ३ ॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्पकल्पन विकल्पविकारदोपैः ॥ योगेः सदा त्रिनिरहो निवृतान्तरात्मा. ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥ ४ ॥ यातें तिर्यगितिस्तथा गतिरधों ध्यानं रोडे सदा, धमें देवगतिः शुभं वत फलं शुक्ते तु जन्मयः ॥ तन्माष्ट्याधिरुगन्तके हितकरे संसार निर्वाहके, ध्याने शुक्लतरे रजः प्रसवने कुर्यात्प्रयतं बुधः ॥ ५ ॥ इति । उक्तं च समासतो ध्यानं विस्तरतस्तु ध्यानशतकादवनेचमिति । सांप्रतं व्युत्सर्गः । स च द्विधा । व्यतो जावतश्च । द्रव्यतश्चतुर्था । गणशरीरोपध्याहारनेदात् । तु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग ४३ मा. नावतश्चित्रः क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति। उक्तं च “॥ दवे अनावे अ तहा, हा विसग्गो चलविहो दवे ॥ गणदेहोवहिनत्ते, नावे कोहादिचा ति ॥ काले गणदेहाणं, अतिरित्ता सुनत्तपाणाणं ॥ कोहाश्याण सययं कायबो होश् चाउत्ति ॥” उक्तो व्युत्सर्गः । अप्निंतर तवो होइ त्ति । इदं प्रायश्चित्ता दिव्युत्सर्गान्तमनुष्टानं लौकिकैरन जिलदयत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च जावतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्गत्वाच्चान्यन्तरं तपो जवतीति गाथार्थः । शेषपदानां प्रकटार्थत्वात्सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिकृता नोक्ता स्वधिया तु विनागे स्थापनीयेति । अत्राह । धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमतपोग्रहणमयुक्तं तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यनिचारादिति । उच्यते। न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वाधर्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथं चिभेदः कथंचिदन्नेदश्चेति। तस्य अव्यपर्यायोजयरूपत्वात् । उक्तं च "॥णचिपुढवी विसिहो, धमोत्ति जं तेण जुद्यश् अणणो॥जं पुण धमुत्ति पुत्वं, नासी पुढवीइतो अन्नो॥इत्यादि। गम्यादिधर्मव्यवछेदेन तत्स्वरूपझापनार्थं वाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण । ह। अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतचः किमाझासिछमाहोस्विद्युक्तिसिझमपि।अत्रोच्यते।उन्नयसिहं कुतो जिनवचनत्वात्तस्य च विनेयसत्वापेक्षयाज्ञादिसिद्धत्वात्।आह च नियुक्तिकारः “जिणवयणं सिहं चेव,नम कब उदाहरणं ॥ आसघन सोयारं हेज वि कहिं वि नद्या॥४ए॥व्याख्या॥जिनाः प्राग्निरूपितस्वरूपाः तेषां वचनं तदाज्ञया सिझमेव सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव अविचार्यमेवेत्यर्थः । कुतः जिनानां रागादिरहितत्वाजागादिमतश्च सत्यवचनासंनवात्। उक्तं च "रागाछा द्वेषाछा मोहाछा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् ॥ यस्य तु नैते दोषा-स्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ॥" इत्यादि ॥ तथापि तथाविधश्रोत्रपेक्ष्या तत्रापि जण्यते क्वचिदाहरणम् । तथा आश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि क्वचिनण्यते । नतु नियोगतः। तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः। किंविशिष्टं श्रोतारम् । पटुधियं मध्यमधियं च । नतु मन्दधियम्। इति । तथाहि । पटुधियो देतुमात्रोपन्यासादेव प्रसूतावगतिवति । मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते न वितर इत्यर्थः । तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते दृष्टान्त इत्यर्थः । साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणश्च हेतुः। श्ह च हेतुमुन्नध्य प्रथममुदाहरणानिधानं न्यायानुगतत्वात्तहलेनैव हेतोः साध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः । क्वचिकेतुमननि---- धाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थं वा । यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुजलानां गत्युपष्टम्नको धर्मास्तिकायश्चकुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत् । उक्तं च । "जीवानां पुजलानां च गत्युपष्टम्नकारणम् ॥ धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चकुष्मतो - यथा ॥” तथा क्वचिकेतुरेव केवलोऽनिधीयते । न दृष्टान्तः। यथा मदीयोऽयमश्वो Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रयमाध्ययनम् । ३३ विशिष्ट चिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः । तथा ॥ कइ पंचावयवं दसहा वा सवहा न पडिसिद्धं ॥ न य पुण सर्व जमइ. हंदी सवित्र्यारमरकायं ॥ ५०॥ व्याख्या ॥ श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य कचित्पञ्चावयवं दशधा वेति क्वचिद्दशावयवं सर्वथा गुरुश्रोत्रपेयान प्रतिषिद्धमुदाहरणाय निधानमिति वाक्यशेषः । यद्यपि च न प्रतिपिं तथाप्यविशेषेणैव न च पुनः सर्व जयते उदाहरणादि । किमित्यत आह । हंदी सविश्रारमरकायं । हंदीत्युपप्रदर्शने । किमुपप्रदर्शयति । यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे सविचारं सप्रतिपक्षमाख्यातं साकल्यत उदाहरणाद्य निधानमिति गम्यते । पञ्चावयवाच प्रतिज्ञादयः । यथोक्तम् । प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनय निगमनान्यवयवाः । दश पुनः प्रतिज्ञा विजत्त्यादयः । वदयति च । " ते उपसविहत्ती " इत्यादि । प्रयोगांचेतेपां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्यामीति गाथार्थः । सांप्रतं ययुक्तं " जिणवयां सिद्धं चैव जण कई उदाहरणं " इत्यादि तत्रोदाहरणहेत्वोः स्वरूपानिधित्सयाह ॥ तवारणं विहं, चहिं होइ एकमेकं तु ॥ देऊ चविहो खलु, तेरा उ साहियए ; ॥ ५१ ॥ व्याख्या ॥ तत्रशब्दो वाक्योपन्यासाथ निर्धारणाय वा । उदाहरणं पूर्ववत् । तच्च मूलभेदतो द्विविधं द्विप्रकारं चरितकल्पितनेदात् । उत्तरभेदतस्तु चतुर्विधं जयति तयोर्द्वयोरेकैकमुदाहरणमाहरणतद्देशतदोषोपन्यासभेदात्तच्च वक्ष्यामः । तथा हि-नोति गमयति जिज्ञासितधर्म विशिष्टानर्थानिति हेतुः । स चतुर्विधचतुःप्रकारः । खलुशब्दो व्यक्तिनेदादनेकविधश्चेति विशेषणार्थः । तुशब्दस्य पुनः शब्दार्थत्वात्तेन पुनदेंतुना साध्यार्थाविनाभाववलेन साध्यते निष्पाद्यते ज्ञाप्यते वार्थः प्रतिज्ञार्थ इति गायार्थः । सांप्रतं नानादेशज विनेयगण हितायोदाहरणैकार्थिकप्रतिपिपाद विपयाह ॥ नायं आहरणं तिय, दितोवमनिदरिसणं चैव ॥ एग ं तं विदं चचिय ॥ ५२ ॥ व्याख्या॥ ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम् । व्यधिकरणे निष्टात्ययः । तथोदा ह्रियते प्रावल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम् । दृष्टमर्यमन्तं नयतीति दृष्टान्तः । प्रतीन्द्रियप्रमाणदृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः । उपर्सीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । तथा च निदर्शनं निश्चयेन दतेऽनेन दार्शनिक - वार्थ इति निदर्शनम् । एगहं ति । इदमेकार्थिकज्ञातम् । इदं च तत्प्रागुपन्यन्तं विध मुदाद्रणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि । सामान्यविशेषयोः कर्मविदे कत्वादत एव सामान्यस्वापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनानिधानम् । एकान बहु वक्तव्यं तन्तु नोच्यते धन्यविस्तरनयाद् गम निकामात्रमेतदिति गायार्थः । नां प्रतं यक्तं तत्रोदाहरणं द्विविधमित्यादि । तदु विध्यादिप्रदर्शनायाह ॥ परिम कप्पियं वा विहं तत्तो चरिदेकं ॥ श्राहारणे तसे तसे चेन्ना ॥ ५३ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. व्याख्या॥चरितं च कल्पितं चेति विविधमुदाहरणम्। तत्र चरितमनिधीयते यहत्तं तेन कस्य चिद्दार्टान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते। तद्यथा दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते । तेन च कस्य चिद्दा न्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते।यथा पिप्पलपत्रैर नित्यतायामिति।उक्तं च ॥ “जह तुने, तह अम्हे, तुले चि अ होहिहा जहा अम्हे ॥ अप्पाहे उ पमंतं, पंमुश्रपत्तं किसलयाणं ॥ण वि अछि ण वि अ होई, उद्घावो किसलपंपत्ताणं ॥ उवमा खलु एस कया, नविजण विवोहपठाए ॥” इत्यादि । आह ।उदाहरणं दृष्टान्त उच्यते तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति । उक्तं च ॥ साध्येनानुगमो हेतोः साध्यानावे च नास्तिता ॥ ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः स साधम्र्येतराद्विधा ॥अस्य पुनस्तक्षणाजावात्कथमुदाहरणत्वमित्यत्रोच्यते। तदपि कथंचित्साध्यानुगमादिना दाान्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम्। शहापि च सोऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणतेति।साध्यानुगमादिलक्षणमपि सामान्यविशेषोजयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथंचि दवा दिन एव युज्यते नान्यस्यैकान्तनेदानेदयोस्तदनावादिति । तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थनेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेर नित्यत्वादि प्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव जिन्नवस्तुधर्मत्वात्सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्वा दिवमपि च तबलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तरजयादिति । एवं सर्वथा अनेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदनावो नावनीय इति।अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तधर्मसामर्थ्यात्तत्तस्तुनःप्रतिबन्धबलेनैव तस्य वस्तुनो गमकं जवत्यन्यथा ततस्तस्मिंस्तत्प्रतिपत्त्यसंजव इति कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः। चरितं कल्पितं चेत्यनेन विधिना विविधम् । ततः पुनश्चतुर्विधं चतुःप्रकारमेकैकम् । कथमत आह । उदाहरणं तद्देशः तदोषश्चैव उपन्यास इति। तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एवातस्य देशस्तद्देश एवं तदोषः। उपन्यसनमुपन्यासः स च तस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण शति गाथार्थः । सांप्रतमुदाहरणमनिधातुकाम आह ॥ चउहा खलु आहरणं, हो अवार्ड उवाय उवणा य ॥ तह य पमुप्पन्नविणा-समेव पढमं चनविगप्पं ॥ २४ ॥ व्याख्या॥ चतुर्धा खलु उदाहरणं जवति । अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे नेदा नवन्ति। तद्यथा । अपायः। उपायः। स्थापना च । तथा च प्रत्युत्पन्न विनाशमेवेति । स्व-... रूपमेषां प्रपञ्चेन नेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति । तथा चाह । प्रथममपायोदाहरणं - चतुर्विकल्पं चतुर्नेदम् । तत्रापायश्चतुःप्रकारः । तद्यथा । अव्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो नावापायश्च इति गाथार्थः। तत्र व्यादपायो अव्यापायः। अपायोऽनिष्टप्राप्तिः। १“स साधम्र्येतरों द्विधा" इति पाठान्तरम् । ... Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । अव्यमेव वापायो ऽव्यापायः अपायहेतुत्वादित्यर्थः । एवं क्षेत्रादिष्वपि जावनीयम् । सांप्रतं व्यापायप्रतिपादनायाह॥दवावाए दोन्नि उ, वाणिश्रगा नायरो धणनिमित्तं ॥ वहपरिणएक्कमेकं, दहंमि मछेण निव्वे ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ अव्यापाये उदाहरणं छौतु । तुशब्दादन्यानि च । वणिजौ वातरो धननिमित्तं धनार्थ वधपरिणतौ एकैकमन्योन्यं दूदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथादरार्थः। नावार्थस्तु कथानकादवसेयः । तच्चेदम् । एगंमि संनिवेसे दो नायरो दरिद्दपाया तेहिं सोरठं गंतूण साहस्सिर्ज एउखर्ड रूवगाणं विढविठ ते असयं गाम संपठिया संतातंजलयं वारएण वहंति। जया एगस्स हछे तदा श्यरो चिंतेश् ।'मारेमि णवरमेए रूवगा ममं होंतु"। एवं वी चिंतेइ “जहाहं एवं मारेमि" । ते परोप्परं वहपरिणया अनवसंति । त जाहे सग्गामसमीवं पत्ता तक नश्तके जिहेअरस्स पुणरावत्ती जाया। "घिरनु ममं जेण मए दवस्त कए नाजविणासो चिंति"। परुलो अरेण पुचि कहिए जणई ममंपि एयारिसं चित्तं होतं। ताहे एथस्स दोसेणं अम्हहिं एअंचिंतिअंति काउं । तेहिं सो गजल दहे बूढो। तेथ घरं गया। सोश उलउँ तह पमंतो मछएण गिलिउँ । सो अमठो मेएण मारिजवीहीए उयारि। तेसिं च नागाणां नगिणी मायाए वीहिं पठविश्रा जहा मछे थाणेह जनाउगाणं सितंति । ताए असमावत्तीए सो चेव मठ थापीठ। चेडीए फालिंतीए पउल दिहो।चेडीए चिंतिथं एस एजलर्ड मम चेव नविस्सइति । उछंगे कर्ज विद्यतो थेरीए दिहो पा । तीए नणियं किमेथं तुमे उछंगे कयं सावि लोहं गया ण साह। ताऊँ दो वि परोप्परं परंतो।सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे थाहया जेण तरकणमेव जीविया ववरोविया। तेहिं तु दारादि सो कसहवश्वरो पार्छ । स पउल दिछो थेरी गाढप्पहारा पाणविमुक्का सिहंधरमिश्रले पडिया दिशा चिंतिथं वणेहिं । श्मो सो शवायवठुलो अठो त्तिा एवं दवं यवायहेज त्ति । लौकिका श्रप्याहुः “॥ अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे ॥ श्राये उःखं व्यये उःखं धिग् अव्यं पुःखवर्धनम् ॥ १॥ अपायवहुलं पापं ये परित्यज्य संश्रिताः ॥ तपोवनं महासत्त्वास्ते धन्यास्ते तपस्विनः ॥२॥" इत्यादि । एतावत्य. कृतोपयोगि । त तेसिं तमवायं पिछिऊण णिवर्ड जाउँ त तं दारिचं कस्सइदा. उप निविभकामनोया पवश्य ति गाथार्थः । इदानी देवाद्यपायप्रतिपादनायाद ।। खेतंमि श्रवकमणं, दसारवग्गस्स होस् अवरेणं ॥ दीवायणो थकाले, नावे मंदाकिया खवळ ॥ ५६ ॥ व्याख्या ॥ तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामदाः । ततश्चक्ष्वादपायः देवमेव वा कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणमपसपणं दशारवर्गस्य दझारसमु. दायस्य नवत्यपरेणापरत इत्यर्थः । जावार्यः कथानकादवलेयः । तत्र वदयामः ।पा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. व्याख्या ॥ चरितं च कल्पितं चेति विविधमुदाहरणम्। तत्र चरितमभिधीयते यत्तं तेन कस्य चिदाान्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते। तद्यथा उःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं खबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते । तेन च कस्य चिद्दार्शन्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते।यथा पिप्पलपत्रैरनित्यतायामिति।उक्तं च ॥ “जह तुरी, तह अम्हे, तुझे चि अ होहिहा जहा अम्हे ॥ अप्पाहे उ पमंतं, पंमुश्रपत्तं किसलयाणं ॥ण वि अति ण वि अ होई, जबावो किसलपंपत्ताणं ॥ उवमा खलु एस कया, नविजण विवोह हाए ॥” इत्यादि । आह उदाहरणं दृष्टान्त उच्यते तस्य च साध्यानुगमादि खक्षणमिति । उक्तं च ॥ साध्येनानुगमो हेतोः साध्यानावे च नास्तिता ॥ ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः स साधम्र्येतराद्विधा ॥अस्य पुनस्तवक्षणानावात्कथमुदाहरणत्वमित्यत्रोच्यते। तदपि कथंचित्साध्यानुगमादिना दार्शन्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम्। शहापि च सोऽस्त्येवेति कृत्वा किं नोदाहरणतेति।साध्यानुगमादिलक्षणमपि सामान्यविशेषोजयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथंचिनेदवादिन एव युज्यते नान्यस्यैकान्तनेदानेदयोस्तदनावादिति । तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थनेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेर नित्यत्वादि प्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव जिन्नवस्तुधर्मत्वात्सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वादिबमपि च तहलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ विस्तरजयादिति। एवं सर्वथा अनेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदनावो जावनीय इति।अनेकान्तवादिनस्त्वनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तधर्मसामर्थ्यात्तत्तस्तुनःप्रतिबन्धबलेनैव तस्य वस्तुनो गमकं जवत्यन्यथा ततस्तस्मिंस्तत्प्रतिपत्त्यसंनव इति कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः। चरितं कल्पितं चेत्यनेन विधिना विविधम् । ततः पुनश्चतुर्विधं चतुःप्रकारमेकैकम् । कथमत आह ।उदाहरणं तद्देशः तदोषश्चैव उपन्यास ति। तत्रोदाहरणशब्दार्थ उक्त एवातस्य देशस्तद्देश एवं तदोषः। उपन्यसनमुपन्यासः स च तस्त्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः । सांप्रतमुदाहरणमनिधातुकाम थाह ॥ चउहा खलु आहरणं, होश् अवाजे उवाय उवणा य ॥ तह य पप्पन्नविणा-समेव पढमं चनविगप्पं ॥ ५५ ॥ व्याख्या॥ चतुर्धा खलु उदाहरणं भवति । अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे नेदा जवन्ति।तद्यथा । अपायः। उपायः। स्थापना च । तथा च प्रत्युत्पन्न विनाशमेवेति । स्व... रूपमेषां प्रपञ्चेन नेदतो नियुक्तिकार एव वदयति । तथा चाह । प्रथममपायोदाहरणं चतुर्विकल्पं चतुर्नेदम् । तत्रापायश्चतुःप्रकारः। तद्यथा । व्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो नावापायश्च इति गाथार्थः। तत्र व्यादपायो अव्यापायः। श्रपायोऽनिष्टप्राप्तिः।। १ "स साधम्येतरो द्विधा" इति पाठान्तरम् । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके प्रथमाध्ययनम् । ३५ अव्यमेव वापायो अव्यापायः अपायहेतुत्वादित्यर्थः । एवं क्षेत्रादिष्वपि जावनीयम् । सांप्रतं अव्यापायप्रतिपादनायाह॥दवावाए दोन्नि ज, वाणिअगा नायरो धणनिमित्तं ॥ वहपरिणएकमेकं, दहंमि मछेण निवे ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ अव्यापाये. उदाहरणं मौतु । तुशब्दादन्यानि च । वणिजौ ब्रातरौ धननिमित्तं धनार्थ वधपरिणतौ एकैकमन्योन्यं ददे मत्स्येन निर्वेद इति गाथादरार्थः। नावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तञ्चेदम् । एगंमि संनिवेसे दो नायरो दरिदप्पाया तेहिं सोरठं गंतूण साहस्सिर्ज पउल रूवगाणं विढविठ तेश्र सयं गामं संपबिया इंतातंजलयं वारएण वहंति।जया एगस्स हो तदा श्यरो चिंतेश् । “मारेमि णवरमेए रूवगा ममं होंतु"। एवं बीउँ चिंतेइ “जहाहं एवं मारेमि" । ते परोप्परं वहपरिणया अनवसंति । त जाहे सग्गामसमीवं पत्ता तब नईतमे जिहेअरस्स पुणरावती जाया।"धिरतु ममं जेण मए दवस्स कए नाजविणासो चिंति" परुमो श्यरेण पुबिकहिए जणई ममंपि एयारिसं चित्तं होतं। ताहे एअस्स दोसेणं अम्देहिं एअंचिंतिरं ति काउं । तेहिं सो गजल दहे बूढो। तेथ घरं गया। सोश उलउँ तब पम्तो मछएण गिलिउँ । सो अमलो मेएण मारि।वीहीए उयारिज।तेसिं च नागाणां नगिणी मायाए वीहिं पवित्रा जहा मछे आणेह जं नागाणं सितंति । ताए अ समावत्तीए सो चेव मबजे श्रापीठाचेडीए फालिंतीए पउल दिहो।चेडीए चिंति एस गजल मम चेव नविस्स३त्ति । उदंगे कर्ज रविचंतो थेरीए दिछो गाउँ अ। तीए नणियं किमेशं तुमे उद्धंगे कयं सावि लोहं गया ण साहाता दो विपरोप्परं पहरंतो।सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे थाहया जेण तरकणमेव जीविया ववरोविया। तेहिं तु दारपाई सो कलहवश्वरो पार्छ । स जल दिहो थेरी गाढप्पहारा पाणविमुक्का णिसधरमिश्रले पडिया दिहा चिंतिवणेहिं । इमो सो अवायबहलो अहोत्ति।एवं दवं श्रवायहेज त्ति । लौकिका अप्याहुः “॥ अर्थानामर्जने फुःखमर्जितानां च रक्षणे ॥ श्राये उःखं व्यये मुःखं धिग अव्यं पुःखवर्धनम् ॥ १॥ अपायवहुलं पापं ये परित्यज्य संश्रिताः ॥ तपोवनं महासत्त्वास्ते धन्यास्ते तपखिनः॥५॥” इत्यादि । एतावत्प्रकृतोपयोगि। त तेसिं तमवायं पिडिजण णिवेर्ड जाउँ त तं दारियं कस्सश्दाजण निविलकामनोआ पवश्य ति गाथार्थः । श्दानी क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाह ॥ खेत्तंमि श्रवक्कमणं, दसारवग्गस्स होश् अवरेणं ॥ दीवायणो अकाले, नावे मंडुक्किा खवः ॥ ५६ ॥ व्याख्या ॥ तत्र क्षेत्र इति छारपरामर्शः। ततश्च क्षेत्रादपायः क्षेत्रमेव वा कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणमपसर्पणं दशारवर्गस्य दशारसमुदायस्य नवत्यपरेणापरत इत्यर्थः । नावार्थः कथानकादवसेयः। तच्च वक्ष्यामः।पा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यनश्च काले । द्वैपायन ऋषिः । काल इत्यत्रापि कालादपायः कालापायःकाल एव वा तत्कारणत्वादित्यत्रापि नावार्थः कथानकगम्य एव । तच्च वदयामः । नावे मंमुकिकादपक इत्यत्रापि नावादपायो नावापायः। स एव वा तत्कारणत्वादित्यत्रापि च ना.. वार्थः कथानकादवसेयस्तञ्च वयाम ति गाथार्थः । नावार्थ उच्यते । खित्तापाउँदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो । एक महई कहा जहा हरिवंसे । उवउँगियं चेव जलए। संमि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयं ति काऊण जरासंधरायजएण दसारवग्गो सहुराउँ अवकमिऊण बारवई गई ति । प्रकृतयोजनां पुनर्नियुक्तिकार एव करिष्यति । किमकाएक एव नः प्रयासेन । कालावाए उदाहरणं पुण कण्हपुहिएण जगदयारिहणेमिणा वागरियं बारसहिं संवहरेहिं दीवायणा बारवश्णयरीविणासो उझोतनरायणगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिबायर्ड मा गरि विणासेहामिति कालावधिमण गमेमि त्ति उत्तरावहं गर्छ। सम्मं कालमाणमयाणिजण य बारलसे चेव संवबरे आग: कुमारेहिं खतीकउँ कयणिआणो देवो उववालो । त य गरीए अवार्ड जाउत्ति णमहा जिणनासियं ति । नावावाए उदाहरणं खमः । एगो खम चेहएण समं निरकायरियं गर्छ । तेण तब मंडुकलिया मारिआ।चिबएण जणियं संमुकालिया तए मारिया। खवगो जणई। रे कुछ सेह विरमा चेव एसा। ते गा।पबा रत्तिं श्रावस्सए आलोत्ताण खमगेण सा मंमुक्कालिया नालोश्या। ताहे चिबएण जणिशंखमगा तं मंमुक्कलियं आलोएहिं खम रुठो तस्स चेदयस्स खेलसवयं घेत्तण जहाज अंसियाल खंन्ने आवडिओ। वेगेण इंतो स य । जोसिएसु उववन्नो । तर्ड चश्त्ता दिहीविसाणं कुले दिहीविसो सप्पो जा। तब एगेण परिहिं तेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खर्छ।अदितुंडएण विद्यार्ज सवे सप्पा आवाहिया मंगले पवेसि चणिया ।असे सवे गबंतुजेण पुण रायपुत्तो ख़र्जसो अबज ।सत्वे गया एगो दिउँसो नणि अहवा विसं यावियह अहवा एब अग्गिंसि णिवडाहि सो अअगंघणो सप्पाणं किल दो जाईयो गंधणा अगंधणा य ते अगंधणा माणिणो। ताहे सो. अग्गिमि पविछो णय तेण तं वांतं पञ्चाश्यं । रायपुत्तो वि म पछा रन्ना रुछेण घोसावियंरोजोमम सप्पसीसं आणेश तस्साहं दीणारं देमि । पहा लोगो दीणारलोजेण सप्पे मारे आढतो तं च कुलं जब सो खमउँ उप्पन्नो तं जाईसरं रत्तिं हिंग दिवस न हिंम मा जीवे दहेहामि त्ति काउं । अमया हिंमिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रतिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिति । दारे से नि उसहिउँ आवाहेश चिंतेश् । दिछो मे कोवस्स विवाउँ तो जश् अहं अनिमुहो णिगठामि तो दहिहामि साहे पुछेण आढत्तो निफिडिलं जत्तियं निफेडेहि । तावश्यमेव Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रयमाध्ययनम् । ......... ३७ हिंडिर्न विदेश | जाव सीसं बिलं मर्ज य सो सप्पो देवयापरिग्गहिरं । देवया रसो सुनिए दरिसणं दिसं । जहा मा सप्पे मारेह पुत्तो ते नागकुलाउँ তहि विस्स । तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेद्याहि । सो मगसप्पो मरित्ता ते पाणपरिच्चाएण तस्सेव रमो पुत्तो जार्ज जाए दारए णामं कयं णागदत्तो । खुद्दल चेव सो पa । सो किर ते तिरियाणुभावेण अतीव बुहालु दोसीएवेलाए चेव आढवेश खुंजिरं जाव सूरक्षमणवेलं । उवसंतो धम्मसद्धि य तम्मि गछे चत्तारि खमगा तं चाजम्मा सिर्ज तेमासि दोमासि एगमा सिर्जति । रत्तिं च देवया वंदि आगया । चाजम्मा सिर्ज पढमहि । तस्स पुर तेमा सिर्ज । तस्स पुर दोमा सि। तस्स पुर एगमा सिर्ज । ता य पुर खुद्दउँ । सवे खमगे अतिकमित्ता ताए देवयाए खुद्द वंदिd | पहा ते खमगा रहा। निग्गच्छंती ा गहिया चाउंमा सिखमएए पोत्ते न िय अणेण । कडपूयणि म्हे तवेस्सिपो ए वंदसि । एवं कूरनायं वंदसि सा देवया जाई । अहं नावखमयं वंदामि । पूयासकारपरे माहिणो वंदामि । पाते लयं ते अमरिसं वहति । देवया चिंतेई मा एए चेल्लयं खरंटेति तो समिहिश्रा चेव अष्ठामि । ताहं पडिवो देहामि । वितिय दिवसे छा चेल्ल सं दिसावेऊण गर्छ । दोसी एस्स पडित्र्याग आलोश्ता चाजम्मा सियखमगं मिं - तेई । तेण पडिग्गड़े से खेलं निबूढं । चेल जाई । मिठा मि टुक्कडं जं तुने मए खेलमल्ल ण पणा मिर्च तं ते उप्पराचेव फेडित्ता खेलमल्लए बूढं । एवं जाव तिमासणं जाव एगमा सिएणं पिबूढं । तं तेण तहा चेव फेडिचं अडुया वित्तालंवणे गिहामि त्ति कार्यं खमएण चेल वाहं गहिरं । तं तेण तस्स चेल्लगस्स श्रदीएमसस्स विसुद्ध परिणामस्स लेस्साहिं विसुनमाणीहिं तदावर विद्याणं कम्माणं खएण केवलनाणं समुप्पं । ताहे सा देवया जाई । किह तुने वं दिवा जेणेवं कोहानि आह । ता ते खमगा संवेगमावला मिठामि डुक्कमं ति । श्रहो वालो उवसंतचित्त देहिं पावकम्मेहिं साइट एवं तेसिं पि सुदङ्गवसाणेणं केवलनाणं समुप्पं । एवं पसंग कहि कहाण्यं । उवर्ड पुणे कोहादिगार्ड अपसनावा दुग्गई अवार्ड त्ति । परलोक चिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाह ॥ सिरकगश्रसिरकगाणं, संवेगथिरया दोहं पि ॥ दवाईया एवं दंसिद्यंते वाया ॥ ५१ ॥ व्याख्या ॥ शिक्षका शिक्षकयोः अभिनवप्रत्र जित चिरप्रत्रजितयोः अभिनवप्रत्र जितगृहस्थयोर्वा । संवेगस्थैर्यार्थं द्वयोरपि द्रव्याद्या एवमुक्तेन प्रकारेण वक्ष्यमा - णेन वा दर्श्यन्ते अपाया इति । तत्र संवेगो मोक्षसुखा जिलाषः । स्थैर्यं पुनरभ्युपग १ " तव नरणिणो " इति पाठान्तरम् । 1 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३) मा. तापरित्यागः । ततश्च कथं नु नाम सुखनिवन्धनव्याद्यवगमात्तयोः संवेगस्थैर्ये स्यातां अव्यादिषु चाप्रतिबन्ध इति गाथार्थः । तथा चाह ॥ दवियं कारणगहिरं, विगिंचिवमसिवा खेत्तं च ॥ बारसहिं एस कालो, कोहाइविवेगजावम्मि ॥ ५॥ व्याख्या ॥ श्होत्सर्गतो मुमुकुणा अव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यछा कनकादि न ग्राह्य शिदकाहिसंदष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यमत एवाह । अव्यं कारणगृहीतं किं विकिंचितव्यं परित्याज्यमनेकै हिकामुष्मिकापायहेतुत्वात् । पुरन्तायहाद्यपायहेतुत्वाद्दुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्थैः स्वधिया नावनीयेति । एवमशिवादिदेनं च परित्याज्य मिति वर्तते।अशिवादिप्रधानं क्षेत्रं अशिवादिदेवम् । श्रादिशब्दातूनोदरताराजहिष्टादिपरिग्रहः। परित्याज्यं चेदमनेकैहिकामुष्मिकापायसंजवादितितथा हादशनि रेष्यत्कालः परित्याज्य इति वर्तते। तत एवापायसंजवादिति जावना । एतमुक्तं जवत्यशिवादिष्ट एष्यत्कालः छादशनि पैरनागतमेवोषितव्य इति।उक्तं च॥संवदरबारसएण,होहित्ति असिवं तितेत किंति,सुत्तलं कुवंता॥अतिसयमादीहिं नाऊणमित्यादि । तथा क्रोधादिविवेकानाव इति।क्रोधादयोऽप्रशस्तजावास्तेषां विवेकः नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः । नाव इति नावापाये कार्य इत्ययं गाथार्थः । एवं तावठस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः । सांप्रतं अव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्श्यते ॥ दवादिएहिं निच्चो,एगंतेणेव जेसिं अप्पा ज॥होश श्रलावो तेसिं, सुहउहसंसारमोकाणं ॥एए॥ व्याख्या॥अव्यादिनिः अव्यक्षेत्रकालजावैनारकत्व विशिष्टदेत्रवयोऽवस्थितत्वाप्रसन्नत्वादिनिनित्योऽविचलितखनावः । एकान्तेनैव सर्वथैव येषां वादिनामात्मा जीवः तुशब्दादन्यच्च वस्तु नवति संजायते अनावोऽसंजवस्तेषां वादिनाम् । केषाम् । सुखःखसंसारमोदाणाम् । तत्राहादानुनवलक्षणं सुखम् । तापानुजवरूपं कुःखम् । तिर्यग्नरनारकामरजवसंसरणरूपः संसारः। अष्टप्रकारकर्मबन्ध वियोगो मोदः । तत्र कथं पुनस्तेषां वादिनां सुखाद्यनावः। श्रात्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखजावत्वादन्यथा चापरिणतेः । सदैव नारकत्वादिनावादपरित्यक्ताप्रसन्नत्वे पूर्वरूपस्य च प्रसन्नत्वेनाजवनादेवं शेषेष्वपि नावनीयमिति गाथार्थः। ततश्चैवम् ॥ सुहउकसंपउँगो, न विद्यई निचवायपर्कमि ॥ एगंतलेअंमिश्र, सुहाकविगप्पणमजुत्तं ॥ ६० ॥ व्याख्या ॥ सुखःखसंप्रयोगः । सम्यक् संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पित इत्यर्थः । न विद्यते नास्ति न घटत इत्यर्थः । क नित्यवादपदे नित्यवादान्युपगमे संप्रयोगो न विद्यते । कल्पितस्तु नवत्येव । यथाहुनित्यवादिनः । प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे स्तः। स्फटिके रक्ततादिवहुझिप्रतिबिम्बाधान्य इति । कल्पितत्वं चास्य आत्मनस्तत्त्वत एव तथा परिणतिमन्तरेण सु. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवकालिके प्रथमाध्ययनम् । .. ३ए खाद्यनावाउपधानसन्निधावप्यन्धोपले रक्ततादिवत्तदन्युपगमे चान्युपगमदतिः । बुद्धिप्रतिबिम्बपदेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकस्वन्नावत्वात् । सदैवैकरूपप्रतिविम्बापत्तेः। खलावन्नेदान्युपगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । माजूदनित्यैकान्तग्रह इत्यत आह। एकान्तेन सर्वथा उत्प्राबल्येन दो विनाशः एकान्तोछेदः । निरन्वयो नाश इत्यर्थः । अस्मिंश्च किं सुखःखयोर्विकल्पनं सुखदुःख विकल्पनमयुक्तमघटमानकम् । अयमन जावार्थः । एकान्तोछेदेऽपि सुखायनुनवितुस्तत्क्षण एव सर्वथोछेदादहेतुकत्वात्तत्तरक्षणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते । कुतः पुनस्तहिकल्पनमिति गाथार्थः। उक्तोऽपायः। सांप्रतमुपाय उच्यते तत्रोप सामीप्येन. विवदितवस्तुनोऽविकललाजहेतुत्वाऽस्तुनो लान एवोपायः । अनिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापार विशेष इत्यर्थः। असावपि चतुर्विध एव । तथा चाह ॥ एमेव चनविगप्पो, होश उवार्ड वि तन दवंमि ॥ धाउबार्ड पढमो, नंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ॥ ६१ ॥ व्याख्या ॥ एवमेव यथा अपायः। किं। चतुर्विकल्पश्चतुर्जेदः जवत्युपायोऽपि तद्यथा अव्योपायः क्षेत्रोपायः कालोपायः नावोपायश्च । तत्र अव्य इति द्वारपरामर्शः। अव्योपाये विचार्ये धातुवादः सुवर्णपातनोत्कपलक्षणो अव्योपायः प्रथम इति लौकिके. । लोकोत्तरे त्वध्वादौ पटलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् । देवोपायस्तु लागलादिना देवोपक्रमणे नवति । अत एवाह । साङ्गलकुलिकान्यां देनं चोपक्रम्यत इति गम्यते । ततश्च लागलकुलिके तपायो लौकिकः । लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना देवनावनम् । अन्ये तु योनिप्रानृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलदणमेव संघप्रयोजनादौ अव्योपायं व्याचक्षते । विद्यादिनिश्च स्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमित्यत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान श्वानाति । पागन्तरं वा धाउचाउँ नणिर्ज ति । अत्र च कथंचिदविरोध एवेति गाथार्थः॥ कालो अनालियाहिं, होइ जावंमि पंडि अर्ज ॥ चोरस्स कए नहि, वट्टकमारि परिकहेश ॥ ६३ ॥ व्याख्या ॥ कालश्च नालिकादिलियित इति शेषः । नालिका घटिका आदिशब्दाबका दिपरिग्रहः । ततश्च नाखिकादयः कालोपायो लौकिकः । लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिनिस्तथा नवति । नावे चेति द्वारपरामर्शत्वाझावोपाये विचार्ये निदर्शनं क इत्याह । पमितो विधाननयोऽनयकुमारस्तथाचाह । चोरनिमित्तं नर्तकीं वटुकुमारी । किम् । त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह परिकथयति । ततश्च यथा तेनोपायतश्चौरजावो विज्ञातः । एवं शिदकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव लावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः । नवरं जावोवाए उदाहरणं । रायगिहं णाम णयरं तब सेणि राया सो नद्याए जणिः जहा मम एगखंनं पासायं करेहि । तेण वदृश्णो श्राणता गया काळिंदगा तेहिं Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. 1 छाडवीए सलको सरलो मह महाल डुमो दिघो। ध्रुवो दिलो जेण स परिग्ग हिउँ रुको सो दरिसावे अप्पा तो णं ण विंदामो त्ति यह ण देइदरिसावं तो विंदामो ति । ता है रुकवासिणा वाणमंतरेण अजयस्स दरिसावो दियो । अहं रसो एगखंनं पासाय करेमि । सवोयं च आरामं करेमि सङ्घवणजाइडवेयं मा विंदहत्ति । एवं तेष कर्ज पासानु॑ । अन्नया एगाए मायंगीए अकाले बयाण दोहलो | सा जत्तारं जण मम बयाण आणे हि । तदा कालो अंबयाणं तेण उणामणीए विद्याए मा उणामियं बयाणि गहिआणि । पुणो अ उसमणीए उसामियं । पजाए रन्ना दिहं । पयं ण दी सइ । को एस मणुसो प्रतिगर्ज जस्स एसा एरसी सत्तित्ति । सो मम - तेरं पिधरिसेहित काउं अयं सदावेऊण जइ । सत्तरत्तस्स नंतरे ज‍ चोरं पासितो ते जीवि । ताहे न गवेसितं दत्तो । ण वरं एगं मि पसे गोजो रमिकामो मिलि लोगो । तब गंतुं नाति । जाव गोजो मंडे5 अप्पा ताव ममेगं अरका गं सुणेह । जहा एगंमि एयरे एगो दरिद्द सिद्धी परिवसति । तस्स धूया वहुकुमारी व रूविणी य वरणिमित्तं कामदेवं अच्चेई । साय एमि श्रारामे चोरिय पुष्पाणि उच्चंती आरामिण दिना कय विमादत्ता । तीए सो जपि । मा मई कुमारिं विषासेडिं । तवावि जयणी नाव ीि ि। तेष णि एका ववचाए मुयामि ज‍ ण वरं जम्मि दिवसे परिणद्यसि तद्दिवसं चेव त्तारेण अणुग्धाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि । तीए नलिउँ । एवं हव त्ति । ते विसाि । अन्नया परिणीय जादे अपवरकं पवेसिया ताहे नत्तारस्स नावं कई । विसबिया बच्चई । पहिया आरामं । अंतरा अ चोरेहिं गहिया । संप नाव कहि मुक्का । गच्छंतीए अंतरा रकसो दिट्ठो जो बरहं मासा आहा रे ते गहिया कहिए मुक्का गया श्रारामियसगासं ते दिवा सो संतो नगइ | कहमागया सि । ताए जणि मया कर्ज सो पुधिं सम । सो जइ । कहं जत्तारेण मुक्का ताहे तस्स तं सवं कहिां हो सच्चपन्ना एसा महिलत्ति । एत्तिएहिं मु का कहा हामिति । तेण विमुक्का पडियंती ा गया सबेसिं तेसिं मनेां । श्रा गता तेहिं सवेहिं मुक्का । नत्तारसगासं अहसमग्गा गया । ताहे न तं जणं yaई । अरक एव केण डुक्करं कथं । ताहे इस्सालुया जणंति जत्तारेणं । बुहा लुया जणं तिरकसेणं । पारदारिया नांति मालागारे । हरिएसे मणि चोरे हिं । पचा सो गहि । जहा एस चोरो ति । एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा अन एण तस्स चोरस्स उवाए जावो गाउँ एवमिह वि सेहाणमुवहायं तयाणं जवाएण गीण विपरिणामादिणा जावो जाणिवो ति । किं एए पञ्चावणिजा न वत्ति । 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके प्रथमाध्ययनम्। ४१ पञ्चाविएसु वि तेसु मुंभावणाश्सु एसेव विनासा य । तदुक्तम् । पञ्चाविउ सि एत्तिय मुंगावेजं न कप्पर इत्यादि । कहाणयसंहारो पुण चोरो सेणिअस्य उवणी । पुहिएण सप्तावो कहि। ताहे रन्ना नणियं । जश् नवरं एया विद्यार्ड देहि तो न मारेमि। देमि त्ति अनुवगए आसणे ठिर्ज पढई। न छाई। राया जणई किं न हाई । ताहे मायंगो जणई जहा अविणएणं पढसि । अहं नूमीए तुमं आसणे णीयतरे उवविछो । हिया तो सिकार्ड य विजाउँ ति । कृतं प्रसङ्गेन । एवं तावबौकिकमर्यादित चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता अव्योपायादयः। सांप्रतं अव्यानुयोगमधिकृत्य प्रद यन्त इति । तत्राप्युपायदर्शनतो नित्यानित्यैकान्तवादयोः सुखादिव्यवहारानावप्रसङ्गेन तथा प्रत्यक्षगोचरातिकान्तेश्च वस्तुत आत्माजाव एवेति मा नूविष्यकाणां मतिविज्रमोऽत उपायत एवात्मास्तित्वमनिधातुकाम आह ॥एवं तु श्हं आया, पञ्चकं अणुवलनमाणो वि । सुहकुकमाश्एहि,गित हेऊहिं अदिति ॥६॥व्याख्या॥ एवमेव यथा धातुवादादिनि व्यादि । श्हास्मॅिझोके आत्मा जीवः । प्रत्यक्षमिति तृतीयार्थे द्वितीया । प्रत्यक्षण अनुपलन्यमानोऽपि अदृश्यमानोऽपि सुखःखादिनिरादिशब्दात्संसारपरिग्रहो गृह्यते । हेतु नियुक्ति निः।अस्ति विद्यत इत्येवं गृह्यते । तथाहि सुखपुःखानां धर्मत्वाधर्मस्य चावश्यमनुरूपेण धर्मिणा नवितव्यं नच नूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्यानुरूपो धर्मी तस्याचेतनत्वात्सुखादीनां च चेतनत्वादित्यत्र बहु वक्तव्य"मिति गाथार्थः॥जह वस्सा हबि, गामा नगरं तु पाउसा सरयं॥ जैदश्याउ जवसमं, संकंती देवदत्तस्स॥६॥व्याख्या।यथा चेति प्रकारान्तरदर्शने।अश्वारोटकात् हस्तिनं गजं ग्रामान्नगरं तु प्रावृषः शरदं प्रावटकालाबरत्कालमित्यर्थः। औदायिकाद् नावाङपशममित्यौपशमिकं संक्रान्तिः।संक्रमणं संक्रान्तिः।कस्या देवदत्तस्य प्रत्यदेणेति शेषः।। एवं सज जीवस्स वि, दवाईसंकम पडुच्चा उ ॥ अबित्तं साहिद्यशपच्चरकेणं परोके वि ॥६५॥व्याख्या॥ एवं यथा देवदत्तस्य तथा किं सतो विद्यमानस्य जीवस्यापि अव्यादिषु संक्रमः । श्रादिशब्दात्देत्रकालनावपरिग्रहः।तं प्रतीत्य आश्रित्य अस्तित्वं विद्यमानत्वं साध्यते अवस्थाप्यते।आह।सतोऽस्तित्वसाधनमयुक्तम्।न।अव्युत्पन्न विप्रतिपनविषयत्वात् साधनस्य । प्रत्यकेोणाश्वादिसंक्रमेण सर्वथा सादात् परिहित्तिमङ्गीकृत्य परोक्षमप्यप्रत्यदमपि अवग्रहादिस्वसंवेदनतो सेशतस्तु प्रत्यमेवैतत् । एतमुक्तं नवति यथा अश्वादिसंक्रान्तिन देवदत्ताख्यं धर्मिणमतिरिच्य वर्तते एवमियमप्यौदा रिका क्रिये तिर्यग्लोकादूर्ध्वलोके परिमितवर्षायुष्कपर्यायादपरिमितवर्षायुष्कपर्याचे चारित्रनावादविरतनावे च संक्रान्तिन जीवाख्यं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति वृद्धा व्याचक्षते। श्रन्ये तु द्वितीयगाथापश्चार्ड पाठान्तरतोऽन्यथा व्याचदते । तत्रायमनि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. . . संन्वधः । एवं तु हं आयेत्या दिगाथयोपायत एवात्मास्तित्वमनिधायाधुनोपायत एवं सुखपुःखादिनावसंगतिनिमित्तं नित्यानित्यैकान्तपदव्यवछेदेनात्मानं परिणामिनमनिधित्सुराह । जह वस्सा गाथा। व्याख्या पूर्ववत् ॥ एवं सल जीवस्स वि, दवाईसंकमं पडुच्चा उ॥परिणामो साहिद्यश, पञ्चकेणं परोके वि ॥ पूर्वाई पूर्ववत् पश्चार्धनावना पुनरियम्।नह्येकान्तनित्यानित्यपदयोईष्टापि अव्या दिसंक्रान्तिदेवदत्तस्य युज्यते।इत्यतस्ततावान्यथानुपपत्त्यैव परिणामसिफिरिति।उक्तं च ॥ नार्थान्तरगमो यस्मासर्वथैव नचागमः ॥ परिणामः प्रमासिक श्ष्टश्च खलु पएिकतैः ॥ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ॥ शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ पयोबतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः॥अगोरसवतो नोने तस्माइस्तु त्रयात्मकम् ॥इति गाथा यार्थः। उक्तमुपायकारमधुना स्थापनाछारमनिधित्सुराह ॥ उवणाकम्मं एकं, दिलंतो तब पोंमरीअं तु॥अहवा विसन्नढक्कण, हिंगुसिवकयं उदाहरणं॥६६॥व्याख्या॥स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यां वा कर्म सम्यगनीष्टार्थप्ररूपणलहणा क्रिया । स्थापनाकर्म। एकमिति तजात्यपेक्षया दृष्टान्तो निदर्शनं तत्र स्थापनाकर्मणि पौएकरीकं तु।तुशब्दात्तथाजूतमन्यच्च। तथाच पौएमरीकाध्ययने पौएमरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन स्वमतमवस्थापितमिति । अथवेत्यादि पश्चार्धं सुगमम्। लौकिकं चेदमिति गाथादरार्थः । जावार्थस्तु कथानकादवसेयः। तच्चेदम् । जहा एगंमि णगरे एगो मा लायारो समाई करंडे पुप्फे घेत्तूण वीहीए एश् । सो अश्व अञ्चल ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊणं सा पुप्फपिडिगा तस्सेव उवरि पदह बिया । ताहे लो पुखर किमेयं । जेणिव पुप्फाणि बसि त्ति । ताहे सो नणई । अहं अलोविर्ड एब हिंगुसिवो नाम। एतं तं वाणमंतरं हिंगुसिवं नाम जप्पन्नं । लोएण परिग्गहियं । पूया से जाया । खागयं अध वि तं पाडलिपुत्ते हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं। एवं जश किं वि उगाहं पावयणीयं कयं होचा केण वि पमाएण ताहे तहा पढ़ा एयत्वं जहा पञ्चुंमं पवयणुनावणा: हव। संजाए उमाहे जह गिरिसिझेहिं कुसलबुद्धीहिं लोयस्स धम्मसझा पवयणवमेण सुह कया ॥ एवं तावच्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयन्नाह ॥ सबनिचारं हेजं, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं ॥ उववूह सप्पसरं,सामबं चप्पणो नाजं ॥६॥छारं॥व्याख्या॥ सह व्यनिचारेण वर्तत इति सव्य निचारस्तं हेतुं साध्यधर्मान्वया दिलक्षणं सहसा तत्क्षणमेव वोत्तुम निधाय तमेव हेतुमन्यैर्हेतुनिरेव उपबृंहते समर्थयति। सप्रसरमनेकधा स्फारयन् सामर्थ्य प्रज्ञाबलम् । चशब्दो निन्नक्रमः । आत्मनश्च स्वस्य च ज्ञात्वा विज्ञाय चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः । नावार्थस्त्वयम् । अव्यास्तिकायनेकनयसंकुलप्रवचन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ४३ झेन साधुना तत्स्थापनाया नयान्तरमतापेक्षया सव्यनिचारं हेतुमनिधाय प्रतिपदनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । आह । उदाहरणनेदस्थापनाधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वनिधानं किमर्थ मिति। उच्यते । तदाश्रयेण नूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तेस्तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति झापनार्थमलं प्रसङ्गेन । अनिहितं स्थापनाकर्मधारमधुना प्रत्युत्पन्न विनाशद्वारमनिधातुकाम आह॥ होति पमुप्पन्न विणा-सणं मि गंधविया उदाहरणं ॥सीसो वि कत्थर जश, अप्लोवधिछ तो गुरुणा ॥ ६७ ॥ व्याख्या ॥ जवन्ति प्रत्युत्पन्न विनाशे विचार्ये गांधर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्न विनाशनं तस्मिन्निति समासः।गान्धर्विका उदाहरणमिति यमुक्तं तदिदम् । जहा एगंमि नयरे एगो वाणिय तस्स बहुया नणी जाणिवा नाउद्याया य । तस्स घरसमीवे राउलया गंधविया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि वारे । ता वणियमहिला तेण संगीयसदेण तेसु गंधविएसु अनोववन्नार्ड किंवि कम्मादाणं न करेंति । पला तेण वाणियएण चिंतियं । जहा विणहा एया त्ति को उवाई होचा जहान विणस्संति त्ति का मित्तस्स कहियं । तेण नन्न।अप्पणो घरसमीवे वाणमंतरं करावेहि । तेण कयं। ताहे पाडहियाणं रूवए दाजं वायावे। जाहे गंधविया संगीययं ढवेति । ताहे ते पाडहिया पडहे दिति । वंसादियो य फुसंति । गायति य। ताहे तेसिं गंधबियाणं विग्यो जा। पडहसदेण य ण सुवगीयसहो।त ते राजले उवहिया। वाणि सद्दाविउँ । किं विग्धं करेसि ति।जणश्मम घरदेवो अहं तस्स तिनि वेला पडहे दवावेमि। ताहे ते नणिया। जहा अन्नब गायह किं देवस्स दिवेदिवे अंतराश्यं कवर । एवं आयरिएण वि सीसेसु अगारीसु अनोववद्यमाणेसु तारिसो उवा कायद्यो । जहा तेर्सि दोसस्स तस्स णिवारणा हव । मा ते चिंतादिएहिं एयरपडणादिए अवाए पावेहंति । उक्तं च। चिंतेश् दामिछर, दीहं णीससइ तह जरो दाहो ॥ नत्तारोयगमुठा, उम्मत्तो ण याण मरणं ॥ पढमे सोयश् वेगे, दहुं तं गठई विश्यवेगे ॥ णीससा तश्यवेगे, थारुहर जरो चबंमि । डलर पंचमवेगे, के नत्तं न रोयए वेगे ॥ सत्तमियंमि य मुष्ठा, अहमए होश उम्मत्तो॥णवमे ण याण किं वि, दसमे पाणेहिं मुञ्चश् मासो॥ एए सिमवायाणं सीसे रकंति आयरिया ॥ परलोड्या अवाया, नग्गपश्मा पडंति नरएसु॥ण लहंति पुणो वोहिं, हिंमंति य नवसमुदंमि ॥ अमुमेवार्थ चेतस्यारोप्याह। शिप्योऽपि विनेयोऽपि क्वचिद्विलयादौ।यदीत्यच्युपगमदर्शने। अच्युपपद्येत अनिप्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः। तत्र गुरुणा आचार्येण। किम्।गाथा॥ वारेयह उवाएण, जश् वा वाजलि वदेद्याहि।सवे विनविजावा, किं पुण जीवो सवोत्तवो ॥६॥ व्याख्या ॥ वारयितव्यो Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.. निषेव्यः । किं यथा कथं चित् । नेत्याह । उपायेन प्रवचनप्रतिपादितेन . यथासौ .. सम्यग्वर्तत इति नावार्थः । एवं तावलौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्न विनाशद्वारमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्याह । यदि वा वातूलिको नास्तिको वदेत् । किम् । सर्वेऽपि घटपटादयः। णबित्ति प्राकृतशैल्या । न सन्ति । नावाः पदार्थाः किं पुनर्जीवः सुतरां नास्तीत्यजिप्रायः। स वक्तव्यः सोऽनिधातव्यः । किमित्याह ॥ जं जणसि नदि जावा, वयणेयं अनि नबि जश् अधि ॥ एवं पन्नाहानी, असणु निसेहए को णु ॥७॥ यङ्गणसि यद्रवीषि न सन्ति नावा न विद्यन्ते पदार्थाशति।वचनमिदं नावप्रतिषेधकमस्ति नास्तीति विकल्पौ । किं चातो यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः। प्रतिषेधवचनस्यापि जावत्वात्तस्य च सत्त्वादिति नावार्थः। द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह असढ णु ति। अथासन्निषेधते। को नु निषेधकः। वचनस्यैवासत्त्वादित्ययमजिप्राय इति गाथात्रयार्थः । यदुक्तं किं पुनर्जीव इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधिकृत्याह ॥ पोय विवरकापुबो, सदो जीवुप्लवो मुणेयहो । नय सा वि य जीवस्त उ,सिझोपडिसेहर्ज जीवो ॥१॥ दारं ॥ व्याख्या ॥चशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वान्न च नैव विवदापूर्वो विवदाकारणः श्छाहेतुरित्यर्थः । शब्दो ध्वनिः अजीवोनवोऽजीवप्रनव इत्यर्थः । विवदापूर्वकश्च जीवनिषेधकः शब्द इति मानूद्विवदाया एव जीवधर्मत्वा सिद्धिरित्यत आह । न च नैव सापि विवदा यद्यस्मात्कारणादजीवस्य तु अजीवस्यैव घटादिष्वदर्शनात् । किंतु मनस्त्वपरिणतान्विततत्तव्यसाचिव्यतो जीवस्यैव । यतश्चैवमतः सिकः प्रतिष्ठितः प्रतिषेधध्व निर्नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः। ततस्तस्माजीव आत्मेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरजयादिति गाथार्थः। व्याख्यातं प्रत्युत्पन्न विनाशद्वारं तदन्वाख्यानाच्चोदाहरणमिति मूलधारमधुना तद्देशधारावयवार्थमनिधित्सुराह॥आहरणं तदेसे,चउहा अणुसहि तह उवालंजो॥ पुडा निस्सावयणं, होश् सुजदाणुसहीए॥॥व्याख्या॥उदाहरण मितिपूर्ववउपलक्षणं चेदमत्र।तथा चाह तस्य देशस्तदेश उदाहरणदेश इत्यर्थः। अयं चतुर्धा चतुःप्रकारः। तदेव चतुःप्रकारत्वमुपदर्शयति।अनुशासनमनुशास्तिः सझुणोत्कीर्तनेनोपबृंहण मित्यर्थः। तथोपालम्जनमुपालम्जः। जङ्गायैव विचित्रं नणनमित्यर्थः । पृठा प्रश्नः किं कथं केनेत्यादिःनिश्रावचनमेकं कंचन निश्रान्तं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावचन मिति । तत्र जवति सुनना नाम श्राविकोदाहरणम् ।क।अनुशास्ताविति गाथादरार्थः। तब अणुसहीए सुनद्दा उदाहरणं। चंपाए णयरीए जिणदत्तस्स सुसावगस्स सुनदा नाम धूया। सा अवरूववई। साय तवलियउवासएण दिहा।सो ताए अनोववो तं मग्गोसावगो जणशनाहं मिबादिहिस्त धूयं देमि । पछा सो साढूण समीवं गर्छ। धम्मो अणेण पुंबिउँ। कहिउँ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ . दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । साहहिं। ताहे कवडसावयधम्म पगहि। तब य से समावेणं चेव उवगर्न धम्मो ताहे तेण साहणं सतावो कहि। जहा मए कवडेणं दारियाए कए णं णायं। जहा कवडेणं कद्यहित्ति।अममियाणिं देह मे अणुव्वया। लोगेस पयासो सावर्ड जार्ज। तर्ड काले गए वरया मालया पठवेशताहे तेण जिणदत्तेण सावर्जत्तिकाऊण सुनदा दिया। पाणिग्गहणं वत्तं। अन्नया सो नणदारियं घरं णेमि । ताहे सो तं सावर्ड लण । तं सवं उवासयकुलं । एसा तं णाणुवत्तिहित्ति । पछा छोसयं वा लन्नेछ ति णिव्बंधे विसजिया णेऊण जुयगं घरं कयं । सासूणणंदाउँ पजहा। निस्कूण जत्तिं ण करेश त्ति श्रन्नया ताहिं. सुनदाए नत्तारस्स अकायं। एसा य सेथवडेहिं समं संसत्ता। सावर्जण सद्दहेई। अन्नया खमग्गस्स निकागयस्स अजिमि कणुउँ पविहो । सुनदाए जिलाए सो कणुर्ज फेडि । सुनदाए वीणपिछेण तिल कर्ड । सो य खमगस्स निलामे लग्गो। उवासियाहिं सावयस्स दरिसि। सावएण पत्तीयं । ण तहा अणुयत्त। सुनदा चिंते। किं अरयं । जं अहं गिहबी छोलगं लनामिाज पवयणस्स उमाहो एयं मे उरक त्ति सा रत्तिं काउस्सग्गेण हिया।देवो आगठ।संदिसाहि किं करेमि।सा जण। एअं मे अयसं पमद्याहि त्तिदेवो. नण। एवं हवन। अहमेयस्स एगरस्स चत्तारि दाराई वेहामि । घोसणयं च घोसेहामि त्ति । जहा जा पश्चया होश सा एयाणि दाराणि जग्घाडेहिति । तब तुमं चेव एगा उग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि। सयणस्स पञ्चयनिमित्तं चालणीए उदगं गेट्टण दरिसिजासि । त चालणीफुसिणमवि ण गतिहिति । एवं आसासेऊण णिग्ग देवो। एयरदाराणि अणेण पवियाणि।णायरजणो य श्रद्दयो । य आगासे वाया होई “णागरजणा मा हिरव्यं कि लिस्सह । जा सीलवई चालणीए बूढं उदगंण गलति । सा तेण उदगेण दारं अछोडे तर्ज दारं जग्याडिधिस्सिति। तब वहुयाङ सेहिसबवाहादीणं धूयसुहाउँण सकंति पलयं पिलहियं। ताहे सुचद्दा सयणं आपुब । अविसचंताण य चालणीए उदयं ठोहण तेसिं पाडिहेरं दरिसे । तर्ज विसधिया। जवासियार्ड एवं चिंतिउसाढत्ता । जहा एसा समणपडिलेहिया उग्घाडेहिति । ताए चालणीए उदयं ढूढं ण गलत्ति पिठित्ता विसन्नात महाजणेण सकारिचंती तंदारसमीवं गया। अरहंताणं नमो काऊण उदएण अठोडिया कवाडा।महया सद्देणं कोंकारं च करेसाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया। उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अबोडेऊण नण जा मया सरिसी सीलवई होहिति । सा एयं दारं जग्घाडेहित्ति। अद्य वि ढकियं चेव या पठाणायरजपेण साहुकारो कर्ड अहो महासन्ति । अहो जय धम्मो त्ति। एवं लोश्यं चरणकरणाणुगं पुण पडुच्च वेयावच्चादिसु अणुसासियदा उखुत्ता अणुझुत्ता य संग्वेयवा । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जहा सीलवंताणं श्ह लोए एरिसं फलमिति।अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह॥साहुक्कारपुरोगं,जह सा अणुसासिया पुरजणेणं ॥ वेयावच्चाईसु वि, एवजयंतेणुवोहेद्या ॥७३॥व्याख्या॥ साधुकारपुरःसरं यथा सा सुजना अनुशासिता सङ्गुणोत्कीर्तनेनोपवृंहिता । केन। पुरजनेन नागरिकलोकेन वैयावृत्त्या दिष्वप्यादिशब्दात्स्वाध्यायादिपरिग्रहः। एवं यथा सा सुनना यतमानानुद्यमवतः। किम् । उपबृंहयेत्सजुणोत्कीर्तनेन तत्परिणामवृद्धिं कुर्यात्। यथा “जरहेण विपुवनवे, वेयावच्चं कयं सुविहियाणं ॥सो तस्स फल विवागेण, आसी नरहादिवो राया ॥ सुजित्तु जरहवासं, सामसमणुत्तरं अणुचरित्ता ॥ अहविहकम्ममुक्को, नरहनरिंदो गर्ड सिम्॥िइति गाथार्थः। उदाहरणदेशता पुनरस्योदाहतैकदेशस्यैवोपयोगित्वात्तेनैव चोपसंहारात्तथाचाप्रमादवनिः साधूनां कणुकापनयनादि कर्तव्यमिति विहायानुशास्त्योपसंहारमाह। वैयावृत्त्यादिष्वपि देशेनैवोपसंहारः। गुणान्तररहितस्य जरतादेर्निश्चयेन तदकरणादिति नावनीयमित्येवं तावबौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तं तदेशहारे अनुशास्तिहारमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्य दर्शयति ॥ जेसि पि अछि जीवो, वत्तवा ते वि अम्ह वि स अबि ॥ किंतु अकत्ता न जवर, वेययश् जेण सुहजुरकं ॥ ४ ॥ व्याख्या ॥ येषामपि अव्यास्तिकादिनयमतावलम्बिनां । तन्त्रान्तरीयाणां। किम् । अस्ति विद्यते । आत्मा जीवः। वक्तव्यास्तेऽपि तन्त्रान्तरीयाः । साध्वेतदस्माकमप्यस्ति स तदनावे सर्व क्रियावैफट्यात् । किंतु अकर्ता न भवति । सुकृतकुष्कृतानां कर्मणामकर्ता न नवत्यनिपादको न नवति किंतु कतैव । अत्रैवोपपत्तिमाह । वेदयते अनुभवति येन कारणेन । किम्। सुखःखं सुकृतकुष्कृतकर्मफल मिति नावः । नचाकर्तुरात्मनस्तदनुजवी युज्यते अतिप्रसङ्गान्मुक्तानामपि सांसारिकसुखदुःखवेदनापत्तेरकर्तृत्वाविशेषात् । प्रकृत्या दिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाकारमात्मानं प्रत्यकिंचित्करत्वादलं विस्तरेणेति गाथार्थः । उदाहरणदेशता त्वत्राप्युदाहृतस्यैकदेशेनैवोपसंहारात्तत्रैव चासंप्रतिपत्तौ समर्थनाय निदर्शनानिधानादिति गतमनुशास्तितदेशद्वारमधुनोपालम्नहारविवक्ष्याह । उवलम्नम्मि मिगाव, नाहियवाई वि एव वत्तवे ॥ नबित्ति कुविनाणं,आयानावे सश्अजुत्तं ॥७॥व्याख्याउपालंने प्रतिपाये मृगापतिदेव्युदाहरणम्। एयं च जहा आवस्सए दवपरंपराए नणियं तहेव दवं जाव पवश्या अद्यचंदणाए सिस्सिणी दिला।अन्नया जगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिजीचंदादिच्चा सविमाणेहिं वंदिलं आगया। चउपोरसीयं समोसरणं कालं अनमणकाले पडिगया। तर्ज मिगावई संनंता।अयि वियालीकयं ति नणिऊणं साहुणीसहिया जाव अद्यचंदणासगास गया ताव य अंधयारयं जायं। अधचंदणापमुहाहिं साहुणीहिं ताव पडिकंतं । ताहे Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ४ सा मिगावई अद्या अद्यचंदणाए उवालपश् । जहा एवं णाम तुमं उत्तमकुलप्पसूया होऊण एवं करेसि । अहोन लहयं । ताहे पण मिऊण पाएसु पडिया परमेण विणएण खामे । खमह मे एगमवराहं णाहं पुणो एवं करेहामि त्ति । अद्य चंदणा य किल तंमि समए संथारोवगया पसुत्ता। श्यरीए वि परमसंवेगयाए केवलनाणं समुप्पन्नं। परमं च अंधयारं वदृश् । सप्पो य तेणंतरेण आगल। पवत्तिणीए य हबो लंवमाणो तीए नप्पाडि।पडिबुद्धाय अद्य चंदणा।पुछिया किमेयं।सा जणश्दीहजाल। कहं तुम जाणसिाकिं को अतिस।आमंति। पडिवाश् अप्प डिवाश त्ति पुछिया।सा जण अप्पडिवाशत्ति।त खामिया।लोगलोयुत्तरसाहरणमेयं । एवं पमायंतो सीसोवलंनेयवोत्ति। उदाहरणदेशता पूर्ववद्योजनीयेत्येवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्नहारमधुना अव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते।नास्तिकवाद्यपि चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक श्त्यर्थः। एवं वक्तव्योऽनिधातव्यः। नास्ति न विद्यते।कः।प्रकरणाजीव इति । एवंनूतं कुविज्ञानं जीवसत्ताप्रतिषेधावन्नासीत्यर्थः। आत्मानावे सति न युक्तमात्मधर्मत्वाज्झानस्येति जावना । नूतधर्मता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेव न युक्ता । तत्समुदायकार्यतापि प्रत्येकं जावाजाव विकल्पछारेण तिरस्कर्तव्येति गाथार्थः। अमुमेवार्थं समर्थयन्नाह ॥अवित्तिजावियका,अहवा नवित्ति जं कुविन्नाणं ॥ अञ्चतानावे पो-ग्गलस्स एयं चित्र न जुत्तं ॥७६॥ दारं॥व्याख्या ॥ अस्ति जीव इति एवंनूता या वितर्काऽथवा नास्ति न विद्यत इत्येवंचूतं यत्कुविज्ञानं लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताजावे पुलस्य जीवस्य श्दमेव न युक्तमिदमेवान्याय्यं नावना पूर्ववदिति गाथार्थः। उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो जीवसाधनामावनीयेति गतमुपालम्नद्वारमधुना शेषधारठयं व्याचिख्यासुराह॥ पुगए कोणि खलु, निस्सावयणंमि गोयमस्सामी ॥ नाहियवाई पुढे, जीववित्तं अणिते ॥७॥ व्याख्या॥पृठायां प्रश्न इत्यर्थः । कोणिकः श्रेणिकपुत्रः खलूदाहरणम् । जहा तेण सामी पुठि चक्कवहिको अपरिचत्तकामनोगा कालमासे कालं किच्चा कहि उववति।सामिणा नणियं।अहे सत्तमीए चकवटियो उववचंति । ताहे लण।अहं कच उवव घिस्सामि। सामिणा नणियं । तुम बहीपुढवीए।सो नण । अहं सत्तमीए किं न उववधिस्सामि । सामिणा जणियं । सत्तमीए चकवहिणो उववचंति।ताहे सो नण। अहं किं न होमि चकवट्टी। मम वि चनरासी दन्तिसयसहस्साणि।सामिणानणियं । तव रयणाणि निही यणछि। ताहे सो कित्तिमाश् रयणा करित्ता उवतिउमारको तिमिसगुहाए पवि सिलं पवत्तो। . नणि य किरिमालएणं वोलीणा चकवहिणो वारस वि । विण सिहसि तुमं। वारिद्यतो विण हाई । पछा कयमालएण आहर्ड मर्जय हिंपुढवि गर्छ। एवं लोश्यं । एवं लोग Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धं राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. त्तरे व बहुस्सु यरिया अाणि हेऊ य पुछिया । पुछित्ता य सक्कविद्यापि समायरियवाणि । सक्कणिद्याणि परिहरियवाणि । जणियं च । पुछह पुछावेद य, पंडियए साहवे चरणजुत्ते । मा मयलेव विवित्ता, पारत्तहियं याणिहि ॥ उदाहरणदेशता पुनरस्था निहितैकदेश एव प्रष्टुर्यहात् । तेनैव चोपसंहारादित्येवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृष्ठाद्वारमधुनैतत्प्रतिवद्धां द्रव्यानुयोगवक्तव्यतामपास्य गाथोपन्यासानुलोमतो निश्रावचनमनिधातुकाम ह । निश्रावचने निरूप्ये गौतमस्वाम्युदाहरणमिति । एग गागलिमादी जहा पश्या तावसा य एवं जहा वरसामिप्पत्तीए श्रावस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसामिस्स किल धिई जाया । तब जगवया जल | चिरसंसको सि मे गोयमा । चिरपरिचितो सि मे गोयमा । चिरनाविर्ड सि मे गोयमा तं मा अधि करेहि ॥ अंते दोन्नि वि तुल्ला नविस्सामो । अन्य तन्निस्साए सासिया डुमपत्ताए अप्रयणित्ति एवं जे सहा विषेया ते ने मद्दवसंपन्ने णिस्सं काऊण तहाणुसा सियवा उवाएण जहा संमं पडिवति । उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन प्रदर्शितलेशत एव तथानुशासनादेवं तावच्चरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृष्ठा निश्रावचनद्वारद्वयमधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते । तत्रेदं गाथादलम् । णाहियवाइमित्यादि । नास्तिकवादिनं चार्वाकं पृछेजी वा स्तित्वमनिवन्तं सन्तमिति गाथार्थः । किं पृच्छेत् ॥ केणं ति न िया, जेण परोरको त्ति तव कुंविन्नाणं || होइ परोरकं तम्हा, नवित्ति निसेहए को छु ॥ ७८ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ केनेति । केन हेतुना नास्त्यात्मा न विद्यते जीव इति पृछेत् स चेद्वदेद् ब्रूयाद्येन परोक्ष इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः । स च वक्तव्यः । न तव कुविज्ञानं जीवा स्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्तत्वेन तन्निषेधकं नवति परोक्षमन्यप्रमातृणामिति गम्यते । तस्माद्भवडुपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु विवानावे विशिष्टशब्दानुत्पत्तेरिति गाथार्थः । उदाहरणदेशता चास्य पूर्ववदिति गतं पृष्ठाद्वारम् ॥ अन्नावएसर्ज ना - हियवाई सिंह जीवो ज ॥ दाणाइफलं तेसिं, न विद्यइ चउह तद्दोसं ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ अन्यापदेशतः अन्यापदेशेन नास्तिकवादी लोकायतो वक्तव्य इति शेषः । टं येषां वादिनां नास्ति जीव एव न विद्यते श्रात्मैव । दानादिफलं तेषां न विद्यते दानहोमयागतपः समाध्या दिफलं स्वर्गापवर्गादि तेषां वादिनां न विद्यते नास्ती - त्यर्थः । कदाचिदेतछ्रुत्वैवं ब्रूयुर्मा भवतु का नो हानिर्नह्यन्युपगमा एव बाधायै जवन्ती: ति । ततश्च सत्त्ववैचित्र्यान्यथानुपपत्तितस्ते संप्रतिपत्तिमानेतव्या इत्यवं विस्तरेण गमनिकामात्रमेतडुदाहरणदेशता चरणकरणानुयोगानुसारेण जावनीयेति गतं निश्राद्वारं Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ୫୯ तदन्वाख्यानाच्च तद्देशद्वारमधुना तदोषद्वारावयवार्थप्रचिकट विषयोपन्यासार्थ गाथावयवमाह । चन्ह तद्दोसं । चतुर्धा तद्दोष इत्युदाहरणदोषोऽनुस्वारस्त्वलाक्षणिकः । अथवोदाहरणेनैव सामानाधिकरण्यं ततश्च तद्दोषमिति तस्योदाहरणस्यैव दोषा यस्मिंस्तत्तदोषमिति गाथार्थः । उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रतिपादयन्नाह ॥ पढमं श्रहम्मजुत्तं, पडिलोमं श्रत्तणो वन्नासं ॥ डुरुवणियं तु चयं, अहम्मत्तंमि नलदामो ॥ ८० ॥ व्याख्या ॥ प्रथममाद्यमधर्मयुक्तं पापसंबद्धमित्यर्थः । तथा प्रतिलोमं प्रतिकूलं प्रात्मन उपन्या - स इत्यात्मन एवोपन्यासस्तथा निवेदनं यस्मिन्निति । डुरुपनीतं चेति दुष्टमुपनीतं निगमितमस्मिन्निति चतुर्थमिदं वर्तते । श्रमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैर्भावार्थमुपदर्शयति । अधर्मयुक्ते नलदामः कुविन्दः कोलिकः खलु लौकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः । पर्यन्तावयवार्थः कथानकावसेयस्तच्चेदम् । चाणक्केण गंदे उठाइए चंदगुत्ते रायाणए विए एवं सवं वसित्ता जहा सिकाए तब दसंतिएहिं मणुस्सेहिं सह चोरगाहो मिलि । गरं मुसइ । चाणक्को विश्रन्नं चोरग्गाहं च वविद्यकामो तिदमं गहेऊ परिवायiवेसे एयरं पविधो । गर्ज एलदामको लियसगासं । उवविद्यो वणएसालाए। प्रच्च तस्स दार मकोडएहिं खड़े । तेण को लिये विलं खणित्ता दट्ठा । ताहे चाणक्केण सइ किं एए डहसि । कोलि जइ । जइ एए समूलजाला पहाइति तो पुणो वि स्काइस्संति । ताहे चाणक्केण चिंतियं । एस मए लको चोरग्गाहो। एस पंदतेया समूलया उद्धरिस्सि हि । चोरग्गा हो करें | तेण तिखंडिया विसंजिया । म्हे संमिलिया मुसामो ति । तेहिं अन्ने विकाया जे तब मुसगा बहुया सुहतरागं मुसामोति । तेहिं विरकाया । ताहे ते तेष चोरग्गाहेण मिलिऊण सवे वि मारिया । एवं अहम्मत्तं ण जाणियां ण य कायवं ति । इदं तावल्लौकिकमनेन लोकोतरमपि चरणकरणानुयोगं द्रव्यानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम् । एकग्रहणात्तजातीयग्रहणमिति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन ॥ ऐवं श्रहम्मत्तं, काय किं वि. जाणियां वा ॥ श्रोवगुणं वदुदो, विसेस ठाणपत्तेणं ॥ तम्हा सो यन्नेसिं, पि श्रावणं होई । द्रव्यानुयोगे तु ॥ बादम्मि तहारूवे, विद्यायवलेण पवयणठाए ॥ कुद्या सावड पिटु, जह मोरी एडलिमादी सु ॥ सो परिवायगो विलरकी कर्ज ति । उदाहरणदोपता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव जावनीयेति । गतमधर्मयुक्तद्वारमधुना प्रतिलोमद्वारावयवार्थव्या चिख्यासयाह ॥ पडिलोमे जहन पद्योयं हर वह संतो ॥ गोविंदवायगोविय. जह परपरकं नियत्तेइ ॥ ८१ ॥ व्याख्या ॥ प्रतिलोमे उदाहरणदोपे यथा श्रनयोऽजयकुमारः प्रयोतं राजानं हृतवान् । श्रपहृतः सन्नित्येतज्ज्ञापक मिह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनाथ वर्तमान निर्देश प्रत्यक्षरार्थः । जावार्थः कथानकाइवसेयः । तच्च यथाव ७ - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.. श्यकशिदायां तथैव अष्टव्यमिति। एवं तावलौकिकं प्रतिलोमं लोकोत्तरं तु अव्यानुयोगमधिकृत्य सूचयन्नाह । गोविंदेत्यादिगाथादलमनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्।आद्यन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तहणेनव ग्रहणात्तत्र चरणकरणे। णो किंचि य पमिलोमं कायवं नवजयेण मलेसिं॥अविणीयसिकगाण ज, जयणा जहोचिरं कुजा ॥ अव्यानुयोगे तु गोडवाचकोऽपि च यथा परपदं निवर्तयतीत्यर्थः । सो य किर तवमि आसि विणासणणिमित्तं पवळ पछा जावो जा। महावादी जात इत्यर्थः।सूचकमिदमत्र च ॥दवयिस्स पजावणयहियमेयं तु होइ पमिलोमं॥सुहपुरका अन्नाचं,श्यरेणियरस्स चोश्या॥श्रमे उ मुख्वादिम्मि, किं वि बूया न किल पमिकूलं ॥ दोरा सिपश्माए, तिमि जहा पुछपडिसेहो ॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपदे साध्यार्थासिकः। द्वितीयपदे तु शास्त्रविरुछनाषणादेव नावनीयेति गाथार्थः । गतं प्रतिलोमहारमिदानीं आत्मोपन्यासहारं विवृएवन्नाह ॥ अत्तउवन्नासंमि य, तलागनेयंमि पिंगलो थवई॥व्याख्या ॥ आत्मन एवोपन्यासो निवेदनं यस्मिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागनेदे पिङ्गलस्थपतिरुदाहरणमित्यदरार्थः । ज्ञावार्थः कथानकगम्यस्तच्चेदम्। इह एगस्स रन्नो तलागं सवरद्यस्सीसारनू।तं च तलागं वरिसे वरिसे नरियं निद्यश् । ताहे राया नण । को सो उवाई होचा । जेण तं न निवेद्या । तब एगो कविल मणूसो जण । जश्न वरं महाराय श्च पिंगलो कविलिया से दाढिया सिरं से कविलियं सो जीवन्तो चेव जंमिगणे निद्य तंमि हाणे णिकम । तोणवरंण निघ। पछा कुमारामच्चेण नणियं महाराय एसो चेव एरिसो जारिसयं जण । एरिसो णवि अन्नो । पछा सो तबेव निरिकत्तो मारेत्ता । एवं एरिसं न जाणियत्वं । अप्पवहाए नवश्। इदं लौकिकमनेन च लोकोत्तरमपि सूचितम् । एकग्रहणेन तजातीयग्रहणात्तत्र चरणाकरणानुयोगेनैवं ब्रूयात् यत॥“लोश्यधम्मा वि हु, जे पलछा णराहमा ते उ॥ कह दवसोयरहिया, धम्मस्साराहया होंति॥” इत्यादि। . व्यानुयोगे पुनरेकेन्जिया जीवा व्यक्तोबासनिश्वासादिजीवलिङ्गसनावावटवत् । इह जीवा ये न नवन्ति न तेषु व्यक्तोवासनिश्वासादिजीवलिङ्गसनावो यथा घटे । न च तथैतेष्वसनाव इति तस्माजीवा एवैत इत्यत्रात्मनोऽपि तपापत्यात्मोपन्यासत्वं नावनीयमिति।उदाहरणदोपता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटार्थेवेति न जाव्यते । गतमात्मोपन्यासछारमधुना रुपनीतछारं व्या चिख्यासुराह ॥ अण मिसगिण्हणनिकुग पुरवणीए उदाहरणं ॥ ७२ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ अनानिमिपा मत्स्यास्तहणे निगुरुदाहरणमिदं च लौकिकमनेन चोक्तन्यायालोकोत्तरमप्याक्षिप्तं वेदितव्यमिति गायादलाकारार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तञ्चेदम्। किल कोई तब मिर्ज जालवावरकरो Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ५१ मष्ठगवहाए चलिर्छ । धुत्तेण जलश् । आयरिय अघणा ते कंथा । सो जण जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयम्।कन्थाचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यां-स्ते मे मद्योपदंशाःपिबसि ननु युतं वेश्यया यासि वेश्याम् ॥ कृत्वारीणां गलेऽही, व नु तव रिपवो येषु संधि बिननि, चौरस्त्वं द्यूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥ इदं लौकिकं चरणकरणानुयोगे तु ॥श्य सासणस्सवलो, जायजेणं न तारिसं या॥ वादे वि उवह सिघश्, निगमण जेण तं चेव ॥उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । गतं रुपनीतहारं मूलधाराणां चोदाहरणदोषछारमिति । सांप्रतमुपन्यासछारं व्याख्यायते । तत्राह ॥ चत्तारि उबन्नासे, तवयुग अन्नवयुगे चेव ॥ पडिणिनए हेनम्मि य, होति णमोउदाहरणा ॥३॥ व्याख्या॥चत्वार उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वानेदा जवन्ति । इति शेषः। ते चामी सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा तथाधिकारानुवृत्तेश्च । तहस्तूपन्यासस्तथा तदन्यवस्तूपन्यासः। तथा प्रतिनिनोपन्यासः । तथा च हेतूपन्यासश्च । तत्रैतेषु नेदेषु नवन्त्यमूनि वदयमाणान्युदाहरणानीति गाथार्थः। नावार्थस्तु प्रतिनेदं खयमेव वयति नियुक्तिकारः। तत्रायनेदव्याचिख्यासयाह ॥ तबलुयंमि पुरिसो, सवं लमिऊण साहर अपुत्वं ॥ अस्या व्याख्या। तहस्तुके तहस्तूपन्यास इत्यर्थः । पुरि शयनात्पुरुषः। सर्वं चान्त्वा सर्वमाहिएमय किं कथयति।अपूर्वम् । वर्तमान निर्देशः पूर्ववदिति गाथादलार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगंमि देवकुले कप्पडिया मिलिया नणंति ॥ केण ने नमंतेहिं किंचि अहेरियं दिहं। तब एगो कप्पडिगो जण मए दिकं ति । जश् पुण एब समणोवास नदि तो साहेमि । तर्ज सेसेहिं नणियं णदिन समणोवास । पढा सो नण । मए हिंमतेणं पुत्ववेतालीए समुदस्स तडे रुरको महतिमहंतो दिको । तस्सेगा साहा समुद्दे पहिया । एगा य थले । तत्र जाणि पत्ताणि जले पडंति । ताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति । जाणि थले ताणि थलचराणि हवंति । अहो अरयं देवेण नहारएण णिम्मियं ति । तवेगो सावगो कप्पडि। सो नण । जाणिं अजमने पति ताणि किं हवंति । ताहे तो खुद्दो जण । मया पुवं चेव नणियं जश् सावर्ज नचि तो कहेमि । एएणं तं चेव पडणवतुमहि किचोदाहरियं । एवं तावलौकिकमिदं चोक्तन्यायालोकोत्तरस्यापि सूचकम् । तत्र चरणकरणानुयोगे यः कश्चिहिनेयः कं चनासदाहं गृहीत्वा न सम्यग्वर्तते । स खलु तहस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः । यथा कश्चिदाह ॥ " न मांसलक्षणे दोपो न मये न च मेधुने॥प्रवृत्तिरेषा जूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥" झंच किलेवमेव प्रयुज्यते । प्रवृ. त्तिमन्तरेण निवृत्तेः फलानावात् निर्विपयत्वेनासंजवाच्च तस्मात्फल निवन्धन निवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यटैवेति । श्रानोच्यते । इह निवृत्तेर्महाफलत्वं किं उटप्रवृत्ति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. परिहारात्मकत्वेनाहोस्विदष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनेति । यद्यायः पदः । कथं प्रवृ. तेरऽष्टत्वमथापरस्ततो निवृत्तेरप्यष्टत्वात्तनिवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलत्वप्रसङ्गस्तथाच सति पूर्वापरविरोध इति नावना । अव्यानुयोगे तु य एवमाह । एकान्तनित्यो जीवः अमूर्तत्वादाकाशवदिति । स खलु तदेवामूर्तत्वमाश्रित्य तस्योत्तेपणादावनित्ये कर्मण्यपि तावठक्तव्यः । कर्मामूर्तमनित्यं चेत्ययं वृझदर्शनेनोदाहरणदोष एव यथान्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति । गतं तहस्तूपन्यासकारमधुना तदन्यवस्तूपन्यासद्वारमनिधातुकाम आह ॥ तयअन्नवलुगंमि वि, अन्नले होइ एगत्तं ॥ ॥ व्याख्या ॥ तदन्यवस्तुकेऽप्युदाहरणे किम्।अन्यत्वे नवत्येकत्वमित्यदरार्थः। लावार्थस्त्वयम्। कश्चिदाह . यस्य वादिनोऽन्यो जीवःअन्यच्च शरीरमिति तस्यान्यशब्दस्या विशिष्टत्वात्तयोरपि तछाच्या विशिष्टत्वेनैकत्वप्रसङ्ग इति तस्य जीवशरीरापेक्षयातदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः कर्तव्यः।कथम् । नन्वेवं सति सर्वजावानां परमाणुध्यणुकघटपटादीनामेकत्वप्रसङ्गः । अन्यः परमाणुरन्यो हिप्रदेशिक इत्यादिना प्रकारेणान्यशब्दस्या विशिष्टत्वात्तेषां तछा- . च्यत्वेनाविशिष्टत्वादिति ।तस्मादन्यो जीवोऽन्यछरीरमित्येतदेव शोजनमित्येतद्र्व्यानु- - योगे अनेन चैतयोरप्यादेपस्तत्र चरणाकरणानुयोगेन सांसजदण इत्यादावेव कुप्राहे . तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः।कथम्।न हिंस्यात्सर्वाणि नूतानीत्येतदेवं विरुध्यते इति। लौकिकं तु तस्मिन्नेवोदाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः। जहा जाणि पुण पनिऊण . पडिऊण को खा वीणेश वा ताणि किं हवंति त्ति ।गतं तदन्यवस्तूपन्यासद्वारं सांप्रतं . प्रतिनिजमनिधित्सुराह ॥ तुन पिया मत पिऊ, धारेश् अणुमयं पडि निन्नंमि ॥ गाथादलम् ॥अस्य व्याख्या॥ तव पिता मम पितु रयत्यनूनं शतं सहस्रमित्यादि गम्यते। प्रतिनिन इति द्वारोपलकणमयमदरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगंमि नगरे एगो परिवायगो सोवन्नएण खोरएण तहिं हिंड। सो जण । जो मम असुयं सुणावेश तस्स एयं देमि खोरयं । तब एगो सावर्ड तेण जणिवे। तुम पिया मम पिउणो धारेश् अणूणगं सयसहस्सं । जश् सुयपुर दिउ । अह न सुथं खोरयं देहि । इदं लौकिकमनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम् । तत्र चरणकरणानुयोगे येषां सर्वथा हिंसायामधर्मस्तेषां विध्यनशनविषयोसेकचित्तनङ्गादात्महिलायामपि अधर्मएवेति तदकरणम् । अव्यानुयोगे पुनरजुष्टं मन्चन मिति भन्यमानो यः कश्चिदाह । .. अस्ति जीव इत्यत्र वद किंचित्स च वक्तव्यो यद्यस्ति जीव एवं तर्हि घटादीनामप्य: । स्तित्वाजीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिजमधुना हेतुमाह । किं नु जवा किचंते, जेण मुहाए न लप्नंति ॥ ५ ॥ व्याख्या ॥ किंतु यवाः क्रीयन्ते येन मुधा न लज्यन्त इत्यदरार्थः। जावार्थस्त्वयम्। को विगोधो जवे किणा। सो अन्नेण पुविद्यशकि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ना जवे किासि | सो जाइ जेण मुहियाएणलनामि । लौकिक मिदं हेतू पन्यासोदाहरणमनेन च लोकोत्तरमप्या दितमवगन्तव्यम् । तच्चरणकरणानुयोगे तावद्ययाह विनेयः । किमितीयं निहाटनाद्यतिकष्टा क्रिया क्रियते स वक्तव्यो येन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति । व्यानुयोगे तु यद्याह कश्चित्किमित्यात्मा न चकुरा दिनिरुपलभ्यते स वक्तव्यो येनातीन्द्रिय इति । गतं हेतुद्वारं तदनिधानाच्चोपन्यासद्वारं तद निधानाचोदाहरणद्वार मिति । सांप्रतं हेतुरुच्यते । तथा चाह || अहवा वि श्मो देऊ, विन्ने तमो चविप्पो ॥ जावगथावगवंसग-लूसग देऊ चो उ ॥ ८६ ॥ अथवा तिष्ठत्वेष उपन्यास उदाहरणं चरमनेदलक्षणो हेतुः । अपिः संभावने । किं संजावयति । इमोयं अन्यद्वार एवोसन्यस्तत्वात्तडुपन्यासनान्तरीयकत्वेन गुणनूतत्वादहेतुरपि किं तु देऊ विसेउं तविमो ति व्यवहितोपन्यासात्तत्रायं वदयमाणो हेतुर्वि शेयश्चतुर्विकल्प इति चतुर्भेदः । विकल्पानुपदर्शयति । यापकः स्थापकः व्यंसकः लूपकः हेतुः चतुर्थस्तु । अन्ये त्वेवं पवन्ति ॥ हे उत्ति दारमहुणा, चउविहो सो य ॥ त्राप्युक्तमुदाहरणं हेतुरित्येतद्दारमधुना तुशब्दस्य पुनः शब्दार्यत्वात्स पुनर्हेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते । पश्चार्धं पूर्ववदेवेति गाथादरार्थः । जावार्थं तु यथावसरं स्वयमेव वक्ष्यति । तत्राद्यनेदव्या चिख्यासयाह ॥ उनामिगा य महिला, जावग हे जंमि उंटलिंकाई ॥ गाथादलम् ॥व्याख्या ॥ असती महिला | किम् | यापयतीति यापकः । यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः । तस्मिन् उदाहरण मितिशेषः । उष्ट्रलिंडानीति कथानकसंसूचकमेतदिति श्ररार्थः । जावार्थः कथानकादव सेयस्तच्चेदं कथानकम् । एगो वाणिय नद्यं गिरहेऊण पच्चंतं गर्ज | पावे खी दवा धणियपरका कयावराहा य पञ्चतं सेवंती पुरिसा डुरहीयविद्या य ॥ सायमहिला उप्नामिया एगंमि पुरिसे लग्गा । तं वाणिययं सागारियं ति चिंतिऊण नाइ । वच्च वाणिद्येण । तेण जलिया किं घेतॄण वच्चामि । सा जइ । जहलिंडिया घेत्तृणं वच्च उद्येणिं सगडं नरेन्ता उद्येणिं गतो ताए नणि य जहा एक्केकयं दीणारेण दिद्यत्ति । सा चिंते । वरं खु चिरं खिप्तो | तेण तार्ज वीहीए उड्डियाई । कोइ पुछ । मूलदेवेण दिो पुछि य | सिद्धतेण मूलदेवेण चिंतियं । जहा एस बरा महिलाहो नि । ताहे मूलदेवेण जसति । श्रहमेयान तत्र विक्किणामि ज‍ मम विमुलस्स श्रद्धं देहि । तेण नणियं देमिति । अवगए पत्रा मृलदेवेणं सो हंसो जाएऊण श्रागासे । उप्प णगरस्त मते हाइक जण । जस्त गलए चेव्वस्त उहलिं - डिया न वा तं मारेमि । श्रहं देवो पना सवेण लोएम जीएण दीपारिकार्ड हलिंand गहिया । चिकिचार्ज य । ताड़े तेण मृलदेवस्त थकं दिनं । सृलदेवेण च सो ५३ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जसइ । मंदनग्ग तब महिला धुत्ते लग्गा । ताए तव एयं कयं ण पत्तियं ति । मूलदेवेण नमश् । एहि वच्चामो जा ते दरिसे मि । जदि ण पत्तियसि ताहे गया अन्नाए लेसाए वियाले उवासो मन्गिर्छ । ताए दिलो तब एगंमि पएसे छिया । सो धुत्तो श्रागर्छ । श्यरी वि धुत्तेण सह पिवेजमाढत्ता । श्मं च गाय ॥ रिमंदिरपत्तहार महु कंतु गतो वणिजार ॥ वरिसाण सयं च जीवन मा जीवंतु घरं कयाइ एउ ॥ मूलदेवो लण । कयलीवणपत्तवेढिया पश् नणामि । देव जं मद्दलएण गजाती मु. णज तं मुहुत्तमेव पछा मूलदेवेण जमति । किं धुत्ते तर्ज पजाए निग्गंतूणं पुणरवि आगर्ड तीय पुर हिजसा सहसा संनंता अनुहिया। त खाणपिबणे वदंते तेण वाणिएणं सवं तीए गीयपद्यत्तयं संचारियं । एसो लोहेजालोउत्तरे विचरणकरणाणुयोगे एवं सीसो वि केश पय असदहंतो कालेण विद्यादीहिं देवतं आयं पश्त्ता सहावे. यवो।तहा दवाणुजंगे वि पडिवाइं नाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायवो । जहा कालजावणा हवश् । तर्ज सो णावगड एगयं कुत्तियावणचच्चरी वा कय । जहा सिरिगुत्तेण ब्लुए कया।उक्तो यापकहेतुः। सांप्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याह । लोगस्स मनजाणण थावगहेक उदाहरणं ॥७॥ अस्य व्याख्या॥ लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम् । किम् । स्थापकहेतावुदाहरण मित्यदरार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगो परिवायगो हिंड । सो य परूवे। खेत्ते दाणाई सफलं ति कटु समखेत्ते कायदं । अहं लोअस्स मनं जाणामि ण पुण अन्नो । तो लोगो तमाढाति । पुचिर्ड य संतो चउसु वि दिसासु खीलए णिहणिऊण रङ्गए पमाणं काऊण माश्हाणि नणश् । एयं लोयमनं ति । त लोउं विम्हयं गबर । अहो जट्टारएण जा. णियं ति । एगो य सावळ तेण नायं । कहं धुत्तो लोयं पयारे त्ति । तो अहं पि वंचामित्ति। कलिऊण नणियं । ण एस लोयमलो हो तुमं ति। तसावएण पुणो मवेजण अपलो देसो कहिउँ जहेस लोयमप्लो ति।लोगो तुहो।अ नणंति। अणेगहाणेसु अन्न अन्नं मनं परूवंतयं दहण विरोधो चोश्यत्तिा एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिपसिणवागरणो कर्ज। एसो लोज थावगहेज लोउत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंजावणिजासग्गाहर सीसो एवं चेव परमवेयबोदवाणुजोगेण साहुणा तारिसं नाणियवंतारिसोय परको गेरिहयो । जस्स पुरोउत्तरं चेव दान तीर। पुवावरविरुको दोसो य ण हवझ। उक्तः स्थापकः सांप्रतं व्यंसकमाह । सा लगडतित्तिरी वं-सगंसि हेम्मि होश नायबा व्याख्या॥ सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ नवति ज्ञातव्येत्यदरार्थः। जावार्थः कथानकादवलेयस्तञ्चेदम् । जहा एगो गामेहगो सगडं कहाण नरेऊण गरं गठ। तेण गढ़तेण अंतरा एगा तित्तिरी मश्या दिहा।सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवरि प. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । एप किविकण णगरं पश्को । सो एगेण नगरधुत्तेण पुनि कहं सगडतित्तिरी लपश् । तेण गामेहएण नाम । तप्पणामुयालियाए लपति । तर्ज तेण सरिकण डआहपित्ता । सगडं तित्तिरीए सह गहियं । एत्तिलगो चेव किल एस वंसगो ति। गुरवोनएंति । त सो गामेद्वगो दीपमणसो अव । तब य एगो मूलदेवसरिखो मणुसो श्रागठ तेण सो दिहो। तेण पुचिळ । किं लियायसि अरे देवाणु प्पिया । तेण नणियं अहमेगेण गोहेण श्मेण पगारेण बलि । तेण नणियं । मा वीहिह तप्पणाच्या नियं तुम सोवयारं मग्ग । मागणं सिकाविर्ड एवं नवज त्ति नणिऊण तस्स सगास गर्छ जणियं चणेण मम जश् सगडे हियंतो मे श्याणिं तप्पणाज्यालियं सोवयारं दवावेहि।एवं होउ त्तिघरणी महिला संदिहा । अलंकिय विजूसिया परमेण विणएण एअस्स तप्पणाड्यालियं देहि । सा वणसमं उवहिया । त सो सागडि लणति । मम अंगुली दिन्ना । श्मा चीरेण वेढिया ण सक्केमि उडयाले तुमं अध्यालिलं देहि । श्रयालिया तेण हरेण गहिया । गामं तेण संपहिउँ लोगस्स य कहेश । जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणाध्यालिया। ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसधियातं च पसाएऊण नद्या णियत्तिया। एस पुण लूस चेव कहाणयवसेण नगि। एस सोल लोयुतरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिनावियस्स तस्स तहा वंसगो पउद्यति। जहा संमं पडिवद्य। दवाणुउँगे पुण कुप्पावयणि चोश्या । जहा जश् जिणपपीए मग्गे अनि जीवो अनि घडो अबित्तं जीवेवि घडेवि दोसुविसेसेण वत्ति । ते ण अवित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं नवति । अह अठि लावार्ड वतिरित्तो जीवो तेण जीवस्त अनावो नवत्ति। एस किल एबहमेत्तो चेव वंसगो। लुसगेण पुण एव श्मं उत्तरं नाणितवं । जश् जीवघडा अहिते वहति । तम्हा तेसिमेगत्तं संजावाह । एवं ते सवन्नावाणं एगत्तं नवति । कहं अछि घडो अहि पडो अनि परमाणु आठ उपए सिए खंधे एवं सवनावेसु अछिनावो वक्ष त्ति कालं किं सहनावा एगीलवंतु। एल सीसो आह कहं पुण एयं जाणियहं सवन्नावेसु यचिन्नावो वदृश् नय ते एगानवति । आयरि आह । अणेगंताजे एवं सिन एव दितो । खरवणस्तश्वएस्सई पुण खदिरो पलासो वा एवं जीवो वि णियमा अनियनिनावो पुण जीवो व होद्य धन्नो वा धम्माधम्मागासादीणं ति । उक्तो व्यंसकः । सांप्रतं तृपकमधिकृत्याहै । तउसगवंसगलुसग देउम्मि य मोयर्ड व पुणो ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ पुषव्यसकप्रयोगे पुनर्चपके हेतो व मोदको निदर्शनमिति गायादारार्थः । नाबार्थः कथानकादवलेयस्तञ्चेदम्। जहा एगो मणुसो तडसाणं नरिएण लगडेण नवरं पविस३। सो पविसंतो धुत्तेण नए । जो एवं तसाण सगडं खाया तस्स तुमं किं. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... दशवैकालिके वितीयाध्ययनम्। व्यमिति गाथार्थः । श्यं किल गाथा जिन्नकर्तृकी ॥ अतः पवनादिषु न पुनरुक्तदोष इति । सांप्रतं तत्त्वजेदपर्यायैाख्येति न्यायाबूमणस्यैव पर्यायशब्दाननिधिसुराह ॥ पवश्ए अणगारे, पासंडे चरगतावसे निस्कू ॥ परिवाश्ये य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ १६४ ॥ व्याख्या ॥ प्रकर्षण बजितो गतः प्रबजितः । श्रारम्नपरिग्रहादिति गम्यते । अगारं गृहं तदस्यास्तीत्यगारो गृही। न अगारोऽनगारः । प्रव्यनावग्रहरहित इत्यर्थः। पाखएमं व्रतं तदस्यास्तीति पाखएकी । उक्तं च “॥ पाखएकं व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं नुवि ॥ स पाखएकी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाहिनिर्गतः ॥" चरतीति चरकस्तप इति गम्यते । तपोऽस्यास्तीति तापसः । निदणशीलो निकुः । निनत्ति वाष्टप्रकारं कर्मेति लिनुः । परि समन्तात्पापवर्जनेन व्रजति गतीति परिव्राजकः । चः समुच्चये । श्रमणः पूर्ववत् । निर्गतो ग्रन्था निर्यन्थः बाह्यान्यन्तरग्रन्थरहित इत्यर्थः । समेकीनावेनाहिंसादिषु यतः प्रयत्नवान् संयतः । मुक्तो बाह्यान्यन्तरेण ग्रन्येनैवेति गाथार्थः ॥ तिने ताई दविए, मुणी य खते य दंतविरए य ॥ लूहे तीरहे वि य, हवंति समणस्स नामाई ॥ १६५ ॥ व्याख्या ॥ तीर्णवांस्तीर्णः संसारमिति गम्यते । त्रायत इति त्राता धमकथादिना संसारःखेच्य इति जावः । रागादिनावरहितत्वाद्र्व्यम् । अवति गठति तांस्तान् झानादिप्रकारानिति अव्यम् । मुनिः पूर्ववत् । चः समुच्चये। दाम्यतीति क्षान्तः क्रोधविजयी । एवमिन्द्रियादिदमनादान्तः । विरतः प्राणातिपातादिनिवृत्तः । स्नेहपरित्यागादाः । तीरेणार्थोऽस्येति तीरार्थी । संसारस्येति गम्यते । तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात् । एतानि नवान्त श्रमणस्य नामानि अनिधानानीति गाथार्थः । निरूपितः श्रमणशब्दः । अधुना पूर्वशब्दश्चिन्त्यते । अस्य च त्रयोदशविधो निक्षेपः। तथा चाह ॥णामं उवणा दविए, खेत्ते काले दिसि नावखेत्ते य ॥ पन्नवगपुववनू, पाहुडअश्पाहुडे नावे ॥ १६६ ॥ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने कुमे । अव्यपूर्वमङ्कुराबीजं दनः दीरं फाणितास इत्यादि । क्षेत्रपूर्वं यवदेत्रामातिदेवं तत्पूर्वकत्वात्तस्य । यपेक्षया चान्यथाप्यदोपः। कालपूर्व पूर्वः कालः शरदः प्रावृट, रजन्या दिवस इत्यादि । यावलिकाया वा समय इत्यादि । दिकपूर्वं पूर्वा दिगियं च रुचकापेदया । तापक्षेत्रपूर्वमादित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिक् । उक्तं च " जस्स ज यादिच्चो, उदेश सा तस्स होश पुत्व दिसा ॥” इत्यादि । प्रज्ञापकपूर्व प्रज्ञापकं प्रतीत्य पूर्वा दिकू । यदनिमुख एवासी सेव पूर्वा । पूर्वपूर्व चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यं तच्च उत्पादपूर्वम् । एवं वस्तुप्रातृतातिप्रानृतेप्वपि योजनीयम् । थप्रत्यदास्वरूपाणि चैतानि । लावपूर्वमायो नावः स Page #71 --------------------------------------------------------------------------  Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.. -. ". - - "- .- "-. . - - .. DI L . - दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । GI कानुनवनम् । तघ्यापार श्त्यन्ये । यथा स्त्री वेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि । तेनाधिकार इति मदनकामेन । शेषा उच्चारितसदृशा इति प्ररूपितास्तस्य तु मदनकामस्य वदन्ति धीरास्तीर्थकरगणधरा निरुक्तमिदं वदयमाणलदाणमिति गाथार्थः ॥ विसयसुहेसु पसलं, अबुहजणकामरागपडिबझं ॥ उकामयंति जीवं, धम्माठ तेण ते कामा ॥ १७० ॥ व्याख्या ॥ विषीदन्त्यावध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः शव्दादयः तेन्यः सुखानि तेषु प्रसक्तः आसक्तस्तं जीवमिति योगः । स एव वि. शिष्यते । अबुधोऽविपश्चिजनः परिजनो यस्य स अबुद्धजनस्तमकल्याण मित्रपरिज. नमित्यर्थः । अनेन वाह्यं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह । कामरागप्रतिवझमिति । कामा मदनकामास्तेच्यो रागा विषयाभिष्वङ्गास्तैः प्रतिवको व्याप्तस्तम् । अनेन त्वान्तरं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह । ततश्चाबुधजनत्वात्कामरागप्रतिवद्धत्वाच्च विषयसुखेषु प्रसक्तमिति नावः। किम् । निरुक्तवैचित्र्यादाह । तत्प्रत्यनीकत्वामुक्रामयन्त्यपनयन्ति जीवमनन्तरविशेषितम् । कुतो धर्मात् । यत्तदोनित्यानिसंवन्धात् । येन कारणेन तेन सामान्येनैव कामरागाः कामा इति गाथार्थः। अन्ये पठन्ति । उक्रामयन्ति यस्मादिति । अत्र चाबुधजन एव विशेष्यः । शेषं पूर्ववत् ॥ अन्नं पि य से नामं, कामा रोगत्ति पंडिया विति ॥ कामे पढेमाणो, रोगे पडे खलु जंतू ॥ १७१ ॥ व्याख्या ॥ अन्यदपि चैषां कामानां नाम । किंन्नूतमित्याह । कामा रोगा इति एवं पएिकता त्रुवते । किमित्येतदेवमत आह । कामान्प्रार्थयमानोऽनिलषन् रोगान्प्रार्थयते खलु जन्तुस्तपत्वादेव कारणे कार्योपचारादिति गाथार्थः। श्वं पूर्वार्धे सूत्रस्पर्श नियुक्तिमनिधाया. धुनोत्तरार्धे पदावयवमधिकृत्याह ॥ णामपयं उवणपयं, दवपयं चेव होश नावपयं ॥ एकेकं पि य एत्तो, णेगविहं होइ नायवं ॥ १७२ ॥ व्याख्या ॥ नामपदं स्थापनापदं जव्यपदं चैव नवति नावपदम् । एकैकमपि चात एतेन्योऽनेक विधं नवति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः । अवययार्थं तु नामस्थापने कुणत्वादनादृत्य अव्यपदमनिधित्सुराह ॥ श्राहिमजकिन्नं, उमेचं पीलिमं च रंगं च ॥ गंथिमपरिमवेदिम-वाश्मसंघाश्मं ठेचं ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ आकोहिम जहा स्वर्ड देहा वि उवरिं पि मुहं काऊण आजडिजत्ति । उत्कीर्ण शिलादिपु नामकादि। तहा वनलादिपुप्फसंगणाणि चिरकल्बमयपडिविंवगाणि कालं परति । त तेसु वग्धारित्ता मयणं पत्ति। तठ मयणमया पुप्फा हवंति । एतापनेयम् । पीडावच संवेटितवनमावलीरूपं रत्तावयवच विविचित्तरूवं रङ्गं । चः समुच्चये। ग्रथितं मालादि। वेटिमं पुप्पमयमुकु. टरूपम् । चिरकसमयं कुएिमकारूपम् । यणेगठिदं पुप्फयामं पूरिमं । वातव्यं कुविदेवस्त्र विनिर्मितमश्वादि। संघात्यं कंचुकादि । ठेद्यं पत्रछेद्यादि । पढ़ता चास्व पद्यते . - . - . - - . - " - " " " " -. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ऽनेनेत्यर्थयोगात् । द्रव्यता च तडूपत्वादिति गाथार्थः । उक्तं द्रव्यपदमधुना • पदमाह ॥ जावपयं पिय डुविहं, अवराहपयं च नो य यवराहं ॥ नोयवराहं डुविहं, माउग नोमागं चैव ॥ ११४ ॥ व्याख्या ॥ जावपदमपि च द्विविधम् । द्वैविध्यमेव दर्शयति । अपराधहेतुभूतं पदमपराधपदमिन्द्रियादि वस्तु । चशब्दः स्वगतानेकनेदसमुच्चयार्थः । गोवराहं ति । चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासान्नो अपराधपदं च । चः पूर्ववत् । नोअपराधमिति । नापराधपदं द्विविधम् । मानोमा चैवति । मातृकापदं नोमातृकापदं च । तत्र मातृकापदं मातृकादराणि । मातृकानूतं वा पर्द मातृकापदम् । यथा दृष्टिवादे “ उप्पन्ने वा ” इत्यादि । नोमातृकापदं त्वनन्तरगा - या वदयतीति गाथार्थः ॥ नोमागं पि डुविहं, गहियं च पश्न्नयं च वोद्धवं ॥ गहियं चप्पयारं, पन्नगं होइ अणेगविहं ॥ १७५ ॥ व्याख्या ॥ नोमाजयं पिति । नो मातृका पदमपि द्विविधम् । कथमित्याह । ग्रथितं च प्रकीर्णकं च बोद्धव्यम् । - ग्रथितं रचितं बद्धमित्यनर्थान्तरम् । अतोऽन्यत्प्रकीर्णकं प्रकीर्णककथोपयो गिज्ञानपदमित्यर्थः । ग्रथितं चतुःप्रकारं गद्यादिनेदात् । प्रकीर्णकं जयत्यनेकविधमुक्तलक्षणत्वादेवेति गाथार्थः । ग्रथितमनिधातुकाम याह ॥ गद्यं पद्यं गेयं, चुन्नं च चढ़विहं उ गहियपयं ॥ तिसमुद्राणं सबं, इह बेंति सलकणा कणो ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ गद्यं पद्यं गेयं चौर्ण च चतुर्विधमेव ग्रथितपदम् । एभिरेव प्रकारैर्यथनात् । एतच्च त्रिज्यो धमार्थकामेभ्यः समुवानं तद्विषयत्वेनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुखानं सर्वं निरवशेषम् । याह । एवं मोहसमुन्वानस्य गद्यादेरनावप्रसङ्गः । न तस्य धर्मसमुछान वान्तवात् । धर्मकार्यत्वादेव मोक्षस्येति । लौकिक पदलक्षणमेवैतदित्यन्ये । तस्त्रिसमुखानं सर्वम् इ एवं ब्रुवते सलक्षणा लक्षणज्ञाः कवय इति गाथार्थः ! गद्यलक्षणमाह ॥ महुरं हेउनिजुत्तं, गहियमपायं विरामसंत्तं ॥ अपरिमियं चवसाणे, कवं गद्यं ति नाय ॥ १७७ ॥ व्याख्या ॥ मधुरं सूत्रार्थोनयैः श्रव्यम् । हेतु नियुक्तं सोपपत्तिकम् । ग्रथितं बद्धमानुपूर्व्या । अपादं विशिष्टबन्दोरचनायोगात्पादवर्जितम् । विरामोऽवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाठतः इत्येके ॥ जहा जिणवरपादारविंदसंदा णिउरुणिम्मलस्सहस्सएवमादि। यसमा पिउन चि‍त्ति । यति विशेषसंयुक्तम् अन्ये । परिमितं चावसाने बृहद्भवतीत्येके । अन्ये त्वपरिमितमेव नवति वृहदित्यर्थः । वसाने मृडु पठ्यत इति शेषः । काव्यं गद्यमित्येवंप्रकारं ज्ञातव्यमिति गाथार्थः । अधुना पद्यमाह ॥ पयं तु होइ तिविहं, समम समं च नाम विसमं च ॥ पाएहिं अरकरेहिं य, एव विह कई बेंति ॥ १७८ ॥ व्याख्या ॥ पद्यम् । तु शब्दो विशेषणार्थः । जवति त्रिविधं त्रिप्रकारं सममर्धसमं च नाम विषमं च । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीयाध्ययनम्। नए . कैः सममित्यादि। अत्राह । पादैरदरैश्च । पादैश्चतुःपादादिनिरदरैरुलघुनिः। अन्ये तु व्याचक्षते । समं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यवराणि । अर्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोर्मितीयचतुर्थयोश्च समान्यदराणि । विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमादरमित्येवं विविज्ञाश्चन्दःप्रकारशाः कवयो ब्रुवत इति गाथार्थः। अधुना गेयमाह ॥ तंतिसमं तालसमं, वलसमं गहसमं लयसमं च ॥ कवं तु हो। गेयं ,पंचविहं गीयसन्नाए ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ तन्त्रीसमं तालसमं वर्णसमं महसमं लयसमं च काव्यं तु नवति । तुशब्दोऽवधारणार्थ एव। गीयत इति गेयं पञ्चविधमुक्तैर्विधिनिर्गीतसंज्ञायां गेयाख्यायाम्। तत्र तन्त्रीसमं वीणादि तन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च । एवं तालादिष्वपि योजनीयम् । नवरं ताला हस्तगमाः । वर्णा निषादपञ्चमादयः । ग्रहा उदेपाः प्रारम्नरजसविशेषा इत्यन्ये । लयाः तन्त्रीस्वनविशेषाः। तब किल कोणएण तंती विप्प। तर्ज णदेहि अणुमधिद्य। तब श्रणारिसो सरो उठे । सो लयो त्ति गाथार्थः । सांप्रतं चौर्ण पदमाह ॥ अबबहुलं महबं, हेलनिवाउँवसग्गगंजीरं ॥ बहुपायमवोठिन्नं, गमणयसुझं च चुन्नपयं ॥ १०॥ नोअवराहपयं गयं ॥ व्याख्या ॥ अर्थो वहुलो यस्मिंस्तदर्थवहुलम् ॥ कचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिछिन्नाषा कचिदन्यदेव ॥ विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं वाहुलकं वदन्ति ॥ ततश्चैनिः प्रकारैर्वह्वर्थम् । महान् प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनाओं यस्मिंस्तन्महार्थम् । हेतुनिपातोपसगैंगनीरम् । तत्रान्यथानुपपत्तिलक्षणो हेतुः। यथा मदीयोऽयमश्वो विशिष्टचिह्नोपलक्षितत्वात् । चवाखल्वादयो निपाताः। पर्युतसमवादय उपसर्गाः। एनिरगाधम् । वहुपादमपरिमितपादम् । अव्यवछिन्नं श्लोकवहिरामरहितम् । गमनयैः शुद्धम् । गमास्तदक्षरोच्चारणप्रवणा निन्नार्थाः। यथा इह खलु उजीवाणया, कयरा खलु सा उजीवणिया ॥ इत्यादि । नया नैगमादयः प्रतीताः । तुरवधारणे । गमनयशुछमेव । चौर्ण पदं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति गाथार्थः। उक्तं ग्रथितं प्रकीर्णकं लोकादवसेयम् । उक्तं नोअपराधपदमधुना अपराधपदमाह ॥ इंदियविसयकसाया, परीसहा वेयणा य उवसग्गा ॥ एए अवराहपया, जठ विसीयंति उम्मेहा ॥ १२ ॥ व्याख्या । इंजियाणि स्पर्शनादीनि । विषयाः स्पर्शादयः । कयायाः क्रोधादयः । इन्जियाणि चेत्यादिछन्छः । परीपहाः कुत्पिपासादयः । वेदना यशातानुनवलक्षणाः । उपसर्गा दिव्यादयः । एतान्यपराधपदानि मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि । यत्र येष्विन्जियादिषु सत्सु विपीदन्ति श्रावध्यन्ते । किं सर्व एव । नेत्याह । उमेंधसः कुलकवत् । कृतिनस्तु एनिरेव कारणनूतः संसारकान्तारं तरन्तीति गाथापः । कुखकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः । कोऽसो खुबत्ति । कहा १२ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. यं । कुंord जहा एगो तो सपुत्तो पब । सो य चेल तस्सव हो । यमाय । खंता ण सक्केमि अणुवाहणो हिंडिजं । यणुकंपा खंतेष दिसा वाहणा । ताड़े जइ । उवरितला सीएए फुहंति । खलिता से कया । पुणो । सीसं मे व डन । ताहे सीसवारिया से लाया । तादे जइ । ण सक्केमि निरकं हिंडिनं । तो से पसिए हियस्स आइ । एवं तरा मि खंत मी सुविनं । ताहे संथारो से अणुसाठे । पुणो जइ । ए तरामि खंत लोयं काउं । तो खरेण पकिद्यियं । ताहे जइ । अन्हाण्यं न सक्केमि । तर्ज से फासुयपाएण कप्पो दिes | थायरियपाजग्गं वजुयलयं धिप्पर । एवं जं जं जप तं तं सो खंतो ऐहपडिबको तस्सणुजाण । एवं काले गछमाणे पनर्जि । न तरामि विरयया विणा अधिनं खंतत्ति । ताहे खंतो जइ । सो जोगो ति काऊ पसिया प्फेि डिर्ज । कम्मं काउं ण याणे । प्रयाणंतो उपसंख डीए काउं जिसे मर्ज । विसयविसहो मरिठं महिसो आया वाहिर । सोय तो सामपरियागं पालेऊण याजकये कालगर्ज देवेसु उववसो । उहिं पतंजइ । उहिणा आनोएऊण तं चेल्लयं पुवणेदेणं तेसिं गाहाणं हबर्ड किए | darinीए जो वादेश् य गरुगं तं । यतरंतो वोढुं तोत्तएण विधेनं न‍ ण तरामि खंता जिकं हिंडिलं । एवं भूमीए सयणं लोयं काळं एवं ताणि वयणाणि सवाणि उच्चारे जाव अविरययाए विणा न तरामि खंतति । ताहे एवं जणंतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं कहं एरिसं वकं सुखं ति । ताड़े ईहापूहमग्गणगवेसणं करे । एवं चिंतयंतस्स तस्स जाईसरणं समुप्पन्न | देवेण उही पत्ता | संबुद्धों पछा जत्तं पच्चरकाइत्ता देवलोगं गर्नु । एवं पए पर विसीदंतो संकष्पस्स वसं गछइ । जम्हा एस दोसो तम्हा श्रहारससीलिंगसहस्साणं सारणापिमित्तं एए अवराहपर वद्येद्य । तथा चाह ॥ श्रहारसन सहस्सा, सीलंगाणं जिणेहिं पन्ना ॥ सिं पडिरकण्डा, वराहपए उ वद्येद्या ॥ १८२ ॥ व्याख्या ॥ अष्टादशसहस्राणि । तुखधारणे । अष्टादशैव शीलं जावसमाधिलक्षणं तस्याङ्गानि नेदाः कारणानि वा । शीलाङ्गानि तेषां जिनैः प्रानिरूपितशब्दार्थः प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि । तेषां शीला - ङ्गानां परिरक्षणार्थं परिरक्षण निमित्तमपराधपदानि प्राग्निरूपितस्वरूपानि वर्जयेऊ - ह्यादिति गाथार्थः । सांप्रतं शीलाङ्गसहस्रप्रतिपादनोपायभूतमिदं गाथासूत्रमाह ॥ जोए करणे सन्ना, इंदियोमा समणधम्मे य ॥ सीलिंगसहस्साणं, अधारसगस्स निष्पत्ती ॥ १०३ ॥ सामन्नपुवयनिद्युक्त्ती संमत्ता ॥ २ ॥ व्याख्या ॥ तह ताव जोगो तिविहो का वायाए मणेणं ति । करणं तिविदं कथं कारियं श्रणुमो |: Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । १ श्यं । समा चडविहा। तं जहा । आहारसमा जयसमा मेदु ससा परिग्गहससा । इंदिए पंच तं जहा | सोईदिए, चरिक दिए, घाणिं दिए, जिनिंदिए, फासिंदिए । पुढविकायाश्या पंच | वे दिया जाव पंचिंदिया | अजीव निकायपंचमा । समणधम्मो दस विहो । तं जहा । खंती, मुत्ती, अवे मद्दवे लाघवे सच्चे तवे संजमे य आकिंच लिया वंजचे - रवासे एसा वाणपरूवणा । श्याणिं अहारसहं सीलंगसहस्ताणं समुक्कित्तणा । काए न करेमि । श्राहारसन्नाप डिविरए सोइंदियपरिसंबुडे पुढविकायसमारंभप डिविरए खंतिसंपजुत्ते । एस पढमो गम । इयाणिं वि जइ । कारणं ण करेमि । थाहारसाप डिविरए सोइंदियपरिसंबुडे पुढविकायसमारंभप डिविरए मुत्तिसंपजुत्ते । एस वि गम । इयापिं तज्ञ्यर्ज । एवं एएए कमेण जाव दसमो गमर्ज । वंजचेरसंपत्तो एस दसमर्ज गम । एए दस गमा पुढविकायसंजमं यमुंचमाणेण लगा । एवं कारण विदसं चेव । एवं जाव ते कारण वि दस एवं जावजीवका वि दस । एवमेयं सयं गमगाणं सोइंदियसंमं अमुंचमाणे लद्धं । एवं चकिं दिए विसयं । घाणिं दिए वि सयं । जिनिं दिए। वि सयं । फासिंदिए वि सयं । एवमेयाणि पंच गमसयाणि । श्राहारसखाप डिविरयममुंचमाणेणं लद्धाणि । एवं जयसा वि पंच सा । मेदुणसमाए वि पंचसयापि परिग्गहसाए वि पंचसयाणि । एवमेयाणि वीसं गमसयाणि । ण करेमि श्रमुंचमाणेण लाणि । एवं एकावेमित्ति वीसं सयाणि । करंतं पिछान्नं न समणुजाणामित्ति वीसं सयापि । एवमेयाणि सहस्साणि कायं श्रमुंचमाणेण लाणि । एवं वाया व सहस्ताणि । एवं मणेण वि बसहस्सा णि । एवमेतेन प्रकारेण शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निपत्तिर्भवतीति गाथार्थः । न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः उक्तवन्लामण्याकरणादश्रमणः। किंत्वाजी विकादिजयप्रत्र जितः संक्लिष्ट चित्तो द्रव्य क्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एवात्याग्येव । कथम् । यत आह सूत्रकारः ववगंधमित्यादि सूत्रम् । वचगंधमलंकारं, चीन सयणापि य ॥ चंदा जे न जुंजंति, न से चाइ ति बुच्च ॥ १ ॥ ( यवचूरिः ) चीनांशुकादि कोष्ठपुटादि कटकादि । अनुखारोऽलाक्षणिकः । पर्यङ्कादीनि । चशब्दादासना दिग्रहः ॥ यात्मछन्दोहिता रोगाद्यायत्ताः । न जुञ्जते नातेवन्ते । वहुवचनोद्देशेऽप्येकवचननिर्देशो विचित्रत्वात्सूत्रगतेः ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) या गायामां कहेली वस्तुने जे रोगानितचारित्रियो न जोगवे ते चारित्रिया नहि. ते कहे वे. ( श्रहंदा के० ) अलंदा: एटले रोगादिकर्य विषये Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. परहित एवा थका (जे के ) ये एटले जे पुरुषों (क्वगंधमलंकारं के०) वस्त्रधालंकारं एटले पट्टादि वस्त्र, चंदनकटकादि गंध, मुकुटादि अलंकार (श्ली के०) स्वयः एटले कामरूपदेशोङ्गव अनेक प्रकारनी स्त्रियो, ( सयणाणि य के०) शनानि च एटले पर्यकादिक शय्या, अने चकारथी आसनादिक एटला विषयोने न मुंजंति के०) न झुंजते एटले जोगवता नथी. (से के०) सः एटले ते पुष (चा त्ति के०) त्यागीति एटले साधु एवे प्रकारें (न उच्च के०) नोच्यते एटले केहवातो नथी. अहीं चाणक्य महेतानी कथा जाणवी ॥२॥ ___(दीपिका ) अयोग्य एव कथं यत आह । वस्त्राणि चीनांशुकादीनि गन्धाः कोष्टपुटादयः । अलंकाराः कटकादयः। अनुस्वारोऽलादणिकः। स्त्रियोऽनेकप्रकाराः। शयनानि पर्यादीनि । चशब्दादासनादीनि । एतानि वस्त्रादीनि । किम् । अबन्दा अस्ववशाः ये केचन न जुञ्जते न आसेवन्ते। न स त्यागीत्युच्यते न स श्रमण इति । अत्र सूत्रगतेर्विचित्रत्वाबहुवचनेऽप्येकवचननिर्देशः ॥२॥ (टीका) अस्य व्याख्या । वस्त्रगन्धालंकारानित्यत्र वस्त्राणि चीनांशुकादीनि । गन्धाः कोष्ठपुटादयः । अलंकाराः कटकादयः। अनुस्वारोऽलाक्षणिकः। स्त्रियोऽनकप्रकाराः । शयनानि पर्यादीनि । चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः। एतानि व स्त्रादीनि । किम् । अबन्दाःअखवशा ये केचन न जुञ्जते नासेवन्ते । किं बहुवचनोई शेऽप्येकवचन निर्देशः । विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेति कृत्वा आह । नासौ त्यागीत्युच्यते सुबन्धुवन्नासौ श्रमण इति सूत्रार्थः । कः पुनः सुबन्धुरित्यत्र कथानकम् । जया णंदो चंदगुत्तेण णिलूढो । तया तस्स दारेण निग्गवंतस्स उहिया चंद गुत्ते दिहिं बंधे। एयं अकाणयं जहा आवस्सए जाव बिंदुसारो राया जाऊ । णदसंति य सुवंधू णाम अमच्चो । से चाणकस्स पट्टे समावलो। बिदाणि मग्ग। अमया रायाणं विसवे । ज वि तुम्हे अम्हं वित्तं ण देह । तहा वि अम्हाह तुम्ह हियं वत्तवं । जणियं च तुम्ह माया चाणकेण मारिया । रन्ना धाई पुछिया । श्रामंति।कारणं ण पुछियं । केण वि कारणेण रलो य सगासं चाणको आगर्छ । जा. व दिहिं ण देई ताव चाणको चिंते।रुको एस राया। अहं गयाजत्ति का दवं पुत्तः । पजत्ताणं दाऊणं संगोवित्ता य गंधा संजोश्या । पत्तयं च लिहिऊण सो वि जागा समुग्गे बूढो । समुग्गो य चउसु मंजूसासु झूढो।तासु बुनित्ता पुणो गंधो वरए छूढा। तं. बहूहि कीलियाहिं सुघमियं करेत्ता । दवजायं णातवग्गं च धम्मे णिजश्त्ता । अ डवीए गोकुलहाणे इंगिणिमरणं अवगर्छ । रला य पुत्रियं । चाणको किं करे । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीयाध्ययनम् । ३ धाई य से सवं जहावत्तं परिकदेइ । गहियपरमत्रेण य जणियं । अहो मया श्रसमिरिकयं यं । सर्व्वते रजोहवलसमग्गो खामेनुं निग्गर्ज । दिट्ठो येण करीमन । खामियं सवहुमाणं नपि । श्रणेण णगरं वच्चामो । जाइ मए सव परिचार्ज कर्ज त्ति । तर्ज सुबंधुणा राया विश्ववि अहं से पूयं करेमि । अणुtu | ayer धूवं महिऊण तंमि चेव एगप्पएसे करीसस्सोवरि ते अंगारे परिवेश | सोय करीसो पबित्तो । दट्ठो चाएको । ताहे सुबंधुणा राया विसविर्ज । चाणकस्स संतियं घरं ममं श्रणुजाह । अणुसाए गर्नु । पच्चुविरकमाणेण य घरं दो वर घट्ट । सुबंधू चिंते । किमविश्वति । कवाडे जंजित्ता उग्घा - डिउ मंजूस पास । सा वि उग्घाडिया । जाव समुग्गं पासइ । मघमघंतगंधसंपत्तयं पे । तं पत्तयं वा । तस्स य पत्तगस्स एसो हो । जो एयं चुमं अघाए । सो जइ हाइ वा समालइ वा अलंकारेश् सीdदगं पिवइ महईए सेकाए सुवइ जाणे गछइ गंधवं वा सुइ एवमाई असे वा इहे विसए सेवेइ । जहा साहुयो यांति तह सो जइ । तो मर । ताहे सुबंधुणा विलास वित्ता सदाणो विसए गुंजा विर्ज । मर्ज यात सुबंधू जी वियही कामो साहू जहा तो वि साहू । एवमधिकृतसाधुरपि न साधुरतो न त्यागीत्युच्यते । निधेयार्थाजावात् । यथा चोच्यते तथा निधातुकाम यह जेय कंते इत्यादि सूत्रम् । जे य कंते पिए जोए, लदे वि पि कुछ ॥ - रिसो सादी चयई जोए, से हु चाइ ति बुच्चई ॥ ३ ॥ ( अवचूरिः । ) य एव । चोऽवधारणे । कान्तान् शोजनान् प्रियानिष्टान् । इद कातमपि किं चित्कस्यचित्कुतश्चिन्निमित्तादप्रियं स्यात् । ययोक्तम् । चहिं वाणेहिं संते गुणेनासिका । तं जहा । रोसेणं, पडिनिवेसेणं, कत्तुयाए, मित्रत्ता निनिवेसेणं । श्रतो विशेषणं प्रियानिति । शब्दादी लव्धान्प्राप्तान्विविधमनेकप्रकारैः शुननावनादिनिः पृठतः करोति परित्यजतीत्यर्थः । स्वाधीनानात्मायत्तान् । पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसूचनार्थम् । जोगग्रहणं तु नोगसंपूर्णताख्यापनार्थम् । दुरेवायें । स एव त्यागी । याह । मकादयो ये दीक्षां गृह्णन्ति ते किमपरित्यागिनः । उच्यते । तेऽपि स्त्रीशीतोदकानिरूपाणि लोकसाराणि त्रीणि रत्नानि त्यक्त्वा प्रव्रजिता इति ॥ ३॥ I (अर्थ) (जेय के० ) यश्च एटले जे पुरुष, यहीं चकार ने वे, ते पादपुरशार्थ ठे. ( कंते के० ) कांतान् एटले जे जोता वेतन प्रेक्षकना मनने श्राकर्षण केरणार एवा, ( पिए के० ) प्रियान् एटले पोताने प्रिय एवा, (सडे के० ) लब्धान Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एछ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. एटले प्राप्त थयेला अने (साहीणे के०) स्वाधीनान् एटले जेनो लोग करवो स्वाधीन , अर्थात् जेने नोगववाने कंश अडचण नथी, एवा (जोएनोए के०) जोगान् लोगान् एटले शब्दादिक विषयने ( विपिछिकुवर के ) विपृष्ठीकरोति एटले अनेक प्रकारनी शुज नावना नावीने पूवें करे , अर्थात् ( चयश् के ) त्यजति एटले सर्वथा त्याग करे ने. (से के०) सः एटले ते ( चार त्ति के) त्यागीति एटले साधु एवे प्रकारें (हु के० ) खलु एटले निश्चयें करी (उच्चश् के० ) उच्यते एटले केहवाय . आ सूत्रमा सूत्रकारें 'नोए' ए पदनो पाठ वे वखत कस्यो , ते न्हाना, मोटा सर्व जोगनो परित्याग करवो एम सूचवे . तेमज विपिछि कुवई' अने 'चयई ए बे पदो एकार्थक , ते पण दण दणें साधुयें त्यागनी नावना करवी अर्थात् अत्यंत त्याग करवो. ए सूचववाने अर्थे . इति कृतं बहुना ॥३॥ (दीपिका) यथा च श्रमणो नवति तथा कथयितुमाह । य एव कान्तान् शोजनान् प्रियान् श्ष्टान् जोगान् शब्दादिविषयान् लब्धान् सतः। विपिछिकुवर त्ति। कोऽर्थः। विविधमनेकप्रकारैः शुजनावनादिनिः पृष्ठतः करोति परित्यजति न बन्धनेन बद्धः प्रोषितो वा। किंतु स्वाधीनः न परायत्तः। स्वाधीनानेव परित्यजति नोगान् । ततश्च य ईशः । हुशब्दोऽवधारणार्थे । स एव त्यागीत्युच्यते जरता दिवत् ॥३॥ ___ (टीका) अस्य व्याख्या । चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । य एव कान्तान् कमनीयान् शोजनानित्यर्थः। प्रिया निष्टान् । श्ह कान्तमपि किंचित् कस्य चित् कुतश्चिन्निमित्तान्तरादप्रियं जवति । यथोक्तम् । चनहिं गणेहिं संते गुणे णासेजा । तं जहा । रोसेणं पडिणिवेसेणं अकयमुयाए मिबत्तानिनिवेसेणं । अतो विशेषणं प्रिया निति। जोगान् शब्दादीन् विषयान् लब्धान् प्राप्तान् । उपनतानिति यावत् । विपिज्ञिकुवइति । विविधमनेकैः प्रकारैः शुजनावनादिनिः पृष्ठतः करोति परित्यजतीत्यर्थः। स च न बन्धनबहः प्रोषितो वा किंतु खाधीनः अपरायत्तः। स्वाधीनानेव त्यजति . जोगान् । पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम् । जोगग्रहण तु संपूर्णजोगग्रहणार्थम् । त्यक्तोपनतनोगसूचनार्थं वा । ततश्च य ईदृशः । हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । स एव त्यागीत्युच्यते नरतादिवदिति । अत्राह । जर नरहजंबुनामाश्णो संपुणे जे संते नोए परिचयंति ते परिच्चारणो । एवं ते जण: तस्स अयं दोसो हवश् । जे के वि अबसारहीणा दमगाणो पवश्ऊण जावज अहिंसाश्गुणजुत्ते सामले अनुहृया ते किं अपरिच्चारणो हति । आयरिय आह । ते वि तिमि रयणकोडी परिचश्ऊण नाव पवश्या । अग्गी उदयं महिला Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । एय तिमि रयणाणि लोगसाराणि परिचश्ण पवश्या । दितो । एगो धम्मपुरिसो सुधम्मसामिणो सयासे कहार पत्र निरकं हिंमंतो लोएए नएइ । एसो सो कार । सो सेहत्ते आयरियं जाइ । मयं अमन ह । यहं न सक्केमि हिया हिसत्तए । यरिएहिं अन आपुर्ति वच्चामो त्ति । न माकप्पपाजग्गं खित्तं किं एयं न जवइ । जेण अटके मठ वच्चाह । यायरिएहिं जयिं जहा सेहनिमित्तं । न जम अह वीसचा श्रहमेयं लोगं उवा निवारेमि । वि श्रयरिज । विश्ए दिवसे तिमि रयणकोडी तवियाई । उग्घोसावियं नगरे | जहा न दाणं देश | लोगो आग । जयिं चण । तस्साहूं या तिमि कोमी देमि । जो एयाई तिमि परिहर अग्गी पाणियं महिaियं य | लोगो जइ । एएहिं विणा किं सुवसकोमी हिं । अन जइ । तो किं are | दम ति पa । जो वि गिरad पव तेण वि एयाउ तिमि सुवसको - डी परिचत्ता । सच्चं सामि हि लोगो पत्ती । तम्हा अपरिहीणो वि संजमे वि तिमि लोग साराणि अग्गी उदयं महिलाई य परिच्चयंतो चाइ त्ति लन‍ | कृतं प्रसनेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ समाइ पेहा इत्यादि सूत्रम् । समाइ पेदाइ परिवतो, सिया मणो निस्सरई वहिदा ॥ न समदं नावि वि तीसे, इच्चेव तान विश्क रागं ॥४॥ ( अवचूरिः ) तस्यैवं त्यागिनः समया आत्मपरतुल्यया प्रेक्षया दृष्टया परित्रजतः संयमे प्रवर्तमानस्य मनः स्यात्कदा चिदचिन्त्यत्वात्कर्मगतेः । संयमगेहाद्द हिर्मुक्तजोगिनः पूर्वी मनुस्मरणादिना अनुक्तनोगिनश्च कुतूहलादिना । न सा मम नायहं तस्या इत्येवं रागं ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत् ॥ ४ ॥ ( अर्थ ) हवे साधुने विषयस्मरणादिकथी संयमयी चलित थवानो प्रसंग थावे, तो तेनो सूत्रकार उपाय कहे वे समाइति । ( समाइ के० ) समया एटले परतुल्य अर्थात् काय उपर समान एवी ( पेहाइ के० ) प्रेक्षया एटले दृष्टि करी ( परियंतो के ० ) परित्रजतः एटले चालतो अर्थात् गुरुना उपदेशची संयममां वर्तमान थने द्रव्यादिपरिग्रहनो त्याग करनारा साधुनुं ( मणो के० ) मनः पटले मन पूर्वयुक्त विषयना स्मरणयी तथा जेणें विषयोग पूर्व कम्या नहिं दाय तेनुं विपयोग करवाना कुतूहलथी ( सिया के० ) कदाचित् एटले कर्मगति विचित्र होवाथी को प्रसंगे ( वहिया के० ) बहिः एटले संयमरूप गृहवी बाहिर ( निस्सर के० ) निःसरति एटले नीकळे, तो ते साधु एम चिंतवे के, जेना स्मर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. णथी अथवा दर्शनथी मारा मनने मोह थाय बे, ( सा के० ) ते ( महं के ) मम एटले मारी स्त्री (न के०) नथी. तथा ( अहंवि के०) अहमपि एटले ढुं पण ( तीसे के०) तस्याः ते स्त्रीनो पति ( नो वि के०) नो अपि एटले नश्रीज, अहिं अपि शब्द जे दे, ते निश्चयार्थ डे अने सर्व प्राणी पोत पोता करेलु कर्म नोगनारा दे. तेमां को कोश्नु नथी. इति तत्त्वम्. (श्चेव के०) इत्येव एटले एवी रीतेंज ( ताऊ के) तस्याः एटले ते स्त्री उपरथी उपलदणथी सर्व मोहकारक वस्तु उपरथी (रागं के०) अनुरागने ( विणश्ज के ) विनयेत व्यपनयेतेत्यर्थः एटले काढी नाखे. ॥४॥ (दीपिका ) समया आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्या दृष्टया परिव्रजतः परि समन्तात्. व्रजतो गतः । गुरोरुपदेशदानेन संयमयोगेषु वर्तमानस्य एवं विधस्य त्यागिनोऽपि स्यात् कदाचित् अचिन्त्यत्वात् कर्मगतेर्मनोऽन्तःकरणं निस्सरति बहिर्धावति । केन । जुक्तनोगिनः पूर्वक्रीमितस्मरणादिना अनुक्तनोगिनश्च कुतूहलादिना । वहिर्का संयमगेहाहहिरित्यर्थः । तदा सोऽशुनोऽध्यवसायः प्रशस्ताध्यवसायेन स्थगनीयः। केन आलम्बनेन इत्याह। यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयं न सा मम मदीया नाप्यह तस्याः। पृथकर्मजुजो हि प्राणिन इत्येवं ततस्तस्याः सकाशाट्यपनयेमागम् । तत्त्वदर्शिनो हि संनिवर्तन्त एव ॥४॥ (टीका ) तस्यैवं त्यागिनः समया आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेदा दृष्टिस्तया प्रेक्ष्या दृष्टया परि समन्ताद् ब्रजतो गलतः परिव्रजतः गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः । स्यात्कदाचिदचिन्त्यत्वात्कर्मगतर्मनो निःसरति .. बहिर्धा बहिः । जुक्त नोगिनः पूर्वक्री मितानुस्मरणादिना अनुक्तनोगिनस्तु कुतूहलादिना मनोऽन्तःकरणं निःसरति निर्गति बहिः संयमगेहादहि रित्यर्थः । एब उदा हरणं।जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उवठाणसालाए अनिरमंतो अब। दासी यतः ण अंतेण जलजरियघमेण वोलेत तेण तीए दासीए सो घमो गोलियाए जिलात च अधिकं करिति दण पुणरावत्ती जाया। चिंतियं च जे चेव रकगा ते चेव लोलगा कबकूविजं सका। उदगाउ समुजलि अग्गी किह विनवेयवो। पुणो चिकलगा खएण तरकणा एव लहुहबयाए तं घडबिडं ढकियं । एवं जर संजयस्स संजम कर तस्स बहिया मणो णिग्गब तब पसण परिणामेण तं असुहसंकप्पबिडं चार त्तजलरकणहाए ढक्केयत्वं । केनालंबनेनेति । यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयम् । न सा मम नाप्यहं तस्याः पृथकर्मफलजुजो हि प्राणिनः इत्येवं ततस्तस्याः सका शाट्यपनयेत रागं तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्तन्त एव अतत्त्वदर्शननिमित्तत्वात Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । ០១ स्येति । तत्र न सा महं णो वियहं वि तीसेति । एक उदाहरणं । एगो वाणियदार | सो जायं प्रिय पवइ । सो य उहाणुप्पेही मूर्ड इमं च घोसेइ न सा महं यो विहं वितीसे । सो चिंते । सा विममं हं वि तीसे सा ममापुरत्ता । कहमहं तं हामि त्ति काळं गहियायारनंडगणे वचो चेव संप हि । गर्न य तं गामं । जब सा सोइणिवाणतडं संपत्तो | तब य सा पुवजाया पाणियस्स श्रागया । सा य साविया जाया । पवनकामाय ताए सो गाउँ इयरो तं न याइ । तेण सा पुछिया । अगस्त धूया किं मया जीव‍ वा । सो चिंतेइ । जइ सासहरा तो उप्पवयामि । इयरहा ए । ताए णायं । जहा एस पव पयहि कामो तो दोवि संसारे नमिस्सामिति । नयिं चणा सा अस्त दिसा । तर्ज सो चिंतितमारो । सच्चं जगवंतेदिं साहिं हं पाढ | जहा ए सा महं णो वि श्रहं पि तीसे । परमसंवेगसमावसो । जणियं चणेण परिणियत्तामि तीए वेरग्गपडि त्ति पाऊण अणुसा सिर्ज । यणिचं जीवियं कामोगा इत्तरिया । एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्मं पडिक हे हि । अणुसो जाणावय । पडिग प्रायरियसगासं । पवकाए थिरीनू । एवं श्रप्पा साहारेतवो । जहा तेणं ति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ एवं तावदान्तरो मनोनिग्रह विधिरुक्तः । न चायं वाह्यमन्तरेण कर्तुं शक्यते । श्रतस्तद्विधानार्थमाह । श्रायावयाहीत्यादि यायावयाही चय सोगमनं, कामे करूं कमियं खु दुकं ॥ विंदाहि दोसं विणएक रागं, एवं सुही हाँ, "पपराए ॥ ५ ॥ ( यवचूरिः ) संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमार्थमातापय ग्रहणे तजातीयग्रदणमिति न्यायादूनोदरतादेरपि विधिः । त्यज सौकुमार्यम् । . सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयः स्यात् । कामान् क्रमोलज्य । यतस्तैः कान्तैः कान्तमेव दुःखं भवतीति शेषः । काम निवन्धनत्वाद्दुःखस्य । विन्धि द्वेपं व्यपनय रागम् । एवं सुखी जविष्यसि संपराये संसारे परीपहा दिसंग्रामे ॥ ५ ॥ I 'सूत्रम् । के० ( अर्थ. ) पूर्वोक्त सूत्रे एवी रीतें मनोनिग्रह करवानो अन्यंतर विधि को. पण ते अभ्यंतर विधि वासविधिना अनुष्टान वगर सफल याय नहीं माटे वे विधि कहे ते. थायावयाहि ति. ( यायावयाहि के० ) आतापय एटले तडकामां समग्र दिवस वेसी तथा जनोदरतादि तपंकरी शरीरने तपावो. एयी कामादि विकारने उत्पन्न थवा स्थान मन्त्रे नहीं, तथा ( लोगन के० ) सौकुमार्यं एटले कोमलपणाने ( चय के० ) त्यज एटले त्याग कर. शरीर लुकु मार नही होय तो पोताना मनमां पण कामादि विकार पता नयी, थने पोताने Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. जोनारी स्त्रीयोने पण कामवासना यती नथी. एवा आचरणें करी ( कामे के० ) कामान् एटले पूर्वोक्त द्रव्यादि कामने ( कमाही के० ) काम एटले उल्लंघन कर. कारण, ते कामना उल्लंघन थी ( दुक्खं के० ) दुःख ( कमियं खु के० ), क्रांतं खलु एटले उल्लंघित अतिक्रांत कयुं एम निश्चयें जावं. कारण, सर्व दुःखनुं मूल काम बे. एवा कामजयना बाह्य उपाय कहीने फरी अन्यंतर कामजय करवानुं शिष्यने स्मरण आपे . ( दोसं के० ) द्वेषं एटले मनमां उपजता वैरादिविकारनो ( बिंदाहि के० ) बिंधि एटले नाशकर, तथा ( रागं के० ) शब्दा दिविषयउपर जे प्रीति ने तेने कर्मनो विपाक केवो ने ते विचारीने उत्तम ज्ञानवलेकरी (विएक के० ) व्यपनय एटले दूर काढी नाख. ( एवं के० ) ए प्रकारें करी ( संपराये के० ) या संसारमां मुक्ति मले त्यां सूधी, अथवा संपराये एटले प पहनो ने उपसर्गनो जे संग्राम चाले बे, तेमां ( सुही के० ) सुखी ( होहिसि ० ) जविष्यसि एटले यश. ॥ ५ ॥ ( दीपिका ) एवं तावत् श्रान्तरो मनोनिग्रहविधिरुक्तः । न चायं विधिर्वाह्ममन्तरेण कर्तुं शक्यते तो बाह्य विधिविधानार्थमाह । यायावयाही । त्वं संयमगृहान्मनसो ऽनिर्गमनार्थमातापय व्यातापनां कुरु । उपलक्षणत्वात् यथानुरूपमूनोद रिकादि तपो Sपि । कुरु तथा त्यज सौ कुमारी मारत्वं परित्यज । यतः सुकुमारत्वात् कामेच्छा प्रव र्तते । योषितां च प्रार्थनी ति । एवमुनयासेवनेन कामान् काम उल्लङ्घय । यतस्तैः कामैः कान्तैर्दुःखं तमेव भवति । छात्र वणिज उदाहरणं ज्ञेयं वृत्तितः । श्रथ यान्तर कामक्रमण विधि | | | ज्ञानले विपाकालोचनादिना । एवं कृते फलमाह । एवमनेन प्रकारेण प्रवर्त्तमानः सन् सुखी ज़विष्यसि । क संपराये संसारे यावन्मोक्षं न प्राप्स्यसि तावत्सुखी जविष्यसि ॥ ५ ॥ परि ( टीका ) x व्याख्या । संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थमातापयातापना कुरु । एकग्रहणे तातीयग्रहणमिति न्यायाद्यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः । अनेनात्मसमुदोष परिहारमाह । तथा त्यज सौकुमार्यं परित्यज सुकुमारत्वम् । अनेन तूजयसमु दोषपरिहारम् । तथाहि । सौकुमार्यात्कर्त । चप्रार्थनीयो जवति । एवमुनयासेवनेन कामान् प्रनिरूपितवरूपान् काम उनवय । यतस्तैः क्रान्तैः क्रान्तमेव दुःखं नवति । इति शेषः । निबन्धनवा दुःखस्य । खुशब्दोऽवधारणे। अधुनान्तर कामक्रमणमाह । बिन्धि द्वेषम् । व्यपनय राग सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालो । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । विषया एव कामा इति कृत्वा । एवं कृते फलमाह । एवमनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः । किम् । सुखमस्यास्तीति सुखी जविष्यसि । क । संपराये संसारे यावदपवर्गं न प्राप्स्यसि तावत्सुखी जविष्यसि । संपराये परीषहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः॥२॥ किंच संयमगेदान्मनस एवा निर्गमनार्थमिदं चिन्तयेत् । यडुत परकंदेइत्यादि । परकंदे जलियं जोई, धूमकेनं दुरासयं ॥ नेवंति वंतयं नोत्तुं कुले जाया गंधणे ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) संयमगेहान्मसोऽनिर्गमार्थमिदं चिन्तयेत् । प्रस्कन्दन्ति श्राश्रयन्ति ज्योतिषमग्निं धूम चिह्नं दुरासदं पुरनिनवमित्यर्थः । चशब्दलोपान्नचेचन्ति वान्तं नोक्तुं विषमिति गम्यते । नागा इति गम्यते । मन्त्राकृष्टा वान्तं ब्रणमुखाद्विषं पिबन्ति गन्धनाः नत्वगन्धनाः । तिर्यञ्चोऽप्येवं तत्कथमहं जिनवचनानिज्ञोऽपि दारुणान्विषयान्वान्तान् जोदय इति ॥ ६ ॥ (अर्थ) वली साधुयें संयम रूप गृहथी मनने बाहर न नीकलवा देवा माटे या प्रकारनो विचार करतो ते कहे बे. परकंदेत्यादि ( गंध के० ) अगन्धने एटले गंधन नामक नागना ( कुले के० ) कुलमां ( जाया के० ) जाताः एटले उत्पन्न ला जे नांग (सर्प) ते ( डुरासयं के० ) डुरासदं एटले घणा दुःखथी पण जेनो ताप सहन थाय नहीं एवा ( जलियं के० ) ज्वलितं एटले प्रदीप्त एवा खदिरांगारादिरूप अग्निमां, ( जोई के० ) ज्योतिः एटले ज्वालारूप जे घृतादिकना दाहक अग्निमां अथवा धूमकेनं के० ) धूमकेतुं एटले घणा धूमथी व्यास थयेला एवा लीला काष्ठादिकना दाहक अग्निमां वखत पडे तो प्रवेश करवानो ( परकंदे के० ) प्रस्कन्दति, अध्यवस्यतीति यावत् एटले निर्धार करे. पण (वंतयं के० ) वांतं एटले प्राणिना जे जांगे दंश कस्यो होय त्यां वमन करी नाखेला विष (नोत्तुं के० ) जोक्तुं एटले फरी पीवाने ( नेवंति के० ) नचेति एटले वांबे नहीं. त्यांवी वात प्रसिद्ध वे के, नाग बे जातिना थाय बे, एक गंधन जातिनो ने बीजो गंधन जातिनो तेमां गंधन जातिनो जे नाग बे, ते जो कोने दंश करे, ने तेने जो मंत्रादिक उपाययी बोलावे, तो ते वनादिक स्थानमां ने दंश करी वमी नाखेला विषने फरी पिये बे, पण गंधन जातिनो जे नाग, ते कदाचित् जो कोइने दंश करे तो ते मंत्रादिक उपायें करी वनमांथी वे नहीं, ने कदाचित् जो घावे, तो अग्निमां वली जाय, पण वमेलुं विष फरी पिये नहीं. ए दृष्टांत उपरथी साधुएं जाणवुं के, तिर्यंच जीव पण विचार विना 1 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. केवल निमाथी अग्निमां पडी मरी जाय बे, पण वमेलुं विष पीता नथी. एम बतां मे जिनवचनना जाए थइने परिणामे दुःखदायक एवा ने अनंत प्राणियें अनंतवार जोगीने वमेला विषयने केम जोगवियें ! एम चिंतवे ॥ ६॥ ( दीपिका ) संयमगृहान्मनस एवानिर्गमार्थमिदं चिन्तयेत् । प्रस्कंदंति आश्र यन्ति कं ज्योतिषमनम् । किं० ज्यो० । ज्वलितं ज्वालामालाकुलं न तु मुर्मुरादिरूपम् । पुनः किं० । धूमकेतुं धूम चिन्हं धूमध्वजं न उक्लादिरूपम् । पुनः किं० ज्यो० । दुरासदं पुरजिनवं चशब्दलोपान्न च श्छन्ति वान्तं जोक्तुं परित्यक्तं विषमिति शेषः । के । नागा इति शेषः । ते किं० नागाः । कुले जाताः समुत्पन्नाः । किंभूते कुले । गन्धने । नागा द्वेधा गन्धना यगन्धनाश्च तत्र ये गन्धना ते डसिए मंतेहिं आकट्टिया तं मुह आपिवंति । अगन्धणा पुण अवि मरणमनवस्संति न य वतं आपियंति । उपसंहारस्तु यदि तावत्तिर्यञ्चोऽपि अजिमानाजीवितं परित्यजन्ति न च वान्तं - ते । तत्कथमहं निवचनानिको विपाकदारुणान् विषयान् वान्तानपि जोदय इति । अत्रार्थे रथनेमिदृष्टान्तस्तथाहि । जया किल रिनेमी पव तया रहनेमी तस्स जिना राईम उवयरई । जई नाम एसा मम होइ । सा य जगवई निविन्नकामजोगा नायं च तीए जहा एसो मम नोववसो । अाया य तीए मदुघयसंजुत्ता पेा पीया । रहनेमी आग । मयणफलं मुहे काऊण तीए वंतं जपित्र्यं च । पेजूं पिया हि । तेण न कहूं वंतं पिइ । तीए नपि । जइ न पिताइ । तनुं अहं पि 1 छारिने मिसामिया वंता कहं पिवमिष्ठसि ॥ ६ ॥ ( टीका ) अस्य व्याख्या | प्रस्कन्दन्ति अध्यवस्यन्ति । ज्वलितं ज्वालामाला - कुलं मुर्मुरादिरूपं । कं । ज्योतिषमग्निं धूमकेतुं धूम चिह्नं धूमध्वजं नोटकादिरूपं पुरासदं दुःखेनासाद्यतेऽ निनूयत इति पुरासदस्तं पुरनिनवमित्यर्थः । चशब्दलोत वान्तं नोक्तुं परित्यक्तमादातुं विषमिति गम्यते । के । नागा इति गम्यते । किंविशिष्टा इत्याह । कुले जाताः समुत्पन्ना गन्धने । नागानां हि दद्वयं गन्धाश्चागन्धना । गन्धणा पाम जे डसिए मंतेहिं याकट्टिया तं विसं वणमुहाउं आयंति । श्रगंधा व मरणमनवस्सं ति णय वंतमावियंति । उदाहरणं द्रुमपुष्पिकायामुक्तमेव । उपसंहारस्त्वेवं जावनीयः । यदि तावत्तिर्यञ्चोऽप्यनिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति, न च वान्तं भुञ्जते । तत्कथमहं जिनवचनानिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तान् नोदय इति सू त्रार्थः । अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणम् । यदा किल रिमी पव । तथा 1 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीयाध्ययनम् । १०१ इटिका । सावि सयाय य तीए म रहमी तस्स जेठो जार्ज राइमई उवयरइ । ज‍ णाम एसा ममं arat ramanaोगा । पायं य तीए एसो मम झोववसो । दुघय संजुत्ता पेक्षा पीया । रहने मी आगई । मयणफलं मुहे काऊण य तीए वंतं जयिं च एवं पेज पियाहि । तेण नणियं कहं वतं पिऊइ । तीए नलिउँ । ज‍ न पिइवंतं तं परिहने मिसामिया वंता । कहिं पिवि मिठसि । तथाह्यधिकृतार्थसंवाद्येवाह । रितु ते इत्यादि सूत्रम् ॥ I धिर ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा ॥ वंतं शच्चसि च्यवेनं, सेयं ते मरणं नवे ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयोदाहरणम् । धिगस्तु तव पौरुषमिति ग ते । यशःकाम इति सासूयं क्षत्रियामन्त्रणम् । अकारप्रश्लेषात् हे यशःकामिन् । असंयमजी वित्तहेतोः व्यापातुं परित्यक्तां जगवता अनिलषसि नोक्तुम् । वान्तादस्य शोजनं तव मरणं न पुनरिदम् ॥ ७ ॥ (अर्थ. ) हवे या गाथाथी ते या अध्ययन समाप्त थाय त्यां सूधी सूत्रकार, वांत विषयना त्याग उपरज बीजो रहनेमीनो दृष्टांत कहे बे, ते जेम केः- जे वखतें - रिष्टनेमी राज्यादि परिभोगनो त्याग करीने चारित्र दस्युं त्यारें तेनो मोहोटो रहने कामवासनाथी राजिमतीनी परिचर्या करवा लाग्यो. तेनो प्राय एवो हतो के, एवीरीतें हुं एने संतुष्ट राखीश, तो एने मारी साथै कामनोग करवानी छायाशे. हवे राजिमती तो विषयसुखथी वैराग्य पामेली हती. तेणें रहनेमीना मनो ष्ट श्रध्यवसाय जायो. एक वखतें राजिमतीयें मध, घृतें करी मिश्र शिखरि - णी खाधी, तेवामां त्यां ते राजिमतीनो दीयर रहनेमी तेनी पार्से आव्यो, त्यारें तेणें तेज वखतें मींडोल खाधुं. तेथी ते खातुं सर्व मी काढयुं ने राजिमती यें रहने युंके, दे रहनेमि या वमेली शिखरिणीनुं पान करो, ते सांजली रहनेमक के वमन करेलुं केम खवाय ? त्यारें राजिमतीयें कयुं के, जो तुं वमन करेलुं रसनें इद्रियनुं विषयभूत एवा अन्नने खातो नथी, तो अरिष्टनेमीयें स्पर्शविषयी उपजोगीने वसी नाखेली एवी मारी केम वांढना करे वे !!! एज प्रसंगनुं राजिमतीनुं वाक्य सूत्रकार कहे . धिरति ( असोकामी के० ) हे छायशस्कामिन् ! एटले कार्य करीने अपयश थवानी इछा धरनारा एवा हे रथनेमि ! ( ते hu ) तारा पौरुषने ( रितु के० ) धिगस्तु एटले धिक्कार हो ! ( जो के० ) यः एटले जे ( तं के० ) त्वं एटले तुं ( जी विय कारणा के० ) जीवितकारणात् एटले असंयमी - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा पणे जीववानी श्वाथी (वंतं के०) वांतं एटले वमन करेला जोगने (आवेचं के) आपातुं एटले पीवाने अर्थात् नोगववाने (श्वसि के०) श्छा करे , तेमाटें मर्याः दानुं उबंधन करनारा एवा (ते के०) तने (मरणं के०) मरण (सेयं के०) श्रेयः एटले कल्याणरूप (जवे के०) नवेत् एटले होय. पण ए अकार्य कस्याथी तारुं कल्याण नथी. कहेलु डे केः-वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, न चापि ननं चिरसंचितं व्रतम् ॥ वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणा, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥१॥७॥ (दीपिका) अथ अधिकारापन्नमेव अर्थमाह । तत्र राजीमती किल एवमुक्तवती रथनेमि प्रति।धिगस्तु नवतु । ते तव । पराक्रमम् इति शेषः । हे यशःकामिन् कीतरजिलाषिन् । इति रोषेण क्षत्रियामन्त्रणम् । अथवा अकारप्रश्लेषात् हे अयशःकामिन् । धिगस्तु नवतु तव । यस्त्वं जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोर्वान्तमिबसि आपातुं जगवता परित्यक्तां जोक्त मिसि । अतः श्रेयस्ते तव अतिक्रान्तमर्यादस्य मरणं जवेत् । शोचनतरं तव मरणं न पुनरिदमकर्मासेवनम्।त धम्मो से कहि। संबुद्धो पवळ श्रीरामई वि तं बोहिऊण पवश्या । अन्नया कयाइ सो रहनेमी बारवईशो निक्खं गहिऊण सामिसगासं आगळंतो वासवद्दलएण अनाहर्ज एगं गृह पविको।राईमई वि सामिणो वंदणाए गया । वंदित्ता पमिस्सयमागबंतीय अंतरा वरिसिएण निन्ना अयाणंती तमेव गुहं अणुप्पविका जब सो रहनेमी दिछा य तेण सोहणा एसा वबाणि अपसारियाणि । ताहे तीए अंगपञ्चंगाणि दिहाणि । सो रहनेमी तीए अनोववन्नो दिहो । अणाए अंगिआगारकुसलाए णा अ असोहणो जावो एअस्स। ततः सा तमिदवादीत् ॥७॥ (टीका) व्याख्या । तत्र राजीमती किलैवमुक्तवती । धिगस्तु । धिक्शब्दः कुत्सायाम् । अस्तु नवतु ते तव । पौरुषमिति गम्यते । हे यशस्कामिन्निति सासूर्य दात्रियामन्त्रणम् । अथवा अकारप्रश्वेषादयशस्कामिन् । धिगस्तु नवतु तव । यस्त्वं जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोर्वान्तमिवस्यापातुं परित्यक्तां जगवता अनिलषसि नोक्तुमत उत्क्रान्तमर्यादस्य श्रेयस्ते मरणं नवेत् । शोजनतरं तव मरणं न पुनरिदमकार्यासेवन मिति सूत्रार्थः । त धम्मो से कहिउँ । संबुछो पवळ य । राईमईवि तं बोहेऊणं पवश्या । पछा अन्नया कयाइ सो रहनेमी बारवईए निकं हिंमिजणं सामिसगासमागतो वासवद्दलएण अनाह । एक गुहं अणुप्पविहो । राईमई वि सामिणो वंदणाए गया । वंदित्ता पडिस्सयमाग। अंतरे य वरिसिजमाढत्तो । निन्ना तमेव गुहमणुप्प विहा । जब सो रहनेमी । वबाणि य Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । : १०३ पविसा रियाणि । ताहे तीए अंगपञ्चंग दिई । सो रहणेमी तीए असोववन्नो दिहो। अणाए इंगियागारकुसलाए य णार्ड असोहणो नावो एयरस । ततोऽसाविदमवोचत् । अहं चेत्यादि सूत्रम्। . अहं च जोगरायस्स, तं च सि अंधगविहिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमंनिनचर ॥७॥ (अवचूरिः) उग्रसेनस्य सुता। त्वं च जवसि अन्धकवृष्णेः समुविजयस्य ।सुत शति गम्यते । अतो मा एकैकप्रधानकुले आवां गन्धनौ नूव । अतः संयम निनृतोऽव्यादिप्तश्चर ॥ ७ ॥ (अर्थ.) पढी राजिमतीयें रथनेमिने धर्मोपदेश कस्यो. तेथी तेणें प्रतिबोध पामीने चारित्र लीधुं. राजिमतीपण तेने प्रतिबोध आपीने चारित्रवती थई. पठी एक - वखते ते रथनेमि द्वारिका नगरीमां गोचरी फरीने गुरुनी पासे आवता मार्गमां वर्सादथी घणोज पीडा पाम्यो, त्यारे रस्तामां एक गुहा नजरें पडी, तेमांज वर्सादनी पीडा दूर थवा माटे पेठो. एटलामा राजिमती पण गुरुने वांदवा गई हती ते गुरुने वांदी पाडी आवती हती, तोरस्तामा घणो वर्साद अववा लाग्यो. त्यारेंते वरसाद बंध - थाय त्यांसुधी कोश्पण ढंकायेली नूमियें रहे जोश्ये, एम विचारिने जे गुफामां र. थनेमि पेगे हतो, तेज गुहामां कर्मयोगथी ते राजिमती आवी, अने वर्सादयी पललेला वस्त्रो अंग उपरथी उतारीने सुकाववा लागी. ते वखतें राजिमतीना अंगप्रत्यंग रथनेमीयें जोयां, तेथी ते रथनेमि कामातुर थयो, ते जोश्ने राजिमतीयें जाण्युं जे ए रथनेमीनो अशुल नाव बे, एम जाणीने राजिमती कहेवा लागी:-ते सूत्रकार कहे . अहंचेत्यादि. हे रथनेमि! (अहं च के०) हुँ, चकार पादपूरणार्थ के (नोगरायस्स के०) जोगराजस्य एटले उग्रसेन राजानी कन्या बुं. तथा (तं च के०) त्वं च एटले तुं पण (अंधगविहिणो के.) अंधकवृष्णेः एटले समुविजय राजानो पुत्र जे. एवा प्रशस्तकुलमां उपजेला आपणे बेहुजण विषसरखा विषयरूप वांत रस पान करीने (कुले के०) पोतपोताना पूर्वोक्त उत्तम कुलने विषे (गंधणा के) गंधनौ एटले गन्धन जातिना सर्प सरखा (मा होमो के) मा नूव एटले न यश्ये. माटे (निहु के०) नितृतः एटले मन स्थिर राखतो यको (संजमं के) संयम एटले सर्व फुःखने नाश करनार एवा चारित्रने (चर के.) आचरण कर, एटले अनतिचार पणे पालन कर ॥७॥ __ (दीपिका ) अहं च जोगरा उग्रसेनस्य तु । पुत्री इति शेषः । त्वं च असि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. अंधकवृष्णेः समुद्रविजयस्य । पुत्र इति शेषः । यतः कारणात् मा एकैकप्रधानकुले rai गन्धनौ नूव । अतः कारणात् संयमं सर्वदुःखनिवारणं क्रियाकलापं निनृतः सन् श्रव्यादितः सन् चर कुर्वित्यर्थः ॥ ८ ॥ ( टीका ) व्याख्या । श्रहं च नोजराइ उग्रसेनस्य । दुहितेति गम्यते । खं च नवसि अन्धकवृष्णेः समुद्रविजयस्य । सुत इति गम्यते । अतो मा एकैकप्रधाने कुले वां गन्धनौ नूव । उक्तं च । जह न सप्पतुल्ला होमुत्ति नणियं होइ । यतः संयमं निनृतश्चर । सर्वडुःख निवारणं क्रियाकलापमव्या दिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ किंच जइ तमित्यादि सूत्रम् । ज तं काहिसि नावं, जा जा दिवसि नारि ॥ वायाविव हडो, ठिप्पा नविस्ससि ॥ ॥ ॥ ( अवचूरिः ) यदि त्वं करिष्यसि जावम जिलाषं या या प्रक्ष्यसि नारीः । तासु वाताविक व दडो वातप्रेरित इव सागरेऽबद्धमूलो वनस्पतिविशेषः । स्थिता त्मा जविष्यसि । संयमगुणेष्वबद्धमूलत्वात्संसारसागरे प्रमादपवन प्रेरितः ॥ ए ॥ 1 (अ.) वली राजिमती कहे बे. जइ तमित्यादि. हे रथनेमि ! ( तं के० ) त्वं तुं ( जा जा के० ) या या: एटले जे जे (नारि के०) नारी: एटले स्त्रीयोने ( दिवस के० ) ह्रदयसि एटले जोश. ते ते स्त्रीयोने विषे 'ए सुंदर रूपवती बे, मांटे एनी साथै का मविलास करीश, एवा (जावं के० ) जावने (जइ के० ) यदि एटले जो ( काहि सि ha) करिष्यसि एटले करीश तो ( वायाविद्धो के० ) वाताविद्धः एटले पवनी ताडित थयेला (हडो व के० ) हड इव एटले जेनां मूल बांध्यां नथी एवा जल उपर उगीने तरता रेहनारा हङनामक तृणनीपरें (हिप्पा के० ) अस्थितात्मा एटले art मा स्थिर नथी एवो (जविससि के० ) जविष्यसि एटले थश्श. अर्थात् सकलडुःखोनो दय थवाना कारणजूत एवा संयमने विषे जेनुं मूल बद्ध नथी, माटे. ज प्रमादरूप पवनेकरी ताडित थयेलो एवो हढवनस्पतिसरखो तु या संसारमा अनंत कालसुधी आम तेम जमतो रहीश ! ॥ ए ॥ (दीपिका) यदि त्वं करिष्यसि नावमनिप्रायं प्रार्थनारूपं क या या उदयसि नारीः स्त्रियः । तासु एताः शोजना एताश्च शोजनतराः सेव इत्येवंभूतं नावं यदि करिष्यसि । ततो वायाविद्ध व वातप्रेरित इव । हडोऽवमूलो वनस्पतिविशेषः । स्थितात्मा नविष्यसि । कोऽर्थः सकलडुःखदायकारकेषु संयमगुणेषु प्रबद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिप्यसि ॥ ए ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके वितीयाध्ययनम् । १०५ (टीका) अस्य व्याख्या । यदि त्वं करिष्यसि जावमनिप्रायं प्रार्थनामित्यर्थः। क।या या उदयसि नारीः स्त्रियस्तासु तासु एताः शोजना एताश्चाशोजना. अतः सेवे काममित्येवंचूतं जाचं यदि करिष्यसि । ततो वाताविक श्व हडः वातप्रेरित श्वाब मूलो वनस्पतिविशेषः । अस्थितात्मा नविष्यसि । सकलदुःखदायनिबन्धनेषु संयमगुणेष्वप्रतिबद्धमूलत्वात्संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित श्तश्चेतश्च पर्य टिष्यसीति सूत्रार्थः ॥ ए॥ तीसे सो वयणमित्यादि सूत्रम् । तीसे सो वयणं सोचा; संजया सुनासियं॥ __ अंकुसेण जदा नागो, धम्मे संपडिवाइयो॥१०॥ (अवचूरिः) तस्या राजीमत्या असौ रथनेमिःसुनाषितं संवेगनिबन्धनं श्रुत्वा संप्रतिपातितः स्थापितः। किंविशिष्टायाः। संयतायाः प्रबजिताया इत्यर्थः। अङ्कुशेन यथा नागः। अङ्कुशतुदयेन वचनेन ॥ १० ॥ (अर्थः) तीसे इत्यादि (सो के०) सः एटले ते रथनेमि (संजयाश् के०) संयतायाः एटले जेणें संयम लीधो बे, एवी (तीसे के) तस्याः एटले ते राजिमती, ( सुनासियं के) सुनाषितं एटले उत्तम नाखेवू अर्थात् संवेगनी कथा जेमां बे एवं ( वयणं के) वचनं एटले वचनने (सोच्चा के) श्रुत्वा एटले सांजलीने (जहा के०) यथा एटले जेम ( नागो के) नागः एटले हाथी ( अंकुसेण के०) अंकुशेन एटले अंकुशेकरी अर्थात् अंकुशना प्रहारथी स्वनावस्थित करे , तेम ते रथनेमि पण (धम्मे के०) धर्मे एटले धर्मने विषे ( संपडिवाळ के०) संप्रतिपादितः एटले स्थिर कस्यो. धर्मरूप स्तंन्ने बांध्यो. हवे ते रहनेमीनी दीक्षा ४१० मे वर्षे थर. उक्तं च ॥ रहेनेमिस्स नगवर्ज, दीहुए चउर होंति वीस सया ॥ संवछर बउमडो, पंचस केवली होइ॥ १ ॥ नव वाससिगविसाहिए, सवाऊ तस्स से नायं ॥ एसो चेव य कालो, राश्मईण वि नायवो ॥२॥ इत्यादि ॥ १० ॥ (दीपिका ) तस्या राजीमत्याः असौ रथनेमिर्वचनं पूर्वोक्तं श्रुत्वा । किं० राजीमत्याः। संयताया गृहीतदीदायाः। किं वचनम् । सुजाषितं संवेगजनकम् । किंवत् । अङ्कशेन यथा नागो हस्ती एवं धर्मे संप्रतिपादितो धर्मे स्थापित इत्यर्थः ॥ १० ॥ (टीका) अस्य व्याख्या । तस्या राजीमत्या असौ रथनेमिः वचनमनन्तरोदितं श्रुत्वाकर्ण्य । किंविशिष्टायास्तस्याः। संयतायाः प्रबजिताया इत्यर्थः। किंविशिष्टं वच १४ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. नम्। सुजाषितं संवेगनिवन्धनम् । अङ्कशेन यथा नागो हस्ती एवं धर्मे संप्रतिपादित इत्यर्थः। केन । अङ्कशतुल्येन वचनेन । अङ्कशेन जहा णागो त्ति। एब उदाहरणं वसंतपुरं नयरं । तब एगा शवहुया नदीए एहाइ । अन्नो य तरुणो तं दण जण । सुण्हायं ते पुब एसा नई पवरसोहियतरंगा । एए नदीरुरका । अहं च पाएसु ते पडिठ। ताहे सा पडिनण। सुहया होउ नई। ते चिरंजीवंतु जे नरुका। सुण्डायपुरयाणं धत्तीहामो पियं का।सो य तीसे घरं वा दारं वा ण याण। तीसे य बितिधियाणि चेडरूवाणि रुके पलोयंताणि अचंति । तेण ताणं पुप्फफलाणि सुबदूणि दिसाणि । पुछियाणि याका एसा । ताणि नणंति अमुगस्स सुहा । सो य तीए विरहं न लहति । तर्ड परिवाश्यं उलग्गिउमाढत्तो।जिस्का दिन्ना। सा तुझा जण। किं करेमि उलग्गए फलं । तेण जणिया अमुगस्स सुण्डं मम कए जणाहि । तीए गंतूण जणिया। अमुगो ते एवंगुणजाती पुल।ताए रुहाए पउवगाणि धोवंतीए मसिलित्तएण हबेण पिछीए आया। पंचंगुलियं उध्यिं । अवदारेण निखूढा । गया तस्स साहाणामं पि सा तव ण सुणे । तेण णायं कालपंचमीए अवदारेण अश्गंतवं । अग य असोगवणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य जाव पस्सवणागएण ससुरेण दिहाणि । तेण णायं ण एस मम पुत्तो पारदारिज को।पछा पाया तेण णेजरं गहियं चेश्यं य तीए । सो नपिणास लहुं श्रावश्काले साहेऊं करेजासि।श्यर! गंतूण जत्तारं जण एब घम्मो।असोयवणियं वच्चामो। गंतूण सुत्ताणि।खणमेत्तंसुविऊण जत्तारं उध्वेश्नण य । एयं तुल कुलाणुरूवं । ज णं मम पाया ससुरोणेउरं कढ। सा लण। सुवसु पनाए लनिहिति।पनाए थेरेणं सिंहासो य रुहो जण विवरीज थेरोत्ति। शेरो नणश् मया दिठो अन्नो पुरिसो। विवाए जाए सा नण । अहं अप्पाणं सोहयामि । एवं करेहि । तर्ज बहाया कयबलिकम्मा गया जरकघरं। तस्स ज़रकस्स अंतरेण गळंतो जो कारगारी सो लग्ग अकारगारी नीसर । तर्ज सो विडंपियतमा पिसायरूवं काऊण पिरंतरं घणं कंठे गिण्ह । त सा गंतूण तंजकं जण।जो मम मायापिनदिम जत्तारो । तं च पिसायं मोत्तण जइ अमं परिसं जाणामि तो म तुमं जाणियसि त्ति । जरको विलको चिंते। एस य केरिसाइं धुत्ती मंते । अहग:पि वंचि तीए।णनि सश्त्तणं खुधुत्तीए।जाव जरको चिंतेश्ताव सा णिफिडिया।तन से थेरो सबलोगेण विलकीक हीलिय। तर्ज थेरस्स तीए अधिईए णिहाणहा।रलो य कसे गयं । रमा सदाविऊण अंतेउरवाल कउँ । अनिसेकं च हबिरयणं वासघरस्स हेछा वकं अब । य एगा देवी हनिमिठे आसत्ता। णवरं हबीचोंवालया हछेण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनम् । १०७ अवतारे | पनाए पडिणीइ । एवं वच्चइ कालो । अस्या य एगाए रयणीए चिरस्स आगया ह विमिंवेण रुहेण ह विकलाए श्राहया । सा जइ एया रिसो तारिसी य सुवइ । मा मुन रूसह । तं थेरो पिछs चिंतियं चणेण एवं पि र किमाणीनं एयाउँ एवं ववहरं ति । किं पुरा लाई सदा सछंदा ति । सुत्तो पाए सबलोगो उहि । सो ए उहेइ । रसो कहियं । रमा जयिं । सुवन । चिरस्स उहि पुछिउँ । कहियं सवं । जइ । जहा एगा देवीयाणामिकयरावि। तर्ज राणा जंगही काराविर्ड नशिया एयस्साच्च विं काऊणं उलंडेह | तर्ज सवाहिं जलं डिर्ज । एगा ऐछइ । जाइ य । श्रहं बीमित रक्षा उप्पले आया । मुछिया पडियारला जाणियं एस कारिति । नणियं चणेण मत्तगयं श्रारुहंती जंगमयस्स गयस्स बीही हि । तत्र न मुखिया संकलाया । ए मुछिया उप्पलाया । तर्ज सरीरं जोश्यं जाव संकलप्पहारो दिहो । तर्ज परुद्वेण रमा देवी मिंटो ही यतिन्निविछिन्नकरुए चडावियाणि । जणि य मिंघो एवं वादेहिं हीिं दोहिय पासे हि तेलुग्गाहा जहिया । जाव एगो पार्ट यागासे विउँ । जो जण किं एस तिरिर्ट जाण । एयाणि मारियवाणि । तहवि राया रोसं न मुयइ । जाव तिमि पाया आगासे कया। एगेण वि । लोगेण कर्ज थक्कंदो । किमेयं हविरयणं विणा सिकाइ रखा। भिंगे जणि तर सियित्ते ं । जाइ जइ डुयग्गाणं पि जयं देसि | दिसं । त ते अंकुसे नियत्ति हवित्ति । दान्तिकयोजना कृतैवेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ एवं करंतीत्यादि सूत्रम् । एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियरकरणा ॥ वियिति जोगेसु, जहा से पुरिमुत्तमो ॥ त्तिबेमि ॥ ११ ॥ सामन्नपुविययणा संमत्ता ॥ २ ॥ ( अवचूरिः ) एवं कुर्वते संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः । परिकता वान्तनोगासेवनदोषज्ञाः । प्रविचक्षणा श्रवद्यनीरवः । नोगेन्यो निवर्तन्ते यथासौ पुरुषोत्तमो रथनेमिः । तस्य कथं पुरुषोत्तमत्वं यो दीदितो विषयाकाङ्क्षी । आह । अनिलापेऽप्यप्रवृत्तेः । कापुरुषस्तु अभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति ॥ ११ ॥ इत्यवचूरिकायां श्रामण्यपूर्वकाख्यं द्वितीयमध्ययनम् ॥ २ ॥ (अर्थ) एवमिति (संबुद्धा के० ) बुद्धिमंतः ( पंडिया के ० ) पंडिता: एटले वमेला विषयना उपजोगयी उत्पन्न थता दोषना जाए एवा अने ( पवियरका के० ) प्रविचक्षणाः एटले सावद्य कर्मथी वीक राखनारा एवा पुरुषो ( एवं के० ) पूर्वोक्त प्रकारें ( करंति के ) कुर्वंति एटले आचरण करे बे. एज अर्थ स्पष्ट करी कहे . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (जोगेसु के) जोगेषु, जोगेन्य इति यावत्. एटले वांत जोगथकी ( विणियति के ) विनिवर्तन्ते एटले दूर रहे डे. ( जहा के ) यथा एटले जेम ( से के०) सः ते (पुरिसुत्तमो के० ) पुरुषोत्तमः एटले सर्व पुरुषमां उत्तम एवो रथनेमि ते पूर्वोक्त राजिमतीना वचनथी विषयनोगयी निवृत्त थयो. तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् ॥११॥ अहीं को शंका करे ने के, रथनेमिने सूत्रमा पुरुषोत्तम कां बे, ते युक्त देखातुं नथी. कारण जे चारित्र लश्ने स्त्रीनो अभिलाषी थयो, तेमां पण नाश्नी स्त्री उपर सरागदृष्टि थयो, तेने पुरुषोत्तम केम कहेवाय? ए उपर कहे , के कर्मनी विचित्र गतिथी विषयानिलाष उत्पन्न थयो, तेने का उपाय नथी. परंतु उष्ट पुरुषनी परें तेणे श्वानुरूप विषयने जोगव्यो नहिं, अने ते अनिलाषनो उपरोध करीने संयमने विषे स्थिर रह्यो, माटे ते रथनेमिने पुरुषोत्तम कह्यु, ते सत्य . तथा केटला एक लोको एवी पण शंका करे बे के, दशवैकालिक सूत्र जे डे, ते नियत श्रुत , एटले एनो पाठ अनादि बे, कहेलु डे केः- “ णायनयणाहरणा, इसिजासियमोपश्णयसुया य॥ एए होंति अणियया, णिययं पुण सेसमुस्समं ॥ १॥” आ प्रमाणथी दशवैकालिक जे बे, ते नियतश्रुत ने एम सिद्ध थाय , तेम ले तो एमां अर्वाचीन रथनेमीनी कथा केम आवी? एनो उत्तर कहे . उपर आपेली प्रमाणभूत गाथामा 'उस्समं' एवं पद बे, तेथी एम जणाय डे के, उत्सन्न सूत्रो जे जे ते नियतश्रुत ने, दशवकालिकादिक तो प्रायें नियत श्रुत बे, पण को स्थलें अनियत श्रुत बे, तेथी रथनेमीनी कथा आवी तेमां कांश दोष नथी. एवीरीतें ए द्वितीय श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमा संयमने विषे चित्त स्थिर करवानो उपाय कह्यो. इति दशवैकालिकना श्रामण्यपूर्वकनामकद्वितीयाध्ययननो बालावबोध संपूर्ण ॥२॥ (दीपिका) एवं कुर्वते कुर्वन्ति । के । संबुद्धा बुद्धिमन्तः । अथवा सम्यग्दर्शनसहितेन ज्ञानेन ज्ञातविषयखजावाः सम्यग्दृष्टय इत्यर्थः । पुनः किं । पंमिता वान्तनोगासेवनदोषाः। पुनः किं । प्रविचक्षणाः पापनीरवः। किं कुर्वन्ति ते इत्याह । निवर्तन्ते दूरीजवन्ति । केन्यो नोगेन्यो विषयेभ्यः । क श्व। यथा असौ पुरुषोत्तमो रथनेमिः। शिष्य आह । ननु कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं यो हि गृहीतदीक्षोऽपि विषयाजिलाषी जातः । उच्यते । तथाविधे अनिलाषे जातेऽपि नासौ प्रवृत्तः। कापुरुषस्तु तदनुरूपं ... चेष्टत एवेति । इति पूर्वोक्तप्रकारेण ब्रवीमि न स्वबुद्ध्या किं तु तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन ॥११॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां द्वितीयमध्ययनम् ॥२॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। २०ए . अस्य व्याख्या । एवं कुर्वन्ति संबुद्धा बुद्धिमन्तो बुझाः । सम्यग्दर्शनसाहचर्येण दर्शनैकीनावेन वा बुद्धाः संबुझा विदितविषयखनावाः । सम्यग्दृष्टय' इत्यर्थः । त एव विशेष्यन्ते । पंमिताः प्रविचक्षणास्तत्र पएिकताः सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाश्चरणपरिणामवन्तः।अन्ये तुव्याचदते।संबुद्धाःसामान्येन बुद्धिमन्तः पएिकता वान्तनोगासेवनदोषज्ञाःप्रविचक्षणाअवधनीरव शति।किं कुर्वन्ति। विनिवर्तन्ते जोगेन्यः विविधमनेकैः प्रकारैरना दिनवान्यासबलेन कदीमाना अपिमोहोदयेन विनिवर्तन्ते नोगेच्यो विषयेन्यः । यथा क इत्याह।यथासौ पुरुषोत्तमः रथनेमिः।आह । कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं यो हि प्रबजितोऽपि विषयानिलाषीति।उच्यते।अनिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः। कापुरुषस्त्वजिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति । अपरस्त्वाह । दशवैकालिकं नियतश्रुतमेव । यत उक्तम् । णायलयणाहरणा, सिनासियमोपश्मयसुयाय ॥ एए होति अणियया, णिययं पुण सेसमुस्समं ॥ तत्कथमजिनवोत्पन्न मिदमुदाहरणं युज्यते इति । उच्यते। एवंनूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि नावाऽत्सन्नग्रहणाच्चादोषाप्रायोनियतं नतु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः। ब्रवीमीति न स्वमनीषिकया किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववदिति। इत्याचार्यश्रीहरिनजसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनं संपूर्णम् ॥५॥ ॥अथ तृतीयाध्ययनम् ॥ संजमे सुध्यिप्पाणं, विप्पमुक्काण ताणं ॥ तेसिमेयमणान्नं, निग्गंधाण मदेसिणं ॥१॥ अथ दुवकाचाराख्यतृतीयाध्ययनावचूरिः॥ पूर्व धृतिरुक्ता सा चाचारे कार्या नत्वनाचारे।अतः कुखकाचारकथाध्ययने आचारः कथ्यते । संयमे सुष्टु आगमनीत्या स्थितास्मनां बाह्याभ्यन्तरेण परिग्रहेण।त्रायन्ते रदन्ते स्वं परं चोजयं वेति त्रातारस्तेषामात्मानं प्रत्येकबुद्धाः स्वयं तीर्णत्वात् । एवं तीर्थकरास्तारकत्वात् उन्नयं स्थविराः सदापि धर्ममार्गप्रवर्तनात् । तेषामिदं वदयमाणमनाचरितम्।महर्षीणां महैषिणां वा निर्यन्यानामनिधानमेतत् । श्ह च पूर्वपूर्वजाव एवोत्तरोत्तरनावो हेतुहेतुमन्नावेन वेदितव्यः। यत एवं संयमेसुस्थितात्मानः । अत एव विप्रमुक्ताः संयमे सुस्थितात्मनिवन्धनत्वाविषमुक्तेः। एवं शेषेष्वपि नावनीयम् ॥१॥ . (अर्थ.) पूर्वोक्त द्वितीयाध्ययनमां धर्म उपर श्रद्धा राखीने नवीन चारित्र - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)-मा. लीधेला साधूने धृतिना अनावथी मोह नहीं थववो माटे संयमने विषे धृति राखवी एम कडं. हवे, पूर्वे कहेली धृति जे , ते सदाचारनेविषेज करवी, अनाचारने विषे करवी नही. एज आत्मसंयमनो उपाय बे, ए संबंधे आवेला तृतीय अध्ययनमा आचार कथन हार कहेवानुं . कहेलु डे केः- “तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचाररतः सदा ॥ स एव धृतिमान् धर्मः, तस्यैव च जिनोदितः ॥ १॥" एवा संबंधयी ए अध्ययननी प्राप्ति थई जे. हवे, ए अध्ययन'कुक्षकाचारकथा' एवं नाम , तेनुं कारण ए ले केःआचारने विषे धृति राखवी एम कडं, ते आचारना ज्ञान वगर सिझ थाय नहीं, माटे आचार केहवा जोश्ये. ते चार बे प्रकारना , एक प्रधानाचार अने बीजा कुक्षकाचार. तेमां ए तृतीय अध्ययनमां दुबकाचारनुं कथन कयुं , माटे ए अध्ययननुं नाम 'कुलकाचारकथा' एवं पडयुं . तेनी प्रथम गाथा संजमेत्यादि (संजमे के०) संयमे एटले सत्तर प्रकारना संयमने विषे (सुहिअप्पाणं) सुस्थितात्मनाम्, सु एटले रूडे प्रकारे स्थित ने आत्मा जेमनो एवा अत एव (विप्पमुक्काणं के) विप्रमुक्तानाम्, वि एटले अनेक प्रकारें प्र एटले प्रकर्षेकरी मुक्ताः एटले बाह्याज्यंतर परिग्रहथी मुक्त थयेला एवा, अत एव (ताणं के) तायिनाम् एटले केवल ज्ञान संपादन करी खपररक्षक एवा प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर अने स्थविर ए त्रण प्रकारना, तेमां प्रत्येकबुद्ध जे बे, ते तो पोतार्नु मात्र रक्षण करे , तीर्थंकर जे ते पोतें केवली होवाथी सम्यक्वादि आपीने बीजार्नु मात्र रक्षण करे डे, अने स्थविर जे जे ते पोते तरे बे, अने बीजाने तारे बे, माटे ते खपररक्षक जाणवा. अत एव (निग्गंथाणं के०) निर्यन्थानाम् एटले परिग्रहरूप ग्रंथिथी रहित एवा (तेसि के) तेषाम् एटले ते (महेसिणं के) महर्षीणाम् एटले महोटा कृषि एवा यति योने (एयं के) एतत् एटले आगल बावन बोलें करी केहवाशे ते (अणाश्न के०) अनाचीर्ण एटले आचरवाने योग्य नथी ॥१॥ (दीपिका) व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाख्यं द्वितीयमध्ययनम्।कुक्षकाचारकथाख्यमय तः तीयमध्ययनमारच्यते।अस्य च अयमनिसंबन्धः। द्वितीयाध्ययने इत्युक्तं नवदीक्षितन .. संयमेऽधृतावुत्पन्नायामपि धृतिमता जाव्यम् । अत्र तु सा धृतिराचारे कार्यानत्वनाचार अयमेवात्मसंयमोपायः । उक्तं च ॥“ तस्यात्मा संयतो यो हि सदाचारे रतः सदा ॥स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव हि जिनोदितः ॥” इत्यनेन संबन्धेनायातमिदमध्यय. नं व्याख्यायते । तत्र सूत्रम् । संयमे सुस्थितः शोजनप्रकारेण सिझान्तरीत्या स्थित Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। १११ श्रात्मा येषां तेषाम् । किं । विप्रमुक्तानां विविधमनेकप्रकारैः प्रकर्षेण संसारान्मुक्तानाम् । पुनः किं । तायिनाम् । त्रायन्ते आत्मानं परमुनयं च ये ते त्रातारस्तेषाम् । आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः, परं तीर्थकराः, उन्नयं स्थविराः, तेषामिदं वदयमाणलदणमनाचीर्णमनाचरितमकल्पम् । केषामित्याह । निम्रन्थानां साधूनाम् । किंविशिष्टानाम् । महर्षीणां महतां यतीनाम् ॥ १॥ . (टीका) व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमिदानी हुलकाचारकथाख्यमारज्यते।अस्य चायमजिसंबन्धः। श्हानन्तराध्ययने धर्मान्युपगमे सति माजूदनिनवप्रवजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता जवितव्यमित्युक्तम्। इह तु साधृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे।अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतच्यते। उक्तं च॥ तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा ॥ स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगहाराणि पूर्ववत्। नामनिष्पन्ने निदेपे कुखकाचारकथेति नाम । तत्र कुद्धकस्येति निदेपः कार्यः।आचारस्य कथायाश्च महदपेदया च कुक्षकमित्यतश्चित्रन्यायप्रदर्शनार्थमपेक्षणीयमेव । महदनिधित्सुराह । नामं उवणा दविए, खेत्ते काले पहाणपश्नावे ॥ एएसि महंताणं, पडिवरके खुन्या होंति ॥१॥व्याख्या॥नाममहन्महदिति नाम । स्थापनामहन्महाव्यमहानचित्तमहास्कन्दः। देवमहबोकालोकाकाशम् । कालमहानतीतादिनेदः संपूर्णः कालः। प्रधानमह त्रिविधम्। सचित्ताचितमिश्रनेदात्।सचित्तं त्रिविधम् । द्विपदचतुष्पदापदन्नेदात् । तत्र छिपदानां तीर्थकरः प्रधानः । चतुष्पदानां हस्ती । अपदानां पनसः । अचित्तानां वैसूर्यरत्नम् । मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविनूषितः प्रधानः । इत्यत एव चैतेषां महत्त्वमिति प्रतीत्य महदापेदिकम् । तद्यथा आमलकं प्रतीत्य विध्वं महत्, विट्वं प्रतीत्य कपित्रमित्यादि । नावमह त्रिविधं प्राधान्यतः कालत आश्रयतश्चेति । प्राधान्यतः दायिको महान्मुक्तिहेतुत्वेन तस्यैव प्रधानत्वात् । कालतः पारिणामिकः । जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिजीवा अजीवतया परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयेति । आश्रयतस्त्वौदायिकः। प्रनूतसंसारिसत्त्वाश्रयत्वात्संसारिणामेवासौ विद्यत इति एतेषामनन्तरोदितानां महतां प्रतिपदे कुल्लकानि नवन्ति । अनिधेयवसिङ्गवचनानि जवन्तीति न्यायात् यथार्थ कुबकलिङ्गवचन मिति । तत्र नामस्थापने कुले । अव्यदक्षकः परमाणुः । अव्यं चासौ तुझकश्चेति । देवकुल्लक आकाशप्रदेशः। कालकुलकः समयः। प्रधानकुद्धकं त्रिविधम् । सचित्ता चित्तमिश्रन्नेदात् । सचित्तं त्रिविधम् । छिपदचतुष्पदापदन्नेदात् । छिपदेषु कुखकाः प्रधानाचानु Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्तरसुराः। शरीरेषु कुहकमाहारकम् । चतुष्पदेषु प्रधानः कुलकश्च सिंहः। अपदेषु जातिकुसुमानि । अचित्तेषु वज्रं प्रधानं दुबकं च। मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति । प्रतीत्य कुलकं तु कपिळ प्रतीत्य विध्वं कुलकं विश्वं प्रतीत्यामलकमित्यादि। नावकुदकस्तु दायिको नावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः । श्चं दुबकनिदे. पमनिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनिदेपमाह ॥ पश्खुमएण पगयं, आयारस्स उ चउक्कनिकेवो ॥ नाम उवणा दविए, नावायारे य वोधवे ॥१५॥ व्याख्या ॥ प्रतीत्य यत् कुखकमुपदिष्टम् । तेनानाधिकारः । यतो महती खत्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं तदपेनया कुहिकेयमिति । आचारस्य तु चतुष्को निदेपः। स चायम्। नामाचारः स्थापनाचारो अव्याचारो नावाचारश्च वोडव्य इति गाथार्थः । नावार्थ तु वक्ष्यति । तत्र नामस्थापने लुमे । अतो अव्याचारमाह । नामणधावणवासणसिकावणसुकरणाविरोहीणि ॥ दवाणि जाणि लोए, दवायारं वियाणा हि ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ नामनधावनवासन-शिदापनसुकरणाविरोधीनि अव्याणि यानि लोके तानि अव्याचारं विजानीहि । अयमत्र नावार्थः । आचरणमाचारः । अव्यस्याचारो अव्याचारः। अव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः । तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते । तत् प्रति विविधं अव्यं जवति। आचारवदनाचारवच । तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः। तत्र तिनिशलतादि आचारवत् । एरणमलताद्यनाचारवत् । एतमुक्तं जवति । तिनिशलताद्याचरितं नावं तेन रूपेण परिणमति। नत्वरणमादि । एवं सर्वत्र नावना कार्या । न वरमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते । धावन प्रति हरिबारक्तं वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रदालनात् । कृमिरागरक्तमनाचारवत् तमस्मनोऽपि रागानपगमात् । वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत्सुखेन पाटलाकुसुमादि निर्वास्यमानत्वात् । वैमूर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात् । शिक्षणं प्रत्याचारवल्लुकसा: रिकादि सुखेन मानुषनाषासंपादनात् । अनाचारवडकुन्तादि तहिपर्ययात् । सुकरण प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन तस्य तस्य कटकादे: करणात् । अनाचारवत् घण्टा लोहादि तत्रान्यस्य तथा विधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति । अविरोधं प्रत्याचरवान्त गुडदध्यादीनि रसोत्कर्षाउपनोगगुणाच । अनाचारवन्ति तैलदीरादीनि विपर्यया दिति । एवंजूतानि अव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तव्याव्यात-- रेकाइव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथा चरणपरिणामस्य लावत्वेऽपि गुणाजावादव्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति गाथार्थः । उक्तो अव्याचारः सांप्रतं जावाचारमाह ॥ दसणनाणचरित्ते तवायारे य वीरियायारे ॥ एसो जावायारो, पचविहो होश नायवो ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनशानचारित्रादिष्वाचारशब्दःप्रत्येकम Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । १.१३: निसंबध्यते । दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपचाचारो वीर्याचारश्चेति । तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते । न चतुरादिदर्शनम् । तच्च कायोपशमिका दिरूपत्वानाव एव । ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयम् । जावार्थं तु वदयति । एष नावाचारः पञ्चविधो नवति ज्ञातव्यः । इति गाथादरार्थः । अधुना जावार्थ उच्यते । तत्र यथोद्देशं निर्देश इत्यादौ दर्शनाचारजावार्थः । दर्शनाचारश्चाष्टधा । तथा चाह | गाथा || निस्संकिय निक्कंखिय, निष्विति गिठा अमूढ दिट्ठी श्र ॥ ववूद - थिरीकरणे, वलपनावणे अ ॥ १०८ ॥ व्याख्या ॥ निःशङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितं, निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ निःशङ्कितः । देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः । तत्र देशशङ्का समाने जीवत्वे कथमेको व्योऽपरोऽनव्य इति शङ्कते । सर्वशङ्का तु प्राकृत निबद्धत्वात्सर्वमेवेदं परिकल्पितं जविष्यतीति । न पुनरालोचयति । यथा जावा हेतु ग्राह्या । तत्र हेतुमाह्या जीवास्तित्वादयः । श्रहेतुग्राह्या नव्यत्वादयः । अस्मदाद्यपेया प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति । प्राकृत निबन्धोऽपि बालादिसाधारण इति । उक्तं च ॥ बालस्त्री मूढमूर्खाणां नृणां चारित्रका ङ्क्षिणाम् ॥ अनुग्रहार्थं तत्त्वः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति । उदाहरणं चात्र पेयापेकौ यथावश्यके । ततश्च निःशङ्कितो जीव एवाईच्छासनप्रतिपन्नौ दर्शनाचरणात् । तत्प्राधान्यविवचया दर्शनाचार उच्यते । श्रनेन दर्शन दर्श निनोरनेदमाह । तदेकान्तभेदे त्वदर्श निन श्व तत्फलाभावात् मोक्षाजाव इत्येवं शेषपदेष्वपि जावना कार्येति । तथा निःकाङ्क्षितो देशसर्वकाङ्क्षारहितः । तत्र देशकाङ्क्षा एकं दर्शनं काङ्क्षति दिगम्बरदर्शनादि । सर्वकाङ्क्षा तु सर्वाण्येवेति । नालोचयति षड्जीव निकायपीडामसत्प्ररूपणां च । उदाहरणं चात्र राजामात्यौ यथावश्यक इति । विचिकित्सा मतिविन्रमः । निर्गता विचिकित्सा मतिविन्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः । साध्वेव जिनदर्शनं किंतु प्रवृत्तस्यापि सतो ममास्मात्फलं भविष्यति न जविष्यतीति । क्रियायाः कृषीवलादिपूजयोपलब्धेरिति विकल्परहितः । न ह्यविकलोपाय उपेयवस्तु परिप्रापको न भवतीति संजातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते । एतावतांशेन निःशङ्किताङ्गिन्नः । उदाहरणं चात्र विद्यासाधको यथावश्यक इति । यद्वा निर्विजुगुप्सः साधुजुगुप्सारहितः । उदाहरणं चात्र श्रावकडुहिता यथावश्यक एव । तथामूवात खितपोविद्यातिशयदर्शनेन मूढा खरूपान्न चलिता दृष्टिः सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावसूढदृष्टिः । अत्रोदाहरणं सुलसा साविया । जहा लोइयरिसी त्र्यंवडो रायगिहं गतो बहूणं जवियाणं थिरीकरण णिमित्तं सांमिणा जर्जि । सुलसं पुछि कासि । श्रम्मडो चिंते । पुलमतिया सुलसा जं रहा पुछे । तर्ज अम्मडेए परिरक १५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३) मा. त्तरसुराः। शरीरेषु कुलकमाहारकम् । चतुष्पदेषु प्रधानः कुलकश्च सिंहः। अपदेषु जातिकुसुमानि । अचित्तेषु वजं प्रधान कुलकं च। मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति । प्रतीत्य कुलकं तु कपिळ प्रतीत्य बिट्वं कुलकं वित्वं प्रतीत्यामलकमित्यादि। नावकुबकस्तु दायिको नावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः। श्वं कुबकनि. पमनिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनिदेपमाह ॥ पश्खुझएण पगयं, श्रआयारस्स उ चउकनिकेवो ॥ नाम उवणा दविए, नावायारे य वोधवे ॥१५॥ व्याख्या ॥ प्रतीत्य यत् दुखकमुपदिष्टम् । तेनात्राधिकारः। यतो महती खव्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं तदपेक्ष्या हुहिकेयमिति । आचारस्य तु चतुष्को निदेपः। स चायम्। नामाचारः स्थापनाचारो अव्याचारो नावाचारश्च वोडव्य इति गाथार्थः । नावार्थ तु वयति । तत्र नामस्थापने कुले । अतो अव्याचारमाह । नामणधावणवासणसिकावणसुकरणाविरोहीणि ॥ दवाणि जाणि लोए, दवायारं वियाणाहि ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ नामनधावनवासन-शिदापनसुकरणाविरोधीनि उव्याणि यानि लोके तानि अव्याचारं विजानीहि । अयमत्र नावार्थः । आचरणमाचारः । अव्यस्याचारो अव्याचारः। अव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः । तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते । तत् प्रति विविधं अव्यं नवति । आचारवदनाचारवच्च । तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चेत्यर्थः । तत्र तिनिशलतादि आचारवत् । एरएफलता धनाचारवत् । एतमुक्तं जवति । तिनिशलताद्याचरितं नावं तेन रूपेण परिणमात. नत्वेरएकादि । एवं सर्वत्र नावना कार्या । न वरमुदाहरणानि प्रदान्ते । धावन प्रति हरिबारक्तं वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रदालनात् । कृमिरागरक्तमनाचारवत् तजस्मनोऽपि रागानपगमात् । वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत्सुखेन पाटलाकुसुमार निर्वास्यमानत्वात् । वैमूर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात् । शिक्षणं प्रत्याचारवठुकता रिकादि सुखेन मानुषनाषासंपादनात् । अनाचारवछकुन्तादि तद्विपर्ययात् । सुकरण प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन तस्य तस्य कटकादेः करणात् । अनाचारवत् घण्टा लोहादि तत्रान्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति । अविरोधं प्रत्याचरवान्त गुडध्यादीनि रसोत्कर्षापत्नोगगुणाच । अनाचारवन्ति तैलदीरादीनि विपया दिति । एवंनूतानि अव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तद्व्याव्यात रेकाव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथा चरणपरिणामस्य लावत्वेऽपि गुणाजावा व्याचारं विजानीहि अवबुध्यस्वेति गाथार्थः। उक्तो अव्याचारः सांप्रत जा. चारमाह ॥ दसणनाणचरित्ते तवायारे य वीरियायारे ॥ एसो जावायारो, विहो होश नायवो ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनशानचारित्रादिष्वाचारशब्दःप्रत्यक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । २२३ः निसंबध्यते । दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तपआचारो वीर्याचारश्चेति । तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते । न चगुरादिदर्शनम् । तच्च दायोपशमिकादिरूपत्वानाव एव । ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयम् । नावार्थ तु वदयति । एष नावाचारः पञ्चविधो नवति झातव्यः इति गाथादरार्थः। अधुना नावार्थ उच्यते। तत्र यथोदेशं निर्देश इत्यादौ दर्शनाचारनावार्थः। दर्शनाचारश्चाष्टधा । तथा चाह । गाथा ॥ निस्संकिय निकंखिय, निवितिगिला अमूढ दिही अ॥ उबवूहथिरीकरणे, वनवपन्नावणे अह ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ निःशङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितं, निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौ निःशङ्कितः। देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः। तत्र देशशङ्का समाने जीवत्वे कथमेको नव्योऽपरोऽनव्य इति शङ्कते । सर्वशङ्का तु प्राकृतनिवडत्वात्सर्वमेवेदं परिकल्पितं नविष्यतीति । न पुनरालोचयति । यथा नावा हेतुग्राह्या अहेतुयाह्याश्च । तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः। अहेतुग्राह्या नव्यत्वादयः । अस्मदाद्यपेक्ष्या प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति । प्राकृतनिबन्धोऽपि बालादिसाधारण इति। उक्तं च ॥ बालस्त्रीसूढमूर्खाणां नृणां चारित्रकाशिणाम् ॥अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति । उदाहरणं चात्र पेयापेयकौ यथावश्यके । ततश्च निःशङ्कितो जीव एवाहबासनप्रतिपन्नौ दर्शनाचरणात् । तत्प्राधान्य विवक्ष्या दर्शनाचार उच्यते । अनेन दर्शनदर्श निनोरन्नेदमाह । तदेकान्तनेदे त्वदर्श निन व तत्फलानावात् मोदानाव इत्येवं शेषपदेष्वपि नावना कार्येति । तथा निःकाश्रितो देशसर्वकाङ्क्षारहितः । तत्र देशकाङ्क्षा एकं दर्शनं काहति दिगम्बरदर्शनादि । सर्वकाङ्क्षा तु सर्वाण्येवेति । नालोचयति षड्जीवनिकायपीडामसत्प्ररूपणां च । उदाहरणं चात्र राजामात्यौ यथावश्यक इति । विचिकित्सा मतिविन्रमः। निर्गता विचिकित्सा मतिविन्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः। साध्वेव जिनदर्शनं किंतु प्रवृत्तस्यापि सतो ममास्मात्फलं नविष्यति न आविष्यतीति। क्रियायाः कृषीवलादिषूलयोपलब्धेरिति विकल्परहितः । न ह्यविकलोपाय उपेयवस्तुपरिप्रापको न नवतीति संजातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते । एतावतांशेन निःशङ्कितानिन्नः । उदाहरणं चात्र विद्यासाधको यथावश्यक इति । यहा निर्विजुगुप्सः साधुजुगुप्सारहितः। उदाहरणं चात्र श्रावकमुहिता यथावश्यक एव । तथामूढदृष्टिश्च वालतपखितपो विद्यातिशयदर्शनैर्न मूढा स्वरूपान्न चलिता दृष्टिः सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावसूढदृष्टिः । अत्रोदाहरणं सुलसा साविया। जहा लोश्य रिसी यंवडो रायगिहं गबंतो वर्णं नवियाणं थिरीकरण णिमित्तं सामिणा नणिर्छ । सुलसं पुठि. जासि।अम्मडो चिंतेश् । पुसमतिया सुलसा जं अरहा पुढेश् । त अम्मडेण परिक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. वाणिमित्तं सा जत्तं मग्गिया। ताए ण दिन्नं । त तेण वदणि रूवाणि विउवियाणि। तह वि ण दिमं । ण य संमूढा ।तह कुतिबियरिद्धी दहूण अमूढदिहिणा नवियत्वं । . एतावान् गुणप्रधानो दर्शनाचार निर्देशः।अधुना गुणप्रधाने उपवृंहण स्थिरीकरणे इति। उपबृंहणं च स्थिरीकरणं चोपबृंहण स्थिरीकरणे । तत्रोपवृंहणं नाम समानधर्मिकाणां सगुणप्रशंसनेन तवृद्धिकरणम् । स्थिरीकरणं तु धर्माहिषीदतां सतां तत्रैव स्थापनम् । उवबहणाए उदाहरणं । जहा रायगिहे नयरे से णि राया। ळ य सको देवराया :सम्मत्तं पसंस। जय एगो देवो असदहंतो नगरवाहिं सेणियस्य णिग्गयस्स चेवयरूवं काऊणं अणिमिसे गेण्ह। ताहे तं निवारे। पुणरवि अमन संजई गुविणी पुरर्छ हिया। ताहे अपवरगे उविऊण जहा ण कोई जाण तहा सूगिहं कारवेश। जं कि वि सूश्कम्मं तं सयमेव करे । त सो देवो संजईरूवं परिच्चऊण दिवं देवरूवं द. रिसेशनण य।जो सेणिय सुलई ते जम्मजीवियस्स फलं।जेण ते पवयणस्सुवरि ए. रिसी नती नवशत्ति उवबहेऊण गर्छ। एवं उववाहियद्या साहम्मिया। थिरीकरणे उदाहरणं जहा। उजेणीए अजासाढो कालं करेंते संजए अप्पाहेशमम दरिसावं दिज ह। जहा उत्तरायणे सुए तं अस्काणयं सवं तहेव । तम्हा सो जहा अजासाढो थिरा करें। एवं जे नरिया ते थिरीकरेयवा। तथा वात्सल्यापनावना इति । वात्सत्यं च प्र. नावना च वात्सल्यप्रतावना तत्र वात्सत्यं समानधर्मिकप्रत्युपकारकरणम् । प्रजा. वना धर्मकथनादिनिस्तीर्थख्यापनेति । तत्र वात्सदये उदाहरणं अजावरा । जहा तेहिं दुनिरके संघो निबारिज । एयं सवं जहा आवस्सए तहा नेयं । पजावणाए उदाहरणं ते चेव अजावरा । जहा तेहिं अग्गिसिहा सुदुमकाश्यायाणेऊण सा. सणस्स उप्रावणा कया एवमकाणयं जहा आवस्सए तहां कहेयर । एवं साहुणावि सवर पयत्तेण सासणं उन्नावेयई । अष्टावित्यष्टप्रकारो दर्शनाचारः । प्रकाराश्चोक्ता एव निःशः कितादयः । गुणप्रधानश्चायं निर्देशो गुणगुणिनोः कथंचिप्लेदख्यापनार्थः । एकान्ताजद तन्निवृत्तौ गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिरिति गाथार्थः। खपरोपकारिणी प्रवचनप्रजा वना तीर्थकरनामकर्म निवन्धनं चेति ।जेदेन प्रवचननावकानाह॥अश्सेसट्ठियाया य-वाश्चम्मकहिखमगनेमित्ती ॥ विद्यारायगणसं-मया य ति पत्नाविति ॥रण। ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ अतिशयी अवध्यादिज्ञानयुक्तः । शकिग्रहणादामोषध्या। छिप्राप्तः । शद्धिप्रबजितो वा। आचार्यवादिधर्मकथिदपकनैमित्तिकाः प्रकटाया विद्याग्रहणाद्विद्यासिद्धः । आर्यखपुटवत् सिद्धमन्त्रः । रायगणसंमया राजसंमताभ त्र्यादयः। गणसंमता महन्तरादयः चशब्दादानश्राऊकादिपरिग्रहः। एते ताथ वचनं प्रजावयन्ति । स्वतःप्रकाशस्वनावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति गाथाथ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । ११८ कंताए 1 उक्तो दर्शनाचारः । सांप्रतं ज्ञानाचारमाह । काले विषए बहुमाणे, उवहाणे तहय निन्दवणे || वंजणवतए, विहो नाणमायारो ॥ १९० ॥ व्याख्या ॥ काल इति । यो यस्याप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तः । तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो नान्यदा तीर्थकरवचनात् । दृष्टं च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं वि - पर्यये च विपर्यय इति । अत्रोदाहरणम् । एको साहू पादोसियं कालं घेत्तू वि. पढमपोरिसीए अणुवगेण पढइ कालियं सुर्य । सम्मद्दिपी देवया चिंतेश | मा पंतदेवया बलिद्य त्ति काउं तकं कुंडे घेत्तूणं तक्कं तकं ति तस्स पुर श्रमिक आगयागयाई करे । तेण य चिरस्स सनायस्स वाघायं या यया लिएको इमो तकस्स विकणणकालो । वेलं ता पलोवेह | तीए विनयिं । अहो को इमो कालियसुयस्य सजायकालो ति । त साहुणा पायं जहा ए एसा पागइन्हिन्ति । उवत्तो पाउ रत्ते दिसं मिठाकडं । देवयाए जणियं । मा एवं करेद्यासि मा पंता बलेका । तनुं काले सझायवं ए उ यकाले त्ति । तथा श्रुतयहणं कुर्वता गुरोर्विनयः कार्यः । विनयोऽन्युठानपादधावनादिः । अविनयगृहीतं हि तदफलं भवति । श्व उदाहरणं । सेणिर्ड राया नद्याए नमइ । ममेगखंनं पासायं क रेहि । एवं डुमपुष्ययणे वरकाणियं । तम्हा विषय अहिवियवं णो अविएण । तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोर्बहुमानः कार्यः । बहुमानो नामान्तरो जावप्रति - वन्धः । एतस्मिन् सत्यदेपेणाधिकफलं श्रुतं जवति । विषयवहुमाणेसु च नंगी । एगस्स वि ण बहुमाणो । अवरस्स बहुमाणो ए वि । मस्स विष वि बहुमाणो वि । स ण विष ण बहुमाणो । एठ दोह वि विसेसोपदंसणवं इमं उदाहरणं । एगंमि गिरिकंदरे सिवो । तं च वंजणो पुलिंदो य अचंति । वंजणो जवले - वणसम्मऊणोवरिसेयपथ सुईनू अच्चित्ता युएइ विषयजुत्तो । प पु बहुमाणे । पुलिंदो पुण तंमि सिवे नावपडिवको गोदएण रहावे । एह विकण वविधो सिवो य तें समं आलावसंकहाहिं । अयाय तेसिं वंनेणं लावसो सु । तेण पडियरिऊण जवलो । तुमं एरिसो चेव कडपूयण सिवो । जो एरिसे व समं मंते सि । तनुं सिवो जए । एसो मे वहु माणे । तुमं पुतहा | साय अछी णि उरकणिऊण व सिवो । वनणोय यागंतुं रडियमुवसंत । पुलिंदो य आग | सिवस्स अणि पेठ । तनुं अप्पण्यं यि कंमफले उरकणित्ता सिवस्स लाएइ । तर्ज सिवेण वंजणो पत्तियाविजं । एवं पाए - मंसु विrd बहुमाणो य दो वि कायवाणि । तथा श्रुतग्रहणमभीप्सतोपधानं कार्यम् । उपदधतीत्युपधानं तपः । तद्धि यद्यत्राध्ययने श्रागाढा दियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्यम् । 1 निक करेश त्ति । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तत्पूर्वकश्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात्।अत्रोदाहरणम् । एगे आयरिया।ते वायणाए संता परितंता ससाए वि असमाश्यं घोसेउमारका।णाणंतरायं बंधिऊण कालं काऊण देव‘लोगं गया।त देवलोगाउँ आजकएण चुया । अहीरकुले पञ्चायाया जोगे जति । अमया य से धूया जाया।सा य अश्व रूवस्सिणी। ताणि य पञ्चंतयाणि गोचारणणि मित्तं अमन वच्चंति । तीए दारियाए पिजणो सगमं सबसगमाणं पुरजे गब। सा य दारिया तस्स सगडस्स धुरतुंमे छिया गब। तरुणश्त्तेहिं चिंतियं । समाई का सगमा दारियं पेठामो । तेहिं सगडाउँ जप्पहेहिं खेडिया । विसमे आवडिया समाणा जग्गा । तर्ज लोएण तीए दारियाए णामं कयं असगडत्ति । ताए दारियाए असगडाए पिया अ. सगडपियत्ति । तर्ज तस्स तं चेव वेरग्गं जायं। तं दारियं एगस्स दाऊण पवा। जाव चाउरंगिचं ताव पढिले । असंखए उदिहे तं णाणावरणिधं से कम्मं उदिसं । पढंतस्स वि किं वि ण छा। आयरिया नणंति । बहेणं ते अणुमवर त्ति । तर्ज सो जण एयस्स के रिसो जो । आयरिया नणंति जाव ण हा ताव आयंबिलं कायवं । तर्ज सो नण तो एवं चेव पढामि।तेण तहा पढ़तेण बारसरूवाणि बारससंवछरेहिं अहि__ याणि । ताव से आयंबिलं कयं । त णाणावरणं कम्मं खीणं । एवं जहा सगडपियाए आगाढजोगो अणुपालिउँ । तहा सम्म अणुपावियत्वं । उवहाणेत्ति गयं । तथा अनिण्हव णित्ति । गृहीतश्रुतेनानिह्नवः कार्यः । यद्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यश्चित्तकाबुष्यापत्तेरिति । अत्र दृष्टान्तः। एगस्स एहावियस्स बुरजम विद्यासामठेण आगासे अब । तं च एगो परिवायगो बहाहि उवसंपऊणाहिं उवसंपजिऊण तेण सा विद्या लझा । ताहे अन्नब गंतुं तिदंडेण आगासगएण महा जणेण प्रश्वशत्ति । रमा य पुटिन। नयवं किमेस विद्याश्सयो उय तवाश्स ति। सा नण विद्याश्स। कस्स सगासार्ड गहिर्ज। सो नण हिमवंते फलाहारस्स रिसिणी सगासे अहि जिर्छ । एवं तु वुत्ते समाणे संकिलेसफुच्याए तं तिदं खडत्ति पाडय! एवं जो अप्पागमं आयरियं निण्हवेऊण अमं कहेहि । तस्स चित्तसंकिलेसदासण सा विद्या परलोए ण हवश् ति । अनिण्हव णित्ति गयं । तथा व्यञ्जनार्थतज्जयान्या श्रित्य नेदो न कार्य इति वाक्यशेषः । एतदुक्तं नवति । श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमना प्सता व्यञ्जनन्नेदोऽर्थनेद उन्नयनेदश्च न कार्य इति । तत्र व्यञ्जनन्नेदो यथा। धम्मा मंगलमुकिमिति वक्तव्ये पुमं कराणमुक्कोसमिति । अर्थनेदस्तु यथा यावतीक यावंती लोगंसि विप्परामुसंतीत्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोकेऽस्मिन् पाखाएका लोके विपरामृशन्तीत्येवं विधार्यान्निधाने अवंतिजनपदे केया रजर्वांता पतिता । लाक परानृशति कृप इत्याह । उन्नयनेदस्तु योरपि याथात्म्योपमर्दैन यथा धमा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२७ मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसापर्वतमस्तक इत्यादि । दोषश्चात्र व्यञ्जननेदेऽर्थनेदस्तभेदे कि. याया नेदस्तन्नेदे मोदानावस्तदानावे च निरथिका दीदेति । उदाहरणं चात्राधी. यताम् कुमार इति सर्वत्र योजनीयम् । कुष्मत्वादनुयोगद्वारेषु चोक्तत्वान्नेह दर्शितमिति । अष्टविधोऽष्टप्रकारः काला दिनेदहारेण ज्ञानाचारो ज्ञानासेवनाप्रकार इति गाथार्थः । उक्तो ज्ञानाचारः सांप्रतं चारित्राचारमाह ॥ पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिहिं तिहि य गुत्तीहिं ॥ एस चरित्तायारो, अविहो होश नायवो ॥११॥ व्याख्या ॥ प्रणिधानं चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः । अयं चौघतोऽविरतसम्यगृष्टिरपि नवत्यत आह । पञ्चनिः समितिनिस्तिसृनिश्च गुप्तिनिर्यः प्रणिधानयोगयुक्तः। एतद्योगयुक्त एतद्योगवानेव । अथवा पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिष्वस्मिन्विषये एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो य एष चारित्राचारः । आचाराचारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादष्टविधो नवति ज्ञातव्यः समितिगुप्तिन्नेदात् । समितिगुप्तिरूपं च शुनप्रवीचाराप्रवीचाररूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः । उक्तश्चारित्राचारः सांप्रतं तपआचारमाह । बारसविहंमि वि तवे, सप्रिंतरवाहिरे कुसलदिरे ॥ अगिलाइ अणाजीवी नायबो सो तवायारो ॥ १७ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ द्वादश विधेऽपि तपसि प्र. थमाध्ययनोक्तस्वरूपे सान्यन्तरवाह्येऽनशनादिप्रायश्चित्तादिलक्षणे कुशलदृष्टे तीर्थकरोपलब्धे अग्लान्या न राजवेष्टिकल्पेन यथाशक्ति वा अनाजीविको निःस्पृहः फलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्योऽसौ तपाचारः। आचारततोरनेदादिति गाथार्थः। उक्तस्तपत्राचारः । अधुना वीर्याचारमाह ॥ अणिमूहियवल विरियो, परिकम जो जहुत्तमाउत्तो ॥ जॅज अ जहाथाम, नायबो वीरियायारो ॥ १३ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ अनिगृहितबलवीर्यः अनिबुतवाह्याभ्यन्तरसामर्थ्यः सन् पराक्रमते चेटते यो यथोक्तं षट्त्रिंशवक्षणमाचारमाश्रित्येति वाक्यशेषः । पत्रिंशधित्वं चाचारस्य दर्शनशानचारित्राणामष्ट विधत्वात्तपत्राचारस्य च द्वादश विधत्वाचेति । उपयुक्त श्त्यनन्यचित्तः पराक्रमते ग्रहणकाले तत ऊर्ध्वं युनक्ति च योजयति च प्रवर्तयति च यथोक्तं पत्रिंशवदणमाचारमिति सामर्थ्याजम्यते यथास्थानं यथासामर्थ्य यो ज्ञातव्योऽसौ वीर्याचारः।याचाराचारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादिति गाथार्थः।यन्निहितोवी यांचारः।तदनिधानाचाचार इति।सांप्रतं कथामाह ॥अठकहा कामकहा, धम्मकहाचे वमीसिया य कहा॥ एत्तो एकेका वि य, णेगविहा होश नायबा ॥१७॥ दारं॥व्याख्या॥ श्रर्थकयेति विद्या दिरर्थस्तत्प्रधाना कथार्थकया। एवं कामकथा धर्मकथा चैव मिश्रा च कथा । श्रत आसां कथानां चैकैकापि च कथा अनेकविधा नवति ज्ञातव्येत्युपन्य Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. 1 स्तगाथार्थः । अधुनार्थकथामाह ॥ विद्या सिप्पसुवार्ड, अणिवेर्ड संचर्ड य दरकत्तं ॥ सामं दंको जेर्ज, जवप्पयाणं च कहा || १९०५ || दारं || व्याख्या || विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वेदः संचयश्च ददत्वं साम दण्डो नेद उपप्रदानं चार्थकथा | अर्थप्रधान त्वादित्यक्षरार्थः । जावार्थस्तु वृद्ध विवरणादवसेयः । तच्चेदम् । विद्यं पडुच्चचकहा । जो विद्यre वणिति । जहा एगेण विज्ञा साहिया । सा तस्स पंचयं पप्पनाये देश | जहा वा सस्स विद्याहरचक्कवहिस्स विद्यापजावेण जोगा उवणया । सबइस्स उप्पत्ती जहा य सहकुले वहितो । जहा य महेसरो नामं कयं । एवं निरवसेसं ज हावस्सए जोगसंग सुतहा जाणियवं । विद्यत्ति गयं । इयाणिं सिप्पत्ति | सिप्पेणहो जव जिइति । एवं उदाहरणं कोक्कासो जहावस्सए । सिप्पेत्ति गयं । इयाणिं जवाएति । एव दितो चाणक्को । जहा चाणक्के बहुविदेहिं हो जबकि । कीं । दो मन धाउरत्तानं । एवं पि काण्यं जहावस्सए तहा जाणियवं । जवाए त्ति गयं । श्याणिं णि संच य एकमेव उदाहरणं मम्मणवाणि । सो वि जहावस्सए तहा जाणियवो । सांप्रतं ददत्वं तत्सप्रसङ्गमाह ॥ साहसु दरक- तणेणुसेही सुर्जय रुवे ॥ बुद्धीए मच्चसु, जीवइ पुसेहिं रायसु ॥ १०६ ॥ दारं ॥ दरकत्तणयं पुरिस-स्स पंचगं सगमाहु सुंदेरं ॥ बुद्धी पुए साहस्सा, सयसाहस्साईं पुन्नाई ॥ १९७ ॥ व्याख्या ॥ ददत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चकमिति पञ्चरूपकफलम् । शतिकं शतफलमाह सौन्दर्यं श्रेष्ठिपुत्रस्य । बुद्धिः पुनः सहस्रवती सहस्रफला मन्त्रिपुत्रस्य । शतसहस्राणि पुण्यानि शतसहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथार्थः । जावार्थस्तु क थानकादवसेयः । तच्चेदम् । जहा बंजदत्तो कुमारो कुमारामच्चपुत्तो से ठिपुत्तो सह वाहतो । एए चरो वि परोप्परं उल्लावे । जहा को ने केण जीव । तब रायपुत्तेष उन्तं श्रहं पुन्नेहिं जीवामि । कुमाराम पुत्ते नयिं श्रहं बुद्धीए । सेठिपुतेष नणियं अहं रूवस्सित्तणेण । सबवाहपुत्तो र अहं दरकत्तणेण । तेति गंतुं विषामो | ते गया असं यरं जब ति । उद्या वासिया । दरस आदेसो दिलो सिग्धं जत्तपरिद्वयं आदि। सो वीडिंगंतुं एगस्स थेरवा स्वि हि । तस्स बहुगा कश्या एंति । तदिवस को वि ऊसको सो ए पहु प्पत्ति पुडए बंधे ं । तर्ज सववाहपुत्तो दरकत्तणेण जस्स जं जवइ लवणतेल्लघय गुडसुं विमिरिय एवमादि तस्स तं देश | अविसिहो लाहो लो । तुही जण । तु म्हेउ आगंतुया उदादु वछवया । सो जइ आगंतुया । तो यह गिहे अपरिग करेऊह । सो जणइ असे मम सहाया उद्या अवंति । तेहिं वा नाहं गुंजा मि तेण नणियं सव्वे वि एंतु। आगया । तेण ते सिं नत्तसमालह तंबोलाइ उवउत्तं। तं पंचतं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२ए रूवयाणं । विश्यदिवसे रूवस्सी वणियपुत्तो वुत्तो। अद्य तुमे दायवो जत्तपरिवर्ड । एवं नवज ति । सो उठेऊण गणियापाडगं गर्ड अप्पयं मंडेड । तब य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी वहूहिं रायपुत्तसेहिपुत्तादीहिं मग्गिया।णे। तस्स य तं रूवसमुदयं दखूण खुनिया। पडिदासियाए गंतूण तीए माऊए कहियं । जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिहिं दे। त सा नणानण एयं । नण मम गिहमणुवरोहण एग्रह । श्हेव जत्तवेलं करेबह । तहेवागया। सर्छ दववर्ड कर्ड । तश्य दिवसे बुद्धिमंतो अमच्चपुत्तो संदिछो।अद्य तुमे जत्तपरिवर्ड दायबो। एयं हवउत्ति। सो गर्ड करणसालं। तब य ता दिवसो ववहारस्स तिस्स परिबेअं नगन। दो सवत्ती। तासिं जत्ता उवर । एकाए पुत्तो अविश्यरी अपुत्ता य । सा तं दारयं णेहेण उवचर । नण य मम पुत्तो । पुत्तमाया नण य मम पुत्तो तासिं ण परि विद्यश् । तेण जणियं अहं बिंदामि ववहारं । दार उहा कचज दवं पि उहा एव । पुत्तमाया लण। ण मे दवेण कचं दारगो वि तीए नवज जीवंतं पासिहामि पुत्तं । श्यरी तुसिणीया अब । ताहे पुत्तमायाए दिलो । तहेव सहस्सं उवउंगो । चनने दिवसे रायपुत्तो नपि। अद्य रायपुत्त तुम्हेहिं पुमाहिएहिं जोगवहणं वहियवं।एवं नवज ति। तर्ज रायपुत्तो तेसिं अंतिया जिग्गंतुं उद्याणे हिउँ । तंमि य एयरे अपुत्तो राया म। आसो अहिवासि जंमि रुकवायाए रायपुत्तो णिवलो सा ण उयत्तति । त आसेण तस्सोवरि गश्कण हिंसितं। राया य अन्निसित्तो। अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि । एवं अबुप्पत्ती नव । दरकत्तणं ति दारं गयं । श्याणिं सामनेयदंमुवप्पयाणेहिं चाहिं जहा अबो विढप्पत्ति । एनिमं उदाहरणं । सियालेण नमंतेण हली मर्छ दिको । सो चिंते लछो मए उवाएण ताव पिठएण खाश्यहो । जाव सीहो ागर्छ । तेण चिंतियं सचिरेण गश्यवं । एयस्स सीहेण जणियं । किं अरे नाश्णय अविद्य। सियालेण नणियं आमंति माम । सीहो नण किमेयं मयं ति। सियालो नण। हबी। केण मारिज। वग्घेण । सीहो चिंते। कहमहं ऊणजातिएण मारियं नरकामि । गर्म सीहो । णवरं वग्यो आगउँ । तस्स कहियं सीहेण मारिजे। सो पाणियं पाजं णिग्ग: । वग्यो हो । एस ने। जाव का थागर्छ । तेण चिंतियं जर एयस्स ण देमि तर्जु काउकाउ त्ति वासियसद्देणं अमे कागा एहिंति । तेसिं कागरडणसदेणं सियालादि अमे बहवे एहिति । कित्तिया वारेहामि । अर्ड एयस्स उबप्पयाणं देमि तेण तर्न तस्स खंड वित्ता दिलं । सो तं घेत्तृण गर्छ । जाव सियालो याग। तेण णायमेयस्त हृढेण वारणं करेमि । निजडिं काऊण वेगो दिलो । हो सियालो। उक्तं च ॥ "उत्तम प्रणि Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " I 1 १२० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. पातेन शूरं नेदेन योजयेत् ॥ नीचमल्पप्रदानेन समं तुल्यपराक्रमैः ॥ १॥" इत्युक्तः कथागाथाया जावार्थः । उक्तार्थकथा सांप्रतं कामकथामाह ॥ रूवं वर्ज वेसो, दरकत्तं सिकियं च विससु ॥ दिहं सुयमणुनूयं च संथवो चैव कामकहा ॥ १०८ ॥ ॥ व्याख्या ॥ रूपं सुन्दरं वयश्चोदयं वेष उज्ज्वलः । दाक्षिण्यं मार्दवम् । शिक्षितं विषयेषु शिक्षा च कलासु । दृष्टमद्भुतदर्शनमाश्रित्य । श्रुतं चानुभूतं च संस्तवश्च परिचयश्चेति कामकथा । रूपे च वसुदेवादय उदाहरणम् । वयसि सर्व एव प्रायः कमनीयो नवति लावण्यात् । उक्तं च ॥ यौवनमुदग्रकाले, विदधाति विरूपकेषु लावण्यम् । दर्शयति पाकसमये, निम्बफलस्यापि माधुर्यम् । इति । वेष उज्ज्वलः कामाङ्गम् । यं कंचन उज्ज्ववेषं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते इति वचनात् । एवं दा दिण्यमपि । “पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम्” इति वचनात् । शिक्षा च कलासु कामाङ्गं वैदग्ध्यात् । उक्तं च ॥ " कलानां ग्रहणादेव सौनाग्यमुपजायते ॥ देशकालौ त्वपेक्ष्यासां प्रयोगः संनवेन्न वा ॥ ” अन्ये त्वत्राचलमूलदेवौ देवदत्तां प्रतीत्येयाचनायां प्रभूतासंस्कृत स्तोकसंस्कृतप्रदानद्वारेपोदाहरणमधिति । दृष्टमधिकृत्य कामकथा यथा । नारदेन रुक्मिणी रूपं दृष्ट्वा वासुदेवे कृता । श्रुतं त्वधिकृत्य यथा पद्मनाभेन राज्ञा नारदाद्द्रौपदी रूपमाकर्ण्य पूर्वसंस्तुतदेवेभ्यः कथिता । अनुभूतं चाधिकृत्य कामकथा यथा तरङ्गवत्या निजानुजवकथने । संस्तवश्च कामकथा परिचयः कारणानीति कामसूत्रपाठात् । अन्ये ति । सइदंसणा पेम्मं, पेमाज रई रईय विस्सनो ॥ विस्संचाई पण, पंचविहं वह पेम्मं ॥ इति गाथार्थः । उक्ता कामकथा । धर्मकथामाह ॥ धम्मका बोहवा, चद्विहा धीरपुरिसपन्नत्ता ॥ अरकेवणि विस्केवलि, संवेगे चे नवे ॥ १९ ॥ व्याख्या ॥ धर्मविषया कथा धर्मकया । असौ बो व्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञता । तीर्थकर गणधर प्ररूपितेत्यर्थः । चातुर्विध्यमेवाह । आदेपणी विदेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति । सूचनात्सूत्रमिति न्यायात्संवेजनी निर्वेदनी चैवेत्युपन्यासगाथादरार्थः । जावार्थ त्वा ॥ यारे हारे, पन्नत्ती चैव दिवा य ॥ एसा चहा खलु कहा उ अरकेवणी होइ ॥ २०० ॥ व्याख्या ॥ चारो लोचास्नानादिः । व्यवहारः कथं चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः । प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना । दृष्टिवादश्च श्रोत्रपेढ्या सूक्ष्मजीवादिनावकथनम् । अन्ये त्वदिधत्याचारादयो ग्रन्था एवं परियह्यन्ते चाराद्यनिधानादिति । एषानन्तरोदिता चतुर्धा । खशब्दो विशेषणार्थः । श्रोत्रपेढ्याचारादिनेदानाश्रित्यानेक प्रकारेति । कथा त्वादेपणी नवति । तुरेवकारार्थः । कथैत्र प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन । श्राक्षिष्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया जव्यप्राणिन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२१ 1 1 इत्यादेपणी नवतीति गाथादरार्थः । इदानीमस्या रसमाह ॥ विद्या चरणं च तवो, पुरिसकारो यस मिगुत्तीर्ड ॥ उवइस्सर खलु जहियं, कहाइ अरकेवणी रसो ॥ ॥ २०९ ॥ व्याख्या ॥ विद्या ज्ञानम् अत्यन्तापका रिजावतमोभेदकम् । चरणं चारित्रं समग्र विरतिरूपम् । तपोऽनशनादि । पुरुषकारश्च कर्मशत्रून्प्रति स्ववीर्योत्कर्षल - कः । समितिगुप्तयः पूर्वोक्ता एव । एतडुपदिश्यते खलु श्रोतृभावापेक्ष्या सामीप्येन कथ्यते । एवं यत्र क्वचिदसावुपदेशः कथाया आपण्या रसो निष्यन्दः सार इति गाथार्थः । गतादेपणी । विदेपणीमाह ॥ कहिऊण ससमयं तो, कहेइ परसमयमह विवचासा ॥ मिठासम्मावाए, एमेव हवंति दो नेया ॥ २०२ ॥ व्याख्या ॥ कथयित्वा स्वसमयं स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयं पर सिद्धान्तमित्येको नेदः । अथवा विपर्यासाख्यत्ययेन कथयति । परसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः । मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव जवतो द्वौ नेदाविति । मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं कथयति सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावादमिति । एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गात्सन्मार्गे श्रोतेति विदेपणीति गाथादरार्थः । जावार्थस्तु वृद्ध विवरयादवसेयः । तच्चेदम् । विरकेवणी सा च विहा पत्ता । तं जहा । ससमयं कहित्ता परसमयं कहे परसमयं कत्ता ससमयं कहे मिठावादं कहेत्ता सम्मावादं कहे । सम्मावाद कत्ता मिळावायं कहे । तब पुत्रिं ससमयं कहित्ता परसमयं कहे । ससगुणे दी । परसमदोसे जवदंसे । एसा पढमा विरकेवणी गया । श्याणि विश्या जइ । पुत्रिं परसमयं कत्ता तस्सेव दोसे नवदंसे । पुणो ससमयं कहे । गुणे य से जवदंसे । एसा विश्या विरकेवणी गया । इयाणिं तया । परसमयं कहेत्ता । तेसु चैव परसमएस जे जावा जिणप्पणी एहिं जावेहिं सह विरुद्धा असंता चैव वियप्पिया ते पुि हत्ता दोसा सिंजा विऊण पुणो जे जिणप्पणी यजावसरिसा घुरकर मित्र कहवि सोमणा जणिया । ते कहर | हवा मिळावादो चित्तं न । सम्मावादो वित्तं । पु िपाहियवाई दिदी कहित्ता । पञ्छा वित्तपरकवाई दिदी कहे। एसा तश्या विरकेवणी गया । इयाणि चत्री विरकेवर्ण। । सा वि एवं चैव । वरं पुविं सोन कहय । पठा यरेति । एवं विस्किवति सोयारं ति गाथाजावार्थ: । सांप्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह ॥ जा ससमयवद्या खलु, होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता ॥ परसमयाणं च कहा, एसा त्रिरकेवणी नाम ॥ २०३ ॥ व्याख्या ॥ यास्वसमयवज । खलुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादत्यन्तं प्रसिद्धनीत्या स्वसिद्धान्तशून्या । अन्यथा विधिप्रतिषेधद्वारा विश्वच्यापकत्वात् स्वसमयस्य तऊर्जा कथैव नास्ति | जवति कथा लोकवेदसंयुक्ता | लोक १६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ग्रहणाप्रामायणादिपरिग्रहः । वेदास्तु रुग्वेदादय एव । एतडुक्ता कथेत्यर्थः । परसमयानां च सांख्यशाक्यादिसिद्धान्तानां कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनद्वारेण एषा विदेपणी नाम । विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गात्सन्मार्गे श्रोतेति विदेपणी । तथाहि सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति नवति सन्मार्गानिमुखस्य जुमतेः कुमार्गप्रवृत्तिः । दोषदर्शनद्वारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरि एत इति मिथ्यालोचनेनेति गाथार्थः । अस्या कथने प्राप्ते विधिमाह । जा ससमए पु िारकाया तं बुनेद्य परसमए ॥ परसासणवरकेवा, परस्स समयं परिक हे हि ॥ २०५ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ या स्वसमयेन स्वसिद्धान्तेन करणभूतेन पूर्वमाख्याता याद कथिता तां क्षिपेत्परसमये कचिद्दोषदर्शनद्वारेण यथास्माकम हिंसादिलक्षणो धर्मः सांख्यादीनामप्येवम् ॥ हिंसा नाम नवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ॥ इत्यादिवचनप्रामाण्या किंत्वसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते । एकान्त नित्या नित्ययो - हिंसाया अावादिति । अथवा परशासनव्यादेपात् 'सुपां सुपो जवन्ति' इति । सप्तम्यर्थे पञ्चमी । परशासनेन कथ्यमानेन व्यादेपे सन्मार्गानिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति । दोषदर्शनद्वारेण केवलमपीति गाथार्थः । उक्ता विदेपणी अधुना संवेजनीमाह ॥ चायपरसरीरगया, इहलाए चैव तहय परलोए ॥ एसा चविदा खलु, कहा संवेयणी हो || २०५ ॥ व्याख्या ॥ श्रात्मपरशरीर विषया इह लोके चैव तथा परलोके । इहलोक विषया परलोक विषया च । एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी जवति । संवेज्यते संवेगं ग्राह्यतेऽनया श्रोतेति संवेजनी । एषोऽधि - कृतगाथादरार्थः । जावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः । तच्चेदम् । संवेयणी कहा } विहा । तं जहा । यायसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयण। इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी । तब श्रायरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं । एवं सुकसो पियमंसवसामेदमाद्विण्हारुचम्मकेसरोमणहृदंतयंता दिसंघाय शिष्फलत्तणेण मुत्तपुरीसजायणत्तणेण य असुइ ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएर । एसा आयसरीरसंवेयणी । एवं परसरीरसंवेयणी वि । परसरीरं एरिसं चेव सुई । हवा पर - स्स सरीरं वणेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएर । परसरीरसंवेयणी गया । श्याणिं इहलोयसंवेयणी । जहा सङ्घमेयं माणुसत्तणं असारमधुवं कदलीयं समाणं । परिसं कह कहेमाणो धम्मकही सोयारस्त संवेगमुप्पाएर । एसा इहलोयसंवेयणी गया । श्याणिं परलोयसंवेयणी । जहा देवा व इस्सा विसायमयको लोहाइएहिं डुरके हिं 1 मिनूया किमंग पुण तिरियनारया । एयारिस कह कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाए । एसा परलोयसंवेयणी गय त्ति गाथाजावार्थः । सांप्रतं शुजकर्मोदया Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १२३ | 1 शुजकर्मदयफलकथनतः संवेजनी रसमाह ॥ वीरिय विजव गिट्ठी, नाणंचरणदंसणा तह इट्ठी ॥ वइस्स खलु जहियं, कहाइ संवेयणीइ रसो ॥ २०६ ॥ व्याख्या ॥ वीर्यवैक्रियस्तिपःसामर्थ्योद्भवा आकाशगमनजङ्घाचारणा दिवीर्यवै क्रिय निर्माणलक्षणा | ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्द्धिः । तत्र ज्ञानर्द्धिः “ पनू णं जंते चोदसपुर्वी घमा घमसहस् सहस्सं विवित्तए । हंता पहू विजवित्तए । तहा ॥ "जं साली कम्मं, खवे बहुया हिं वासकोडी हिं ॥ तं पाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमत्तें ।” इत्यादि । तथा चरपर्द्धिः । नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इत्यादि । दर्शनर्द्धिः प्रशमादिरूपा । तथा "सम्म दिदी जीवो, विमाणवऊं ण वंधए आउं ॥ जइ विए सम्मत्तजढो, अव ण वा पुविं" इत्यादि । उपदिश्यते कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः । उक्ता संवेजनी निवेदनीमाह || पावाणं कम्मा, अविवागो कहिए जब ॥ इह य परब य लोए, कहा उ यिणी नाम ॥ २०७ ॥ व्याख्या ॥ पापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुन विपाकः दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र यस्यां कथायामिह च परत्र च लोके इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक एवोदीर्यन्ते । इत्यनेन चतुर्भङ्गिकामाह । कथा तु निवेदनी नाम निर्वेद्यते नवादनया श्रोतेति निवेदनी एष गाथादरार्थः । जावार्थस्तु वृद्ध विवरणादवसेयः । तच्चेदम् । " श्याणिं निवेयणी। सा चउविहा । तं जहा इह लोए पुच्चिला कम्मा इह लोए चेव डुह विवागसंजुत्ता नवं तिति । जहा चोराएं पारदारियाणं एवमाइ । एसा पढमा नियी । श्या विश्या । इह लोए पुच्चिमा कम्मा परलोए डुहविवागसंजुत्ता नवंति । कहं । जहा नेरश्याणं अन्नम्म जवे कथं कम्मं निरयनवे फलं देइ । विश्या निवेयणी गया। श्याणिं तया । परलोए इच्चिमा कम्मा इह लोए हविवागसंजुत्ता नवंति । कहूँ । जहा बालप्पनितिमेव। अंतकुलेसु उप्पन्ना खयकोढादी हिं दारिद्देण य यनिनूया संति । एसा तश्या यिणी । इयाणिं चा वेियंणी । परलोए डुचिणा कम्मा परलोए चैव कुछ विवागसंजुत्ता जवंति । कहं जहा पुर्वि च्चिषेहिं कम्मेहिं जीवा संडासतुंडे हिं परकी हिं जववद्यन्ति । त ते परयपाजग्गाणि कम्माणि यसं पुषाणि ताणि ताए जातीए पूरिति । पूरिऊण नरयन्नवे वेति । एसा चछा निवेयणी गया । एवं इहलोगो परलोगो वा पसवयं पमुच्च जवइ । तत्र पन्नत्रयस्त मगुस्सनको इह लोगो । श्रवसेसाई तिमि विगई परलोगो ति गाथाभावार्थः । इदानीमस्या एव रसमाह ॥ योवं पि पमायकयं, कम्मं साहियई जहिं नियमा ॥ परासुपरिणामं, कहाइ निवेयी रसो ॥ २०८ ॥ व्याख्या ॥ स्तोकमपि प्रमादकृतमल्पमपि प्रमादजनितं कर्म वेदनीयादि साहियइति कथ्यते । यत्र नियमान्नियमेन । किंविशिष्टमित्याह । प्रनृताशुनप 66 । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. १२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. रिणाम बहुतीव्रफलमित्यर्थः। यथा यशोधरादीनामिति । कथाया निदिन्या रस एष निष्यन्द इति गाथार्थः। संदेपतः संवेगं निर्वेद निवन्धनमाह ॥ सिद्धी य देवलोगो, सुकुचुप्पत्ती य होश संवेगो॥नरगो तिरिकजोणी,कुमाणुसत्तं च निवेळ ॥राव्याख्या॥ सिजिश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च नवति संवेग एतत्प्ररूपणं संवेगहेतुत्वादिति नावः। एवं नरकस्तिर्यग्यो निः कुमानुषत्वं च निर्वेद इति गाथार्थः। आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाह । वेणश्यस्स पढमया, कहा उ अकेवणी कहेयवा॥तो ससमयगहियत्रो, कहिद्य विरकेवणी पछा ॥ १० ॥व्याख्या॥ विनयेन चरति वैन यिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया आदिकथनेन कथा तु आक्षेपणी उक्तलदाणा कथयितव्या । ततः स्वसमयगृहीतार्थे सति तस्मिन् कथयेटिदेपणीमुक्तलदणामेव पश्चादिति गाथार्थः । किमित्येतदेवमित्याह ॥ अकेवणिअस्कित्ता, जे जीवा ते लनंति संमत्तं ॥ विकेवणी जचं गाढतरागं च मिछत्तं ॥२१॥व्याख्या॥ आक्षेपण्या कथया आदिप्ता आवर्जिता श्रादेपण्यादिप्ता ये जीवास्ते लजन्ते सम्यक्त्वम् । तथा आवर्जनं शुजनावस्य मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमोपायत्वात् । विदेपण्यां नाज्यं सम्यक्वम् । कदाचिवजन्ते कदाचिन्नेति । तबवणात्तथा विधपरिणामनावात् । गाढतरं वा मिथ्यात्वं जममतेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न अष्टव्या इत्यनिनिवेशेनेति गाथार्थः । उक्ता धर्मकथा । सांप्रतं मिश्रामाह॥धम्मो अबो कामो, उवश्स्स जब सुत्तकव्वेसु ॥ लोगे वेए समए, सा उ कहा मीसिया णाम ॥ २१ ॥ व्याख्या ॥ धर्मः प्रवृत्त्यादिरूपः।अर्थों विद्यादि।काम श्छादिाउपदिश्यते कथ्यते यत्र सूत्रकाव्येषु सूत्रेषु काव्येषु च तवणवत्सु। केत्यत । आह लोके रामायणादिषु । वेदे यज्ञक्रियादिषु । समये तरङ्गवत्यादिषु । सा पुनः कथा मिश्रा मित्रानाम संकीर्णपुरुषार्थानिधानात् इति गाथार्थः । उक्ता मिश्रकथा तदनिधानाच्चतुर्विधा कथेति । सांप्रतं कथाविपदाता त्याज्यां विकथामाह । अज्ञातखरूपायास्त्यागासंजवादिति ॥ इचिकहा जत्तकहा, राय कहा चोरजणवयकहा य॥नडनदृजनमुहिय कहाउ एसा नवे विकहा॥१३॥ व्याख्या स्त्रीकथा एवंनूता अविडा इत्यादिलक्षणा । नक्तकथा सुन्दरः शास्योदन इत्यादिरूपा। राजकथा अमुकः शोजन इत्यादिलदाणा । चौरजनपदकथा च गृहीतोऽद्य चौरः। स श्छ कदर्थितः। तथा रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा । नटनर्तकजनमुष्टिककथा च एषा नवेछिकथा। प्रेक्षणीयकानां नटो रमणीयः। यहा नर्तकः।यहाजनःजसो नाम वरत्राखेंलकः। मुष्टिको मद इत्यादिलक्षणा विकथा कथालतणविरहादिति गाथार्थः । उक्ता विकथा श्दानी प्रज्ञापकापेक्षयासां प्राधान्यमाह ॥ एया चेव कहा, पन्नवगपरूवग समासद्य ॥ अकहा कहा य विकहा, हविद्यपुरिसंतरं पप्प ॥१४॥व्याख्या॥ एता एवा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । २२५ कलक्षणाः कथाः। प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः। प्रज्ञापकश्चासौ प्ररूपकश्चेति विग्रहस्तमववोधकप्ररूपकम्। नतु घरभ्रमणकल्पंयतोनकिंचिदवगम्यत इत्यर्थः। समाश्रित्य प्राप्य। किमित्याह ।अकथा वदयमाणलक्षणा कथा चोक्तस्वरूपा विकथा चोक्तस्वरूपैव जवति पुरुषान्तरं श्रोतृलक्षणं प्राप्यासाद्य साध्वसाध्वाशयवैचित्र्यात्सम्यकश्रुतादिवत् । अन्ये तु प्रज्ञापकं मूलकर्तारं प्ररूपकं तत्कृतस्याख्यातारमिति व्याचदते। नचैतदतिशोजनं पलवयपरूवगे समासद्यत्ति पाठप्रसङ्गादिति गाथार्थः । श्दानीमकथालदणमाह ॥ मिछत्तं वेयंतो, जं अन्नाणी कहं परिकहेश ॥ लिंगबो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्वमिति मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां कां चिदशानी कथां कथयति । अझानित्वं चास्य मिथ्याष्टित्वादेव । यद्येवं नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यात्ववेदकस्याज्ञानित्वाव्य निचारादिति चेन्न । प्रदेशानुनववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यनिचारादिति। किंविशिष्टोऽसावित्याह। लिङ्गस्थो वा अव्यप्रत्रजितोऽङ्गारमर्दकादिः । गृही वा यः कश्चिदितर एव।सा एवं प्ररूपकप्रयुक्तयुक्त्या श्रो. तर्यपि प्रज्ञापकतुल्यपरिणाम निबन्धना कथा देशिता समये । ततः प्रतिविशिष्टकथाफखाजावादिति गाथार्थः। अत्रैव प्रक्रमे कथामाह ॥ तवसंजमगुणधारी, जं चरणरया कहिति सनावं ॥ सबजगजीवहियं, सा उ कहा देसिया समए ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ तपःसंयमगुणान् धारयन्ति तबीलाश्चेति तपःसंयमगुणधारिणः यां कांचन चरणरताश्चरणप्रतिवझा नत्वन्यत्र निदानादिना कथयन्ति सन्नावं परमार्थम् । किविशिष्टमित्याह । सर्वजगजीवहितं नतु व्यवहारतः कतिपयसत्व हितमित्यर्थः । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सव कथा निश्चयतो देशिता समये निर्जराख्यस्वफलसाधनात्कर्तृणां श्रोतृणामपि चेतःकुशलपरिणामनिवन्धना कथैव नोचेनाज्येति गाथार्थः । श्हैव विकथामाह ॥ जो संजर्ड पमत्तो, रागदोसवसगउँ परिकहेश ॥ सा उ विकहा पवयणे, पमत्ता धीरपुरिसेहिं ॥२१७ ॥ व्याख्या ॥ यः संयतः प्रमत्तः कपायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशगः सन्न तु मध्यस्थः परिकथयति किंचित् । सा तु विकथा प्रवचने सा पुनर्विकथा सिद्धान्ते प्रज्ञप्ता धीरपुरुषैः तीर्थकरादिनिः। तथाविधपरिणामनिवन्धनत्वात् कर्तृश्रोत्रोरिति।श्रोतृपरिणामन्नेदे तु तं प्रति कथान्तरमेवेवं सर्वत्र नावना कायेति गाथार्थः। सांप्रतं श्रमणेन यथाविधा न कार्या तया विधामाद । सिंगाररसुत्तश्या, मोहकुवियफुफुगा हसहसिंति ॥ ज सुणमाणस्स कहं, समणेण ए सा कहेयवा ॥१७॥ व्याख्या ॥ शृङ्गाररसेन मन्मथदीपकेन उत्तेजिता थधिकं दीपिता केत्याह । मोह एव चारित्रमोहनीयकर्मोदयसमुठात्मपरिणामरूपः कुपितफंफुकाघटितकुकूला हसहसिंतित्ति जाज्वल्यमाना जायत इति वाक्यशेपः । यां एवतः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कथां मोहोदयो जायत इत्यर्थः । श्रमणेन साधुना न सा कथयितव्या । अकुशलनिबन्धनत्वादिति गाथार्थः। यत्प्रकारा कथनीया तत्प्रकारामाह ॥ समणेण कहेयवा, तवनियमकहा. विरागसंजुत्ता ॥ जं सोऊण मणूसो, वच्च संवेगनिदेयं ॥ २१ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणेन कथयितव्या। किंविशिष्टेत्याह । तपोनियमकथा । अनशनादिपञ्चाश्रवविरमणादिरूपा । सापि विरागसंयुक्ता न निदानादिना रागादिसंगता । अत एवाह । यो कथां श्रुत्वा मनुष्यः श्रोता ब्रजति गबति । संवेयणिवेदं ति।संवेगं निर्वेद चेति गाथार्थः । कथाकथन विधिमाह ॥ अबमहंती वि कहा, अपरिकिलेसवहुला कहेयवा ॥ हंदि महयाचडगर-तणेण अबं कहा हण ॥ २२ ॥ व्याख्या॥ महार्थापि कथा अपरिक्वेशबहुला कथयितव्या । नातिविस्तरकथनेन परिक्वेशः कार्य इत्यर्थः । किमित्येव मित्यत आह । हंदीत्युपदर्शने। महता चमकरत्वेन अतिप्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः। किमित्याह । अर्थ कथा हन्ति नावार्थं नाशयतीति गाथार्थः । विधिशेषमाह ॥ खेत्तं कालं पुरिस, सामबं चप्पणो वियाणेत्ता ॥ समणेण उ अणवद्या, पगयंमि कहा कहेयवा ॥ २१ ॥ तश्यतयणणिद्युत्ती संमत्ता ॥ व्याख्या ॥ देनं नौमादि नावितं कालं दीयमाणादिलदणं पुरुषं पारिणामिकादिरूपं सामर्थ्य चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः। श्रमणेन त्वनवद्या पापानुबन्धरहिता कथा कथयितव्या नान्येति गाथार्थः। उक्ता कथा तदनिधानाजतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पनस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चाररणीयम् । तच्चेदम् । संजमे इत्यादि । अस्य व्याख्या । इह संहितादिक्रमः कुमः । नावार्थस्त्वयम् । संयमे उमपुष्पिकाव्यावर्णितस्वरूपे शोजनेन प्रकारेणागमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानस्तेषाम् । त एव विशेष्यन्ते । विविधमनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण जावसारं मुक्ताः परित्यक्ता बाह्यान्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्ता स्तेषाम् । त एव विशेष्यन्ते त्रायन्ते आत्मानं परमुन्नयं चेति त्रातारः। आत्मानं प्रत्येकबुझाापरं तीर्थकराः स्वतस्तीर्णत्वाकुनयं स्थविरा इति। तेषामिदं वदयमाणलदाणमनाचरितमकटपम् । केषामित्याह। निग्रन्थानां साधूनामित्यनिधानमेतत् । महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः । अथवा महान्तमेषितुं शीलं येषां ते महैषिणस्ते. षाम् । इह च पूर्वपूर्वनाव एवोत्तरोत्तरजावो नियतो हेतुहेतुमनावेन वेदितव्यः । यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽतएव विप्रमुक्ताः । संयमसुस्थितात्मनिबन्धनत्वाहिप्रमुक्तः । एवं शेषेष्वपि नावनीयम् । अन्ये तु पश्चानुपूर्व्या हेतुहेतुमन्नावमिदं वर्णयन्ति । यत एव महर्षयोऽतएव निग्रन्थाः । एवं शेषेष्वपि अष्टव्य मिति सूत्रार्थः । सांप्रत यदनाचरितं तदाह । सूत्रम्। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। १२० उद्देसियं कीयगडं, नियागमनिहमाणि य॥ - राश्नत्ते सिणाणे य, गंधमले य वीयणे॥॥ - (श्रवचूरिः) यदनाचीर्णं तदाह । साध्वाद्याश्रित्योद्देशनमारम्नस्य तत्र नवम् (१) क्रयकीतं। नावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्वाद्यर्थमिति गम्यते । तेन निर्वर्तितं क्रीतकृतं (२) नित्यागमप्रमाणीकृतामन्त्रितस्य पिंगस्य ग्रहणं (३) अन्याहृतं बहुवचनं स्वपरग्रामादिनेदख्यापनार्थम् (४) रात्रिजुक्तं दिवसगृहीतदिवसचुक्तादि चतुर्धा (५) स्नानं सर्वदेशनेदनिन्नम् । देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणा दिपदमप्रदालनमपि । सर्वस्नानं प्रतीतम् (६) गन्धं कोष्टपुटादि (७) माल्यं ग्रथितादि () वीजनं तालन्तादि (ए) उदेशकादिषु दोषाश्चारम्नादयः स्वयं ज्ञेयाः॥२॥ (अर्थ.) हवे साधुने आचरवाने अयोग्य जे तेज वावन वोलेकरी कहे ठे. उद्देसियंति ( उद्देसियं के ) औदेशिकं एटले साधु आदिकने उद्देशीने तैयार करेला जे आहारादि ते औदिशिक कहियें, ते साधुने अनाचरित ठे, ए एक अनाचरित कह्यु. (१) एवी रीतें आगल एकावन अनाचरित कहेशे. ते प्रत्येक बोलने विषे अनाचरित पदनो संबंध लेवो. (कीयगडं के) कीतकृतम् एटले साधुने अर्थे वेचाथी आणी आपेईं लेबु ते वीजुं क्रीतकृत अनाचरित(२) (नियागं के० ) जे आमंत्रण करे तेनेज घरे नित्य आहार लेवो. अनामंत्रितने घरे सेवो नही. ते नियाग नामक त्रीजुं अनाचरित. (३) (यनिहडाणि य के०) अन्याहतानि च एटले परग्रामथी आवेला पुरुषोयें पोताना ग्रामथकी साधुमाटे लावेलो पदार्थ ते चोथु अन्याहत नामक अनाचरित. (४) (रायन्नत्ते के०) रात्रिनक्तम् एटले दिवाग्रहीतादि चार प्रकारचें रात्रिनोजन करवू, ते पांचमुं रात्रिनक्तनामक यनाचरित. (५) (सिणाणे के०) स्नानं एटले नेत्रप्रदालनादि देशस्नान तथा अवगाहनादि सर्व स्नान करवू, ते उहुं स्नाननामक अनाचरित. (६) (गंधमझे य के०) गंधमाये च, गंध एटले सुगंध चूथा चंदन यादिनु चोपडवू, अने माट्य ते फूलप्रमुखनी माला पहरवी ते सातम ने यापमं गंधमाल्य नामक अनाचीर्ण. (1) (वीवणे के०) व्य. जनम् ते तालवृतादिकनो स्वीकार करवो ते नवमुं व्यजन नामक अनाचरित जाणवू (ए) थही ओदेशिकादिमा जे पारंजादि दोप ठे, ते सहज , माटे लख्या नथी. चनारे खवुद्धियी जाणी लेवा. ॥२॥ (दीपिका ) सांप्रतं यत्पूर्वोक्तमनाचरितं तदेवाह । साधुमुद्दिश्य बारम्नण Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. मौशिकम् (१) क्रयणं साध्वादिनिमित्तं क्रीतं तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम् (२) नियागमामन्त्रितस्य पिएकस्य ग्रहणम् (३) अहिमं स्वकीयग्रामादेः साधु निमित्तमजिमुखमानीतं श्रन्याहृतम् । बहुवचनं स्वग्रामपरग्राम निशीथा दिभेदख्यापनार्थम् (४) रात्रिक्तं रात्रि जोजनं दिवसगृहीतं दिवसक्तं रात्रौ संनिधिरकणेन (१) दिवसगृहीतं रात्रौ मुक्तम् (२) रात्रगृहीतं दिवसक्तं (३) रात्रौ गृहीतं रात्रौ मुक्तम् ( ४ ) इति नेदचतुष्टयलक्षणम् (५) स्नानं देश सर्वभेद जिन्नम् । तत्र देशस्नानं शौचातिरेकेण दिपद्मप्रानमपि । सर्वस्नानं तु प्रतीतमेव ( ६ ) गन्धमाल्यं च गन्धग्रहणात् कोष्ठपुटादिपरिग्रहः ( 9 ) माल्यग्रहणाच्च ग्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य परिग्रहः ( ८ ) वीजनमुष्णकाले तालवृन्तादिना (ए) इदमनाचरितम् । दोषाश्चेह श्रारम्नप्रवर्तनादयः स्वयं बुया वाच्याः ॥ २ ॥ ( टीका) उद्देसियं ति सूत्रमस्य व्याख्या । उदेशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्नस्येत्युद्देशः । तत्र जवमौदेशिकम् ( १ ) क्रयणं क्रीतम् । जावें निष्ठाप्रत्ययः । साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते । तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम् ( २ ) नियागमित्या - मन्त्रितस्य पिएकस्य ग्रहणं नित्यं तत्त्वनामन्त्रितस्य (३) हिडाणि यत्ति । खग्रामादेः साधु निमित्तम जिमुखमानीतमन्याहृतं बहुवचनं स्वग्रामपरग्राम निशीथा दिनेद्ख्यापनार्थम् ( ४ ) तथा रात्रिजक्तं रात्रिनोजनं दिवसगृहीत दिवसक्तादिचतुर्जंगलदणम् ( ९ ) । स्नानं च देशसर्वनेदनिन्नं देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणादिपदाप्रकालनमपि । सर्वस्नानं तु प्रतीतम् ( ६ ) । तथा गन्धमाल्यव्यजनं च गन्धग्रहणात्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः ( 3 ) माल्यग्रहणाच्च प्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य (८) वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एवेदमनाचरितं दोषाश्चौदे शिका दिष्वारम्नप्रवर्तनादयः (ए) स्वाधियावगन्तव्या इति सूत्रार्थः । संनिदीगिमित्ते य, रायपिंडे किमिए ॥ संबाद दंत पहोयणाय संपुचणे देहपलोयणा य ॥ ३ ॥ ( अवचूरिः ) सन्निधीयतेऽनेन आत्मा दुर्गताविति संनिधिः घृतगुडादीनां संचय (v) गृहिमात्रं गृहस्थजाजनम् ( १० ) राज पिएकोनृपाहारः ( ११ ) कः किमिति यो दीयते स कि मिकः ( १२ ) संहनमस्थिमांसत्व ग्रोमसुखतया चतुर्धा मर्दनं ( १३ ) दंतप्रधावनं चाङ्गुल्यादिना दालनम् ( १४ ) संप्रश्नः संवादो सावद्यगृहस्थविषयः कीदृशोऽहमित्यादिरूपो वा ( १५ ) देहप्रलोकनं चादर्शादौ ( १६ ) ॥ ३॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । ११ए . (अर्थ.) संनिहित्ति ( संनिहि के) संनिधिः, जेथी आत्मा पुर्गतिने संनिधि एटले नजीक जाय ,ते संनिधि एटले घृतगुमादिकनो संचय करवो,ते संनिधिनामक दशमुं अनाचारित ( गिहिमित्ते य के०) गृह्यमत्रं च एटले गृहस्थy पात्र नोजनादिकने अर्थ सेवं, ते अगियारमुं गृह्यमन नामक अनाचरित. ( रायपि के) राजपिमः एटले राजाएं आपेलो आहार लेवो, ते वारमुं राजर्पिम नामक अनाचरित. ( किमिबए के) किमिबकः एटले “जे को भोजननी चा करनार हो ते अहिं आवो अने लोजन लजाउँ.” एवो घोष करीने ज्यां आहार अपाय ठे, तेवा दानशालादिकने विषे जे आहार लेवो, ते किमिठकनामा तेरमुं अनाचरित. (संवाहणे के). संवाहनम् एटले जेथी अस्थि, मांस, त्वचा अने रोम एमने सुख थाय एवं तैलादिकथी मर्दन करवं ते चौदमुं संवाहन नामक अनाचरित. (दंतपहोयणा य के) दंतप्रधावना च एटले अंगुख्यादिकं करी दांतण करवू, मुख प्रदालन करवू, ए पंदरमुं दंतप्रधावन नामक अनाचरित. (संपुठण के) संप्रश्नः एटले गृहस्थने सावध प्रश्न ते कुशलदेमसंबधी प्रश्न करवो, यथवा पोतानी शरीरनी शोजाना अनिमानयी एवं पूq के, हुँ केवो तुं ? ए संप्रश्न नामक सोलमुं अनाचरित. (देहपलोयणा य के) देहप्रलोकना च एटले दर्पण आदिकमां शरीरनी कांति जोवी, ते सत्तरमुं देहप्रलोकन नामक अनाचरित जाणवू. ए संनिधि आदिकनुं आचरण करवामां परिग्रह, प्राणातिपात श्त्यादि दोष ने ते पोतानी मेले जाणवा. ॥३॥ (दीपिका) पुनरिदमनाचरितम् । संनिधीयतेऽनेन यात्मा दुर्गताविति संनिधिः । गुमघृतादीनां संचयकरणम् (१०)। गृह्यमत्रं च गृहस्थन्नाजनम् (११)। राजर्पिमश्च नृपाहारः (१५)। किमसि इत्येवं यो दीयते स किमिठकः । राजपिंमोऽन्यो वा सामान्येन ( १३ )। तथा संवाधनं अस्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुविधं मर्दनम् (१४)। दन्तप्रधावनं चाङ्गल्यादिना मुखझालनम् ( २५ ) । संप्रश्नः सावद्यो गृहस्थ विषयः। शोनार्थ कीशो वाहमित्यादिरूपः (१६)। देवप्रलोकनं च थादर्शादौ (१७)। यनाचरितदोषाश्च संनिधिप्रतिष परिग्रहमाणातिपातादयः स्वबुड्या वाच्याः ॥३॥ (टीका ) इदं चानाचरितमित्याह । संनिहित्ति सूत्रमत्य व्याख्या । संनिधीयते. ज्नयात्मा पुगताविति संनिधिः । तृतगुमादीनां संचय क्रिया । गृह्यमत्रं गृहन्यभाजनं च तथा राजपिंगो नृपाहारः । किमिठतीत्येवं यो दीयते स किमिशः रा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. जपिएकोऽन्यो वा सामान्येन । तथा संबाधनम स्थिमांसत्वग्रोम सुखतया चतुर्विधं मर्दनम् । दन्तप्रधावनं चाङ्गव्यादिना कालनम् । तथा संप्रश्नः सावद्यो गृहस्थ विषयः । की शो वाहमित्यादिरूपः । देहप्रलोकनं चादर्शादावनाचरितम् । दोषाश्च सं निधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः । अहावए य सूत्रमस्य व्याख्या | अष्टापदं चेति । अठावर य नालीए, बत्तस्स य धारणठाए ॥ तेगिच्चं पाहणापाए, समारंभं च जोइणो ॥ ४ ॥ (अवचूरिः) श्रावति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादिविषयं १७ | नालिका द्यूतनेदः । यत्र मा भूत्कलयाप्यन्यथाऽक्षपातनमिति नालिकाः पात्यंते । नालिकायाः प्रधानत्वख्यापनार्थं नेदेनोपादानं सकलद्यूतोपलक्षणार्थं च १८ | छत्रस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थाय ग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा । प्राकृतत्वादनुस्वारलो visartaकारलोपौ च दृष्टव्यौ १५ । चिकित्साया नावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् ( २० ) । उपानहौ पादयोरिति साभिप्रायकम् । श्रापत्कालपरिहारार्थम् उपग्रहधारणे न दोषः ( २१ ) । समारम्नश्च ज्योतिषोऽनेरिति ( 22 ) । दोषास्त्वष्टापदादीनां कुमा एवेति ॥ ४ ॥ (अ) वति । (हावए य के० ) अष्टापदं च एटले द्यूत रमनुं, ते अढारमं अष्टापदनामक नाचरित (नालीए के० ) नालिका एटले कलायें करी पासो पोतानी छाप्रमाणे न पाडवो जोइयें माटे नलिकामां नाखीने रमवुं, एवं एक जातनुं द्यूत, अथवा नासिकाशब्दे गंजीफो, सेज इत्यादि क्रीडा लेवी. ते क्रीडायें रमवुं ते नालिका नामक योगीशमं नाचरित. रोगादिनिमित्तविना ( उत्तस्स य के० ) वत्रस्य च एटले बत्रनं (धारण के०) धारणं एटले धारण करवुं ते ( पठाए के०) अनर्थाय एटले अनर्थने माटे बे. अर्थात् अर्थकार बे. ए वीशमं उत्रधारण नामक अनाचरित. ( तेगिष्टं के० ) चैकित्स्यम् एटले सावद्य वैद्यक्रिया स्वार्थ अथवा परार्थ करवी, ते एकवीशमं चैकि त्स्यनामक नाचरित. ( पाए के० ) पादयोः एटले पगनेविषे ( वाहणा के० ) उपानहौ एटले पगरखां पहेरवां, ते बावीशभुं उपानह नामक नाचरित. ( जोश्णो के० ) ज्योतिषः एटले अग्निनो ( समारंभ के० ) समारंभः एटले आरंभ करवो, ते त्रेवीशमं ज्योतिःसमारंभ नामक नाचरित जाणवुं ॥ ४ ॥ (दीपिका.) किंच अष्टापदमिति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थ मधिकृत्य निमित्तादि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३१ विषयम् अनाचरितम् १० तथा नालिका चेतियूतविशेषलक्षणा यत्र मानूत् कलयाऽन्यथा पाशकपातन मिति नालिकया पात्यन्त इति।श्यं च अनाचरितम् १ए उत्रस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति।आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वानाचरितं प्राकृतशैल्यात्रानुवारलोपः अकारणकारलोपौ च इष्टव्यौ । तया श्रुतिप्रामाण्यादिति २० तेगिळंति चिकित्साया नावः चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् अनाचरितम् २१ उपानही पादयोरनाचरिते।पादयोरिति सानिप्रायकं नतु यापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २२ समारंजश्च समारम्नणं ज्योतिपो वह्नः २३ दोषाश्च अष्टापदादीनां सुगमा एवेति ॥४॥ (टीका ) अष्टापदं यूतम् । अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयमनाच. रितम् । तथा नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा यत्र मानूत्कलयान्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति । श्यं चानाचरिता । अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्यनिनिवेशनिवन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ नेदत उपादानम् । अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये अनिदधति । अस्मिन् पदे सकलद्यूतोपलक्षणार्थ नालिकामहणमष्टापदद्यूतविशेषपदे चोजयोरिति।तथा उत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनायेत्यागाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्वानाचरितम् । प्राकृतशैल्या चानानुवारलोपोऽकारनकारलोपौ च अष्टव्यौ तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति । तथा तेगिळंति । चिकित्साया नावश्चकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् । तथोपानही पादयोरनाचरिते । पादयोरिति सानिप्रायकम् । नत्वापत्कल्पपरिहारार्थम् उपग्रहधारणेन । तथा समारम्नश्च समारम्नणं च ज्योतिपोऽग्नेस्तदनाचरितमिति। दोपा अष्टापदादीनां कुला एवेति सूत्रार्थः ॥४॥ सिवायरपिमं च, आसंदीपलियंकए ॥ गिदंतरनिसिद्या य, गायस्सुबट्टणाणि य॥५॥ . (थवचूरिः) शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः २३ यासंदीपयी मञ्चकखट्टे (२४) गृहान्तरनिपद्या च योदयोरन्तरालोपवेशनम् । चात्पाटकादिग्रहः (२५) गात्रोद्वर्तनानि च मलापनयनरूपाणि । चादन्यसंस्कारग्रहः ।। ५ ।। (थर्थ) सिद्यायरत्ति। (सिद्यावरपिंडं के० ) शय्यातरपिंडः, झय्या एटले निजादि करवानुं स्थानक ते साधुने यापीने जे पोताना फर्मने दसया कर ठ, ते झरयातर कहीयें, यने ते शय्यातरना घरनो जे पिन एटले थाहार ते चोवीश, श. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. जपिएकोऽन्यो वा सामान्येन । तथा संबाधनम स्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनम् । दन्तप्रधावनं चाङ्गव्यादिना कालनम् । तथा संप्रश्नः सांवयो गृहस्थ विषयः । ढार्थ कीदृशो वाहमित्यादिरूपः । देहप्रलोकनं चादर्शादावनाचरितम् । दोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव वाच्या इति सूत्रार्थः । अठावए य सूत्रमस्य व्याख्या | अष्टापदं चेति । हावर य नालीए, बत्तस्स य धारणठाए ॥ तेगिचं पाहणापाए, समारंभं च जोइणो ॥ ४ ॥ 1 (अवचूरिः) श्रावए ति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादिविषयं १७ | नालिका द्यूतनेदः । यत्र मा भूत्कलयाप्यन्यथाऽपातनमिति नालिकाः पात्यंते । नासिकायाः प्रधानत्वख्यापनार्थं भेदेनोपादानं सकलद्यूतोपलक्षणार्थं च १० । उत्रस्प धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थाय ग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा । प्राकृतत्वादनुखारलो. पोsareeकारलोपौ च दृष्टव्यौ १५ । चिकित्साया नावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् ( २० ) । उपानहौ पादयोरिति सानिप्रायकम् । आपत्काल परिहारार्थम् उपग्रहधारणे न दोषः ( २१ ) । समारम्नश्च ज्योतिषोऽनेरिति ( 22 ) । दोषास्त्वष्टापदादीनां सा वेति ॥ ४ ॥ (अर्थ) श्रावति । (हावए य के० ) अष्टापदं च एटले द्यूत रमनुं, ते अढार अष्टापदनामक अनाचरित. ( नालीए के० ) नालिका एटले कलायें करी पासो पोतानी श्वाप्रमाणे न पाडवो जोश्यें माटे नलिकामां नाखी ने रमवं, एवं एक जातनुं द्यूत, अथवा नालिकाशब्दे गंजीफो, सेज इत्यादि क्रीडा लेवी. ते क्रीडायें रमवुं ते नालिका नामक योगणीशमं नाचरित. रोगादिनिमित्तविना (उत्तस्स य के० ) उत्रस्य च एटले उत्रनु (धारण के०) धारणं एटले धारण करयुं ते ( पाए के०) अनर्थाय एटले अनर्थ नेमाडे बे. अर्थात् अनर्थकारि बे. ए वीशमं उत्रधारणनामक नाचरित.. ( तेगिनं के० ) चकित्स्यम् एटले सावद्य वैद्यक्रिया स्वार्थ अथवा परार्थ करवी, ते एकवीशभुं चैकि त्स्यनामक नाचरित. ( पाए के० ) पादयोः एटले पगनेविषे ( वाहणा के० ) उ. पानहौ एटले पगरखां पहेरवां, ते बाबीशसुं उपानहू नामक अनाचरित. ( जोश्या के० ) ज्योतिषः एटले अग्निनो ( समारंभं के० ) समारंभः एटले आरंभ करवो, ते वीशमं ज्योतिःसमारंज नामक अनाचरित जाणवुं ॥ ४ ॥ ( दीपिका . ) किंच अष्टापदमिति । अष्टापदं द्यूतमर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३१ विषयम् श्राचरितम् १० तथा नालिका चेतिद्यूत विशेषलक्षणा यत्र मानूत् कलयाऽन्यया पाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति । इयं च अनाचरितम् १७ बत्रस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति । गाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वानाचरितं प्राकृतशैल्यात्रानुखारलोपः अकारणकारलोपौ च द्रष्टव्यौ । तथा श्रुतिप्रामाण्यादिति २० तेगिनंति चिकित्साया जावः चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपम् नाचरितम् २१ - पानहौ पादयोरनाचरिते । पादयोरिति साभिप्रायकं नतु श्रापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २२ समारंभश्च समारम्नणं ज्योतिषो वह्नेः २३ दोषाश्च अष्टापदादीनां सुगमा एवेति ॥ ४ ॥ ( टीका ) अष्टापदं द्यूतम् । पदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादि विषयमनाचरितम् । तथा नालिका चेति द्यूतविशेषलक्षणा यत्र मानूत्कलयान्यथा पाशकपातन मिति नलिकया पात्यन्त इति । इयं चानाचरिता । अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतग्रहणे सत्यजिनिवेश निबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थं नेदत उपादानम् । अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये निदधति । अस्मिन् पके सकल तोपलक्षणार्थं नालिका - हणमष्टापदद्यूतविशेषपदे चोजयोरिति । तथा बत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यनर्थायेत्यागाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्वानाचरितम् । प्राकृतशैल्या चात्रानुखारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति । तथा तेगिनंति । चिकित्साया जावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् । तथोपानहौ पादयोनाचरिते । पादयोरिति सानिप्रायकम् । नत्वापत्कल्पपरिहारार्थम् उपग्रहधारणेन । तथा समारम्नश्च समारम्भणं च ज्योतिषोऽग्नेस्तदनाचरितमिति । दोषा अष्टापदादीनां कुला एवेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ सिवायरपिं च संदीपलियंकर || गिदंतर निसिधा य, गायस्सुवट्टणाणि य ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः २३ आसंदीपtara ( 2 ) गृहान्तर निषद्या च द्वयोर्ग्रहयोरन्तरालोपवेशनम् । चात्पाटकादिग्रहः (२५) गात्रोर्त्तनानि च मलापनयनरूपाणि । चादन्यसंस्कारग्रहः ॥ ५ ॥ (अर्थ) सिद्यायरत्त । ( सिद्यायरपिंडं के० ) शय्यातरपिंड, शय्या एटले निप्रादि करवानुं स्थानक ते साधुने पीने जे पोताना कर्मने हलवा करे बे, तेशय्यातर कहीयें, अने ते शय्यातरना घरनो जे पिंक एटले आहार ते चोवीशसुं श Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. य्यातरपिंग अनाचरित जाणवू. तथा (आसंदीपलियंकए के०.) आसंदीपर्यको एटले सादरी अने पलंग. उपलक्षणथी मांची, खाट, मोली इत्यादिक लेवा. हवे ते सादरी विगेरे उपर बेस, ते पञ्चीशमुं, बबीशमुं आसंदीपर्यंक नामक अनाचरित. (गिहंतर निसिधा य के०) गृहांतरशय्या एटले बे घरोना मध्यभागमा सूवू, अथवा उपासराथी बीजे घरे जश्ने सू, च शब्दश्री पटादिकनो परिग्रह पण जाणवो. ए सत्तावीशमुं गृहांतरशय्या नामक अनाचरित. ( गायस्सुबट्टणाणि य के०) गात्रस्योहर्तनानि च, एटले शरीरना. मलने दूर करवाने अर्थे जहर्तन एटले उवटणां करवां. ए अहावीशमुं अनाचरित जाणवू ॥५॥ (दीपिका) शय्यातरपिंमोऽप्यनाचरितः । शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः । साधूनां वसतिदाता तस्य पिंमः २४ आसन्दकपर्यङ्कको लोकप्रसिझौ. अनाचरितौ श्या३६ तथा गृहान्तरनिषद्या गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तराल तत्र जपवेशनम् । चशब्दात् पाटकादिपरिग्रहः २७ तथा गात्रस्य कायस्य उद्वर्तनानि पङ्कापनयनलकणानि | चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः ॥५॥ - (टीका) किंच । सद्यायरसूत्रमस्य व्याख्या। शय्यातरपिएमश्चानाचरितः। शय्या वसतिस्तया तरति संसार मिति शय्यातरः साधुवसतिदाता तत्पिणमः । तथा आसन्द कपर्यौ अनाचरितौ । एतौ च लोकप्रसिजावेव। तथा गृहान्तरनिषद्यानाचरिता। गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम् । चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः । तथा गात्रस्य कायस्योहर्तनानि चानाचरितानि । उहतनानि पङ्कापनयनलदणानि । चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः । इति सूत्रार्थः ॥५॥ गिहिणो वेआवडियं, जा य आजीववत्तिया॥ तत्तानिबुझनोइत्तं, आनरस्सरणाणि य ॥६॥ (अवचूरिः) गृहिणो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनम् (५७) या चाजी: ववृत्तिता जातिकुलादिनिरात्मपालना ( २ ) ततं च तथानिवृतं चात्रिदमाकृत तनो जित्वं मिश्रोदकनोजित्वमित्यर्थः (ए)। आतुरस्मरणानि च धादिसमय पूर्वजुक्तादिस्मरणानि । दोषातुराणां वा शरणान्याश्रयदानादीनि (३०)॥६॥ ... (अर्थ) गिहिणो त्ति । (गिहिणो केश) गृहिणः एटले गृहस्थर्नु (वेश्रावडियं के? वैयावृत्त्यम् एटले वेयावच्च करवं, अशनादिक देवां, तथा गृहस्थनां कामकाज करवाः ... ते जंगणत्रीशमुं अनाचरित. (जाय आजीववत्तिया के) या चाजीववृत्तिता एटी Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .... दशवकालिके तृतीयाध्ययनम् । . . . .. १.३३ पोतानी जाति, कुल इत्यादि तेणे करी पोतानुं उदरपोषण करवं, ते त्रीशमुं श्राजीववृत्तितानामक अनाचरित, (तत्तानिबुमनोइत्तं के) ततानितनोजित्वम् एटले तप्त नाम तपावेवू पण अनिर्वृत एटले त्रण उकाला आव्या विना जे प्रासु• क थयुं नथी एवं पाणी पी. अर्थात् मिश्र उदकनुं पान करवू ते एकत्रीशमुं तप्तानितनोजित्व नामक आनाचरित. ( आजरस्सरणाणि य के०) आतुरस्मरणानि च एटले नूखथी पीडित थवाथी. पूर्वोपमुक्त अवस्थानां स्मरण करवां, अथवा आतुरशरणानि च एटले रोगेकरी पीडा पामता लोकोने आश्रय देवो, ते बत्रीशमुं तुरस्मरणनामा अनाचरित जाणवू ॥६॥ (दीपिका) पुनर्गहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यावृत्तस्य नावो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः श्ए । तथा या च आजीववृतिता जातिकुलगणकर्मशिपानामाजीवनमाजीवः तेन वृत्तिः आजीववृत्तिः तस्या नाव आजीववृत्तिता जात्यादेराजीवनेन आत्मपालनमित्यर्थः ३० । तप्तानिवृतनोजित्वं ततं च तत् अनिवृतं तप्तानिवृतं अत्रिदंमोवृत्तं चेति समासः । उदकमिति शेषः । तस्य नोजित्वं मिश्र सचित्तोदकनोजित्वमित्यर्थः ३१ । तथा आतुरस्मरणानि च जुधादिना आतुराणां पीडितानां पूर्वोपचुक्तस्मरणानि । अथवा दोषातुराणामाश्रयदानादीनि ३२ ॥६॥ ... (टीका) तथा गिहिणोत्ति सूत्रमस्य व्याख्या । गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं व्यावृतनावो वैयावृत्त्यं गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः । एतदनाचरितमिति । तथा चाजीववृत्तिता जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनमाजीवस्तेन वृत्तिस्तन्नाव आजीवत्तिता । जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः । श्यं चानाचरिता । तथा तप्तानिवृतनोजित्वम् ततं च तदनिवृतं च अत्रिदण्मोतं चेति विग्रहः । उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते । तनोजित्वं मिश्रसचित्तोदकनोजित्वम् इत्यर्थः । इदं चानाचरितम् । तथातुरस्मरणानि च दुधाद्यातुराणां पूर्वोपजुक्तस्मरणानि च अनाचरितानि । आतुरशरणानि वा । दोषातुराश्रयदानानीति सूत्रार्थः॥ ६॥ . मूलए सिंगबेरे.य, नबुखमे अनिबुझे॥ कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए ॥७॥ ' (अवचूरिः) मूलको लोके प्रतीतः (३१) शृङ्गाबेरकं चार्टकम् (३५) श्ळुखएकं चानिवृतमपरिणतं सर्वत्रापि संवध्यते (३३) (३४) कंदो वज्रकंदादिः (३५) मूलं सट्टामूलादि (३६) सचित्तफलं त्रपुषीकर्कट्यादि (३७) बीजं तिलादि श्रामकं सचित्तम् (३०)॥॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. (अर्थ) मूलपति ( अनि के० ) अनिर्वृतं एटले पक थयो नथी एवो ( मूलए के० ) मूलकम् एटले मूलो, ( सिंगबेरे य के० ) श्रृंगवेरं च एटले था, ( खंडे के ० . ) इकुखंडम् एटले सर्व जातिनी सेलडी, ए त्रणे ठेका श्रनिर्वृत ए विशेषण लगाडवुं. पूर्वोक्त एकत्रीश अने ए ए ए सर्व मलीने पात्रीश अनाचरित थयां . ( सचित्ते के० ) सचित्तम् एटले सचित्त एवा ( कंदे के० ) कन्दः एटले वज्रादि कंद, तथा (मूले के० ) मूलम् एटले मूल ए वे वस्तु सचित्त वापरवी, ते अ नाचरित. पूर्वोक्त पात्रीश अनाचरित अने या कन्दानाचरित तथा मूलानाचरित मलीने साडीश अनाचरित थयां . ( आमए के० ) आमम् एटले लीलुं कांचं एai ( फले के० ) फलं, ते कर्कटी आदिक फल अने ( बीए के० ) तिलादिक बीज ए वे लीलां काचां वापरवां, ते क्रमें करी आडत्रीशभुं तथा उगणचालीशमुं नारित जावं ॥ ७ ॥ (दीपिका) पुनः, मूलको लोके प्रतीतः ३ । शृङ्गबेरमाकम् ३४ । इदुखक च लोकप्रतीततम् | अनिर्वृतग्रहणं सर्वत्र निसंबद्ध्यते । इमं च अपरिणतं पर्वान्तं यते । दो वज्रकन्दादिः ३५ । मूलं च सट्टामूलादि सचित्तम् ३७ फलं कर्कव्यादि त्रपुषादि ३० । बीजं च तिलादि ३ए । किं० । श्रामकं सचित्तम् ॥७॥ ( टीका ) किंच मूलपति सूत्रमस्य व्याख्या । मूलको लोकप्रतीतः । शृङ्गवेरं चार्डकम् । तथेक्कुखं च लोकप्रतीतम् । निर्वृतग्रहणं सर्वत्रा निसंबध्यते । निर्वृतमपरिणत मनाचरितमिति । इदुखलं चापरिणतं द्विपर्वान्तं यद्वर्तते । तथा कन्दो वज्रकन्दादिः । मूलं च सहामूलादि सचित्तमनाचरितम् । तथा फलं त्रपुष्यादि । बीजं च तिलादि । यामकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालो य आमए ॥ सामुद्दे पंसुखारे य, काला लोणे यामए ॥ ८ ॥ ( अवचूरिः ) सौवर्चलं (३५) सैन्धवं (४०) लवणं खारी ( ४१ ) रुमालवणं चाकरविशेषस्तद्भवम् (४२ ) सामुद्रं लवणमेव (४३) पांशुकारश्चोपरलवणम् । यद्वा पां शुरूपः (४४) कृष्णलवणं पर्वतैकदेशजम् ( ४५ ) ॥ ८ ॥ (अर्थ) सोवच्चले ति । (सोवच्चले के० ) सौवर्चलम् एटले संचल, ( सिंधवेके ० ) संवं एटले सिंघालू, (लोणे के०) लवणम् एटले सांमरलोण ( रोमालो के० ) रुमालवणम् एटले वैद्यशास्त्रमां जेने रोमक कार कहे बे ते ( सामुद्दे के० ) सामुद्रम Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम्। १३५ एटले समुथी उत्पन्न थतुं मी ते, (पंसुखारे य के०) पांसुदारश्च एटले पांसुदार नामें प्रसिक डे ते, (कालालोणे य के) काललवणम् एटले मेवाडमां उत्पन्न थतुं एक जात, लवण जे ते, ए सौवर्चलादिक ब वस्तु (आमए के०) आमकम् एटले सचित्त होय. तो ते वापरवा नहिं कारण के, ते प्रत्येक अनाचरित बे. पूर्वोक्त जंगणचालीश अने ए सात मलीने सर्व बेतालीश अनाचरित थयां ॥७॥ (दीपिका) पुनः सौवर्चलं ४० सैंधवं पर्वतैकदेशजातम् ४१ लवणं च सांजरलवणम् ४२ रुमालवणं च खानिलवणम् ४३ । एतत्सर्वमामकं सचित्तमनाचरितम् । सामुझं लवणमेव ४४। पांशुदारश्चोषरलवणं ४५ । कृष्णलवणम् पर्वतैकदेशजातम् ४६ । सर्वमामकं ज्ञेयम् ॥ ७॥ (टीका) किंच सोवच्चलेत्ति सूत्रमस्य व्याख्या।सौवर्चलं सैन्धवं लवणं च सांजरलवणं रुमालवणं च।आमकमिति सचित्तमनाचरितम् । सामुदं लवणमेव ।पांशुदारश्चोपरलवणम्।कृष्णलवणं च सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजमामकमनाचरितमिति सूत्रार्थः॥ धुवणे त्ति वमणे य, बलीकम्मविरेयणे ।।४४५० अंजणे-दंतवले य, गायानंगविनूसणे॥ ए॥ ' (अवचूरिः) धूपनमात्मवस्त्रादेः । प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूपनमित्यन्ये (४६) वमनं मदनफलादिना (४) बस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम् (७) विरेचनं दन्त्यादिना औषधविशेषेण (४ए) अञ्जनं रसाञ्जनादि (५०) दन्तकाष्टं च प्रतीतम् (५१) गावाच्यंगस्तैलादिना (५२) विनूषणं गावस्यैव (५३) ॥ ए॥ - ___(अर्थ) धुवणत्ति । (धुवणत्ति के०) धूपन मिति एटले पोतानां वस्त्रादिकने सुगंधमय थवामाटे धूपे ते, अथवा केटला एक कहे, के धुवणत्ति एटले धूमपानमिति एटले रोगादिकनी उत्पत्ति नहीं थवी जोश्ये, तेमाटे धूमपान करवू, ते सुडतालीशमुं धूपननामा अनाचरित. (वमणे य के० ) वमनं च एटले मदनफलादिक औषध लश्ने वांति करवी, ते अडतालीशमुं वमननामक अनाचरित: (बलीकम्म के) वस्तिकर्म. एटले रोगनाशार्थ स्नेहयुटिकादिकें करी अधोछारे पिचकारी मारवी, ते जंगणपचाशमुं वस्तिकर्म अनाचरित.. ( विरेअणे के) विरेचनम् एटले मल शोधवा माटें त्रिफलादि औषध लेवां, ते पचाशमुं विरेचन अनाचरित. ( अंजणे के०) अंजनम् एटले शरीर शोजाने अर्थे कजालादिकें करी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. नेत्र जवां, ते एकावनमुं अंजन अनाचारित ( दंतवसे य के० ) दंतवर्णश्च एटले दांत कर, ते वावनमुं दंतवर्णानाचरित ( गायानंग विनूसणे के० ) मात्राज्यंग विभूषणे, ते गात्रे एटले शरीरने विषे अभ्यंग करवो; ते त्रेपनमुं गात्रायंग नाचरित, विभूषण एटले शरीर उपर अलंकार धारण करवा. ते चोपनमुं भूषण नाचरित जावुं ॥ ए ॥ ( दीपिका ) धूपन मात्मवस्त्रादेः सौगन्ध्यनिमित्तमथवा अनागतव्याधिनिवृत्ति निमित्तं धूमपानमित्यन्ये व्याख्यानयन्ति ४७ । वमनं च मदनफलादिना वान्तिः ४८ । तथा बस्तिकर्म पुंड्र के अधिष्ठाने स्नेहदानम् ४९ । विरेचनं दन्त्या दिना ५० । तथाञ्जनं रसाञ्जनम् ५१ दन्तकाष्ठं च प्रतीतमेव ५२ तथा गात्रान्यङ्गस्तैलादिना ५३ विभूषणं गात्राणामेव ५४ ॥ ए ॥ ( टीका ) किं च धूवणेति सूत्रमस्य व्याख्या । धूपन मित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् । प्राकृतशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते । वमनं मदनफलादिना । वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानम् । विरेचनं दन्त्यादिना । तथा अञ्जनं रसाञ्जनादिना । दन्तकाष्ठं च प्रतीतम् । तथा गात्रान्यङ्गस्तैलादिना । विभूषणं गात्राणामेवेति सूत्रार्थः ॥ एए ॥ सबमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण मदेसिणं ॥ संजमंमि जुत्ताणं, लढुनूयविहारिणं ॥ १० ॥ ( अवचूरिः ) क्रियासूत्रमाह । सर्वमेतदौदेशिकादि यदनन्तरमुक्तं तदनाचीर्णं निग्रन्थानां महर्षीणां साधूना मित्यर्थः । संयमे वा तपसि च युक्तानां लघुभूतो वायुस्तः प्रतिवद्धता बिहारो येषाम् ॥ १० ॥ (अर्थ) हवे पूर्वोक्त प्रकारें चोपन बोलें करी चोपन अनाचार जे वर्जवा योग्य कह्यां, ते कोर्णे वर्जवा ते पण प्रथम " संजमे " इत्यादि गाथामां कयुं बे; तोपण पाहुँ शिष्यने विस्मरण नहीं थाय, ते माटे फरी ए अनाचार साधुयें वर्जवा एम कहें डे सवं ति ( निग्गंथाएं के० ) निर्ग्रन्थानाम् एटले बाह्यान्यन्तर परिग्रहरहित एवा (महेसिणं के० ) महर्षीणाम् एटले महोटा कृषि एवा, (संजमंमि अ जुत्ताणं के० ) १:– आ अनाचरितनी संख्या कोइ ठेकाणें वावन कोइ ठेकाणे त्रेपन अने कोइ ठेकाणे चोपन लोधी छे. मूल मूत्रमां समासघटित शब्दयां कोइ ठेकाणे वे अनाचरित आव्या छेतेनी संख्या एकज गणीये तो सर्व संख्या:बावन थाय छे। अने जुढ़ी गणीए तो त्रेपन तथा चोपन थाय छे. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३७ संयमे च युक्तानाम् एटले संयमने विषे हमेश युक्त रहेला एवा ( लहुनू विहारि - ० ) लघुभूतविहारिणां एटले थोडा उपकरणथी हलवा तेथी वायुसरखो प्रतिबंधरहित जेमनो विहार बे एवा साधुने (एयं के० ) एतत् एटले ए चोपन बोलें करी युक्त एवं (स० ) सर्वम् एटले संपूर्ण (अणान्नं के० ) अनाचीर्ण एटले वर्जववारूप नाचरित ते कयुं ॥ १० ॥ ( दीपिका ) r क्रियासूत्रमाह । सर्वमेतत् पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशद्भेद निन्नमौदेशिकादिकं यत् अनन्तरमुक्तं तत्सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम् । केषामित्याह । निर्ग्रन्थानां महषणां साधूनामित्यर्थः । किंभूतानाम् । संयमे चशब्दात्तपसि युक्तानाम् । पुनः किं० । लघुभूतविहारिणां लघुभूतो वायुस्तद्वत् प्रतिबद्धतया विहारो येषां ते ॥ १० ॥ ( टीका ) क्रियासूत्रमाह । सबमेयं ति सूत्रमस्य व्याख्या । सर्वमेतदौदेशिका दि यदनन्तरमुक्त मिदमनाचरितम् । केषा मित्याह । निर्ग्रन्थानां महर्षीणां साधूना मित्याह । त एव विशेष्यन्ते । संयमे चशब्दात्तपसि युक्तानामनियुक्तानां लघुभूत विहारिणां लघुभूतो वायुः । ततश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषां निगमन क्रियापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ पंचासवपरिक्षाया, तित्ता बसु संजया ॥ पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंया नबुदंसिणो ॥ ११ ॥ ( वचूरिः ) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंभूता जवन्तीत्याह पञ्चाश्रवा हिंसा• दयः परि समंताज्ज्ञातायैस्ते यत ईदृशा तस्त्रिगुप्ताः पञ्चानामिन्द्रियाणां निग्रह - न्तीति निग्रहणाः । धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा निर्यथाः साधव जुर्मोदं प्रति रुजुत्वात् संयमस्तं पश्यन्ति उपादेयतया संयमप्रतिबद्धा इत्यर्थः ॥ ११ ॥ (अर्थ. ) हवे पूर्वोक्त साधुनां लक्षण कहे बे. पंचासवत्ति (पंचासवपरिमाया के० ) पंचाश्रवपरिज्ञाताः एटले हिंसादिक पांच श्राश्रवोने यावजीव जेमणें पच्चख्या बे एवा, ( तिगुत्ता के० ) त्रिगुप्ता: एटले मन, वचन अने काय ए त्र करी गुप्त, अर्थात् मनोगुप्ति, वचनगुप्ति ने कायगुप्ति एना धारण करनार, ( बसु संजया के० ) षट्सु संयताः एटले षड्जीव निकायने विषे संयत, अर्थात् षड्जीव निकाय उपर दया राखनार, ( पंच निग्गहणा के० ) पंच निग्रहणाः, पंचानां एटले दर्शन, रसन, प्राण, स्पर्शन अने श्रवण ए पांच इंडियाने निग्रहणा एटले वश राखनार, अर्थात् जितेंप्रिय एवा, ( धीरा के०) सातजयें करी रहित, ( उघुसिणो के० ) रुजुदर्शिनः १८ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)- मा. एटले मोक्षमार्गने विषे सरल एवा संयमने जोनार अर्थात् उपयोगथी संयमना पालक एवा (निग्गंथा के० ) निर्यथा: एटले निर्बंथ साधु होय . ॥ ११ ॥ (दीपिका) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंभूता जवन्तीत्याह । किंनूतास्ते साधवः । पञ्च च ते त्र्याश्रवाश्च पञ्चाश्रवाः हिंसादयः परि समन्तात् इपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान परिज्ञया प्रत्याख्याता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः । यतः कारणात् ते एवंभूता tara त्रिगुप्ता मनोवाक्कायगु ति निर्गुप्ताः । पुनः किं० । बसु संजया षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यता यत्नवन्तः । पुनः किं० । पञ्च निग्रहणाः पञ्चानामिन्द्रियाणां निग्रहणा निरोधकर्त्तारः । पुनः किं० । धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा । पुनः किंभूताः साधवः । रुजुदर्शिनः । रुजुमदं प्रति शजुत्वात् संयमस्तं पश्यन्ति उपादेयतया इति ऋजुदर्शिनः संयमप्रतिबद्धाः ॥ ११ ॥ ( टीका ) किमित्यनाचरितं यतस्त एवंभूता जवन्तीत्याह । पंचासवसूत्रम् । अस्य व्याख्या । पञ्चाश्रवा हिंसादयः परिज्ञाता द्विविधया परिज्ञया परिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परि समन्ताज्ज्ञाता यैस्ते पञ्चाश्रवपरिज्ञाताः । श्राहितान्यादेराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव । परिज्ञातपञ्चाश्रवा इति वा । यत एव चैवंभूता अत एव त्रिगुप्ता मनोवाक्कायगुप्तिनिः । षट्संयताः षट्सु जी - वनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः । पञ्चनिग्रहणा इति । निगृहन्तीति निग्रहणाः । कर्तरि ब्युट् । पञ्चानां निग्रहणाः । पञ्चानामितीन्द्रियाणाम् । धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा । निर्ग्रन्थाः साधवः । रुजुदर्शिन इति । रुजुर्मोदं प्रति जुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति रुजुदर्शिनः संयमप्रतिबद्धाः । इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ यायावयंति गिम्देसु, हेमंतेसु अवानडा ॥ वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमादिया ॥ १२ ॥ ( अवचूरिः ) ते चैतत्कुर्वन्ति यातापयन्ति ग्रीष्मेषु यातापनां कुर्वन्ति हेमन्तेषु शीतकालेषु प्रावृता वर्षासु प्रतिसंलीना एकाश्रयस्थाः संयताः साधवः सुसमा हिता ज्ञानादिनपराः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्ष करणज्ञापनार्थम् ॥ १२ ॥ ( अर्थ. ) हवे ते पूर्वोक्तगाथामां कहेला रुजुदर्शी साधु समयने जोडूने जे प्रमाणें करे बे, ते कहे बे. जे साधु (गिम्देसु के० ) ग्रीष्मेषु एटले ग्रीष्मकाने विषे अर्थात् उन्हालामां ( प्रायावयंति के० ) खातापयंति एटले ताना करे छे, ( हेमंतेसु केu ) हेमंतेषु एटले हेमंतऋतु अर्थात् शियालाने विषे ( अवा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके तृतीयाध्ययनम् । १३७ उडा के० ) प्रावृताः एटले वस्त्ररहित थका शीतपरीषद सहन करे बे, ( वासासुके० ) वर्षासु एटले वर्षाकालने विषे ( पडिलीणा के० ) प्रतिसंलीनाः एटले एक स्थानकने विषे अंगोपांग संवरीने बेसे बे, एवा ते ( संजया के० ) संयताः एटले संयमना पालक साधु ( सुसमाहिया के० ) सुसमाहिताः एटले ज्ञानादिकने विषे यत्न करनार थाय बे ॥ १२ ॥ (दीपिका) ते च जुदर्शिनः कालं प्रस्तावमधिकृत्य यथाशक्ति एवं कुर्वन्ति । तथाहि श्रातापयन्ति ऊर्ध्वस्थानादिना श्रतापनाः कुर्वन्ति । कदा ग्रीष्मेषु उष्णकालेषु । पुनः कीदृशाः । हेमन्तेषु शीतकालेषु अप्रावृताः प्रावरणरहिता स्तिष्ठन्ति । तथा वर्षासु वर्षाकालेषु प्रतिसंलीना एकाश्रयस्था जवन्ति । संयताः साधवः । पुनः किंभूताः । सुसमाहिता ज्ञानादिषु यत्नपराः ॥ १२ ॥ ( टीका ) ते च जुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्त्येतत्कुर्वन्ति । यायावयंति ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रतापयन्त्यूर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति ग्रीष्मेपूष्णकालेषु । तथा हेमन्तेषु शीतकालेष्वप्रावृता इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति । तथा वर्षासु वर्षाकालेषु संलीना इत्येकाश्रयस्था नवन्ति । संयताः साधवः सुसमाहिता ज्ञानादिषु यत्नपराः । ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्ष करण ज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ परीसहरिनंदता, धूप्रमोदा जिइंदिया ॥ सवदुरकपदीपठा, पक्कमंति मदेसिणो ॥ १३ ॥ ( अवचूरिः ) एतेषां फलमाह । दुःकराणि कृत्वा परीषहा एव रिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते धूतमोहाः । मोहोऽज्ञानम् । जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिताः सर्वदुःखार्थं प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते महर्षयः ॥ १३ ॥ ( अर्थ. ) परीसह त्ति. वली, ( परीसह रिजदंता के० ) परिषहरिपुदांताः एटले सुधातृषादिक बावीस परीषह रूप जे शत्रुर्ज तेमने जेमणें जीत्या बे एवा, तथा ( धूमोहा के० ) धूतमोहाः एटले जेमणें पोतानो मोह दूर करयो ठे, वली (जिइंदिया के० ) जितेंद्रियाः एटले इंडियोना शब्दादिक विषयाने विषे रागद्वेपरहित एवा (महे सिणो के० ) महर्षयः एटले महामुनि साधु ( सबडुकपही एडा के ० ) सर्वदुःखप्रयार्थम् एटले शारीर, मानसिक विगेरे सर्व दुःखरूप व कर्म खपाववा माटे, ( पक्कमंति के० ) प्रक्रामति एटले उद्यम करे ठे. ॥ १३ ॥ (दीपिका) पुनः किं० | परीषहा एव रिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते । पुनः Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. किं । धुतो मोहोऽझानं यैस्ते। पुनः किं । जितेन्द्रियाः शब्दादिविषयेषु रागद्वेपरहिताः।त एवं विधाःसर्वदुःखदयनिमित्तं प्रकामन्ति प्रवर्तन्ते।किंजूताः ।महर्षयः॥१३॥ . ( टीका ) परीसहत्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या । मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिपोढव्याः कुत्पिपासादयः त एव रिपवस्तत्तुल्यधर्मत्वात्परीषहरिपवस्ते दान्ता उपशमं नीता यैस्ते परीषदरिपुदान्ताः । समासः पूर्ववत् । तथा धुतसोहा विदितमोहा इत्यर्थः । मोहोऽझानम् । तथा जितेन्जियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः । त एवंनूताः सर्वदुःखप्रदयार्थ शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्ष्यनिमित्तं प्रक्रामन्ति प्रवर्तन्ते । किं. जूताः । महर्षयः साधव इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ दुकराई करिताणं, दुस्सहाई सदेत्तु य॥ केशब देवलोएसु, केइ सितंति नीरया ॥२४॥ (अवचूरिः) औदेशिकादित्यागादीनि उस्सहानि सहित्वातापनादीनि । के चनात्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गन्तीति वाक्यशेषः । केचन सिकिं तेनैव जवेन सिलिं प्राप्नुवन्ति । नीरजस्का अष्टविधकर्ममुक्ताः । नत्वेकेन्जिया श्व । वर्तमाननिर्देश स्त्रिकाल विषयज्ञापनार्थः॥ १४ ॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त प्रकारे आचरण करनारा साधुने \ फल थाय , ते कहे . उक्कराई ति. (कराई के०) पुष्कराणि एटले आचरवाने अशक्य एवा “ उदेसियं" इत्यादि गाथामां कहेला धर्मने ( करित्ताणं के०) कृत्वा एटले आचरण करीने, अर्थात् पालन करीने, तथा (उस्सहाई के०) दुःसहानि एटले सहन करवाने अशक्य एवा आतापनादिकने ( सहित्तु य के ) सहित्वा च एटले सहन करीने ( केश के०) केचित् एटले केटलाएक (अब के ) अत्र एटले आ ( देवलोगेसु के ) देवलोकेषु एटले सौधर्मादिक देवलोकने विषे जाय थे, तथा (केश के०) केचित् एटले केटलाक (नीरया के०) नीरजसः एटले कर्मरूप रजेंकरी रहित थका आ लोकमांज (सिशंति के) सिध्यंति एटले सिक थाय ॥ १४ ॥ (दीपिका ) अथैतेषां फलमाह । एवं कुकराणि औदे शिकादित्यागादीन कृत्वा तथा सुःसहानि आतापनादीनि सहित्वा केचन अत्र देवलोकेषु सौधमादिषु गडन्ति । इति शेषः । केचन सिध्यन्ति तेनैव नवेन सिहिं प्राप्तवन्ति । किंजूताः। नीरया । निर्गतं रजोऽष्टविधं कर्म येच्यस्ते अष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः नतु एकेन्धिया श्व ... कर्मयुक्ताः ॥ १४ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके तृतीयाध्ययनम् । १४१ ( टीका ) इदानीमेतेषां फलमाह । डुक्कराइ त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । एवं दुष्कराणि कृत्वौदेशिका दित्यागादीनि तथा दुःसहानि सहित्वातापनादीनि । केचन तत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गछन्तीति वाक्यशेषः । तथा केचन सिध्यन्ति तेनैव जवेन सिद्धिं प्राप्नुवन्ति । वर्तमान निर्देशः सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वज्ञापनार्थः । नीरजFat इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ता न त्वेकेन्द्रिया श्व कर्मयुक्ता एवेति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ खवित्ता वकम्माई, संजमेण तवेण य ॥ सिद्धि मग्गमपुप्पत्ता, ताइणो परिषिधुमे ति जी श्इ खुमुयायारकहझयणा तश्या ॥ ३ ॥ एव ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) ये देवलोके गतास्तेषां स्वरूपं तदाह । ततश्च्युत्वा रूपित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि । केन । संयमेनोक्तलक्षणेन तपसा च सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्श नादिरूपमनुप्राप्ताः सन्तस्वातारचात्मादीनां परिनिर्वान्ति सिद्धिं प्राप्नुवन्ति ॥ १५ ॥ इति कुलाचार कथाख्यतृतीयाध्ययनावचूरिः ॥ ३॥ (अ.) हवे, जे साधु पूर्वोक्त धर्म पालीने देवलोके जाय बे, ते पण त्यांथी चव्यापी या श्रार्यदेशमां सत्कुलने विषे उपजीने सिद्ध थाय बे, ते कहे बे. खवित्तत्ति. देवलोकमांथी व्यवीने लोकमां आवेला साधु ( संजमेण के० ) संयमेन एटले सत्तर जेदना संयमें करी, (तवेण य के०) तपसा च एटले वार प्रकारना तपें करी ( पुल्वकम्माई के० ) पूर्वकर्माणि एटले पूर्वज करेला कर्मने ( खवित्ता के० ) पयित्वा एटले खपावीने ( सिद्धिमग्गं के० ) सिद्धिमार्ग एटले मोक्षना मार्गप्रत ( अणुपत्ता ० ) अनुप्राप्ताः एटले प्राप्त थयेला एवा ( ताइणो के० ) तायिनः एटले बक्कायजीवनुं पालन करनारा एवा साधु ( परिनिधुके के० ) परिनिर्वान्ति एसर्वप्रकारें सिद्धिने पामे बे. तिवेमि ए पदनो अर्थ पूर्ववत् जावो. या य ध्ययनमां, साधुए श्राचारने विषेज धृति राखवी, परंतु अनाचार विषे राखवी नहीं एम कयुं ॥ १५ ॥ इति कुलाचार कथा नामा अध्ययननो वालाववोध संपूर्ण ॥ ३ ॥ ( दीपिका ) ये च एवं विधानुष्ठानतो देवलोकेषु गछन्ति तेऽपि ततयुत्वा यार्यदेशे सुकुले जन्म प्राप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येव एतदाह । ते देवलोकात् रूपयित्वा पूर्वकर्माणि वशिष्टानि । केन इत्याह । संयमेन उक्तरूपेण सप्तदशनेदेन पुनः तपसा द्वादशविधेन सिद्धिमार्गं सम्यग्दर्शनादिलक्षणम् अनुप्राप्ताः सन्तः त्रातार यात्मा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४शराय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.. दीनां परिनिर्वान्ति सिद्धिं प्राप्नुवन्ति । इतिः समाप्तौ। ब्रवीमि इति न खवुड्या किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेन ॥ १५ ॥ . इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां हुलकाचारकथाख्यं तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ ३॥.. (टीका) येऽपि चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गठन्ति । तेऽपि ततश्च्युता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्रं सिध्यन्त्येवेत्याह । खवित्त त्ति सूत्रमस्य व्याख्या। ते देवलोकच्युताः पशरीरमार्वकर्माणि सावशेषाणि । केनेत्याह। संयमेनोक्तलक्षणेन तपसा च एवं प्रवाहेण न मार्ग सम्यग्दर्शनादिलक्षणानुप्राप्ताः सन्तस्त्रातार आत्मादीनां परिनिर्वान्ति सर्वथा सिटिं प्राप्नुवन्ति।अन्ये तु पठन्तिापरिनिवुमत्ति। तत्रापि प्राकृतशैख्या गन्दसत्वाच्चायमेव पागे ज्यायानिति । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः। उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयाः। ते च पूर्ववदृष्टव्याः।इति व्याख्यातं कुक्षकाचारकथाध्ययनम् ॥३॥ इति श्रीदशवैकातिके हरिनासूरिकृतटीकायां तृतीयमध्ययनम् ॥३॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् । सुअं मे आजसंतेणं नगवया एवम कायं श्द ... खलु बजीवणिया नामायणं समणेणं नगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुप नत्ता सेअं मे अविजिन असयणं धम्मपन्नत्ती ॥ (अवचूरिः) अथ चतुर्थाध्ययनावचूरिः। अनन्तराध्ययने धृतिराचारे कायर्या श्त्युः क्तम् । सा च षड्जीवनिकायगोचरेति स उच्यते । श्रुतमाकर्णितम् । मे मया । आयुर स्यास्तीत्यायुष्मान् । तस्यामत्रणं हे आयुष्मन् । कः कमेवमाह । गौतमः सुधमेखामा वा जंबूखामिनं प्रति। जगः समप्रैश्वर्यादिः सोऽस्यास्तीति नगवांस्तेन नगवता जुवनन; वर्धमानखामिनेत्यर्थः । एवमिति प्रकारवचनः शब्दः। आख्यातमिति कवर लझानेनोपलच्यावेदितम् । श्रुति लोके प्रवचने वा खखुशब्दान्नान्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु। षड् जीवनिकायाः प्रतिपाद्यत्वेन विद्यन्ते यस्यां ग्रन्थपड़तौ सा षड्जीवनिकायिकेति । पूर्ववन्नामेत्यनिधानम् । अध्ययनं श्रुतविशेषः । इह च श्रुतं मया श्त्यात्मपरामर्षेणेका न्तदाणनङ्गापोहमाह । तत्रेबंचूतार्थानुपपत्तेरिति । उक्तं च । एगंतखणियपके, गहण . चित्र सबहानवाणं ॥ अनुसरणसासणाझं, कुजे उ तेलुकसिझाई॥ १॥ तथायुष्म निति प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयम् नागुणवत Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १४३ इत्याह तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च ॥ श्रामे घडेनिहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ ॥ इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विषासे ॥ १ ॥ आयुश्च प्रधानो गुणः सति तस्मिन्नव्यवच्छित्तिजावात् तथा तेन जगवता एवमाख्यातमिति । अनेन स्वमनीषिका निरासाच्छास्त्रपारतन्त्र्यप्रदर्शनेन । नासर्वज्ञेनात्मवतान्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चय परलोक देशना कार्येत्येतदाह । विपर्ययसंभवादित्युक्तं च ॥ किं एत्तो पावयरं, सम्मं हि धम्मसप्रावो ॥ श्रन्नं कुदेसवाए कट्ठे रागम्मि पाडे ॥ १ ॥ अथ - वान्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेशः । श्राउसंतेणं ति जगवत एव विशेषणम् । आयुष्मता जगवता चिरजीविनेत्यर्थः । मङ्गलवचनं चैतदथवा जीविना साक्षादेवानेन च गणधर परंपरागमस्य जीवन विमुक्ताना दिशुद्धवक्तुश्चापोहमाह । देहाद्यजावेन तथाविधप्रयत्नानावादित्युक्तं च ॥ वयणं न काययोगा- जावेण य सो य छापादिसुद्धस्स । गहणंमि य नो हेऊ, सवं छत्तागमो कह ॥ १ ॥ अथवा वसंतेति । गुरुमूलावता । अनेन च शिष्येण गुरुचरण से विना सदा जाव्यमित्येतदाह ॥ ज्ञानादिवृद्धिसङ्गावाडुक्तं च ॥ नास्स होइ जागी, थिरयर दंसणे चरित्ते य ॥ धन्ना श्रावकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १ ॥ अथवा | उसंतेां । श्रमृशता नगवत्पादारविंद युगलमुत्तमांगेन । अनेन च विनयप्रतिपत्तेर्गरीयस्त्वमाह । विनयस्य मोमूलत्वात् । उक्तंच ॥ मूलं संसारस्स उ होंति कसाया अणतपत्तस्स ॥ विए गए - पत्तो, डुक विमोरकस्स हे त्ति ॥ १ ॥ कृतं प्रसंगेन प्रकृतमनुसरामः छात्र खलु षड्जीवनिका विकानामाध्ययनमस्तीत्युक्तं सा च जगवता समयैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण काश्यपगोत्रेण प्रवेदिता केवलालोकेन । प्रकर्षेण वेदिता ज्ञाता इत्यर्थः । खाख्याता सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि कथिता सुष्ठु आख्याता । सुप्रज्ञप्ता । सूक्ष्मपरिहारासेवनेन स्वयं सम्यग् सेविता । सुष्ठु प्रज्ञता वा आता यासेवनद्वारेणात्मसात्कृता अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञपिरासेवनार्थः । तां चैवंभूतां षड्जीवनिकां श्रेयो मेऽध्येतुं पतितुं । बान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्म निर्देश इत्यन्ये । ततश्च श्रेय यात्मनोऽध्येतुमिति पठितुं श्रोतु जावयितुं । कुत इत्याह । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः । निमित्तकारणहेतुपु सर्वासां प्रायो दर्शनमिति वचनात् हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वात् अध्यात्मानयनाच्चेतसो विख्यापादनादित्यर्थः । एतदेव कुत इत्याह । धर्मप्रज्ञतेः । प्रज्ञापनं प्रकृतिः । धर्मस्य प्रज्ञप्तिः ततो धर्मप्रज्ञप्तेः कारणाच्चेतसो विशुद्धयापादनाच्च धर्मप्रकृतिः । श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुम्। श्रन्ये तु व्याचते अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतया अनुवादमात्रमेतदिति ॥ १ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ राय धनपतसिंह बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. (अर्थ.) हवे चोथु षड्जीवनिका नामक अध्ययन कहे . ए अध्ययननो श्रा प्रमाणे संबध डे केः-पूर्वोक्त कुलकाचारकथानामक अध्ययनमां कडं के, साधुए धृति जे राखवी ते आचारने विषेज राखवी, परंतु अनाचार विषे राखवी नहीं. ते आचार जे बे, ते घणुं करीने षड्जीवनिकायने आश्रयेंज , कडं ठे केः- “उसु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ सो चेव होइ विमेए, परमळेण संजए ॥१॥” इति. माटे षड्जीव निकायनुं व्याख्यान करवू जोश्यें. एवा सं बंधथी आ अध्ययननी प्राप्ति थई. आ अध्ययनमा षड्जीवनिकायनुं विनागपूर्वक व्याख्यान कटुंबे, माटे एने षड्जीवनिका एवं नामें करी कहे . हवे सूत्रनो अर्थ ॥ सुयं मे इति. सुधर्मास्वामी जंबूप्रतें कहे . (आउसंतेणं के०) हे आयुष्मन् ! एटले जेने परिपूर्ण आयुष्य जे एवा हे शिष्य ( मे के०) मया एटले में ( सुयं के) श्रुतं एटले सांजदयु , के (नगवया के०) लगवता, जगशब्द करी परिपूर्ण एवा ऐश्वर्य, रूप, कीर्ति, श्री, धर्म अने प्रयत्न ए वस्तु लेवी. कछु बे के, “ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः॥ ज्ञानवैराग्ययोश्चापि, षमा लग श्तीङ्गना ॥१॥” ते जेमने बे, तेमने नगवान् कहिये. अर्थात् ऐश्वर्या दिक उ वस्तु जेमनी पासे परिपूर्ण एवा श्रीमहावीरस्वामीए ( एवं के) वदयमाणप्रकार (अकायं के ) आख्यातं एटले केवलज्ञानथी जाणीने कडं ने के, (इह के०) ए दशवकालिक सूत्रनेविषे ( खलु के ) निश्चयें करी (जीवणियाणामायण के ) षड्जीवनिकानामक अध्ययन बे. एमां शिष्यने आमंत्रण करवामाटे वा जु पद न लेतां ' आजसंतेणं' एज पद लीधुंबे, तेनुं तात्पर्य ए बे के, गुणवान् ज शिष्य , तेनेज आगमनुं रहस्य केहq, बीजाने केहबुं नही, कयु के केः- "श्रा मे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासे ॥ इथ सिझंतरस्स, अप्पाहारं विणातर ॥१॥ इति ॥” माटे योग्य शिष्यनेज कहे जोश्य तो शिष्यना गुण जब तेमां आयुष्य जे ते प्रधान गुण बे, कारण के, तेनो अनाव होय तो बाजा बधी सामग्रीनो कांश उपयोग नथी, माटे "आयुष्मन् ” एम. संबोधन कह्यु. अथवा आजसंतेणं ए जगवंतनुंज विशेषण करवं. ते एवीरीतेः- आयुष्मता एटले चर जीव एवा जगवाने एम कडं . इति. अथवा (आवसंतेणं के) आवसता एटा गुरुकुलने विषे वास करनारा एवा (मे के० ) मया एटले में सांजव्युं डे. एका अर्थ करवो. तेथी एम सूचवे ने के, शिष्ये गुरुकुलने विषे रहीने निरंतर गुरुच रणनी सेवा करवी, अथवा (आउसंतेणं के०) आमृशता एटले नगवत्पादारविदयुगलनेविषे मस्तकें करी स्पर्श करनारा एवा में सांजदयु बे. एवो अर्थ करवा. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । तेथी एम सिद्ध थाय ने के, शिष्ये गुरुनो विनय सारीरीतें साचववो. कारण के धर्मनुं मूल विनय बे, कयु के के:-"मूलं संसारस्स य, होंति कसाया अणंतपत्तस्स ॥ विण हाणपउत्तो, उरकविमुकस्स मोरकस्स ॥१॥ इति” अस्तु, षड्जीवनिकानामक अध्ययन के एम कडं. ते षड्जीवनिकायिका कोणें कही ते कहे . ( स. मणेणं के०) श्रमणेन एटले महातपस्वी एवा, (जगवया के ) समग्रैश्वर्या दिसंपन्न एवा, ( कासवेणं के०) काश्यपेन एटले काश्यप गोत्र जेमतुं एवा, ( महावीरेणं के०) महावीरेण एटले कषाया दिशत्रुने जीतवामां महोटा वीर एवा वर्धमान खामीए; कह्यु डे केः-विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते ॥ तपोवीर्येण युक्तश्च, तमाहीर इति स्मृतः॥१॥ इति ॥ ( पवेश्या के) प्रवेदिता एटले अलौकिकप्रलावधी जाणी, तथा ( सुअरस्काया के ) वाख्याता एटले सुरासुरमनुष्ययुक्त एवा समवसरण मध्ये रूडी रीते कही, तथा (सुपन्नत्ता के ) सुप्रज्ञता एटले जेम कही तेमज अतिशयेंकरी पोते सेवन करी. अर्थात् आचरण करी. ते कारण माटे एवी षड्जीवनिकानुं (अहि जिलं के ) अध्येतुं एटले अध्ययन करवाथी ( मे के) मारुं एटले आत्मानुं ( सेयं के) श्रेयः एटले कल्याण बे. कारण के, (अनयणं के०) ए अध्ययन जे जे ते (धम्मपन्नत्ती के०) धर्मप्रज्ञप्तिरूप में, एटले एमां धर्मनी प्ररूपणा करी , तेथी आत्मानुं कल्याण निश्चयें करी थशेज ॥१॥ ...(दीपिका ) व्याख्यातं दुबकाचारकथाख्यं तृतीयमध्ययनम् । अथ चतुर्थ षड्जीवनिकाख्यमध्ययनं व्याख्यायते । पूर्वोक्ताध्ययनेन अस्याध्ययनस्य अयं संवन्धः। पूर्व साधुना आचारे धृतिः कार्या नत्वनाचार इत्युक्तम् । अयमेव च आत्मसंयमे उपायः। सच आचारः षड्जीवनिकायगोचरः।अतः षड्जीवनिकायाः प्रोच्यन्ते । तत्र सूत्रम् । श्रुतं अवधारितं मे इति मया अत्र श्रीसुधर्मखामी श्रीजम्बूखामिनं प्राह । हे श्रायुष्मन् । आयुरस्यास्तीति आयुष्मान् तस्य संबोधनं तेन जगत्प्रसिझेन जगवता समग्रैश्वर्या दियुक्तेन श्रीवर्धमानस्वामिना एवंप्रकारं वदयमाणमाख्यातं के. वलज्ञानेन उपलन्य कथितम् । अथवा आउसंतेणं ति समग्रं जगवतो विशेषणम् । किनूतेन जगवता आउसंतेणं आयुष्मता चिरजीविना इत्यर्थः। मङ्गलवचनमेतत् । यथवा आवसंतेणं ति पाठे मयाश्त्यस्य विशेषणम् । किंनूतेन मया । श्रावसता गुरुपादमूलसे विना । अथवा आमसंतेणं तिपाठे किंनतेन मया। यामृशता नगवत्पादारविन्दयुगुलं मस्तकेन । अनेन गुरुविनयप्रतिपत्तिरुक्ता । किंजूतेन जगवता याख्यातम् शति पृष्टे आह । एषा खलु षड्जीवनिका नामाध्ययनं श्रमणेन महातपस्विना नगवता समयैश्वर्या दियुक्तेन महावीरेण कपाया दिवैरिजयात् महासुनटेन किंजूतेन काश्यपेन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. काश्यपगोत्रेण प्रवेदिता ज्ञाता । न कुतश्चित् आकर्ण्य ज्ञाता किंतु स्वयमेव केवलज्ञानेन प्रकर्षेण विदिता ज्ञाता । पुनः खाख्याता सुष्टु छादशपर्षन्मध्ये आख्याता । तथा सुप्रज्ञप्ता यथैव वाख्याता तथैव सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यग् आसेविता इत्यर्थः। तां चैवंचूतां षजीवनिकां श्रेयो मेमम अध्येतुं श्रेयः पथ्यं हितं पठितुं श्रोतुं नावयितुम् । कुत इत्याह । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः । निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो द. र्शन मिति वचनात् । हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वात् अध्यात्मानयनाचेतसो विशुद्ध्यापादनं चेतोविशुष्ट्यापादनाच्च श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये व्याचदते । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति । पूर्वमुपन्यस्तस्य अध्ययनस्यैव उपादेयतया अनुवादमात्रम्॥१॥ (टीका) श्दानी षड्जीवनिकायाख्यमारच्यते अस्यचायमनिसंवन्धः। श्हानन्तराध्ययने साधुनाधृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे अयमेव चात्मसंयमोपाय इत्युक्तम् । श्ह पुनः स श्राचारः षड्जीवनिकायगोचरःप्राय इत्येतजुच्यते। उक्तं च ॥ “उसु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ से चेव हो विए, परमण संजए ॥१॥” इत्यनेनानि. संबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । आह च नाष्यकारः॥ जीवाहारो नन्न, आयारो ताणमं तु आयायं ॥ जीवणियतयणं, तस्सहिगारा श्मे होंति ॥ २२ ॥ व्याख्या ॥ जीवाधारो जण्यत आचारः । तत्परिज्ञानपालनहारेणेति नावः । येनैतदेवं तेनेदमायातमवसरप्राप्तम् । किं तदित्याह । षड्जीवनिकाध्ययनम् । अत्रान्तरे अनुयोग छारोपन्यासावसरः । तथा चाह । तस्य षड्जीवनिकाध्ययनस्यार्थाधिकारा एत जवन्ति वक्ष्यमाणलदाणा इति गाथार्थः । तानाह ॥ जीवाजीवाहिगमो, चारतधम्मो तहेव जयणा य ॥ उवएसो धम्मफलं, बजीवणियाश् अहिगारा ॥ २३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ जीवाजीवानिगमो जीवाजीवस्वरूपम्। अजिगम्यतेऽस्मिन्नित्याजगम इति कृत्वा स्वरूपे च सत्यनिगम्यत इति नावः । तथा चारित्रधर्मः प्राणातिपाता दिनिवृत्तिरूपः । तथैव यतना च पृथिव्यादिष्वारम्नपरिहारयत्नरूपा । तथा उप देशः यथात्मा न बध्यत इत्यादि विषयः । तथा धर्मफलमनुत्तरज्ञानादि । एत षड्जीवनिकाया अधिकाराः। इति गाथार्थः । अत्रान्तरे गत उपक्रमः । निदी पमधिकृत्याह ॥ बजीवणियाए खलु, निरकेवो होइ नामनिप्फन्नो ॥ एएसिं तिण्ड ज, पत्तेयपरूवणं वोळ ॥२४॥ व्याख्या ॥ षडजीवनिकायाः प्रक्रान्तायाः खावात पूरणार्थों निपातः । निदेपो जवति नामनिष्पन्नः षड्जीवनिकायिकेत्ययमेव । यत एवमत एतेषां त्रयाणामपि षड्जीवनिकायपदानां प्रत्येकमित्येकमेकं प्रति प्ररूपण सूत्रानुसारेण वदयेऽनिधास्य इति गाथार्थः । तत्रैकस्याजावे षसामनाव इत्येक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १४७ पणामाह ॥ णामं ववणा दविए, मानगपयसंग हेक्कए चेव ॥ पद्यवनावे य तहा, सत्तेए एक्कगा होंति ॥ २२५ ॥ व्याख्या ॥ इयं द्रुमपुष्पिकायां व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते । संग्रहैककेन चात्राधिकारः । सांप्रतं प्यादीन् विहाय षट्प्ररूपणामाह ॥ नामं वा दविए, खेत्ते काले तदेव नावे ा ॥ एसो उ ढक्कगस्स, निरकेवो बवि - हो होइ ॥ २२६ ॥ व्याख्या ॥ तत्र नामस्थापने कुसे । द्रव्यष्टुं षड् द्रव्याणि स - चित्ता चित्त मिश्राणि पुरुषकार्षापणालंकृतपुरुषलक्षणानि । त्रष्टुं षडाकाशप्रदेशाः । यद्वा जरतादीनि । कालषटुं षट् समयाः षड्डा इतवः । तथैव नावे चेति नावषटुं षड़ जावा औदयिकादयः । अत्र च सचित्तद्रव्यषट्रेनाधिकार इति गाथार्थः । आह । अत्र लायन निधानं किमर्थम् । उच्यते । एकषड निधानतः आद्यन्तग्रहणेन तमतेरिति । व्याख्यातं षट्पदद्मधुना जीवपदमाह ॥ जीवस्स उ निरकेवो, परूवणा लकणं च वित्तं ॥ अन्नामुत्तत्तं निचकारगो देहवा वित्तं ॥ २२७ ॥ गुणिउट्ठगइत्तेया, निम्म सफलता य परिमाणे ॥ जीवस्स तिविकालम्मि, परिका हो कायवा ॥ २२८ || दो दारगाहा ॥ व्याख्या || जीवस्य तु निदेपो नामादिः । प्ररूपणा द्विविधा - श्व नवन्ति जीवा इत्यादिरूपा । लक्षणं चानादि । अस्तित्वं सत्त्वम् शुद्धपदवाच्यत्वादिना । अन्यत्वं देहात् । अमूर्तत्वं स्वतः । नित्यत्वं विकारानुपलम्भेन | कर्तृत्वं स्वकर्मफलजोगात् । देहव्यापित्वं तत्रैव तलिङ्गोपलब्ध्या । गुणित्वं योगादिना । ऊर्ध्वगतित्वमगुरुलघुजावेन । निर्मायता विकाररहितत्वेन । सफलता च कर्मणः । परिमाणं लोकाकाशमात्र इत्यादि । एवं जीवस्य त्रिविधकाल इति त्रिकालविषया परीक्षा जवति कर्तव्या । इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः । व्यासार्थस्तु जाण्यादवसेयः । तथाच निदेपमाह ॥ नामं ववणा जीवो, दवजीवो य जावजीवो य ॥ उद्भवग्गहणं मिय, तनवजीवे य नावम्मि ॥ २२५ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनाजीव इति । जीवशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । नामजीवः स्थापनाजीव इति तथा द्रव्यजीवश्च जावजीवश्च व क्ष्यमाणलक्षणः । तत्रौघेत्योघजीवः । नवग्रहणे चेति नवजीवः । तनवजीवश्च त - नव एवोत्पन्नः । नावे नावजीव इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं त्वाह ॥ नामं ठवणगयाउं, दवे गुणपद्यवेहि रहिउ ति ॥ तिविहो य होइ जावे, उहे नवतनवे चैव ॥ १३० ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने गते दुसत्वादिति भावः । द्रव्य इति द्रव्यजीवो गुणपर्यायान्यां चैतन्यमनुष्यत्वा दिलक्षणाभ्यां रहितः । बुद्धिपरिकल्पितो नत्वसाविवंविधः संभवतीति । त्रिविधश्च जवति जाव इति जावजीवत्रैविध्यमाह । उघजीवो नवजीवस्तद्भवजीवश्चेति प्राग्गाथोक्तमप्येतदिठं विवनाप्यकारशैली प्रामाण्यतोष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति ॥ " जावे उ तिहा जर्जि, तं पुण संखेवर्ड वोळं ॥" I Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नाव इति नावजीवः । विधेति त्रिप्रकारो नणितो नियुक्तिकारेण उघजीवादिस्तमपि च नावार्थमधिकृत्य संदेपतो वय इति गाथार्थः । तत्रौघजीवमाह ॥ संते आउयकम्मे, धरई तस्सेव जीवई उदए ॥ तस्सेव निधराए, म त्ति सिको नयमएणं ॥ २३१ ॥ व्याख्या ॥ सति विद्यमान आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपो भियते सामान्येनैव तिष्ठति नवोदधौ । कथमिबमवस्थानमात्राजीवत्वमस्येत्याशङ्कयात्रैवान्वर्थयोजनामाह । तस्यैवौघायुष्ककर्मणो जीवत्युदये । उदये सति जीवत्यासंसारं प्राणान्धारयत्यतो जीवनाजीव इति । तस्यैवौघायुष्ककर्मणो निर्जरया दयेण मृत इति सर्वथा जीवनानावात् । स च सिको मृतो नान्यः विग्रहगतावपि तथा जीवनसनावात् । नयमतेनेति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाथार्थः। उक्त उघजी. वितविशिष्ट उघजीवः सांप्रतं नवजीवं तनवजीवं चाह ॥ जेण य धर नवगर्ज, जी. वो जेण य नवाज संकमई ॥ जाणाहि तं नवाजं, चनविहं तप्नवे विहं ॥ ३२ ॥ ॥ निरके तिगयं ॥ व्याख्या ॥ येन च नारकायायुष्केण ध्रियते तिष्ठति । नवगतो नारकादिनवस्थितो जीवस्तथा येन च मनुष्यायायुष्केण जवान्नारका दिलदाणात्संक्रामति याति । मनुष्यादिनवान्तर मिति सामर्थ्याजम्यते। जानीहि विधि। तदिवंचूतं नवायुर्जवजीवितं चतुर्विधं नारकतिर्यमनुष्यामरनेदेन । तथा तनवे तनव विषयमायुरिति वर्तते । तच्च विविधं तिर्यक्वतनवायुर्मनुष्यत्वतनवायुश्च । यस्मात्तावेवमृतौ सन्तौ नूयस्तस्मिन्नेव नव उत्पद्यते नान्ये । तनवजीवितं तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तदुच्यत इति । अत्रापि च नावजीवाधिकारात्तनवजावितविशिष्टश्च जीव एव ग्राह्यः । जीवितं तु तद्विशेषणत्वामुक्तमिति गाथार्थः । उतो निक्षेपः । इदानीं प्ररूपणामाह ॥ उविहा य हुँति जीवा, सुहुमा तह वा. यरा य लोगम्मि ॥ सुहुमा य सबलोए, दो चेव य बायर विहाणे ॥ २३३ ॥ व्या. रख्या ॥ विविधाश्च हिप्रकाराश्च चशब्दान्नव विधाश्च पृथिव्यादिहीन्द्रियादिनेदेन लवन्ति जीवाः । वैविध्यमाह । सूदमास्तथा वादराश्च । तत्र सूमनामकमा दयात्सूदमा वादरनामकर्मोदयाच्च वादरा इति । लोक इति लोकग्रहणमलोके जावनवनव्यवठेदार्थम् । तत्र सूदमाश्च सर्वलोक इति । चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सू. दमा एव सर्वलोकेषु न वादराः। कचित्तेयामसंनवात् । के एव च पर्याप्तकापयाप्तक लक्षणे वादर विधाने वादरविधी । चशब्दात्सूक्ष्म विधाने च । तेषामपि पर्याप्तकापर्यातकरूपत्वादिति गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयन्नाह ॥ सुटुमा य सबलोए, परियावन्ना नवंति नायबा ॥ दो चेव बायराणं, पद्यत्तियरे अ नायवा ॥ २३४ ॥ ॥ परूवणादार गयं ति ।। व्याख्या ॥ सदमा एवं पृथिव्यादयः सर्वलोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके पया Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १४ ए यापन्ना जवन्ति ज्ञातव्याः । पर्यायापन्ना इति तमेव सूक्ष्मपर्यायमापन्नाः । जावसूमातु नूतनाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः । तथा द्वौ भेदौ वादराणां पृथिव्यादीनां चशब्दात्सूक्ष्माणां च पर्याप्तकेतरौ ज्ञातव्यौ पर्याप्तकापर्याप्तकाविति गाथार्थः । उका प्ररूपणा अधुना लक्ष्णमुच्यते । तथा चाह जाष्यकारः ॥ लकण मियाणि दारं, चिंध देऊ कारणं लिंगं ॥ लकण मिश् जीवस्स उ, आयालाई इमं तं च ॥ २३५ ॥ व्याख्या ॥ लक्षणमिदानीं द्वारमवसरप्राप्तम् । यस्य च प्रतिपत्त्यङ्गतया प्राधान्यात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह । चिह्नं हेतुश्च कारणं लिङ्गं लक्षणमिति । तत्र चिह्नमुपलक्षणं यथा पताका देवकुलस्य । हेतुर्निमित्तलक्षणं यथा कुम्नकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य । कारणमुपादानलक्षणं यथा मृन्मसृणत्वं घटवलीयस्त्वस्य । लिङ्गं कार्यलक्षणं यथा धूमोऽग्नेः । पर्यायशब्दा वा एत इति । लक्षणमित्येतल्लक्षणं लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्विति कृत्वा जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेक प्रकार मिदम् । तच्च वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ यायाणे परिजोगे जोगुवगे कसायलेसा य ॥ पापा इंदिय, बंधोदय निजरा चेव ॥ २३६ ॥ चित्तं चेयणसन्ना, विन्नाणं धारणा य बुद्धी ॥ ईहामईवियक्का, जीवस्स न लकणा एए ॥ २३७ ॥ दारं ॥ व्याख्या ॥ एतत्प्रतिद्वारगाथाप्रयमस्य व्याख्या | आदानं परिजोगस्तथा योगोपयोगौ । कषायलेश्याश्च । तथानापानौ इन्द्रियाणि वन्धोदय निर्जराश्चैव । तथा चितं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च तथा ईहामतिवितर्का जीवस्य तु लणान्येतानि । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वाजी वस्यैवेति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः । व्यासार्थस्तु जाष्यादवसेयस्तच्चेदम् || लकिद्यइत्ति नद्यइ, पञ्चरिकयरो व जेण जो ॥ तं तस्स लरकणं खलु धूमुरहार व अग्गिस्स ॥ २३८ ॥ व्याख्या ॥ लक्ष्यत इति ज्ञायते कोऽसावित्याह । प्रत्यक्षोऽक्षिगोचरापन्न इतरो वा परोक्षः । येनोष्णत्वादिनादिस्तत्तस्य लक्षणं खल्विति । तदेव स्पष्टयति । धूमौच्या दिवदग्ने रिति । सौष्ण्येन प्रत्यको लक्ष्यते । परोक्षो धूमेनेति गाथार्थः । तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह ॥ श्रयगारकूरपरसू, अग्गिसुवन्ने अ खीरनरवासी ॥ याहारो दिहंता, श्रायाणाईण जहसंखं ॥ २३५ ॥ व्याख्या ॥ अयस्कारः क्रूरस्तथा परशुरनिः सुव क्षीरनरवास्यः । तथा श्राहारो दृष्टान्ता आदानादीनां प्रक्रान्तानां यथासंख्यं प्रतिज्ञाद्युलनेन चैतदनिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थमिति गाथार्थः । सांप्रतं प्रयोगानाह ॥ देहिंदियाइरित्तो, थाया खलु गगा गय गा ॥ संडासा पिंडो, अयकारा व विने ॥ २४० ॥ व्याख्या ॥ देहेन्द्रियातिरिक्त श्रात्मा । खशब्दो विशेषणार्थः । कथंचिन्न सर्वधातिरिक्त एव तदसंवेद Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. नादिप्रसंगादित्यनेन प्रतिज्ञार्थमाह । प्रतिज्ञा पुनरर्थे न्द्रियाणि श्रदेयादानानि विद्य मानादातृकाणि । कुत इत्याह । ग्राह्यग्राहकप्रयोगात् । ग्राह्या रूपादयः । ग्राहकाणी न्द्रियाणि । तेषां प्रयोगः स्वफलसाधनव्यापारस्तस्मान्न ह्यमीषां कर्मकरणनावः कर्तारमन्तरेण स्वकार्यसाधनप्रयोगः संभवत्यनेनापि हेत्वर्थमाह । हेतुश्चादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह । संदंशादादानात् य स्पिरमादादेयात् अयस्कारा दिवल्लोहकाद्विज्ञेयः । यतिरिक्तो विद्यमान दातेत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह । दृष्टान्तस्तु संदंशकाय स्पिएमवत् । यस्तु तदनतिरिक्तः । न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः । यथा देहादिय एवेति व्यतिरेकार्थः । व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमानादातृकाणि न जवन्ति ता - न्यादानादेयरूपाण्यपि न जवन्ति । यथा मृतक द्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थः । उक्तमादानद्वारमधुना परिजोगद्वारमाह ॥ देहो सनोति खलु, जोद्यत्ता उयणाथालं व ॥ अन्नप्पत्तिगा खलु, जोगा परसु व करणत्ता ॥ २४९ ॥ व्याख्या || देहः सजोक्तृकः । खविति प्रतिज्ञा | जोग्यत्वादिति हेतुः । उदना दिस्थालवत् । स्थाल स्थितौ दनवदिति दृष्टान्तः । नोग्यत्वं च देहस्य जीवेन तथा निवसतोपभुज्यमानत्वादित्युक्तं परिनोगद्वारम् । अधुना योगद्वारमाह । अन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगाः । योगाः साधनानि मनःप्रभृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थः । करणत्वादितिहेतुः । परशुवदिति दृष्टान्तः । जवतिच विशेषे पक्षीकृते सामान्यं हेतुर्यथा अनित्यो वर्णात्मकः शब्दः शब्दत्वान्मेघशब्दवदिति गाथार्थः । उक्तं योगद्वारं सांप्रतमुपयोग द्वारमाह ॥ Gadगा नाजावो, अग्ग व सलरकणापरिच्चागा ॥ सकसाया याजावो, पद्ययगमणा सुवन्नं व ॥ २४२ ॥ व्याख्या ॥ उपयोगात्साकारानाकारनेद निन्नान्नाजावो जीव इति गम्यते । कुत इत्याह । खलक्षणा परित्यागाडुपयोगलक्षणासाधारणात्मीयल परित्यागात् । श्रग्निवद्यथा निरौष्ण्यादिखल कणापरित्यागान्नानावस्तथा जीवोऽपीति गाथार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा स्वलक्षणा परित्यागाद शिवदिति । उक्तमुपयोगहारमधुना कषायद्वारमाह I सकषायत्वादचेतनविलक्षणा साधारणात्मीयलक्षणको धादिपरिणामोपेतत्वादित्यर्थः । Tara Grः । कुत इत्याह । पर्यायगमनात्क्रोधमानादिपर्यायप्राप्तेः सुवर्णवत्कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा पर्यायगमनात्सुवर्णवदिति गाथार्थः । उक्तं कषायद्वार मिदानीं लेश्याहारमाह ॥ लेसा गाजावो, सुनपरिणमणसनावd य खीरं व ॥ उस्सासा णाजावो, समसप्नावा खड व नरो ॥ २४३ ॥ व्याख्या ॥ लेश्यातो बेश्यासनावेन नाजावो जीवः किंतु नाव इति । कुत इत्याह । परिणमनस्वभावत्वात्कृष्णा दिव्यसाचिव्येन जम्बूखादका दिदृष्टान्त सिद्धतथाविधपरिणामधर्मत्वात् कीरवदिति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १५१ - - प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा परिणामित्वात् क्षीरवदिति गतं लेश्याद्वारम् | प्राणापानद्वारमाह । जवासादित्यचेतनधर्मविलक्षणप्राणापानसभावान्नानावो जीवः किंतु जाव एवेति । श्रमसङ्गावेन परिस्पन्दोपेत पुरुषवदिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु पुनरंत्र व्यतिरेकी द्रष्टव्यः । सात्मकं जीवछरीरं प्राणादिमत्त्वाद्यत्तु सात्मकं न जवति तत्प्राणादिमदपि न भवति यथाकाशमिति गाथार्थः । उक्तं प्रापापानद्वारमधुना इन्द्रियद्वारमुच्यते ॥ काणेयाणि परिचिगाणि, वासाइवेह करणत्ता ॥ गहवेयगनिद्यर, कम्मस्सन्नो जहाहारो ॥ २४४ ॥ व्याख्या ॥ अकाणीन्द्रियाणि एतानीति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि परार्थानि आत्मप्रयोजनानि वास्यादिवदिह करणत्वाल्लोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । श्राह । यादानान्येवेन्द्रियाणि तत् किमर्थं जेदोपन्यासः । उच्यते । निर्वृत्युपकरणद्वारेण है विध्यख्यापनार्थम् । ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह तु निर्वृत्तेरिति । प्रयोगस्तु परार्था - श्चक्षुरादयः संघातत्वाच्छ्यनासनादिवत् । न चायं विशेषविरुद्धः । कर्मसंवद्धस्यात्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । गतमिन्द्रियद्वारमधुना बन्धादिद्वाराण्याह । ग्रहणवेदक निर्जरकः । कर्मणोऽन्यो यथाहार इति । तत्र ग्रहणं कर्मणो बन्धः । वेदनमुदयः । निर्जरा क्षयः । यथाहार इत्याहार विषयाणि ग्रहणादीनि न कर्त्रा दिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोपीति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु विद्यमान जोक्तृकमिदं कर्मग्रहणवेदन निर्जरणसङ्गावादाहारवदिति गाथार्थः । उक्तानि वन्धादिद्वाराणि । व्याख्याता च प्रथमा प्रतिकारगाथा । सांप्रतं द्वितीयामाधिकृत्य चित्तादिखरूपव्या चिख्यासयाह ॥ चित्तं तिकाल विसयं, चेयणपच्चरक सन्नमणुसरणं ॥ विषाणणेगनेयं, कालमसंखेयरं धरणा ॥ २४५ ॥ व्याख्या ॥ चित्तं त्रिकाल विषयम् उद्यतोऽतीतानागतवर्तमानयाहि । चे - तनं चेतना सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थया हिणी । संज्ञानं संज्ञा । सा अनुस्मरणमिदं तदिति ज्ञानम् । विविधं ज्ञानं विज्ञानमनेकभेदमनेकप्रकारमनेकधर्मिणि वस्तुनि तथा तथाध्यवसाय इत्यर्थः । कालमसंख्येयेतरम संख्येयं संख्येयं वा । धारणा अविच्युतस्मृतिवासनारूपा । तत्र वासनारूपासंख्येयवर्षायुषामसंख्येयं संख्येयवर्षायुषां संख्येयमिति गाथार्थः ॥ अबस्स कहबुद्धी, ईहा चेच अवगमो उ मई | संजावण्चतका, गुणपचरका घडोव ॥ २४६ ॥ व्याख्या ॥ अर्थस्योदबुद्धिः संज्ञिनः पर निरपेक्षार्यपरिछेद इति जावः । ईहा चेष्टा किमयं स्थाणुः किंवा पुरुष इति सदर्थपर्यालोचनरूपा । श्रर्थावगमस्त्वर्थपरिच्छेदस्तु शिरः कयनादिधर्मोपपत्तेः पुरुष एवायमित्येवंरूपा मतिः । संनावण्aतक्कसि । प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना । एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५श राय धनपतसिंघ बहाऽरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. तर्का । वं शाराणि व्याख्याय सर्व एते चेतनादयोगुणा वर्तन्त इति जीवाख्यगुणिप्रातिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरन्नाह गुणप्रत्यदत्वाखेतोघंटवदस्ति जीव इति गम्यते । एष गाथार्थः। एतदेव स्पष्टयति ॥ जम्हा चित्ताश्या, जीवस्स गुणा हवंति पच्चरका ॥ गुणपञ्चकत्तणजे, घडु ध जीवो अर्जु अधि ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ यस्माञ्चित्तादयोऽनन्तरोक्ता जीवस्य गुणा जीवस्य शरीरादिगुण विधर्मत्वात् । एते च जवन्ति प्रत्यदाः स्वसंवेद्यत्वात् । यतश्चैवं गुणप्रदत्वा तोर्घटवजीवः । अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु सन्नात्मा, गुणप्रत्यदत्वाद्धटवत् । नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुकः ‘विरुकोऽसति बाधने' इति वचनात् । एतच्च प्रत्यदेणैव वाधनमिति गाथार्थः। व्याख्यातं मूलछारगाथायेन लक्षणछारमिदानीमस्तित्वमा रावसरः। तथा चाह नाष्यकारः॥ अबित्ति दारमहुणा, जीवस्तश्अछि विद्यए नियमा ॥ लोआययमयघायबमुच्चए तबिमो हेऊ ॥ २४ ॥ व्याख्या॥ अस्तीति द्वारमधुना सांप्रतमवसरप्राप्तम् । तत्रैतडुच्यते । जीवः सन् पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः। सन्निति सिहसाध्यता । नतु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदायाह । अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपस्तदपि मातृचैतन्योपादानं जविष्यति परलोकयायी तु न विद्यते इति मोहापोहायाह । विद्यते नियमान्नियमेन तथा चाह । लोकायतमतघातार्थं नास्तिकानिप्रा. यनिराकरणार्थमुच्यत एतत्तस्य चानन्तरोदित एवानिप्राय इति सफलानि विशेषणानि । तत्र लोकायतमतविघाते कर्तव्ये अयं वदयमाणलक्षणो हेतुः । अन्यथानुपपतिरूपो युक्तिमार्ग इति गाथार्थः ॥ जो चिंतेश् सरीरे, नबि अहं स व होश जीवो त्ति ॥ न हु जीवंमि असंते, संसयनप्पायर्ड अन्नो ॥ २४ ॥ व्याख्या ॥ यश्चिन्तयति शरीरे अत्र लोके प्रतीते नास्त्यहम् । स एव चिन्तयिता जवति जीव इति । कथमेतदेवमित्याह । न यस्माजीवेऽसति मृतदेहादौ संशयोत्पादकोऽन्यः प्राणादि श्चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थः। एतदेव जावयति ॥ जीवस्स एस धम्मो, जा २ हा नलि अनि वा जीवो ॥ खाणुमणुस्साणुगया, जह ईहा देवदत्तस्स ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ जीवस्यैष स्वनावः एष धर्मः। या ईहा सदर्थपर्यालोचनामिका । किाव शिष्टेत्याह । अस्ति नास्ति जीव इति । लोकप्रसिहं निदर्शनमाह । स्थाणुमनुष्या गता किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा यथेहा देवदत्तस्य जीवतो धर्म शत गाथार्थः । प्रकारान्तरेणैतदेवाह ॥ सिहं जीवस्स अबित्तं, सदादेवाणुमीयए । नास नुवि नावस्स, सदो हव केवलो ॥ २५१॥ व्याख्या ॥ सिहं प्रतिष्ठितं जावर स्योपयोगलक्षणस्यास्तित्वम् । कुत इत्याह । शब्दादेव जीव इत्यस्मादनुमीयते । क. .. थमेतदेवमित्याह । नासत इति । नासतोऽविद्यमानस्य जुवि पृथिव्यां नावस्य पदा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २५३ र्थस्य शब्दो नवति वाचक इति । खरविषाणादिशब्दैव्य॑निचारमाशङ्कयाह । केवलः शुद्धोऽन्यपदासंस्कृष्टः। खरादिपदसंसृष्टाश्च विषाणादिशब्दा ति गाथार्थः। एतद्विवरणायैवाह नाष्यकारः॥अबित्ति निविगप्पो,जीवो नियमान सदर्ज सिद्धी ॥ कम्हा सुऊपयत्ता,घडखरसिंगाणुमाणा॥श्यशाव्याख्या।अस्तीति निर्विकल्पो जीवः निर्विकल्प इति निःसंदिग्धः । नियमान्नियमेनैव प्रतिपत्रपेक्षया शब्दतः सिद्धिः वाचकाहाच्यप्रतीतेः । एतदेव प्रश्नहारेणाह । कस्मात् कुत एतदेवमित्याह । शुद्धपदत्वात् केवलपदत्वाजीवशब्दस्य घटखरशृङ्गानुमानादनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः । घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु मुख्येनार्थनार्थवान् जीवशब्दःशुझपदत्वाछटशब्दवत् । यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् न भवति स शुद्धपदमपि न नवति । यथा खरशृङ्गशब्द इति गाथार्थः । परानिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह ॥ चोयगसुद्धपयत्ता, सिद्धी जश् एव सुण सिकि अम्हं पि ॥ तं न नव संतेणं, जं सुन्नं सुन्नगेहं व ॥ २५३ ॥ व्याख्या ॥ उक्तवलुपदत्वासिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्यसिद्धिरस्माकमपि । शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यनिप्रायः । अत्रोत्तरमाह । तन्न नवति यमुक्तं परेण । कुत इत्याह । सता विद्यमानेन पदार्थेन यद्यस्माबून्यं शून्यमुच्यते । किंवदित्याह । शून्यगृहमिव । तथाहि । देवदत्तेन रहितं शून्यगृहमुच्यते । निवृत्तो घटो नष्ट इति । नत्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदवशिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेव समर्थयन्नाह ॥ मिठा नवेज सवना, जे केई पारलोश्या ॥ कत्ता चेवोपत्नोत्ता य , जर जीवो न विद्यश् ॥ २५४ ॥ व्याख्या ॥ मिथ्या नवेयुरनृताः स्युः सर्वथा ये केचन पारलौकिका दानादयः । यदि किमित्याह । कर्ता चैव कर्मण उपनोक्ता च तत्फलस्य यदि जीवो न विद्यते । परलोकयायीति गाथार्थः। एतदेवाव्युत्पन्न शिष्यानुग्रहार्थ स्पष्टतरमाह ॥ पाणिदयातवनियमा, वंनं दिका व इंदिय निरोहो ॥ सवं निरउमेयं, ज जीवो न विद्यई ॥ २५५ ॥ व्याख्या ॥ प्राणिदयातपोनियमाः करुणोपवासहिंसाविरत्यादयः। तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्य दीदा च योगलक्षणा इन्डियनिरोधः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूपः । सर्व निरर्थकं निष्फलमेतत् । यदि जीवो न परलोकयायीति गाथार्थः । किंच शिष्टाचरितो मार्गः शिष्टेरनुगन्तव्य इति । तन्मार्गख्यापनायाह ॥ लोश्या वेश्या चेव, तहा सामाश्या विऊ ॥ निच्चो जीवो पिहो देहो, २ सवे ववबिया ॥ २५६ ॥ व्याख्या ॥ लोके नवा लोके वा विदिता इति लौकिका इतिहासादिकर्तारः । एवं वैदिकाश्चैव विद्यवृक्षाः तथा सामायिकात्रिपिटकादिसमयवृत्तयो विद्वांसः पएिकताः। नित्यो जीवो नानित्यः । एवं पृथग् देहाठरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिता नान्यथेति गाथार्थः । एतदेव व्याचष्टे ॥ लोगे अ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. छेद्यन्नेद्यो, वेए सपुरीसदगसियालो॥समए ग्रहमासि गर्ड, तिविहो दिवाइसंसारो॥ २५७ ॥ व्याख्या ॥ लोकेऽछेद्योऽन्नेद्य आत्मा पठ्यते । यथोक्तं गीतासु ॥ " अवे. द्योऽयमन्नेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ॥ नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥" इत्यादि । तथा वेदे सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यत इति । यथोक्तम् । “ शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते । अथापुरीषो दह्यते आदोधुका अस्य प्रजाः प्राहुजवन्ति ।" इत्यादि । तथा समये “ अहमासीमजः” इति पव्यते । तथा च बुद्धवचनम् ॥ " अहमासं निदवो हस्ती , षड्दन्तः शङ्खसंनिनः ॥ शुकः पञ्जरवासी च शकुन्तो जीवजीवकः॥” इत्यादि । तथा त्रिविधो दिव्यादिसंसारः कैश्चिदिष्यते । देवमानुषतिर्यग्नेदेन । आदिशब्दाच्चतुर्विधः कैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः । अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह ॥ अछि सरीरविहाया , पनिययागारयाश्नावाजं ॥ कुंजस्स जह कुलालो, सो मुत्तो कम्मजोगाउँ ॥ २५७ ॥ व्यारव्या ॥ अस्ति शरीरस्यौदारिकादेर्विधाता । विधातेति कर्ता । कुत इत्याह । प्रतिनियताकारादिसनावात् । आदिमत्प्रतिनियताकारत्वादित्यर्थः। दृष्टान्तमाह । कुम्नस्य यथा कुलालो विधाता। कुलालवदेवमसावपि मूर्तः प्राप्नोतीत्याशङ्कय परिहरन्नाह । असावात्मा यः शरीरविधाता असौ मूर्तः । कर्मयोगादिति मूर्तकर्मसंबन्धादिति गाथार्थः। अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तयेऽन्यथा तद्रहण विधिमाह ॥ फरिसेण जहा वाज, गिलई कायसंसिर्ज ॥ नाणाहिं तहा जीवो, गिधई कायसंसि ॥ २५ए ॥ व्यारव्या ॥ स्पर्शेन शीतादिना यथा वायुह्यते कायसंस्कृतो देहसंगतः । तथा ज्ञानादिनिनिदर्शनेबादिनिजीवो गृह्यते कायसंसृतो देहसंगत इति गाथार्थः। असकृदनुमानादस्तित्वमुक्तं जीवस्य। अनुमानं च प्रत्यदपूर्वकं न चैनं केचन पश्यन्तीति ततश्चाशोजनमेतदित्याशङ् क्याह ॥ अणिं दियगुणं जीवं, उन्नेयं मंसचरकुणा ॥ सिझा पासंति सबन्नू, नाणसिका य साहुणो ॥२६० ॥ व्याख्या॥ अनिन्दियगुणमविद्यमानरूपादीन्जियग्रा. ह्यगुणं जीवममूर्तत्वादिधर्मकं उद्देयं उर्लदं मांसचनुषा बद्मस्थेन पश्यन्ति ।स. छाः सर्वाः । अञ्जनसिक्षा दिव्यवछेदार्थं सर्वज्ञग्रहणम् । ततश्च झषनादय इत्यर्थः । ज्ञानसिद्धाश्च साधवो जवस्थकेवलिन इति गाथार्थः । सांप्रतमागमादस्तित्वमाह ॥ अत्तवयणं तु सबं, दिहा य तओ अइंदियाणं पि॥ सिद्धी गहणाईणं, तहेव जीवस्त विन्नेया ॥२६१ ॥ व्याख्या ॥ आप्तवचनं तु शास्त्रम् । आप्तो रागादिरहितः। तुश ब्दोऽवधारणे । आप्तवचनमेव । अनेनापौरुषेयव्यवछेदमाह । तस्यासंजवादिति । दृष्टा च तत इत्युपलब्धा च तत आप्तवचनशास्त्रात् । अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगोच रातिकान्तानामपि । सिडिग्रहणादीनामिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यथः । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २५५ तथैव जीवस्य विज्ञेयेति । अतीन्जियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः । मूलकारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वहारमधुनान्यत्वा दित्रयव्याचिख्यासुराह ॥ अमत्तममुत्तत्तं, निच्चत्तं चेव नन्नए समयं ॥ कारणअविनागाई, हेऊहिं माहिं गाहाहिं ॥ ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ अन्यत्वं देहादमूर्तत्वं खरूपेण । नित्यत्वं चैव परिणामिनित्यत्वं जण्यते । समकमेकैकेन हेतुना त्रितयमपि युगपदिति एककाल मित्यर्थः । कारणाविनागादिनिर्वयमाणलक्षणैर्हेतुनिरिमानिस्तिमृचिनियुक्तिगाथामिरेवेति गाथार्थः॥ कारण विनागकारण-विणासबंधस्स पच्चयाजावा ॥ विरुझस्स य अबस्स, पाउलावा विणासा य ॥ २६३ ॥ व्याख्या ॥ कारण विनागकारण विनाशवन्धस्य प्रत्ययानावादित्यत्रानावशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । कारण विनागाजावान्न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्त्वादिकारण विनागोऽस्ति कारणानावादेव । एवं कारण विनाशाजावेऽपि योज्यम् । तथा वन्धस्य ज्ञानावरणादिपुजलयोगलक्षणस्य प्रत्ययाजावाझेतुत्वानुपपत्तेः।वन्धस्येति वध्यमानव्यतिरिक्तबन्धज्ञापनार्थमसमासः। व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्शनार्थ मिति। तथा विरुझस्य चार्थस्य पटादिनाशे जस्मादिरिव अप्रा - वादविनाशाच्च । अप्राकु वेऽनुत्पत्तौ सत्यामविनाशाच हेतोर्जीवस्य नित्यत्वं नित्यत्वादमूर्तत्वममूर्तत्वाच्च देहादन्यत्वमिति प्रतिपत्त्यानुगुण्यतो व्यत्ययेन साध्य निर्देशः । वक्ष्यति च नियुक्तिकारः ॥ “जीवस्स सिझमेवं, निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं" ॥ इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु जाण्यादवसेयः । तत्राव्युत्पन्न विनेयासंमोहनिमित्तं यथोपन्यासं तावद्द्वाराणि व्याख्याय पश्चानियुक्तिकारानिप्रायेण मीलयिष्यतीत्यत आह ॥ अन्नत्ति दारमहुणा, अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो व ॥ तजीव तस्सरीरय-मयघायचं श्मं नणियं ॥ २६४ ॥ व्याख्या ॥ श्रन्यो देहादिति द्वारमधुना । तदेतघ्याख्यायते। अन्यो देहात् । जीव इति गम्यते । गृहादिगतपुरुपवदिति दृष्टान्तः। तन्नावेऽपि तत्र नियमतोऽनावादिति हेतुरन्यूह्यः । न चासिकोऽयं मृतदेहेऽदर्शनात् । प्रयोगफलमाह । तजीवतरीरवा दिमतविघातार्थमिदं प्रयोगरूपं नणितमिति गाथार्थः । प्रयोगान्तरमाह॥देहिं दियाइरित्तो, आया खलु तज्वलयठाणं॥तदिगमे वि सरणजे, गेहगवरकेहिं पुरिसो व ॥ २६५ ॥ व्याख्या ॥ खलुशब्दो विशेपणार्थत्वात्कथंचिद्देदेलियातिरिक्त आत्मेति प्रतिज्ञार्थः । तउपलव्धार्थानामिति संनवतः परामशत्वात् । इन्जियोपलव्धार्थानां तद्विगमेऽपीन्द्रियविगमेऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः । स्मरन्ति चान्धवधिरादयः पूर्वानुभूतं रूपाढीति । गेहगवाक्षः पुरुषवादिति दृष्टान्तः । प्रयोगस्तु कथंचिदेहेन्डियातिरिक्त यात्मा तकिंगमेऽपि तापलब्धार्यानुस्मरणात् पञ्चवातायनोपलव्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवदिति गाथार्थः । इन्जियोपलब्धि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. मत्त्वाशङ्कापोहायाह ॥ न उ इंदियाइं उवल-छिमंति विगएसु विसयसंजरणा ॥ जह गेहगवकेहिं, जो अणुसरिया स उवलझा ॥ २६६ ॥ व्याख्या ॥ न पुनरिन्सियाण्येवोपलब्धिमन्ति अष्टणि । कुत इत्याह । विगतेष्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात् तनहीतरूपाद्यनुस्मृतेरन्धबधिरादीनामिति । निदर्शनमाह । यथा गेहगवादैः करणजूतैः दृष्टानर्थाननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपलब्धा नतु गवादा एवमत्रापीति गाथार्थः । उक्तमेकेन प्रकारेणान्यत्वछारमधुना अमूर्तधारावसर इत्याह जाष्यकारः॥ संपयममुत्तदारं, अइंदियत्ता अयनेयत्ता ॥ रूवाशविरह वा, अणाश्परिणामजा. वा ॥ २६७ ॥ व्याख्या ॥ सांप्रतममूर्तहारम् । तठ्याख्यायते । अमूर्ती जीवः अतीन्डियत्वात् अव्येन्द्रियाग्राह्यत्वात् । अद्यान्नेद्यत्वात् खड्गशूलादिना । रूपादिविरहितश्च अरूपत्वादित्यर्थः । तथानादिपरिणामजावादिति वनावतोऽनायमूर्तप. रिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ उमबाणुवलंना, तहेव सबन्नुवयण चेव ॥ लोयाइपसिद्धी, जीवो मुत्तो ति नायवो ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ उद्मस्थानुपलम्जादवधिज्ञानिप्रतिनिरपि सादादगृह्यमाणत्वात्तथैव सर्वज्ञवचनाच्चैव सत्यवक्तृवीतरागवचनादित्यर्थः। लोकादिप्रसिछेर्लोकादावमूर्तत्वेन प्रसिद्धत्वात्। आदिशब्दाछेदसमयपरिग्रहः । अमूर्तो जीव इति ज्ञातव्यः । सर्वत्रैवेयं प्रतिज्ञेति गाथार्थः । उक्तममूर्तद्वारमधुना नित्यत्वछारप्रस्तावः । तथाचाह जाष्यकारः। णिच्चोत्ति दारमहुणा, णिच्चो अविणाास सासजीवो॥नावत्ते सश्जम्मा-नावाज नहं व विन्ने॥२६॥व्याख्या॥ नित्य शत। नित्यहारमधुनावसरप्राप्तं तठ्या चिख्यासयाह । नित्यो जीव इति। एतावत्युच्यमान पर रपि संतानस्य नित्यत्वान्युपगमात्सिहसाध्यतेति । तन्निराकरणायाह । अविनाशा क्षणापेक्ष्यापि न निरन्वयनाशधर्मा । एवमपि परिमितकालावस्थायी कैश्चिदिष्यत । कप्पहाई पुढवी जिस्कू वेति वचनात्तदपोहायाह । शाश्वत इति।सर्वकालावस्थाय।।कुत इत्याह । जावत्वे सति वस्तुत्वे सतीत्यर्थः । जन्मानावात् । अनुत्पत्तेर्नजोवदाकाशवः विज्ञेयः। नावत्वे सतीति विशेषणं खरविषाणादिव्यवछेदार्थ मिति गाथार्थः । हेत्वन्तः राण्याह ॥ संसारा आलो-यणाज तह पञ्चनिन्नन्नावा ॥ खणनंगविघायचं, जाणत्र तेलोकदंसीहि ॥॥ व्याख्या ॥ संसारादिति । संसरणं संसारस्तस्मात्स एव नारक स एव तिर्यगादिरिति नित्यः।आलोचनादिति।आलोचनं करोम्यहं कृतवानहं कार प्येऽहमित्यादिरूपं त्रिकालविषयमिति नित्यः।तथा प्रत्यनिशानावात् स एष इति प्रत्य निज्ञा प्रत्यय आविछदङ्गानादिसिकः । तदनेदग्राहीति नित्य इति । उक्तानिधानका माह दणनङ्गविघातार्थं निरन्वयक्षणिकवस्तुवाद विघातार्थ नणितं त्रैलोक्यदर्शिाजस्ता Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । Այ करैरेतदनन्तरोदितं न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः । एतदेव दर्शयति । लोगे ए समये, निच्चो जीवो विनास श्रहं ॥ इहरा संसाराई, सवं पिन जुद्यए तस्स ॥ २७१ | व्याख्या ॥ लोके नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणीत्यादिवचनप्रामाण्याद्वेदेषु स एष श्रयोऽज इत्यादिश्रुतिप्रामाण्यात्समये न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष इति वचनप्रामाण्यात् । के मित्याह । नित्यो जीवः प्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकखावः । एकान्तनित्य एव न चैतन्याय्यमेकस्वभावतया संसरणादिव्यवहारोछेदप्रसंगादिति वदयत्यत आह । वेजापयास्माकं विकल्पेन नजनया स्यान्नित्य इत्यादिरूपया द्रव्यार्था देशान्नित्यः यादेशादनित्य इत्यर्थः । इतरथा यद्येवं नाभ्युपगम्यते । ततः संसारादि सारालोचनादि सर्वमेव न युज्यते । तस्यात्मनः स्वजावान्तरानापत्त्या एकखजावनया वार्तमानिकनावातिरेकेण नवान्तरानापत्तेरेवममूर्तत्वान्यत्वयोरपि विजापा वेदिनव्या । अन्यथा व्यवहाराजावप्रसंगात् । एकान्तामूर्तस्यैकान्तदेह जिन्नस्य वातिपाता - संजवादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अक्षरगम निकामात्रत्वात्प्रारम्नस्येति गाथायैः । एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृत निर्यु क्तिगाथां व्याचिख्यासुराह । कारण श्रविभागाउँ, कारणाविणास य जीवस्स ॥ निच्चत्तं विन्नेयं, यागासपडाणुमा पार्ट ॥ २७२ ॥ व्याख्या ॥ कारणाविभागात्पटादेस्तन्त्वादेरिव कारण विभागाजावादित्यर्थः । कारणाविनाशतश्च। कारणाविनाशश्च कारणानामेवाजावात् । किमित्याह । जीवस्यात्मनो नित्यत्वं विज्ञेयम् । कुत इत्याह । आकाशपटानुमानात् । अत्रानुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः। व्याकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयोगः । नित्य श्रात्मा स्वकारण विभागाभावादाकाशवत् । तथा कारण विनाशानावादाकाशवदेव । यस्त्वनित्यस्तस्य कारण विभागजावः । कारण विनाशजावो वा यथा पटस्येति व्यतिरेकः । पटाद्धि तन्तवो विभज्यन्ते विनश्यन्ति चेति नित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वादमूर्तः । अमूर्तत्वाद्देहादन्य इति गायार्थः ॥ निर्युक्तिगाथायां कारण विभागाभावात्कारण विनाशानावाच्चेति द्वारद्वयं व्याख्याय सांप्रतं बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याचिख्यासुराह ॥ हेडप्पनवो बंधो, जम्माणंतरयस्त नो जुत्तो । तोग विरह खलु, चोराइघडाणुमापाई ॥ २७३ ॥ व्याख्या ॥ हेतुप्रनवो देतुजन्मा बन्धो ज्ञानावरणादिपुजलयोगलक्षणः जन्मानन्तरमृतस्योत्पत्त्यनन्तर विनष्टस्य न युक्तो न घटमानः । तयोग विरहत इति तैर्वन्धहेतु निर्मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगलक्षणैयों योगः संबन्धस्त द्विरदतस्तदजावादेव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । चौरा दिघटानुमानादित्यनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः । चौरादिघटादिदृष्टान्तात् । नहि उत्पत्त्यनन्तर विनाशी चौरचौर्य क्रियानावे बध्यते । स्थाची हि घटो जलादिना संयुज्यते इति व्यतिरेकार्थः । प्रयोगश्चात्र न क्षणिक श्रात्मा बन्धप्रत्ययत्वाची Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. रवत् । नित्यत्वा मूर्तत्व देहान्यत्वयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः । निर्युक्तिगाथायां वन्धस्य प्रत्ययाजावादिति व्याख्यातमधुना विरुद्धस्य चार्थस्याप्रादुर्भावाविनाशाच्चेति व्या. ख्यायते ॥ श्रविणासी खलु जीवो, विगारणुवलंजर्ड जहागासं ॥ उवलनंति विगारा, कुंना विणा सिदवाणं ॥ २७४ ॥ व्याख्या || अविनाशी खलु जीवो नित्य इत्यर्थः । कुतः इत्याह । विकारानुपलम्भाद्वटादिविनाशे कपालादिवद्विशेषादर्शनाद्यथाकाशमाकाशवदित्यर्थः । एतदेव स्पष्टयति । उपलभ्यन्ते विकारा दृश्यन्ते कपालादयः कुंनादिविनाशिद्रव्याणां न चैवमत्रेत्य निप्रायः । नित्यत्वामूर्तत्व देहान्यत्वयोजना पूर्ववत् । इति गाथार्थः । निर्युक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति गाथार्थः । प्रकृतसंकहामेव निर्युक्तिगाथामाह ॥ निरामयामयजावा, बालकयाणुसरा डुवठाणा ॥ सुताई हिं प्रगहणा, जाईसरणा थप जिलासा ॥ २७५ ॥ व्याख्या ॥ निरामयामयनावात् निरामयस्य नीरोगस्यामयजावाद्रोगोत्पत्तेः । उपलक्षणं चैतत्सामय निरामयजावस्य । तथा चैवं वक्तार उपलभ्यन्ते । पूर्वं निरामयोऽहमासं संप्रति सामयो जातः । सामयो वा निरामय इति । न चैतन्निरन्वयलक्षण विनाशिन्यात्मन्युपपद्यते । उत्पत्त्यनन्तराजावादित प्रयोगार्थः । प्रयोगस्त्ववस्थित श्रात्मा छाने कावस्थानुजवनाद्दालकुमाराद्यव - स्थानुज वितृदेवदत्तवत् । नित्यत्वादमूर्तः । अमूर्तत्वाद्देहादन्य इति योजना सर्वत्र कार्या । तथा बालकृतानुस्मरणात् । कृतशब्दोत्रानुभूतवचनस्ततश्च बालानुभूतस्मरणात् । तथा च बालेनानुभूतं वृद्धोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते । नच श्रन्येनानुभूतमन्यः स्मरत्यतिप्रसंगात् । नचेदमनुस्मरणं चान्तं बाधासिद्धेः । न च हेतुफलनाव निबन्धनमेत निरन्वयक्षण विनाशपके तस्यैवासिद्धेः देतोरनन्तरक्षणेऽजावापत्तेः । सतश्च सद्भावविरोधादितिप्रयोगार्थः । प्रयोगस्त्वव स्थित श्रात्मा पूर्वानुतार्थानुस्मरणात्तदन्यैवनूतपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानसत्र गृह्यते । यद्येनोपात्तं कर्म स एव तत्फलमुपते । श्रन्यश्च क्रियाकालोsन्यश्च फanta: । एकाधिकरणं चैतद्वयमन्यथा स्वकृतवेदनासिद्धेः । अन्यकृतान्योपनोगस्य निरुपपत्तिकत्वात् कृतनाशाकृताज्यागमप्रसंगात् । संतानपक्षेऽपि कर्तृनोक्तृसंता निनोर्नानात्वा विशेषाञ्च क्किने दात्तस्यैव तथाजावाच्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्चावस्थित श्रात्मा स्वकृतकर्मफल वेदनात्कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिजिरग्रहणात् श्रोत्रादिनिरिन्द्रियैर प रिष्ठित्तेः । नच श्रोत्रादिभिरपरि विद्यमानस्य सत्त्वमवग्रहादीनां स्वसंवेदन सिद्धत्वात् । व द्वैरप्यतीन्द्रियज्ञानाज्युपगमात् । ज्ञानस्य च गुणत्वात् । गुणस्य च गुणिनमन्तरेषानावात् । प्राक्तनज्ञानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः । तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः । प्र योगश्च नित्य आत्मा गुणित्वे सत्यतीन्द्रियत्वात् आकाशवत् । तथा जातिस्मरणा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम्। २५ए दिति । जातेरतिक्रान्तायाः स्मरणात् । न चेदमनुस्मरणमननुनूतस्यान्यानुभूतस्य च नवत्यतिप्रसंगात् । दृश्यते च क्वचिदिदं न चासौ प्रतारकः तत्कथितार्थसंवादनात् । अनुनवा विशेषे च सर्वेषामेव कस्मान्न लवतीति चेकुच्यते । कर्मप्रतिवन्धसंबन्धाद् दृढानुनवानावादिह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनान्न खलु श्ह लोके सर्वत्रानुस्मरणदर्शनम् । तदिहापि कचिजातौ सर्वेषामस्त्विति चेन्न । नष्टचेतसां सर्वत्रानुस्मरणशून्येन व्यभिचारादिति प्रयोगार्थः। प्रयोगश्च बालकृतानुस्मरणवटव्य इति । तथा स्तनानिलाषादिति । तदहर्जातवालकस्यापि स्तनानिलापदर्शनात् । नचान्यकासाननुजूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते । प्रयोगश्च । तहर्जातवालकस्याद्यस्तनाचिलापोऽचिसापान्तरपूर्वकोऽनिलाषत्वादन्यस्तनानिलापवत् । तदप्रथमत्वसाधनाद विरुद्धो हेतुरिति चेन्न प्रथमत्वानुनवेन वाधनात् । असति च बाधने विरुद्ध इति न्यायादन्यथा हेतूछेदप्रसंगादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अदरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्त्वादिति। नित्यादि क्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः । एतामेव नियुक्तिगाथां सेशतो व्याचिख्यासुराह नाष्यकारः॥ रोगस्सामयसन्ना, बालकयं जं जुवाणुसंजर ॥ जं कयमन्नंमि नवे, तस्सेवन्नतुववाणा ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ रोगस्यामंय इतिसंज्ञवालकृतं किमपि वस्तु यद्यस्माद्यवानुस्मरति । तथा यत्कृतमन्यस्मिन् नवे कुशला कुशलं कर्म तस्यैव कर्मणोऽन्यत्र नवान्तरे उपस्थानात्सर्वत्र नावार्ययोजना कृतैवेति गाथार्थः ॥ णिच्चो अणि दियत्ता, खणि नवि हो। संजरणा ॥ थणयजिलासा य तहा, यम नउ मिम्मनब घडो ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ नित्य इति । सर्वत्र क्रियानिसंवध्यते । अनिन्जियत्वायोत्रादिनिरग्रहणादित्यर्थः। विज्ञेयो ज्ञातव्यः । तथा च जातिस्मरणात् पागन्तरं वा । क्षणिको न नवति । जातिस्मरणादित्येतदप्यष्टमेव विधिप्रतिषेधान्यां साध्याजिधानात् । स्तनानिलापाच्च । तथा अमयोऽयमात्मा नतु मृन्मय श्व घटस्ततश्चाकारण इत्यर्थः । एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तम् सूदम धिया नाष्यकारेणेति गाथार्थः। तृतीयां नियुक्तिगाथामाद सवन्नुवदिछत्ता, सकम्मफलनोयणा अमुत्तत्ता ॥ जीवस्स सिझमेवं, निश्चत्तममुत्तमन्नतं ॥२०॥ व्याख्या ॥ सर्वज्ञोपदिष्टत्वादिति नित्यो जीवति सर्वज्ञोक्तत्वात् । व्यक्तियं - च सर्वज्ञवचनं तस्य रागादिरहितत्वादिति । स्वकर्मफलनोजनादिति खोपात्तकर्मफललोगादित्यर्थः । उपस्थापनादेतन्न निद्यत इति चेन्न थनिप्रायापरिज्ञानात् । तत्र हि येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कमोंपतिष्ठत इत्युक्तम् । तच्चैकस्मिन्नपि जन्मनि संजवतीदं वन्यजन्मान्तरापेक्ष्यापि गृह्यत इति न दोपः । तथा यमृतत्वादिति मूर्तिरहितत्वादेतदपि भोत्रादिजिरग्रहणादित्यस्मान्न जिद्यत इति चेन्न । तत्र हि श्रोत्रादिनिर्न गृह्य Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. रवत् । नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः। नियुक्तिगाथायां बन्धस्य अत्ययाजावादिति व्याख्यातमधुना विरुडस्य चार्थस्थाप्रा वाविनाशाच्चेति व्याख्यायते ॥ अविणासी खलु जीवो, विगारणुवलंज जहागासं ॥ जवलनंति विगारा, कुंचाविणासिदवाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या ॥ अविनाशी खलु जीवो नित्य इत्यर्थः। कुत इत्याह । विकारानुपलम्जाद्धटादिविनाशे कपालादिवहिशेषादर्शनाद्यथाकाशमाकाशवदित्यर्थः । एतदेव स्पष्टयति । उपलच्यन्ते विकारा दृश्यन्ते कपालादयः कुंनादिविनाशिडव्याणां न चैवमत्रेत्यजिप्रायः । नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववत् । इति गाथार्थः । नियुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाजावादिति गाथार्थः। प्रकृतसंवद्यामेव नियुक्तिगाथामाह ॥ निरामयामयजावा, बालकयाणुसरणा कुवबाणा ॥ सुत्ताईहिं अगहणा, जासरणा थण जिलासा ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ निरामयामयनावात् । निरामयस्य नीरोगस्यामयनावालोगोत्पत्तेः । उपलक्षणं चैतत्सामयनिरामयत्नावस्य । तथा चैवं वक्तार जपलच्यन्ते । पूर्व निरामयोऽहमासं संप्रति सामयो जातः। सामयो वा निरामय इति । न चैतन्निरन्वयलक्षण विनाशिन्यात्मन्युपपद्यते । उत्पत्त्यनन्तरानावादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्त्ववस्थित श्रात्मा अनेकावस्थानुजवनाहालकुमारायवस्थानुनवितृदेवदत्तवत् । नित्यत्वादमूर्तः। अमूर्तत्वादेहादन्य इति योजना सर्वत्र कार्या । तथा बाखकृतानुस्मरणात् । कृतशब्दोत्रानुजूतवचनस्ततश्च बालानुभूतस्मरणात् । तथा च बालेनाजुनूतं वृद्धोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते । नच अन्येनानुजूतमन्यः स्मरत्यतिप्रसंगात् । नचेदमनुस्मरणं ब्रान्तं बाधासिकेः । न च हेतुफलनाव निबन्धनमेत निरन्वयदण विनाशपदे तस्यैवासिद्धेः तोरनन्तरक्षणेऽजावापत्तेः। असतश्च सझाव विरोधादितिप्रयोगार्थः।प्रयोगस्त्ववस्थित आत्मा पूर्वानुजूतार्थानुस्मरणात्तदन्यैवंनूतपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानमत्र गृह्यते । यद्येनोपात्तं कर्म स एव तत्फलमुपजुले । अन्यश्च क्रियाकालोऽन्यश्च फलकालः । एकाधिकरणं चैतड्वयमन्यथा खकृतवेदनासिझेः । अन्यकृतान्योपजोगस्य निरुपपत्तिकत्वात् कृतनाशाकृताज्यागमप्रसंगात् । संतानपढेऽपि कर्तृलोक्तृसंतानिनो नात्वाविशेषाक्तिदात्तस्यैव तथाजावान्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्चाव स्थित आत्मा खकृतकर्मफलवेदनात्कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिजिरग्रहणात् श्रोत्रादिनिरिन्डियैरपरिछित्तेः। नच श्रोत्रादिनिरपरि विद्यमानस्य असत्त्वमवग्रहादीनां खसंवेदनसिकत्वात् । बौबैरप्यतीन्डियज्ञानाज्युपगमात् । ज्ञानस्य च गुणत्वात् । गुणस्य च गुणिनमन्तरेणानावात् । प्राक्तनज्ञानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः । तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च नित्य आत्मा गुणित्वे सत्यतीन्जियत्वात् आकाशवत् । तथा जातिस्मरणा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। १५॥ दिति । जातेरतिक्रान्तायाः स्मरणात् । न चेदमनुस्मरणमननुभूतस्यान्यानुभूतस्य च जवत्यतिप्रसंगात् । दृश्यते च क्वचिदिदं न चासौ प्रतारकः तत्कथितार्थसंवादनात् अनुनवा विशेषे च सर्वेषामेव कस्मान्न नवतीति चेमुच्यते । कर्मप्रतिबन्धसंबन्धाद दृढानुनवाजावादिह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनान्न खलु श्ह लोके सर्वत्रा नुस्मरणदर्शनम् । तदिहापि क्वचिजातौ सर्वेषामस्त्विति चेन्न । नष्टचेतसां सर्वत्रानु स्मरणशून्येन व्यभिचारादिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च बालकृतानुस्मरणवद्रष्टव्य इति तथा स्तनानिलाषादिति । तदहर्जातबालकस्यापि स्तनानिलाषदर्शनात् । नचान्यका लाननुनूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते । प्रयोगश्च । तहर्जातबालकस्याधस्तनाभिलाषोऽजि. लाषान्तरपूर्वकोऽनिलाषत्वादन्यस्तनानिलाषवत् । तदप्रथमत्वसाधनाद विरुको हेतु रिति चेन्न प्रथमत्वानुनवेन बाधनात् । असति च बाधने विरुद्ध इति न्यायादन्यथा हेतूनेदप्रसंगादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अदरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्वा दिति। नित्या दिक्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः। एतामेव नियुक्तिगाथां से. शतो व्याचिख्यासुराह नाष्यकारः॥ रोगस्सामयसन्ना, बालकयं जं जुवाणुसंजर । जं कयमन्नंमि नवे, तस्सेवन्नबुवबाणा ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ रोगस्यामंय इतिसंज्ञ बालकृतं किमपि वस्तु यद्यस्माावानुस्मरति । तथा यत्कृतमन्यस्मिन् नवे कुशला। कुशलं कर्म तस्यैव कर्मणोऽन्यत्र नवान्तरे उपस्थानात्सर्वत्र नावार्थयोजना कृतैवेति गाथार्थः ॥ णिच्चो अणि दियत्ता, खपि नवि हो। संचरणा ॥ थणजिलासा य तहा, अमर्ड नउ मिम्मउब घडो ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ नित्य इति । सर्वत्र क्रियानिसंबध्यते । अनिन्जियत्वाडोत्रादिन्निरग्रहणादित्यर्थः। विज्ञेयो ज्ञातव्यः। तथा च जातिस्मरणात् पागंन्तरं वा । दणिको न भवति । जातिस्मरणादित्येतदप्यअष्टमेव विधिप्रतिषेधान्यां साध्यार्थानिधानात् । स्तनाजिलाषाच। तथा अमयोऽयमात्मा नतु मृन्मय श्व घटस्ततश्चाकारण इत्यर्थः । एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तम् सूदम धिया नाष्यकारेणेति गाथार्थः। तृतीयां नियुक्तिगाथामाह सवन्नुवदिछत्ता, सकम्मफलनोयणा अमुत्तत्ता ॥ जीवस्स सिद्धमेवं, निञ्चत्तममुत्तमन्नत्तं ॥७॥ व्याख्या ॥ सर्वज्ञोपदिष्टत्वादिति नित्यो जीव इति सर्वज्ञोक्तत्वात् । अवितथं च सर्वज्ञवचनं तस्य रागादिरहितत्वादिति ।खकर्मफलनोजनादिति खोपात्तकर्मफलजोगादित्यर्थः। उपस्थापनादेतन निद्यत इति चेन्न अनिमायापरिज्ञानात् । तत्र हि येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कर्मोपतिष्ठत इत्युक्तम् । तच्चैकस्मिन्नपि जन्मनि संजवतीदं त्वन्यजन्मान्तरापेक्ष्यापि गृह्यत इति न दोषः । तया अमूर्तत्वादिति मूर्तिरहितत्वादेतदपि श्रोत्रादिजिरग्रहणादित्यस्मान्न निद्यत इति चेन्न । तत्र हि श्रोत्रादिनिर्न गृह्य Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ते । इत्येतडुक्तमिह तु तत्स्वरूपमेव नियम्यते निरूप्यत इति । मूर्तानामपि श्रोत्रादिनिरग्रहणादिति द्वारत्रयमप्युपसंहरन्नाह ॥ जीवस्य सिद्धमेवं नित्यत्वममूर्तत्वमन्यत्वमिति गाथार्थः । मूलद्वारगाथाइये व्याख्यातमन्यत्वादिद्वारत्रयमिदानीं कर्तृद्वारावसरस्तथाचाह || कत्तत्ति दारमहुणा, सकम्मफलनोइणो जर्ज जीवा ॥ वाणियकिसीवला इव कविलमय निसेहणं एयं ॥ २७९ ॥ व्याख्या ॥ कर्तेति द्वारमधुना तदेतव्याख्यायते । स्वकर्मफलजोगिनो यतो जीवास्ततः कर्तार इति । वणिक्कृषीवलादय श्व मी कृतमुञ्जते । इति प्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु कर्तात्मा स्वकर्मफलनोक्तृत्वात्ककादिवत् । ऐपर्यमाह । कपिलमत निषेधनमेतत्सांख्यमत निराकरणमेतत्तत्राकर्तृवादप्रसिद्धेरिति गाथार्थः । मूलद्वारगायाद्वये व्याख्यातं कर्तृद्वारमिदानीं देहव्यापित्वद्वारावसर इत्याह जाष्यकारः ॥ वावित्ति दारमहुणा, देहव्वावी मर्ज ग्गिजहं व ॥ जीवो नउ सर्व्वगर्नु, देहे लिंगोवलं जाई ॥ २८० ॥ व्याख्या ॥ व्यापीति द्वारमधुना तदेतच्या ख्यायते । देहव्यापी शरीरमात्रं व्याप्तुं शीलमस्येति तथा मत इष्टः प्रवचनः जीवो नतु सर्वग इति योगः । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वान्न चाण्वादिमात्रः । कुत इत्याह । देहे बिङ्गोपलम्नात् शरीर एव सुखादितोिपलब्धेः । श्रयैौष्ण्यवत् । उष्णत्वं ह्यग्निलिङ्गं नान्यत्रार्नत्वनन्नाविति गाथाप्रयोगार्थः । प्रयोगस्तु शरीरनियतदेश श्रात्मा परमितदेशे लिङ्गोपलब्धेरन्यौष्ण्यवत् । इति गाथार्थः । व्याख्याता प्रथमा मूलद्वारगाथा । सांप्रतं द्वितीया व्याख्यायते । तत्र प्रथमं गुणीति द्वारं तया चिख्यासयाह जाष्यकारः ॥ अहुणा गुणित्ति दारं, होइ गुणेहिं गुणित्ति विन्ने ॥ ते जोगजोगडवर्ड - गमाइ रुवाइ व घडस्स ॥ २८९ ॥ व्याख्या ॥ अधुना गुणीति द्वारं तदेतद्व्याख्यायते । नवति गुणैर्हि गुणी । न तद्व्यतिरेकेणेत्येवं विज्ञेयः । अनेन गुणगुणिनोर्भेदाभेदमाह । ते जोगयोगोपयोगादयो गुणा इत्यादिशब्दादमूर्तत्वादिपरिग्रहः । निदर्शनमाह । रूपादय श्व घटस्य गुणा इति गाथार्थः । व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां गुणिद्वारमधुनोर्ध्वगतिद्वारावसर इत्याह जाष्यकारः ॥ उदुं गइति श्रा, अगुरुलहुत्ता सनावदुगर ॥ दितलाउ एणं, एरंडफलाइएहिं व ॥ २८२॥ व्याख्या ॥ उर्द्धगतिरित्यधुना द्वारं तदेतद्व्याख्यायते । अगुरुलघुत्वात्कारणात्स्वनावतः कर्मविप्रमुक्तः सन्नूर्ध्वगतिर्जीव इति गम्यते । यद्येवं तर्हि कथमधो गत्यत्राह । दृष्टान्तोऽलाम्बुना तुम्बकेन यथा तत्स्वनावत ऊर्ध्वगमनरूपमपि मृपाऊलेऽधो गछति । तदपगमादूर्ध्वमा जलान्तादेवमात्मापि कर्मले पादधो गछति । तदपगमादूर्ध्वमालोकान्तादिति । एरएफफलादिनिश्च दृष्टान्त इत्यनेन दृष्टान्तवाहुल्यं दर्शयति । यथा चैरएमफलमपि बन्धन परिष्टमूर्द्धं गच्छत्यादिशब्दादयादिपरिग्रह इति गाथार्थः । व्याख्यातं तृ 1 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १६१ ती मूलद्वारगाथायामूर्ध्वगतिद्वारं सांप्रतं निर्मयद्वारव्या चिख्यासयाह ॥ श्रम हो जीवो, कारण विरहा जहेव यागासं ॥ समयं च होअनिच्चं, मिम्मय घडतं - तुमाईयं ॥ २८३ ॥ व्याख्या ॥ श्रमयश्च नवति जीवः । न किम्मयोऽपीत्यर्थः । कुत इत्याह । कारण विरहात् यकारणत्वात् । यथैवाकाशमाकाशवदित्यर्थः । समयं वस्तु नवत्यनित्यम् । एतदेव दर्शयति । मृन्मयघटतन्त्वादौ । यथा मृन्मयो घटस्तन्तुमयः पट इत्यादि । न पुनरात्मा नित्य इति दर्शितम् । श्राहास्मिन्द्वारे सत्यमयो नतु मृन्मय इव घट इति प्राक्किमर्थमुक्तमित्युच्यते । अत एव द्वारादनुग्रहार्थमुक्तमिति लक्ष्यते । नवति चासकृद्ब्रवणादकृत्रेण परिज्ञानमित्यनुग्रहः । श्रतिगम्जी रत्वाद्भाष्यकारस्य न वयमजिप्रायं विद्म इति । अन्ये त्वनिदधत्यन्यकर्तृकैवासौ गाथेति गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां निर्मयद्वारमधुना साफल्यद्वारावसरस्तथा चाह जाष्यकारः ॥ साफलदारमहुणा, निच्चानिच्चपरिणामिजीवम्मि ॥ होइ तयं कम्माणं, श्हरेगसनावर्ड जुत्तं ॥ २८४ ॥ व्याख्या ॥ साफल्यद्वारमधुना तदेतTared | नित्यानित्य एव परिणामिनि जीव इति योगः । जवति तत्साफल्यं कालान्तरफलप्रदानलक्षणम् । केषामित्याह कर्मणां कुशलाकुशलानां कालभेदेन कर्तुनो परिणामदे सत्यात्मनस्तडुजयोपपत्तेः कर्मणां कालान्तर फलप्रदानमिति । इतरथा पुनर्यद्येवं नान्युपगम्यते तत एकस्वभावतः कारणादयुक्तं तत्कर्मणां साफल्यमिति । एतडुक्तं नवति । यदि नित्य आत्मा कर्तृस्वभाव एव कुतोऽस्य जोगः, जोखनावे वा कर्तृत्वं क्षणिकस्य तु कालद्वयाजावादेवैतनयमनुपपन्नम् । उत्नये च सति कालान्तर फलप्रदानेन कर्म सफलमिति गाथार्थः । द्वितीयमूलकारगाथायां व्याख्यातं साफल्यद्वारमधुना परिमाणद्वारमाह ॥ जीवस्स उपरिमाणं, विवर जाव लोगमेत्तं तु || उगाणा य सुदुमा, तस्स पएसा असंखेद्या ॥ २८५ ॥ व्याख्या ॥ जीवस्य तु परिमाणं विततस्य विस्तरतो विस्तरेण यावल्लोकमात्रमेव । एतच्च केवलि - समुद्रात चतुर्थसमये जवति । तत्रावगाहना च सूक्ष्मा विततैकैकप्रदेशरूपा नवति । तस्य जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः सर्व एव लोकाकाशप्रदेशतुल्या इति गाथार्थः । अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह ॥ पत्रेण व कुलएण व, जह कोई मिणेद्य सर्व्वधन्नाइ ॥ एवं मविद्यमाणा, हवंति लोगा अता ॥ २८६ ॥ व्याख्या ॥ प्रस्थेन वा चतुः कुडवमानेन कुडवेन वा चतुःसेतिकामानेन । यथा कश्चित्प्रमाता मिनुयात्सर्वधान्यानि व्रीह्यादीनि । एवं मीयमाना असनावस्थापनया नवन्ति लोका अनन्तास्तु जीवनृता इति जावः । आह, यद्येवं कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति । उच्यते, सूक्ष्मावगाहनया यत्रैकस्तत्रानन्ता व्यवस्थिता इह तु प्रत्येकावगाढ्नया चिन्त्य २१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ते । इति न दोषः । दृष्टं च बादरद्रव्याणामपि प्रदीपप्रजापरमाण्वादीनां तथा परिणामतो नूयसामेकत्रैवावस्थानमिति गाथार्थः । व्याख्यातं द्वितीयमूलकारगाथायां परिमाणद्वारं तयाख्यानाच्च द्वितीया मूलद्वारगाथा जीवपदं चेति । सांप्रतं निकाय - पदं व्याचिख्यासुराह ॥ णामं ववणसरीरे, गई शिकाय विकाय दविए य ॥ मागपaaiगह नारे तह जावकाए य ॥ २८७ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने कुसे । शरीरकायः शरीरमेव तत्प्रायोग्यासंघातात्मकत्वात् । गतिकायो यो जवान्तरगतौ । स च तैजसकार्मणलक्षणः । निकायकायः षड्जीव निकायः । अस्तिकायो धर्मास्तिकायादिः । प्रव्यकायच या दिघटादिसमुदायः । मातृकाकायख्यादीनि मातृकाक्षराणि । पर्यायकायो द्वेधा जीवाजीवनेदेन । जीवपर्यायकायो ज्ञानादिसमुदायः । अजीवपर्यायकायो रूपा दिसमुदायः । संग्रहकायः संग्रहैकशब्दवाच्य स्त्रिकटुकादिवत् । जारकायः कापोती वृद्धासु व्याचक्ष्यते ॥ एको कार्ड दुहा जाने, एगो चिहइ एगो मारिटं ॥ जीवंतो मए मारि, तलव माणव के हेउणा ॥ २८८ ॥ व्याख्या ॥ उदाहरणम् । एगो काहो तलाए दो घडा पाणिस्स नरेऊण कावोडीए वह । सो एगो प्राक्कायकायो दोसु घडेसु डुहा कर्ज | त सो काहरो गवंतो परकबिर्ड । एगो घडो जग्गो | तम्मि जो आ उक्का सो मनुं । इयरम्मिजीवइ । तस्स नावे सो वि जग्गो | ताहे सो तेण पुवम एण मारि तिज | अहवा एगो घडो उक्कायनरि ताहे समाजकार्य हा काऊ अतावि सोम । तावि जीवइ । ताहे सो वि तदेव परिकत्तो ते मएए जीवंतो मारिति । एस जारकार्ड गर्छ । जावकायचौदयिका दिसमुदायः । इह च निकायः काय इत्यनर्थान्तरमिति कृत्वा कायनिप इत्यपुष्ट एवेति गायार्थः ॥ पुण हिगारो निकायकारण होइ सुतंमि ॥ उच्च रिअस रिसाए- कित्तणं सेसगाणं पि ॥२८॥ व्याख्या ॥ अत्र पुनः सूत्र इति प्रयोगः सूत्र इत्यधिकृताध्ययने । किमित्याह । अधिकारो निकायकायेन जवति । त्र्यधिकारः प्रयोजनं, शेषाणामुपन्यासवैयर्थ्यमाशंक्याह । उच्चरितार्थ सदृशानां उच्चरितो निकायः तदर्थतुल्यानां कीर्तनं संशब्दनं शेषाणामपि नामादिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात्प्रदेशान्तरोपयोगित्वाच्चेति गाथार्थः । व्याख्यातं निकायपदम् । उक्तो नाम निष्पन्नो निक्षेपः सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसरः । इत्यादिचर्चः पूर्ववन्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम् । सुयं मे इत्यादि । श्रूयते तदिति श्रुतम् प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं नगवता निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं कायोपशमिकनावपरिणामाविर्भाव कारणं श्रुतमित्युच्यते । श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः । मयेत्यात्मपरामर्शः । श्रायुरस्यास्ती - त्यायुष्मान् । कः कमेवमाह । सुधर्मा जम्बुस्खा मिनमिति । तेनेति जुवननर्तुः परा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १६३ मर्शः । जगः समत्रैश्वर्यादिलक्षण इति । उक्तं च ॥ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रि यः ॥ धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षमां जग इतीङ्गना ॥ सोऽस्यास्तीति जगवांस्तेन जगवता वर्ध मानखामिनेत्यर्थः । एवमिति प्रकारवचनः शब्दः । श्राख्यातमिति केवलज्ञानेनोपलभ्यावे. दितम् । किमत था । इह खलु षड्जीव निकायनामाध्ययनमस्तीति वाक्यशेषः । इहेति लोके प्रवचने वा । खलु शब्दादन्यतीर्थकृत्प्रवचनेषु च षड्जीव निकायेति पूर्ववत् । नामेनिधानम् । अध्ययनमिति पूर्ववदेव । इह च श्रुतं च मयेत्यनेनात्मपरामर्शनका तदनङ्गापोहमाह । तत्रैवंभूतार्थानुपपत्तेरित्युक्तं च ॥ एगंतखणियपरके, गहणं चि असवहा अवाणं ॥ अणुसरण सासपाई, कुठे उ ते लोग सिद्धाई ॥ तथा श्रायुष्मन्निति च प्रधान गुण निष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति । उक्तं च ॥ श्रामे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घडं विणासे ॥ इ सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासे ॥ आयुश्च प्रधानो गुणः । सति तस्मिन्नव्यव छि तिजवात्तथा तेन जगवता एवमाख्यातमित्यनेन खमनीषिका निरासाछास्त्रपारतन्त्र्यप्रदर्शनेन सर्वज्ञेन अनात्मवता अन्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोकदेशना कार्येत्येतदाह । विपर्ययसंनवाडुक्तं च ॥ किं एत्तो पावयरं, संमं हिगयधम्मस प्रावो ॥ कुदेसाए, कहयरागंमि पाडे ॥ अथवान्यथा व्याख्यायते सूत्रकदेशः । श्रउसंतेणं ति जगवत एव विशेषणम् | आयुष्मता जगवता चिरजीविनेत्यर्थः । मङ्गलवचनं चैतदथवा जीवता साक्षादेव अनेन च गणधरपरंपरागमस्य जीवन वियुक्ताना दिशुद्धवश्चापोहमाह । देहाद्यजावेन तथाविधप्रयत्नाभावात् । उक्तं च ॥ वयणं न कायजोगा नावेण य सो अणादिसुद्धस्स ॥ गहणंमि य णो देऊ, सत्तागमो कह ॥ अथवा वसंतेति । गुरुकुलमावसता अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा जाव्यमित्येतदाह । ज्ञानादिवृद्धिसद्भावादिति । एतडुक्तं च । पाणस्स होइ जागी, थिरयरयो दंसणे चरिते य ॥ धन्ना घ्यावकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ अथवा आमुसंतेणं आमृशता जगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमाङ्गेन । अनेन च विनयप्रतिपत्तेर्गरीयस्त्वमाह । विनयस्य मोक्षमूलत्वात् । उक्तं च ॥ मूलं संसारस्स, होंति कसाया अतपत्तस्स ॥ विण हाण पडत्तो, डुक विमुक्कस्त मोरकस्स ॥ कृतं प्रसंगेन प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र इह खलु षड्जीवनिकायिका नामाध्ययनमस्तीत्युक्तम् । अत्राह । एवा षड्जीवनिकायिका केन प्रवेदिता प्ररूपिता वेत्य - त्रोच्यते । तेनैव जगवता यत श्राह । समंणेणं जगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुरकाया सुपन्नत्तेत्ति । सा च तेन श्रमणेन महातपखिना जगवता समयैश्वर्यादियुक्तेन महावीरेण । शूर वीर विक्रान्ताविति कपायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ राय धनपतसिंह बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. महावीरः । उतं च ॥ विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते ॥ तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः । महांश्चासौ वीरश्च महावीरः तेन महावीरेण । काश्यपेनेति काश्यप गोत्रेण प्रवेदिता नान्यतः कुतश्चिदाकर्ण्य ज्ञाता । किंतर्हि । स्वयमेव केवल लोकेन प्रकर्षेण वेदिता प्रवेदिता विज्ञातेत्यर्थः । तथा खाख्यातेति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्टु श्राख्याता स्वाख्याता । तथा सुप्रज्ञसेति । सुष्टु प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सुष्ठु सूत्रापरिहारासेवनेन प्रकर्षेण सम्यगासे वितेत्यर्थः । अनेकार्थत्वाकातूनां पिरासेवनार्थः । तां चैवंभूतां षड्जीवनिकायिकां श्रेयो मेऽध्येतुं श्रेयः पथ्यं हितम् । ममेत्यात्म निर्देशः । बान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये । ततश्च श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुम् । अध्येतुमिति पठितुं श्रोतुं नावयितुम् । कुत इत्याह । अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः । निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शनमिति वचनात् हेतौ प्रथमा । अध्ययनत्वादध्यात्मानयनाच्चेतसो विशुद्धयापादनादित्यर्थः । एतदेव कुत इत्याह । धप्रज्ञतेः प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रज्ञप्तिः । ततो धर्मप्रकृतेः कारणाचेतसो विशुद्धयापादना श्रेय श्रात्मनोऽध्येतुमिति । अन्ये तु व्याचक्षते । अध्यधर्मप्रज्ञप्तिरिति । पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपपादेयतयानुवादमात्रमेतदिति ॥ करा खलु सा बकीवलिया नामप्रयणं समणेणं जयवया मदावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुकाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिविडं धम्मपन्नत्ती ॥ इमा खलु सा जीवणिया नामशयां समणं जगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुप्रकाया सुपन्नत्ता ॥ सेयं मे प्रदिशि अप्रयणं धम्मपन्नत्ती ॥ ( अवचूरि : ) शिष्यः पृष्ठति । कतरा खलु इत्यादि सूत्रम् उक्तार्थमेवानेनैतद्दर्शयति । विहायानिमानं संविनेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति आचार्य यह । इमाखवित्यादि सूत्रमुक्तार्थमेवानेनाप्येतदर्शयति गुणवते शिष्याय गुरुणाप्युपदेशो दातव्य एवेति । (अ.) हवे पूर्वोक्त सांजलीने शिष्य पूढे वे केः - करत्ति । हे गुरो ! महावीर स्वा मी कली षड्जीवनिकायिका ते केवी ? (यहीं 'समषेणं' एथी आरंजीने " धम्मपन्नत्ती ” ए सुधीनो सूत्रनो जाग जे बे, तेनो छार्थ उपर लख्यो बे, माटे फरी लखता नथी. ) गुरु उत्तर कहे बे: - इमा खलु ति । (इमा के० ) एषा एटले या वदय माण प्रकारनी ( सा के० ) ते (बीवणियाणामप्रयणं के० ) षड्जीवनिका नामक - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुयोध्ययनम् । १६८ ध्ययन जगवान् श्रीवर्धमानखामीए कह्युं बे. (एमां 'समणेणं' इत्यादिको अर्थ पूर्ववत् जावो.) इति । ( दीपिका . ) ततः शिष्यः प्राह । उक्तार्थमेव । अनेन एतद्दर्शयति मानं त्यक्त्वा संवेगना शिष्येण सर्वकार्येष्वेवं गुरुः प्रष्टव्यः । अथ शिष्येण प्रश्ने कृते गुरुराह । इमेति । एतत् सूत्रमपि उक्तार्थमेव अनेनापि एतद्दर्शयति । गुणवते शिष्याय गुरुणापि उपदेशो दातव्य एव । ( टीका ) शिष्यः पृछति । कतरा खव्वित्यादि । सूत्रमुक्तार्थमेवानेनैतद्दर्शयति । विहाया जिमानं संविनेन शिष्येण सर्वकार्येष्वेव गुरुः प्रष्टव्य इति । आचार्य श्राह । इमा खटिवत्यादिसूत्रमुक्तार्थमेवानेनाप्येतद्दर्शयति । गुणवते शिष्याय गुरुणाप्युपदेशी दातव्य एवेति । तं जहा | पुढविकाश्या नकाश्या ते काश्या वाकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया । पुढवि चित्तमंतमकाया अगजीवा पुढोसत्ता अन्नच सच परिणए । यान चित्तमंतमरकाया प्रगजीवा पुढोसत्ता अन्नव सपरिणए । वान चित्तमंतमकाया रोगजीवा पुढो संत्ता अन्नच सपरिणए । वणस्सइ चित्तमंतमकाया प्रणेगजीवा पुढोसत्ता अन्न स परिणएणं ॥ ( अवचूरिः ) तं जहा । तद्यथा । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । पृथिवी काठि - न्यादिरूपा सैव कायोऽङ्गं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवी कायिकाः । आपो वाः प्रतीता एव । तेज उष्णलक्षणं वायुश्चलनधर्मा वनस्पतिर्लतादिरूपः कायो येषां ते । त्रसनशीलासाः काया यङ्गानि येषां ते । इह सर्वभूताधारत्वात् यदौ पृथ्वी, तत्प्रतिष्ठितत्वादापः, तत्प्रतिपक्षत्वात्तेजः, तडुपष्टम्नकत्वाद्वायुः, वायोः शाखादिप्रचालना दिगम्यत्वाद्वनस्पतिः । वनस्पतेस्त्र सोपग्रहत्वाचसाः । चित्तं जीवलक्षणं तदस्यास्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः । पाठान्तरं वा पुढवी चित्तमत्तमरकाया । अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची । यथा सर्वपत्रिनागमात्रमिति । ततश्चित्तमात्रा स्तोकचित्तेत्यर्थः । व्याख्याता सर्वज्ञेन कथिता । इयं च अनेके जीवा यस्यां सा अनेकजीवा न पुनरेकजीवा । यथा वैदिकानां पृथ्वी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यात् इति । अनेकजीवापि कैश्चिदेकतात्मापेक्षतयेष्यत एव । यथाहुरेके ॥ एक एव हि भूतात्मा भूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा , Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ पृथग्रजीवनावात् पृथक्सत्ता । अङ्गलासंख्येयनागेऽप्यनेकजीवसमाश्रितेत्यर्थः । आह, यद्येवं जीवपिएकरूपा पृथ्वी ततस्तस्यामुच्चारादिकरणेन नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तेरित्यसंचवी साधुधर्मः । इत्यत्राह । अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः, शस्त्रपरिणतां पृथ्वीं विहायान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । शस्त्रं धावनवदगनोत्खननादि। एतानि खपरव्यापादकत्वात् कर्मवन्धनिमित्तत्वात् शस्त्रमिति ॥ तच्च किंचित्खकायशस्त्रं यथा कृष्णा मृन्नीलादिमृदः शस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पर्शनेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या। तथा किंचित्परकायेति परकायशस्त्रम् । यथा पृथ्वी अप्तेजःप्रजृतयो वा पृथिव्यास्तनयं किंचिदिति किंचिपुजयशस्त्रं नवति यथा कृमा मृउदकस्य पांमुमृदश्च । परस्परं रसगन्धादिनिः यथा कृसमृदा कलुषितमुदकं नवति तदासौ कृष्णमृदकस्य पांमुमृदश्च शस्त्रं नवति । एष तावदागमः । अनुमानमप्यत्र विद्यते । सात्मका विषुमलवणोपलादयः पृथ्वी विकाराः समानजातीयांकुरोत्पत्त्युपलम्नात् । देवदत्तमांसांकुरवत् । एवमागमोपपत्तियां स्थितं पृथ्वीकायिकानां जीवत्वम् । उक्तं च ॥ आगमश्चोपपत्तिश्र, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ॥अतीन्डियाणामर्थानां, सनावप्रतिपादने ॥ श्रागमो ह्याप्तवचनम् । एवं सात्मकं जलं नूमिखातखानाविकसंजवादरवत् । सात्मकोऽग्निराहारेण वृद्धिदर्शनाबालकवत् । सात्मकः पवनः अपराप्रेरिततिर्यग्गति नियमित दिग्गमनाजोवत् । सचेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणार्दिजवत् । एवं च परिणतायां पृथिव्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संनवी साधुधर्मः । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः। तेजश्चित्तवदाख्यातम्।वायुश्चित्तवानाख्यातः। वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः इत्येतदपि दृष्टव्यम्॥ (अर्थ) हवे, गुणवान् शिष्यने गुरुए पण अवश्य उपदेश करवो, एम सूचवता थका सूत्रकार कहे . तंजहत्ति ( तंजहा के० ) तंद्यथा एटले ते जेम बे, तेम कहियें लियें. प्रथम षड्जीवनिकायनां नाम कहे . पुढ विकाश्य त्ति । ( पुढविकाश्या के० ) पृथ्वीकायिकाः एटले कठिनस्पर्शलक्षण पृथ्वी जे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, (आजकाश्या के०) अप्कायिकाः एटले शीतस्पर्श तथा स्त्रवणादि डे लदण जेनुं एवं उदक ते काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव; (तेजकाश्या के०) तेजस्कायिकाः एटले ऊष्णस्पर्शलक्षण तेज बे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, (वाउकाश्या केस) वायुकायिकाः एटले चलनात्मक वायुबे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव; (वणस्सश्काश्या के) वनस्पतिकायिकाः एटले लतादिलक्षण वनस्पति जे काय ते शरीर जेमनुं एवा जीव, अने (तसकाश्या के०) सकायिकाः एटले त्रसनशील डे काय ते शरीर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १६७ जेमनुं एवा जीव ए षनिकायना जीव जाणवा. अहीं प्रथम पृथ्वी काय, वीजा प्रकाय, त्रीजा ते काय इत्यादि जे क्रम राख्यो बे, तेनुं कारण एम वे केः - सर्वप्राणिमानो धार पृथ्वी बे, माटे प्रथम पृथ्वी कायना जीव कह्या. ते पृथ्वीने आधारें - दक रहे बे, माटे धाराधेयभाव संबंधथी पृथ्वी काय पढी बीजा अष्कायना जीव कह्या. ते उदकनुं प्रतिपक्षीभूत तेज बे माटे प्रतियोगिजावसंबंधी काय पी त्रीजा तेजस्काय कह्या.. ते तेजनो उपष्टंजक ( जीववानुं साधन ) वायु बे, माटे . उपष्टंजकतालक्षण संबंधथी तेजस्काय कह्या. पढी चोथा वायुकाय जीव कला. ते वायुनुं ज्ञान, वृक्ष तथा लताना चलनवलनादिकथी थाय बे, ते माटे वायुकाय पी पांचमा वनस्पतिकाय जीव कह्या. ते वनस्पतिकायने उपद्रव करनार त्रस - काय बे, माटे वनस्पतिकाय पढी बघा त्रसकाय जीव कह्या. दवे उपर जे षड्जीवनि - काय का, तेमां कां पण संशय अथवा विरोध नहीं याववो जोइयें, माटे फरी तेज अर्थनुं स्पष्टीकरण करे बे. पुढवित्ति ( पुढवी के० ) पृथ्वी जे बे ते ( चित्तमंतमकाया के० ) चित्तवती आख्याता, जेने चित्त एटले जीवलक्षण चैतन्य ने तेने चितवती कहिये, अर्थात् सचित्त एवी तीर्थंकरादिकें आख्याता एटले कहेली बे. वली ते पृथ्वी केवी ने तो के ( अगजीवा के० ) अनेकजीवा एटले अनेक बे जीव जेमां वी. अर्थात् पृथ्वी कायमां अनेक जीवो बे, अर्थात् एक नथी. वली ते केवी तो, ( पुढोसत्ता के० ) पृथक्सत्वा, एटले अंगुलना असंख्यातमा जाग प्रमाण अवगाहनामां रहेला अनेक जीवो पृथक् पृथक् जेमां बे एवी पृथ्वी बे. एवं सांजलतां शिष्य साशंक ने पूढे वे केः - हे गुरो ! जो जीवपिंडरूप पृथ्वी बे, तो ते पृथ्वी पर साधु जो मलोत्सर्गादि क्रिया करे, तो अवश्य पृथ्वी कायनो अतिपात थायज, अने मलोत्सर्गादि क्रिया तो पृथ्वी उपर करयावगर बीजो कोइ उपायज नयी. ने एम ज्यारें थाय त्यारे साधुथी अहिंसकपणें रहेवायज नहीं, अने प्राणातिपात विरमणरूप जे साधुनो प्रधान धर्म बे तेनो बंध्यापुत्रनी परें असंभव प्राप्त थयो ? ए शंकाना उत्तरमां सूत्रकार कहे बे. अन्नवत्ति । ( अन्न सपरिणणं के०) अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः एटले शस्त्रेकरी परिणाम पामेलीजे पृथ्वी ते विनानी वीजी पृथ्वी बे, ते सचित बे, ते सचित्त पृथ्वीनो व्यतिपात करवो नहीं. अर्थात् शत्रपरिणत जे पृथ्वी बे ते चित्त होवाथी तेनेविषे मूत्रोत्सर्गादि करवामां हिंसादोष नथी, वीजी पृथ्वी उपर करवाथी हिंसादोप वे, तेमाटे साधुनुं हिंसकपणुं जे ठे ते जतुं नथी. हवे शस्त्र शब्दनो अर्थ कहियें वियें. जे जेनो नाश करें वे, ते तेनुं शस्त्र जावं. जेम लौकिकमां शरीरनुं शस्त्र खङ्गादिक प्रसिद्ध वे यहीं पृथ्वीना शस्त्रनो Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. विचार करवानो , ते एवी रीतें:-पृथ्वीनुं शस्त्र जे , ते त्रण प्रकारे ठे, एक खकायशस्त्र, बीजं परकायशस्त्र अने त्रीजुं स्वपरकायशस्त्र, तेमां कृष्णमृत्तिका (काली माटी) जे जे, ते स्वकायरूप श्वेतादिक मृत्तिकानुं शस्त्र ने, माटे तेने स्वकायशस्त्र कहिये, बीजु शस्त्र ते जेम पृथ्वी जे जे ते जल, तेज आदिक परकायतुं शस्त्र , मादे ते परकायशस्त्ररूप जाणवी. त्रीजुं स्वपरकायशस्त्र ते जेम कृष्णमृत्तिका जे ते श्वेतादि मृत्तिकासहित उदकने कृष्णवर्ण करे बे; माटे कृष्णमृत्तिका जे , ते श्वेतादिमृत्तिकासहित उदकनी स्वपरशस्त्ररूप थई. एवा शस्त्रेकरी परिणाम पामेली जे पृथ्वी डे, ते अचित्त बे, एम जाणवू. वली आ सूत्रनो 'पुढविचित्तमत्तमरकाया' एवो पाठ पण केटलेक ठेकाणे . तो ते पदें एवो अर्थ करवो के पृथ्वी चित्तमात्रा - ख्याता. एटले पृथ्वी जे जे ते सचित्तमां चित्तमात्रा अर्थात् जघन्य सचित्त ,ते एकेजियजीवरूप जाणवी. अही मात्रशब्द ले ते स्तोकवाची जाणवो. एवीरीतें आगमना प्रमाणथी पृथ्वी जे , ते एकेडियजीवसमुदायरूप बे, एम कडं. ए अर्थ अनुमानथी पण सिद्ध थाय . ते आवीरीतें केः-विषुमलवणोपलादिकं सचित्तं समानजाजातीयांकुरोत्पत्त्युपलंजात् देवदत्तमांसांकुरवत् ॥ अर्थः-परवाला, लवण, पर इत्यादिक पृथ्वीना विकार जे जे ते सचित्त बे, कारण तेना अंकुर एक पली एक सरखी जातना उपजे बे, जेम देवदत्तना मांसथी थयेलो पुत्ररूप मांसांकुर बे. एम आगम अने अनुमानथी पृथ्वी सचित्त बे, एम सिद्ध थयु. (आउँ के०) आपः एटले जदक ते (चित्तमंतमकाया के) चित्तवत्य आख्याताः एटले सचित्त बे, एम तीर्थंकरादिकें कडं . वली ते उदक अनेकजीव बे, अने पृथक्सत्व बे. (अहीं अनेकजीव अने पृथक्सत्त्व ए बे पदनो अर्थ पृथ्वीकायमां लखेलो ते प्रमाणे जाणवो.) परंतु (अन्नब सबपरिणएणं के०) अन्यत्र शस्त्रपरिणताज्यः एटले शस्त्रपरिणत उदक जे जे ते विना बीजुं सर्व उदक सचित्त जाणवू. (अहीं पण शस्त्रनो अर्थ उपर जे रीतें कहेलो , ते प्रमाणेज जाणवो. तेमज आगल पण सर्वत्र अर्थ जाणवो.) तथा (तेउ के) तेजः एटले तेज जे जे ते पण (चित्तमंत के) सचित्त, अनेकजीव अने पृथक्सत्व कडं बे. पण (अन्नब सबपरिणएणं के०) अन्यत्रशस्त्रपरिणतेच्यः एटले शस्त्रपरिणत तेज बोडीने बीजं सर्व तेज सचित्त . तथा (वाऊ के०) वायुः एटले वायु (चित्तमंत के०) सचित्त, अनेकजीव अने पृथकसत्व एवो कह्यो . पण (अन्नब सबपरिणएणं के०) अन्यत्र शस्त्रपरिणतात् एटले शस्त्रपरिणत वायु जे जे ते बोडीने शेष सर्व वायु जे जे ते सचित्त . तथा ( वणस्सई के) वनस्पतिकाय जे जे ते पण (चि त्तमंत के०) सचित्त, अनेकजीव अने पृथक्सत्व कह्यो बे; पण (अन्नबसबपरिणएणं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २६ए के) अन्यत्र शस्त्रपरिणतात् एटले शस्त्रपरिणत वनस्पति वर्जीने शेष सर्व वनस्पति जे बे, ते सचित्त .॥ (दीपिका) अथ षड्जीवनिकायमाह। तद्यथेति उदाहरणे । पृथिवी काठिन्यलक्षणा प्रतीता । सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः (१)। आपो जवाः प्रतीता एव । ता एव कायः शरीरं येषां तेऽप्रकायाः। अप्काया एव अप्कायिकाः (२)। तेज उष्णस्पर्शलदणं प्रतीतम् । तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजःकायाः तेजःकाया एव तेजःकायिकाः (३) । वायुश्चलनधर्मा प्रतीत एव। स एव कायःशरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकायाएव वायुकायिकाः(१)।वनस्पतिलतादिरूपःप्रतीतः । स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायास्त एव वनस्पतिकायिकाः (५)। एवं त्रसनशीलाः त्रसाः प्रतीता एव । त एव कायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः त्रसकाया एव त्रसकायिकाः (६)।श्ह च सर्वनूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामनिधानम् । विप्रतिपत्तिनिरासार्थं पुनराह । पुढवी चित्तमंतमकाया। पृथिवी चित्तं च जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती सजीवा इत्यर्थः। पागन्तरं वा पुढवीचित्तमत्तमरकाया । अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची । यथासर्षपत्रिनागमात्रम् । पृथिवी चित्तमात्रा स्तोकचित्ता इत्यर्थः। तथाच प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्जियाणां तदधिकं हीन्द्रियादीनामिति । आख्याताः सर्वझेन कथिताः। किंविशिष्टाः । पृथिवी अनेकजीवा, अनेके जीवा यस्यां सा अनेकजीवा न पुनरेकजीवा । यथा वैदिकानां पृथ्वी देवता इत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । तथा अनेकजीवापि कैश्चित् एकनूतात्मापेक्षया मन्यते । यदाहुरेके ॥ एक एव हि नूतात्मा नूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ अत एवाह । किंजूता पृथिवी । पुढोसत्ता । पृथक् सत्त्वाः प्राणिनो यस्यां सा पृथक्सत्वा। अङ्गलस्य असंख्येयनागमात्रावगाहनैरनकैः पार्थिवजीवैः समाश्रितेतिनावः । आह । यद्येवं जीवपिएकरूपा पृथिवी तदा तस्यामुच्चारादिकरणेन नियमतस्तन्मरणात् अहिंसाया अनुत्पत्तिः स्यात् । तथा च सति साधुधर्मस्य असंचवः स्यात् । अतोऽत्राह । अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाःशस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय अन्या पृथिवी चित्तवतीयाख्याता इ. त्यर्थः । पृथिव्याः शस्त्रं विधा । खकायशस्त्रं (१) परकायशस्त्रं (२) तङनयशस्त्रं च (३)। तत्र स्वकीयशस्त्रं यथा कृष्णमृद् नीलादिमृदः शस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पर्शसंन्नेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या (२)।परकायशस्त्रं यथा अप्तेजःप्रभृतीनां पृथिवी अथवा पृथिव्या यतेजःप्रभृतयः (२)। तनयं यथा कृष्णमृद् उदकस्य पांडुमृदश्च परस्परस्पर्शगन्धादिनिः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यदा कृष्णमृदा कबुषितमुदकं नवति । तदा एषा कृष्णमृद् उदकस्य पाएममृदश्च शस्त्रं जवति । एवं च परिणतायां पृथिव्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तन्मरणं ततोऽहिंसाधर्मः साधूनां संभवत्येव । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः। तेजश्चित्तवदाख्यातम् । वायुश्चित्तवानाख्यातः । वनस्पतिश्चित्तवानाख्यात इत्याद्यपि इष्टव्यम् ॥ ४ ॥ (टीका ) तं जहा । पुढ विकाश्या इत्यादि । अत्र तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। पृथिवी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः।स्वार्थिकष्ठकाआपो अवाः प्रतीता एव ता एव कायः शरीरं येषां तेऽप्कायाःअप्काया एव अप्कायिकाः।तेज उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः शरीरं येषां ते तेजस्कायाः।तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः।वायुश्चलनधर्माप्रतीतः स एव कायःशरीरं येषां ते वायुकायाः।वायुकाया एव वायुकायिकाः।वनस्पतिलतादिरूपःप्रतीतःस एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः। वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः। एवं त्रसनशीलास्त्रसाः प्रतीता एव । त्रसाःकायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः । त्रसकाया एव त्रसकायिकाः । इह च सर्वन्नूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामजिधानं तदनन्तरं तत्प्रतिष्ठितत्वादप्काथिकानामपि तदनन्तरं तत्प्रतिपदत्वात्तेजस्कायिकानाम् । तदनन्तरं तेजस उपष्टम्जकत्वाहायुकायिकानाम् । तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलनादिगम्यत्वाइनस्पतिकायिकानाम् । तदनन्तरं वनस्पतेस्त्रसोपग्राहकत्वात्रसकायिकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासायं पुनराह । पुढवीचित्तमंतमरकाया । पृथिवी उक्तलक्षणा चित्तवतीति । चित्तं जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती सजीवेत्यर्थः। पागन्तरं वा । पुढवि चित्तमत्तमकाया । अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची । यथा सर्षपत्रिनागमात्रमिति । ततश्च चित्तमात्रा स्तोकचित्तेत्यर्थः । तथा च प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणां तदन्यधिकं बीजियादीनामिति । आख्याता सर्वझेन कथिता । श्यं चानेकजीवा । अनेके जीवा यस्यां सानेकजीवा । न पुनरेकजीवा यथा वैदिकानाम् पृथिवी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवापि कैश्चिदेकनूतात्मापेक्षयेष्यत एव । यथाहुरेके ॥ एक एव हि नूतात्मा, नूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ अत आह । पृथक्सत्वा पृथग्नूताः सत्त्वा आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्वा । अङ्गलासंख्येयत्नागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्यानेकजीवसमाश्रितेति भावः । आह । यद्येवं जीवपिएकरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुच्चारादिकरणे नियमतस्तदतिपाताद हिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंनवीसाधुधर्म इत्यत्राह अन्यत्र शस्त्रपरिण Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। १७१ तायाः।शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः। अथ किमिदं पृथिव्याः शस्त्रमिति शस्त्रप्रस्तावात्सामान्यत एवेदं अव्यत्नावन्नेदनिन्नमनिधित्सुराह । दवं सबम्गिविसं, नेहविलाखारलोणमाश्यं ॥ नावो उ उप्पजत्तो, वायाका अविरई अ॥ए ॥ व्याख्या ॥ अव्यमिति द्वारपरामर्शः। तत्र अव्यशस्त्रं खड्गादि । अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिद्धानि । दारलवणादीनि । अत्र तु दारः करीरादिप्रनवः । लवणं प्रतीतम् । आदिशब्दात्करीषादिपरिग्रहः । उक्तं अव्यशस्त्रमधुना जावशस्त्रमाह । नावस्तु उःप्रयुक्तौ वाकायौ अविरतिश्च नावशस्त्रमिति । तंत्र जावो कुःप्रयुक्त इत्यनेन जोहानिमानेादिलक्षणो मनोःप्रयोगो गृह्यते । वागःप्रयोगस्तु हिंस्नपरुषादिवचनलकणः।कायःप्रयोग़स्तु धावनवल्गनादिः । अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवृत्तिः। एतानि खपरव्यापादकत्वात्कर्मबन्धनिमित्तत्वान्नावशस्त्रमिति गाथार्थः । इह न जावशस्त्रेणाधिकारः । अपितु अव्यशस्त्रेण । तच्च त्रिप्रकारं नवतीत्याह ॥ किं वी सकायसवं, किं वी परकाय तनयं किं वि॥ एयं तु दवसलं, नावे असंजमो सबं॥२१॥व्याख्या॥ किंचित्खकायशस्त्रं यथा कृष्णा मृद् नीलादिमृदः शस्त्रम् । एवं गन्धरसस्पर्शनेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या। तथा किंचित्परकायेति परकायशस्त्रं यथा पृथ्वी अतेजःप्रवृतीनामतेजःप्रनृतयो वा पृथिव्याः । तनयं किंचिदिति । किंचित्तउन्नयशस्त्रं जवति । यथा कृष्णा मृउदकस्य स्पर्शरसगन्धादिनिः पाएमृदश्च । यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं नवति । तदासौ कृष्णमृदकस्य पाएमृदश्च शस्त्रं नवति । एवं तु अव्यशस्त्रम्।तुशब्दोऽनेकप्रकार विशेषणार्थः। एतदनेकप्रकारं अव्यशस्त्रम्। न्नाव इति छारपरामर्शः। असंयमः शस्त्रं चरणस्येति गाथार्थः । एवं च परिणतायां पृथ्व्यामुच्चारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संजवी साधुधर्म शति । एप तावदागमः । अनुमानमप्यत्र विद्यते । सात्मका विषुमलवणोपलादयः पृथिवीविकाराः समानजातीयाङ्कुरोत्पत्त्युपलम्नात् देवदत्तमांसाङ्कुरवत्। एवमागमोपपत्तिन्यां व्यवस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम् । उक्तं च॥ आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् ॥ अ. तीन्द्रियाणामर्थानां सन्नावप्रतिपत्तये॥१॥आगमोह्याप्तवचन-माप्तं दोपदयादिः ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूया त्वसंजवात् ॥ ॥ इत्यलं प्रसंगेन । एवमापश्चित्तवत्य श्राख्याताः। तेजश्चित्तवदाख्यातम्। वायुश्चित्तवानाख्यातः। वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः। इत्याद्यपि अष्टव्यम् । विशेषस्त्वनिधीयते । सात्मकं जलं नूमिखातवाला विकसनवात् दरवत् । सात्मकोऽग्निः आहारेण वृद्धिदर्शनात् बालकवत् । सात्मकः पवनः अपरप्रेरिततिर्य नियमितनिर्गमनागोवत् । सचेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणागर्दनवत्॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ राय धनपतसिंह बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. तं जहा । अग्गबीया मूलबीया पोरवीया खंधवीया बीयरुहा संमुचिमा तणलया वणस्सइकाइया सवीया चित्तमंत - मकाया जीवा पुढोसत्ता अन्न सच परिणए । ( अवचूरिः ) इदानीं वनस्पतिजीव विशेषप्रतिपादनायाह । श्रग्गवीया इति । श्र बीजं येषां ते अग्रबीजाः कोरएटकादयः । मूलं बीजं येषां ते मूलवीजा उत्पलकन्दादयः । पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा इदवादयः । स्कन्धो वीजं येषां ते स्कन्धबीजाः शलक्यादयः । बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः शाल्यादयः । संमूर्च्छन्तीति संमूहिमाः । प्रसिद्ध बीजानावेन पृथ्वीवर्षादिसमुद्भवास्तृणादयः । न चैते न संभवन्ति दग्धभूमावपि संजवात् । तृणलतावनस्पतिकायिका इत्यत्र तुणलताग्रहणं स्वगतानेकदप्रदर्शनार्थम् । वनस्पतिका विकग्रहणं सूक्ष्मवादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्र हार्थम् । एतेन पृथिवीप्रभृतीनामपि स्वगताः पृथिवीशर्करादयस्तथावश्याय मिहिकादयः तथा उग्रमएफलिकादयो नेदाः सूचिता इति । एतेऽनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजाः स्वस्व निबन्धन कारण जीवत्वकारणवन्तः चित्तवन्त श्राख्याताः ॥ ( अर्थ. ) हवे वनस्पतिकाय जीवनुं विशेष करी वर्णन करे बे. ( तं जहा के० ) तद्यथा ते जेम के:- एक तो ( अग्गबीया के० ) ग्रबीजा: एटले अम जागने विषे जेमने बीज बे एवा कोरंटकादिक जाणवा. बीजा (मूलवीया के० ) मूलबीजा: एटले मूलने विषे जेमने बीज बे, एवा कमलकंदादिक जाणवा. त्रीजा ( पोरबीया के० ) पर्वबीजा: एटले पर्वने विषे जेमने बीज बे, एवा इकु आदिक जावा. चोथा ( खंधबीया के० ) स्कंधबीजा: एटले स्कंधने विषे जेमने बीज बे, ते सालइ तथा वड प्रमुख जाणवा. पांचमा ( बीयरुहा के० ) बीजरुहाः एटले बीज वाव्याथी जे जगे बे, ते शाली गोधूमादिक जावा. बघा ( संमुहिमा के ० ) संमूर्तिमा: एटले जेमनुं बीज दीगमां यावतुं नथी, एवा तृणलतादिक जाणवा. ए संभवता नथी एवी शंका न करवी, कारण के ए तृणादिक दग्ध भूमिने विषे पण उत्पन्न याय बे. ए पूर्वे कहेला ( तणलया वणस्सश्काश्या के० ) तृण, लता, सूक्ष्म बादरादिक वनस्पतिकाय जीव जे बे, ते (सबीया के० ) बीजसहित अ ( चित्तमं मरकाया के० ) सचित्त अनेकजीव ने पृथक्सत्व एवा तीर्थकरादि का डे. पण ( अन्न सपरिणणं के० ) अन्यत्र शस्त्रपरिषतात् एटले शस्त्रपरिणत वनस्पतिकाय वर्जीने बीजा सर्व वनस्पतिकाय सचित्त बे एवी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम्। २४३ रीतें जल, तेज, वायु अने वनस्पति ए सचित्त बे, एम आगम प्रमाणथी कद्यु. ए विषे अनुमान प्रमाण पण जे. ते एवी रीतेः-जलं सचित्तं नूमिखातखानाविकसंजवात् दरवत् ॥ अर्थः- जल जे जे ते सचित्त बे, कारण देडकानी परे नूमि खणतां ते जमीनमांथी नीकलीने चाले बे. तथा, अग्निः सचित्तः आहारेण वृद्धिदर्शनात् वालवत् ॥ अर्थः- अनिरूप तेज जे जे ते सचित्त , कारण वालकनी परें काष्ठ घृतादिक आहार आप्याथी तेनी वृद्धि थाय . तया, वायुः सचित्तः अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमनात् गोवत् ॥ अर्थः- वायु जे जे, ते सचित्त बे, कारण के गायप्रमुखनी परें बीजे कोश्ये प्रेरणा कख्या वगर नियमित दिशाने विषे चाले . तथा, तरवः सचित्ताः सर्वत्वगपहरणे मरणात् गर्दैनवत् अर्थः-वनस्पति काय जे वृदा प्रमुख बे,ते सचित्त बे, कारण तेनी सर्व त्वचा जो काढी होय तो गर्दननी परे भरण पामे बे. एवं अनुमान पण प्रमाण जाणवू ॥ (दीपिका.) इदानीं वनस्पतिजीवानां विशेषनेदप्रतिपादनार्थमाह । तद्यथा । अयं बीजं येषां ते अग्रवीजाः कोरएटकादयः । एवं मूलं वीजं येषां तेमूलवीजा उत्पलकन्दादयः। पर्व वीजं येषां ते पर्वबीजा श्वादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धवीजाः शबक्यादयः । बीजामोहन्तीति बीजरुहाः शाल्यादयः । संमूर्वन्तीति संमूर्बिमाः प्रसिवीजाजावेऽपि पृथिवीवर्षादिसमुद्भवाः। ते तथाविधास्तृणादयः। न च एते न संजवन्ति दग्धनूमावपि संचवात् । तथा तृणलता वनस्पतिकायिका इत्यत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकनेदसंदर्शनार्थ वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मवादरादिकानेकवनस्पतिनेदसग्रहार्थम् । एतेन पृथिव्यादीनामपि स्वगता नेदाः सूचिताः । कथमित्याह । पृथिव्यः शर्करादयः, आपोऽवश्यायमिहिकादयः, अग्नयोऽङ्गारज्वालादयः, वायवो ऊफामएफलिकादयः । एतेऽग्रवीजादयः सवीजाश्चित्तवन्त आख्याताः कथिता इति। एतेन पूर्वकथिता विशेषाः सजीवाः स्वस्खनिवन्धनाश्चित्तवन्तः आत्मवन्त थाख्याताः कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादिकध्रुवगएिमका पूर्ववत् ॥ __ ( टीका.) वनस्पतिजीवविशेषप्रतिपादनायाह । तं जहा अग्गवीया इत्यादि। तद्ययेत्युपन्यासार्थः। अग्रवीजा इत्यग्रं वीजं येषां ते अग्रवीजाः कोरएटकादयः। एवं मूलं वीजं येषां ते मूलवीजा उत्पलकन्दादयः । पर्व वीजं येपां ते पर्ववीजा इ. दवादयः । स्कन्धो वीजं येषां ते स्कन्धवीजाः शलक्यादयः। तथा वीजामोद न्तीति वीजरूहाः शाल्यादयः । संमूर्वन्तीति संमूर्छिमाः । प्रसिझवीजानावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः । न चैते न संजवन्ति दग्धनूमावपि संन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. वात् । तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इत्यत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकनेदसंग्रहार्थम् । वनस्पतिकायिकग्रहणं सूझबादराद्यशेषवनस्पतिन्नेदसंग्रहार्थम् । एतेन पृथिव्यादीनामपि खगताः पृथिवीशर्करादयः, तथावश्यायमिहिकादयः, तथा अङ्गारज्वालादयः, तथा ऊकामएफलिकादयो नेदाः सूचिता इति । सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इति । एते ह्यनन्तरो दिता वनस्पतिविशेषाः सबीजाः स्वस्व निवन्धनाश्चित्तवन्त आत्मवन्त थाख्याताः कथिताः। एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगछिलका पूर्ववत् । सवीजाश्चित्तवन्त आख्याता इत्युक्तम् । अत्र च नवत्याशङ्का । किं बीजजीव एव मूलादिजीवो नवत्युतान्यस्तस्मिन्नुकान्त उत्पद्यते इत्यस्य व्यपोहायाह ॥ वीए जोणिमए,जीवो वुकमश्सो य अन्नो वा॥जो वियं मूलेजीवो, सो विय पत्ते पढमयाए ॥रएशाव्याख्या वीजे योनिजूते इति।बीजं हि विविधं जवति। योनिजूतमयोनिजूतं च । अविध्वस्तयोनि विध्वस्तयोनि च।प्ररोहसमर्थं तदसमयं चेत्यर्थः । तत्र योनिनूतं सचेतनमचेतनं च । अयोनिनूतं तु नियमादचेतनमिति । तत्र बीजे योनिनूते इत्यनेनायोनिनूतस्य व्यवछेदमाह । तत्रोत्पत्त्यसंजवादबीजवादित्यर्थः। योनिनूते तु योन्यवस्थे वीजे योनिपरिणाममत्यजतीत्युक्तं जवति । किमित्याह । जीवो व्युत्क्रामत्युत्पद्यते । स एव पूर्वको बीजजीवः । बीजनामगोने कर्मणी वेदयित्वा मूलादिनामगोने चोपनिबध्य । अन्यो वा पृथिवीकायिका दिजीव एवमेव । योऽपि च मूले जीव इति । य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च पत्रे प्रथमतयापि परिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । आह । यद्येवं, “सबो वि किसलयो खलु, जग्गममाणो अणंत जणि ॥” इत्यादि कथं न विरुध्यते इति । उच्यते । इह बीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तबूनावस्थां करोति ततस्तदनन्तरनाविनी किसलयावस्थां नियमेनानन्तजीवाः कुर्वन्ति । पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं परिणम्य खशरीरतया तावर्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचक्षते । प्रथमपत्रकमिह यासौ बीजस्य समुचूनावस्था नियमप्रदर्शनपरमेतबेषं किसलयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामावि तिमिति मन्तव्यम् । ततश्च "सबो वि किसलयो खबु, जग्गममाणो अणंत हो ॥” इत्याद्यप्य विरुद्धम् । मूलपत्र निर्वर्तनारम्नकाले किसलयत्वाचावादिति गाथार्थः । एतदेवाह नाष्यकारः ॥ विझबाविझना, जोणी जीवाण होश नायबा ॥ तब अविनाए, वुकमई सो य अन्नो वा ॥ ए३ ॥ व्याख्या ॥ विध्वस्ताविध्वस्ता अप्ररोहप्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां नवति ज्ञातव्या । तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चान्यो वा जीव इति ग Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम् । २७५ म्यत इति गाथार्थः ॥ जो पुण मूले जीवो, सो निवत्त जा पढमपत्तं ॥ कंदाइ जाव वीयं, सेसं अन्ने पकुवंति ॥शए॥ व्याख्या ॥ यः पुनर्मूले जीवो वीजगतोऽन्यो वा स निर्वर्तयति । यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति । अत्रापि नावार्थः पूर्ववदेव । कन्दादि यावद्दीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति । वनस्पतिजीवा एव । व्याख्याध्यपकेऽप्येतदविरोधि । एकतः समुत्नावस्थाया एव प्रथमपत्रतया विवदितत्वात्तदनु कन्दादिजावतः । अन्यत्र कन्दादेवनस्पतिनेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्तरकालमेव नावादिति गाथार्थः । अतिदेशमाह ॥ सेसं सुत्तप्फासं, काए काए अहकम बूया ॥ अप्लयणबा पंच य, पगरणपयवंजण विसुद्धा ॥श्एए ॥ व्याख्या ॥ शेषं सूत्रस्पर्श उक्तलक्षणम् । काये काये पृथिव्यादौ यथाक्रमं यथापरिपाटि ब्रूयात्। अनुयोगधर एव । न केवलं सूत्रस्पर्शमेव । किं तु अध्ययनार्थान्पञ्च च प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवा निगमादीन् प्रकरणपदव्यञ्जन विशुद्धान् ब्रूयात् सूत्र एव । जीवानिगमः काये काये इत्यनेनैव लब्ध इति । पञ्चग्रहणमन्यथा षडिहाधिकारा इति । प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम् अनेकार्थाधिकारवत्कायप्रकरणादि । पदं सुवन्तादि। कादीनि व्यञ्जनानि । एनिर्विशुद्धान् ब्रूयादिति गाथार्थः॥ से जे पुण श्मे अणेगे बहवे तसा पाणा। तं जहा। अंडया पोयया जराजया रसया संसेइमा समुचिमा जप्निया जववाझ्या । जेसिं केसिं चि पापाणं अनिकंतं पडिकंतं संकुचियं पसारियं रूयं नंतं तसियं पलाश्यं आगगाविन्नाया।जे य कीडपयंगा।जा य कुंथुपिपीलिया।सवे दिया सवे तेइंदिया सवे चरिंदिया सवे पंचिंदिया सवे तिरिकजोणिया सवे नेरझ्या सवे मणुया सत्वे देवा सवे पाणा परमादम्मिआ। एसो खलु हो जीवनिकान तसकाउ त्ति पवुच्च॥ . (अवचूरिः) इदानीं साधिकारमाह । सेशब्दोऽथशब्दार्थः । ये पुनरमी वालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके बीजियादिनेदेन । वहव एकैकस्यांजातो वसन्तीति त्रसाः प्राणा विद्यन्ते उवासादयो येषां ते प्राणाः।प्राणग्रहणं गतित्रसनिरासार्थम् । तद्यथा अएमाजाता अएमजाः। पक्षिगृहकोकिलादयः। जरायुरहितो गर्नः पोतः। पोताजायन्ते पोतजाः हस्तिवत्युलीचर्मजलौकादयः । जरायुवेष्टिताझा जायन्ते जरायुजा गोमहिप्यजानरादयः । रसाजाता रसजा थारनालदाधितीमनादिपु कृमयोऽतिसूदमाः । संस्वेदाजाताः संवेदजा मत्कुणयूकादयः। संमूर्वनाजाताः संमृठजाः शलनपिपीलि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ राय धनपतसिंघवदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. कादयः । उद्भेदाजन्म येषां ते उद्भेदजाः पतङ्गखञ्जरीटतिकादयः । उपपाताजाता उपपातजाः । यद्वा उपपाते नवा औपपातिका देवनारकाः । तेषामेव लक्ष्णमाह । येषां केषांचित्सामान्येनैव प्राणिनाम निकान्तं भवतीति वाक्यशेषः । प्रज्ञापकं प्रत्यनिमुखकमणमनिक्रान्तं । प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रान्तं । संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारितं गात्रविततकरणम् । रवणं रुतं शब्दकरणम् । चान्तमितस्ततो गमनम् | त्रस्तं दुःखोजनम् । पलायितं पलायनं कुतश्चिन्नाशनम् । आगतेर्गतेश्च विज्ञातारः । अचिक्रान्तप्रतिक्रान्ताच्यामागतिगत्योरभेदेऽपि देनानिधानं विज्ञान विशेषज्ञापनार्थम् । य एव गत्यागति विज्ञातारस्त एव त्रसाः । तु वृतिं प्रत्यनिक्रमणवन्तोपि वयादयः । अत्रौघसंज्ञायाः प्रवृत्तेरिति । - दानाह । ये च कीटपतङ्गाः । कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति द्वीन्द्रियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलजा अत्रापि चतुरिन्द्रिया जमरादयो गृह्यन्ते । या च कुन्थुपिपीलिका इति । अनेन त्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते । यत एवाह । सर्वे हीन्द्रियाः कृम्यादयः । इत्यादि । कीटपतङ्गा इत्यत्रोद्देशव्यत्ययः वि. चित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थं । सर्वे पञ्चेन्द्रिया इति सामान्यतः । विशेषतः सर्वे तिर्यग्योनयः । रत्नप्रजा दिनारकभेदभिन्नाः । कर्माकर्म्मभूमिजादयः । नवनेशादयः । सर्वशब्दश्चात्र परिशेषनेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः । सर्व एवैते सा नतु एकेन्द्रिया एव । त्रसाः स्थावराश्च सर्वे प्राणिनः परमं सुखं तद्धर्माणः सुखा जिलाषि इत्यर्थः । पृथिव्यादिपञ्चनिकायापेक्षयाऽस्य षष्ठत्वम् । अत्रान्तरे जीवा निगमाधिकारः । स चायं ॥ डुविहा हुंति अजीवा, पुग्गल नो पुग्गला य बत्तिविहा ॥ परमाणुमाइ पुग्गल, नोपुग्गलधम्ममा ॥ १ ॥ सुदुमसुदुमा य सुदुमा, तहचेव य सुदुमबा -- यरा नेया ॥ बायरसुहुमा बायर - बायर तह बायरा चेव ॥ २ ॥ परमाणुडुप्पएसा, रयाज तह खंधपुग्गला हुंति ॥ ३ ॥ वाऊ ४ आउसरीरा, ५ तेऊमाई य चरमा य ६ ॥ ३ ॥ धम्मधम्मागासा, लोए नो पुग्गला तिहा हुंति ॥ जीवाणुग्गर विश्य, वग्गाह निमित्त भोणेया ॥ ४ ॥ उक्तो जीवा निगमः । सांप्रतं चारित्रधर्मसंबद्धमेवेदं सूत्रम् । सर्वे प्राणिनः परमधर्माणः । एष खल्वनन्तरोदितः किटादिः षष्ठो जीव निकायस्त्रसकाय इति प्रोच्यते ॥ 1 (.) हवे त्रस जीवनां लक्षणादिक कहे बे. से जे ति । ( से के० ) अथ, ए शब्द त्रसजीव वर्णननो अधिकार सूचवे बे. (जे के० ) ये एटले जे (इमे के०) ए प्रत्यक्ष ( तसा पाणा के० ) त्रसनामक जीवो बे, ते (पुण के० ) वली (गे के० ) अनेक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १७ - तथा ( वहवे के० ) वहवः एटले घणा. ( तं जहां के० ) ते जेम के, ते सकायना नेद जेम तेम कहियें. ते घ्यावी रीतें, एक तो ( अंडया के० ) अंडजाः एटले ईमाथी उत्पन्न थयेला ते कोकिलादिक पक्षी जाणवा. वीजा, ( पोयया के० ) पोतजाः, जे पोत एटले वाल थकाज उत्पन्न थाय छे, ते हाथी तथा वल्गुली दिक जाणवा. त्रीजा (जराजया के० ) जरायुजाः, जरायु जे गर्जनुं वेष्टन ते क वेष्टित एवा जे उत्पन्न थाय बे, ते मनुष्य तथा गोमहिष्यादिक जाणवा. चोथा ( रसया के ० ) रसजाः एटले दधि प्रमुख चलित रसथी उत्पन्न थाय बे, ते झींप्रिय जीव जाणवा. पांचमा ( संसेश्मा के० ) संस्वेदजाः, एटले परसेवाथी जे उत्पन्न थाय बे, एवा जू तथा लीख यादिक जाणवा. बघा ( संमुहिमा के० ) संमूर्तिमा: एटले संमूर्तनथी उत्पन्न थयेला अर्थात् स्त्री संयोगविना उत्पन्न याय ेते शलजादिक जावा. सातमा, ( उनिया के० ) उद्भिदः एटले भूमि नेदीने उत्पन्न थाय बे, ते तीड पतंगादिक जाणवा. आठमा ( उववाश्या के० ) औपपातिकाः, उपपात एटले जे ठेका अवतरखं होय, ते ठेका एकदम प्राप्त थश्ने जे उत्पन्न थाय बे, ते देव तथा नारकी जाणवा. हवे, त्रसकाय जीवोनुं सामान्ययी लक्षण a. जेसिंके सिंति ( जेसिं के सिं चि पाषाणं के० ) येषां केषां चित् प्राणिनाम् एटले जे कोइ प्राणियोने ( अकिंत के० ) अभिक्रांतं एटले सहामुं यवनुं, ( पडिक्कतं के० ) प्रतिक्रांतम् एटले पाउं वलवुं, (संकुचियं के० ) संकुचितम् एटले शरीसंकोच, ( पसारियं के ० ) प्रसारितम् एटले हस्तपादादिक शरीरावयवनुं पसारनुं, (रुयं के०) रुतं एटले शब्द करवो, ( जंतं के० ) चान्तं एटले भ्रमण करवुं, ( तसियं hu ) त्रसितं एटले त्रास पामवो, ( पलाइयं के० ) पलायितं एटले पलायन करयुं, ( आग के० ) गतिः एटले आववुं ( गइ के० ) गतिः एटले गमन कर, (विमाया के० ) विज्ञाताः एटले पूर्वोक्त अभिक्रमणादि क्रिया जाणीने एटले हुं सामो जानुं हुं अथवा पाठो वलुं हुं इत्यादि प्रकारें समजीने जे क्रिया करनारा, ते सर्व त्रस जीव जाणवा. त्रसनां लक्षण तो कह्यां, पण त्रसजीव कोने कहियें ? ते कहे ते. ( जे य के० ) ये च एटले वली जे (कीडपयंगा के० ) कीटपतंगा: एटले कृमि, पतंगिया, (जे य के० ) ये च एटले जे ( कुंथु पिपीलिया के० ) कुंथु पिपीलिकाः एटले कुंथा की डियो ( सवे वेइंदिया के० ) सर्वे हीन्द्रियाः एटले सर्व हीडिय जीव, ( सवे तेइंदिया के० ) सर्वे त्रींद्रियाः एटले सर्व त्रीडिय जीव, (सवे चरिंदिया के० ) स चतुरिंडिया: एटले सर्व चतुरिंडिय जीव, ( सवे पंचिंदिया के० ) सर्वे पंचेंद्रियाः एटले सर्वे पंचेंद्रिय जीव, ( सवे तिरिकजोगिया के० ) सर्व २३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. तिर्यग्योनयः, एटले सर्व तियंच योनिना गाय प्रमुख जीव, ( सधे नेरश्या के० ) सर्वे नारकाः एटले रत्नप्रनादि नरकभूमिने विषे अवतरेला ते सर्व नारकी जीव, ( स मया के ० ) सर्वे मनुजाः एटले कर्मभूमि यदिकने विषे उत्पन्न थयेला सर्व मनुष्य ( स देवा के० ) सर्वे देवाः एटले जवनपति आदिक सर्व देव, ( सवे पाणा के० ) सर्वे प्राणा: एटले पूर्वे कला ए सर्व प्राणी ( परमादम्मिया के० ) परमधर्माण: एटले परम सुखना अभिलाषी एवा बे. ( एसो के० ) एषः एटले आ ( खलु के० ) निवें (उहो के० ) षष्ठः एटले बडो ( जीवनिकार्ड के० ) जीव निकायः एटले जीवनो समुदाय ( तसकार्ड त्ति के० ) सकाय इति एटले त्रसकाय एम ( पच्चइ के० ) प्रोच्यते एटले कहेवाय बे. ॥ ( दीपिका. ) इदानीं त्रसाधिकारमाह । सेशब्दः अथशब्दार्थः । अथ ये पुनरमी वालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके द्वीन्द्रियादिजेदेन बहव एकैकस्यां जातौ त्रसाः प्राणिनः । वसन्तीति चसाः प्राणा जवासादयो येषां ते प्राणिनः । ते के इत्याह । एष खलु षष्ठो जीव निकायकाय इति प्रोच्यत इति योगः । तत्राएकाजाता एकजाः पक्षिगृहको किलादयः । पोतादिवजायन्त इति पोतजाः । ते च हस्तिवल्युली चर्मजलौकादयः । जरायुनिर्वेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः । गोमहिष्यजाविकमनुप्यादयः । रसाजाता रसजा यारनालदधितेमनादिषु प्रायः कृम्यादयोऽतिसूक्ष्मा जवन्ति । संस्वेदाजाता इति संस्वेदजा मत्कुणयकादयः । संमूर्छनाजाताः संमूचिंमाः शलन पिपीलिकामचिकाशालूकादयः । उद्वेदाजन्म येषां ते उद्भेदजाः पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः । उपपाताजाता उपपातजा उपपाते वा जवा चौपपातिका देवा नारकाश्च । एतेषामेव लक्षणमाह । येषां केषां चित् सामान्येनैव प्राणिनां जीवानामनिकान्तं जवतीति शेषः । त्र्यनिक्रमणमनिकान्तं प्रज्ञापकं प्रत्यनिमुखं क्रमणमित्यर्थः । एवं प्रतिक्रान्तं प्रज्ञापकात् प्रतीपं क्रमणमिति जावः । संकुचनं संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारणं गात्रविततकरणम् । रवणं रुतं शब्दकरणम् | जमणं चान्तमितस्ततश्च गमनं त्रसनं त्रस्तं दुःखोजनम्, पलायितं कुतचिन्नाशनं, तथा श्रागतेः कुतश्चित्कचिजतेश्च कुतश्चित्कचिदेव विन्नाया इति विज्ञातारः । ननु व्यनिकान्तप्रतिक्रान्ताच्यामागतिगत्योर्न कश्चिद्भेदः । तदा किमर्थं नेदेना निधानमुच्यते । विज्ञान विशेषज्ञापनार्थम् । किमुक्तं जवति । य एवं विजानन्ति यथा वयमनिकमामः प्रतिक्रमामो वा त एवात्र त्रसाः । नतु वृतिं प्रत्यनिकमणवन्तोऽपि बह्यादय इति । ननु एवमपि द्वीन्द्रियादीनां त्रसत्वप्रसंगः। यनि 1 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम् । २४ाए क्रमणप्रतिक्रमणनावेऽप्येवंविधज्ञानस्यानावान्नैवमेतत् । हेतुसंज्ञाऽवगतेछिपूर्वकमिव गयात उष्णमुष्णाहा गयां प्रतिक्रमणादिनावात् । न चैवं वढ्यादी. नामजिक्रमणेऽपि ओघसंज्ञायाः प्रवृत्तेः । अथ अधिकारागतत्रसन्नेदानाह । ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तजातीयानामपि ग्रहणमिति हीन्द्रियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलना अत्रापि पूर्ववत् चतुरिन्डिया चमरादयोऽपि गृह्यन्ते।तथा यच्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्वेऽपि गृह्यन्ते। अतएव आह । सर्वे हीन्द्रियाः कृम्यादयः सर्वे श्रीन्द्रियाः कुन्थ्वादयः सर्वे चतुरिन्जियाः पतङ्गादयः। अत्राह । ननु ये च कीटपतङ्गा इत्यादौ उदेशव्यत्ययः कथम् । उच्यते । विचित्रत्वात् सूत्रगतेः । अतन्त्रः सूत्रक्रम इति ज्ञापनार्थम् । सर्वे पञ्चेन्जियाः सामान्यतो विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो गवादयः सर्वे नारका रत्नप्रनानारका दिनेद जिन्नाः सर्वे मनुजाः कर्मनूमिजादयः । सर्वे देवा जवनवास्यादयः । सर्वशब्दोऽन अन्यसमस्तदेवन्नेदानां सत्त्वख्यापनार्थः । सर्व एव एते नसा नतु एकेन्द्रिया व प्रसाः स्थावराश्चेति । उक्तं च । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः तेजोवायू हीन्जियादयश्च वसा इति । स. र्वेऽपि प्राणिनः परमधर्माण इति सर्व एते प्राणिनो हीन्छियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माणः परमं सुखं तझर्माणः कुःखटेषिणः सुखानिलाषिण इत्यर्थः । यतः कारणादेवं ततो छःखोदयादिपरिहारवाया एतेषां पणां जीवनिकायानां नैव स्वयं दएकं समारन इति योगः। षष्ठं जीवनिकायं पूर्ण कर्तुमाह । एसो खलु ठहो जी वनिका तसकाउ ति उच्चश् श्च्चेसिं ठण्डं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंनिजा इत्यादि । एष खलु पूर्वं यः कथितः पष्टो जीवनिकायः पृथिव्या दिपञ्चकापेक्षया प. प्ठत्वमस्य त्रसकाय इति प्रोच्यते तैः सर्वैरेव तीर्थकरगणधरैरिति ॥ (टीका.) दानी साधिकार एतदाह । से जे पुण श्मे इति । सेशब्दोऽथशव्दार्थः । असावप्युपन्यासार्थः । अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुचयेष्विति वचनात् । अथ पुनर्येऽमी वालादीनामपि प्रसिझा अनेके बीप्रिया दिनदेन वहव एकैकस्यां जातौ त्रसाः प्राणिनः। त्रस्यन्तीति त्रसाः । प्राणा जवासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः । तद्यथा। अंडजा इत्यादि । एप खलु पठो जीवनिकायस्वसकायः प्रोच्यत इति योगः। तत्राएमाजाता अएमजाः पक्षिगृहकोकिलादयः । पोता एव जायन्त इति पोतजाः । अन्येप्वपि दृश्यते डप्रत्ययो जनेरिति वचनात् । ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलौकाप्रजृतयः । जरायुवेटिता जायन्त इति जरायुजा गोमहिप्यजाविकमनुष्यादयः । यत्रापि पूर्ववम्प्रत्ययः । रसाशाता रसजास्तका- .. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. रनालदधितेमनादिषु पायुकृम्याळतयोऽतिसूक्ष्मा नवन्ति । संस्वेदाजाता इति संस्वेदजा मत्कुणयूकाशतपदिकादयः । संमूर्वनाजाताः संमूढनजाः । शलनपिपी. लिकामक्षिकाशालूकादयः। उन्नेदाऊन्म येषां त उन्लेदाः। अथवा उनेदनमुभित् । उनिजन्म येषां त उनिजाः । पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः । उपपाताजाता उपपातजाः। उपपाते नवा औपपातिका देवा नारकाश्च । एतेषामेव लक्षणमाह । येषां केषां चित्सामान्येनैव जीवानां प्राणिनामनिकान्तं नवतीति वाक्यशेषः । अनिक्रमणमनिक्रान्तं नावे निष्ठाप्रत्ययः । प्रज्ञापकं प्रत्य निमुखं क्रमणमित्यर्थः । एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणमिति नावः । संकुचनं संकुचितं गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारणं प्रसारितं गात्राविततकरणम्। रवणं रुतं शव्दकरणम्। ब्रमणं ज्रान्तमितश्चेतश्च गमनम् । त्रसनं त्रस्तं कुःखाउजनं पलायनं पलायितं कुतश्चिन्नाशनम् । तथागतेः कुतश्चित्कचित् । गतेश्च कुतश्चित्कचिदेव । विलाया ज्ञातारः। आह । अनिक्रान्तप्रतिक्रान्ताभ्यां नागतिगत्योः क्वचिनेद इति किमर्थं न्नेदेनानिधानम् । उच्यते । विज्ञान विशेषख्यापनार्थम् । एतमुक्तं जवति । य एव विजानन्ति यथा वयमनिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा । त एव सा नतु वृतिं प्रत्यतिक्रमणवन्तोऽपि वयादय इति । आहैवमपि वीन्जियादीनामत्र सत्वप्रसङ्गः । अनिक्रमणप्रतिक्रमणजावेऽप्येवं विज्ञानाजावान्नैतदेवम् । हेतुसंज्ञाया अवगतेर्बुधिपूर्वकमिव बायात उष्णमुष्णाघा बायां प्रति तेषामजिक्रमणादिजावात्। नचैवं वयादीनामजिक्रमणाद्योघसंझायाः प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन । अधिकृतत्रसन्नेदानाह । जे य' इत्यादि । ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति दीडियाः शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते । पतङ्गाः शलना अत्रापि पूर्ववचतुरिन्जिया चमरादयोऽपि गृह्यन्त इति । तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्डियाः सर्व एव गृह्यन्ते।अतएवाह सर्वे हीन्डियाः कृम्यादयः । सर्वे त्रीन्डियाः कुन्थ्वादयः । सर्वे चतुरिन्डियाः पतङ्गादयः । आह । ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थम् । उच्यते। विचित्रा सूत्रगतिरतन्त्रः क्रम इति ज्ञापनार्थम् । सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सामान्यतो विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो गवादयः । सर्वे नारका रत्नप्रजानारकादिनेदनिन्नाः । सर्वे मनुजाः कर्मनूमिजादयः । सर्वे देवा जवनवास्यादयः । सर्वशब्दश्चात्र परिशेषन्नेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः । सर्व एवैते त्रसाः। नत्वेकेन्द्रिया व त्रसाः स्थावराश्चति । उक्तं च । पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावरास्तेजोवायू हीन्जियादयस्त्रसा इति । सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इति । सर्व एते प्राणिनो वीन्डियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इत्यत्र परमं सुखं तधर्माणः सुखधर्माणः सुखानिलाषिण इत्यर्थः । यतश्चैवमित्यतो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८१ डुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां पलां जीवनिकायानां नैव स्वयं दएकं समारनेते ति योगः । परं जीव निकायं निगमयन्नाह । एप खल्वनन्तरोदितः कीटादिः षष्ठो जीवनिकायः । पृथिव्यादिपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य । त्रसकाय इति प्रोच्यते प्रकर्षेणोच्यते । सर्वैस्तीकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्च विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् श्रादिमत्प्रतिनियताकारत्वात् घटवत् । आह । इदं त्रसकाय निगमनमन निधायास्थाने सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनन्तरसूत्रसंवन्धिसूत्रानिधानं किमर्थम् । उच्यते । निगमनसूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्यापनार्थम् । तथा हि । चसकाय निगमनसूत्रावसानो जी - वागमः । अत्रान्तरे अजीवा निगमाधिकारस्तदर्थमनिधाय चारित्रधर्मो वक्तव्यः । तथा च वृद्धव्याख्या ॥ एसो खलु हो जीवनिकार्ड तसकाउत्ति पवुञ्च्चइ । एस जीवा निगम जणि । श्याणिं जीवा निगमो नमः | अजीवा डुविहा । तं जहा । पुग्गला य नोपोग्गला य । पोग्गला बविहा । तं जहा । सुदुमसुदुमा, सुदुमा, सुदुमवायरा, वायरसुदुमा, वायरा, वायरवायरा । सुदुमसुदुमा परमाणुपोग्गला । सुहुमा टुपए सियाई । आटत्तो जाव सुदुमपरिण तपसि खंधो। सुदुमवायरा गंधपोग्गला । वायरसुदुमा वाक्कायसरीरा | वादरा आक्कायसरीरा उस्सादी णं । वायरवायरा तेजवणस्स पुढवितससरीराणि । श्रहवा । चविदा पोग्गला । खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला । एस पोग्गल छिकार्ज । गहणलकणो गोपोग्गल चिकाउ तिविहो। तं जहा | धम्मठिका | धम्मद्विकार्ड आगास विकार्ड । तर धम्म विका गइलकणो । श्रधम्मठिकार्ड विइलरको । आगास विकारी श्रवगाहलरको । तथा चैतत्संवाद्यार्थम् ॥ डुविहा हुंति जीवा, पोग्गलनोपोग्गला य वत्तिविहा ॥ परमाएमा दिपोग्गल, गोपोग्गलधम्ममादीया ॥ १ ॥ सुदुसुदुमा य सुदुमा, तह चेत्र य सुदुमवायरा ऐया ॥ वायरसुदुमा वायर, तह वायरवायरा चैव ॥ २ ॥ परमाणुडुप्पएसा - दिगाउ तह गंधपोग्गला होन्ति ॥ वाऊयाउसरीरा, तेऊमादीप चरिमार्ज ॥ ३ ॥ धम्माधम्मागासा, लोए गोपोग्गला तिहा होति ॥ जीवाईए गइहिए, अवगा• हणि मित्तगा ऐया ॥ ४ ॥ इच्चेसिं वएहं जीवनिकायाणं नेव सयं ढंं समारंनिका । नेवन्नेदि दं समारंभाविका । दंऊं समारंजते वि यन्ने न समपुजाणामि । जावजीवाए तिविदं तिविदेणं मषेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि | करंतं विन्नेन समपुजाणामि । तस्स नंते पडिकनामि । निंदामि | गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस-(४३)-मा (अवचूरिः) यतश्चैवमतएव सप्तम्यर्थे षष्ठी । एतेषु पट्सु जीवनिकाये मुःखरदार्थ नैव स्वयं दं समारजेत प्रवर्तयेत् । नैवान्यैः प्रेष्यादिनिर्दक समा रंजयेत् कारयेत् । समारम्नमाणानप्यन्यान् न समनुजानीयान्नानुमोदयेत् । जीवन जीवो यावजीवमाप्राणोपरमात् । त्रिविधं तिस्रो विधा विधानानि कृताकृतादि रूपाणि यस्येति त्रिविधो दकस्तं त्रिविधेन करणेन मनसा बाचा कायेन न करोमि स्वयं, न कारयामि अन्यैः । कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि । तस्य दएकस्य संवन्धिन मतीतावयवं प्रतिकमामि । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात् । प्रत्युत्पन्नस्य संवरणात् अनागतस्य प्रत्याख्यानात् । नदन्तेति गुरोरामन्त्रणम् । नदन्त नवान्त नयान्त इनि साधारणा श्रुतिः। एतच्च गुरुसा दिक्येव व्रतप्रतिपत्तिःसाध्वीति ज्ञापनार्थम्। प्रतिकमा मीति जूतदंझानिवृत्तोऽहमित्यर्थः । आत्मसादिकी निन्दा परसाक्षिकी गर्दा । आ त्मानमतीतदरुकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति । अयं दमः सामान्य विशेषरूप इति (अर्थ.) (श्चेसि के०) इत्येषां एटले एवी रीतें पूर्वे कहेला एवा, (बण्हं के षमाम् एटले उ एवा (जीवनिकायाणं के०) जीवनिकायानां एटले जीवसमुदायन (दंमं के) हिंसारूप दंडने (सयं के० ) वयं एटले पोते (न समारंनेद्या के न समारनेत एटले संघटन, आतापनादिक आरंज करे नहीं. तथा ( अन्नहिं के अन्यैः एटले बीजापासे (दंझ के ) दंमं एटले हिंसारूप दंडने (न समारंना विजा के० ) न समारंनयेत् एटले आरंज करावे नहीं. तथा ( दरू समारंचते हि के) दंमं समारजमाणानपि एटले दंगने आरंज करनार एवा (अन्ने के०) अन्यान एटले बीजाने पण ( न समणुजाणामि के०) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदना दिये नहीं. एवी जगवंतनी आज्ञा , माटे साधु एवो निश्चय करे के, (जावजीवाए के) यावजीवं एटले ज्या सुधी मारो जीव आ देहमां बे, त्यांसुधी (ति विहं के० ) त्रिविधं एटले कृत, कारित अने अनुमोदित रूप त्रण प्रकारना दमने (तिविहेणं के०) त्रिविधेन एटले त्रिकरणेकरी. ते त्रिकरणज कहे. ( मणेणं के, मनसा एटले मनेंकरी, (वायाए के) वाचा एटले वाणीएकरी, (काएणं के०) कायेन एटले कायेंकरी, (न करेमि के०) न करोमि एटले न करूं, (न कारवेमि के, न कारयामि एटले कराई नहीं, तथा ( करंतंवि अन्ने के ) कुर्वतमप्यन्यं एटले आरंज करनार एवा अनेराने पण ( न समणुजाणामि के०) न समनुजानामि एटले हुँ अनुमोदना आपुं नहीं. तथा वर्तमानकालथी पूर्वकालनेविषे एटले अतीत कालनेविषे जे में हिंसारूप दंग कस्यो होय, ( तस्स के०) तस्य एटले ते अतीत दंगने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २७३ (नंते के ) हे नदंत, जयांत अथवा जवांत, एटले हे गुरो ! ( पडिकमामि के०) प्रतिकमामि एटले प्रतिऋमुं हुं, अर्थात् पाठगे वढं तुं. (निंदामि के०) आत्मसाखें निं तुं. (गरिहामि केव) गुरुनी साखें गहुं . (अप्पाणं बोसिरामि के) ते पापकारी आत्माने हुं ओवासिराढुं. ॥ (दीपिका.) एतेषां समां जीवनिकायानामिति । अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी। तत एतेषु पट्सु जीव निकायेषु पूर्व कथितखरूपेषु नैव खयं आत्मना दण्ळं संघटनपरितापनादिलक्षणं समारनेत प्रवर्तयेत् । तथा नैव अन्यैः प्रेप्यादिनिः दएकमुक्तरूपं समारंनयेत् कारयेदित्यर्थः । दंडं समारनमाणानपि अन्यान् प्राणिनो न समनुजानीयात् । न अनुमोदयेदिति विधायकं लगवचनं । यतश्चैवं ततो जावजीवमित्यादि । यावत् व्यु. स्मृजामि यावजीवं यावत्प्राणधारणं ताव दित्यर्थः। किमित्याह । त्रिविधं त्रिविधेनेति । तिस्रो विधाः कृतादिरूपा यस्येति त्रिविधो दएम इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन । एतदेव दर्शयति । मनसा, वाचा, कायेन एतेषां स्वरूपमेव । अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दकः तं च वस्तुतो निषेधरूपतया सूत्रेणैव दर्शयति । न करोमि स्वयं, न कारयामि अन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति । तस्य हे नदंत प्रतिकमामीति।तस्य इति अधिकृतो योऽसौ त्रिकाल विषयो दएमस्तस्य संवन्धेन अतीत. मवयवं प्रतिकमामि । न वर्तमानमनागतं वा । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात् । नदंतेति गुरोरामंत्रणम्। नदन्त नवान्त नयान्तइति साधारणा श्रुतिः । अनेन एवं ज्ञापितम् । व्रतप्रतिपत्तिगुरुसादिक्येव । प्रतिकमामि इति नूतदएमात् अहं निवर्त इत्युक्तं नवति । तस्माञ्च निवृत्तिर्यदनुमतेविरमणम् । तथा निन्दामि गर्हामि । तत्र निंदा थात्मसादिकी गर्दा परसादिकी जुगुप्सा च । आत्मानमतीतदएमकारिणम् अश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति विशेपेण नृशं च त्यजामि ॥ ( टीका.) उक्तोऽजीवानिगमः । सांप्रतं चारित्रधर्मः। तत्रोक्तसंवन्धमेवेदं सूत्रम्। सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना एतेषां पणां जीवनिकायानामिति सुपां सुपो नवन्तीति सप्तभ्यर्थे पष्ठी । एतेषु पट्सु जीवनिकायेपु अनन्तरोदितस्वरूपेषु नत्र स्वयमात्मना दए संघटनपरितापनादिलक्षणं समारनेत प्रवर्तयेत्तथा नेवान्यः प्रेयादिनिर्दएकमुक्तलक्षणं समारंनयेत् कारयेदित्यर्थः। दामं समारनमाणानप्यन्यान्प्राणिनो न समनुजानीयात् नानुमोदये दिति विधायकं लगवचनम् । यतश्चैवमतो यावजीवमित्यादि । यावट्युत्सृजामीत्यादीत्येवमिदं सम्यक् प्रतिपद्यतेत्यापर्यम् । पदार्थस्तु जीवनं जीवः यावजीवो यावजीवमाप्राणोपरमादित्यर्थः । किमित्याह । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. त्रिविधं त्रिविधेनेति । तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः । दएक इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन । एतडुपन्यस्यति । मनसा वाचा कायेनैतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव । श्रस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दस्तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह । न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति । तस्य जदंत प्रतिक्रमामीति । तस्येत्यधिकृतो दमः संबध्यते । संबन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी । योऽसौ त्रिकालविषयो दमस्तस्य संबन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रमामि न वर्तमानमनागतं वा । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्प्रत्युत्प न्नस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति । जदंतेति गुरोरामन्त्रणम् । नदंत नवान्त जयन्त इति साधारणा श्रुतिः । एतच्च गुरुसा दिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थम् । प्रतिक्रमामीति भूतदएका न्निवर्तेऽहमित्युक्तं नवति । तस्माच्च निवृत्तिर्य तदनुमतेविरमण मिति । तथा निन्दामि गर्दामीत्यत्रात्मसाक्षिकी निन्दा, परसा कि गर्दा जुगुप्सोच्यते । यत्मानमती तद एककारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामी ति विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः । उछब्दो भृशार्थः । सृजामीति त्यजामि । ततश्च विविधं विशेषेण वा नृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह । यद्येवमतीतद एकप्रतिक्रम मात्रस्यैदंपर्यं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति । नैतदेवं न करोमीत्यादिना तनय सिद्धेरिति ॥ पढमे नंते महवर पाणाश्वायान वेरमणं । सवं नंते पाणाश्वायं पच्चकामि । से सुहमं वा बायरं वा तसं वा यावरं वा नेव सयं पाणे इवाइका | नेवन्नेहिं पाणे अश्वायाविका पाणे श्वायते विन्नेन समजाणामि । जावजीवाए । तिविदं तिविदेणं मणे वायाए काएणं न करेमि न कारवेभि करंतं पि खन्ने न समजाणामि । तस्स नंते पक्किमामि । निंदामि । गरिदामि । यप्पाणं वोसिरामि । पढमे जंत महत्वए नवनिमि सघन पाणाश्वायान वेरमणं ॥ ( यवचूरिः ) दमः सामान्येनोक्तः । सतु विशेषतः पञ्चमहात्रतरूपतयाङ्गीकृत्य ज्ञेयः । तान्याह । प्रथमे दन्त महात्रते किं कार्यमिति शिष्योक्ते गुरुराह । प्राणातिपातमिति । प्राणा इन्द्रियादयस्तेषामतिपातस्तस्माद्विरमण मिति । यतश्चैवमतः सर्व जदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । महत्त्वमणुव्रतापेक्षया । प्रतिशब्दः प्रतिषेधे । ते शब्दो मागधदेशप्रसिद्धस्तद्यथार्थः । स चोपन्यासे । यत्र सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोद Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम् । यवर्तिनः। तस्य सूक्ष्मत्वादेव कायिकीहिंसाया अन्नावेऽपि मनोवाग्भ्यां तत्संनवे ग्रहणं सार्थकमिति। यहा सूदमं कुन्थ्वादि।वादरोऽपि स्थूलः । स चैकैको द्विधा। सः स्थावरश्च। सूदमनसः कुन्थ्वादिः। सूम स्थावरो वनस्पत्या दिरावादरत्रसो गवादिः।वादरः स्थावरः पृथिव्यादिः।प्राकृतत्वाहिनक्तिव्यत्ययेन प्राणानतिपातयामीतियात्मनिर्देशः। एवं शेषमहावतेष्वपि योज्यम्।सूमं वा वादरं वेति वाशब्दोपलदित एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति चतुर्विधः प्राणातिपातो अष्टव्यः।जव्यतः क्षेत्रतः कालतः नावतश्च। चतुनगिका चात्र । दवर्ड णामेगे पाणाश्वाए नो नावउँ । नाव न दवर्ड । दवर्ड नाव वि। नो दवर्ड नो नाव । आदिमध्यान्तेषु नदन्तग्रहणाजुरुमनापृव्य न किंचित्कार्यमिति । श्त आरज्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाता हिरमणमिति निगमनम् । नैव स्वयं प्राणिनो. ऽतिपातयामि।नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि।प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह । उपस्थितोऽस्मि । उप सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः । श्त आरज्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताहिरमणं प्रत्याख्यानमिति॥१॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त प्रकारे साधुए करवानो त्रिविध दंगनो परित्याग सामान्य करी कह्यो. तेनेज हवे विशेकरी पंचमहाव्रतरूपें कहे . तेमां प्रथम पहेलु महाव्रत कहे वे. (नंते के०) हे नदंत एटले हे गुरो (पढमे के०) प्रथमे एटले पहेला (महवए के०) महाव्रते एटले प्राणातिपातविरमणनामक महानतने विपे (पाणावाया के०) प्राणातिपातात्, प्राण एटले एकेंजियादिक तेमनो जे अतिपात एटले थतिपीडा तेथी (वेरमणं के०) विरमणं एटले सम्यग्ज्ञानश्रझानपूर्वक विरमण करवू. निवतवं. एम लगवाने कडं ठे, माटे (नंते के) हे नदंत, गुरो, ( सर्व के०) सर्व एटले सर्व प्रकारना (पाणाश्वायं के०) प्राणातिपातं एटले प्राणातिपातने (पञ्चरकामि के०) प्रत्याख्यामि एटले पञ्चकुं तुं. (से के०) तद्यथा ते जेम केः-(सुदुमं वा के० ) सूदमं वा एटले सूक्ष्म ते न्हाना शरीरवाला (वायरं वा के० ) बादरं वा एटले श्रथवा स्थूलशरीरवाला एवा जे ( तसं वा के०) संवा पटले वंघियादिक सजीव, तेमां कुंथुयादिक जे ठे ते सूदम उस जाणवा, यने गजादिक जे ते वादर त्रस जाणवा. तथा ( यावरं वा के०) स्थावरं वा एटले पृथिव्यादिक स्थावर जीव तमा वनस्पत्यादिक जे ठे ते सूक्ष्म स्थावर जाणवा, थने पृथिव्यादिक जे ठे, ते चादर स्थावर जाणवा. एवा (पाणे के०) प्राणिनः एटले जीवने ( नेव सवं यक्षवाश्मा के०) नैव स्वयं यतिपातयामि एटले ढुं पाते हाणीदा नहि. (यदि के०) यन्यैः एटले वीजा लोको पासे ( पाणे के) प्राणिनः एटले पूर्वोक्त जीवाने ( नेव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. त्रिविधं त्रिविधेनेति । तिस्रो विधा विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः । दएक . इति गम्यते । तं त्रिविधेन करणेन । एतउपन्यस्यति । मनसा वाचा कायेनैतेषां स्वरूपं प्रसिद्धमेव । अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दएकस्तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह । न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति । तस्य नदंत प्रतिक्रमामीति । तस्येत्यधिकृतो दएमः संवध्यते । संवन्धलदणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी । योऽसौ त्रिकाल विषयो दमस्तस्य संवन्धिनमतीतमवयवं प्रतिकमामि न वर्तमानमनागतं वा । अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्प्रत्युत्पनस्य संवरणादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति । जदंतेति गुरोरामन्त्रणम् । नदंत नवान्त जयान्त इति साधारणा श्रुतिः। एतच्च गुरुसा दिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति झापनार्थम् । प्रतिक्रमामीति नूतदएमा निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति । तस्माच्च निवृत्तिर्यतदनुमतेविरमणमिति । तथा निन्दामि गामीत्यत्रात्मसादिकी निन्दा, परसाक्षिकी गर्दा जुगुप्सोच्यते । आत्मानमतीतदमकारिणमश्लाघ्यं व्युत्सृजामीति । विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः । उबब्दो नृशार्थः । स्सृजामीति त्यजामि । ततश्च विविधं विशेषेण वा नृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह । यद्येवमतीतदमप्रतिक्रमणमात्रस्यैदंपर्यं न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति । नैतदेवं न करोमीत्यादिना तमुनय सिझेरिति ॥ पढमे नंते महबए पाणाइवाया वेरमणं । सवं नंते पाणाश्वायं पञ्चकामि । से सुदुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अश्वाइका । नेवन्नेहिं पाणे अश्वायाविळा पाणे अश्वायते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए । तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं.पि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि।निंदामि । गरिदामि।अप्पाणं वोसिरामि। पढमे नंत मदवए जवहिनमि सबन पाणाश्वाया वेरमणं ॥ ' (अवचूरिः) दएमः सामान्येनोक्तः । सतु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाङ्गीकृत्य ज्ञेयः । तान्याह । प्रथमे नदन्त महाव्रते किं कार्य मिति शिष्योक्ते गुरुराह । प्राणातिपातमिति ।प्राणा इन्द्रियादयस्तेषामतिपातस्तस्माधिरमणमिति । यतश्चैवमतः सर्व नदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । महत्त्वमणुव्रतापेक्षया। प्रतिशब्दःप्रतिषेधे। से शब्दो मागधदेशप्रसिझस्तद्यथार्थः । स चोपन्यासे।अत्र सूमाः सूदमनामकर्मोद Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८५ यवर्त्तिनः । तस्य सूक्ष्मत्वादेव कायिकी हिंसाया जावेऽपि मनोवाग्न्यां तत्संजवे ग्रहणं सार्थकमिति । यद्वा सूक्ष्मं कुन्थ्वादि । बादरोऽपि स्थूलः । स चैकैको द्विधा । त्रसः स्थावरश्च । सूक्ष्मत्रसः कुन्ध्वादिः । सूक्ष्म स्थावरो वनस्पत्यादिः । बादरत्रसो गवादिः । बादरः स्थावरः पृथिव्यादिः । प्राकृतत्वाद्विन क्तिव्यत्ययेन प्राणानतिपातयामीति श्रात्म निर्देशः । एवं शेषमहात्रतेष्वपि योज्यम् । सूक्ष्मं वा बादरं वेति वाशब्दोपलक्षित एकग्रहणे तजाती - यग्रहणमिति चतुर्विधः प्राणातिपातो द्रष्टव्यः । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः जावतश्च । चतुर्जंगिका चात्र । दad णामेगे पाणाश्वाए नो जावर्ज । जाव न दवर्ज । दधर्ज नाव विं । नो ad at aad | आदिमध्यान्तेषु नदन्तग्रहणाकुरुमनापृब्य न किंचित्कार्यमिति । इतरय मम सर्वस्मात्प्राणातिपाता द्विरमणमिति निगमनम् । नैव स्वयं प्राणिनो'ऽतिपातयामि । नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि । प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह । उपस्थितोऽस्मि । उप सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः । इत रम्य मम सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणं प्रत्याख्यानमिति ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) पूर्वोक्त प्रकारें साधुए करवानो त्रिविध दमनो परित्याग सामान्यें करी को. तेज हवे विशेषेकरी पंचमहाव्रतरूपें कहे बे. तेमां प्रथम पहेलुं महाव्रत कहे d. (नं के०) हे दंत एटले हे गुरो ( पढमे के० ) प्रथमे एटले पहेला (महवए के० ) महाव्रते एटले प्राणातिपात विरमणनामक महाव्रतने विषे ( पाणाश्वायार्ड के० ) प्राणातिपातात् प्राण एटले एकेंद्रियादिक तेमनो जे अतिपात एटले अतिपीडा ते ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले सम्यग्ज्ञानानपूर्वक विरमण कर. निवबुं. एम जगवाने कर्तुं बे, माटे ( जंते के० ) हे जदंत, गुरो, ( सवं के० ) सर्वं एटले सर्व प्रकारना ( पाणाश्वायं के० ) प्राणातिपातं एटले प्राणातिपातने ( पचामि के० ) प्रत्याख्यामि एटले पच्चकुं बुं. (से के०) तद्यथा ते जेम केः - (सुहुमं वा के० ) सूक्ष्मं वा एटले सूक्ष्म ते न्हाना शरीरवाला ( बायरं वा के० ) बादरं वा एटले अथवा स्थूलशरीरवाला एवा जे ( तसं वा के० ) त्रस वा एटले बेंद्रियादिक सजीव, तेमां कुंथुचादिक जे बे ते सूक्ष्म त्रस जाणवा, घने गजादिक जे बे ते बादर त्रस जाणवा. तथा ( थावरं वा के० ) स्थावरं वा एटले पृथिव्यादिक स्थावर जीव - मां वनस्पत्यादिक जे बे ते सूक्ष्म स्थावर जाणवा ने पृथिव्यादिक जे बे, ते बादर स्थावर जाणवा. एवा ( पाणे के० ) प्राणिनः एटले जीवने ( नेव सयं वाश्जा के० ) नैव स्वयं प्रतिपातयामि एटले हुं पोते हणीश नहि, ( अन्नेहिं के० ) अन्यैः एटले वीजा लोको पासें ( पाणे के० ) प्राणिनः एटले पूर्वोक्त जीवोने ( नेव २४ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अश्वायाविद्या के ) नैव अतिपातयामि एटले हणावीश नहीं, तथा ( पाणे के) पू. वोक्त प्राणियोने ( अश्वायंते वि अन्ने के ) अतिपातयतोऽप्यन्यान्, एटले हणनारा एवा बीजाप्रत्ये पण (ण समणुजाणामि के०) न समनुजानामि एटले अनुमोदना आपीश नहि. जावजीवाए अहिथी मांडीने ओसिरामि सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे बतप्रतिपत्तिने पूर्ण करतो बतो कहे जे. (नंते के ) नदंत एटले हे गुरो ! (पढमे के०) प्रथमे एटले पहेला (महबए के) महाव्रतनेविषे ( सवा पाणाश्वाया के०) सर्वप्राणातिपाततः एटले पूर्वोक्त सर्व प्राणातिपातयकी (वेरमणं केण्) विरमणप्रत्ये ( उवहिमि के ) उपस्थितोऽस्मि एटले तेना परिणामनी प्राप्तिथी समीप रहेलो बु.॥१॥ । (दीपिका.) अयं च आत्मप्रत्ययो दएमः सामान्यविशेषनेदात् वेधा । तत्र सामान्येन पूर्व कथितः स एव विशेषेण महाव्रतरूपतया आह सूत्रक्रमेण । प्रथमे नदन्त हे गुरो ! महाव्रते महच्च तह्तं च महाव्रतं महत्त्वं च अणुव्रतापेक्ष्या तस्मिन् महाव्रते प्राणातिपाताहिरमणे प्राणा एकेन्द्रियास्तेषामतिपातः प्राणातिपातो जीवस्य महाकुःखोत्पादनम् । नतु जीवातिपात एव तस्माद्विरमणं नाम सम्यग् ज्ञानश्रकानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनं जगवता कथितमिति शेषः । यतश्चैवमत उपादेयमिति निश्चित्य सर्वं हे दन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । सर्व समस्तं नतु परिस्थूलमेव । हे नदन्त हे गुरो ! प्राणातिपातव्याख्यानं पूर्ववत् । प्रत्याख्यामि निषेधयामि । अथ प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि इत्युक्तं तद्विशेषतो वक्तुमाह । से शब्दो मागधीनाषाप्रसिद्धः अथशब्दार्थः । तद्यथा सूदमं वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा । अत्र सूमोऽल्पः परिगृह्यते । नतु सूदमनामकर्मोदयात्सूदमः। कथं, तस्य कायेन व्यापादनस्यानावात् । बादरोऽपि स चैकैको द्विधा त्रसः स्थावरश्च । तत्र त्रसः सूक्ष्मः कु. न्थ्वादिः । स्थावरः सूमो वनस्पत्यादिः । बादरस्त्रसो गवादिः। बादरः स्थावरः पृथिव्यादिः । एतान् नैव सयं पाणे अश्वाश्कात्ति नैव स्वयं प्राणिनोऽतिपातयामि । नैव अन्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि । प्राणिनोऽतिपातयतोऽपि अन्यान् न समनुजानामि । यावजीवमित्यादि पूर्ववत् । व्रतप्रतिपत्तिं पूर्णां कुर्वन्नाह । प्रथमे नदन्त महाव्रते उपस्थितोऽस्मि । उप सामीप्येन तस्य परिणामस्य आपत्त्या स्थितः । श्त आरज्य मम सर्वस्मात् प्राणातिपाताहिरमणम् ॥१॥ (टीका.) अयं चात्मप्रतिपत्त्यहाँ दणमनिदेपः सामान्य विशेषरूप इति सामान्ये... नोक्तलक्षण एव । स तु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाप्यङ्गीकर्तव्य इति महाव्रतान्या Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्याध्ययनम् । ... १७y ह। पढमे नंते इत्यादि । सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमम् । नदंतेति गुरोरामन्त्रणम् । महाव्रत इति महच्च तहतं च महाव्रतम् । महत्त्वं चास्य श्रावकसंबन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति । अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानजङ्गकशताधिकारः। तत्रेयं गाथा ॥ सीयालं नंगसयं, पञ्चकाणं मि जस्स उवलकं ॥ सो पञ्चरकाणकुसलो, सेसा सवे अकुसला ॥ २९६ ॥ एनां चासंमोहार्थमुपरिष्टाठ्याख्यास्यामः। तस्मिन् महाव्रतेप्राणातिपाताहिरमणमिति । प्राणा इन्जियादयः तेषामतिपातःप्राणातिपातः। जीवस्य महाकुःखोत्पादनं न तु जीवातिपात एव । तस्मात्प्राणातिपाताहिरमणम्। विरमणं नाम शानश्रद्धानपूर्वं सर्वथा निवर्तनम् । जगवतोक्तमिति वाक्यशेषः । यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति निश्चित्य सर्वं जदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । सर्वमिति निरवशेषम् । नतु परिस्थूरमेव । नदंतेति गुर्वामन्त्रणम् । प्राणातिपातमिति पूर्ववत् । प्रत्याख्यामीति । प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, आङाजिमुख्ये, ख्या प्रकथने, प्रतीपमनिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्यामि । अथवा प्रत्याचदे संवृतात्मा सांप्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणानिधानं करोमीत्यर्थः। अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थानाई इत्येतदाह । उक्तं च ॥ पढिए य कहिय अहिगय परिहरउवगवणाजोगोत्ति ॥ उकं तीहिं विसुझं, परिहरणवएण नेदेण ॥ पडपासाउरमादी, दिहंता होंति वयसमारुहणे ॥ जह मलिणाश्सु दोसा, सुद्धाश्सु णेवमिहशंपीत्यादि ॥ एतेसिं लेसुद्देसेण सीसहियच्याए अबो जन्न। पढियाए सबपरिन्नाए दसकालिए जीवणिकाए वा।कहियाए अब अनिगयाए संमं परिस्किऊण परिहर। जीवणियाए मणवयणकाएहिं कयकारावियाणुमश्नेदेण त गविद्यश्ण अन्नहा श्मे य च पडादी दिहंता। मेश्वो पडो ण रंगिद्यश् । असोहिए मूलपाए पासा ण किया। सोहिए किजा । वमणाहिं असोहिए आजरे ओसहं न दिजा । सोहिए दिऊ। असंगविए रयणे पडबंधो न किधर । संविए किधर । एवं पढियकहियाहिं असोहिए सीसे ण वयारोवणं किय। सोहिए किधर । असोहिए य करणे गुरुणो दोसा साहिया पालणे सिस्सदोसो त्ति । कयं पसंगेण । यमुक्तम् । सर्वं जदन्त प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति । तदेतहिशेषेण अनिधित्सुराह । सुहुमं वेत्यादि । सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः । अथशब्दार्थः।स चोपन्यासे।तद्यथा सूक्ष्मं वा बादरं वा त्रसं वा स्थावरं वा । अत्र सूमोऽस्पः परिगृह्यते । न तु सूमनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः । तस्य कायेन व्यापादनासंचवात् । तदेतहिशेषतोऽनिधित्सुराह । बादरोऽपि स्थूरः । स चैकैको द्विधा । सः स्थावरश्च । सूदमत्रसः कुन्थ्वादिः । स्थावरो वनस्पत्यादिः । वादरस्त्रसो गवादिः । वादरः स्थावरः पृथिव्यादिः। एतान्, णेव सयं पाणे अश्वाएजत्ति प्राकृ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तशैल्या बान्दसत्वात्तिडां तिडो जवन्तीति न्यायान्नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि। नैवान्यैःप्राणिनोऽतिपातयामि।प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि। यावजीवादि पूर्ववत् । इह च सूक्ष्मं वा बादरं वेत्यादिनोपल दित एक ग्रहणे तजातीयग्रहणमिति चतुर्विधः प्राणातिपातो अष्टव्यः । तद्यथा अव्यतः देवतः कालतो नावतश्चेति । तत्र अव्यतः षट्सु जीवनिकायेषु सूदमादिनिन्नेषु । क्षेत्रतो लोके तिर्यग्लोका दिनेद निन्ने । कालतोऽतीतादौ राज्यादौ वा । नावतो रागेण वा रोपेण वा । मांसादिरागशत्रुहेपान्यां तापपत्तेरिति। चतुर्नङ्गिका चात्र। दवर्ड णामेगे पाणाश्वाए ण नाव इत्यादिरूपा यथा सुमपुष्पिकायां तथा अष्टव्येति।बतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह।प्रथमे नदन्त महाव्रत उपस्थितोऽस्मिाउप सामीप्येन तत्परिणामापत्त्या स्थितः। श्त आरज्य मम सर्वस्मात्प्रापातिपाताहिरमणमिति।जदंत इत्यनेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमनापृव्य न किंचित्कर्लव्यं, कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवतीत्येवमाह।उक्तं प्रथमं महानतम् ॥१॥ - अहावरे दुच्चे नंते महवए मुसावाया- वेरमणं । सवं नंते मुसावायं पञ्चकामि । से कोदा वा, लोहा वा नया वा, हासा वा, नेव सयं मुसं वश्जा । नेवन्नेहिं मुसंवायाविजा।मुसं वयंते वि अन्ने न समजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। उच्चे नंते महत्वए जवहिमि सबान मुसावाया वेरमणं ॥२॥ - (श्रवचूरिः ) द्वितीयमाह । अथापरस्मिन् द्वितीये नदन्त महाव्रते मृषावादाहिरमणं सर्वं नदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा। क्रोधाहा लोनाछा इत्यनेन आद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः । नयाा हासाछा इत्यनेन प्रेमवेषकलहान्याख्यानादिपरिग्रहः । मृषा चतुर्की । सनावप्रतिषेधः१। असनावोनावनम् । अर्थान्तरानिधानम् ३ । गर्दा च । । तत्रायं नास्त्यात्मेत्यादि । द्वितीयमस्त्यात्मा सर्वगतः श्यामाकतन्कुलमानो वा शतृतीयं गामश्वमनिदधतः ३ । चतुर्थं काणं काणम निदधतः ४ । पुनश्चतुळ अव्यक्षेत्रकालजावरूपतः । अव्यादिष्वन्यथाप्ररूपणात्। - व्यादिचतुर्नङ्गी पुनरियम् । दवणामेगे मुसावाए नो नाव इत्यादि । नैव खयं मृषा वदामि । नैवान्यैर्मृषा वादयामि । मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि । द्वितीये नं. दन्त महाव्रते उपस्थितोऽस्मि । सर्वस्मान्मृषावादाहिरमणं प्रत्याख्यामीति ॥२॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 기 न उ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १८‍ (अर्थः) हवे बीजुं मृषावाद विरमणरूप महाव्रत कहे बे. ( अह के० ) अथ एटले हवे पढ़ी (जंते के० ) हे जदंत, गुरो ! (अवरे के० ) अपरे एटले अनेरा (च्चे के०) द्वितीये एटले बीजा (महाए के०) महात्रते एटले महाव्रतने विषे (मुसावायार्ड के ० ) मृषावादात् एटले असत्य बोलवाथकी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले निवर्ततुं तीर्थ करादिर्केकयुं बे, माटे ( जंते के० ) हे गुरो ! ( सवं के० ) सर्वं एटले सर्व ( मुसा - वायं ० ) मृषावादं एटले असत्य भाषण जे कयुं होय, ते प्रत्ये ( पच्चरका मि के० ) प्रत्याचके एटले पञ्चकुं हुं . ( से के०) तद्यथा एटले ते जेम केः (कोहा वा के० ) कोधाद्वा एटले क्रोकरी अथवा (लोहा वा के० ) लोमाद्वा एटले लोनथी अहिं " - दिना तथा अंतना ग्रहणथी मध्यनुं पण ग्रहण कर एवा न्यायथी मान ने माया बेनुं ग्रहण कर. अथवा ( जया वा के० ) नयाा एटले जयथी, अथवा ( हासा वा के० ) हास्याद्वा एटले उपहास करवाना प्रसंगथी यहिं उपलक्षणथी प्रेमाने द्वेष ए वे शब्दनुं ग्रहण कर. ( सयं के०) स्वयं एटले पोतें हुं ( मुसं के० ) मृषा एटले असत्य (नेव वश्या के० ) न वदामि एटले नहिं बोलुं. अहीं मृषावाद जे बे ते, चार प्रकारनो जावो. ते एवी रीतेः- एक सद्भावप्रतिषेध, बीजो असनावोनावन, चीजो अर्थांतर अने चोथो गर्हा, ते चारमां सद्भावप्रतिषेध एटले श्रा त्मा नथी, पुण्य नथी, पाप नथी एवीरीते शास्त्र सिद्ध सद्वस्तुनो प्रतिषेध करवो. बीजो सावोद्भावन ते आत्मा सर्वगत बें, अथवा श्यामाकतंडुलप्रमाण बे, एम शास्त्रविरुद्ध असस्तुनी कल्पना करवी. तथा त्रीजो छार्थांतर मृषावाद ते बलदने अश्व कहेवो, तथा अश्वने बलद केहवो इत्यादि. चोथो गर्दामृषावाद ते काणाने काणो के देवो इत्यादि. एवीरीतें चार प्रकारनो मृषावाद जाणवो. वली द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा जाव ए नेदथी पण चार प्रकारनो जाणवो. एमां कोइपण जातनो मृषावाद हुं करूं नहीं, तथा ( अन्नेहिं के० ) अन्यैः एटले बीजापासें ( मुसं के० ) मृषा एटले असत्य (नेव वायाविद्या के० ) नैव वादयामि एटले बोलावुं नहीं; तथा (मुसं वयं विन्ने के० ) मृषा वदतोऽप्यन्यन्, एटले मृषावाद करता बीजा प्रत्ये पण ( न समणुजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन श्रापुं नहीं. अहीं श्री जावजीवादिको अर्थ बे, जे ते पूर्ववत् जाणवो ॥ २ ॥ 33 ( दीपिका ) उक्तं प्रथममथ द्वितीयं व्रतमाह । यथ अपरस्मिन् द्वितीये दन्त महात्रते मृषावादाद्विरमणम् । सर्व हे नंदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तयथा क्रोधान्नैव मृषावादं वदामि इत्युक्तिः । एवं लोनाद्वा । आद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्य Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रए राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. स्यापि ग्रहणमिति न्यायात् मानमाययोहणम् । ततो मानाछा, मायाया वा, पुनर्जयाछा, हासाझा, उपलक्षणत्वात् प्रेमतो वा, वेषतो वा, अन्याख्यानादितो वा, नैव मृषा स्वयं वदामि । नैव मृषा अन्यैर्वादयामि । नैव मृषा वदतोऽपि अन्यान् समनु. जानामि । यावजीवमित्यादि पूर्ववत् ॥२॥ - (टीका ) श्दानी द्वितीयमाह अहावरे इत्यादि । अथापरस्मिन् द्वितीये नदन्त महाव्रते मृषावादाहिरमणं सर्वं नदन्त मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा। क्रोधाद्या लोनाछेत्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः । जयाछा हास्याछा इत्यनेन तु प्रेमद्वेषकलहाच्याख्यानादिपरिग्रहः। णेव सयं मुसं वएज त्ति । नैव स्वयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । मृषावादश्चतुविधः । तद्यथा । सनावप्रतिषेधः । असनावोनावनम् । अर्थान्तरम् । गर्दा च । तत्र सन्नावप्रतिषेधो यथा । नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पापं चेत्यादि । असनावोनावनं यथा। अस्त्यात्मा सर्वगतः, श्यामाकतन्कुलमात्रो वेत्यादि । अर्थान्तरम् गामश्वमनिदधत इत्यादि । गर्दा काणं काणमनिदधत इत्यादिः। पुनरयं क्रोधादिनावोपलादितश्चतुर्धा । तद्यथा । अव्यतः क्षेत्रतः कालतो नावतश्च । अव्यतः सर्वव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् । देवतो लोकालोकयोः । कालतो राज्यादौ । नावतः क्रोधादिनिः । इति। अव्यादिचतुर्नंगी पुनरियम् । दवर्ड णामेगे मुसावाए णो नाव। नाव णामेगे णो दवर्ड । एगे दव वि नाव वि। एगे णो दवर्ड णो नाव । तब को कहिंवि हिंसुजाउँ जण । तए पसुमिणाश्णो दित्ति । सो दयाए दिहा वि जण ण दिकत्ति । एस दवढं मुसावा नो नावउँ । अवरो मुसं नणीहामित्ति परिण सहसा सवं जण । एस नाव नो दवर्ड । अवरो मुसं नणीहामित्ति परिणजे मुसं चेव जण। एस दवळ वि नावउ वि। चरमनंगो पुण सुणो ॥५॥ अदावरे तच्चे नंते महवए अदिन्नादाणा वेरमणं । सवं नंते अदिन्ना- . दाणं पच्चरकामि । से गामे वा नगरे वा रमे वा अप्पं वा बहु वा अणु वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिएिहका। नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविजा ।अदिन्नं गिएदंते वि अन्ने न समणुजाणामि। जावजीवाए.तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि-अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि।... Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे नंते महवए नवनिमि दिन्नादाणान वेरमणं ॥ ३ ॥ सवा २०१ ( अवचूरिः ) तृतीयमाह । अथापरस्मिन् तृतीये जदन्त महावते अदत्तादानाद्विरमणम् । सर्व जदन्त अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति । यसति बुद्ध्यादीन् गुणान् ग्रामः । ग्रामादिग्रहणेन क्षेत्रपरिग्रहः । नगरे वा नास्मिन्करो नकरमिति । श्ररण्ये वा । अरण्यं काननादि । अल्पं वा । अल्पं मूल्यत एरएमकाष्ठादि । बहु वा बहु वजादि । वा । अणु प्रमाणतो वज्रादि । स्थूलमेर एकाष्ठादि । एतच्च चित्तवाचित्तवा चेतनाचेतनमित्यर्थः । चतुर्यादत्तादानं द्रव्यतोऽल्पादौ देत्रतो ग्रामादौ कालो रात्र्यादौ नावतो रागद्वेषाभ्याम् । द्रव्यादि चतुर्भङ्गी पूर्ववत् । न स्वयमदत्तं गृह्णामि नान्यैरदत्तं ग्राहयामि अदत्तं गृह्णतो नान्यान्समनुजानामि ॥ ३ ॥ (अर्थ) हवे त्रीजुं अदत्तादानविरमण नामक महाव्रत कहे बे. ( अह के० ) पी, (०) हे जदंत, हे गुरो ! (अवरे के० ) अपरे एटले पूर्वे कला तेथी रा ( त ० ) तृतीये एटले त्रीजा ( मदवए के० ) महात्रते एटले महाव्रतने विषे ( अदिन्नादाणा ० ) अदत्तादानात् एटले अदत्तादानथी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले विरम, निवर्तयुं, एम तीर्थकरादिकें कयुं बे, माटे ( अंते के० ) हे दंत, गुरो ! ( सवं के०) सर्व एटले सूक्ष्म, बादर, थोकुं, घणुं ए सर्व ( अदिन्नादाणं के० ) अदत्तादानं एटले अणदीधुं लेवुं ते प्रत्यें ( पच्चरका मि के० ) प्रत्याचके एटले पच्चरकुं बुं. ( से के० ) तद्यथा ते जेम के, ( गामे वा के० ) ग्रामे वा एटले जे गुणवंतना गुनो ग्रास करे बे, तेने ग्राम कहिये, ते गामने विषे, अथवा ( नगरे के० ) नकरे एटले ज्या कर नथी, एवा पुरनेविषे, अथवा ( रसे वा के० ) अरण्ये वा एविषे, एटला स्थानने विषे ( अप्पं वा के० ) अल्पं वा एटले जेनुं मूल्य अल्प होय, एवं दांत खोतरवानुं तृणादिक पण ( बहु वा के० ) बहु एटले जेनुं मूल्य घणुं बे, एवं सुवर्णादिक अथवा ( अणुं वा के० ) अणु एटले न्हानं हीरकादिक, अथवा (थूलं वा के०) स्थूलं वा एटले प्रमाणथी मोटुं एरंडकाष्ठादिक, अथवा ( चित्तमं वा के० ) चित्तवा, एटले सचित्त एवं शिष्यादिक, अथवा ( - चित्ततं वा के० ) चित्तवा एटले चित्त एवं सली प्रमुख, ( दिन्नं के० ) अदत्तं एटले अणदीधुं बतां ( नेव सयं गिरिहा के० ) नैव स्वयं गृह्णामि एटले ढुं पोते ग्रहण करुं नहिं, (अन्नहिं के ) अन्यैः एटले वीजा पासे ( अदिन्नं के० ) अदत्तं एटले पूर्वोक्त वस्तुमां कोइ वस्तु अणदीधी होय तो तेने (नेव गिरहा विद्या Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. (to ) नैव ग्राहयामि एटले ग्रहण करावं नहीं, तथा (दिनं गिरते व अन्ने के ० ) दत्तं गृह्णतोऽन्यानपि एटले श्रीधुं ग्रहण करता एवा वीजाने पण हुं ( न समणुजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन यापुं नहिं जावजीवाए इत्यादिको अर्थ पूर्ववत् जाणवो. वली उपर कहेलुं यदत्तादान चार प्रकारनुं वे. ते एवीरीतेः - एक द्रव्यतः, बीजुं देत्रतः, त्रीजुं कालतः छाने चोथुं जावतः तेमां द्र व्यतः अदत्तादान ते योकुं अथवा घणुं कोइ पण द्रव्य लेवुं ते, वीजुं क्षेत्रतः श्रद तादान ते ग्रामादिकने विषे लेवुं ते, त्रीजुं कालतः अदत्तादान ते रात्रि श्रादिकने समयें लेवुं ते. चोथु जावतः अदत्तादान ते रागद्वेषथी लेवुं ते, एवा अदत्तादानना चार प्रकार जाणवा. ॥ ३ ॥ ( दीपिका . ) उक्तं द्वितीयं व्रतम् । अथ तृतीयं व्रतमाह । अथ परस्मिंस्तृतीये दन्त महाव्रते यदत्तादानात् विरमणम् । सर्वं हेजदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि । इत्यादि पूर्ववत् । तद्यथा ग्रामे वा नगरे वा, अरण्ये वा उपलक्षणत्वात् देत्रे वा । प्रसिद्धानि एतानि । तथा अल्पं मूल्यत एरएककाष्ठादि द्रव्यम् । वहु वा मूल्यतो वजादि द्रव्यम्, अणु वा प्रमाणतो वज्रादि द्रव्यं, स्थूलं वा एरएककाष्ठादि द्रव्यं, एतच्च चित्तद्वा सचेतनं, अचित्तवद्वा अचेतनं नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि नैव अन्यैः दत्तं ग्राहयामि । नैव दत्तं गृह्णतोऽप्यन्यान् समनुजानामि । यावजीव मित्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ ३॥ ( टीका. ) उक्तं द्वितीयं महाव्रतम् । अधुना तृतीयमाह । अहावरे इत्यादि । अथापरस्मिंस्तृतीये दन्त महात्रते अदत्तादानाद्विरमणम् । सर्वं नदन्त अदत्तादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा इत्यनेन क्षेत्रपरिग्रहः । तत्र सति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः तस्मिन् । नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् । I यं काननादि । पं वा बहु वा । अणु वा । स्थूलं वा । चित्तवद्वा । अचित्तवद्वा इत्यनेन तु द्रव्यपरिग्रहः । तत्राल्पं मूल्यत एरएकाष्ठादि । बहु वज्रादि । अणु प्रमाणतो वज्रादि । स्थूलमेर एककाष्ठादि । एतच्च चित्तवद्वा चित्तवद्वेति चेतनाचेतनमित्यर्थः । ऐव सयम दिलं गेहित्ति | नैव स्वयमदत्तं गृह्णामि । नैवान्यैरदत्तं ग्राहयामि । अदत्तं गृहतोऽप्यन्यान् न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि च जावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । अदत्तादानं चतुर्विधम् । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो जावतश्च । द्रव्यdiserial | तो ग्रामादौ । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषाच्याम् । द्रव्यादिचतुङ्गी वियम् । दर्ज पामेगे अदिसादाणे गोजावर्ड । जाव णामेगे णो दबई । एगे Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १७३ दव वि जावळ वि । एगे णो दवर्ड णो जाव। तब अरत्तास्स साढुणो कहिं विश्रणणुमवेऊण तणाश् गेण्ह दवर्ड अदिमादाणं णो जावन। हरामीति अनुजयस्स तदसंपत्तीए जावर्ड नो दवठ। एवं चेव संपत्तीए नावउँ दव वि।चरिमनंगोपुण सुन्नो॥३॥ अदावरे चन्ने नंते महत्वए मेहुणा वेरमणं। सवं नंते मेहुणं पच्चरकामि।से दिवं वा माणुसं वा तिरिकजोणियं वा । नेव सर्य मेदुणं सेविला । नेवन्नेदिं मेदुणं सेवाविद्या । मेढुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविदं तिविहेणं मणेणं वायाए कायणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि। चनजे नंते महत्वए अवनि मि सबान मेहुणा वेरमणं ॥४॥ (अवचूरिः) तुर्यमाह । अथापरस्मिन् चतुर्थे जदन्त महाव्रते मैथुनाहिरमणं सर्व नदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । दैवं वा देवानामिदं दैवम् । अप्सरोऽमरसंबन्धि । मानुषं वा तैर्यग्योनिकं वा । देवं नवनवास्यादि। अनेन अव्यपरिग्रहः । मैथुनं अव्यादिचतुर्विधम्।तत्र अव्येषु रूपेषु रूपसहगतेषु। रूपेषु निर्जीवेषु प्रतिमारू. .. पेषु । रूपसहगतेषु सजीवपुरुषस्त्रीरूपेषु । नूषणविकलानि वा रूपाणि । नूषणसहि तानि रूपसहगतानि। देवतस्त्रिषुलोकेषु । कालतो रात्र्यादौ । नावतो रागद्वेषान्यां।ज. ..: व्यादिचतुर्नगिकेयम् । अरत्तछाए बला जुङमाणीए दवर्ड मेहुणे नो नावउँ । मे हुणसन्नापरिणयस्स तदसंपत्तीए नावमेहणे नो दव: । एवं चेव संपत्तीए नाव: वि दव वि । चरिमनंगो सुन्नो । नैव स्वयं मैथुनं सेवे । नैवान्यमैथुनं सेवयामि । सेवमानानन्यान् न समनुजानामि ॥४॥ (अर्थ. ) हवे चोथु मैथुन विरमणनामक महाव्रत कहे . (नंते के०) हे जदंत, गुरो ! (अह के) अथ एटले हवे पडी, (अवरे के०) अपरे एटले अनेरा (चज्छे के०) चतुर्थे एटले चोथा ( महत्वए के) महाव्रते एटले महाव्रतने विषे, ( मेहुणा केण) मैथुनात्, एटले अब्रह्मविषयसेवनथी, (वेरमणं के) विरमणं एटले विरमवं, निवर्तवं तीर्थकरादिकें कयु , माटे (नंते के ) जदंत, हे गुरो ! (सवं के० ) सर्वं एटले औदारिकादिक सर्व ( मेहुणं के) मैथुनं एटले मैथुनने . . . (पच्चरकामि के) प्रत्याचवे एटले पञ्चरकाण करुं बु. ( से के) तद्यथा ते श्राप माणे (दिवं वा के०) दैवं वा, एटले देवता संबंधि, अथवा (माणुसं वा के०) मां Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नुषं वा एटले मनुष्यसंबंधि, अथवा (तिरिकजोणियं वा के०) तैर्यग्यो निकं वा एटले तिर्यग्यो निसंबंधि (मेहुणं के)मैथुनं एटले मैथुनने ( नेव से विजा के) नैव सेवे, एटले पोते नहींज से, तथा ( अन्नेहिं के ) अन्यैः एटले वीजापासे ( मेहुणं के०) मैथुनं एटले पूर्वोक्त मैथुनप्रत्ये ( नेव सेवा विद्या के०) नैव सेवयामि एटले सेवन करावीश नहीं. तथा ( मेहुणं के) मैथुनं एटले मैथुनप्रत्ये ( सेवंते वि अन्ने के०) सेवमानानन्यान् एटले सेवन करनारा बीजाप्रत्ये पण (न समणुजाणामि के०) न समनुजानामि एटले अनुमोदन थापुं नहीं. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. तेमां एटबुं विशेष डे, जे मैथुन चार प्रकारर्नु ३. एक व्यथी मैथुन ते दिव्यादि संबंधि जाणवू. वीजें देवथी मैथुन त्रण लोक माहेला प्रदेश विषे जाणवू. त्रीगँ कालथी मैथुन ते रात्र्यादिकनेविषे जाणवू. चो) जावधी मैथुन ते रागद्वेषादिकें करी जाणवू. ए मैथुनविरमणरूप चोथु महाव्रत कह्यु.॥४॥ ( दीपिका.) उक्तं तृतीयं व्रतमधुना चतुर्थं व्रतमाह । अथ अपरस्मिन् चतुर्थे हे जदन्त महाव्रते मैथुनाछिरमणं, सर्वं हे लदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामि । तद्यथा। मैथुनं त्रेधा दैवं वा, मानुषं वा, तैर्यग्योनं वा । तत्र देवानामिदं देवं देवदेवीसंबन्धि १ एवं मानुषं २ तैर्यग्योनिकं च ३ ज्ञातव्यम् । न स्वयं मैथुनं सेवे। नच अन्यैः मैथुनं सेवयामि । नैव मैथुनं सेवमानान् अन्यान् समनुजानामि इति । यावजीवमित्यादि व्याख्यानं पूर्ववत् ॥ ४॥ (टीका.) उक्तं तृतीयं महाव्रतम् । श्दानी चतुर्थमाह । अहावरे इत्यादि । अथापरस्मिश्चतुर्थे महाव्रते मैथुनाहिरमणं सर्व नदन्त मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा दैवं वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा । अनेन व्यपरिग्रहः । देवीनामिदं दैवम् । अप्सरोऽमरसंबन्धी तिनावः। एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा अव्येषु नवति । तत्र रूपाणि निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते । रूपसहगतानि तु सजीवानि । नूषणविकलानि वा रूपाणि, नूषणसहितानि तु रूपसहगतानि । एवं मानुषं तैर्यग्योनं च वेदितव्यमिति । णेव सयं मेहुणं सेविद्या । नैव स्वयं मैथुनं सेवे । नैवान्यमैथुनं सेवयामि । मैथुनं सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । मैथुनं चतुर्विधम् । अव्यतः देवतः कालतों नावतश्च । अव्यतो दिव्यादौ । देवतस्त्रिषु लोकेषु । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषाच्याम् । दोसेणमिमीए वयं जुजेमि त्ति । दोसुनवं रागेण हो । अव्या Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके चतुर्थाध्ययनम्।... एy दिचतुर्लङ्गी त्वियम् । दवर्ड णामेगे मेहुणे णो लावर्ज। नाव णामेगे णो दवढ.। एगे दव विनावउँ वि।एगे जो दवर्ड णो नाव। तब अरत्तउठाए बियाए बला परिझुंजमाणीए दवा मेहुणं णो नावउँ । मेहुणसलापरिणयस्स तदसंपत्तीए नाव णो दवर्ड। एवं चेव संपत्तीए दवर्ड वि नाव वि । चरमजंगो पुण सुन्नो ॥४॥ . ..... अहावरे पंचमे नंते महवए परिग्गदा वेरमणं । सवं नंते परिग्गरं पच्चरकामि। से अप्पं वा बढुं वा अणुंवा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्त- .. मंतं वा नेव सयं परिगिएिहजा । नेवन्नेहिं परिग्गरं परिगिहाविजा। परिग्गरं परिगिएहंतेवि अन्ने न समणुजाणिजा। जावळीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पिअन्नं न । समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि। पंचमे नंते महत्वए उवहिनमि सबान परिग्गहान वेरमणं ॥५॥ - (अवचूरिः) श्दानी पञ्चममाह । अथापरस्मिन् पञ्चमे जदन्त महाबते परिण: हाद्विरमणं । सर्व नदंत परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । अस्पं वेत्यादि पूर्ववत् । चतुर्धा परिग्रहः अव्यक्षेत्रकालजावतः। अव्यादिचतुर्ननिकेयम् ॥ अरत्तस्स धम्मोवगरणं दव परिग्गहो नो नाव:। मुबियस्स तदसंपत्तीए नाव नो दवः । एवं चेव संपत्तीए दव वि नाव वि । चरिमनंगो सुन्नो। अव्यत आकाशादिसर्वअव्येषु । यदाह चूर्णिकारः ॥ गामघरंगणारं एएसुममकरणा । आगासपरिग्गहो हाण निसीयणतुयणएसु ममकारकरणा अहवा जीवदवपरिग्गहो पुत्तनजाश्सु ममकारो। अजीवदवपरिग्गहो हिरन्नसुवन्नाश्सु ममकारो। पुग्गलदवपरिग्ग हो सीउन्हव रिसकालेसु मुछियस्स कालदवपरिग्गहो । नैव वयं परिग्रहं परिंग.. एहामि । नैवान्यैः परिग्रहं ग्राहयामि । परिग्रहं गृण्हतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि ॥५॥ (अर्थ.) हवे पांचमुं परिग्रह विरमण नामक. महाव्रत कहे जे. अहावर त्ति । (नंते के) हे नदंत, गुरो ! (अह के ) अथ एटले हवे पडी, (अवरे के०) अपरे एटले पूर्वे कहेला चार व्रतथी अनेरा एवा (पंचमे के) पांचमा (महत्वए के०) महाव्रते एटले महाव्रतनेविषे ( परिग्गहा के०) परिग्रहात् एटले नव प्र. कारना परिग्रहथी (वेरमणं के०) विरमणं एटले विरम, निवर्तवं एम तीर्थकरादिके कडं बे, माटे (जंते के०) नदंत हे गुरो ! ( सवं के) सर्वं एटले सर्व प्रकारना (परिग्गहं के०) परिग्रहं एटले परिग्रहने (पच्चरकामि के०) प्रत्याचद एटले पञ्च Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकराय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कुं . ( से केस ) तद्यथा एटले ते आवीरीतें के, (अप्पं वा के) अल्पं वा एटसे जेनुं मूल्य अल्प डे, एवं एरंडकाष्ठादिक, तथा ( वहुं वा के०) जेनुं मूल्य घणुं , एवा रत्नादिक, अथवा ( अणुं वा के) आकारयी न्हाना एवा रत्नादिक, अने (शूलं वा के०) स्थूलं वा एटले प्रमाणथी मोटा हाथी प्रमुख (चित्तमंतं वा के०) चित्तवंतं वा एटले सचित्त एवा, अथवा (अचित्तमंतं वा के०) अचित्तवंतं वा एटले अचित्त एवा, ( परिग्गहं के ) परिग्रहं एटले परिग्रहने ( सयं के०) स्वयं एटले पोतें (णेव परिगिण्हेजा के० ) नैव परिगृहामि, स्वीकारूं नहि, तथा ( अनेहिं के०) बीजा पासें (परिग्गरं के) परिग्रहं एटले पूर्वोक्त परिग्रहने ( नेव परिगिहाविजा के ) नैव परिग्राहयामि एटले स्वीकार करावु नहि. तथा (परिग्गहं गिण्हते वि अन्ने के०) परिग्रहं गृएहतोप्यन्यान् एटले परिग्रहना ग्राहक एवा बीजाने पण ( न समणुजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना आपुं नहि. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. अहिं पण विशेष ए डे के, पूर्वोक्त परिग्रह चार प्रकारनो . एक व्यथीः परिग्रह ते सर्वप्रव्यविषे जाणवो, बीजो क्षेत्रथी परिग्रह ते त्रण लोकनेविषे जाणवो. त्रीजो कालथी परिग्रह ते राज्यादिकनेविषे जाणवो. चोथो नावथी परिग्रह ते रागद्वेषादिकथी जाणवो. केटलाक ग्रंथकार परिग्रहना चार प्रकार जूदीज रीतें कहे , ते आवीरीतेंः-एक तो केवल अव्यथी परिग्रह ते रागद्वेषरहित साधूनां उपकरण जाणवां. बीजो केवल जावथी परिग्रह एटले मूर्बित पुरुषने अव्यसंपत्ति न होवाथी जे केवल परिग्रहनो मानसिक नाव ते केवल जावथी परिग्रह जाणवो. त्रीजो संपन्न पुरुषनो जे अव्यथी तथा जावथी परिग्रह ते व्यन्नावोजयपरिग्रह जाणवो. चोथो, जे अव्यथी पण परिग्रह नथी, अने जावथी पण नथी, ते शून्यत्नांगो जाणवो. ए परिग्रह विरमणनामक पांचमुं महाव्रत कयु. ॥५॥ (दीपिका.) उक्तं चतुर्थं व्रतं सांप्रतं पञ्चमं महाव्रतमुच्यते । अथ अपर स्मिन् पञ्चमे हे नदन्त महाव्रते परिग्रहाहिरमणम् । सर्वं हे नदन्त परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि, नैव अन्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि परिग्रहं परिगृह्णतोऽपि अन्यान् न समनुजानामि । इत्येतत् यावजीवमित्यादि च व्याख्यानं पूर्ववत् ॥५॥ . (टीका.) उक्तं चतुर्थं महाव्रतं सांप्रतं पञ्चममाह । अहावरे इत्यादि । अथापरस्मिन् पञ्चमे नदन्त महाबते परिग्रहादिरमणम् । सर्वं जदन्त परिग्रहं प्रत्याख्यामी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। . १ए ति पूर्ववत् । तद्यथा । अल्पं वेत्याद्यवयवव्याख्यापि पूर्ववदेव । नैव स्वयं परिग्रहं परिगृह्णामि । नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि । परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । परिग्रहश्चतुर्विधः । तद्यथा, अव्यतः देवतः कालतो लावतश्च । अव्यतः सर्वव्येषु । देवतो लोके। कालतो रात्र्यादौ। चावतो रागद्वेषाच्याम्।अन्यरेषे परिग्रहोपपत्तेः। व्यादिचतुर्जङ्गी पुनरियम् । दवर्ड नामेगे परिग्गहे णो नाव: । नाव णामेगे णो दवर्ड। एगे दवर्ड वि जावर्ड वि । एगे णो दवर्ड णो जाव। तब अरत्तस्स धम्मोवगरणं दव परिग्रहो णो जावउँ । मुछियस्स तदसंपत्तीए नाव ण दवः। एवं चेव संपत्तीए दव वि नाव वि। चरमनंगो उण सुन्नो ॥५॥ अदावरे बनते वए राईनोयणान वेरमणं । सवं नंते राईनोयणं पञ्चकामि।से असणं वा पाणं वा खाश्मं वा सामं वा । नेव सयं राई मुंजेका । नेवन्नेहिं राई मुंजाविजा। राई मुंजते वि अन्ने न समणुजारोजा । जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्ने न समजाणामि । तस्स नंते पमिकमामि । निंदामि । गरिदामि । अप्पाणं वोसिरामि। बडे नंते वए उवनि मि । सवान राश्नोयणाने वेरमणं ॥६॥ (अवचूरिः) षष्ठं व्रतमाह । अथापरस्मिन् षष्ठे व्रते रात्रिनोजनाहिरमणम् । सर्व नदन्त रात्रिनोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । अशनं वा अश्यत इति अशनमोदनादि । पीयत इति पानं मृहीकापानादि । खाद्यत इति खादिम खर्जूरनालिकेरादि । खाद्यत इति खाद्यं ताम्बूलादि । रात्रिनोजनं चतुर्विधम् । अव्यतोऽशनादौ । देवतोर्धतृतीयद्वीपसमुत्रेषु । कालतो रात्र्यादौ । नावतो रागद्वेषाच्याम् । स्वरूपतोऽस्य चातुर्विध्यम् । रात्रौ गृह्णाति रात्रौ जुङ्क्ते । रात्रौ गृह्णाति दिवा जुते । दिवा गृह्णाति रात्रौ जुते । दिवा गृह्णाति दिवा जुते । सन्निधिपरिनोगे जव्यादि चतुर्नङ्गीयम् । अरत्ताकस्स अणुग्गए सुरिए जग्गत्ति अबमिए वा अणबमिए वा अणमिति कारणा वा रयणीए नुंजमाणस्स दव राश्नोअणं नो नाव: । राश्ए मुंजामित्ति तदसंपत्तीए नावउँ नो दवर्ड । एवं चेव संपत्तीए नाव वि दवर्ड वि। चउबो नंगो सुन्नो ॥६॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ राय धनपतसिंघबहारका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस (४३) - मा. (अर्थ) एवा पांच महाव्रत कहींने हवे बहुं रात्रिजोजन विरमणरूप व्रत कहे बे. हावरति । ( जंते के० ) हे जदंत, गुरो ! ( अह के० ) थ एटले हवे पी (वरे के० ) अपरे एटले पूर्वोक्त पांच महाव्रतोथी अनेरा एवा ( उ के० ) पष्टे एटले बा ( ए ० ) व्रते, एटले व्रतनेविषे ( राइनोपार्ड के० ) रात्रिभोजनात् एटले चार प्रकारमा रात्रिभोजनथी ( वेरमणं के० ) विरमणं एटले विरमनुं, निवर्त तीर्थकरादिकं बे, माटे ( सवं के० ) सर्व, एटले थोडा घणा ए सर्व ( राइatri o ) रात्रिभोजनं एटले रात्रिभोजन प्रत्यें ( पच्चरका मि के० ) प्रत्याचके एटले पच्चरकुं हुं . ( से के० ) तद्यथा एटले ते आवीरीतें के, ( असणं वा के० ) अशनं वा, अश्यत इति अशनं एटले जेनुं क्षण कराय बे, ते खोदन, पक्कान्न प्रमुख अथवा (पाणं वा के० ) पानं, पीयत इति पानं एटले जेनुं पान कराय बे, एवं डा दापानकादिक ते, अथवा ( खाइमं वा के० ) खाद्यं वा एटले जे खातां दंतनी घणी जरूर लागे ते खाद्य, अथवा ( साइमं वा के० ) स्वाद्यं वा, एटले तांबूल, एलची, लविंग प्रमुख मात्र जेनी रुचिज लेवानी, पण जे उदरभरणार्थ न हि एवा पदार्थ ते खाद्य, ए पूर्वोक्त चार प्रकारना पदार्थने हुं ( सयं के० ) स्वयं एटले पोते ( रा ho) रात्रौ एटले रात्रिने विषे ( नेव मुंजेद्या के० ) नैव मुंजे एटले जोजन करुन हि. तथा (अनेहिं के० ) अन्यैः एटले वीजा पासें ( राई के० ) रात्रौ एटले रात्रिने विषे ( नेव गुंजा विद्या के० ) नैव जोजमामि एटले जोजन करावं नहीं. तथा ( राई मुंज० ) रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान् एटले रात्रे जोजन करनारा एवा बीजाने पण ( न समजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना श्रापुं नहिं 'जाजीवा' इत्यादिको अर्थ पूर्ववत् जावो. वली एटलुं अहीं विशेष जाणवुं के, रात्रिजोजन चार प्रकारनं बे. एक द्रव्यथी रात्रिभोजन ते खोदनादिकनुं जाणवुं. aar रात्रिजोजन ते घडी द्वीपना प्रदेशने विषे जावं. त्रीजं कालथी रात्रिनो न ते रात्र्यादिकने विषे जाणवुं. चोथुं नावथी रात्रिभोजन ते कटु, अम्ल इत्यादि जावी अथवा रागद्वेषयी जाणवुं. वली रात्रिभोजनना स्वरूपथी पण चार प्रकार बे, एक रात्रें ग्रहण करेलुं रात्रेंज खावुं. बीजुं रात्रें ग्रहण करेलुं दिवसें खावुं. त्रीजुं दिवसें ग्रहण करेलुं रात्रें खावुं चोयुं दिवसें ग्रहण करेलुं दिवसेंज खा. एमा पहेला जांगावे ते साधुयें परिहार करवा लायक बे, अने चोथो नांगो बे ते विश्रुद्धिपूर्वक ग्राह्य बे. ए बहुं रात्रिभोजन विरमणनामक व्रत कयुं. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) उक्तं च पञ्चमं महाव्रतमधुना षष्ठं व्रतमाह । अथ अपरस्मिन् षष्ठे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । 2 যেে व्रते रात्रिनोजना द्विरमणं सर्व हे जदन्त ! रात्रिनोजनं प्रत्याख्यामि । तद्यथा । अश्यत इति नमोदनादि १ पीयते तत्पानं प्राकापानादि २ खाद्यत इति खाद्यं जम्बूकादि ३ स्वाद्यं ताम्बूलादि । नैव स्वयं रात्रौ मुझे नैव अन्यैरात्रौ नोजयामि । रात्रौ भुञ्जानानपि न्यान् न समनुजानामि । इत्येतत् यावजीवमित्यादि पूर्ववत् ॥ ६ ॥ 1 ( टीका. ) उक्तं पञ्चमं महाव्रतम् । अधुना षष्ठं व्रतमाह । अहावर इत्यादि । परस्मिन् षष्ठे व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणम् । सर्वं नदन्त रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा । अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा । अश्यत इत्यशनमोदनादि । पीयत इति पानं मृडीकापानादि । खाद्यं खर्जूरादि । स्वाद्यं ताम्बूलादि । व सयं मुंजेा । नैव स्वयं रात्रौ जुड़े । नैवान्यै रात्रौ जोजयामि । रात्रौ भुञ्जानानप्यन्यान्नैव समनुजानामि । इत्येतद्यावजीवमित्यादि च नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम् । रात्रिभोजनं चतुर्विधम् । तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो जावतश्च । द्रव्यतस्त्वशनादौ । देत्रतोऽर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु । कालतो रात्र्यादौ । जावतो रागद्वेषान्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यम् । तद्यथा । रात्रौ गृह्णाति रात्रौ जुड़े, रात्रौ गृह्णाति दिवा जुझे, दिवा गृह्णाति रात्रौ मुझे, दिवा गृह्णाति दिवा जुझें । संनिधिपरिजोगे द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम् । दवर्ड णामेगे राई मुंजइ यो जाव | जाव णामेगे णो दव । एगे दव व जाव वि । एगे णो दad | पो जावई । तब अणुग्गऐ सूरिए उग्गउत्ति अष्ठमिए वा अणमिति अरत्तहस्स कारण रयणीए वा गुंजाणस्स दव राईनो यो नाव । रयणीए गुंजा मित्ति " यस तदसंपत्ती जाव णो दव । एवं चेव संपत्तीए दad विं नाव वि । aaiगो जण सुन्न । एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरयोः रुजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितम् । मध्यमतीर्थ करतीर्थेषु पुनः जुप्रज्ञपुरुषापे दयोत्तरगुणवर्ग इति ॥ ६॥ चेया पंचमदवयाई राइनोय वेरमणबाई प्रत्तदियठया नवसंपत्ति णं विरामि ॥ ( श्रवचूरिः ) एतच्च रात्रिभोजन विरमणं प्रथमचरमार्हतोः रुजुज़रुवक्रजमपुरुषापेक्षमूलगुणत्वख्यापनार्थम् पञ्चमहात्रतोपरि पठितम् । मध्यमाईत्तीर्थेषु पुनः रुजु - प्रज्ञपुरुषापेदयोत्तरगुण इति । समस्तत्रतान्युपगमख्यापनायाह । इत्येतान्यनन्तरो दितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि । किमित्याह । आत्महितायात्महितो मोक्षस्तदर्थम् । अनेनान्यार्थम् तत्त्वतो बताजावमाह । तदजिलाषानुमि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. त्या हिंसादावनुमत्यादिनावात् । उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य त्रतानि विहरामि । सुसाधु विहारेण तदनावेऽङ्गीकृतानामपि व्रतानामजावात् । दोषाश्च हिंसादिकर्तॄणामल्पायुर्जिह्वाच्छेददारिद्र्यक्कीबत्वडुः खितत्वादयो वाच्या इति । उक्तश्चारित्रधर्मः ॥ ( अर्थ. ) ( इच्चेश्याएं के० ) इत्येतानि एटले ए प्राणातिपातविरमणादिक ( राइनोरमबाई के० ) रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि एटले रात्रिभोजन विरमण जेमां बहुं बे एवां साधुनां ( पंच महवयाई के० ) पंच महाव्रतानि एटले पांच महाव्रत ( अहियाए के० ) आत्महिताय एटले आत्महित जे मोक तेनी प्रतिवार्थे ( वसंपत्तिाणं के० ) उपसंपद्य एटले रूमीरीते अंगीकार करीने ( विहरामि के० ) विचरामि एटले संयमने विषे विचरुं हुं. ए चारित्रधर्म को. ॥ ( दीपिका. ) एतच्च रात्रिभोजनविरमणं प्रथमचरमतीर्थंकरतीर्थयोः रुजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थम् । पञ्चमहाव्रतोप रिप वितं मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः रुजुप्राज्ञपुरुषापेक्षया उत्तरगुण इति । समस्तव्रतानामङ्गीकारकरणकथनार्थमाह । इत्येतानि पूर्व कथितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनं विरमणषष्ठानि । किमित्याह । श्रात्महिताय श्रात्महितो मोदस्तदर्थमुसंपद्य सामीप्येन अङ्गीकृत्य - तानि विहारामि सुसाधु विहारेण ॥ (टीका.) समस्त तान्युपगमख्यापनायाह इच्चेयाइं इत्यादि । इत्येतान्यनन्तरो दितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजन विरमणषष्ठानि । किमित्याह । श्रात्महितायात्म हितो मोस्तदर्थम् । अनेनान्यार्थं तत्त्वतो ब्रतानावमाह । तदभिलाषानुमित्याहिंसादावनुमत्यादिनावात् । उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि विहरामि सुसाधु विहारेण । तदावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामजावात् । दोषाश्च हिंसादिकर्तृणामल्पायुर्जिह्वाछेददारिद्र्पएकत्वडुः खितत्वादयो वाच्या इति । सांप्रतं प्रागुपन्यस्तगाथा व्याख्यायते । सप्तचत्वारिंशदधिकनङ्गशतं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रत्याख्याने प्रत्याख्यान - विषयं यस्योपलब्धं जवति । स श्वंभूतः प्रत्याख्याने कुशलो निपुणः । शेषाः सर्वे अकुशलास्तद निज्ञा इति गाथासमासार्थः । श्रवयवार्थस्तु जङ्गकयोजनाप्रधानः । स चैवं द्रष्टव्यः । तिन्नि तिया तिन्नि डुया, तिन्निक्केका य होंति जोए ॥ तिडुएक्कं तिडएक, तिडुएक्कं चैव करणारं ॥ १ ॥ त्रयस्त्रिकाः ( ३३३ ) त्रयोद्विकाः ( 22 ) यश्चैकैका ( १११ ) जवन्ति । योगेषु कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणेषु त्रीणि इयमेकं त्रीणि इयमेकं त्रीणि इयमेकं चैवकरणानि मनोवाक्कायलक्षणानि इति पदघट Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०१ ना । जावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते । सा चेयम् । | कात्र भावना | 1 करा करेन कारवेम करतं पि अन्नं न समणुजाणामि । मणेणं वायाए कारणं एको ad | श्याणिं बि । करे | ए कारवेइ | करंतं पि श्रन्नं न समजाइ । मणेणं वायाए इक्को जंगो | तहा मणेणं कारणं बिइ जंगो | तहा वायाए कारण य त जंगो । बि मूल गई । इयाणिं तं । ण करे ण कारवेश | करंतं पिन्नं न समपुजा | मणेणं एको वायाए बिश्यो कारणं त । गर्छ त मूल । इयाणिं चउचो | ण करेइ । कारवेइ । मणेणं वायाए कारणं इक्को । न करेश करंतं णाणुजाए बिइ । ण कारवेश करंतं पापुजाइ त । गर्न चउडो मूलजे । इयाणिं पंचमो । करेइ ण कारवेश् मणेणं वायाए एक्को । ए करे करतं णाणुजाइ बिइ । वेश करंतं णाणुजाण तनुं । एए तिन्नि नंगा मणेणं वायाए लद्धा । श्रन्ने वितिन्नि मणेणं काय लग्नंति । तहावरे वि वायाए कारण य लग्नंति तिन्नि । एव मेव सवे एए नव । पंचमोऽप्युक्तो मूलनेदः । इदानीं षष्ठः । ए करेइ ए कारवेश्मऐणं इको । तहा ण करेइ करंतं णाणुजाण मणेणं बिइ । ण कारवेश करतं गाणुजाइ मनसैव तृतीयः । एवं वायाए कारण वि तिन्नि तिन्नि गंगा पंति । एए वि स एव । उक्तः षष्ठो मूलनेदः । सप्तमोऽनिधीयते । ण करे मणेणं वायाए कारणं एक्को । एवं ण कारवेश मणादीहिं बिश् | करंतं णाणुजाण त । सप्तमोऽप्युक्तो मूलनेदः । इदानीमष्टमः । ण करेइ मणेणं वायाए एक्को । मणेणं काएय बि । तहा वायाए कारण य त । एवं ण कारवेइ एवं पि तिन्निजंगा । एवमेव करंतं णाणुजाण एवं पि तिन्निजंगा । एए सवे एव । उक्तोऽष्टमः । इदानीं नवमः । ण करें मणेणं एक्को । ण कारवे‍ बि । करंतं गाणुजाणइ त । एवं वायाए विश्यं कायेण वि होइ तश्यमेवमेते सवे वि मिलिया एव । नवमोऽप्युक्तः । श्रागतगुणन मिदानीं क्रियते । लद्धफलमाण मेयं, नंगा उ हवंति - उणपन्नासं ॥ तीयाणागयसंपति, गुणियं काले होइ इमं ॥ १ ॥ सीयालं जंगसयं, कहकालतिएण होंति गुणणार्ड ॥ तीतस्स पडिक्कम, पञ्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥ २ ॥ पञ्चरकाणं च तहा, होश्य एयस्स एस गुणपाउं ॥ कालतिएणं नणियं, जिगणधरवायएहिं च ॥ ३ ॥ इति गाथार्थः ॥ सेनिकू वा निकुणी वा संजयविरयपडियपञ्चकायपावकम्मे दिया वारा वा एग वा परिसागन वा सुत्ने वा जागरमाणे वा । से पुढविं वा नित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससरखं वा कार्यं ससरकं वा वचं २६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. दबेण वा पाएण वा कोण वा किलिंचेण वा अंगुलियाएवा सिलागए . वा सिलागहबेण वा न आलिहिद्यान विलिदिद्या न घहिद्याननिदिजा अन्नं नआलिहाविज्जा न विलिहाविजा न घटाविजा न निंदाविजा। अन्नं आलितं वा विलितं वा घहतं वा निंदतं वा न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्ने न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥१॥ .. (श्रवचूरिः ) संप्रति यतनामाह । से इति निर्देशे। स योऽसौ महाव्रतयुक्तो नि. तुर्वा निलुकी वा। श्रारम्नत्यागाधर्मकायपालनाय निक्षणशीलः । पुरुषोत्तमो धमशति निनुविशेषणानि निकुक्या अपि अष्टव्यानि । संयतः संयमवान् सप्तदशप्रकारसंयमोपेतो विविधमनेकधा द्वादश विधे तपसि रतो निरतः। प्रतिहतं पूर्वबई स्थितिहासादिना प्रत्याख्यातमनागतं विरतिकरणेन पापकर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः। दिवा वा रात्रौ वा एकको वा परिषज्ञतो वा सुप्तो वा जाग्रहा। रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत् । एककः कारणिकः।शेषकालं परिषजतः । इदं वयमाणमनाचारं न कुर्यात्कथमपि । से शब्दस्तद्यथार्थः पूर्ववत् । पृथ्वी लोष्टादिरहिता।नित्तिनदीतटी। शिला विशालपाषाणः । लेष्टुम॒त्खण्मादि । सह रजसारण्यपांशुना वर्त्तत इति सरजस्कस्तं कायं वा वस्त्रं वा चोलपट्टादिकम्। एकग्रहणात्तजातीयग्रहणमिति पात्रपरिग्रहः। एतत्किमित्याह । हस्तेन वा।पादेन वा । काष्ठेन वा। किलिंचेन वा दुकाष्ठरूपेण । अंगुल्या च शलाकया वाऽयःशलाकादिरूपया । शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण वा नालिखेत् । ईषत्सकृछालेखनम् । न विलिखेत् । निरन्तरमनेकशो वा विलेखनम् न घट्टयेत्। घट्टनं चालनम् । न निन्द्यात् । नेदो विदारणम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथाऽन्यमन्येन वा नो लेखयेत् । न विलेखयेत । न नेदयेत् । तथान्यं खत एवालिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा नेदयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि ॥१॥ (अर्थ.) हवे तेनी जयणा कहे . से इत्यादि । ( से के० ) सः एटले ते पूर्वोक्त पंच महावतनो धारक एवो (जिस्कू वा के०) निर्वा, एटले आरंजनो त्याग करीने धर्मकायर्नु रक्षण करवा माटे जे निरवद्य निदा मागे ते साधु, श्रथवा Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्।... २०३ (जिस्कुणी वा के) जिकुकी वा एटले निहु जेवीज साध्वी. ते साधु तथा साध्वी केवा तो के, (संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे के) संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, संयत एटले सत्तर प्रकारना संयमेकरी युक्त तथा वि एटले विविध प्रकारना जे व्रत तेने विषे रत एटले आसक्त तेने विरत कहिये वली प्रतिहत एटले स्थितिहासथी हण्यां डे, तथा प्रत्याख्यात एटले हेतुना अन्नावथी फरी वृद्धि पामे नहीं एवी रीतें पच्चख्यां ले पापकर्म ते अतीत, अनागत एवा ज्ञानावरणीयादिक जेणें तेने प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा कहिये. ए संयतादि त्रण विशेषणे करी युक्त साधु तथा साध्वी (ते दिया वा के) दिवा वा एटले दिवसनेविषे, अथवा ( रा वा के०) रात्री वा एटले रात्रिनेविषे, (एग वा के०) एकको वा एटले एकलो थको अथवा (परिसागउँ वा के०) परिषज्ञतो वा एटले सनामां बेगे थको, अर्थात् को कारणथी एकलो, अने बाकी रहेला समयनेविषे सन्नामा रह्यो थको ( सुत्ते वा के०) सुप्तो वा एटले सूतो बतो, अथवा (जागरमाणे वा के०) जाग्रछा एटते जागतो बतो, अर्थात दिवसें जागतो अने रात्रे सूतो आगल केहवाशे ते न करे. हवे ते साधु तथा साध्वी शुं न करे, ते कहे . तेमां प्रथम पृथ्वीकाय समारंजनो निषेध कहे . ( से के०) ते साधु अथवा साध्वी (पुढविं वा के०) पृथ्वी वा एटले खाणथी उपजती माटी तेने, अथवा (नितिं वा के ) नदीतटनी माटीने, अथवा ( सेलं वा के) शिलां वा एटले मोटा पाषाणने, अथवा (लेढुं वा के०) लोष्टं वा एटले न्हाना पाषाणने अथवा ( ससरकं वा कायं के०) सरजस्कं वा कायं, एटले सचित्तमाटीनी उडती श्रावेली रजेंकरी मलिन एवा शरीरने, अथवा ( ससररकं वा वढं के०) सरजस्कं वा वस्त्रं, एटले सचित्तधूलथी मलिन थयेला चोलपट्टकादि वस्त्रने, “ एकना ग्रहणथी तजातीयनुं ग्रहण थाय बे, " माटे वस्त्र शब्देकरी पात्रनुं पण ग्रहण करवू. तेथी धूलथी मलिन थयेला पात्रने पण (हबेण वा के०) हस्तेन वा एटले हाथें करी, अथवा ( पाएण वा के) पादेन वा एटले पगेंकरी, तथा ( कोण वा के ) काष्ठेन वा एटले काष्ठेकरी, किंवा ( किलिंचेण वा के०) किलिंचेन वा एटले काष्ठना खंभेकरी, किंवा खीलाये करी, अथवा ( अंगुलियाए वा के० ) अंगुलिकया वा एटले अंगुलियेकरी, अथवा ( सिलागाए वा के० ) शलाकया वा एटले लोहनी शलाकाएकरी, श्रथवा (सिलागहण के०) शलाकाहस्तेन वा एटले शलाकाना स. मुदायेकरी, (नातिहिद्या. के०) नालिखेत् एटले थोडं पण लखवू नहीं, अर्थात् पूर्वोक्त सचित्त पृथ्वीजपर कोश् पण. वस्तुथी थोj पण लखवू नहीं. अथवा ( नवि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. लिहिला के) न विलिखेत् एटले पूर्वोक्त पृथ्वीउपर जाउँ लखवू नहीं, तथा (नघट्टिा के०) न घट्टयेत् एटले एक स्थानकथी वीजे स्थानके नाखवू नहीं, तथा (न निंदिया के ) न नेदयेत् एटले सचित्त पृथ्वीने नेद, विदारण करवू नहीं, तथा (अन्नं के०) अन्यं एटले बीजा पासे (नालिहा विद्या के०) न थालेखयेत् एटले सचित्त पृथ्वीने थोकुं पण लखावू नहीं, तथा वीजापासे सचित्त पृथ्वीने (न वि. बिहाविद्या के०) घणुं लखावू नहीं, अथवा वीजापासे सचित्त पृथ्वीने (न घट्टाविद्या के ) न घट्टयेत् एटले चलाव, नहीं, अथवा सचित्त पृथ्वीने वीजापासे (न जिंदा विद्या के०) न नेदयेत् एटले नेद, विदारण करावq नहीं; तया ( अन्नं श्रालिहंतं वा के०) अन्यमालिखंतं वा एटले थोडी लिटी काढता वीजाप्रते, अ. थवा (विलिहंतं वा के) घणी लिटी काढतां प्रत्ये, अथवा ( घटुंतं वा के०) सं. घटन करनार प्रते, अथवा (निंदंतं वा के) नेद, विदारण करनार प्रत्ये (न सः मणुजाणिजा के०) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदन आपवू नहीं. ए जावजीव इत्यादिनों अर्थ पूर्ववत् जाणवो पृथ्वीकायना आरंजनो निषेध कह्यो.॥१॥ .. ( दीपिका.) उक्तश्चारित्रधर्मः । स च यतनया स्यात् । श्रतो यतनार्थमाह । से इति निर्देशे । स योऽसौ महाव्रतयुक्तो निकुर्वा निळुकी वा श्रारम्नत्यागात् । धर्मकायपालनाय जिक्षणशीलो निकुरेव निकुक्यपि। पुरुषोत्तमो धर्म इति निर्विशेष्यते। तहिशेषणानि निकुक्या अपि ज्ञेयानि । निकुविशेषणान्याह । संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा । तत्र सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमसहितः । पुनर्विविधमनेकप्रकारतया द्वादश विधे तपसि रतो विरतः । पुनः प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतिहतं स्थितेहासात् ग्रन्थिन्नेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वनावतः पुनरजावेन पापं पापकर्म ज्ञानावरणीयादि येन सः । ततः कर्मधारयः। स तथाविधो दिवा वा, रात्रौ वा, एकको वा, परिषजतो वा । सुप्तो वा, जाग्रहा। रात्रौ सुप्तो, दिवा जाग्रत्। कारणिक एकः शेषकालं परिषजत इदं वदयमाणं न कुर्यात् । किं तदित्याह । पृथिवी लोष्टादिरहिता। नितिर्नदीतटी। शिला विशालः पाषाणः । लेष्टुः प्रसिद्धः । सह रंजसा आरण्यपांशुलदणेन वर्तते यः स सरजस्कः । कः।कायो देहस्तम् । सरजस्कं वा वस्त्रं चोलपट्टकादि । एकग्रहणेन तजातीयग्रहणमिति न्यायात् पात्रादिपरिग्रहः । एतानि किमित्याह । हस्तेन वा, पादेन वा, काष्ठेन वा, किलिञ्चन वा, कुजरूपेण वा, अगुल्या वा, शलाकया वा, लोहशलाकारूपया, शलाकाहस्तेन शर लाकासमूहरूपेण वा । किं न कुर्यादित्याह । नः श्रालिखेत् । श्रा ईषत् सकृछालेखनं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २.०८. न स्वयं कुर्यात् । न विलिखेत् । नापि स्वयं नितरामनेकशो वा लेखनं कुर्यात् । न घट्टयेत् न स्वयं घट्टनं चालनं कुर्यात् । न निन्द्यात् न स्वयं नेदं विदारणं कुर्यात् । तथा अन्यमन्येन वा न आलेखयेत्, न विलेखयेत्, न घट्टयेत्, न जेदयेत्, तथा अन्य तव तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा निन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ १ ॥ ( टीका. ) उक्तश्चारित्रधर्मः । सांप्रतं यतनाया अवसरः । तथा चाह । से निरखू वा इत्यादि । से इति निर्देशे । स योऽसौ महात्रतयुक्तो निक्षुर्वा निकुकी वा बारम्नत्यागाद्धर्म कायपालनाय निक्षणशीलो निकुः । एवं निकुक्यपि । पुरुषोत्तमो धर्म इति निर्विशेष्यते । तद्विशेषणानि च निकुक्या श्रपि द्रष्टव्यानीत्याह । संयतविरतप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा । तत्र सामस्त्येन यतः संयतः । सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः । विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः । प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मेति । प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृव्यजावेन पापं कर्म ज्ञानावरणीयादि येन स तथाविधः । दिवा वा रात्रौ वा एको वा परिषतो वा सुतो वा जाग्रद्वा । रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत् । कारणिक एकः । शेषकालं परिषतः । इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । से पुढविं वा इत्यादि । तद्यथा पृथिवीं वा नित्तिं वा शिलां वा लोष्टं वा । तत्र पृथिवी लोष्टादिरहिता । नित्तिर्नदीतटी । शिला विशालः पाषाणः । लोष्टः प्रसिद्धः । तथा सह रजसा अरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कं वा कायम् । कायमिति देहम् । तथा सरजस्कंवा वस्त्रम् । वस्त्रं चोलपट्टादि । एकग्रहणे तातीयग्रहणमिति पात्रादिपरिग्रहः । एतत् किमित्याह । हस्तेन वा पादेन काष्ठेन वा किलिञ्श्वेन वा मुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शलाकया वा श्रयः शलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वा शलाकासंघातरूपेण । पालि हिजत्ति । नालिखेत् न घट्ट - येत् न जिन्यात् । तत्र ईषत्सकृद्वालेखनम् । नितरामनेकशो वा विलेखनम् । घट्टनं चाल - नम् | दो विदारणम् । एतत् स्वयं न कुर्यात् । तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्टयेत् न नेदयेत् । तथान्यं स्वत एव प्रा लिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा जिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादिपूर्ववत् ॥ १ ॥ से निकु वा निकूली वा संजयविरयपडियपञ्चकायपावकम्मे दिव्या वारा वागवा परिसागन वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से दगं वा सं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतगं वा सुधोदगं वा बदन : Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका.जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा.. . खं वा कायं जदनवं वा ववं ससिणि इंवा कायं ससिणि वा ववंन आमुसिका।नसंफुसिजानाविलिका।नपविलिङा।न अरकोमिजा।न परकोमिजा।नआयाविका। न पयाविका।अन्नंनआमुसाविजा। नसंफुसाविजानिआवीलाविजाान पवीलाविका।न अकोमाविका।न परकोमाविजान आयाविजा। न पयाविजा।अन्नं आमुसंतं वा संफुसंतं वा आवीलंतं वा पविलंतं वा अकोमंतं वा परकोमंतं वा आयावंतं वा पयावंतं वा न समणुजणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि।न कारवेमि। करंतंपि अन्ने न समणुजाणामि। तस्सनंते पडिकमामि । निंदामि। गरिदामि। अप्पाणं वोसिरामि॥२॥ . (श्रवचूरिः) उदकं शिरापानीयम्। अवश्यायः स्नेहः। हिमं स्त्यानोदकम् । मिहिका धूमरी । करकः कविनोदकरूपः।हरितनुर्जुवमुनिय तृणाग्रादिषु नवति। शुद्धोदकमन्तरीदोदकम् ।तथा उदकार्ड वा कायम्। उदकार्ड वा वस्त्रम् आर्जता चेह गलदिन्छुता अनन्तरोदितोदकनेदसंमिश्रता । सस्निग्धं वा कायादि । अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति । सस्निग्धता चेह बिन्फुरहितानन्तरोदितोदकसंमिश्रता । एतत्किमित्याह नामृषेत्। न संस्पृशेत् । सकृदीषछा स्पर्शनमामर्षणमतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । नापीमयेत् न प्रपीड येत् । सकृदोषछापीमनं ततोऽन्यत्प्रपीडनम् । नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् । सकृदीषहास्फोटनमतोऽन्यत् प्रस्फोटनम् । नातापयेत् प्रतापयेत् । सकृदीषछातापनं विपरीतं प्रतापनम्। एतत्स्वयं न कुर्यात् । अन्यमन्येन वा नामर्षयेत् इत्यादि शेयम् ॥२॥ (अर्थ.) हवे अप्कायना आरंजनो निषेध कहे . से निरकू वा इति (अहीं 'से निरक' एथी मांडीने 'जागरमाणे' अही सूधी सूत्रनो अर्थ प्रथम कह्यो बे, ते प्रमाणेज जाणवो.) (से के०) तद्यथा, एटले ते अप्कायना आरंजनो निषेध कहे बे ते आवीरीते. (उदगं वा के०) उदकं वा एटले शिरापानीय ते जमीनमांथी नीकलतुं एवं वापी, कूप, तलाव, नदी इत्यादिकनुं पाणी जाणवू, ते प्रते, अथवा (श्रोसं वा के) अवश्यायं वा एटले पाबली रात्रे गर पके ते पाणीप्रते, अथवा (हिमं वा के०) हिमं वा, एटले जेने बर्फ कहिये, ते पाणीप्रते, अथवा (मदियं वा के) मिहिकां वा एटले धूअरी पडे ते पाणीप्रतें, अथवा (करगं वा के) करकां वा एटले वर्सादमां करा पडे , ते रूप. पाणीप्रत्ये, अथवा (हरतणुगं Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । वा के०) हरतनुं वा एटले तृण, डान प्रमुखने अये जलना बिंदु पडे , तेप्रत्ये, अथवा (सुकोदगं वा के) शुद्धोदकं वा एटले श्राकाशमांथी जे वर्सादनुं पाणी पडे डे, तेने शुशोदक कहिये ते प्रत्ये, अथवा (उदउवं वा कायं के०) उदकार्ड वा कायं एटले पाणीथी पलडेला शरीरप्रत्ये, अथवा (उदजनं वा वढं के०) उदका वा वस्त्रं, एटले उदकमां पललेला वस्त्र प्रत्ये, अथवा (ससिणि वा कायं के०) सस्निग्धंवा कायं एटले जेथी बिंदु गलता नथी एवी सस्निग्ध काया प्रत्ये, अथवा ( ससिणिवं वा वढं के ) सस्निग्धं वा वस्त्रं एटले जेथी बिछ गलता नथी, एवा सस्निग्ध वस्त्र प्रत्ये, ( नामुसिया के ) नामृषेत् एटले थोडं अथवा वारंवार फरसे नहीं, (न संफुसिजा के०) न संस्पृशेत् एटले थोडं अथवा एकवार फरसे नहीं. (न श्रावी विद्या के ) नापीडयेत्, एटले थोडं अथवा एकवार पीडे नहीं, (न पवी विद्या के०) न प्रपीडयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार पीडे नहीं. (न अस्कोमिद्या के०) नास्फोटयेत् एटले थोडं अथवा एक वार वस्त्रादिक काटके नहीं. (न परको मिया के)न प्रस्फोटयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार वस्त्रादिक काटके नहीं. (न आयाविद्या के०) न आतापयेत् एटले थोडं अथवा एकवार तपावे नहीं. (न पयाविद्या के ) न प्रतापयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार तपावे नहीं. तथा ( अन्नं न मुसाविद्या के०) अन्यं न आमर्षयेत् एटले बीजापासे थोडो अथवा एकवार स्पर्श करावे नहीं. (न संफुसाविद्या के०) न संस्पर्शयेत् एटले घणो अथवा वारंवार स्पर्श करावे नहीं. (न आवीलाविद्या के) न आपीडयेत् एटले थोडुं अथवा एकवार पीडावे नहीं. (न पवीलाविद्या के) न प्रपीडयेत् एटले घj अथवा वारंवार पीडावे नहीं. (न अस्कोडा विद्या के०) न आस्फोटयेत् एटले थोड़े अथवा एकवार वीजापासे फटकावे नहीं. (न परकोडाविद्या के) न प्रस्फोटयेत् एटले घणुं अथवा वारंवार बीजापासे फटकावे नहीं. ( न आया विद्या के०) न आतापयेत् एटले थोडं श्रथवा एकवार वीजापासे तपावे नहीं. ( न पया विद्या के०) न प्रतापयेत् एटले घणु अथवा वारंवार बीजापासे तपावे नहीं. तथा (अन्नं आमुसंतं वा के) अन्यमामृशंतं एटले थोड़ें अथवा एकवार स्पर्श करनार अनेरा प्रते, अथवा (संफुसंतं वा के०) संस्पृशंतं वा एटले घणुं अथवा वारंवार स्पर्श करनार अनेरा प्रते, अथवा (थावीलंतं वा के०) आपीडयंतं वा एटले थोडं अथवा एकवार पीडन करनारा वीजा प्रते, अथवा ( पवीलंतं वा के०) प्रपीडयंतं वा एटले घणुं अथवा वारंवार पीडन करता अनेरा प्रते, अथवा (अकोडंतं वा के) श्रास्फोटयंतं वा एटले थोडं अथवा एकवार फटकावता अनेरा प्रत्ये, अथवा ( पकोडंतं वा के ) प्रस्फोटयंतं वा एटले Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. घणुं अथवा वारंवार ऊटकावता अनेरा प्रते, अथवा (थायावंतं वा के०) श्रातापयंतं वा एटले थोड़े अथवा एकवार तपावता अनेरा प्रते, अथवा ( पयावंतं वा .. के.) प्रतापयंतं वा एटले घणु अथवा वारंवार तपावता अनेरा प्रते, (न समणु-... जाणेद्या के) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदना श्रापे नहीं. 'जावजीवाए' एथी. मांडीने 'अप्पाणं वोसिरामि' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥५॥ (दीपिका.) तथा पुनः पूर्ववत् स किं न कुर्यादित्याह । स निकुः उदकं वा शिरापानीयम्, अवश्यायं वा स्नेहम्, हिमं वा स्त्यानोदकं, मिहिकांवा धूमरिकां, करकां वा कठिनोदकरूपां, हरतनुकंवा नुवमुङ्गिद्य तृणाग्रादिस्थितं, शुद्धोदकमाकाशोदकम् । उदकाई वा कायमुदकार्ड वा वस्त्रम् । उदकाता च गल दिन्छुरूपा ग्राह्या । स-. स्निग्धं वा कायं सह स्निग्धेन स्नेहनेन वर्तते यः स सस्निधः स चासौ कायश्च तमेवंविधं कायमेवं सस्निग्धंवा वस्त्रम् । सस्निग्धता चेह बिन्पुरहिता ज्ञेया। एतत्किमित्याह । नामुसिद्या, सकृत् ईषछा स्पर्शनमामर्षणम् न स्वयं कुर्यात् । न संफुसिजा, ततोऽन्यत् संस्पर्शनं न कुर्यात् । एवं नावीलिजा, सकृत् षछापीडनम् । न पवीति. जा ततोऽन्यत्प्रपीडनम् । न अरकोमिजा। सकृत् ईषहास्फोटनम्।न परकोडिद्या । ततोऽन्यत् प्रस्फोटनम् । न आया विद्या। एवं नावीलिजा । सकृत् ईषहातापनम् । न पया विद्या । प्रकर्षेण तापनं प्रतापनम् । एतानि सर्वाणि खयं न कुर्यात् । तथा अन्यमन्येन वा नामर्षयेत् । न संस्पर्शयेत् । न आपीडयेत्। न प्रपीडयेत् । न आस्फोटयेत् । न प्रस्फोटयेत् । न आतापयेत् । न प्रतापयेत् । तथा अन्यं स्वत एव आमृषन्तं वा । संस्पृशन्तं वा । पीडयन्तं वा । अपीडयन्तं वा अस्फोटयन्तं वा । प्रस्फोटयन्तं वा । आतापयन्तं वा । प्रतापयन्तं वा । न समनुजानीयात् । इत्यादि पूर्ववत् ॥२॥ .. (टीका.) तथा से जिस्कू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से उदगं वेत्यादि । तद्यथा। उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा मिहिकां वा करकां वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा। तत्रोदकं शिरापानीयम्। अवश्यायःस्नेहः। हिमं स्त्यानोदकम् । मिहिका धूमिका। करकः कठिनोदकरूपः । हरतनुः जुवमुनिय तृणादिषु नवति । शुद्धोदकमन्तरिदोदकम् । तथा उदकार्ड वा कायम् उदकाई वा वस्त्रम् । उदकाईता चेह गलहिन्दुतुषारा अनन्तरोदकन्नेदसंमिश्रता। तथा सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रम् । अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति नावे निष्ठाप्रत्ययः । सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः। सस्निग्धं वा। सस्निग्धता चेह बिन्दुर हितानन्तरोदितोदकनेदसंमिश्रता। एतत् किमित्याह । णामुसेजत्ति । नामृषेन्न संस्पृशेत् । नापीडयेन्न प्रपीडयेत् । ईष Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा — दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २० न्नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् । नातापयेत् न प्रतापयेत् । तत्र सकृदीषटा स्पर्शनमामर्षणम् । अतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । एवं सकृदीषछापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम् । एवं सकृदीषछा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् । एवं सकृदीषछातापनं विपरीतं प्रतापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमन्येन वा नामर्षयेन्न संस्पर्शयेत् । नापीडयेत् । न प्रपीडयेत् । नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत्।नातापयेत् न प्रतापयेत् । तथान्यं स्वत एव . आमृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥२॥ से निकू वा निकुणी वा संजयविरयपमिदयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा राग वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अचिं वा जालं वा अलायं वा सुझागणिं वा जकं वा न जंजेज्जा न घटेजा न निंदेडा न जळालेजा न पळालेजा न निवावेजा अन्नं न जावेजा न घडावेज्जा न निंदावेजा न जळालावेजा न पज्जालावेज़ा न निवावेजा अन्नं जंजंतं वा घहतं वानिंदतं वा जज्जालंतं वा पज्जालंतं वा निवावंतं वा न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ३॥ (श्रवचूरिः) अयस्पिएमानुगतोऽग्निः । ज्वालारहितोऽङ्गारः । विरलाग्निकणं नस्म मुर्मुरः। मूलानिविछिन्ना ज्वाला अर्चिः । प्रतिवझा ज्वाला । अलातमुमुकम् । निरिन्धनः शुद्धानिः । उटका गगनाग्निः । न उजेजा नोसिञ्चेत् । न घट्टयेत् । नोज्ज्वालयेत् । न निर्वापयेत् । तत्र जंजनं उत्सेचनमिन्धनादिना । घट्टनं सजातीयादिना चालनम् । उज्ज्वालनं व्यजनादिनिर्वृष्युत्पादनम् । निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यादित्यादि ॥३॥ (अर्थ.) हवे, अग्निकायनी दया पालवी ते कहे . से इत्यादि. 'से निस्कृ वा' अहिथी मांडीने 'जागरमाणे वा' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे अग्निकायना आरंजनो निषेध कहे . से इत्यादि. ( से के०) तद्यथा ते अनिकायना यारंजनो निषेध आवी रीतें-(अगणिं वा के० ) अग्निं वा एटले तपावेला लोहमानो २७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10G राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. अथवा वारंवार ऊटकावता अनेरा प्रते, अथवा ( श्रयावतं वा के० ) खातायंतं वा एटले थोडुं अथवा एकवार तपावता अनेरा प्रते, अथवा ( पयावंतं वा 50 ) प्रतापर्यंतं वा एटले घणुं अथवा वारंवार तपावता अनेरा प्रते, ( न समणुआद्या के० ) न समनुजानीयात् एटले अनुमोदना श्रापे नहीं. 'जावजीवाए' एयी 'सिरामि' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) तथा पुनः पूर्ववत् स किं न कुर्यादित्याह । स निक्कुः उदकं वा शिपानीयम्, अवश्यायं वा स्नेहम्, हिमं वा स्त्यानोदकं, मिहिकां वा धूमरिकां, करकां वा विनोदकरूपां हरतनुकंवा जुवमुद्विद्य तृणाग्रा दिस्थितं, शुद्धोदकमाकाशोदकम् । कार्ड वा कायमुदकार्ड वा वस्त्रम् । उदकार्डता च गलहिन्डुरूपा ग्राह्या । सस्नग्धं वा कार्य सह स्निग्धेन स्नेहनेन वर्त्तते यः ससस्निधः स चासौ कायश्च तमेविधं कायमेवं सस्निग्धंवा वस्त्रम् । सस्निग्धता चेह बिन्दुरहिता ज्ञेया । एतत्किमियाह । नामुसिद्या, सकृत् ईषा स्पर्शनमामर्पणम् न स्वयं कुर्यात् । न संफुसिता, तनोऽन्यत् संस्पर्शनं न कुर्यात् । एवं नावीलिजा, सकृत् ईषद्वापीडनम् । न पवी लिका ततोऽन्यत्प्रपीडनम् । न अरको मिजा । सकृत् ईषद्वास्फोटनम् । न परकोडिद्या । तनोऽन्यत् प्रस्फोटनम् । न आया विद्या । एवं नावलिका । सकृत् ईषद्वातापनम् । न पविद्या | प्रकर्षेण तापनं प्रतापनम् । एतानि सर्वाणि स्वयं न कुर्यात् । तथा अन्यमयेन वा नामर्षयेत् । न संस्पर्शयेत् । न पीडयेत् । न प्रपीडयेत् । न आस्फोटयेत् । न प्रस्फोटयेत् । न प्रतापयेत् । न प्रतापयेत् । तथा अन्यं स्वत एव श्रामृषन्तं वा । संस्पृशन्तं वा । त्र्यापीडयन्तं वा । प्रपीडयन्तं वा अस्फोटयन्तं वा । प्रस्फोटयन्तं वा । आतापयन्तं वा । प्रतापयन्तं वा । न समनुजानीयात् । इत्यादि पूर्ववत् ॥ २ ॥ . ( टीका. ) तथा से निस्कू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से उदगं चेत्यादि । तद्यथा । उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा मिहिकां वा करकां वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा । तत्रोदकं शिरापानीयम् । अवश्यायः स्नेहः । हिमं स्त्यानोदकम् । मिहिका धूमिका । करकः कठिनोदकरूपः । हरतनुः जुवमुद्भिद्य तृणादिषु भवति । शुद्धोदकमन्तरिकोदकम् । तथा उदकार्ड वा कायम् उदकार्यं वा वस्त्रम् । उदकार्डता चेह गल हिन्दुतुषारा अनन्तरोदकभेदसंमिश्रता । तथा सस्निग्धं वा कार्य सस्निग्धं वा वस्त्रम् । अत्र स्नेहनं स्निग्धमिति नावे निष्ठाप्रत्ययः । सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्निग्धः । स स्निग्धं वा । सस्निग्धता चेह बिन्दुर हितानन्तरो दितोदकभेदसं मिश्रता । एतत् किमित्याह । णामुसेऊत्ति । नामृषेन्न संस्पृशेत् । नापीडयेन्न प्रपीडयेत् । ईष Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०ए स्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् । नातापयेत् न प्रतापयेत् । तत्र सकृदीषछा स्पर्शनमापणम् । अतोऽन्यत्संस्पर्शनम् । एवं सकृदीषद्यापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम् । एवं सदीषछा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् । एवं सकृदोषहातापनं विपरीतं तापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमन्येन वा नामर्षयेन्न संस्पर्शयेत् । नापीडयेत् । प्रपीडयेत् । नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत्। नातापयेत् न प्रतापयेत् । तथान्यं स्वत एव जामृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा श्रास्फोटयन्तं वा प्रस्फोयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥५॥ से निकू वा निकुणी वा संजयविरयपमिदयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणि वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा जालं वा अलायं वा सुझागणिं वा जकं वा न जंजेज्जा न घटेजा न निंदेजा न जळालेजा न पळालेज्जा न निवावेज्जा अन्नं न जंजावेज्जा न घडावेज्जा न निंदावेजा न उजालावेज्जा न पज्जालावेज्जा न निवावेजा अन्नं तं वा घहतं वाजिदंतं वा जजालंतं वा पजालंतं वा निवावंतं वा न समणुजाणामि। जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पमिकमामि निंदामि गरिदामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ३॥ (श्रवचूरिः) अयस्पिएमानुगतोऽग्निः । ज्वालारहितोऽङ्गारः । विरलाग्निकणं जस्म तुर्मुरः। मूलाग्निविछिन्ना ज्वाला अर्चिः।प्रतिबद्धा ज्वाला । अलातमुदमुकम् । निरिधनः शुकाग्निः । उदका गगनाग्निः । न जंजेजा नोसिञ्चेत् । न घयेत् । नोज्वालयेत् । न निर्वापयेत् । तत्र जंजनं उत्सेचन मिन्धनादिना । घट्टनं सजातीयादेना चालनम् । उज्ज्वालनं व्यजनादिनिवृष्युत्पादनम् । निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्वयं न कुर्यादित्यादि ॥३॥ (अर्थ. ) हवे, अग्निकायनी दया पालवी ते कहे . से इत्यादि. 'से जिस्कू वा' अहिथी मांडीने 'जागरमाणे वा' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. हवे अग्निकापना आरंजनो निषेध कहे . से इत्यादि. ( से के०) तद्यथा ते अनिकायना आरंजनो निषेध आवी रीते-( अगणिं वा के) अग्निं वा एटले तपावेला लोहमानो . Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. न ते प्रत्ये, अथवा ( इंगालं वा के० ) अंगारं वा एटले ज्वालारहित नि जेने अंगारो कहे ते प्रत्ये, अथवा ( मुम्मुरं वा के० ) मुर्मुरं वा एटले बकरी प्रमुख लडिनोनि जेमां जस्म घणुं थाय बे, अने अग्निना जूदा जूदा कण थोमा stra ते प्रत्ये, अथवा (अचिं वा के० ) अर्चिर्वा एटले मूलानिथी बूटेलो दिवा प्रमुखनो ज्योतिरूप अनि ते प्रत्ये, अथवा ( जालं वा के० ) ज्वालां वा एटले वलता शुष्कतृणादिकनी मूल अनिने वलगी रहेली ज्वाला नीकले बे ते प्रत्ये, अथवा (लायं वा के० ) अलातं वा एटले उंबाडीयानो सांठगनो मेरश्या प्रभुखनो नि ते प्रत्ये, अथवा ( सुद्धागणिं वा के० ) शुद्धाग्निं वा एटले काष्ठरहित शुद्ध प्रत्ये, अथवा ( उक्कं वा के० ) उक्कां वा एटले आकाश संबंधी जे उक्कापात तथा वीजली प्रमुखनो नि ते प्रत्ये, ( सयं के० ) पोते ( न उंजेका के० ) नोत्सिंचेत् एटले इंधणादिक घाले नहीं. ( न घट्टेद्या के० ) न घट्टयेत् एटले संघट्टन करे नहीं, अर्थात् दायें करी संकोरे नहीं. ( न जिंदेशा के० ) न निद्यात् एटले धूल प्रमुख नाखीने नेद पमाडे नहीं. ( न उजालेका के० ) नोज्ज्वालयेत् एटले वीजादिकें करी थोडो पवन नाखीने वधारे नहीं. ( न पालिका के ० ) न प्रज्वालयेत् एटले विशेषे पवन नाखीने प्रज्वलित करे नहीं, अने ( न निवेद्या ho ) न निर्वापयेत् एटले उदक प्रमुख नाखीने ओलवे नहीं. तथा ( अन्नं के० ) अन्यं एटले अनेरा पासे ( न जाविद्या के० ) न उत्सेचयेत् एटले इंधणादिक घलावे नहीं. ( न घट्टा विद्या के० ) नं घट्टयेत् एटले घट्टन करावे नहीं, अर्थात् हा करी संकोरावे नहीं. ( न जिंदाविका के० ) न भेदयेत् एटले धूलि प्रमुख नखावीने नेद करावे नहीं. ( न उजालाविता के० ) न उज्ज्वालयेत् एटले अनेरा पासे थोडो पवन नखावी वृद्धिवंत करावे नहीं. ( न पालाविता के० ) न प्रज्वालयेत् एटले घो पवन नखावीने प्रज्ज्वलित करावे नहीं. ( न निद्याविद्या के० ) न निर्वापयेत् एटले उदकादि नखावीने घोलावे नहीं. तथा (अन्नं के० ) अन्यं एटले अनेरो माणस ( जंतं वा के० ) उत्सिंचतं वा एटले पोतेज इंधणादिक नाखतो होय तो ते प्रत्ये, था (घतं वा ho) घट्टयंतं वा एटले हस्तादिकें करी संकोरतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( जिंदतं वा के० ) धूलि प्रमुख नाखीने नेद करतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( उज्ञानंतं वा के० ) उज्ज्वालयंतं वा एटले थोडो पवन नाखीने वधारतो होयतो प्रत्यें, अथवा ( पद्यालतं वा के० ) प्रज्वालयन्तं वा एटले घणो पवन नाखी प्रज्वलित करतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( निवावतं वा के० ) निर्वापयन्तं वा - ले उदकादिकें करी खोलवतो होय तो ते प्रत्ये ( न समणुजाणामि के० ) न स Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिके चतुर्थाध्ययनम्। ११ मनुजानामि एटले अनुमोदना आपुं नहीं. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. इति ॥३॥ (दीपिका.) श्ह अग्निं लोहपिएमानुगतं वा ज्वालारहितमगारं विरलाग्निकणरूपं मुर्मुरं मूलाग्निविछिन्नां ज्वालामर्चिमूलामिप्रतिवहां ज्वालामलातमुटमुकमिन्धनरहितं शुखाग्निं गगनाग्निरूपामुटकाम् । एतत्किमित्याह । निकुरेतन्न कुर्यात् । किं तदाह । नो जंजेद्या न उत्सिचेत् जंजनमुत्सेचनं नो कुर्यात् । नो घट्टिजा । घट्टनं सजातीयादीना चालनम् । न उजालिजा । उज्ज्वालनं व्यजनादिनिध्यापादनम् । न निवाविजा । निर्वापणं विध्यापनम् । एतानि न स्वयं निकुः कुर्यात् तथा अन्यं अन्येन वा न उत्सेचयेत् , न घट्टयेत्, न उज्ज्वालयेत् , न निर्वापयेत् , तथा अन्यं खत एव जसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा, उज्ज्वालयन्तं वा, निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥३॥ ____(टीका.) से निरकू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से अगणिं वेत्यादि। तद्यथा अग्निं वा अङ्गारं वा मुर्मुरमर्चिा ज्वालां वा अलातं वा शुद्धानं वा उ कां वा।श्ह अय स्पिएमानुगतोऽग्निः। ज्वालारहितोऽङ्गारः। विरलाग्निकणं नस्म मुर्मुरः। मूलाग्निविछिन्ना ज्वाला अर्चिः। प्रतिवझा ज्वाला।अलातमुल्मुकम्। निरिन्धनः शुद्धोऽग्निरुटका गगनाग्निः। एतत् किमित्याह।न जंजेजा। नोत्सिचेत्। न घटेद्या न घट्टयेत् । न उज्ज्वालयेत् । न निर्वापयेत् । तत्रोंजनमुत्सेचनं घट्टनं सजातीयादिना चालनं उज्ज्वालनं व्यजनादिनिवृष्ट्यापादनं निर्वापणं विध्यापनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमन्येन वानोत्सेचयेन्न घट्टयेन्नोज्ज्वालयेन्न निर्वापयेत्तथान्यं खत एव जसिञ्चन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥३॥ से निकू वा निकुणी वा संजयविरयपडिदयपच्चकायपावकम्मे दिया वा रा वा एग वा परिसाग वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विदुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तनंगेण वा सादाए वा सादानंगेण वा पिटुणेण वा पिणहबेण वा चेलेण वा चेलकन्नेण वा दबेण वा मुदेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गलं. न फुमेधा न वीएद्या अन्नं न फुमावेद्या न वीआवेडा अन्नं फुमंतं वीअंतं वा न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वायाए Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. कारणं न करेमि नकारवेमि करंतं पिव्यन्नं न समजाणामि । तस्स जंते पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ४ ॥ ( अवचूरिः ) सितं चामरम् । विधुवनं व्यजनम् । तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहण चिप्रं द्विपुटम् । पत्रं पद्मिनीपत्रादि । शाखा वृक्षशाखा । शाखानङ्गस्तदेकदेशः । पेहुणं मयूरादिपिठम् | पेणहस्तस्तत्समूहः । चेलं वस्त्रम् । चेलकर्णस्तदेकदेशः । हस्तमुखे प्रती । एनिः किमित्याह । बाह्यं वा पुलमुष्णोदकादि न फूत्कुर्यात् मुखेन । व्यजेत् चामरादिना । तथान्यमन्येन वा न फूत्कारयेत् । न व्याजयेत् । तथान्यं फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं न समनुजानीयात् ॥ ४ ॥ , () हवे, वायुकायंनी दया पालवी ते कहे बे से इत्यादि ' से रिकू ' अ हीथी मांगीने 'जागरमाणे वा' ए सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो हवे, वायुकाय्ना रंजन निषेध कहे बे. से इत्यादि ( से के० ) तद्यथा एटले ते वायुकायनो निषेध कहे बे, ते एवी रीते - ( सिएण वा के० ) सितेन वा एटले श्वेत चामरें करी, अथवा ( विदु o ) विधुवनेन वा एटले वालकादिकना वींजणें करी, अथवा ( तालियंटे वा के० ) तालवृंतेन वा एटले वांसना किंवा तालपत्रादिकने वीज करी, अथवा ( पत्ते वा के० ) पत्रेण वा एटले कमल आदिकना पत्रे करी, अथवा ( पतगेण वा के० ) पत्रनंगेन वा एटले केलिप्रमुखना पानडाना समुदायें करी, rar (साहार वा के० ) शाखया वा एटले वृदनी डालेंकरी, अथवा (साहाजंगेवा के० ) शाखागेन एटले वृदनी डालना समुदाये करी, अथवा ( पिहुणे वा ho ) पिदुणेन वा एटले मोर प्रमुखना पिछे करी, श्रथवा ( पिदुणहछेण वा के० ) पिदुणहस्तेन वा एंटले मोर पिउनी पूंजणीयें करी अथवा ( चेलेण वा के० ) चैलेन वा एटले वस्त्रेकरी, अथवा ( चेलकन्ने वा के० ) चैलकर्णेन वा एटले वस्त्राने बेहडे करी, अथवा (वेण वा के० ) हस्तेन वा एटले हाथे करी, अथवा ( मुहे वा के० ) मुखेन वा एटले मुखे करी, ( अपणो वा कार्य के० ) श्रात्मनो वा कार्य एटले पोताना शरीरने अथवा ( बाहिरं वा वि पुग्गलं के० ) बाह्यं वापि पुलं एटले बाहिरनां जे उन्दुं पाणी तथा दूध प्रमुख पुल ते प्रत्ये ( न फुमिका के० ) न फूत्कुर्यात् एटले मुखें करी फुंके नहीं. ( न वीजा के० ) न वीजयेत् एटले वीजे नहीं, तथा ( अन्नं के० ) अन्यं एटले बीजापासे ( न फुमा वि - (जा के० ) न फूत्कारयेत् एटले फूत्कार करावे नहीं. ( न वीयाविका के ० . ) न वीज Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २१३ येत् एटले वींजावे नहीं. तथा ( अन्नं के० ) अन्यं एटले बीजो माणस पोते (फुमंतं वा के० ) फूत्कुर्वतं वा एटले फूंकतो होय तो ते प्रत्ये, अथवा ( वीयंतं वा के० ) वीजयन्तं वा एटले वींजतो होय तो ते प्रत्ये, ( न समजाणामि के० ) न समनुजानामि एटले अनुमोदना श्रपुं नहीं. 'जावजीवाए' इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ ४ ॥ ( दीपिका. ) से रिकू इत्या दिव्याख्या पूर्ववत् । पुनः सितेन वा चामरेण, विधुवनेन वा व्यजनेन, तालवृन्तेन वा तेनैव मध्यग्रहण छिद्रेण द्विपुटेन, पत्रेण वा पद्मिनीपत्रादिना, पत्रजङ्गेन तस्यैकदेशेन शाखया वा वृदडालया, शाखानङ्गेन वा शाखादेशेन, पिदुणेण वा मयूरादि पिछेन, पिहुहछेण वा मयूरादि पिछसमूहेन, चैलेन वा वस्त्रेण, चैलकर्णेन वा वस्त्रैकदेशेन, हस्तेन वा करेण, मुखेन वा वदनेन । एभिः कृत्वा किमित्याह । आत्मनो वा कार्य स्वदेह मित्यर्थः । बाह्यं वा पुलमुष्णोदकादि । एतत्कि - मित्याह । न फुमिका न स्वयं फूत्कुर्यात् मुखेन धमनं न कुर्यात् । न वीइजा न वी - जयेत् चामरादिना । तथा अन्यमन्येन वा न फूत्कारयेत् । न वीजयेत् । तथा अन्यं स्वत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादिति पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ( टीका. ) से रिकू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । से सीएए वेत्यादि । यथा सितेन वा विधुवनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखानङ्गेन वा पेहुणेन वा पेदुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा । इह सितं चामरम् । विधुवनं व्यजनम् । तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहण छिद्रम् | पत्र पद्मिनीपत्रादि । शाखा वृडालम् । शाखानङ्गस्तदेकदेशः । पेहुणं मयूरादिपिठम् । पेहुणहस्तस्तत्समूहः । चेलं वस्त्रम् । चेलकर्णस्तदेकदेशः । हस्तमुखे प्रतीते । ए निः - किमित्याह । श्रात्मनो वा कार्य स्वदेहमित्यर्थः । बाह्यं वा पुजलमुष्णोदनादि । एतत् किमित्याह । न फुमेद्या इत्यादि । न फूत्कुर्यात् न व्यजेत् । तत्र फूत्करणं मुखेन धमनम् । व्यजनं चमरादिना वायुकरणम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथान्यमन्येन वा न फूत्कारयेन्न व्याजयेत्तथान्यं स्वत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ॥ ४ ॥ सेनिकू वा कुणी वा संजय विश्यपदियपच्चकायपावकम्मे दिच्या वाग वा परिसागर्नु वा सुत्ने वा जागरमाणे वा । से बीएस वा बीयपसु वा रूढेसु वा रूढपश्ठेसु वा जाएसु वा जायपश्सु वा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ राय धनपतसिंघबदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा. हरिएसु वा हरियपइठेसु वा बिन्नेसु वा बिन्नपइडेसु वा सचित्तेसुवा सचित्तकोलप मिनिस्सिएस वा न गच्छेद्या न चिठेद्या न निसीइद्या न तु जान्नं न गचावेद्यान चिठावेद्यान निसीयावेद्या न तुत्र्यहाविका । अन्नं गतं वा चितं वा निसीयंतं वा तुयहृतं वा न समेपुजाणामि । तस्स नंते पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वो सिरामि ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) वीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा । रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा इत्यादि । बीजं शाख्यादि । तत्प्रतिष्ठितं चाशनशयनादि गृह्यते । एवं सर्वत्र वेदितव्यम् । रूढानि स्फुटितबीजानि जातानि स्तम्वीभूतानि । तत्प्रतिष्ठितेषु वा । हरितेषु दूर्वा दिषु तत्प्रतिष्ठितेषु वा । विन्नेषु कुठारादिना वृक्षात्तेषु पृथक्स्थापितेषु । तत्प्रतिष्ठितेषु शयनादिषु । आर्केषु अपरिणतेषु सच्चित्तेष्वंककादिषु । कोलो चुस्तप्रतिनिःसृतानि तडुपरिवर्त्तीनि दार्वादीनि गृह्यन्ते । एतेषु किमित्याह । न स्वयं गछेत् । न तिष्ठेत् न निषीदेत् । न त्वग्वर्त्तयेत् । तत्र गमनमन्यतोऽन्यत्र | स्थानमेकत्रैव । निषीदनमुपवेशनम् | त्वग्वर्त्तनं सुप्तम् । एतत्स्वयं न कुर्यात् । तथान्यमेतेषु न गमयेत् । न निषीदयेत् न त्वग्वर्त्तयेत् ॥ ५ ॥ (अर्थ) हवे, वनस्पतिकायनी दया पालवाविषे कहे बे. से इत्यादि. अही थी "जागरमाणे वा" सूधीनो अर्थ पूर्ववत् जावो. दवे, वनस्पतिकायना आरंजनो निषेध hea. से बीएस इत्यादि. ( से के० ) तद्यथा एटले ते वनस्पतिकायनो निषेध एवीते कड़े बे, ते जेम :- बीजेसु वा पटले शाल्यादिवीजने विषे, अथवा ( बीयपश्सु वा. के०) बीजप्रतिष्ठेषु वा एटले ते शानिप्रमुख उपर नाखेला जण शयन प्रमुखने विषे, अथवा ( रूढेसु वा के० ) रूढेषु वा एटले केवल बीज फोडीने अंकुरित थयेला शाव्यादिकने विषे अथवा ( रूढपश्सु वा के० ) रूढप्रतिष्ठेषु वा एटले ते सचित्त धान्यांकुर उपर मूकेला नक्षण शयन प्रमुखने विषे, अथवा (जासु वा के० ) जातेषु वाटले जे उगीने पत्रादिकें करी युक्त थयां, एवां धान्यना खेतरने विषे, अथवा ( जायपसु वा के० ) जातप्रतिष्ठेषु वा एटले पूर्वोक्तरीतना खेतरउपर लक्षण शयन प्रमुखने विषे, अथवा (हरिएसु वा के० ) हरितेषु वा एटले दूर्वादिकने वि, अथवा (हरियपसु वा के० ) हरितप्रतिष्ठेषु वा एटले दूर्वादिकउपर नक्षण १ अत्र “ समनुजाणेज्जा" इति पाठान्तरं कचित् दृश्यते । परं बहुतरपुस्तकेषु " समणुजाणामि " इति पाठदर्शनात् एवात्रादृतः । एवमेव " पढमे भंते महव्वए " इत्यस्मादारभ्य प्रस्तुतालापकं यावत् दशवालापकेष्वपि ज्ञेयम् । विशेषस्तु टीकायां द्रष्टव्यः । -- Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। प्रमुखने विषे, अथवा ( जिन्नेसु वा के.) बिन्नेषु वा एटले कुठारादिकेकरी बेदेला वृदनी डालीने विषे, अथवा ( जिन्नपश्छेसु वा के०) जिन्नप्रतिष्ठेषु वा एटले कुगरादिके देला वृदनी डाल उपर मूकेला आसनादिकने विषे, अथवा (सचित्तेसु वा के०) सचित्तेषु वा एटले इंडाआदिकने विषे अथवा (सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा के०) सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा एटले सचित्त घुणादिके करी युक्त एवा आसनादिकनेविषे (न गबिजा के०) न गछेत् एटले गमन करे नहीं. (न चिहि जा के) न तिष्ठेत् एटले ते उपर जनो रहे नहीं. (न निसीइजा के) न नि. षीदेत् एटले बेसे नहीं. (न तुअहिजा के०) न त्वग्वर्तयेत् एटले सुवे नहीं. तथा (अन्नं के०) अन्यं एटले वीजाने ( न गाविजा के०) न गमयेत् एटले चलावे नहीं. (न चिहाविजा के०) न स्थापयेत् ,एटले बीजाने त्यां उन्नो रखावे नहीं. (न निसीयाविजा के) न निषादयेत् एटले बीजाने बेसाडावे नहीं. (न तुअट्टाविजा के) न त्वग्वर्तयेत् एटले सुवाडे नहीं. तथा पूर्वोक्त बीजादिकने विष (अन्नं गळतं वा के ) अन्यं गतं वा एटले बीजो पोतेज गमन करतो होय ते प्रत्ये, अथवा (चितं वा के) तिष्ठंतं वा एटले उन्नो रहेतो होय ते प्रत्ये, अथवा ( निसीयंतं वा के) निषीदंतं वा एटले बेसतो होय ते प्रत्ये, अथवा (तुअदृतं वा के०) त्वग्वतयन्तं वा एटले सूतो होय तो ते प्रत्ये (न समणुजाणामि के ) न समनुजानामि एटले अनुमोदन आपुं नहीं जावजीवाए इत्यादिकनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो इति ॥५॥ (दीपिका.) तथा पूर्ववत् बीजेषु वा शाख्यादिषु बीजप्रतिष्ठितेषु वा आसनशयनादिषु रूढेषु स्फुटितवीजेषु अङ्करितेषु, रूढप्रतिष्ठितेषु आसनशयनादिषु, जातेषु वा स्तम्बीनूतेषु, जातप्रतिष्ठितेषु वा आसनशयनादिषु, हरितेषु वा दूर्वादिषु, हरितप्रतिष्ठितेषु वा आसनशयनादिषु, बिन्नेषु वा परशुप्रमुखप्रहरण छिन्नवृदात् पृथक स्थापितेषु, आर्येषु अपरिणतेषु, निन्नप्रतिष्ठितेषु वा बिनप्रतिष्ठितासनशयनेषु, सचित्तेषु वा अएमकादिषु, सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु । सच्चित्तकोलो घुणस्तत्प्रतिनिधितेषु तपरिवर्तिषु दादिषु । तेषु किमित्याह । न गछेत्, न तिष्ठेत्, न निषीदेत्, न त्वग्वर्तयेत् । एतत्सर्वं न कुर्यात्। तथान्यमेतेषु न गमयेत्, न स्थापयेत्, न निषीदयेत्, न वापयेत् । तथा अन्यं स्वत एव गवन्तं वा, तिष्ठन्तं वा, निषीदन्तं वा, खपन्तं वा न समनुजानीया दित्यादि पूर्ववत् ॥ ६॥ (टीका.) से जिस्कू वा इत्यादि जाव जगरमाणेवत्ति पूर्ववदेव । सेवीएसुवेत्यादि। .. तद्यथा बीजेषु वा वीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रति Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. ष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा दिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तको प्रति निश्चितेषु वा । इह बीजं शाल्यादि । तत्प्रतिष्ठितमाहारश्यनादि गृह्यते । एवं सर्वत्र वेदितव्यम्। रूढानि स्फुटितवीजानि । जातानि स्तम्बीभूतानि । हरितानि दूर्वादीनि । विन्नानि परश्वादिनिर्वृक्षात् पृथक्स्थापितान्यार्द्राणि परिणतानि तदङ्गानि - ह्यन्ते । स चित्तान्य एकादी नि । कोलो घुणस्तत्प्रति निश्रितानि तडुपरिवर्तनि दार्वादीनि गृह्यते । एतेषु किमित्याह । न गच्छेया न गच्छेत् । न तिष्ठेत् । न निषीदेत् । न त्वग्वर्तेत । तत्र गमनमन्यतोऽन्यत्र | स्थानमेकत्रैव । निषीदनमुपवेशनम् | त्वग्वर्तनं खपनम् । एतत्स्वयं न कुर्यात्तथान्यमेतेषु न गमयेत् । न स्थापयेत् । न निषीदयेत् । न खापयेत् । तथान्यं स्वत एव गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा निषीदन्तं वा स्वपन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥ ५ ॥ 1 से रिकू वा निकुणी वा संजयविश्यपडिद्यपञ्च काय पावकम्मे दिया वारा वा एग वा परिसागन वा सुत्ते वा जागरमाणे वा । से कीढं वा पयंगं वा कुंथुं वा पिपीलियं वा दचंसि वा पायंसि वा वाहुंसि वा करुंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वचंसि वा परिग्गदसि वा कंबलंसि वा पाय पुंसि वारयदरांसि वा गोवगंसि वा जंमगंसि वा दंमगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेयंसि वा संथारगंसि व अन्नयरंसि वा तदप्पगारे नवगरणजाए त संजयामेवा परिलेढि परिलेढिय पम पमजि एगंतमवणेजा। नो गं संघायमावज्जेज्जा ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) से तद्यथा कीटं वा पतङ्गं वा कुन्थुं वा पिपीलिकां वा किमित्याह । छंसि वा हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरौ वा उदरे वा शीर्षे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुच्छे वा उंदके वा पीठके वा फलके वा शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन्वा तथाविधे तथाप्रकारे साधु क्रियोपयोगिन्युपकरणजाते कीटादिरूपं सं कथंचिदापतितं सन्तं संयत एव सन् प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य पौनःपुन्येन एकान्ते श्रपनयेत् । नैनं त्रसं संघातं परस्परगात्रसंस्पर्शपीडारूपमापादयेत् । अनेन प रितापना निषेधः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणादन्य कारणानुमतिप्रतिषेधः । उदकं स्थलम् । शय्या सर्वाङ्गिकी वसतिर्वा ॥ ६ ॥ 1 ( अर्थ. ) हवें, त्रसकायनी दया पालवाविषे कहे बे. से इत्यादि । सेनिकू ही थी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २१.७. 1 मांगीने जागरमाणे यहीं सुधीनो अर्थ पूर्ववत् जावो. दवे, त्रसकायजीवोना श्रारंजनो निषेध कहे बे. ( से के० ) तद्यथा एटले ते आवीरीते - ( कीडं वा के० ) कीटं वा एटले कीटक जे बेंद्रियादिक ते प्रत्यें, अथवा ( पयंगं वा के० ) पतंगं वा एटले तंगियो ते चतुरिंडिय जीव ते प्रत्यें, अथवा ( कुंथुं वा के० ) कुंथुं वा एटले कुंथुनामक तेरिंद्रिय जीव थाय बे, ते प्रत्यें, अथवा ( पिपीलियं वा के० ) पिपीलिकां :एटले योजनगंधी ते कीडी प्रमुख जीव थाय बे ते प्रत्ये ( दांसि वा के० ) हस्ते वा एटले हाथने विषे, अथवा ( पायंसि वा के० ) पादे वा एटले पगने विषे, अथवा (बाहुंसि वा के० ) वाहौ वा एटले बाहुने विषे, श्रथवा ( ऊरुंसि वा के० ) करौ वा एटले सायलने विषे ( उदरंसि वा के० ) उदरे वा एंटले उदरने विषे, थवा ( सीसंसि वा के० ) शीर्षे वा एटले मस्तकने विषे, अथवा ( वसि वा के० ) वस्त्रे वा एटले वस्त्रने विषे, अथवा ( प मिग्गहंसि वा के० ) प्रतिग्रहे वा ए :: D " : पात्र विषे, अथवा ( कंबलंसि वा के० ) कंबले वा एटले कांबली ने विषे, - वा ( पायपुस वा के० ) पादप्रोञ्नकेवा एटले दंगासाने विषे, अथवा (रग्रहरणंसि वा के० ) रजोहरणे वा एटले रजोहरणने विषे, अथवा ( गोठगंसि वा के० ) गोवा एटले पात्राना गुच्छाने विषे, अथवा ( जंगंसि वा के० ) नंदके वा एटले स्थं मिलने विषे, अथवा ( दंमगंसि वा के० ) के वा एटले दांगाने विषे, अथवा ( पीढगंसि वा के० ) पीठके वा एटले बाजोवने विषे, अथवा ( फलगंसि वा के० ) फलके वाटले पाटियाने विषे, अथवा ( सेद्यंसि वा के० ) शय्यायां वा एटले जेनुं लंवाइनुं प्रमाण एक पुरुषमात्र बे, एवी शय्याने विषे, अथवा ( संथारगंसि वा के० ) संस्तार के वा एटले जेनुं लंबाइनुं प्रमाण अढी हाथ बे एवा संथाराने विषे, अथवा (अन्नयरंसि वा के० ) अन्यतरस्मिन्वा वा एटले बीजा पण (तहप्पयारे के० ) - तथाप्रकारे एटले पूर्वे कला प्रकारना ( उवगरणजाए के० ) उपकरणजाते एटले साधुना जे उपकरण तेना समूहने विषे, पूर्वोक्त त्रस जीव होय तो ते प्रत्ये (तर्ज के० ) ततः एटले ते स्थानकथी ( संजयामेव के० ) संयतमेव एटले मोटा प्रयत्नेक मिले हिा पनिले हि के० ) प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य एटले वारंवार पकिलेहीने तथा ( पमपम के ० ) प्रमृज्य प्रमृज्य एटले सारी रीते वारंवार प्रमाजने प्रमा... जने (एंगतमवणेद्या के० ) एकांतमपनयेत् एटले ज्यां ते जीवने कोइपण जातनो उपद्रव थाय नहीं ते ठेका मूके, पण (नो णं संघायमावा के०) नैनं संघात - मापादयेत् एटले ए त्रस जीवने एकता करीने पीडा पमाडे नहीं. इति ॥ ६ ॥ २८ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ११० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. (दीपिका) कीटं वा द्वीन्द्रियं पतङ्गं वा कुन्युं वा त्रीन्द्रियं पिपीलिकां वा । किमित्याह । हस्ते वा पादे वा, बाहौ वा, ऊरुणि वा, उदरे वा, शिरसि वा, वस्त्रे वा, पात्रे वा, कम्बलके वा, पादप्रोञ्जनके वा, रजोहरणे वा, गोछे वा, जंदके मात्रके स्थमिले वा, दमके वा, पीठके वा, फलके वा, शय्यायां वा, संस्तारके वा, अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधु क्रियाया उपयोगिनि उपकरणजाते तेषु स्थानेषु कीटादिरूपं त्रसं कथंचित् पतितं सन्तं संयत एव सत्प्रयत्नेन वा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य प्रमृज्य पौनःपुन्येन । सम्यक् किमित्याह । एकान्ते यत्र स्थाने तस्य कीटादेः उपघातो न भवति तत्र अपनयेत् परित्यजेत् । परं नैनं संघातमापादयेत् नैनं सं संघातं परस्परगात्रसंस्पर्शपी डारूपमापादयेत् प्रापयेत् । अनेन कथनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो ज्ञातव्यः । एकस्य करणस्य ग्रहणेन अन्य कारणानुमत्योरपि प्रतिषेधः ॥ ६॥ ( टीका . ) से जिस्कू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववत् । से कीमं वा इत्यादि । तद्यथा कीटं वा पतङ्कं वा कुन्थुं वा पिपीलिकां वा । किमित्याह । हस्ते वा पादे वा बाहौ वा ऊरुणि वा उदरे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुठे वा उन्दके वा द वापीठे वा फलके वा शय्यायां वा संस्तार के वा अन्यतरस्ति वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथं चिदापतितं संयत एव सत्प्रयनवा प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य पौनः पुन्येन सम्यक् प्रमृज्य प्रमृज्य पौनःपुन्येनैव । सम्यकिमित्याह । एकान्ते त्रसानुपघातकस्थाने अपनयेत्परित्यजेत् । नैनं त्रसं संघातमापादयेन्नैनं त्रसं संघातं परस्परगात्रसंस्पर्शपी डारूपमापादयेत् प्रापयेत् । अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्यः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणादन्य कारणानुमतिप्रतिषेधश्च । शेषमत्र प्रकटार्थमेव नवरमुन्दकं स्थलिलं शय्या संस्तारिकी वसतिर्वा । इत्युक्ता यतना । गतश्चतुर्थोऽधिकारः ॥ ६ ॥ जयं चरमाणो, पाणनूयाई हिंसइ ॥ बंधई पावयं कम्मं तं से हो कफलं ॥ १ ॥ " ( अवचूरिः) उक्ता यतना । संप्रत्युपदेशमाह। ईर्यामुल्लङ्घय चरन् । तुरेवार्थे । अयतमेव । प्राणिनो ही न्द्रियादयः । जूतान्ये केन्द्रियास्तानि हिनस्ति । हिंसन् बध्नाति पापं कर्म । तत्से तस्य जवति कटुकफलं विपाकदारुणमनुखारोऽलाक्षणिकः ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) एवी रीतें षट्राय जीवनी दया पालवानी कही. पण ते दया ईर्यासमिति शोधतां होय बे, माटे हवे साधुए जयणाएं चालवु, एम कहे बे. अजयं ति Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिके चतुर्थाध्ययनम् । ....... शए (अजयं के ) अयतं एटले समिति विना अर्थात् अजयणाए (चरमाणो थ के) चरंश्च एटले चालतो थको (पाणनूया के) प्राणिजूतानि, प्राणि ते बेरिंजियादिक तथा नूत ते एकेंजियादिक जीव ते प्रत्ये ( हिंसर के०) हिनस्ति एटले हणे . तेने हणवाथी ( पावयं कम्मं के) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादिक पाप कर्मने (बंधई के०) बध्नाति एटले बांधे . ( से के०) तस्य एटले ते श्रजयणाए चालता साधुने (तं के०) तत् एटले ते पापकर्म (कमुश्रफलं के०) कटुकफलं एटले कडवा फलने आपनार एवं (होश के०) नवति एटले थाय दे. ॥१॥ - (दीपिका.) सांप्रतमुपदेशमाह। अयतं चरन् यत्नं विना गछन् यसमितिमुसक्यः । किमित्याह ।प्राणिनूतानि हिनस्ति, प्राणिनो हीन्जियादयः नूतानि एकेन्जियास्तानि हिनस्ति प्रमादेन अनाजोगेन च व्यापादयति । तानि हिंसन् बध्नाति पापकं कर्म अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि । तत्पापकर्म से तस्य अयत्नचारिणो जवति कटुकफलमशुनफलं नवति । मोहादिहेतुत्वेन विपाकदारुण मित्यर्थः॥१॥. (टीका.) सांप्रतमुपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते । अजयमित्यादि । अयतं चरन्नयतमनुपदेशेनासूत्राझ्या इति । क्रियाविशेषणमेतत् । चरन् गबन्। तुरेवकारार्थः । श्रयतमेव चरन् र्यासमितिमुखध्य न त्वन्यथा । किमित्याह । प्राणिनूतानि हिनस्ति । प्राणिनो हीन्यादयः । नूतान्येकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति । प्रमादानाजोगान्यां व्यापादयतीति जावः । तानि च हिंसन् बध्नाति पापं कर्म अंकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि । तत् से नवति कटुकफलम् । तत् पापं कर्म से तस्यायतचारिणो जवति कटुकफलमित्यनुखारोऽलादणिकः। अशुजफलं जवति मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ॥ १॥ अजयं चिठमाणो अ, पाणनूयाई हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुअंफलं ॥२॥ ( अवचूरिः ) अयतं तिष्ठन्यूलस्थानेनासमाहितो. हस्तपादादि विदिपन् शेषं पूर्ववत् ॥२॥ . (अर्थ.) तेमज ( अजयं चिठमाणो अ के ) अयतं तिष्ठंश्च एटले अजयणाए जन्नो रेहतो थको हाथ पग आदिक पसारी जे साधु (पाणयाई के०) प्राणिनूतानि एटले एकेजियादिक तथा बेंजियादिक जीवप्रत्ये ( हिंस के०) हिनस्ति एटले हणे. जे. ते .. ( पावयं कम्मं के०) पापकं कर्म एटले ज्ञा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा' नावरणीयादि पापकर्मने ( बंधई के० ) बन्नाति एटले बांधे . ( से के० ) तस्य एटले ते साधुने (तं के ) तत् एटले ते पापकर्म (कम्यंफलं के०) कटुकफलं एट ले कडवा फलने आपनारं ( होश के०) नवति एटले थाय ॥५॥ ___(दीपिका.) एवं अयतं तिष्ठन् जवस्थानेन असमंजसं हस्तपादादिकं विक्षिपन् ॥५॥ ( टीका. ) एवमयतं तिष्ठन्नूलस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेष .पूर्ववत् ॥ २॥ .. अजयं आसमाणो अ, पाणनूया सिइं॥ बंधई पावयं कम्म, तं से दो कमुश्रफलं ॥३॥ (अवचूरिः) अयतमासीनो निषमतया अनुपयुक्तः आकुञ्चनादिनावेन ॥३॥ (अर्थ.) तथा जे साधु ( अजयं आसमाणो अ के ) अयतमासीनः एटले अ. जयणाए वेसतो थको हस्तपादादिकना आकुंचनादिके करी (पाणनूया के) प्राणिनूतानि एटले एकेडियादिक तथा बेंजियादिक जीव प्रत्ये (हिंसर के) हिनस्ति एटले हणे . ते साधु (पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञानावर णीयादि पाप कर्म प्रत्ये (बंधई के) बनाति एटले बांधे . ( से के०) तस्य ए. • टले ते साधुने (तं के) तत् एटले ते पापकर्म (कमुश्रफलं के) कटुकफलं एटले · कमवा फलने आपनारं एवं (होश के०) नवति एटले थाय . ॥३॥ - (दीपिका.) एवमयतमासीनो निषमतया अनुपयुक्तः सन् आकुञ्चनादिना वेन शेषं पूर्ववत् ॥ ३॥ (टीका.) एवमयतमासीनो निषमतया अनुपयुक्त आकुञ्चना दिनावेन शेषं पूर्ववत्॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणनूयाइ हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से दो कमुअंफलं ॥४॥ (अवचूरिः) अयतं स्वपन्नसमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना शेषं पूर्ववत् ॥ ४॥ (अर्थ.) वली ते साधु (अजयं सयमाणो अके० ) अयतं स्वपंश्च एटले अजयपाए शयन करतो थको ( पाणतयाई के० ) प्राणिनूतानि एटले एकेंजियादिक तथा हीडियादिक जीव प्रत्ये ( हिंसर के०) हिनस्ति एटले हणे ठे. तेथी ते पुरुष (पावयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पापकर्म प्रत्ये ( वंधई के०) वभाति एटले बांधे दे. ( से के० ) तस्य एटले ते साधुने (तं के) तत् एटले ते Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २१ पापकर्म ( कमुयंफलं के० ) कटुकफलं एटले कडवा फलने आपनाहं (होश के') जवति एटले थाय . ॥४॥ (दीपिका.) एवमयतं वपन्नसमाहितो दिवसे प्रकामशय्यादिना। शेषं पूर्ववत् ॥४॥ " ( टीका.) एवमयतं खपन्नसमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना शेषं पूर्ववत् ॥४॥ अजयं मुंजमाणो अ, पाणनूयाइंहिंस॥ . बंधई पावयं कम्म, तं से दोइ कमुश्रफलं ॥५॥ (अवचूरिः) अयतं जुञ्जानो निःप्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालजलितादिना । शेषं - पूर्ववत् ॥ ५॥ .. (अर्थ.) तथा जे साधु ( अजयं सुंजमाणो अ के० ) अयतं जुञ्जानश्च एटले यतना विना अजयणाए नोजन करतो थको (पाणनूयाइं के०) प्राणिनूतानि एटले एकेंजियादिक तथा बॅरिजियादिक जीव प्रत्ये (हिंसर के) हिनस्ति एटले हणे '. तेथी ते साधु (पांवयं कम्मं के० ) पापकं कर्म एटले पापकर्मप्रत्ये ( बंधई के) . बनाति एटले बांधे . ( से के० ) तस्य एटले ते पुरुषने (तं के) तत् एटले ते ... पापकर्म (कमुयंफलं के) कटुकफलं एटले कडवा फलने आपनाएं ( हो के.) नवति एटले थाय . ॥५॥ (दीपिका.) एवमयतं जुञ्जानो निःप्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालनहितादिना। - शेषं पूर्ववत् ॥ ५॥ (टीका.) एवमयतं जुञ्जानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालजदितादिना शेषं पूर्ववत् ॥५॥ अजयं नासमाणो अ, पाणनूयाइं हिंस॥ बंधई पावयं कम्म, तं से दोश् कमुश्रफलं ॥६॥ . (अवचूरिः) नाषमाणो गृहस्थनाषया निष्ठुरमन्तरज्ञाषादिना । शेषं पूर्ववत्॥६॥ (अर्थ.) तथा जे साधु ( अजयं नासमाणो अ के ) अयतं जापमाणश्च एटले यतना विना अजयणाए अर्थात् सावद्य गृहस्थनी निष्ठुर एवी चकारमकारादिनाषा बोलतो थको (पाणया के ) प्राणिभूतानि एटले एकेडियादिक तथा बेरिंजि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. यादिक जीव प्रत्ये ( हिंसर के) हिनस्ति एटले हणे दे. तेथी ते साधु (पावयं कम्मं के) पापकं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पाप कर्म प्रत्ये (बंधई के०) वनाति एटले बांधे . ( से के०) ते जीवने (तं के ) तत् एटले ते पापकर्म (कमुयफल के०) कटुकफलं एटले कमवा फलने आपनारूं (होश के०) नवति एटले थाय .॥६॥ (दीपिका.) एवमयतं ज्ञाषमाणो गृहस्थताषया निष्ठुरमन्तरनाषादिना शेष पूर्ववत् ॥ ६॥ . (टीका.) एवमयतं नाषमाणो गृहस्थनाषया निष्ठुरमन्तरनाषादिना। शेषं पूर्ववत् ॥६॥ कहं चरे कई चिके, कदमासे कहं सए ॥ . कदं मुंजतो नासंतो, पावं कम्मं न बंध॥७॥ (श्रवचूरिः) अत्राह । यद्येवं पापकर्म ततः कथं केन प्रकारेण चरेदित्यादि ॥७॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त वचन सांजलीने गुरुने शिष्य पूजे जे. कहमित्यादि । ते साधु (कहं चरे के०) कथं चरेत् एटले केवी रीते गमन करे, ( कहं चि के०) कथं तिठेत् एटले केवीरीते उन्नो रहे, ( कहमासे के) कथमासीत एटले केवी रीते बेसे, (कहं सए के०) कथं वपेत् एटले केवी रीते शयन करे, वली (कहं मुंजतो जासंतो के) कथं जुजानो नाषमाणश्च एटले ते साधु केवीरीतें जोजन करतो थको तथा बोलतो थको (पावं कम्मं के) पापं कर्म एटले पापकर्मने (न बंधश् के०) न बभाति एटले बांधतो नथी. ॥ ७॥ (दीपिका.) अथ शिष्य आह । यद्येवं पापकर्मबन्धस्तदा कथं चरेदित्याह । कथं केन प्रकारेण चरेत् , कथं तिष्ठेत्, कथमासीत, कथं खपेत् । कथं जुञ्जानोऽन्नं कथं नाषमाणः पापकर्म न बनाति ॥७॥ (टीका.) अत्राह । यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः कहं चरे इत्यादि । कथं केन प्रकारेण चरेत्, कथं तिष्ठेत्, कथमासीत, कथं वपेत् । कथं जुञ्जानो नाषमाणः पापं कर्म . न बनातीति ॥७॥ जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए॥ जयं मुंजंतो नासंतो, पावं कम्मं न बंध॥७॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २०३ 1 ( श्रवचूरिः ) आचार्यस्त्वाह । यतं चरेत्सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः । यतं तिष्ठेद्धस्तपादाविदेपेण । यतमासीत उपयुक्तमाकुञ्चनाद्यकरणेन । यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यापरिहारेण । यतं जुआनः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतर सिंहनंदिता दिना । यतं जाषमाणः साधुभाषया मृडु कालप्राप्तं च । पापं कर्म ज्ञानावरयादि न बभाति रुद्धाश्रवत्वाद्विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ७ ॥ ( अर्थ. ) एवो शिष्यनो प्रश्न सांजलीने श्राचार्य कहे बे. जयं चरे इति. हे शिष्य ! साधु जे बे, ते ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( चरे के० ) चरेत् एटले चाले (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( चिट्ठे के० ) तिष्ठेत् एटले उज्जो रहे, ( जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( आसे के० ) आसीत एटले बेसे, (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी ( सए के० ) स्वपेत् एटले शयन करे, तथा (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी (गुंजतो के० ) जुआनः एटले नोजन करतो (जयं के० ) यतं एटले जयणाये करी (जासंतो के० ) जाषमाणः एटले जाषण करतो ( पावं कम्मं के० ) पापं कर्म एटले ज्ञानावरणीयादि पाप कर्म प्रत्ये ( न बंधइ के० ) न बनाति एटले बांधतो नथी. ॥ ८ ॥ ( दीपिका . ) आचार्य उत्तरमाह । यतं चरेत् सूत्रस्य उपदेशेन ईर्यासमित्या दिसमितः सन् यतं तिष्ठेत् समाहितः सन् हस्तपादादीनां विदेपेण विना, यतमासीत उपयुक्तः सन् श्रकुञ्चनादेः करणेन, यतं स्वपेत् समाधिमान् सन् रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । यतं भुञ्जानः प्रणीतं सिंहन दितादिना, एवं यतं जाष साधुभाषया तदपि मृडु कालप्राप्तं च । एवं कुर्वन् साधुः पापं कर्म क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि न बध्नाति । कथमाश्रवरोधनात् साध्वाचारतत्परत्वाच्च ॥ ८ ॥ 1 1 ( टीका.) आचार्य ह । जयं चरे इत्यादि । यतं चरेत् सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः । यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविदेपेण । यतमासीत उपयुक्त आकुञ्चनाद्यकरन । यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । यतं जुञ्जानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहन दितादिना । एवं यतं जाषमाणः साधुजाषया मृडु कालप्रातं च । पापं कर्म क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि न बनाति नादत्ते निराश्रवत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ सवनूयप्पनूप्रस्स, सम्मं नूयाई पासन ॥ पिढिया सवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥ ए॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः ) सर्वजूतेषु आत्मनूतः सर्वचूतात्मजूतो य यात्मवत्सर्वनूतानि पश्यति सम्यक् वीतरागोक्तेन विधिना पृथ्व्यादीनि जूतानि पश्यतः, पिहिताश्रवस्य, दान्तस्येन्डियनोइन्डियदमनेन पापं कर्म न वध्यते । पापकर्मवन्धो न नवतीत्यर्थः ॥ ए॥ (अर्थ.) हवे उपदेश कहे .. ( सबनूयप्पनूअस्स के०) सर्वचूतात्मजूतस्य, स. वनूत ते सर्व प्राणीने आत्मजूत एटले पोताना आत्मानी परे समजनारा एवा तथा (.सम्म नूयाई पासर्ड के) सम्यक् जूतानि पश्यतः, नूतानि एटले सर्व जीवोने सम्यक् एटले वीतरागे कह्या प्रमाणे रूडीरीतें पश्यतः एटले जोनारा एवा (पिहियासंवस्स के०) पिहिताश्रवस्य एटले प्राणातिपातादिक आश्रवहार जेणे रोक्यां ,एवा अने (दंतस्स के०) दांतस्य एटले जेणे इंडियदमन कलु बे, एवा साधुने (पावं कम्मं के ) पापं कर्म एटलें ज्ञानावरणीयादि पापकर्म ( न वंधर के) न बध्नाति बंधातुं नयी ॥ ए॥ - (दीपिका.) किंच एवंविधस्य साधोः पापं कर्म न बध्यते। तस्य साधोः पापकर्मवन्धो न नवतीत्यर्थः । किं साधोः । सर्वभूतेषु आत्मनूतो य आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यति । तस्य किं कुर्वतः साधोः। सम्यग्वीतरागकथितेन विधिना नूतानि पृथ्व्यादीनि पश्यतः। पुनः किं साधोः। पिहितो निरुद्धः स्थगित आश्रवः प्राणातिपातादिरूपो येन स तस्य । पुनः किंचूतस्य साधोः । दान्तस्य दमितेन्डियनोन्जियव्यापारस्य । एवं सति किं नवति । सर्वजूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवति ॥५॥ (टीका.) किंच सबनूय इत्यादि । सर्वजूतेष्वात्मनूतः सर्वात्मनूतो । य अत्मवत् सर्वनूतानि पश्यतीत्यर्थः । तस्यैवं सम्यग्वीतरागोक्तेन विधिना नूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः । पिहिताश्रवस्य स्थगितप्राणातिपाद्याश्रवस्य दान्तस्येन्डियनोइन्द्रियदमेन पापं कर्म न बनाति, तस्य पापकर्म बन्धो न भवतीत्यर्थः॥५॥ पढमं नाणं तदया, एवं चिह सवसंजए॥ अन्नाणी किं काही, किंवा नाही अपावगं ॥१०॥ - (अवचूरिः) एवं सति दयायामेव यतितव्यं अलं ज्ञानाच्यासेनापीति मा नूदव्युत्पन्न विनेयमतिविन्रम इति तदपोहायाह । प्रथममादौ झानं ततो दया . एवमनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते सर्वसंयतः । अशानी किं करिष्यति । सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिमित्तानावात् वा किं वा झास्यात Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। श्य बेकं निपुणं हितं कालोचितं पापकमितो विपरीतं तत्करणं लावतोऽकरणमेव । अतो ज्ञानान्यासः कार्यः ॥ १०॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त उपदेशथी को एम समजे के, सर्व प्राणिमात्र उपर दया राखनार जे पुरुष, तेने पापकर्मनो बंध यतो नथी, माटे सर्वप्रकारे प्रयत्न करीने दयाज पालवी. परंतु ज्ञाननो अभ्यास वगेरे कांश करवानी जरूर नथी, एवा अज्ञानी शिष्यने मोह न थवो जोश्ये, माटे कहे . पढमं ति ( पढमं के०) प्रथमं एटले प्रथम ( नाणं के) ज्ञानं एटले जीवाजीवादिकनुं ज्ञान संपादन करे, (तर्ज के.) ततः एटले जीवाजीवादिज्ञान थया पबी (दया के०) दया एटले संयमरूप दया षड्जीवनिकायने विषे कराय. ा प्रकारथी ज्ञानपूर्वक दया सिद्ध थाय बे. ( एवं के०) पूर्वोक्त ज्ञानपूर्वक दया पालवाथी ते साधु ( सबसंजए के०) सर्वसंयतः एटले सर्व प्रकारे संयत थाय जे. वली एथी विपरीत जे पुरुष (अन्नाणी के०) अज्ञानी एटले जीवाजीवादिज्ञानरहित होय बे, ते ( किं काही के ) किं करिष्यति एट शुं करशे ? केमके, ज्ञान नहीं होवाथी ते अंधसमान बे, माटे ते अज्ञानी केवा कर्मने विषे प्रवृत्त थवं, तथा केवा कर्मथी निवर्तवं, ते कां जाणेज नहीं. वली यद्यपि ते पुरुष कांश कर्म करवा प्रवृत्त थाय, तोपण ते (सेयपावगं के०) श्रेयःपापकं एटले पुण्य अने पापने (किंवा नाही के०) किंवा शास्यति एटले शुं जाणशे ? कांज नहीं ॥ १०॥ - (दीपिका.) शिष्यः प्राह । इत्यनेन किमागतं सर्वप्रकारेण दयायामेव यतितव्यं किं प्रयोजनं ज्ञानाच्यासेन । गुरुराहमा एवं चमं कुरु। यतःप्रथममादौ ज्ञानं जीवखरूपरदाणस्य उपायफल विषयं ततस्तथाविधानात्पश्चात् दया संयमः एवमनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकदयाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते सर्वसंयतः सर्वोऽपि साधुवर्गः। परं यः पुनरज्ञानी ज्ञानरहितः स किं करिष्यति । सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिमित्तस्यानावात् । किं वा कुर्वन् ज्ञास्यति बेकं निपुणं हितं कालस्य चितं पापकं वा बेकाछिपरीतम् । तत्करणं जावतोऽकरणमेव समस्त निमित्तानामन्नावात् अन्धप्रदीप्तपलायनघुणादरवत्। अत एव अन्यत्राप्युक्तम् ॥ गीअबो अ विहारो, बी गीअमीसि नणि ॥ इत्तो तश्यविहारो, नाणुन्ना जिणवरेहिं ॥१॥ अतो ज्ञानाच्यासः कार्य एव ॥ १० ॥ ___(टीका.) एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न जवतीति सर्वात्मना दयायामेव यतितव्यम् । अलं ज्ञानाच्यासेनापीति मा नूदव्युत्पन्न विनेयमतिविज्रम इति तदपोहायाह । पढम पाणमित्यादि । प्रथममादौ ज्ञानं जीवस्वरूपसंरदाणोपा Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. यफलविषयं ततस्तथाविधज्ञानसमनन्तरं दया संयमस्तदेकान्तोपादेयतया जावतस्त प्रवृत्तेः । एवमनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण तिष्ठत्यास्ते । सर्वसंयतः सर्वप्रत्रजितः । यः पुनरज्ञानी साध्योपायफलपरिज्ञानविकलः स किं करिष्यति सर्व त्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताजावात् । किं वा कुर्वन् ज्ञास्यति बेकं निपुणं हितं कालोचितं पापकं वा तो विपतरीतमिति । ततश्च तत्करणं नावतोऽकरणमेव समग्र निमित्तानावात् अन्धप्रदीप्तपलायनघुणाकरकरणवत् । अत एवान्यत्राप्युक्तम् विहारो, बी गीश्रमी सिजपि ॥ इत्यादि । अतो ज्ञानान्यासः कार्यः ॥ १०॥ सोच्चा जाणइ कलाणं, सोच्चा जाणइ पावगं ॥ जयं पि जाए सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥ ११ ॥ ( अवचूरिः) श्रुत्वा जानाति । कल्यो मोक्षस्तमणति नयतीति कल्याणं दयाख्यं संयमस्वरूपं पापकमसंयमरूपमुजयं संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जाना ति । यतश्चैवमत छं विज्ञाय यछेकं निपुणं कालोचितं तत्समाचरेत् ॥ ११ ॥ ( .) माटे ज्ञानान्यास करवायी जे थाय बे ते कहे बे. सोच्चा इत्यादि. पुरुष जे बे ते ( सोच्चा के० ) श्रुत्वा एटले सिद्धांत सांजलीने ( कलाएं के० ) कव्याणं एटले संयम प्रत्ये ( जाणइ के० ) जानाति एटले जाणे बे. तेमज ( सोच्चाho ) श्रुत्वा एटले सिद्धांत श्रवण करीने ( पावगं के० ) पापकं एटले असंयम प्रत्ये ( जाए के० ) जानाति एटले जाणे बे. ( सोच्चा के०) श्रुत्वा एटले सिद्धांत सांजलीने ( जयं पि ० ) उजयमपि एटले संयमाने संयम पाप ए वे प्रत्ये पण ( जा इ के० ) जानाति एटले जाणे बे. एवी रीतें सिद्धांतश्रवणश्री पुण्य, पापाने तडुजय जाणीने पबी ( जं के० ) यत् एटले जे ( सेयं के० ) श्रेयः एटले हितकारि होय, ( तं के० ) तत् एटले ते ( समायरे के ० ) समाचरेत्. एटले आचरे ॥ ११ ॥ ( दीपिका . ) यता । श्रुत्वा जानाति कल्याणं दयाख्यं संयमस्वरूपं श्रुत्वा च जानाति पापकं हिंसाख्यमसंयमस्वरूपम् । उजयमपि संयमासंयमखरूपं श्रावकोपयोगि श्रावकयोग्यं जानाति श्रुत्वा नाश्रुत्वा । यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यछेकं तत् समाचरेत् तत् कुर्यादित्यर्थः ॥ ११ ॥ ( टीका. ) तथा चाह सोचा इत्यादि । श्रुत्वा कर्ण्य कार्यसाधनत्वात्ससाधनखरूपविपाकं जानाति बुद्ध्यते । कल्याणं कट्यो मोदस्तमपति प्रापयतीति कट्याणं दयाख्यं संयमस्वरूपम् । तथा श्रुत्वा जानाति पापकमसंयमखरूपम् । उजयम पि Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २७ संयमासंयमखरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा नाश्रुत्वा । यतश्चैवमत श्वं विज्ञाय बेकं निपुणं हितं कालोचितं तत्समाचरेत्कुर्यादित्यर्थः ॥ ११ ॥ जो जीवे वि न याणेश, अजीवे वि न याण ॥ जीवाजीवे अयाणंतो, कद सो नाही संयमं ॥१२॥ (अवचूरिः ) उक्तमेव स्पष्टयन्नाह । यो जीवान् पृथिवीकायिका दिनेदनिन्नान्न जानाति । अजीवान्संयमोपघातिनो हिरण्यादीन जानाति । जीवाजीवानजानन् का थमसौ ज्ञास्यति संयमम् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) हवे, सिहांतना ज्ञान वगर संयमनुं ज्ञान थतुं नथी, एम कहे जे. जो जीवे इति. ( जो के०) यः एटले जे पुरुष ( जीवे वि के ) जीवानपि एटले पृ. थ्वीकायादि जीवने (न याणेश के ) न जानाति एटले जाणतो नथी. तथा (अजीवे वि के०) अजीवानपि एटले हिरण्य रूप्य प्रमुख अजीवने पण (न याण के.) न जानाति एटले जाणतो नथी. ( सो के०) सः एटले ते पुरुष ( जीवाजीवे के). जीवाजीवान् एटले जीवअजीव प्रत्ये (अयाणंतो के०) अजानन् एटले न जाणतो थको ( संयम के०) प्राणातिपातविरमणादिरूप सत्तर प्रकारना संयमने ( कह के० ) कथं एटले केवी रीते (नाही के०) ज्ञास्यति एटले जाणशे. ॥१५॥ ... (दीपिका.) उक्तमेव स्पष्टीकुर्वन्नाह । यो जीवानपि पृथिवीकायादीन् न जानाति । अजीवानपि संयमस्य उपघातिनो मणिवर्णादीन् न जानाति । एवं जीवाजीवान् श्रजानन् कथमसौ ज्ञास्यति संयम तत्संबन्धिज्ञानस्य अनावात् ॥ १५ ॥ (टीका.) उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह ।जो जीवे इत्यादि ।योजीवानपि पृथिवीका यिकादिनेदनिन्नान् न जानाति।अजीवानपि संयमोपघातिनो मद्य हिरण्यादीन्न जानाति। - जीवाजीवानजानन्कथमसौ ज्ञास्यति संयमं तद्विषयं तद्विषयाज्ञानादिति नावः॥१२॥ जो जीवे वि वियाणेश, अजीवे वि वियाण ॥ जीवाजीवे वियाएंतो, सो दु नादी संयमं ॥१३॥ (अवचूरिः) यदा जीवानजीवानपि विजानाति । तदा जीवानजीवांश्च विजानन्स खलु संयम झास्यति ॥ १३ ॥ - १५ तद्विषयज्ञानादीति" इति पाठान्तरम् । ... . .. ... ... .. ..... Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. :- ( अर्थ.) हवे, जे पुरुष संयमने जाणे तेनुं लक्षण कहे , जो इति (जो के) यः एटले जे पुरुष (जीवे विके० ) पृथ्वीकायादि जीव प्रत्ये पण (वियाण के०) विजानाति एटले सारीरीते जाणे, तथा (अजीवे वि केu) अजीवानपि एटले धर्मास्तिकायादिक तथा संयमना उपघातक एवा मद्य सुवर्णादि अजीव पदार्थ प्रत्ये पण ( वियाण के) विजानाति एटले विशेष करी जाणे. ( सो के०) सः एटले ते पुरुष ( जीवाजीवे के) जीवाजीवान् एटले जीव तथा अजीव प्रत्ये (वियाएंतो के) विजानन् एटले जाणतो थको (संजमं के०) संयम एटले सत्तर प्रकारना संयम प्रत्ये (हु के०) खलु एटले निश्चये करी (नाही के०) शा. स्यति एटले जाणशे. ॥ १३॥ ... ( दीपिका.) ततश्च यो जीवानपि विजानाति । अजीवानपि विजानाति । जीवाजी. वान्विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । उपदेशाधिकारः समाप्तः ॥ १३॥ ( टीका.) ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति । जीवाजीवान् विः जानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशार्थाधिकारः ॥ १३ ॥ ... जया जीवमजीवे अ, दो वि एए वियाण ॥ ....... तया गई बहुविहं, सबजीवाण जाण ॥२४॥ . (श्रवचूरिः) सांप्रतं धर्मफलमाह । यदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च छावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति । तस्मिन् काले गतिं नरकगत्या दिरूपां बहुविधां जीवाजीवानां जानाति यथा स्थितज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानानावात् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) हवे पूर्वोक्त ज्ञान- फल कहे जे. जया इति. ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे (जीवमजीवे अ के०) जीवाजीवौ च एटले जीव तथा अजीव ( एए दो वि. के) एतौ छावपि एटले ए बेहुने पण ( वियाण के) विजानाति एटले जाणे. ( तया के ) तदा एटले त्यारे (सबजीवाणं के०) सर्वजीवानां एटले सर्वे जीवोनी (बहविहं के०) बह विधां एटले देवतिर्यनारकादि अनेकप्रकारनी (गई के०) गतिं एटले गतिने (जाण के०) जानाति एटले जाणे. ॥१४॥ (दीपिका.) सांप्रतधर्मस्य फलमाह । जया इत्यादि। यदा यस्मिन् काले जीवान-- जीवान् छौ अपि एतौ विजानाति अनेकप्रकारेण जानाति । तदा तस्मिन् काले गति Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २२९ नरकगत्यादिरूपां बहुविधामनेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति । यथावस्थितजीवाजिवादिपरिज्ञानं विना गतिपरिज्ञानस्य श्रभावात् ॥ १४ ॥ . ( टीका. ) सांप्रतं षष्ठेऽधिकारे धर्मफलमाह । जया इत्यादि । यदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति । तदा तस्मिन् काले गतिं नकगत्यादिरूपां बहुविधां खपरगतनेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति । यथाव - स्थितजीवाजीव परिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् ॥ १४ ॥ जया गई बहुविहं, सबजीवाण जाएइ ॥ तया पुष्णं च पावं च, बंधं मुकं च जाणइ ॥ १५ ॥ ( अवचूरिः ) उत्तरोत्तरफलवृद्धिमाह । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगति निबन्धनं बन्धं जीवकर्मयोगः खलक्षणं मोदं च तद्वियोगसुखलक्षणम् ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) ( जया के ० ) यदा एटले ज्यारे ( सवजीवाण के० ) सर्व जीवोनी ( बहुवि ० ) बहुविधां एटले चार प्रकारनी ( गई के० ) गतिं एटले गतिनें ( जाइ के० ) जानाति एटले जाणे. ( तथा के० ) तदा एटले त्यारे चतुर्विध गंतिना कारण एवा ( पुषं च पावं च के० ) पुण्यं च पापं च एटले पुण्यने अने पापने तथा ( बंधं मुरकं च के० ) बंध मोक्षं च एटले बंधने ने मोहने ( जाइ के० ) जानाति एटले जाणे, ॥ १५ ॥ ( दीपिका . ) अथ उत्तोरोत्तरफल वृद्धिमाह । यदा गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगति निबन्धनं तथा बन्धं जीवकर्मयोग दुःखलक्षणं मोक्षं च जीवकर्म वियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५ ॥ ( टीका. ) उत्तरोत्तरां फलवृद्धिमाह । जया इत्यादि । यदा यस्मिन्काले गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति । तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगति निबन्धनं तथा बन्धं जीवकर्मयोग दुःखलक्षणं मोक्षं च तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५ ॥ जया पुष्पं च पावं च, बंधं मुकं च जाइ ॥ तया निविंदए जोए, जे दिवे जे प्र माणुसे ॥ १६ ॥ ( श्रवचूरिः ) तदा निर्विन्ते मोहाजावात् सम्यग् विचारयत्यसारडुः खरूपतया जोगान् शब्दादीन् ॥ १६ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. . ( अर्थ. ) तथा जया इति. ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( पुषं च पावं च के० ) पुण्यं च पापं च एटले पुण्य अने पाप प्रत्ये तथा ( बंधं मुकं च के० ) बंध मोक्षं च एटले बंधाने मोक्ष प्रत्ये ( जाणइ के० ) जानाति एटले जाणे. ( तथा के० ) तदा एटले त्यारे, ( जे के० ) ये एटले जे ( दिवे के० ) दिव्या: एटले देव संबंधी तथा ( जे अ माणुसे के० ) ये च मानुषाः एटले मनुष्यना जे ( जो ए के० ) जोगा: एटले जोग बे, ते जोगने ( निविंद के० ) निर्विन्ते एटले अ सार करी जाणे बे ॥ १६ ॥ ( दीपिका. ) यदा पुण्यं च पापं च बन्धं च मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन्ते मोहाजावात् सम्यग्विचारयति असारडुः खरूपतया । कान् जोगान् शब्दादीन् यान् दिव्यान् तथा यान् मानुषान् । तेन्यो व्यतिरिक्ताः शेषाः परमार्थतो जोगा एव न जवन्ति ॥ १६ ॥ ( टीका . ) जया इत्यादि । यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति । तदा निर्विन्ते मोहाजावात् सम्यग्विचारयत्यसारडुः खरूपतया जोगान् शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् । शेषास्तु वस्तुतो जोगा एव न भवन्ति ॥ १६ ॥ जया निविंद जोगे, जे दिवे जे माणुसे ॥ तया चयइ संजोगं, सप्निंतरबादिरं ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) तदा त्यजति संयोगं जावतः आभ्यन्तरं क्रोधादि बाह्यं हिरण्यादि ॥ १७॥ ( . ) तथा ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( जे दिवे जे छा माणुसे के० ) ये दिव्या ये च मानुषाः एटले जे देवना तथा माणसना जोग बे, ते ( जोए के० ) जो गान् एटले जोगने ( निब्बिंदए के० ) निर्विते एटले असार करी जाणे. ( तथा के० ) तदा एटले त्यारे ( सनिंतरबा हिरं के० ) साभ्यंतरबाह्यं एटले रागद्वेषादिक अन्यंतर तथा पुत्रकलत्रादिक बाह्य एवा ( संजोगं के० ) संयोगं एटले संयोगने ( चयश के० ) त्यजति एटले बोडी दे बे ॥ १७ ॥ ( दीपिका. ) यदा निर्विन्ते जोगान्दिव्यान्मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं संबन्धं सान्यन्तरबाह्यम् । क्रोधादिरूपमान्यन्तरं स्वर्णादिरूपं बाह्यं संबन्धमित्यर्थः ॥ १७ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा निर्विन्ते जोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् । तदा त्यजति संयोगं संबन्धं द्रव्यतो जावतः सान्यन्तरबाह्यं क्रोधादिहिरण्या दि संबन्धमित्यर्थः ॥ १७ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । जया चयइ संजोगं, सनितरबादिरं ॥ तया मुंगे नवित्ता, पवईए अपगारिचं ॥ १८ ॥ २३१. ( श्रवचूरिः ) तदा मुएको द्रव्यतो जावतश्च भूत्वा प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजति मोक्षं प्रत्यनगारम् ॥ १८ ॥ ( अर्थ. ) ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( सप्निंतर बाहिरं के० ) साभ्यंतरबाह्यं एटले बाह्य अभ्यंतर एवा बे प्रकारना ( संजोगं के० ) संयोगं एटले संबंधने (चयइ के०) त्यजति एटले त्याग करे बे. (तथा के०) तदा एटले त्यारें (मुंवित्ता के० ) मुंमो भूत्वा एटले द्रव्यजावथी सुंम थने ( अपगारियं के० ) अनगारं एटले गाररहितपणें अर्थात् गृहनो त्याग करीने ( पवइए के० ) प्रत्र - जति, प्रकर्षेकरी एटले द्रव्यथी लोचादिके करी तथा जावथी रागद्वेषादिकना त्यागे करी व्रजति एटले मोद प्रत्यें जाय बे ॥ १८ ॥ ( दीपिका . ) यदा त्यजति संयोगं सान्यन्तरं बाह्यं तदा मुएको भूत्वा द्रव्यतो नावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण ब्रजति मोहमनगारं द्रव्यतो जावतश्च मानागार मित्यर्थः ॥ १८ ॥ विद्य ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा त्यजति संयोगं सान्यन्तरबाह्यम् । तदा मुएको भूत्वा द्रव्यतो जावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजत्यपवर्ग प्रत्यनगारं द्रव्यतो नावतश्वाविद्यमानागार मिति नावः ॥ १८ ॥ जया मुंगे नवित्ता, पवइए अपगारित्र्यं ॥ तया संवरमुक्किटं, धम्मं फासे पुत्तरं ॥ १९ ॥ ( अवचूरिः ) तदा संवरमुक्किडं ति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं प्राणातिपातादिनिवृतिरूपं चारित्रधर्मं स्पृशत्यनुत्तरम् ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) जया मुंडो इत्यादि. ज्यारें मुंड थइने इत्यादि ( तया के० ) तदा एत्या (अणुत्तरं के० ) श्रेष्ठ एवा ( संवरमुकि के० ) उत्कृष्टसंवररूप ( धम्मं ha ) धर्मं एटले धर्म प्रत्ये ( फासे के० ) स्पृशति एटले स्पर्श करे. ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) यदा मुंमो भूत्वा प्रव्रजति अनगारं तदा उत्कृष्टं संवरधर्मं सर्वप्रायातिपातादिनिवृत्तिरूपं चारित्रधर्म स्पृशति अनुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १५ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. (टीका.) जया इत्यादि। यदा मुएको भूत्वा प्रव्रजत्यनगारम् । तदा संवरमुकिति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म सर्वप्राणातिपातादिवि निवृत्तिरूपं चारित्रधर्म मित्यर्थः । स्पृशत्यनुत्तरं सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १५ ॥ जया संवरमुक्कि, धम्मं फासे अणुत्तरं ।। तया धुण कम्मरयं, अवोदिकलुसंक ॥२०॥ . . (अवचूरिः) तदा धुनाति कर्मरजोऽवोधिकलुषकृतं श्रवोधिकबुषेण मिथ्याहष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ २० ॥ (अर्थ.) जया संवरं इत्यादि. ज्यारें उत्कृष्ट संवररूप श्रेष्ठ धर्मने आदरे डे, (तया के०) तदा एटले त्यारे ( अबोहिकलुसंक के) अवोधिकलुषकृतं एटले मिथ्यादृष्टिपणाथी करेला एवा ( कम्मरयं के०) कर्मरजः एटले कर्मरूप रज प्रत्ये. कर्मने रज केहवानुं कारण ए के, कर्म जे जे ते पोताना फलरूप कुःखादिकथी आत्माने लेप करे , माटे कर्मने रज कहे . एवा कर्मरजने ते पूर्वोक्त साधु (धुण के०) धुनाति एटले काढी नाखें बे॥२०॥ (दीपिका.) यदा संवरमुत्कृष्टं धर्म स्पृशति अनुत्तरम् । तदा धुनाति । धातूनामनेकार्थत्वात् । पातयति। किम् । कर्मरजः कर्मैव आत्मरञ्जनात् रज श्व कर्मरजः। किं नूतं कर्मरजः । अबोधिकलुषकृतं अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिना उपात्तमित्यर्थः ॥२॥ ( टीका.) जया इत्यादि । यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनात्यनेकार्थत्वात्पातयति कर्मरजः कर्मैव श्रात्मरञ्जनाउज व रजः । किंविशिष्टमित्याह । अबोधिकनुषकृतम् अबोधिकनुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ २० ॥ जया धुण कम्मरयं, अबोदिकलुसंकमं॥ तया सबत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगव॥१॥ (अवचूरिः) तदा सर्वगं ज्ञानमशषज्ञेयविषयं दर्शनं चाशेषदृश्यविषयं चाधिगबत्यावरणानावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ १॥ (अर्थ.) जयाधुणश्त्या दि.ज्यारे मिथ्याष्टिपणे करी करेला कर्मरजने पुरुष टाले ३. ( तया के ) तदा एटले त्यारे ( सव्वत्तगं के० ) सर्वत्रगं एटले सर्वलोकमां व्यापी रहे एवा ( नाणं के ) ज्ञानं एटले केवलज्ञान प्रत्ये तथा (दंसणं च के०) दर्शनं Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके चतुर्थाध्ययनम्। २३३ च एटले दर्शन प्रत्ये ( अजिगर के० ) अनिगति एटले ज्ञानावरणीय कर्मना तथा दर्शनावरणीय कर्मना अनावथी सारी रीते पामे ॥१॥ (दीपिका.) यदा धुनाति कर्मरजः श्रबोधिकलुषकृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानमशे- .. षडेयविषयमशेषं दर्शनं चाधिगति आवरणस्य अनावात् श्राधिक्येन प्राप्नोति ॥२१॥ (टीका.) जया इत्यादि । यदा धुनाति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानमशेषज्ञेय विषयं दर्शनं चाशेषदृश्य विषयमधिगबत्यावरणानावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः॥२१॥ जया सवत्तगं नाणं, दंसणं चानिगढ॥ तया लोगमलोगं च, जियो जाप केवली॥२२॥ ... (अवचूरिः) तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोकं चानन्तं जिनो जानाति केवली । लोकालोको च सर्वो नान्यतरमित्यर्थः ॥२५॥ (अर्थ.) जया सवत्तगं इत्यादि. ज्यारे सर्वलोकव्यापी एवा ज्ञानने तथा दर्शनने जीव पामे बे, ( तया के ) तदा एटले त्यारे ( केवली के०.) केवलज्ञानी थएलो (जिणो के.) जेनां कर्मबंधन तूटी गयां, एवो ते पुरुष (लोगमलोगं च के०) लोकमलोकं च एटले चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोक प्रत्ये अने अनंता अलोक प्रत्ये (जाण के०) जानाति एटले जाणे . चउदरड लोकना वर्ग, मृत्यु अने पाताल एवा त्रण नेद . ते चजदरअ लोक चउदरअप्रमाण . रड एटले शुं ? तो के जो कोश कौतुकी देव हजार मणनो लोहमानो एक गोलो बनावीने तेने सौधर्मे देवलोकथी हे। पृथ्वीउपर नाखे, तो तेने नूमीए, पडतां उ मास, ब दिन अने ब . मुहर्त एटलो काल लागे. ए एक रज थश्. ए रजत्रण प्रकारे . एक ऊर्ध्वरजा, बीजी अधोर, अने त्रीजी तिर्यग्रह. तेमां एक ऊर्ध्वरज्जु मनुष्यलोकथी मामीने सौधर्मे देवलोक सुधी . बीजी ऊर्ध्वरजु माहें देवलोकथी चोथा देवलोकसुधी ने. त्रीजी ऊर्ध्वरङ्गु चोथा देवलोकथी हालांतक देवलोक सुधी . चोथी ऊर्ध्वरजु लांतक. देवलोकथी सहस्रार देवलोक सुधी. पांचमी उर्वरा सहस्रार देवलोकथी अच्युत देवलोक सुधी . ही ऊर्ध्वरा नवग्रैवेयक सुधी . सातमी ऊर्ध्वरा नवग्रैवेयकथी मांमीने सिझशिला सुधी बे. तेमज प्रत्येक नरकपृथ्वी एक एक रअप्रमाणनी गणतां अधोरअ पण सात थई. एवं वे मलीने चौद रज्जु थर. एवीरीतें तिर्य. गुरज्जु पण जाणवी. उदाहरण-जरतदेत्रथी पूर्वपश्चिमना तथा दक्षिण उत्तरना स्वयं २० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. रमणसमुद्र सुधीना प्रदेशनुं प्रमाण पण सिद्धांतथी जावं. एवा चतुर्दशरगुरूप लोकने केवली हाथनी हाथेली उपर रहेला यामलानी परें जाणे वे तथा अनंत लोक पण जाणे बे. ॥ २२ ॥ ( दीपिका . ) यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं च अधिगच्छति । तदा लोकं चतुर्दशरकुरूपमलोकं च अनन्तं जिनो जानाति केवली ॥ २२ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति । तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोकं चानन्तं जिनो जानाति केवली । लोकालोको च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ १२ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाइ केवली ॥ तया जोगे निरुंनित्ता, सेलेसिं परिवज्जइ ॥ २३ ॥ ( अवचूरिः ) तदोचितसमये योगान्निरुद्ध्य मनोयोगादीन् शैलेशीं प्रतिपद्यते न - वोपग्राहि कर्माशयाय ॥ २३ ( अर्थ. ) जया लोगं इत्यादि. ज्यारे पुरुष केवलज्ञानी थइने लोक तथा अलोक प्रत्यें जाणे . ( तथा के० ) तदा एटले त्यारे ( जोगे के० ) योगान् एटले मन वचन कायाना व्यापार प्रत्यें ( निरंजित्ता के० ) निरुध्य एटले रुंधीने नवोपयाही कर्मना कयनेमाटे ( सेलेसिं के० ) शैलेशीं एटले पर्वतनी परें निश्चलपणाने (पमि - व के० ) प्रतिपद्यते एटले प्राप्त थाय बे ॥ २३ ॥ ( दीपिका. ) यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली । तदा उचितसमयेन योगान् निरुय मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते जवोपग्राहि कर्माशदयार्थम् ॥ २३ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति । तदोचितस.मयेन योगान्निरुय मनोयोगादीन् शैलेशीं प्रतिपद्यते जवोपयादिकर्माशयाय ॥ २३ ॥ जया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं परिवकइ ॥ तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छ नीर ॥ २४ ॥ ( अवचूरिः ) तदा जवोपग्राह्यपि कर्म रूपयित्वा सिद्धिं गच्छति लोकान्तदेत्ररूपां नीरजाः सकलकर्मर जो विप्रमुक्तः ॥ २४ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके चतुर्थाध्ययनम् । २३५ ( अर्थ. ) जया जोगं इत्यादि. ज्यारे मन वचन कायाना व्यापार रुंधीने शैलेशी करने पामे बे, ( तथा के० ) त्यारे ( नीरज के० ) नीरजाः एटले कर्मरूप रजे करी रहित को ( कम्मं के० ) कर्म एटले जवोपग्राहि कर्मने ( खवित्ता णं के० ) रूपयित्वा एटले खपावीने ( सिद्धिं के० ) लोकान्त क्षेत्ररूप सिद्धिने ( गइ के० ) गति एटले जाय बे. ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) यदा योगान्निरुध्य शैलेशीं प्रतिपद्यते । तदा कर्म रूपयित्वा सिद्धिं लोकान्तत्ररूपां गछति । किंभूतः । नीरजाः कर्मरजोमुक्तः ॥ २४ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा योगान्निरुद्ध्य शैलेशीं प्रतिपद्यते । तदा कर्म पयित्वा जावोपग्राह्यपि सिद्धिं गछति लोकान्त क्षेत्ररूपाम् । नीरजाः सकलकर्म - रजोविनिर्मुक्तः ॥ २४ ॥ जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छ नीर ॥ तया लोगमचयचो, सिद्धो दवइ सासन ॥ २५ ॥ ( अवचूरिः ) तदा लोकमस्तकस्थः त्रिलोक्युपरिवर्त्ती जवति । शाश्वतः कर्मबी - जाजावात् अनुत्पत्तिधर्म्मा ॥ २५ ॥ ( अर्थ. ) ज्यारे कर्मरजेकरी रहित थको जवोपग्राहि कर्म खपावीने सिद्धि प्रत्ये पामे बे. ( तया के ) तदा एटले त्यारे ( लोग म यो के० ) लोकमस्तकस्थः एटले चतुर्दशरकुलोकना मस्तक उपर एटले सिद्धक्षेत्रे रहेलो पुरुष ( सास के० ) शाश्वतः एटले कर्मरूप बीजना श्रावथी उत्पत्त्यादिरहित माटे नित्य एवो ( सि ० ) सिद्ध ( हवइ के० ) जवति एटले याय बे. ॥ २५ ॥ ( दीपिका . ) यदा कर्म रूपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थत्रैलोक्यस्य परिवर्ती सिद्धो जवति शाश्वतः । कर्मबीजाभावे न पुनरुत्पद्यते ॥ २५ ॥ ( टीका. ) जया इत्यादि । यदा कर्म रूपयित्वा सिद्धिं गछति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः त्रैलोक्योपरिवर्त्ती सिद्धो जवति । शाश्वतः कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधतावः । उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः ॥ २५ ॥ सुहसायगस्स समास्स, सायाजलगस्स निगामसाइस्स || चोलणापदो प्रस्स, अल्लहा सुगइ तारिसगस्स ॥ २६ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) उक्तो धर्मफलाख्यः षष्टोऽधिकारः । सांप्रतं यस्य धर्मफलं पुर्वनं तमाह । सुखाखादकस्य प्राप्तसुखोपनोगिनः श्रमणस्य अव्यप्रबजितस्य शाताकुलस्य नाविसुखार्थं व्याक्षिप्तचित्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामुखय उठोलनया उदकायतनया हस्तपादादिधाविनः उद्योलनाप्रधाविनः उर्वना सुगतिस्तादृशस्य जगवदाझालोपकारिणः ॥ २६ ॥ ... (अर्थ.) अहीं सुधी यतिधर्मर्नु फल कमें करी कह्यु. हवे ए उक्त फल कोने कुर्लन डे ते कहे . सुह इति (सुहसायगस्स के०) सुखाखादकस्य. एटले शब्द, , स्पर्श, रूप, रस, गंध ए पांच विषयथी उत्पन्न यता सुखनो हमेशां उपनोग ले. नार एवा, तथा (सायाउलगस्स के०) शाताकुलस्य एटले नविष्य कालें सुख प्राप्तिने अर्थे चित्तमां आकुल व्याकुल थनारो एवा तथा ( निगामसाश्स्स के ) निकामशा. यिनः एटले सूत्रोक्त कालर्नु उबंधन करीने सुई रहे एवा, तथा (बोलनापहोअस्स के०) उत्सोलनाप्रधाविनः एटले घणुं उदक वापरीने हाथ पग प्रमुखनी शुद्धि राखनार एवा, ( तारिसगस्स के०.) तादृशंस्य एटले पूर्वोक्त प्रकारे जगवदाज्ञानो लोप करनार एवा, ( समणस्स के ) श्रमणस्य एटले अव्य साधुने (सुगर के) सुगतिः ए. टले लोकान्त क्षेत्ररूप गति (उसहा के) मुलना एटले उर्लज . ॥ २६ ॥ (दीपिका.) उक्तो धर्मफलनामा षष्ठोऽधिकारः। अथ धर्मफलस्य दुर्लजत्वमाह। सुखाखादकस्य प्राप्तेषु शब्दरसा दिनोगेषु सुखोपनोगकर्तुः एवंविधस्य श्रमणस्य अव्यतः प्रबजितस्य । पुनः किंनूतस्य श्रमणस्य । शाताकुलस्य जाविसुखार्थं व्याक्षिप्तचित्तस्य । पुनः किंजूतस्य श्रमणस्य । निकामशायिनः । निकाममत्यर्थं सूत्रार्थवेलामतिक्रम्य शयानस्य । पुनः किंन्नूतस्य श्रमणस्य । उत्सोलनया उदकस्य अयतनया प्रकर्षेण धावति पादादिशुकिं करोति यः स तथा तस्य । किं स्यादित्याह । मुर्खना मुष्प्रापा सुगतिः सिद्धिः। तादृशस्य जगवत थाझालोपकारिणः ॥ २६ ॥ (टीका.) सांप्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लजं तमनिधित्सुराह । सुदेति । सुखावादकस्य अनिष्वङ्गेण प्राप्तसुखनोक्तुः श्रमणस्य अव्यप्रवजितस्य शाताकुलस्य नाविसुखार्थ व्यादिप्तस्य निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामप्युबध्य शयानस्य उत्सोलनाप्रधाविन उत्सोलनया उदकायतनया प्रकर्षेण धावति पादादिशुकिं करोति यः स तथा तस्य । किमित्याह । उर्लना दुष्प्रापा सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना तादृशस्य नगवदाकालोपकारिण इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ ...... ........ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ .. . दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । तवोगुणपदाणस्स, उज्जुम खंतिसंजमरयस्स ॥ परीसरे जिणंतस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स ॥२०॥ (अवचूरिः) धर्मफलं यस्य सुलनं तमाह । षष्ठाष्टमादितपोगुणप्रधानस्य मार्गप्रवृत्तबुझेः दान्तिप्रधानसंयमरतस्य परीषहान् जयतोऽनिजवतः सुलना सुगतिस्तादृशस्य जगवदाज्ञाकारिणः ॥ ७॥ . (अर्थ.) हवे, पूर्वोक्त सुगति जेने सुलन थाय ते कहे . ( तवोगुणपहाणस्स के ) तपोगुणप्रधानस्य एटले , अहम इत्यादि तपोगुणेकरी प्रधान, तथा (उडम के०) जुमतेः एटले जेनी मति मोदमार्गने विषे बे एवा तथा( खंतिसंजमरयस्स के०) दांतिसंयमरतस्य एटले जेमां क्षमा प्रधान बे, एवा सत्तर प्रका- ." रना संयमने धारण करनार, तथा (परीसहे जिणंतस्स के०) परीषहान् जयतः एटले दुधातृषादिक परीषहने जीतनार एवा ( तारिसगस्स के०) तादृशस्य एटले एवीरीते जगवंतनी आज्ञा पालन करनार एवा पुरुषने ( सुग के ) सुगतिः एटले मोक्षरूप सुगति ( सुलहा के ) सुखना एटले सुखथी मले एवी . ॥ २७ ॥ (दीपिका.) अथ धर्मफलस्य सुलजतामाह । तादृशस्य नगवत आज्ञाकारिणः सुगतिः सिकिः सुलना सुप्रापा नवति । किंविधस्य तादृशस्य । तपोगुणप्रधानस्य पष्ठाष्टमादितपोगुणवतः। पुनः किंनूतस्य तादृशस्य । जुमतेः मोदमार्गप्रवृत्तबुझेः । पुनः किंजूतस्य । दान्तिसंयमरतस्य । शान्तिप्रधानस्य संयमस्य सेविन इत्यर्थः । पुनः किंजूतस्य । परिषहान् कुत्पिपासादीन् जयतः परानवतः ॥२७॥ (टीका.) श्दानी मिदं धर्मफलं यस्य सुलनं तमाह । तवोगुणेत्यादि । तपोगुण- . प्रधानस्य षष्ठाष्टमादितपोधनवत झजुमतेर्मार्गप्रवृत्तबुझेः दान्तिसंयमरतस्य दान्तिप्रधानसंयमोपसेविन इत्यर्थः । परीषहान् हुत्पिपासादीन् जयतोऽनिवतः सुलना सुगतिरुक्तलदणा तादृशस्य जगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ पहा वि ते पयाया, खिप्पं गति अमरनवणाई॥ जेसि पिन तवो सं-जमो अ खंती अ बंनचेरं च ॥॥ श्वेअंबज्जीवणिअं, सम्मदिछी सया जए॥ उक्ष लहित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विरादिजासि त्तिवेमि॥शए॥ . चन बजीवणिआ पामतयणं सम्मत्तं ॥४॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ रायाँधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-(४३)मा. ( अवचूरिः ) वृद्धत्वे खएिकतचारित्रा श्रपि पुनस्तत्संधानतो ये सन्मार्ग प्रपन्ना स्ते प्रकर्षेण याताः प्राप्ता अमरनवनानि । इत्येषा गाथा वह कृत्तौ नोक्ता ॥ २७ ॥ (अवचूरिः) उपसंहरन्नाह इत्येतां षड्जीवनिकां न विराधयेत् इति योगः। सम्य ग्दृष्टिः सदा यतो यत्नपरः सन् फुर्लनं लब्ध्वा श्रामण्यं कर्मणा मनोवाकायक्रियया प्रमादेन न विराधयेत् न खायेत् इति ब्रवीमि ॥२॥ शति षड्जीवनिकाध्ययनावचूरिः ॥४॥ ... (अर्थ.) हवे, थोडो काल धर्म सेवे, ते पण देवलोकने विषे जाय तेकहे पछावि इति. (जेसिं के०) येषां एटले जे पुरुषने (तवो के०) तपः एटले छादशविः तप, तथा (संजमो अ के०) संयमश्च एटले सत्तर प्रकारनो संयम, तथा वली (खंती के) दांतिश्च एटले क्षमा, वली (बंजचेरं च के) ब्रह्मचर्यं च एटले मैथुनविन मणरूप ब्रह्मचर्य(पिठ के०)प्रियः एटले प्रिय बे. (ते केप) ते पुरुष (पठावि के०) पश्चा दपि एटले पाबले वये पण दीदा लश्ने (पयाया के०) प्रयाताः एटले संयमनी विर धना न करता सन्मार्गे चालता थका (खिप्पं के०) क्षिप्रं एटले शीघ्र (अमरजवणा के ) अमरनवनानि एटले देवताना आवास प्रत्ये (गडंति के०) जाय जे ॥ २७ (अर्थ.) हवे सूत्रकार ए चोथा षड्जीवनिका नामक अध्ययननो उपसंहा करता उता कहे . श्चेश्य मिति. ( सया के० ) सदा एटले निरंतर (जए के यतः एटले जयणा राखनार एवो ( सम्मदिछी के०) सम्यग्दृष्टिः एटले सम्यग् दृष्टि जीव ( उसहं के०) कुर्लनं एटले जे नवेनवे पामवं कुर्लन एवा ( सामन् के०) श्रामण्यं एटले चारित्रने (लनित्तु के० ) लब्ध्वा एटले पामीने (श्च्चेयं के श्त्येतां एटले ए चोथा अध्ययनने विषे कहेली (जीवणिशं के०) षड्जीवनिक एटले षड्जीवनिकायनी जे जयणा तेने ( कम्मुणा के०) कर्मणा एटले मन वचन कायानी क्रियाए करी प्रमादशी (न विराहिलासि के०) न विराधयेत् एटले वि राधे नहीं, खंके नहीं. ॥ २७ ॥ तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ २५ ॥ इति षड्जीवनिकाध्ययननो बालावबोध संपूर्ण. ॥४॥ __ (दीपिका ) महा षड्जीवनिकायिका इति विधिना उपसंहारमाह । पश्चादपि वृ. कावस्थायामपि ते प्रयाताः प्रकर्षेण याता अविरोधितसंयमा अपि सन्मार्ग प्रपन्ना :- अत्र "विराधित संयमा अपि" इति पाठः साधीयानितिभाति । परं स विद्यमानपुस्तकेषु नोपलब्धः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके चतुर्थाध्ययनम् । १३ शीघ्रं गछन्ति अमरजवनानि देवविमानानि । ते के इत्याह । येषां प्रियं तपः संयमः कान्तिः ब्रह्मचर्यं च ॥ २८ ॥ ( दीपिका. ) इति पूर्वप्रकारेण एतां षड्जीव निका विकामधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां न विराधयेत् इति योगः । क इत्याह । सम्यग्दृष्टिर्जीवः सूत्रश्रद्धावान् । किंभूतः । सदा यतः सर्वकालं यतनापरः । किमित्याह । दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं सा - धुत्वं षड्जीव निकायसंरक्षणैकरूपं कर्मणा मनोवाक्काय क्रियया प्रमादेन न विराधये - त् । श्रप्रमत्तस्य तु यद्यपि कथंचित् द्रव्य विराधना स्यात् तथापि सौ न विराधकः 1 एतेन "|| जले जीवाः स्थले जीवा, याकाशे जीवमाविनि ॥ जीवमालाकुले लोके, कथं निकुर हिंसकः ॥" इत्येतत् प्रत्युक्तम् । तथा सूक्ष्मजीवानां विराधनाया अनावाच्च । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २७ ॥ इति श्री समय सुन्दरोपाध्याय विरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ बड्जीव निकाध्ययनम् ॥४॥ ( टीका. ) महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरन्नाह । इच्चेयमित्यादि । इत्येतां षड्जीवनिका विकामधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां न विराधयेदितियोगः । सम्यग्दृष्टिर्जीवस्तत्त्वश्रद्धावान् सदा यतः सर्वकालं प्रयत्नपरः सन् । किमित्याह । डुर्लनं लब्ध्वा श्रामण्यं दुष्प्रापं प्राप्य श्रमणनावं षड्जीव निकायसंरक्षणैकरूपं कर्मणा मनोवाकाय क्रियया प्रमादेन न विराधयेन्न खमयेत् । श्रप्रमत्तस्य तु द्रव्यविराधना यद्यपि कथं चिद् नवति । तथाप्यसाव विराधनैवेत्यर्थः । एतेन ॥ जले जीवाः स्थले जीवा, श्राकाशे जीवमा लिनि ॥ जीवमालाकुले लोके, कथं निर हिंसकः ||१||' इत्येतत्प्रत्युक्तम् । तथासूक्ष्माणां विराधनाजावाच । ब्रवीमीति पूर्ववत् । श्रधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाह नियुक्तिकारः ॥ जीवाजीवा निगमो, यायारो चेव धम्मपन्नत्ती ॥ तत्तो चरित्त धम्मो, चरणे धम्मे एगहा ॥ २५ ॥ व्याख्या ॥ जीवाजीवा निगमः सम्यग्जीवाजीवा जिगमहेतुत्वात् । एवमाचारश्चैवाचारोपदेशत्वात् । धर्मप्रज्ञ तिर्यथाव स्थितधर्मप्रज्ञापनात् । 'ततश्चारित्रधर्मस्तन्निमित्तत्वात् । चरणं चरण विषयत्वात् । धर्मश्च श्रुतधर्मस्तत्सारभूतत्वात् । एकार्थका एते शब्दा इति गाथार्थः । अन्ये त्विदं गाथासूत्रमनन्तरोदितसूत्रFirst व्याख्यानयन्ति । तत्राप्यविरुद्धमेव । उक्तोऽनुगमः । सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं षड्जीव निकाध्ययनम् ॥ २८ ॥ इति श्रीहरिनद्रसूरिकृतौ दशवैका लिकटीकायां चतुर्थाध्ययनम् ॥ ४ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. ॥ अथ पञ्चमाध्ययनम् ॥ संपत्ते निककालंमि, असंनंतो अमुविना इमेण कमजोगेण, नत्तपाणं गवेसए ॥ १॥ (अवचूरिः) अथ पिण्मैषणाख्यपञ्चमाध्ययनावचूरिः। पूर्वाध्ययने साधोराचारः षड्जीवनिकायगोचरःप्राय इत्येतसुक्तम् । सधर्मःकाये सति । स नाहारं विना । स च सावद्येतरनेद इत्यनवद्यो ग्राह्योऽतस्तमेवाह । संपत्ते इति । संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण खाध्यायकरणादिना प्राप्ते निदाकाले । अनेनासंप्राप्ते जक्तपानैषणा निषेधः । अलाजाज्ञाखएकनान्यां दृष्टादृष्टविरोधात् । असंत्रान्तोऽनाकुलः। अमूर्छितः पिएके शब्दादौ वा। अनेन वदयमाणेन क्रमयोगेन परिपाटीव्यापारेण जक्तपानं यतियोग्यमोदनारनालादि गवेषयेदन्वेषयेत् ॥ १॥ ॥ अथ पिंषणाध्ययन नामा पांचमा अध्ययननो बालावबोध प्रारंज. ॥ ( अर्थ.) पूर्वोक्त चोथा अध्ययनमा एम कयु के, साधुनो आचार जे जे ते घणुं करीने बकाय जीव आश्रयी बे. हवे ते आचार साधुनुं शरीर स्वस्थ, रोगाग्रुपवरहित होय तो पाली शकाय, तथा साधुनुं शरीर खस्थ रोगरहित रहे ए घणुं खरं साधुना आहार उपर आधार राखे बे. ते आहारना सावध अने निरवद्य एवा बे नेद . तेमां सावद्य आहार जे जे ते साधुने अत्यंत वर्जनीय बे, अने निरवद्य आहार यथोक्तरीते यथोक्त काले लेवो कल्पे . ते वर्जनीय अने ग्राह्य एवा बे आहारनुं पण साधुने ज्ञान होवु जोश्ये, माटे ए पांचमा पिंषणा नामक अध्ययनमां तेज वात सूत्रकार कहे . पिंक एटले गुडादिक अव्ये करी तैयार करेला श्रननो गोलो तेनी एषणा ते शुद्धि जेमां कही , ते अध्ययनने पिंडेषणा नामक अध्ययन कहे , एवा संबंधी प्राप्त थएला ए पांचमा पिंषणा नामक अध्ययनना प्रथम सूत्रनो अर्थ कहिये. संपत्ते इति. पूर्वोक्त साधु धर्मकायना रक्षण माटे ( निरककालंमि के) निक्षाकाले एटले केवलिजाषित जे निदानो समय ते ( संपत्ते के ) संप्राप्ते एटले स्वाध्यायकरणादिकथी रूमी रीते प्राप्त थये बते. अहीं एवीरीते सिद्धांतमां कडं . जे, साधु पहेले पहोरे ससाय करे, बीजे पहोरे ध्यान धरे, त्रीजे पहोरे नांगोपकरण पमिलेहीने नगर निधूम धए बते पाणी लावनारी स्त्री . पाठी गए गते, अन्नना दाणा प्रमुख खावाने अर्थे काकादिक नीबारे आवे उते, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् ।, ... २४१ एवां लक्षण होय तो निदाकाल प्राप्त थयो जाणीने (असंनंतो के०) असंत्रांतः एटले अनाकुल अर्थात् सारो उपयोग दश्ने आकुलव्याकुलपणुं मूकीने ( अमुबि के०) अमूर्जितः एटले आहारनी वांबा अथवा शब्दादि विषय उपर आसक्ति न करतो (श्मेण कमजोगेण के ) अनेन क्रमयोगेन एटले आगल कहेवाशे ते अनुक्रमे करी (जत्तपाणं के) नक्तपानं एटले यतिने योग्य एवा उंदनादिक अन्ननी अने आरनालादिक पाननी (गवेसए के०) गवेषयेत् एटले गवेषणा करे.॥१॥ (दीपिका.) श्ह पूर्वाध्ययने साधोराचारः कथितः । स च आचारः कायस्य सति स्वास्थ्ये जवति । स्वस्थ्यं च आहारं विना न भवति । स च आहारः शुशो ग्राह्यः । ततोऽनेन संबन्धेन आयातमिदमध्ययनमाहारशुद्धिप्रतिपादकम् । व्याख्यातं तच्चेदम् । एवंविधः साधुक्तपानं गवेषयेत् । यतीनां योग्यमोदनारनालमन्वेषयेत् इत्यु क्तिः । क सति । निदाकाले निदासमये संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते सति । किंनूतः साधुः । असंत्रान्तः अनाकुलः। यथाविधि उपयोगादि कार्यं कृत्वा । पुनः किंजूतः साधुः । अमूर्जितो न शब्दादिविषयेषु पिएमे वा मूर्बितः । पुनः किंनूतः साधुः। अगृको न पिएमादौ आसक्तः । अनेन वदयमाणलक्षणेन क्रमयोगेन परिपाटीव्यापारेण ॥१॥ (टीका) अधुना पिएसैषणाख्यमारज्यते । अस्यायमनिसंबन्धः । श्हानन्तराध्ययने साधोराचारः षम्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्येतयुक्तम् । इह तु “धर्मकाये सत्यसौ वस्थे सम्यक्पाल्यते । स चाहारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न नवति । स च सावयेतरनेद श्त्यनवद्यो ग्राह्य” इत्येतजुच्यते।उक्तं च ॥ से संजए समकाए, निरवद्याहारि जे विज ॥ धम्मकायहिए सम्मं, सुहजोगाण साहए ॥ इत्यनेनानिसंवन्धेनायातमिदमध्ययनम् । नङ्गयन्तरेणैतदेवाह नाष्यकारः॥ मूलगुणा वरकाया, उत्तरगुणवसरेण आयायं ॥ पिंमलयणमियाणिं, निकेवे नामनिप्पन्ने ॥ मूलगुणाः प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः। व्याख्याताः सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने । ततश्चोत्तरगुणप्रस्तावेनायातमिदमध्ययनम् इदानीं यत्प्रस्तुतम् । इह चानुयोगधारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निदेपः । तथाचाह निदेपे नामनिष्पन्ने । किमित्याह । पिंको अ एसणा य, उपयं नामं तु तस्स नायवं ॥ चउ चउ निकेवेहिं, परूवणा तस्स कायवा ॥ एएए ॥ व्याख्या ॥ पिण्मश्चैषणा च । छिपदं नाम तु विपदमेव विशेषानिधानम् । तस्योक्तसंवन्धस्याध्ययनस्य ज्ञातव्यम्। चतुश्चतुर्निदेपान्यां नामादिलक्षणान्यां प्ररूपणा तस्य पदध्यस्य कर्तव्येति गाथार्थः । अधिकृतप्ररूपणामाह। ३१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ राय धनपतसिंघ बहाडरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. । I ॥ नामं ववणा पिंको, दवे जावे य होइ नायवो ॥ गुलणार दवे, नावे को हाइया चउरो ॥ ३०० ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापनापिएको द्रव्ये जावे च जवति ज्ञातव्यः । पिएफ शब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । नामस्थापने कुसे । द्रव्य पिएकं त्वाह । गुमौदनादिव्यपिएमः | जावे क्रोधादयश्चत्वारः पिएका इति गाथार्थः । अत्रैवान्वर्थमाह ॥ पिढि संघा जम्हा, ते उश्या संघया य संसारे ॥ संघाययंति जीवं, कम्मेण उप्पगारे ॥ ३० ॥ व्याख्या ॥ पिडि संघाते धातुरिति शब्दवित्समयः । यस्मात् क्रोधादय उदिताः सन्तो विपाकप्रदेशोदयाच्यां संहता एव संसारिणं संघातयन्ति । जीवं योजयन्तीत्यर्थः । केनेत्याह । कर्मणाष्टप्रकारेण ज्ञानावरणीयादिना । अतः क्रोधादयः पिएक इति गाथार्थः । प्ररूपितः पिएमः । सांप्रतमेषणावसरः । तत्र दुसत्वान्नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यैषणामाह || दवेसणा उ तिविहा, सचित्ता चित्तमी सदवाणं ॥ डुपयचउप्पयाप या, नरंगयक रिसावणडुमाणं ॥ ३०२ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्यैषणा तु त्रिविधा भवति । सचित्ता चित्त मिश्र द्रव्याणामेषणा द्रव्यैषणा । सचित्तानां द्विपदचतुष्पदापदानां यथासंख्यं नरगजडुमाणामिति । कार्षापणग्रहणाद चित्तद्रव्यैषणालंकृत द्विपदा दिगोचर मिश्रद्रव्यैषणां च द्रष्टव्येति गाथार्थः । जावैषणामाह ॥ नावेसणा उ डुविहां, सब अपसवंगा य नायवा ॥ नापाईए पसा, अपसवा को माईणं ॥ ३०३ ॥ व्याख्या ॥ तुविधा । प्रशस्ता प्रशस्ता च ज्ञातव्या । एतदेवाह । ज्ञानादीनामिति । ज्ञानादीनामेषणा प्रशस्ता । क्रोधादीनामप्रशस्तैषणेति गाथार्थः । प्रकृतयोज - नामाह || जावस्सुवगारित्ता, एवं दवेसणार अहिगारो ॥ तीइ पुए जुत्ती, वत्तवा पिंमनित्ती ॥ ३०४ ॥ व्याख्या || जावस्य ज्ञानादेरुपकारित्वादत्र प्रक्रमे द्रव्यैषणायाधिकारः । तस्याः पुनव्यैषणाया अर्थयुक्तिर्हेयेतररूपार्थयोजना वक्तव्या पिएम नियुक्तिरिति गाथार्थः । सा च पृथक्स्थापनतो मया व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते । अधुना प्रकृताध्ययनावतारप्रपञ्चमाह || पिंकेंसणा सहा, संखेवेणोयर नवसु कोमीसु ॥ न हराइ न पयश् न किएइ, कारवणणुमईहि नव ॥ ३०५ ॥ व्याख्या ॥ पिंषणा च सर्वा उनमा दिनेदभिन्ना संदेपेणावतरति नवसु कोटिषु । ताश्वेमाः । नहन्ति, न पचति, न क्रीणाति स्वयम् । तथा न घातयति न पाचयति न कापयत्यन्येन । तथा नन्तं वा पचन्तं वा क्रीतं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव । एतदेवाह । कारणानुमतिज्यां नवेति गाथार्थः ॥ सा नवदा डुह कीर, उग्गमकोमी वि सोहिकोमी ॥ बसु पढमा उयर, कीय तियम्मी विसोही उ ॥ ३०६ ॥ व्याख्या ॥ सा नवधा स्थिता पिषणा द्विविधा क्रियते । उगमकोटी विशोधिकोटी च । तत्र पट्सु हननधातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमोजमकोटी अविशोधिकोट्याम Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २४३ वतरति । क्रीतत्रितये क्रयणक्रायणानुमतिरूपे विशोधिस्तु विशोधिकोटी द्वितीये ति . गाथार्थः । एतदेव व्याचिख्यासुराह जाष्यकारः ॥ कोमीकरणं डुविहं, जग्गमकोमी विसोहिकोमी ा ॥ उग्गमकोमी बक्क, विसोहिकोमी गविहा ॥ ३०७ ॥ व्याख्या ॥ कोटी करणमिति । कोट्येव कोटी करणम् । द्विविधमुमकोटी विशोधिकोटी च । उheat हननादिनिष्पन्नमाधाकर्मादि । विशोधिकोटी क्रीतत्रितय निष्पन्ना। अनेकथा उधौदेशिका दिनेदेनेति गाथार्थः । पट्कोट्याह ॥ कम्मुद्दे सिचरिमतिगं, पूश्यं मीसच रिमपाहु मिश्रा ॥ झोयरा विसोही, विसोहि कोमी जवे सेसा ॥ ३०८ ॥ व्याख्या ॥ कर्म संपूर्णमेव । औदेशिकचरम त्रितयं । कर्मोंद्दे शिकस्य । पाखएकश्रमण निर्ग्रन्थ विषयं । पूति जक्तपानपूत्येव । मिश्रग्रहणात्पाख एकड श्रमण निर्ग्रन्थ मिश्रजम् । चरमप्रानृतिका बादरेत्यर्थः । अध्यवपूरक इत्यविशोधिरित्येतत्ष्टुं । विशोधिकोटी नवति शेषा घोघौदेशिका दिनेद जिन्नानेक विधेति गाथार्थः । इदैव रागादियोजनया कोटी संख्यामाह ॥ नव चेवहारसगा, सत्तावीसा तदेव चउपन्ना || नजई दो चैव सया, सत्तरा हुंति कोमीणं ॥ ३० ॥ रागाई मिठाई, रागाई समणधम्मनालाई || नव नव सत्तावीसा, नवनई एय गुणगारा ॥ ३१० ॥ व्याख्या ॥ नव चैव कोट्यस्तथाष्टादशकं कोटीनां तथा सप्तविंशतिः कोटीनां तथैव चतुःपञ्चाशत्कोटीनां तथा नवतिः कोटीनां द्वे एव च शते सप्तत्यधिके कोटीनामिति गाथारार्थः । जावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः । सचायम् । णव कोमी दोहिं रागद्दोसेहिं गुणिया अहारस हवंति । ता चैव नवतिहिं मिछत्ताणाच्यविरती हिं गुणिता सत्तावीसं हवंति । सत्तावीसा रागदोसेहिं गुणिया चप्पन्ना हवंति । ताउ चेव एव दस विदेष समणधम्मेण गुण - विसुद्धा ती जवंति । सा उती तिहिं नापदंसणचरितेहिं गुणिया दो सया सत्तरा जयंतीति गाथार्थः । उक्तो नाम निष्पन्नो निदेपः । सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसरः । इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तचेदम् ॥ संपत्ते सिलोगो । अस्य व्याख्या । संप्राप्ते शोजनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते निक्षाकाले निकासमये । अनेनासंप्राप्ते जक्तपानैषणाप्रतिषेधमाह । अलानाज्ञाखएमनाच्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति । अत्रान्तोऽनाकुलो यथावडुपयोगादि कृत्वा नान्यथेत्यर्थः । अमूर्जितः पिएके शब्दादिषु वा गृद्धो विहितानुष्ठानमिति कृत्वा न तु पिमादावेवासक्त इति । अनेन वक्ष्यमाणलक्षणेन क्रमयोगेन परिपाटी व्यापारेण । जक्तपानं यतियोग्यमोदनारनालादि गवेषयेदन्वेपयेदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शव राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गग मुणी॥ चरे मंदमणुविग्गो, अबस्कित्तेण चेअसा ॥२॥ (अवचूरिः) यत्र यथा गवेषयेत्तदाह । स इत्यसंत्रान्तोऽमूर्छितो ग्रामे वा नगरे वा । उपलदणत्वात्कर्बटादौ वा । गोचराग्रगतो मुनिः। गौरिव चरणं गोचर उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्याटनम् । अग्रः प्रधानः अंच्याहृताधाकर्मादित्यागेन तातस्तही गत् मन्दं । अलानानिष्टलानादावनुदिन्नः प्रशान्तः परीषहादिन्योऽविन्यत् । अव्यादितेन चेतसा ॥२॥ . (अर्थ.) हवे आहारनी गवेषणा केवीरीते अने क्या करवी ते कदे . से गामे इति. (मुणी के०) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (गामे वा के० ) ग्रामे वा एटले न्हाना गाममां अथवा ( नगरे वा के० ) मोटा नगरमां उपलदणथी खेट, कर्वट, घोणमुखादिकने विषे ( गोयरग्गगर्ड के०) गोचरायगतः, गौरिव चरणं गोचरः एटले गायनी पेठे उत्तम, मध्यम, अधमकुलनो विचार न करता तथा सरस आहार ज. पर प्रीति अने नीरस आहार उपर अप्रीति न करतां जे आहारार्थ गमन करतुं तेने गोचर कहिये. ते वली गायनी चर्याथी साधुनी चर्यामां आधाकर्मा दिकना त्यागनो विचार वधारे , माटे ए गोचर जे जे ते अग्र एटले प्रधान ने. अर्थात् श्रेष्ठ गोचरीए गत एटले गएलो एवो (मुणी के) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (अणुविग्गो के० ) अनुछिन्नः एटले प्रशांत बतो ( अवस्कित्तेण के ) अव्यादिप्तेन एटले शब्दादि विषय उपर नहीं गएला एवा ( चेअसा के०) चेतसा एटले मने करी युक्त उतो ( मंदं के ) हलवे हलवे उपयोग दश्ने (चरे के) चरेत् एटले गमन करे. ॥२॥ .. (दीपिका.) यत्र यथा गवेषयेत्तथाह । सः असंत्रान्तोऽमूर्बितो मुनिः चरेत् गजेत् । परं मन्दं शनैः न चुतम् । कुत्र चरेत् । ग्रामे वा नगरे वा । उपलदाणत्वात् कर्बटादौ वा। किंचूतो मुनिः। गोचराग्रगतः । गौरिव चरणं गोचर उत्तममध्यमाधमकुलेषु रागोषौ त्यक्त्वा निदाटनम् । अग्रः प्रधान आधाकर्मादिदोषरहितस्तजतस्तही । किंनूतो मुनिः। अनुछिन्नः न उद्विग्नः प्रशान्तः परीषहादियो न जयं कुर्वन्नित्यर्थः । केन । चेतसा चित्तेन । किंजूतेन चेतसा । अव्यादिप्तेनाहारस्यैष_णायामुपयुक्तेनोपयोगवतेत्यर्थः॥२॥ .. ... ... .. . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : .. दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम् । (टीका.) यत्र यथा गवेषयेत्तदाह । से इत्यादि सूत्रम् । व्याख्या। से श्त्यसंत्रान्तोऽमूतिः। ग्रामे वा नगरे वा । उपलदणत्वादस्य कर्वटादौ वा । गोचराग्रगत इति । गौरिव चरणं गोचर उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तहिष्टस्य निदाटनम्।अग्रःप्रधानोऽन्याहृताधाकर्मादिपरित्यागेन तमतस्तही मुनि वसाधुश्चरेत् । मन्दं शनैः शनैर्न सुतमित्यर्थःअनुहिनःप्रशान्तः परीषहादिन्योऽबिन्यत् । अव्यादिप्तेन चेतसा । वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन चेतसान्तःकरणेन । एषणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः॥२॥ पुरन जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे॥ वऊतो बीअहरिया, पाणे अ दगमहिअं॥३॥ ___ (अवचूरिः) यथा गवेषयेत्तदाह । पुरतोऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटोर्ध्वस्थया। दृष्टयेति शेषः । प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् महीं जुवं चरेद्यायात् । वर्जयन् वीजहरितानि।प्राणिनो छींजियादीन् उदकं मृत्तिकां च। चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः॥३॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त सूत्रमा गोचरीए जq एम कडं. हवे ते केवी रीते गमन कर, - ते कहे . पुर इति. पूर्वोक्त नावसाधु (पुर के) पुरतः एटले आगल (जुगमायाए के०) युगमात्रया एटले धूसरा प्रमाण, शरीरप्रमाण अर्थात् साडा त्रण हाथ प्रमाण दृष्टिए करी (पेहमाणो के०) प्रेदमाणः एटले जोतो तो तथा (बीअहरियार के) बीजहरितानि एटले बीज ते धान्य प्रमुख होय तेने अने हरित ते हरितकाय जीव होय तेने तथा ( पाणे के ) प्राणिनः एटले कीडी प्रमुख त्रस जीव होय तेने तथा ( दगमहिझं के ) उदकमृत्तिकां एटले उदक ते अप्कायजीव अने मृत्तिका ते पृथ्वीकाय जीव तेने ( वजंतो के०) वर्जयन् एटले वजतो, परिहरतो बतो ( महिं के) महीं एटले पृथ्वीउपर (चरे के०) चरेत् एटले गमन करे. एरीते अहीं संयमविराधनानो परिहार कह्यो. ॥३॥ __(दीपिका.) अथ यथा चरेत्तथैवाह । एवं विधः सन् मुनिर्महीं चरेत् यायात् । परं न शेषदिशां विलोकनेनेति शेषः । किं कुर्वाणः । पुरतोऽयतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया। दृष्टयेति शेषः।प्रेक्षमाणः प्रकर्षेण पश्यन् । पृथिवीं प्रेदमाण एव केवलं न । किंतु वीजहरितानि परिहरन् । पुनः प्राणिनो हीन्डियादीन् पुनरुदकमप्कायं पुनर्मूत्तिकां पृथ्वीकायम् । चशब्दात् तेजोवायू च परिहरन् । इति संयमविराधनायाः परिहारः कथितः॥३॥ . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३) मा. (टीका.) यथा चरेत्तथैवाह । पुरतो इति सूत्रम् । पुरतोऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमाणया शकटोर्ध्वसं स्थितया । दृष्टयेति वाक्यशेषः । प्रेक्षमाणः प्रकर्षण पश्यन् । मही जुवं चरेद्यायात् । केचिन्नेति योजयन्ति । न शेषदिगुपयोगेनेति गम्यते । न प्रेदमाण एव । अपितु वर्जयन् परिहरन् वीजहरितानीति । अनेनानेकनेदस्य वनस्पतेः परिहारमाह । तथा प्राणिनो हीन्छियादीन् । तथोदकमकायम् । मृत्तिकां च पृथिवी. कायम् । चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः । दृष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलव्धावपि प्रवृत्तितो र. कणायोगान्महत्तरया तु देशविप्रकर्षणानुपलब्धेरिति सूत्रार्थः ॥ ३॥ वायं विसमं खाणुं, विजलं परिवज्जए॥ संकमेण न गबिज्जा, विङमाणे परकमे॥४॥ (अवचूरिः ) उक्तः संयम विराधनापरिहारः । आत्मसंयमविराधनापरिहारमाह। अवपातं गर्त्तादिरूपं, विषमं निम्नोन्नतं, स्थाएं कीलकं, विजलं विगतजलं कर्दमं परिवर्जयेत् । संक्रमेण जलग दिपरिहाराय पाषाणकाष्ठादिरचितेन न गछेत् । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्गे । तदनावे कार्यमाश्रित्य यत्नेन तत्रापि गत् ॥ ४॥ (अर्थ.) हवे पोतानी अने संयमनी रदा कहे . पूर्वोक्त साधु (वायं के) अवपातं एटले गर्तादिक, (विसमं के) विषमं एटले उच्च नीच मार्गप्रत्ये ( खाएं के) स्थाणुं एटले ऊंचा उन्ना राखेला स्तंजने अथवा खीलाने, तथा ( विजलं के) विजलं एटले जेमां जल नथी एवा कादवने (परिवजाए के) परिवर्जयेत् एटले वर्जे, परिहरे. तेमज ( परकमे के०) पराक्रमे एटले अन्य मार्ग (विजमाणे के) विद्यमाने एटले विद्यमान होय तो ( संकमेण के ) संक्रमेण एटले नदी विगेरे उतरी जवा माटे जे काष्ठ पाषाणादिक राखे , पाज बांधे बे, तेने संक्रम कहियें, ते संक्रमे करी (न गबिजा के०) न गछेत् एटले गमन करे नहीं. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथ आत्मसंयमयोध्योर्विराधनापरिहारमाह । साधुः एतत्सर्वं परिवर्जयेत् परिहरेत् । एतत्किमित्याह। अवपातं गर्तादिरूपं, विषमं नीचोन्नतस्थानं, स्थाणुमूर्ध्वकाष्ठं, विजलं विगतजलं कर्दमम् । पुनः साधुः संक्रमेण जलगांदिपरिहारार्थं पाषाणकाष्ठरचितेन कृत्वा न गछेत् । कथमात्मसंयमयोध्योर्विराधनायाः संजवात् । अपवादमार्गमाह । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्गे सतीत्यर्थः । असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गछेत् ॥४॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। . २४७ (टीका.) उक्तः संयमविराधनापरिहारः। अधुनात्मसंयमविराधनापरिहारमाह। उवायमिति सूत्रम्।अवपातं गर्तादिरूपं, विषमं निम्नोन्नतं, स्थाणुमूर्ध्वकाष्ठं, विजलं वि. गतजलं कर्दमं परिवर्जयेत् । एतत्सर्वं परिहरेत् । तथा संक्रमेण जलगर्तापरिहाराय पाषाणकाष्ठरचितेन न गछेत् । आत्मसंयमविराधनासंजवात् । अपवादमाह । विद्यमाने पराक्रमे अन्यमार्ग इत्यर्थः । असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गछेदिति सूत्रार्थः॥४॥ पवमंते व से तब, पकलंते व संजए॥ हिंसेज पाणनूया, तसे अज्ज्व थावरे ॥५॥ (अवचूरिः) अवपातादौ दोषमाह । प्रपतंश्चासौ तत्रावपातादौ प्रस्खलन्वा संयतः साधुर्हिस्यात् प्राणिनूतानि । प्राणिनो बीजियादयः । नूतान्येकेन्द्रियाः । त्रसानथ स्थावरान्वा प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुनयविराधनेति ॥५॥ (अर्थ.) हवे, गर्तादिमार्गे जतां शुं दोष थाय ते कहे . पवते इति. ( से के ) असौ एटले ए ( संजए के ) संयतः एटले संयमी एवो जावसाधु ( तब के) तत्र एटले ते गांदिकने विषे (पवते व के०)प्रपतन् वा एटले पडतो बतो अथवा (परकलंते व के) प्रस्खलन् वा एटले स्खलन पामतो तो (पाण नूया के ) प्राणभूतानि एटले प्राणी ते बेंजियादिक तथा नूत ते एकेडियादिक अने ( तसे के ) सान् एटले त्रस जीव प्रत्ये ( अमुव के ) अथवा (थावरेके०) स्थावरान् एटले स्थावर जीव प्रत्ये (हिंसेज के) हिंस्यात् एटले हणे. ॥ ५ ॥ (दीपिका.) अथ अवपातादौ दोषमाह । एवं कुर्वन् साधुः प्राणिनूतानि हिंस्यात् । प्राणिनो हीन्यादीन् नूतानि एकेन्द्रियादीनिति । एतदेवाह । सान् अथवा स्थावरान् प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुजय विराधना ज्ञातव्या ॥५॥ (टीका.) अवपातादौ दोषमाह । पवतेति सूत्रम् । व्याख्या । प्रपतन्वासौ तत्रावपातादौ गर्तादौ प्रस्खलन्वा संयतः साधुर्दिस्याट्यापादयेत् प्राणिनूतानि । प्राणिनो हीन्जियादयः नूतान्येकेन्द्रियाः । एतदेवाह । सानथवा स्थावरान्प्रपातेनात्मानं चेत्येवमुजय विराधनेति सूत्रार्थः ॥ ५॥ तम्हा तेण न गबिजा, संजए सुसमाहिए ॥ स अन्नेण मग्गेण, जयमेव परकमे॥६॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. ( श्रवचूरिः ) तस्मात्तेनावपातादिमार्गेण न गच्छेत् । संयतः सुसमाहितो जगवदाज्ञावर्ती । सत्यन्यस्मिन् समादौ मागें । वान्दसत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया । श्रसति तेनैव मार्गेण यतमेव पराक्रमेत् गच्छेत् ॥ ६ ॥ ( अर्थ. ) तम्हा इति. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( संजए सुसमाहिए ho ) संयतः सुसमाहितः एटले समाधिवंत तथा जगवंतनी आज्ञा प्रमाणे चालनारो एवो ते संयमी साधु ( अन्ने मग्गेण के० ) अन्यस्मिन् मागें एटले बीजो मार्ग ( सइ के० ) सति एटले बतां ( ते के० ) तेन एटले ते पूर्वोक्त यवपाता दि (ना के० ) न गच्छेत् एटले गमन न करे. पण वीजो मार्ग नहीं होय तो ( जयमेव के० ) यतमेव एटले जीवनी जयणा राखीनेज अवपातादिमार्गे करी ( परक्कमे के० ) पराक्रमेत् एटले गमन करे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) यतश्चैवं ततः किं कार्यमित्याह । संयतः साधुः तस्मात्कारणात् तेन अवपातादिमार्गेण न गच्छेत् । किंभूतः संयतः । सुसमाहितो भगवत आज्ञावर्ती । क सति । अन्यस्मिन् मार्गे सति । अत्र सूत्रत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया विभक्तिः । अपवादमाह । श्रसत्यन्यस्मिन्मार्गे तु तेनैवावपातादिना यतमेव यत्नेन आत्मसंयमयोर्विराधनायाः परिहारेण यायादिति ॥ ६ ॥ ( टीका.) यतश्चैवम् तम्हा सूत्रम् । व्याख्या । तस्मात्तेनावपातादिमार्गेण न गच्छेत् संयतः सुसमाहितो जगवदाज्ञावतीत्यर्थः । न गच्छेन्न यायात् । सत्यन्येनेत्यन्यस्मिन् समादौ । मार्गेणेति मार्गे । बान्दसत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया । असति त्वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना यतमेव पराक्रमेत् । यतमिति क्रियाविशेषणम् । यतमात्मसंयम विराधनापरिहारेण यायादिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ इंगालं बारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं ॥ ससरखेदि पाएदि, संजन तं नइक्कमे ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) विशेषतो मार्गे पृथ्वी काययतनामाद | अङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारराशिं कारराशिं तुषराशिं गोमयराशिं च । राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । सरजकाच्या सचित्त पृथ्वीगु किताच्यां पद्भ्यां संयतः साधुः तं राशिं नाक्रामेत् ॥ ७ ॥ ( अर्थ. ) हवे, गोचरी जतां विशेषे करी पृथ्वीकायनी जयणा राखवी ते कहे बे. इंगालं इति । ( संजए के० ) संयतः एटले पूर्वोक्त जावसाधु ( इंगालं के० ) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २४० गारं एटले अंगारना (रासिं के० ) राशि एटले राशि प्रत्ये, ( बारियं राशि के० 50 ) कारराशिं एटले राखना राशि प्रत्ये, (तुसरा सिं के० ) तुषराशिं एटले तुष ते फोतरां, तेना राशि प्रत्ये, तथा ( गोमयं के० ) गोमयं एटले बाणना राशि प्रत्ये ( ससररके हिं के० ) सरजस्कान्यां एटले रजे करी सहित एवा ( पाएहिं के० ) पादायां एटले वे पगेकरी (नक्कमे के० ) नाक्रमेत् एटले याक्रमे नहीं, चांपे नहीं. ॥ ७ ॥ (दीपिका) व विशेषतः पृथिवी काययतनामाह । संयतः साधुः । अङ्गाराणामयमाङ्गारः । श्रङ्गारं राशिं सरजस्कायां सचित्तपृथिवीरजोगु किताच्यां पादाच्यां नाक्रमेत् । यतस्तस्याक्रमणे सचित्तपृथिवीरजोविराधना भवेत् । एवं राशिशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् कारराशिं तुषराशिं गोमयराशिं च सरजस्कपादाभ्यां नाक्रमेत् ॥ ७ ॥ ( टीका. ) अत्रैव विशेषतः पृथिवी काययतनामाह । इंगालमिति सूत्रम् । आङ्गारमिति । श्रङ्गाराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गारं राशिम् । एवं कारराशिं तुषराशिं च गोमयराशिं च । राशिशब्दः प्रत्येकम जिसंबध्यते । सरजस्कान्यां पयां सचित्तष्टथिवीरजोगु किताच्यां पादाभ्यां संयतः साधुस्तमनन्तरोदितं राशिं नाक्रमेत् । मानूपृथिवीरजोविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ न चरेऊ वासे वासंते, महियाए पतिए ॥ मदावार व वायंते, तिरिचसंपाइमेसु वा ॥ ८ ॥ ( अवचूरिः ) अम्बुयतनां मार्ग आह । न चरेद्वर्षे वर्षति । निक्षार्थं प्रविष्टो वर्षणे तु प्रछन्ने तिष्ठेत् । मिहिकायां वा पतन्त्यां महावाते वा सति वाति । तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक् संपाताः पतङ्गादयस्तेषु वा सत्सु ॥ ८ ॥ 10 ( अर्थ. ) हवे, गोचरी जतां अष्कायनी रक्षा करवी, ते कहे बे. न चरेज इति. पूर्वोक्त साधु ( वासे के० ) वर्षे एटले वर्साद ( वासंते के० ) वर्षति एटले वरसते ते तथा ( o ) वा एटले अथवा ( महियाए के० ) मिहिकायां एटले धूंरी ( पती के० ) पतंत्यां एटले पडते बते, अथवा महावार व के० ) महावाते वा एटले मोटो पवन ( वायंते के० ) वाति एटले वाते बते अर्थात् घणी रज जमते बते, अथवा (तिरिव संपामे के० ) तिर्यक् संपाते एटले तिरठी गति वाला पतंगादिक उडते ते ( न चरेऊ के० ) न चरेत् एटले गोचरीने माटे गमन करे नहीं. ॥ ८ ॥ ३२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस-(४३)-मा... (दीपिका.) अथाप्काया दियतनामाह । साधुर्वर्षे वपति न चरेत् । पूर्व निदार्थ प्रविष्टोऽपि वर्षे वर्षति प्रबन्नस्थाने तिष्ठेत् । तथा मिहिकायां वा पतन्त्यां न चरेत् । सा च मिहिका प्रायो गर्नमासेषु नवति । तथा महावाते वाति सति न चरेत् । अन्यथा महावातेन समुत्खातस्य सचित्तरजसो विराधना नवेत् । तथा तिर्यक् संपतन्तीति तिर्यक्संपाताः पतङ्गादयः। तेषु सत्सु वा न चरेत् ॥ ७॥ (टीका.) अत्रैवाप्कायादियतनामाह । न चरेजत्ति सूत्रम् । न चरेक वर्षति । निदार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रबन्ने तिष्ठेत् । तथा मिहिकायां पतन्त्याम् । सा च प्रायो गर्जमासेषु पतति । महावाते वा वाति सति । तत्खातरजोविराधनादोषात्। तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यक्संपाताः पतङ्गादयः। तेषु वा सत्सु कचिदश निरूपेण न चरेदिति सूत्रार्थः॥७॥ न चरेड वेससामंते, बंनचेरवसाणुए ॥ बंनयारिस्स दंतस्स, दुजा तब विसुत्तिा ॥ए॥ (अवचूरिः) उक्ताद्यबतयतना। तुर्यव्रतयतनोच्यते । न चरेद्वेश्यासामन्ते गणिकाग्रहसमीपे ब्रह्मचर्यवशानयने । ब्रह्मचर्यं वशमानयत्यायत्तं करोति दर्शनादेपादिना ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । दोषमाह । ब्रह्मचारिणः साधोर्दान्तस्येन्डियनोन्डियदमाच्या नवेत्तत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका तद्रूपदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः। ज्ञानश्रद्धाजलोज्जनेन संयमसस्यशोषफला चित्तवि क्रिया ॥ ए॥ (अर्थ.) एम प्रथमव्रतनी यतना कही. हवे गोचरी जतां साधुए चतुर्थव्रत जे ब्रह्मचर्य तेनी रदा करवी ते कहे . पूर्वोक्त साधु (बंजचेरवसाणुए के०) ब्रह्मचविसानके एटले जेथी ब्रह्मचर्यनुं अवसान एटले अंत थाय एवा अथवा ब्रह्मचर्यवशानयने एटले जे ब्रह्मचर्यने दर्शनादेपथी वश करे, अर्थात् ते ब्रह्मचर्यनो नाश करे एवा (वेससामंते के०) वेश्यासामंते एटले वेश्या ज्यां रहे डे त्यांना आसपासना प्रदेशमा (न चरेज के०) न चरेत् एटले गमन करे नहीं. कारण के, ( तब के० ) तत्र एटले ते वेश्याना रहेवाना प्रदेशमा ( दंतस्स केu) दांतस्य ए. टले जितेंजिय एवा तथा ( बंजयारिस्स के०) ब्रह्मचारिणः एटले मैथुनविरमणरूप ब्रह्मचर्यना पालनार एवा साधुने ( विसुत्तिया के) विस्रोतसिका एटले संय-- मरूप धान्यने सुकावनार एवो मनोविकार ( हुजा के० ) नवेत् एटले थाय के. एनुं तात्पर्यः-वेश्यानुं रूपादिक जोश्ने तेना अपध्यानयी ज्ञानश्रझारूप जल ग Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २५१ ली जाय, तेथी संयमरूप फलने सूकावनारो चित्तविकार रूप रोग थाय बे, माटे गोचरी जतां वेश्यानुं सांनिध्य अवश्य वर्ज. ॥ ए ॥ ( दीपिका. ) उक्तैवं प्रथमत्रतयतना । सांप्रतं चतुर्थव्रतस्य यतनोच्यते । एवंविधः साधुः वेश्यासामन्ते गणिकागृहसमीपे न चरेन्न गच्छेत् । किंविशिष्टे वेश्यासामन्ते । ब्रह्मचर्यवशानयने ब्रह्मचर्यं मैथुनविरतिरूपं वशमानयति श्रायत्तं करोति दर्शना के पादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । को दोषस्तत्र गमनत इत्यत श्राह । ब्रह्मचारिणः साधोदन्तस्य इन्द्रियनोइन्द्रियदमान्यां नवेत्तत्र वेश्यासामन्ते विस्रोसिका । कथम् । तडूपदर्शनस्मरणेन अशुभध्यानकचवर निरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्जनेन संयमसस्यशोषफला चित्तविक्रिया जवति ॥ ए ॥ ( टीका. ) उक्ता प्रथमत्रतयतना । सांप्रतं चतुर्थत्रतयतनोच्यते । न चरेजत्ति सूत्रम् । न चरेद्वेश्यासामन्ते न गच्छेणिकागृहसमीपे । किंविशिष्ट इत्याह । ब्रह्मचर्यवशा नयने । ब्रह्मचर्यं मैथुनविरतिरूपं वशमानयत्यात्मायत्तं करोति दर्शनादेपा दिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् । दोषमाह । ब्रह्मचारिणः साधोर्दान्तस्य इन्द्रियनोइन्द्रियदमाच्यां वेदत्र वेश्यासामन्ते विस्रोतसिका तड़पसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवर निरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोप्रनेन संयमस्यस्यशोषफला चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ प्रणाय चरंतरस, संसग्गीए अनिकणं ॥ दु वयाणं पीला, सामन्नंमि संस ॥ १० ॥ ( अवचूरिः ) एष सकृच्चङ्क्रमणदोषोऽसकृच्चरणे तमाह । अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतः संसर्गेण संबन्धेनानीक्ष्णं पुनः पुनः नवेहूतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा । तदाक्षिप्तचेतसो नावविराधना । श्रामण्ये च संशयः । कदाचि - निष्क्रामति । अनुपयोगेपणादणे हिंसनम् । गुरुप्रश्नेऽपलापादसत्यमननुज्ञातवेश्यादिदर्शनेनादत्तं ममत्वे परिग्रहश्च ॥ १० ॥ (.) पूर्वोक्त सूत्रमां कहेलो अर्थ दृढ करवा माटे कहे ठे. अनायणे इति. ( ना० ) अनायतने एटले जे गोचरी जवानुं स्थान नयी एवा वेश्यासामंतादिकने विषे (चरंतस्स के० ) चरतः एटले गोचरी लेवा माटे गमन करनार एवा साधु (कणं ) अभीक्ष्णं एटले वारंवार ( संसग्गीए के० ) संसर्गण एटले संसर्गथी ( वयाणं के० ) व्रतानां पटले प्राणातिपात विरमणादिक व्रतोने Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस(४३)-मा.. (. पीला के० ) पीडा ( हुऊ के० ) नवेत् एटले थाय. ( य के ) वली ( सामन्नंमि : के) श्रामण्ये एटले चारित्रने विषे पण ( संस के ) संशयः एटले संशय थाय. एनुं तात्पर्य ए ने के, वेश्याने जोश्ने साधुने नोगनी श्छा याय, ते श्छा पूरवाने ते वेश्या साधुने बोलावे, तेथी ते साधु त्यां वारंवार जाय, स्नेह वांधे, तेथी शीलने दूषण लागे, अने वली संयमथी पण ब्रष्ट थाय. ॥ १० ॥ - (दीपिका.) अत्रैकवारं वेश्यासामन्तसंगतो दोष उक्तः । सांप्रतमिहान्यत्र च वारंवारगमने दोषमाह । साधोः अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो ग. छतः संसर्गेण संबन्धेन अनीदणं पुनः पुनर्नवेत् व्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा नाव विराधना । कथम् । यतस्तदानीं स साधुस्तदाक्षिप्तचित्तो जवति । पुनः श्रामण्ये श्रमणजावे अव्यतो रजोहरणादिधारणरूपे नूयो जावतो व्रतप्रधानहेतौ संशयः । कदाचिकुन्निष्क्रामत्येव ॥ १० ॥ (टीका.) एष सकृञ्चरणदोषो वेश्यासामन्तसंगत उक्तः । सांप्रतमिहान्यत्र वा. सकृञ्चरणदोषमाह । अणायएत्ति सूत्रम् । अनायतनेऽस्थाने वेश्यासामन्तादौ चरतो गलतः संसर्गेण संबन्धेन अनीदणं पुनः पुनः। किमित्याद । नवेद्रतानां प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा । तदादिप्तचेतसो नाव विराधना, श्रामण्ये श्रमणजावे च अव्यतो रजोहरणादिसंधारणरूपे नूयो नावतो व्रतप्रधानहेतौ संशयः। कदाचिदुनिष्क्रामत्येवेत्यर्थः। तथाच वृद्धव्याख्या । वेसादिगयत्नावस्स मेहुणं पीडिजा, अणुवर्जगणं एसणाकरणे हिंसा, पप्पायणे अन्नपुराणअवलवणासच्चवयणं, अणणुलायवेसासणे अदत्तादाणं. ममत्तकरणे परिग्गहो । एवं सववयपीडा । दवसामन्ने पुण संसयो उमिकमणेण त्ति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ तम्दा एवं विप्राणित्ता, दोसं जग्गश्वहणं॥ वजए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥११॥ (अवचूरिः ) तस्माद्विज्ञाय दोषमनन्तरोदितं मुर्गतिवर्धम् । वर्जयेद्वेश्यासामन्तं मुनिरेकान्तं मोक्षमार्गमाश्रितः ॥ ११ ॥ __(अर्थ.) हवे सिद्धांत कहे . तम्हा इति । ( तम्हा के०) तस्मात् एटले पूर्वोक्त हेतुथी ( एगंतमस्सिए के) एकांतमाश्रित एटले. मोदमार्गनो जेणे आश्रय कस्यो बे, एवो (मुणी के० ) मुनिः एटले साधु (एयं के ) एवं एटले पूर्वे कां ते प्रकारे ( उग्गश्वहणं के० ) उर्गतिवर्धनं एटले फुर्गतिनी वृद्धि करनार एवा ( दो Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २५३ सं के) दोषं एटले दोषने ( विश्राणित्ता के० ) विज्ञाय एटले जाणीने (वेससामंतं के० ) वेश्यासामन्तं एटले वेश्याना समीपत्नागने ( वज्जए के) वर्जयेत् एटले वर्ज करे. ॥ ११॥ (दीपिका.) अथ निगमयन्नाह । यस्मादेवं तस्मान्मुनिः वेश्यासामन्तं वेश्याग्रहसमीपं वर्जयेत् । किं कृत्वा । दोषं पूर्वोक्तं विज्ञाय । किनूतं दोषम् । पुनतेर्वर्धनम्। . किंनूतो मुनिः। एकान्तं मोक्षमाश्रितः। शिष्यः प्राह । ननु प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतस्य विराधनायाः कथमुपन्यासः । उच्यते । अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन चतुर्थव्रतस्य विराधनायाः प्राधान्यख्यापनार्थम् । तच्च लेशतो दर्शितमेव ॥ ११ ॥ (टीका.) निगमयन्नाह । तम्हा इति सूत्रम् । यस्मादेवं तस्मादेतत् । विज्ञाय दोषमनन्तरोदितं उर्गतिवर्धनं वर्जयेठेश्यासामन्तं मुनिरेकान्तं मोदमार्गमाश्रित इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ साणं सूअं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं ॥ ___ संमिनं कलहं जुई, दूर परिवजाए ॥१२॥ (अवचूरिः) मार्ग एव विधिशेषमाह । श्वानं, सूतां गां, दृप्तं गोणं, हयं, गजं, संमिनं बालक्रीडास्थानं, कलहं वाक्प्रतिबद्धं, युकं खड्गादिनिः । आत्मसंयमविराधनासंभवात् दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥ __(अर्थ.) हवे, वली आगल केहवाशे तेटलां वानां होय त्यां साधु गोचरीए जायनहीं. ते कहे . प्रथम ( साणं के ) श्वानं एटले श्वानने ( सूश्यं के०) सूतां एटले प्रसूत थएली [वीयाणी] एवी (गाविं के०) गां एटले गायने ( दित्तं के०) दृप्तं एटले मदोन्मत्त एवा (गोणं के०) बलदने, ( हयं के ) हयं एटले अश्वने (गयं के०) गजं एटले हाथीने (सं डिनं के) बालकना क्रीडास्थानने, अर्थात् रेतीप्रमुखनुं घर तयार करीने बालक रमता होय एवा स्थानने ( कलहं के०) ज्यां कलह चालतो होय एवा स्थानने तथा (युद्धं के०) युद्धं एटले, नाली, गोला, बूटता होय एवा प्रदेशने ए साधु (दूर के) दूरतः एटले दूरथी (परिवजाए के०) परिवर्जयेत् एटले सर्व प्र. कारे वर्जे. ॥१२॥ ... . (दीपिका. ) अथ अत्रैव विशेषमाह । साधुः एतानि दूरतो दूरेण परिवर्जयेत् । कानि तानीत्यत आह । श्वानं प्रसिहं, सूतां गां नवप्रसूतां धेनु, तथा दृप्तं दर्पितं गोणं बलीवर्दम् । दृप्तशब्दः सर्वत्र संबध्यते । ततो दृप्तं हृयमश्वं, पुनर्हप्तं गज हस्ति- . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा.. नं, तथा संमिनं बालक्रीडास्थानं, कलहं वाक्प्रतिवई, युद्ध खड्गादिजातम् । कथमेतानि वर्जयेदित्यत आह । श्वसूतगोप्रवृतिच्य आत्म विराधना स्यात् । वालक्रीडास्थाने वन्दनागतपतननएनलुग्नादिना संयमविराधना स्यात् । सर्वत्र आत्मपात्रनेदादिना उन्नयविराधनापि स्यात् ॥ १५ ॥ (टीका.) आह । प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थम्। उच्यते । प्राधान्यख्यापनार्थम् । अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन प्राधान्यम् । तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाह । साणं ति सूत्रम् । श्वानं लोकप्रतीतम्, सूतां गाम् । अनिनवप्रसूतामित्यर्थः । दृतं च दर्पितम् । किमित्याह । गोणं, हयं, गजम् । गोणो बलीवदो हयोऽश्वो गजो हस्ती । तथा कि मित्याह । संडिनं वालक्रीमास्थानं, कलहं वाक्प्रतिबद्धम्, युद्धं खड्गादिनिः एतदूरतो दूरेण परिवर्जयेत् । आत्मसंयमविराधनासंचवात्। श्वसूतगोप्रतिन्य आत्मविराधना। डिम्नस्थाने वन्दनाद्यागमनपतननमनप्रदुग्नादिना संयमविराधना । सर्वत्र चात्मपात्रनेदादिनोजयविराधनेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ अणुनए नावणए, अप्पदि अणानले ॥ इंदिआणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे ॥ १३ ॥ (अवचूरिः) अत्रैव विधिमाह । अनुन्नतो अव्यतो नाकाशदर्शी जावतो न जात्यायनिमानवान् । नावनतो अव्यतोऽनीचाङ्गः । जावतोऽलब्ध्यादिनादीनः । अप्रहृष्टोऽहसन् । अनाकुलः क्रोधादिरहितः । इन्द्रियाणि यथाजागं यथाविषयं दमयित्वा । इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः साधुश्चरेद् गजेत् । व्यत्यये दोषमाह । अव्योन्नतो लोकहास्यो नवति नावोन्नत श्याँन रदति। अव्यावनतो बक श्व दृश्यते । नावावनतः ढुसत्त्व इति । प्रहृष्टः स्त्रीरक्तो लदयते । अदान्तो बतानहः ॥ १३ ॥ (अर्थ.)तथा अणुनए इति. (मुणी के०) मुनिः एटले पूर्वोक्त नावसाधु (अणुन्नए के०) अनुन्नतः एटले जेने अव्यथी अने नावथी ऊंचापणुं नथी एवो. ऊंचापणुं अव्यजावथी बे प्रकार, बे. अव्यथी दृष्टि ऊंची करीने आकाश तरफ जोवू, अने नावथी ऊंचापणुं ते अजिमानसहित रहे. ए बे प्रकारना ऊंचापणानो त्याग करतो बतो; तथा (नावणए के) नावनतः एटले जेने जव्यथी तथा नावथी नीचपणुं नथी एवो, अव्यथी नीचपणुं ते शरीर नन करवु तथा नावथी । नीचपणुं ते अन्नादिक न मले तो दीनपणे नीचुं जोवू, एवा बे प्रकारना नीचपणा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । श्य नो त्याग करतो तो, तथा (अप्पहिले के०) अप्रहृष्टः एटले स्त्रियादिकने जोश्ने हर्ष न पामतो बतो, तथा (अणाजले के ) अनाकुलः एटले आकुलता रहित, अर्थात् क्रोध प्रमुख विकारने न पामतो उतो, (इंदियाइं के०) इंडियाणि एटले श्रवणेंद्रियादि पांच इंजियोने (जहानागं के०) यथानागं एटले जे इंडियनो जे जाग एटले विषय होय तेथी तेने (दमश्त्ता के०) दमयित्वा दमीने, संवरीने, अर्थात् वश करीने ( च रे के) चरेत् एटले गोचरी माटे गमन करे. एy कारण ए डे के, अव्यथी ऊं. ( चुं जोतो चाले तो लोकमां हास्य थाय, नावथी ऊंचापणुं राखे तो या न शोधाय. . । अव्यथी नीचं जुवे तो लोक कहे बकवृत्ति . नावथी नीचपणुं राखे तो लोकमां कुल जन कहे स्त्रीरक्त ने. इंडिय दमन न करे तो लोक कहे चारित्रने अयोग्य बे. ॥१३॥ (दीपिका.) अथ अत्रैव विधिमाह । साधुः एवं चरेत् गछेत् । किंतूतो मुनिः । अनुन्नतः । न उन्नतः अनुन्नतः।जव्यतो न आकाशदशी।लावतस्तु न जात्यादीनामनिमानकर्ता । पुनः किंन्नूतो मुनिः। नावनतः। न अवनतः। अव्यतो न नीचकायः। जावतस्तु नालब्ध्यादिना दीनः । पुनः किंजूतो मुनिः । अप्रहृष्टो लानादौ सति न हर्षवान् । पुनः किनूतोमुनिः।अनाकुलः।न आकुलः । क्रोधादिना रहितः। कि कृत्वा मुनिश्चरेत् इत्यत आह । इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि यथाजागं यथाविषयमिष्टेषु स्पर्शादिषु प्रवर्तमानान्यनिष्टेन्यः स्पर्शादिन्यो निवर्तमानानि दमयित्वा रागोषरहितश्चरे दित्यर्थः। विपरीते तु प्रभूता दोषाः प्रकटीनवेयुः ॥ १३॥ (टीका.) अत्रैव विधिमाह । अणुप्लएत्ति सूत्रम् । अनुन्नतो अव्यतो जावतश्च । अव्यतो नाकाशदर्शी। जावतो न जात्यायनिमानवान् । नावनतो अव्यजावाज्यामेव। जव्यानवनतोऽनीचकायः । नावानवतः अलब्ध्या दिनादीनः । अप्रहृष्टः अहसन् । , अनाकुलः क्रोधादिरहितः। इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि यथानागं यथाविषयं दमयित्वा . इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो मुनिः साधुश्चरेत् । विपर्यये अनूतदोषप्रसङ्गा। त् । तथाहि अव्योन्नतो लोकहास्यः। नावोन्नत इयां न रदति। अव्यावनतः बक इति संचाव्यते । नावावनतः कुषसत्त्व इति । प्रहृष्टो योषिदर्शनाउक्त इति लयते। श्रदान्तः प्रवज्यानई इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ दवदवस्स न गजा, नासमाणो अ गोअरे ॥ दसंतो नानिगडिजा, कुलं उच्चावयं सया ॥१४॥ (अवचूरिः) युतं अतं त्वरितं न गछेत् । नाषमाणो वा गोचरे न गठेत् । हसन्न Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. गछेत् । कुलमुच्चावचं द्विधा। अव्योचं धवलगृहादि । नावोच्चं जात्यादियुक्तम् । अव्या.. वचं कुटीरादि । नावावचं जात्या दिहीनम् ॥१४॥ (अर्थ.) हवे केवी रीते गोचरीए जाय, ते कहे . ते साधु ( दवदवस्स के) . सुतं श्रुतं एटले घणो उतावलो ( न गछेजा के०) न गछेत् एटले मार्गे गमन न करे, (य के०) च एटले वली (नासमाणो के.) नाषमाणः एटले बोलतो तो ( गोअरे के० ) गोचरे एटले गोचरीने विषे न जाय. तथा ( हसंतो के०) दसन् एटले हसतो तो न जाय (उच्चावयं कुलं के) उच्चावचं कुलं, एटले उच्च कु. ल अने हीनकुल, तेमां उच्चकुल पण अव्य अने नावना नेदथी वे प्रकारनुं बे. तेमां अव्यथी ऊंचुं कुल ते धवल गृहमां वास करनालं जाणवू. नावथी ऊंचुं कुल ते श्रेष्ठ जातिनुं जाणवू. हीन कुल पण अव्य नाव ने करी. वे प्रकारनुं बे. तेमां अव्यथी हीन कुल ते पर्णकुटिकामां वास करनालं जाणवू. तथा नावथी. हीन कुल ते नीच जातिनुं जाणवू. ए सर्व कुलने विषे पूर्वोक्त रीते (सया के) सदा एटले निरंतर (नानिगछेजा के०) नानिगछेत् एटले गमन न करे. ॥ १४ ॥ . ( दीपिका.) पुनराह। दवदवस त्ति । पुतं पुतं मुनिर्न गछेत् । तु पुनर्नाषमाणो गोचरे न गछेत् । तथा हसन् न अनिगछेत् । कुलमुच्चावचं सदा। उच्चं व्यतो धवलगृहादि, जावतो जात्यादियुक्तम् । एवमवचं अव्यतः कुटीरकवासि, जावतो जात्या-. दिहीनम् । उनय विराधनालोकोपघातादयो दोषाः स्युः॥ १४ ॥ (टीका.) किं च। दवदवस्स त्ति सूत्रम् । सुतं सुतम् । त्वरितमित्यर्थः। नाषमाणो वा न गोचरे गछेत् । तथा हसन्नाजिगजेत् । कुलमुच्चावचं सदा । उच्चं अव्य नावने दाद्विधा । अव्योचं धवलगृहवासि । नावोचं जात्यादियुक्तम् । एवमवचमपिः . अव्यतः कुटीरकवासि । नावतो जात्यादिहीनमिति । दोषा उन्नय विराधनालोकोपघा- तादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ .. आलोअंथिग्गलं दारं,संधि दगनवणाणि अ॥ ... चरंतो न विनिनाए, संकहाणं विवजए ॥१५॥ : (अवचूरिः) आलोकं गवादादि, थिग्गलं चितं हारादि, संधिं चितं कात्रम् , उद-: कनवनानि च चरन् निदार्थं न पश्येत् । शङ्कास्थानमेतत् । नष्टादौ तत्र शङ्का स्यादतों ..... विवर्जयेत् ॥ १५॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । श्५७ ( अर्थ. ) तथा आलोचं ति. ( आलोचं के० ) आलोकं एटले गोख विगेरेने तथा ( शिग्गलं ho ) चित एवा ( दारं के० ) द्वारं एटले द्वार प्रत्ये, ( संधिं के० ) चेला खाने ( य के० ) च एटले वली ( दगजवणाणि के० ) उदकनवनानि पारादिकने ( चरंतो के० ) चरन् एटले गोचरीए गयो बतो ( न विनि(प्राए के ० ) न विनिध्यायेत् एटले जुवे नहीं. कारण के, उपर कहेलुं (संकद्वाणं के० ) शंकास्थानं एटले शंकानुं स्थानक बे, माटे साधुए ( विवऊए के० ) विवर्जयेत् एटले वर्ज. ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) पुत्रैव विधिमाह । मुनिः चरन् निक्षार्थं गछन् एतानि न विनिध्यायेत् विशेषेण न पश्येत् । कानि एतानीत्यत आह । लोकं निर्यूहका दिरूपं, घिग्गलं नित्तिद्वारादि । संधिः क्षात्रम् । दकनवनानि पानीयगृहाणि । एतत् आलोकादीनामवलोकनं शङ्कास्थानमतो विवर्जयेत् । कथम् । नष्टादौ तत्र शङ्का उपजायते ॥ १२५ ॥ 1 ( टीका. ) व विधिमाह । आलोयं थिग्गलं ति सूत्रम् । अवलोकं निर्यूहकादिरूपम् । थिग्गलं चितं द्वारादि । संधिश्चितं दत्रम् । उदकनवनानि पानीयगृहाणि चरन् निक्षार्थं न विनिध्यायेन्न विशेषेण पश्येत् । शङ्कास्थानमेतदवलोकादि । तो विवर्जयेत् । तथा च नष्टादौ तत्राशङ्कोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ रनो गिढ़वईणं च रदस्सार कियाण य ॥ संकिलेसकरं ठाणं, दूरन परिवज्जए ॥ १६ ॥ ( अवचूरिः ) राज्ञश्चक्रवर्त्यादेर्गृहपतीनां श्रेष्ठिप्रनृतीनां च रहःस्थानान्यपवरमन्त्रादीनि स्थानान्यारक्षकाणां दमनायकानां च । संक्लेशकरमस दिद्यामन्त्रभेदाकर्षणादिना च । अतो दूरतः परिवर्जयेत् ॥ १६ ॥ ( .) वली शुं वर्जवं ते कहेबे, रन्नो इति ( रन्नो के० ) राज्ञः एटले चक्रवर्ती दि राजानुं (च के० ) वली ( गिवईणं के० ) गृहपतीनां एटले श्रेष्ठी आदिकनुं ( य के० ) च एटले वली ( आर कियाण के० ) आरक्षकाणां एटले कोटवाल विगेरेना ( रहस्स के० ) रहस्यं एटले एकांत विचार, मसलत करवानुं स्था· नक तथा ( संकिलेसकरं ठाणं के० ) संक्लेशकरं स्थानं एटले ज्यां घणां क्वेशनं उपार्जन यतुं होय एवा स्थानकने ( दूरर्ज के० ) दूरतः एटले दूरथी ( परिवऊए के ० ) - परिवर्जयेत् एटले विशेषेकरी वर्जे, टाले. ॥ १६ ॥ ३३ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) पुनः किंनूतो मुनिः । राज्ञश्चक्रवादेः गृहपतीनां श्रेष्टिप्रनृतीनां च रहस्यस्थानादि वर्जयेत् । आरनकाणां च दएकनायकानां रहःस्थानं गुह्यापवरकमन्तगुहादि संक्वेशकरं असदिवाप्रवृत्त्या मंत्रनेदैर्वा कर्षणादिना दूरतः परिवर्जयेत् ॥१६॥ (टीका.) किंच रन्नोत्ति सूत्रम् । राज्ञश्चक्रवांदेहपतीनां श्रेष्टिप्रनृतीनां रह सागणमिति योगः। आरक्षकाणां च दानायकादीनां रहःस्थानं गुह्यापवरकमन्त्र गृहादि संक्लेशकरम् असदिकाप्रवृत्त्या मन्त्रनेदे वा कर्षणादिनेति दूरतः परिवर्जये दिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ पमिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवऊए । अचिअत्तं कुलं न पविसे,चिअत्तं पविसे कुलं ॥१७॥ ' (श्रवचूरिः) प्रतिक्रुष्टं कुलमित्वरं सूतकयुक्तं यावत्कथिकमनोज्यं न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसङ्गात् । मा मम गृहं कश्चिदागादिति मामकं परिवर्जयेत् । नएमना दिप्रसङ्गात् । अप्रीतिकुलं यत्र साधुनिः प्रविशझिरप्रीतिरुत्पद्यते तन्न प्रविशेत् संवे शनयात् । एतद्विपरीतं प्रविशेत् कुलं तदनुग्रहप्रसङ्गात् ॥ १७ ॥ (अर्थ.) साधुए जे घरे गोचरीए जवू नहीं ते कहे . पमिकुळं इति. पूर्व क्त साधु (पमिकुठं के) प्रतिक्रुष्टं एटले निषिद्ध एवा ( कुलं के) कुल प्रत (न पविसे के०) न प्रविशेत् एटले प्रवेश न करे. ते निषिद्ध कुल बे प्रकारर्नु । एक श्वर अने बीजं यावत्कथिक. तेमां जेने जननाशौच अथवा मृताशौच , श्त्वर निषिद्ध जाणवू. कारण के, तेना सूतकनो काल पूरो थवाथी शुद्धि थाय में बीजें यावत्कथिक ते वाघरी, चमार इत्यादिक आजन्म अनोज्य तेनां घर जाए वां, ए बन्ने कुल साधुने गोचरी जता वर्ण्य जे. कारण के, त्यां जाय तो जिनशास ननी लघुता थाय . तथा (मामगं के) भामकं एटले जे धरनो धणी एम कहे के, “ हुँ ए घरनो धणी बु. मारे घेर कोश्ए आवq नहीं." ते घरने पण ( परिक जाए के) परिवर्जयेत् एटले सर्वथा वर्जे, टाले. कारण के, त्यां जाय तो कजिय थवानो प्रसंग आवे. तथा (अचिअत्तं कुलं के) अप्रीतिकुलं एटले ज्यां गये उसे त्यांना माणसोने अप्रीति थाय एवा कुलने विषे पण (न पविसे के०) न प्रविशेत एटले प्रवेश न करे. तिहां प्रवेश करे तो ते घरना माणसोने असंतोष थाय. तथ (चियत्तं के०) प्रीतिकुलं एटले ज्यां गये बते सर्व लोकने संतोष थाय, एवं र स्थानके ( पविसे के ) प्रविशेत् एटले प्रवेश करे. ॥ १७ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके पञ्चभाध्ययनम् । श्यए (दीपिका.) किंच साधुरेवंविधं कुलं न प्रविशेत्। किंनूतं कुलम् । प्रतिकुष्टं लोकनिषि; मलिनादि । विविधमपि निषिकमित्वरं सूतकयुक्तं, यावत्कथिकं च निषिद्धमनोज्यम् । कुतो न प्रविशेत् । शासनलघुत्वप्रसङ्गात् । पुनर्मामकमत्राहं गृहपतिर्माकश्चिन्मम गृहभागातु एतगृहं वर्जयेत्। कुतः नएमनादिप्रसङ्गात् पुनः अचिथत्तकुलं अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशन्निः साधुनिर प्रीतिरुत्पद्यते न च निवारयति कुत श्चिन्निमित्तान्तरादेतन्न प्रविशेत्। तथा चिअत्तं कुलं पूर्वोक्ताविपरीतं कुलं प्रविशेत् । तदनुग्रहप्रसङ्गात् ॥१७॥ (टीका.) किंच पमिकुछ त्ति सूत्रम् । प्रतिकुष्टकुलं विविधमित्वरं यावत्कथिकं च । श्त्वरं सूतकयुक्तं यावत्कथिकमनोज्यम् । एतन्न प्रविशेबासनलघुत्वप्रसङ्गात् । मामकम् यत्राह गृहपतिर्मा मम कश्चिगृहमागछेत् । एतर्जयेत् । नएमनादिप्रसंगात्। अचित्रत्तकुलमप्रीतिकुलम् । यत्र प्रविशन्निः साधुचिरप्रीतिरुत्पद्यते । न च निवारयन्ति कुत श्चिन्निमित्तान्तरात । एतदपि न प्रविशेत तत्संक्वेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात्। चिअत्तमचित्र. त्तविपरीतं प्रविशेत्कुलं तदनुग्रहप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ साणीपावारपिहिअं, अप्पणा नावपंगुरे॥ कवामं नो पणुल्लिजा, जग्गसि अजात्रा॥१७॥ (अवचूरिः) साणी अतसीवक्तजा पटी। प्रावार आबादनः। कम्बलाद्युपलक्षणमेतत् । एवमादिनिः स्थगितं । गृहमिति शेषः । अत्मना नापवृणुयात् नोद्वाटयेत् तदन्तर्गतजुजि क्रियादिकारिणां प्रवेषप्रसङ्गात् । कपाटं न प्रेरयेत् पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । से तस्यावग्रहमयाचित्वा विधिना धर्मलानमकृत्वेत्यर्थः ॥ १७ ॥ (अर्थ.) तथा गोचरी गएला साधु ( साणीपावारपिहिथं के०) शाणीप्रावारपिहितं एटले शाणी ते टाड पट्टीनो पडदो अने प्रावार ते कंबलादि तेणे करी पिहित एटले ढाकेलु एबुं जे गृह द्वार ते प्रत्ये (अप्पणा के) आत्मना एटले पोते (नावपंगुरे के) नापवृणुयात् एटले जघाडे नहीं. कारण के, ढाकेलुछार उघाडीने प्रवेश करवो ते लोकविरुध , वली तेथी घरमां जे माणस नोजनादि करता होय तेमने असंतोष थाय. तथा ( कवामं के) कपाटं एटले घरनुं कमाड जो बंध करेलुं होय, तो ते प्रत्ये (नो पणुविजा के) न प्रेरयेत् एटले उघाडे नहीं. तेथी पण पूर्वोक्त दोषज उपजेले. तथा ( जग्गहंसि अजाश्या के) अवग्रहमयाचित्वा एटले -' अवग्रह माग्याविना अर्थात् धर्मलान कस्या वगर प्रवेश करे नहीं. ॥ १७ ॥..... Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) किंच साधुः एवं विधम् । गृह मिति शेषः । आत्मना स्वयं नापवृणुयात् नोद्घाटयेत् । किंचूतं गृहम् । शाणीप्रावार पिहितम् । शाणी शणातसीववजा पटी।प्रावारः प्रतीतः । कम्बलादीनामुपलदणमेतत् । इत्यादिनिः पिहितं स्थगितम् । अलौकिकत्वेनचतदन्तर्गतजुजि क्रियादिकारिणां प्रद्वेषप्रसङ्गात् । तथा कपाटं हारस्थगनं न प्रेरयेत् । पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । किमविशेषतो नेत्याह । किं कृत्वा। अवग्रहमयाचित्वा गाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्य अवग्रहं विधिना धर्मलानमकृत्वा ॥ १७ ॥ ( टीका.) साणित्ति सूत्रम् । शाणीप्रावारपिहितमिति शाण्यतसीवक्वजा पटी। प्रावारः प्रतीतः। कम्बल्याद्युपलदणमेतत् । एवमादिजिः पिहितं स्थगितम् । गृहमिति वाक्यशेषः । आत्मना वयं नापवृणुयात् नोद्घाटयेदित्यर्थः । अलौकिकत्वेन तदन्तर्गतजिक्रियादिकारिणां प्रद्वेषप्रसङ्गात् । तथा कपाटं द्वारस्थगनं न प्रेरयेन्नोद्घाटयेत्।पूोक्तदोषप्रसङ्गात् । किमविशेषेण । नेत्याह । अवग्रहमयाचित्वा आगाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्यावग्रहं विधिना धर्मलानमकृत्वेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ गोअरग्गपविछो अ, वचमुत्तं न धारए॥ ोगासं फासुअं नच्चा, अणुन्नवित्र बोसिरे ॥१॥ (अवचूरिः) विधिशेषमाह । गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्गों मूत्रं न धारयेत् । पू. वमेव साधुना संज्ञाकायिकोपयोगं कृत्वा गोचरे प्रवेष्टव्यम् । अथ चेत्तत्र गतस्याबाधा स्यात् । तदा किं कार्यमित्यत आह । अवकाशं स्थमिदं ज्ञात्वानुज्ञाप्य च व्युत्सृजेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ. ) वली ते साधु ( गोअरग्गपविठो के ) गोचरायप्रविष्टः एटले गोचरीविषे गयो तो ( वच्च के०) वर्चः एटले वडीनीतिने तथा ( मुत्तं के.) मूत्रं एटले लघुनीतिने (न धारए के) न धारयेत् एटले धारण करे नहीं. गोचरीए जतां प्रथमज पोताना आचारने अनुसरीने मलमूत्रोत्सर्ग करे, एम बता कदाचित् शरीरना धर्म स्वाधीन न होवाथी तेवो प्रसंग आवे तो ( फासुझं के) प्रासुकं एटले शुद्ध निरवद्य एवा (जंगासं के०) अवकाशं एटले स्थं मिलने (नचा के.) ज्ञात्वा एटले जाणीने वली (अणुन विश्र के) अनुज्ञाप्य एटले गृह... स्थादिकनी अनुज्ञा लश् (वोसिरे के०) व्युत्सृजेत् एटले मलमूत्रनो त्याग करे. ॥ १९॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६१ ( दीपिका . ) विधेः शेषमाह । साधुर्गोचरायप्रविष्टस्तु वर्चो मूत्रं वा न धारयेत् । . किंतु अवकाश प्रासुकं ज्ञात्वा अनुज्ञाप्य च व्युत्सजेत् । अस्य वर्चोमूत्रत्यजन विधेर्वि. षय उघनिर्युक्तितो वृद्धसंप्रदायाच्च ज्ञातव्यः ॥ १९ ॥ 1 ( टीका. ) विधिशेषमाह । गोयरग्गत्ति सूत्रम् । गोचरायप्रविष्टस्तु वर्चो मूत्रं वा न धारयेत् । अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वानुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति । अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः । स चायम् । पुवमेव साहुणा सन्नाकाश्वयोगं काऊ गोरे पविसावं । कहिं वि कर्ज । कए वा पुणो होता । ताहे वच्चमुत्तं ण धारेवं । जर्ज मुत्तनिरोहे चकुवा जवति । वच्च निरोहे जी विजवधा असोहा अ यायविराणा । जर्ज जणि सबब संजम मित्यादि । अ संघानयस्स सयनायणाय णि ( ? ) समप्पिा पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणां वो सिरिजा । विचरने जहा म्हणिजुत्तीए । इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ वारं तमसं, कुठगं परिवकए ॥ चकुविस जं, पाणा डुप्पमिलेगा ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) नीचद्वारं नीच निर्गमनप्रवेशं तमोवन्तं कोष्ठकमपवरकं परिवर्जयेत् । न तत्र निक्षां गृह्णीयात् । न चक्षुषो व्यापारो यत्र । अत्र दोषंमाह । प्राणिनो दुःप्रतिप्रेक्षणीयाः । ईर्ष्या न स्यात् ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) तथा गोचरीए गएलो साधु, ( नीखं दुवारं के० ) नीचं द्वारं एटले जेमांथी गमनागमन करतां घणुं नमवुं पडे, एवा द्वारने तथा ( तमसं के० ) तमसं एटले ज्यां घणो अंधकार होय एवा स्थानक प्रत्ये, तथा ( कुहगं के० ) कोष्ठकं एटले ज्यां ऊं जोयरुं यादिक होय, ते प्रत्ये ( परिवजए के० ) परिवर्जयेत् एटले वर्जे. कारण के, (जब के० ) यत्र एटले जे ठेकाणे ( अचरकुविसर्ज के० ) चतुर्वि षयः एटले नेत्रनुं काम चाले नहीं. एवा अंधकारयुक्त प्रकाशरहित स्थलने विषे ( पाणा दुप्प मिलेगा के० ) प्राणिनो दुष्प्रतिप्रेक्षणीयाः एटले बेंद्रियादिक जीव जो शकाय नही, अर्थात् ईर्यासमिति पाली न शकाय. माटें एवं स्थान वर्जवं ॥ २० ॥ ( दीपिका . ) पुनः किंच साधुर्नीचद्वारं नीच निर्गमप्रवेशं परिवर्जयेत् । न तत्र जिकां गृह्णीयात् । एवं तमसं तमोवन्तं कोष्टकमपवरकं परिवर्जयेत् । सामान्यापेक्षया सर्व एवं विधो जवतीत्यत आह । चतुर्विषयो यत्र न चतुर्व्यापारो नवेद्यत्रेत्यर्थः । तत्र को दोष इत्याह । प्राणिनो डुः प्रत्युपेक्षणीया जवन्ति । ईर्याशुद्धिर्न भवति ॥ २० ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. 1 ( टीका. ) तथा नीयडुवार ति सूत्रम् । नीचद्वारं नीच निर्गमप्रवेशं तमसमिति तमोवन्तं कोष्ठकमपवरकं परिवर्द्धयेत् । न तत्र जिकां गृह्णीयात् । सामान्यापेक्षया सर्व एवंविध वत्यत श्राह । श्रचतुर्विषयो यत्र । न चक्कुर्व्यापारो यत्रेत्यर्थः । अत्र दोषमाह । प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया जवन्ति । ईर्याशुद्धिर्न भवतीति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ जब पुप्फाई बाई, विप्पन्नाई कुछए ॥ अदुणोवलित्तं उल्लं, दहूणं परिवकए ॥ २१ ॥ ( वचूरिः ) यत्र जातिपुष्पादीनि वीजानि शालिवीजादीनि विप्रकीर्णान्यनेकधा विक्षिप्तानि परिहर्तुमशक्यानि कोष्ठके कोष्ठद्वारे वाधुनोपलिप्तमाई दृष्ट्वा परिवर्जयेत् ॥ २१ ॥ (.) वली ( जब के० ) यत्र एटले जे ( कुछए के० ) कोष्ठके एटले घरना कारने विषे (पुप्फाई के ० ) पुष्पाणि एटले फूल तथा (बीआई के० ) वीजानि एटले शालि प्रमुख बीज ते धान्य ( विप्पन्नाई के० ) विप्रकीर्णानि एटले विखेरयां होय, एवा स्थान प्रत्ये तथा ( अहुणोव वित्तं के० ) अधुनोपलितं एटले तत्काल लीपायलुं होवाथी ( o ) आईं एटले लीलुं एवं स्थान होय ते प्रत्ये ( दहूणं के० ) दृष्ट्वा एटले जोने दूरथीज (परिवजए के० ) परिवर्जयेत् एटले वर्गों, तिहां धर्मलान करे नहीं. कारण, त्यां जवाथी संयमनी ने पोताना आत्मानी विराधना थाय ॥ २१ ॥ ( दीपिका. ) किंच साधुरेतानि परिवर्जयेद्दूरत एव । नतु तत्र धर्मलानं कुर्यात् । संयमस्यात्मनश्च विराधनाप्राप्तेः । एतानि कानीत्याह । पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि, बीजानि शालिवीजानि । किं विशिष्टानि । विप्रकीर्णानि अनेकधा विक्षिप्तानि । परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः । कुत्र । कोष्ठके कोष्टकद्वारे वा । तथा । किं कृत्वा । अधुना उपलितं सांप्रतमुपलिप्तमा कमशुष्कं कोष्ठकमन्यद्वा दृष्ट्वा ॥ २१ ॥ 1 " ( टीका. ) किंच ज ति सूत्रम् । यत्र पुष्पाणि जातिपुष्पादीनि, बीजानि शालि - बीजानि विप्रकीर्णानि अनेकधा विक्षिप्तानि परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः । कोष्ठके कोष्टकद्वारे वा । तथाधुनोपलिप्तं सांप्रतोपलिप्तम् । श्रामशुष्कम् । कोष्ठकमन्यद्वा दृष्ट्वा प विर्जयेद्दूरत एव । नतु तत्र धर्मलानं कुर्यात् संयमात्मविराधनापत्तेरिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ 1 एलगं दारगं साणं, वचगं वा वि कुठए ॥ उल्लंघिया न पविसे, विजदित्ता व संजए ॥ २२ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६३ ( अवचूरिः ) एककं मेषं, दारकं बालकं, श्वानं, वत्सकं वापि, कुप्रवृषनं, कोठके उल्लङ्घ्य पयां न प्रविशेत् व्यूह्य वा प्रेर्य वा संयतः साधुः ॥ २२ ॥ ( अर्थ. ) तथा गोचरीए गएलो साधु ( कुए के० ) कोष्टके एटले जे घरमा प्रवेश करवो होय ते घरना द्वारमा ( एलगं के० ) एडकं एटले बकरो होय, तथा ( दार के० ) दारकं एटले बालक होय, तथा ( साणं के० ) श्वानं एटले कूतरो होय, तथा ( वर्ग वा वि के० ) वत्सकं वापि एटले वाबडो होय, तेने पगथी ( उल्लंघिया के० ) उल्लंघ्य एटले उल्लंघन करीने ( व के० ) वा एटले अथवा ( विहित्ता के० ) व्यूह्य एटले काढी मूकीने अथवा उठामीने ( न पविसे के० ) न प्रविशेत् एटले प्रवेश करे नहीं. कारण के, तेथी पोताना संयमनी विराधना थाय. वली लघुत्व पण पामे ॥ २२ ॥ 1 *. ( दीपिका. ) पुनः किंच संयतः साधुः एलकं मेषं, दारकं बालकं, श्वानं मएकलं, वत्सकं वापि वृषनलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घ्य पट्ट्यां न प्रविशेत् । व्यूह्य वा प्रेर्य न प्रविशेत् । श्रात्मसंयम विराधनादोषालाघवाच्चेति ॥ २२ ॥ ( टीका. ) किंच एलगं ति सूत्रम् । एकं मेषं, दारकं बालं, श्वानं मएकलं, वत्स कं वृषनलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घ्य पट्ट्यां न प्रविशेत् । व्यूह्य वा प्रेर्य वेत्यर्थः । वापि आत्मसंयम विराधनादोषालाघवाच्चेति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ संसतं पलोइका, नाइदूरा उप्फुल्लं नं विनिनाए, निपट्टि वलोए ॥ प्रयंपिरो ॥ २३ ॥ ( अवचूरिः ) मार्ग एवं विशेषमाह असंसक्तं प्रलोकयेत् । न स्त्रीदृष्टेर्दृष्टिं मी - लयेत् । रागोत्पत्तिसंभवात् । नातिदूरं विलोकयेत् । दायकस्यागमनमात्रं प्रदेशं प्रलोकयेत् । परतश्चौरादिशङ्का स्यात् । उत्फुलं विकसितलोचनं न निरीक्षेत । निवर्तेतालब्धे सति साधुर्गृहादजल्पन् दीनवचनमनुच्चरन् ॥ २३ ॥ ( अर्थ. ) वली गोचरी जतां केवी रीते वर्ते ते कहे बे. ( असंसत्तं के० ) असं सक्तं एटले स्त्रीजाति उपर आसक्ति न राखता ( पलोइका के० ) प्रलोकयेत् एटले अवलोकन करे, एटले स्त्री जातिनी दृष्टि सायें दृष्टि मेलवे नहीं आसक्तपणें जुवे नहीं. कारण, तेथी गृहस्थने शंका उपजे, वली कामविकार पण याय, अने लोकापवाद थाय तथा (नाइदूरा क्लोए के०) नातिदूरादवलोकयेत् एटले अतिदूर रहस्थनी वस्तु पडी होय तो ते प्रत्ये जुवे नहीं, गृहस्थना घरमा आगलपाबल जुवे Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नहीं. कारण, तेथी गृहस्थने चोरपणानी शंका उपजे. तथा (उप्फुझं न विनिनाए के )उत्फुल्वं न विनिध्यायेत् एटले गृहस्थनां जे उपकरणादिक पडेलां होय ते प्रत्ये दृष्टि विकाशीने जुवे नहीं. कारण, तेथी गृहस्थ एम जाणे के, एणें कांश संपत्तिनो लोग लीधो नथी, तेथी एम जुवे . तथा गोचरी न मले तो ते घरथी ( अयंपिरो के) अजपन् एटले गृहस्थना दोष अथवा दीन वचन अण बोलतो तो ( निअटिज के०) निवर्तेत एटले पालो, वले. पण गृहस्थनी निंदा अथवा दीन वचन बोले नहीं. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) अत्रैव विशेषदोषमाह असंसक्तं न प्रलोकयेत् योषिदृष्टेदृष्टिं न मीलयेत् । रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषात् । तथा नातिदूरं प्रलोकयेत् । दायकस्य आगमन- - मात्रप्रदेशं प्रलोकयेत्। चोरादिकशङ्कादोषात् । तथा उत्फुद्धं विकसितलोचनं न विनिपाए न निरीदेत गृहपरिबदमपि । अदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पतेः । तथा निवर्तेत अलब्धेऽपि सति । परं किं कुर्वन् । अजपन् दीनवचनमनुच्चरन्निति ॥ ३ ॥ (टीका.) इहैव विशेषमाह । असंसत्तं ति सूत्रम् । असंसक्तं प्रलोकयेत् । नो योषिदृष्टेदृष्टिं मलयेदित्यर्थः । रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात् । तथा नातिदूरं प्रलोकयेत्। दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत् । परतश्चौरादिशङ्कादोषः। तथा उत्फुलं विकसितलोचनं न विणिलाए ति न निरीदेत गृहपरिबदमपि । अदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पत्तेः।तथा निवर्तेत गृहादलब्धेऽपि सति।अजल्पन् दीनवचनमनुच्चारयन्निति॥२३॥ अश्नूमि न गछेजा, गोअरग्गग मुणी॥ कुलस्स नूमिं जाणित्ता, मिश्र नूमि परक्कमे ॥२४॥ (अवचूरिः ) अतिनूमिं न गछेत् । अननुज्ञातां गृहस्थैर्यवान्ये निदाचरा न यान्तीत्यर्थः । गोचराग्रगतो मुनिः कुलस्य नूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां नूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्रैषामप्रीतिर्न जायते ॥२४॥ .. (अर्थ.) तथा ( गोयरग्गग मुणी के ) गोचराग्रगतो मुनिः गोचरीए गएलो साधु (अचूमिं केण) अतिनूमि एटले नूमिनी मर्यादा मूकीने गृहस्थनी थाज्ञा विना (न गजा के० ) न गछेत् एटले न जाय. एटले गृहस्थना घरमां वीजा निकुक लोक ज्यां सुधी नूमि आक्रमीने जाय, ते मर्यादा मूकीने साधु जाय नहीं. पण (कुलस्स के ) कुलस्य एटले कुलवंत गृहस्थनी .. (नूमि के०) नूमिनी मर्यादा प्रत्ये ( जाणित्ता के ) ज्ञात्वा एटले जाणीने Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २६५ " (मिश्र नूमि के०) मितां नूमि एटले मर्यादित नूमि प्रत्ये (परकमे के) पराक्रमेत् एटले आक्रमे. अर्थात् जवानी मर्यादा होय त्यां सुधी जश्ने उनो रहे. ॥ २४ ॥ - (दीपिका.) पुनरपि मुनिरतिमिर्गृहस्थैर्या नानुज्ञाता, यत्रान्ये निदाचरा न यान्ति, तामतिनूमिं न गछेत् । किंनूतो मुनिः। गोचरायप्रविष्टः । अनेन कथनेन अन्यदा गोचरी विना तत्र गमननिषेधमाह । किं तर्हि कुर्यात् । कुलस्य नूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां नूमिं गृहस्थैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्र तेषामप्रीतिर्न जायते ॥ २४ ॥ (टीका.) तथा अश्लूमिं न गछिजा इति सूत्रम् । अतिमि न गछेदननुज्ञातां गृहस्थैर्यत्रान्ये निदाचरा न यान्तीत्यर्थः । गोचराग्रगतो मुनिः। अनेनान्यदा तजमनासंनवमाह । किं तर्हि । कुलस्य नूमिमुत्तमादिरूपामवस्थां ज्ञात्वा मितां नूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् । यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ तव पडिलेदिका, नूमिनागं विकणो॥ सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवज्जए ॥२५॥ (अवचूरिः) तत्रैव तस्यां मितायां जूमौ प्रत्युपेदेत । सूत्रोक्तेन विधिना नूमिनागमुचितनूमिप्रदेशं विचक्षणः । अनेनागीतार्थस्य निदाटनप्रतिषेधः। तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य वर्चसश्च संलोकं परिवर्जयेत् । प्रवचनलाघवात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शने रागोत्पत्तेश्च ॥ २५॥ (अर्थ.) तथा ( तबेव के ) तत्रैव एटले तेज मर्यादित नूमिने विषे उनो रहीने ( विधरकणो के) विचक्षण एवो ते साधु (नूमिजागं के) उन्ना रहेला नूमिकाना नागप्रत्ये ( पडिले हिजा के०) प्रतिलेखयेत् एटले पडिलेहे. तथा ते ठेकाणे ( सिणाणस्स के) स्नानस्य एटले नाहवाना स्थानकनुं तेमज ( वञ्चस्स के०) वर्चसः एटले वडीनीति करवाना स्थानकनुं (संलोगं के०) संलोकं एटले जोवू (परिवजाए के) परिवर्जयेत् एटले परिहरे. एनुं तात्पर्य ए बे केः-साधु गृहस्थने घरे गोचरीए जश्ने ज्यां मर्यादित नूमिकाने विषे उन्नो रह्यो होय, त्यांथी जो स्नान करवानुं स्थान अथवा वडीनीति करवानुं स्थानक जोवामां आवे तो ते स्थानक परिहरीने बीजे स्थानके उन्नो रहे. कारण, त्यां उनो रहे तो शासनने लघुता आवे, तथा कदाचित् नग्न स्त्रीना दर्शनथी रागनी उत्पत्ति थाय. ॥ २५॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. (दीपिका) विधिशेषमाह । मुनिस्तत्रैव तस्यामेव मितायां भूमौ सूत्रोक्त विघिना भूमिजागमुचितभूमिप्रदेशं प्रत्युपेक्षेत तत्र च तिष्ठेत् । किंनूतो मुनिः । विचकणो विद्वान् । एतद्विशेषणेन केवलागीतार्थस्य निहाटन निषेधमाह । पुनः स्नानस्य तथा वर्चसः संलोकं परिवर्जयेत् । अयं परमार्थः । स्नानजूमिका यिक्या दिनू मिसंदर्शनं परिहरेत् । कुतः प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्री दर्शनाच्च रागादिसंजावात् ॥ २५॥ ( टीका. ) विधिशेषमाह । तछेति सूत्रम् । तत्रैव तस्यामेव मितायां भूमौ प्रत्युपेदेत सूत्रोक्तेन विधिना भूमिभागमुचितं भूमिदेशं विचक्षणो विद्वान् । अनेन केवलागीतार्थस्य निक्षाटनप्रतिषेधमाह । तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य तथा वर्चसो विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत् । एतदुक्तं जवति । स्नाननू मिकायिका दिनू मिसंदर्शनं परिहरेत्। प्रवचनलाघवप्रसंगात् । प्रावृतस्त्री दर्शनाच्च रागादिनावादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ दगमप्रियायाणे, बी आणि हरियाणि च ॥ परिवर्ततो चिठिका, सबिंदि समाहिए ॥ २६ ॥ (अवचूरिः ) उदकमृत्तिकादानम् । यदीयतेऽनेनेति यदानं मार्गः । उदकमृत्तिकानयन मार्गमित्यर्थः । चादन्यानि सचित्तानि परिवर्जयंस्तिष्ठेदनन्ततरोदिते देशे सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादावव्याप्तिः ॥ २६॥ ( अर्थ. ) तथा गोचरीए गएलो साधु ( दगम श्रिया के० ) उदकमृत्तिका - दानं एटले पाणी तथा माटी आणवानो जे मार्ग होय ते प्रत्ये, तेमज ( बी आणि के० ) वीजानि एटले शालि प्रमुख वीज प्रत्ये, ( के० ) च एटले वली (हरियाणि के० ) हरितानि एटले दूर्वादि हरित जीव प्रत्ये ( परिवजांतो के० ) परिवर्जयन् एटले परिहरतो को (सहिंदि समाहिए के० ) सर्वेप्रियसमाहितः एटले जेणे पांचे इंडियाना विकार जीत्या छे, एवो थको एटले इंडियना जे गीतादिक विषय तेमांथी चित्तने दर राखतो तो ( चिह्निका के० ) तिष्ठेत् एटले उनी रहे. ॥ २६ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किंनूतो मुनिः । एतानि परिवर्जयंस्तिष्ठेत् पूर्वोक्त उचितप्रदेशे । कानि । उदकमृत्तिकयोरानयनमार्ग, पुनर्वजानि शाब्यादीनि, हरितानि दूर्वादीनि च शब्दादन्यान्यपि सचेतनानि । किंनूतो मुनिः । सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिनिरव्याङ्गितः ॥ २६ ॥ ( टीका. ) किंच दगत्ति सूत्रम् । उदकमृत्तिकादानम् । यदीयतेऽनेनेत्यादानो मार्गः। उदकमृत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः । वीजानि शाल्यादीनि, हरितानि च दूर्वादी Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. दशवकालिक पञ्चमाध्ययनम् । . ... ... २६३ नि । चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जयस्तिष्ठेदनन्तरोदिते देशे सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिजिरनादिप्तचित्त इति सूत्रार्थः॥२६॥ तब से चिठमाणस्स, आहारे पाणनोअणं॥ अकप्पिमं न गेण्हिज्जा, पडिगादिज कप्पिअं॥॥ - (अवचूरिः ) तत्तत्कुलोचितनूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सत बाहरेत्पानजोजन मानीय यायागृहीति गम्यते। अकल्पमनेषणीयं नेत् । परिगृह्णीयात् कल्पिकम् । एतच्चापिन्नमपि कल्पिकग्रहणं अव्यतः शोजनमशोजनमप्येतदविशेषेण ग्राह्य मिति दर्शनार्थं सादामुक्तमिति ॥२७॥ .. ( अर्थ.) तब ति । (तब के०) तत्र एटले पूर्वोक्त उचित नूमिकाने विषे (से के०) तस्य एटले ते साधु (चिठमाणस्स के०) तिष्ठतः एटले उन्नोरहेतो बतो गृहस्थनीस्त्री (पाणनोअणं के ) पाननोजनं, एटले पान ते उसामण प्रमुख अने जोजन ते ओदन प्रमुख ते प्रत्ये (आहारे के ) बाहरेत् एटले लावे. त्यारे ते साधु (अकप्पिरं के०) अकल्पिकं एटले सदोष, न कल्पे एवं अन्न होय तो (न श्वेजा के०) नेछेत् एटले श्छे नहीं, ग्रहण करे नहीं. अने जो ( कप्पियं के ) कल्पिकं, खपतुं निर्दोष एवं अन्नपान होय तो (पडिगाहिऊ के०) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे. इहां निदा आपनारी गृहस्थनी स्त्री कही , तेनुं कारण ए बे के प्रायः श्रावकनी स्त्रीज साधुने निदा आपे .॥२७॥ (दीपिका.) तत्रोचितनूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सतो गृहीतिशेषः । पाननोजनमाहरेत् आनयेत् । तत्रायं विधिः । अकल्पिकमनेषणीयं न गृह्णीयात् न श्छेत् । प्रतिगृह्णीयात् कदिपकम् । एतच्च अर्थापन्नमपि कल्पिकग्रहणं अव्यतः शोजनमशोजनमपि एतद विशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं सादामुक्तमिति ॥ ७॥ . (टीका.) तब ति सूत्रम् । तत्र कुलोचितजूमौ से तस्य साधोस्तिष्ठतः सत आहरेदानयेत्पाननोजनं गृहीति गम्यते । तत्रायं विधिः। अकल्पिकमनेषणीयं न गृह्णी यात् । प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकमेषणीयम् । एतच्चापिन्नमपि कल्पिकग्रहणं अव्यतः - शोजनमशोजनमप्येतदविशेषेण ग्राह्य मिति दर्शनार्थं सादामुक्त मिति सूत्रार्थः॥ २७॥ आहारती सिआ तब, परिसाडिक जोअणं ॥ दिति पडिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥॥ १:-अत्र “इच्छेज्जा" इति पाठान्तरं दृश्यते । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ( अवचूरिः ) यानयन्ती निकामगारीति गम्यते । स्यात्कदाचित् परिशाटये दितस्ततो विक्षिपेत जोजनं पानं वा । ततः किम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत् । न मे मम कल्पते तादृशम् । रुयेव प्रायो जिहां ददातीति स्त्रीग्रहणम् । दोषांश्च जावं च ज्ञात्वा कथयेन्मधु बिन्दूदाहरणादिना ॥ २८ ॥ ( अर्थ. ) हवे जे आहार साधुने कल्पे नहीं, ते कहे बे. आहारंतीति. (आहा रंती के० ) हरंती एटले साधुने पवा सारु निक्षा लइने आवनारी श्राविका ( स ० ) स्यात् एटले कदाचित् आवतां ( तब के० ) तत्र एटले ते स्थानमi ( जो के० ) जोजनं एटले अन्नपानरूप जोजन प्रत्ये ( परिसाडिस के ० ) प्रतिशाटयेत् एटले अरहुं परहुं नांखे, तो ते साधु ( दिंतियां के० ) ददतीं एटले पूवक्त रीते निक्षा यापनारी श्राविकाने ( प डिआइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले प्रतिषेध करे. केवी रीतें प्रतिषेध करे, ते कहे बे. ( न मै कप्पइ तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले ते अन्नपान मने कल्पे नहीं. एवी रीतें असूता अन्नपाननो प्रतिषेध करे. गल पण प्रत्येक गाथामां एवीज अर्धी गाथा यवशे तेनो अर्थ ए प्रमाणे ज जावो. ॥ २८ ॥ ( दीपिका. ) अगारी । निक्षामिति शेषः । चाहरन्ती यानयन्ती स्यात् कदाचित् तंत्र देशे परिशाटयेत् सिक्यादि इतश्चेतश्च विक्षिपेत् जोजनं वा पानं वा । ततः किमित्याह । ददतीं तां स्त्रियं प्रत्याचक्षीत । कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत आह । न मे मम कल्पते तादृशं परिशाटनासहितं सिद्धान्तोक्तदोषप्रसङ्गात् । दोषांश्च जावं च ज्ञात्वा कथयेद् मधु बिन्दूदाहरणादिना ॥ २७ ॥ ( टीका. ) हरंति त्ति सूत्रम् । श्राहरन्ती आनयन्ती निकामगारीति गम्यते । स्यात्कदाचित्तत्र देशे परिशाटयेदितश्चेतश्च विक्षिपेद् जोजनं वा पानं वा । ततः किमित्याह । ददतीं प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्तामगारीम् । रुयेव प्रायो निक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम् । कथं प्रत्याची तेत्यत आह । न मम कल्पते तादृशं परिशाटनावत्समयोक्तदोषप्रसङ्गात् । दोषांश्च जावं व ज्ञात्वा कथयेद् मधु बिन्दूदाहरणादिनेति सूत्रार्थः ॥२८॥ संमदमाणी पापाणि, बी आणि हरित्र्याणि ॥ प्रसंजमकरिं नच्चा, तारिसिं परिवजए ॥ २९ ॥ ( अवचूरिः ) संमर्दयन्ती पद्धयां प्राणान्, बीजानि, हरितानि च असंयमकरी साधुनि मित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ॥ २ए ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक पञ्चमाध्ययनम् । २६ए (अर्थ.) संमदमाणित्ति. वली जे निदा आपनारी श्राविका ( पाणाणि के) प्राणिनः एटले बेंजियादिक जीव प्रत्ये तथा (बीआणि के) बीजानि एटले शातिप्रमुख बीज प्रत्ये, तथा (अ के) च एटले वली (हरिआणि के०) हरितानि एटले दूर्वा प्रमुख हरित जीव प्रत्ये (संमदमाणी के०) संमर्दयंती एटले संमर्दन करती, पगें चांपती आवे, तो (असंजमकरि के) असंयमकरी एटले पूर्वोक्त रीतें साधुने माटे असंयम ते जीवहिंसा विगेरे तेने करी एटले करनारी एवी श्राविकाने (नचा के ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तारि सिं के० ) तादृशीं एटले तेवु सदोष अन्नपान आपनारी श्राविकाने साधु ( परिवजए के०) परिवर्जयेत् एटले परिहरे अर्थात् तेवू अन्नपान से नहीं. ॥ श्ए॥ (दीपिका.) संमर्दयन्ती पत्नयां समाक्रामन्तीं । कानित्यत आह । प्राणिनो हीन्दियादीन्, बीजानि शालिबीजादीनि, हरितानि दूर्वादीनि असंयमकरी साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् ददती प्रत्याचदीतेति ॥ ए॥ (टीका.) किंच संमदत्ति सूत्रम् । संमर्दयन्ती पनियां समाक्रामन्ती । कानित्याह। . प्राणिनो हीन्द्रियादीन्, बीजानि शाख्यादीनि, हरितानि दूर्वादीनि । असंयमकरी साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञात्वा तादृशीं परिवर्जयेत् । ददती प्रत्याचदीत इति सूत्रार्थः ॥ ए॥ . साहद्द निस्किवित्ता , सचित्तं घटियाणि य॥ तहेव समणहाए, उदगं संपणुखिया ॥३०॥ (अवचूरिः) संहृत्यान्यस्मिन् नाजने ददातीति। तथा फासुए फासुझं, फासुए अफासुआं, अफासुए फासुरं, अफासुए अफासुग्रं साहरश् । तब जं फासुए ____ फासुझं साहरश्तं थेवे वं, वे बहुअं, बहुए थेवं,बहुए बहुयं साहर। एवमादि - यथापिएमनियुक्तौ तथा झेयम् । सचित्तोपरि निक्षिप्य नाजनगतमदेयं षड्जीवनि कायेषु ददाति । सचित्तं पृथ्व्यादि संघयित्वा संचाल्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थमुदकं संप्रणुद्य नाजनस्थं प्रेरयित्वा दत्ते ॥३०॥ (अर्थ.) साह१ इति. (साहड्ड के०) संहृत्य एटले अचित्त वस्तु होय तो पण सचित्तनी. साथे एकटी करी तथा (निरिक वित्ताणं के) निक्षिप्य एटले रहेली अदेयवस्तु षड्जीवनिकाय उपर मूकीने (य के) च एटले वली ( सचित्तं के०) सचित्त अंगारादि प्रत्ये (घट्टियाणि के०) घट्टयित्वा एटले संघट्टीने हलावीने (तहेव Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस (४३)- मा. के० ) तथैव एटले तेमज वली ( समाए के० ) श्रमणार्थ एटले साधुने अ ( उदगं के० ) उदकं एटले उदक प्रत्ये ( संपलिय के० ) संप्रय एटले पात्रमानुं सचित्त उदक लावीने अन्नपान आपनारी श्राविकाने साधु परिहरे, वजें, अर्थात् तेवुं अन्नपान लिये नहीं. यहीं एक जाजनथी काढीने वीजा जाजनमां घालीने दिये. तेना जांगा बे, ते एवी रीतेः - फासुए फासू साहरइ १ अफासुए फासू साहूर‍ २ फासुए फासू साहरइ ३ फासुए फासू साहरइ ४ तथा थेवे येवं १, येवे बहु २, बहुए थेवं ३, बहुए बहुअं ४ एवा चार चार जांगा जाणवा. ॥ ३० ॥ ( दीपिका. ) संहृत्य अन्यस्मिन् जाजने ददाति । तथा अदेयं नाजनगतं षजीवनिकायेषु निक्षिप्य ददाति । तथा सचित्तमलातपुष्पादि घट्टयित्वा संचाल्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थं यतिनिमित्तमुदकं पानीयं संप्रणुद्य नाजनस्थं प्रेर्य ददाति । तदा साधुः किं करोति तद्विधिं अग्रगाथायां वक्ष्यति ॥ ३० ॥ ( टीका. ) तथा साहति सूत्रम् । संहृत्यान्यस्मिन् जाजने ददाति तं फासुगमवि वजए। तब फासुए फासूयं साहरइ । फासुए अफासु साहरइ । अफासुर फासूयं साहरइ । अफासुए फासू साहर । तब जं फासू फासुए साहर तब वि थेवे येवं साहर | वे बहु साहर। बहुए थेवं साहर | बहुए बहु साहर । एवमादि यथा पिएक निर्युक्तौ । तथा निक्षिप्य जाजनगतमदेयं षट्सु जीव निकायेषु ददाति । सचि तमलातपुष्पादि घट्टयित्वा संचाव्य च ददाति । तथैव श्रमणार्थ : प्रत्रजित निमित्तमुदकं संप्रय जाजनस्थं प्रेर्य ददातीति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ I 1 श्रागदत्ता चलइत्ता, आहारे पापजोखणं ॥ दितियं पडिच्याइरके, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ३१ ॥ ( अवचूरि : ) वर्षासु गृहाङ्गणस्थितं जलमवगाह्य उदकमेवात्मनोऽनिमुखमाकृष्य चाल थित्वोदकमेव आहारदा यिनी दद्यात् । पूर्वं सचित्तादानेऽप्युदकादानं प्राधान्येनोक्तम् । तत्रावश्यमनन्तवनस्पतित्वात्प्राधान्यमुदकस्य ॥ ३१ ॥ (अर्थ. ) तथा गहत्ता इति । साधुने उहोरावनारी श्राविका ( आगहइत्ता ho) अवगाह्य एटले विचाले सच्चित्त पाणी जरायुं होय तेमांहे पेसीने अथवा (चलत्ता के ० ) चालयित्वा एटले यातुं पातुं काढीने (पाणजोखणं के०) पाननोजनं एटले पान ते सामण प्रमुख ने जोजन ते खोदन प्रमुख प्रत्ये (याहारे के० ) - हरेत् एटले साधुने आहार आपे, तो ते (दिंतियं के०) ददती पटले पूर्वोक्त हो Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ... दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। .. ...२७१ रावनारी स्त्रीप्रत्ये गोचरीए गयेलो साधु ( पडिआश्के केए) प्रत्याचदीत एटले प्रतिषेधे, परिहरे. ते केवीरीते प्रतिषेधे ते कहे . (न मे कप्पर तारिसं के०) न मे कल्पते तादृशं एटले महारे तेवू सदोष अन्नपान खपतुं नथी. ॥ ३१॥ . ... (दीपिका.) तथा वर्षासु गृहाङ्गण स्थितं जलमवगाह्य उदकमेव श्रात्मनोऽनिमुखमाकृष्य करादिभिः चालयित्वा उदकमेव ददाति । उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थ सचित्तं घश्त्ताणं इत्युक्तेऽपि जेदेनोपादानम् । अस्ति चायंन्यायः। यपुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थ नेदेनोपादानम्। यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति । ततश्च उदकं चाल यित्वा आहरेत् आनीय दद्यात् । किं तदित्याह । पाननोजनमोदनारनालादि। तदिबंनूतं ददतीं प्रत्याचदीत । न मे मम कपते तादृशम् ॥३१॥ (टीका.) आगहश्त्ता सूत्रम्। तथा चावगाह्य उदकमेवात्मानिमुखमाकृष्य ददाति वर्षासु गृहाङ्गणादिनिहितं जलं वानिमुखं कृत्वा दत्ते । तथा चालयित्वा उदकमेव ददाति । उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थ सचित्तं घट्टयित्वेत्युक्तेऽपि नेदेनोपादानम्। अस्ति चायं न्यायो यत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थ नेदेनोपादानम् । यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति । ततश्चोदकं चालयित्वा आहरेदानीय दद्यादित्यर्थः। किं तदित्याह । पाननोजनमोदनारनालादि । तदिबंजूतां ददती प्रत्याचदीत निराकुर्यान्न मम कल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः३१ पुरेकम्मेण दबेण, दबीए नायणेण वा॥ दितिअं पडिआइरके, न मे कप्पइ तारिसं॥ ३५॥ (अवचूरिः) पुरःकर्मणा हस्तेन प्राकृतजलोज्नव्यापारेण साध्वर्थ दव्या मोवसदृशया । नाजनेन वा कांस्यनाजनादिना ॥३॥ ___ (अर्थ.) पुरेकम्मेण त्ति. (पुरेकम्मेण के) पुरःकर्मणा एटले साधुने वहोराववा माटे प्रथम धो नाखेला एवा ( हबेण के) हस्तेन एटले हाथे करी (वा के०) अथवा ( दवीए के०) दा एटले कडबीए करी किंवा (नायणेण वा के०) नाजनेन वा एटले वामकी प्रमुख जाजने करी (दितिअं के०) ददती एटले वहोरावनारी स्त्री प्रत्ये गोचरीए गएलो साधु (पडियाश्के के) प्रत्याचदीत एटले प्रतिषेधे, परिहरे. केवी रीते प्रतिषेध करे, ते कहे . ( न मे कप्पर तारिसं के) महारें ते, सदोष अन्न कल्पे नहि एम कहे. ॥ ३२॥ .. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्श राय धनपतसिंघबहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दिपिका.) पुरः कर्मणा हस्तेन साधुनिमित्तं पूर्व कृतसचित्तपानीयत्यजनव्यापारेण, तथा दा डोवसदृशया, नाजनेन वा कांस्यन्नाजनादिना दढ़ती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशम् ॥ ३ ॥ (टीका.) पुरे कम्मत्ति सूत्रम् । पुरःकर्मणा हस्तेन साधुनिमित्तं प्राकृतजलोसनव्यापारेण तथा दा डोवसदृशया नाजनेन वा कांस्यनाजनादिना ददती प्रत्याचदीत प्रतिषेधयेत् । न मम कल्पते तादृश मिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ (एवं) उदनखे ससिणि, ससरके महिानसे॥ हरिले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ (अवचूरिः) एवमुदकाःण गलदिन्छना हस्तेन सस्निग्धेन परिक्वन्नेन, सरजस्केन सचित्तमृषिमतेन । मृजतेन सकर्दमेन । एवं नूशादिष्वपि योज्यम् । ऊषःपांशुक्षारः। हरिताल हिंगुलमनःशिलाः पार्थिवानेदाः।अञ्जनादि । लवणं सामुजादि॥३३॥ (अर्थ.) एवमिति ( एवं के० ) एमज वली ( उदउले के) उदकाःण एटले उदकेकरी आई ते नीना एवा एटले जेमांथी पाणीना बिछ गलंता होय एवा, श्रथवा (ससिणिके के ) सस्निग्धेन एटले पाणीमांन्नीजायलो खरो, पण जेमांथी पाणीना बिंदु गलता नथी एवा, किंवा ( ससरके के० ) सरजरकेन एटले पृथिवीनी सचित्त धूलिए करी युक्त एवा अथवा (मट्टिासे के०) मृत्तिकोषाच्यां एटले माटी अथवा कारे करी युक्त एवा. अहीं मृत्तिका पंकरूप लेवी, कारण के पूर्वे 'सरज स्केन' एम जे कडं बे, तेनी साथे पुनरुक्ति दोष आवे नहीं. तथा ( हरिआले के ) हरितालेन एटले हरिताले करी, (हिंगलए के) हिंगुलेन एटले सचित्त हिंगुले करी, (मणोसिला अंजणे के) मनःशिलांजनाच्यां एटले मणसील अने अंजन जे सूरमो तेणेकरी, (लोणे के०) लवणेन एटले सचित्त लवणे करी. ॥ ३३ ॥ (दीपिका.) पुनरप्येवमुदकाःण गलत्पानीयबिन्ज्युक्तेन हस्तेन एवं सस्निग्धेन ईषत्पानीययुक्तेन हस्तेन २ एवं सरजस्केन पृथिवीरजोवगुपिकतेन हस्तेन ३ एवं मृगतेन कर्दमयुक्तेन हस्तेन ४ एवं ऊषः पांशुदारस्तद्युक्तेन हस्तेन तथा हरितालहिंगुलकमनःशिला एते सर्वे पार्थिवा वर्णकन्नेदाः।अञ्जनं रसाञ्जनादि। लवणं सामुखादि। ततो हरितालादियुक्तेन हस्तेन ॥ ३३ ॥ (टीका.) एवंति सूत्रम् । एवमुदकाःण हस्तेन करेण उदकाओं नाम गलफुद... कविन्ज्युक्तः। एवं सस्निग्धेन हस्तेन । सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तः। एवं सरजस्केन Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। . :. ... ३ हस्तेन । सरजस्को नाम पृथिवीरजोगुणिमतः। एवं मृशतेन हस्तेन । मृगतो नाम कर्दमाक्तः। एवमूषादिष्वपि योजनीयम्। एतावन्त्येवैतानि सूत्राणि । नवरमूषःपांशुदारः । हरिहरिताल हिड्डलकमनःशिलाः पार्थिवा वर्णकन्नेदाः अञ्जनं रसाञ्जनादि । लवणं सामुनादि ॥३३॥ . गेरुअवनिअसेढिअ-सोरहिअपिठकुकुसकए॥ ..... किमसंसहे, संसहे चेव बोधवे ॥३४॥ (अवचूरिः) गैरिको धातुः । वर्णिका पीतमृत्तिका । सेटिका खटिका । सौराष्ट्रिका तुवरिका। पिष्टमामतन्डलदोदः। कुकुसाः प्रतीताः । कृतेनेति एनिः कृतेन। -हस्तेनेति गम्यते । उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालाबुत्रपुसफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लदणखएमानि लण्यन्ते । चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदाय उलूखलकशिकत इति वा ।असंस्कृष्टो व्यअनादिनालिप्तः । तहिपरीतश्च संसृष्ट एव बोझव्यो हस्तः ॥ ३४ ॥ ' (अर्थ.) तथा ( गेरुअवनिअसे ढिअसोरहियपिटकुकुसकए के ) गैरिकवर्णिकासेटिकासौराष्ट्रिका पिष्टकुकुसकृतेन एटले गैरिक ते सोनागेरु, वर्णिका ते पीली माटी, सेटिका ते श्वेत मृत्तिका जेने खडी तथा चाक कहे बे, सौराष्ट्रिका ते फटकडी, पिष्ट ते चोखा बगेरेनो आटो, कुकुस ते तुरतना खांड्या कूशका एमांथी एकपण पदार्थे करी खरड्या एवा हाथे करी ( उकिहमसंसरे के) उत्कृष्टासंस्कृष्ट एटले उत्कृष्ट जे तुंबडां कालिंगडादिक मोटां फल तेना शाक, व्यंजनादिके करी नहीं खरड्यो एवो हाथ तथा (संसहे चेव के०) संस्कृष्टश्चैव एटले व्यंजनादिके करी खरड्यो हाथ (बोधवो के०) बोझव्यः एटले जाणवो. एथी उपरांतनो विधि आगल कहेशे. ॥२४॥ .. (दीपिका.) तथा गैरिको धातुः, वर्णिका पीतमृत्तिका, सेटिका खटिका, सौराष्टि. का तुवरिका, पिष्टमामतन्फुलदोदः, कुकुसाः प्रतीताः। कृतेनेति एनिः कृतेन एन्यः खरंटितेन । हस्तेनेति शेषः । तथा उत्कृष्ट इति । उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालावुत्रपुसफलादीनां शस्त्रकृतानि लदाखएमानि जण्यन्ते । चिञ्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकएिकत इति । तथा असंस्कृष्टो व्यञ्जनादिनालिप्तः। संसृष्टश्चैवं व्यञ्जना दिना लिप्तो वोडव्यो हस्त इति । विधि पुनरत्रोचं स्वयमेव वदयतीति ॥ ३४ ॥ (टीका.) तथा गेरुयत्ति सूत्रम् । गैरिको धातुः। वर्णिका पीता मृत्तिका । श्वेतिका शुक्मृत्तिका ।सौराष्ट्रिका तुवरिका। पिष्टमामतएमुलदोदः। कुकुंसा प्रतीताः । कृतनेति , एजिः कृतेन । हस्तेनेति गम्यते । तमोत्कृष्ट श्त्युत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालावुत्रपुषफ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. दीनां शस्त्रकृतानि श्लदणंखएमानि लण्यन्ते । चिञ्चिणिका दिपत्रसमुदायो वा उदूखलककित इति । तथा असंसृष्टो व्यअनादिना अलिप्तः । संसृष्टश्चैव व्यञ्जनादिलिप्तो बोडव्यो हस्त इति । विधिं पुनरत्रोई वयति स्वयमेवेति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ असंसरण होण, दवीए नायणेण वा॥ दिङमाणं न इनिजा, पना कम्मं जहिंनवे ॥३५॥ - (अवचूरिः ) असंसृष्टेन हस्तेनान्नादिनिरनावितेन, दया, नाजनेन वा दीयमानं नेछेत् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म यत्र जवति दादौ । शुष्कमएमकादि तदन्यदोषरहितं गृह्णीयात् ॥ ३५ ॥ ... (अर्थ.) असंसरणेति। (असंसरण के ) असंस्कृष्टेन एटले अणखरड्या एवा (हबेण के०) हस्तेन एटले हाथे करी (वा के) अथवा (दवीए के०)दा एटले कडीए करी किंवा (नायणेण के ) नाजनेन एटले वाडकी प्रमुख नाजनेकरी (दिङमाणं के०) दीयमानं एटले आपेढुं एवं जेअन्नपान ते प्रत्ये (न इबिजा के ) नेत् एटले वांडे नही. केवु होय तो वांडे नहीं, ते कहे . ( जहिं के) यत्र एटले जे ठेकाणे (पछाकम्मं के०) पश्चात्कर्म एटले नोजन कस्या पडी जे कर्म सचित्त पाणीए करी हस्त, कडली प्रमुख धोकुं तेने पश्चात्कर्म कहिये. ते पश्चात्कर्म (जवे के०) नवेत् एटले होय तो लेवं कल्पे नहि. अर्थात् ज्यां पश्चात्कर्म न लागे ते रोटली निर्दोष होय तो कल्पे. संसृष्ट असंस्कृष्ट उपर आंउ नांगा थाय तेनुं कोष्टक. (भंगसंख्या.)( हाथ.) (कड़छी.)(द्रव्य.) २ १ १ । ५ ६ १ । १ ७ | 5 ... २:-नीचेना कोष्टकमां (१) ए खरडेलानी तथा सावशेषनी अने (s) एवी निशाणी अणखरडेलाना कर तथा निरवशेषनी समजवी. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । श्य ने क लिप्त हाथ, कडबी अने वास होय, आपवानुं श्रोदनादि द्रव्य पण सावशेष होय, पटले साधुने व्यापीने शेष थाली मां रधुं होय तो प्रथम जांगो थाय. (१) हाथ तथा वास अन्नेकरी लिप्त होय, अने थालीमां शेष द्रव्य कां न रधुं होय, तो बीजो नांगो थाय. (२) हाथ अनेक लिप्त होय, घाली अलिप्त होय, अने खोदना दि द्रव्य साधुने पीने शेष बाकी रह्युं होय, तो त्री जो नांगो थाय. (३) हाथ अनेक लिप्त होय, वासण लिप्त न होय, अने ओदनादि द्रव्य जो साधुने पीने अवशेष न रहे, तो चोथो नांगो थाय. (४) अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, वासण लिप्त होय, साधु आपीने अवशेष अन्न रधुं होय तो पांचमो नांगो थाय. (५) अन्नेकरी हाथ लिप्त न होय, कडी अने वासण लिप्त होय, अने साधुने थापतां अवशेष कां न रहे, तो बहो नांगो याय. (६) हाथ अने करी लिप्त न होय, वासण लिप्त न होय, अने साधु आतां जो अवशेष रहे, तो सातमो नांगो थाय. ( 9 ) तथा अनेक हाथ, कड्डी तथा वासण लिप्त न होय, अने साधुने आपतां अवशेष द्रव्य रघुं न होय तो आठमो जांगो थाय. (७) तेमां पहेलो नांगो सर्वथा शुद्ध, बेल्लो सर्वथा अशुद्ध, बीजा सर्व मध्यम जाणवा. ॥ ३५ ॥ . ( दीपिका. ) ह च । संसृष्टेन हस्तेन अन्नादि निरलिप्तेन तथा दर्या जाजनेन वा दीयमानं नेछेडू न गृह्णीयात् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म यत्र जवति दयदौ, शुष्कमएककादि तदन्यदोषरहितं गृह्णीयादिति ॥ ३५ ॥ 5 ( टीका.) आह च । असं ति सूत्रम् । असंसृष्टेन हस्तेन अन्नादिनिर लिप्तेन दर्या भाजनेन वा दीयमानं नेच्छेत् । किं सामान्येन । नेत्याह । पश्चात्कर्म नवति यत्र दर्व्यादौ । शुष्कमएका दिवत् तदन्यदोषरहितं गृहीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ संसय हवे, दवीए नायण वा ॥ 1 दिऊमाणं परिचिका, जं तबेसणियं नवे ॥ ३६ ॥ (अवचूरिः) संसृष्टेन हस्तेन प्रतीकृष्ही यात् । यदेषणीयं जवति । अत्र वृद्धो क्तिः । संसह संस मत्ते सावसेसे दवे । संसठे हवे संस मत्ते निरवसेसे दवे । चाणो गंगा । एठ पढमजंगो सबुत्तमो से वि जब सावसेसं दवं तब धिप्प ए इयरेसु पछाकम्मदोसाउति ॥ ३६ ॥ ( . ) संसति । गोचरीए गएलो साधु ( संसण हवेण के० ) संसृष्टेन हस्तेन एटले अन्नादिके करी लिप्त एवा हाथे करी ( वा के० ) अथवा (दवीए Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द • २७६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. एटले कडी अथवा चाटुर्ड तेणे करी किंवा ( जायण के० ) नाजनेन एटले थाली प्रमुख पात्रे करी ( दिऊमाणं के०) दीयमानं एटले श्रापेला एवा अन्नपान. ( प ० ) प्रतीचेत् एटले ग्रहण करे. केवुं होय तो ग्रहण करे ते कड़े बे. ( जं के० ) यत् एटले जे ( तब के० ) तत्र एटले साधु ज्यां गोचरीए गयो . होय त्यां अथवा साधु ने वोहोराववा सारु जे अन्नपान त्र्यायुं होय, तेमां ( एसीचं के० ) एषणीयं एटले सूतुं एवं ( नवे के० ) जवेत् एटले होय, ते ग्रहण करे. ॥ ३६ ॥ (दीपिका) संसृष्टेन हस्तेन अन्ना दिलिप्सेन तथा दर्या जाजनेन वा दीयमानं प्रतीछेङ्गृहीयात्। किं सामान्येन । नेत्याह । यत्तत्र एषणीयं नवति तदन्यदोषरहित मित्यर्थः ॥३६ ( टीका. ) संसद्वेण त्तिसूत्रम् । संसृष्टेन हस्तेनान्नाद्विलितेन तथा दर्व्या जाजनेन वा दीयमानं प्रतीगृह्णीयात् । किं सामान्येन । नेत्याह । यत्तत्रैषणीयं नवति । तदन्यदोषर हितमित्यर्थः । इह च वृद्धसंप्रदायः । संसठे हवे संसठे मत्ते सावसेसे दवे । संसठे ह संस मत्ते पिरवसेसे दवे । एवं अ जंगा । एठ पढमजंगो सबुत्तमो । अन्नेसु वि जब सावसेसं दव्वं तब धिप्पइ । ण इयरेसु । पञ्छाकम्मदोसान ति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ डुहं तु झुंज माणा, एगो तब निमंत ॥ दिकमाएं न इचिज्जा, बंद से पडिलेहए ॥ ३७ ॥ ( अवचूरिः ) एकवस्तुनायकयोर्द्वयोर्भुजतोरेको निमन्त्रयेत् । बंद से तस्यानिप्रायं प्रत्युपेत नेत्रवक्रविकारैः । किमस्य दीयमानमिष्टं नवेति ॥ ३७ ॥ (अर्थ) दुहं तु इति । ( डुएटं के०) द्वयोः एटले वे जण (झुंज माणाएं के० ) मुञ्जानयोः एटले एक वस्तुना मालिक जोजन करतां बतां ( तब के० ) तत्र एटले तेमां ( एगो के० ) एकः एटले एकज वहोरवा आवेला साधुने बहोराववा सारु ( निमंतए के ० ) निमंत्रयेत् एटले निमंत्रे, ने बीजो निमंत्रे नहीं अर्थात् बेमाथी एक कहे वो वहोरो, अने बीजो कांइज बोले नहीं तो एवी रीते ( दिनमाणं के० ) दीयमानं एटले - पाता एवा अन्नपानने ( न इछेजा के०) नेवेत् एटले ते साधु वांबे नहीं लिये नहीं. तो त्यां शुं करे ते कहें बे. ( से के० ) तस्य एटले ते बेमाथी जे कांइ बोल्यो नहीं तेना ( बंद के० ) अभिप्राय प्रत्ये ( पडिलेहए के० ) प्रत्युपेदेत एटले प्रतिलेखे, तेनी वाट जुवे. एटले ते पुरुषना मुखनेत्रादि विकारथी कल्पना करें, के मने वहोरावे बे ते एने इष्ट बे के नथी. नेत्रादिकथी इष्ट बे एम जो जणाय; तो आलुं लिये, नहीं तो लिये नहीं. ॥ ३७ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २७.७ दीपिका. ) किं च प्रयोअतोः पालनं कुर्वतोः एकस्य वस्तुनो नायकयोरित्यर्थः । एकस्तत्र निमन्त्रयेत् तद्दानं प्रत्यामन्त्रयेत् । तदीयमानं नेछेडुत्सर्गतः । अपितु बन्दमनिप्रायं से तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेदेत नेत्रवक्रविकारै: । किमस्येदं दीयमानमिष्टं न वेति । इष्टं च गृहीयात् नो चेन्नेति । एवं जुञ्जानयोरन्यवहार उद्यतयोरपि योज - नीयम् । यतो जुजिधातुः पालनेऽज्यवहारे च वर्तत इति ॥ ३७ ॥ ( टीका. ) डुएहं ति सूत्रम् । द्वयोर्भुञ्जतोः पालनां कुर्वतोरेकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः । एकस्तत्र निमन्त्रयेत्तद्दानं प्रत्यामन्त्रयेत्तदीयमानं नेछेदुत्सर्गतः । श्र पितु उन्दमजिप्रायं से तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेदेत नेत्रवत्रादिविकारैः । किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति । इष्टं चेमृहीयान्न चेन्नैवेति । एवं जुञ्जानयोरन्यवहारोद्यतयोरपि योजनीयम् । यतो त्रुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तत इति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ एहं तु नुंजमाणाएं, दो वि तब निमंतर || दिऊमाणं पडिचिका, जं तबेसणियं नवे ॥ ३८ ॥ ( अवचूरिः ) भुञ्जतोर्भुञ्जानयोर्वा द्वावपि निमन्त्रयेयाताम् । दीयमानं प्रतीछेएहीयात् । यदेषणीयं जवेत् ॥ ३८ ॥ (अर्थ. ) तथा एहं इति. ( डुएटं के० ) द्वयोः एटले बन्ने जण ( गुंजमाणाएं के० ) गुंजानयोः एटले एक वस्तुना धणी बतां अथवा जोजन करतां बतां, (तब के०) तिहां ( दो विके० ) द्वावपि एटले ते वे जण पण ( निमंतर के० ) निमंत्रयेताम् ए- टले देवा सारु निमंत्रे, तो ( दिऊमाणं के० ) दीयमानं एटले ते पाता अन्नपानने ( पडिका के० ) प्रतिगृहीयात् एटले ग्रहण करे, लिये. ( जं के० ) यत् एटले जे (ta ho) तत्र एटले तिहां (एस एयं के ० ) एषणीयं एटले प्रासुक सूक्तुं एवं (नवे के ० ) जवेत् एटले होय. अर्थात् जो बीजा कांइपण दोष नहीं होयतो लिये ॥ ३८ ॥ ( दीपिका . ) तथा द्वयोस्तु पूर्ववतोर्भुञ्जानयोर्द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयाताम् । तत्रायं विधिः । दीयमानं प्रतीकृहीयात् यत्तत्रेषणीयं जवेत्तदन्यदोपरहितमिति ॥ ३८ ॥ 1 ( टीका. ) ततो डुएहं ति सूत्रम् । प्रयोस्तु पूर्ववत् अतोर्भुञ्जानयोर्वा द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयाताम् । तत्रायं विधिः । दीयमानं प्रतीछेद्धृहीयात् । यत्तत्रैपणीयं वेत्तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)- मा. विणी नवचं, विविदं पाणनोप्रणं ॥ नुंजमाणं विवक्रिका, नुत्तसेसं पडिए ॥ ३९ ॥ ( अवचूरि : ) विशेषमाह । गुर्विण्या गर्भवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितं विविधमनेकप्रकारं जुज्यमानं तथा विवर्जयेत् । मा नूत्तस्या अल्पत्वे नेच्छा निवृत्त्या गर्भपाता दिदोषः । श्रतो मुक्तशेषं मुक्तोरूरितं प्रतीच्छेत् ॥ ३५ ॥ ( अर्थ. ) वे विशेषविधि कहे बे. गुविपीए इति वली ते गोचरीए गएलो साधु (गुहिणीए के० ) गुर्विण्या एटले गर्भवती स्त्रीए (वस्त्रं के० ) उपन्यस्तं एटले तैयार करेलुं एवं (विविहं के० ) विविधं एटले घणा प्रकारनुं (मुंजमाणं के० ) - ज्यमानं एटले ते गर्भिणीए पोताने खावा सारु लीधुं एवं (पाणजो अणं के० ) पानभोजनं एटले पान ते द्राक्षापानकादि अने जोजन ते ओदनादि ते प्रत्ये ( विवद्धिhi ho ) विवर्जयेत् एटले विशेषे करी वर्जे. कारण के, तेम करे तो कदाचित् गर्जिणीने ओबो आहार होवाथी इछा पूर्ण न थवाने लीधे कदाचित् गर्भपा - तादि दोष उपजे, अने तेने अंशतः कारण साधु याय, माटे तेवुं अन्नपान लिये नहीं. ( त्तसेसं के०) मुक्तशेषं एटले ते गर्भिणी जम्या पढी अवशेष रहेला अन्नपान प्रत्ये ( प ० ) प्रतीचेत् एटले ग्रहण करे, लिये ॥ ३८ ॥ ( दीपिका. ) विधिविशेषमाह गुर्विण्या गर्भवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितम् । किं तदि| विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं प्राकापानख एखाद्यादि तत्र जुज्यमानं तया विवर्जयेत् । माजवतु तस्य जोजनग्रहणेऽल्पत्वेन तस्या अनिवृत्तिः । श्रनिवृत्तौ च गर्ज - पातदोषः स्यात् । अथ च मुक्तशेषं मुक्तोद्धरितं तु प्रतछेत् । यत्र पाननोजने तस्या जिलाषो निवृत्तो जवेत् ॥ ३८ ॥ 1 ( टीका. ) विशेषमाह । गुहिणीए ति सूत्रम् । गुर्विण्या गर्भवत्या उपन्यस्तमुपकल्पितम् । किं तदित्याह । विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं द्राक्षापानख एक खाद्यकादि । तत्र जुज्यमानं तया विवर्ज्यम् । मा भूत्तस्या अल्पत्वेना जिलाषा निवृत्त्या गर्न - पतनादिदोष इति । मुक्तशेषं मुक्तोद्धरितं प्रतीवेद्यत्र तस्या निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ सिया य समपठाए, गुब्विणी कालमासिणी ॥ उठिच्या वा निसीइका, निसन्ना वा पुण्ठए ॥ ४० ॥ ( अवचूरिः ) स्यात् कदाचित् श्रमणार्थं गुर्विणी कालमासवती । गर्भाधानान्नवम L Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । २७ मासवतीत्यर्थः । उचिता ऊर्ध्वस्था सती दानाय वा निषीदेत् । निषला वा पुनरुतिष्ठेत् ॥ ४० ॥ (अ.) सिया इति. ( कालमा सिंणी के० ) कालमा सिनी एटले जेमां प्रसूति या बे एवो नवमो मास जेने बे एवी ( गुब्विणी के० ) गुर्विणी एटले गर्भिणी स्त्री (साय के० ) स्याच्च एटले जो कदाचित् ( समणडाए के० ) श्रमणार्थं एटले साधु ( उहि के० ) उचिता एटले उनी होय तो साधुने हुं दान श्रपुं एवी बुद्धिथी ( निसी इजा के० ) निषीदेत् एटले अन्नादिक लेवा माटे बेसे, ( वा के० ) अथवा ( निसमा के० ) निषणा एटले प्रथम बेठेली होय . तो पबी साधुने अर्थे ( पुए के० ) पुनरुत्तिष्ठेत् एटले फरी ऊठे, ने साधुने वहोरावे. (तो ते न कल्पे. ) ॥ ४० ॥ ( दीपिका . ) किं, एवंविधा गुर्विणी स्त्री स्यात् कदाचिमणार्थं साधुनिमित्तं साधवे दानं ददामीति बुद्धथा उत्थिता सती नीषीदेत् । वाथवा निषमा सती स्वकायव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेत् । तदा साधुस्तदीयहस्तादाहारं न गृह्णीयादिति । किं विशिष्टा गुर्विणी | कालमा सिणी कालमासवती । गर्भाधानान्नवममासवतीत्यर्थः॥४०॥ . ( टीका. ) किंच, सिध्या य त्ति सूत्रम् । स्याच्च कदाचिच्च श्रमणार्थं साधुनि मित्तं गुर्विणी पूर्वोक्ता कालमासवती गर्भाधानान्नवममासवतीत्यर्थः । उचिता वा यथाकथंचिन्निषीदे निषणा ददामीति साधुनिमित्तम् । निषणा वा स्वव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेद् ददामीति साधु निमित्तमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ तं नवे जत्तपाणं तु, संजया कपिच्यं ॥ दिति पडिआइके, नमे कप्पर तारिसं ॥ ४२ ॥ (अवचूरिः) तद्भवेक्तपानं तुं निषीदनोज्ञानाच्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकम् । स्थविरक पिकानाम निषी दनोवानाच्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् | जिनकदिपकानां तु श्रपन्नसत्त्वाद्य दिवसादारम्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेव ॥ ४१ ॥ (अर्थ. ) ( तं के० ) तत् एटले ते ( उत्तपाणं तु ० ) नक्तपानं तु एटले अन्नपान (संजयाणं के० ) संयतानां एटले संयमी साधुने ( अकप्पिथं के० ) अकल्पिकं एटले लेवाने योग्य बे. (दितियं के० ) ददतीं एटले एवं सूतुं अन्नपान आपनारी श्राविकाने ( पाइके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे के, ( न मे कप्पर तारिसं के० ) न मे कल्पते तादृशं एटले महारे तेतुं अन्नपान लेतुं कल्पे नहि. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. कारण के, ते लात पाणी गर्जिणी स्त्रीए बेसवाश्री तथा ऊठवाथी दीधेलु साधुने अकल्पिक बे. अहीं एवो संप्रदाय डे के, जो ते गनिणी स्त्री साधुने वहोरावा माटे जग्वू, बेसवु न करतां जेवी वेठी होय अथवा उनी होय तेवी . रहीने वहोरावे, तो ते आहार स्थविरकल्पिक साधुने कल्पे, परंतु ते जिनकल्पी साधुने तो कल्पेज नहीं. जिनकल्पिक साधु तो जे दिवसे गर्न रहे ते दिवस मोमीने प्रसूति थाय त्यां सुधी गर्जिणीए वहोरावेलो आहार ग्रहण करे नहीं. कारण के, तेमनो एवोज आचार . ॥४१॥ ... ( दीपिका.) तादृशो दीयमान श्राहारः साधूनामकल्पिकः। अतस्तादृशमाहारं . ददती च गुर्विणी प्रति साधु किंवदेत्तदाह । तन्नक्तपानं तु निषीदनेनोडानेन च दीय मानं संयतानां साधूनामकल्पिकं नवेदग्राह्यं स्यात् । इह च अयं संप्रदायः । यदि - सा गुर्विणी निषीदनमुबानं च न करोति, यथाव स्थिता च सती आहारं ददाति । तत्स्थविरकल्पिकानां साधूनां कल्पते । जिनकल्पिकानां साधूनां तु न कल्पते । यतो जिनकल्पिकः प्रथमदिवसादारज्य गुविण्या दीयमानमाहारं. न गृह्णातीति.। यतश्चैवमाचारस्ततो गर्विणी तादृशमाहारं दीयमानां प्रत्याचदीत वदेत् । किं वदेत् । तादृशं जक्तपानं मम न कल्पते ॥४१॥ . (टीका.) तं नवे ति सूत्रम् । तन्नवेशक्तपानं तु तथा निषीदनोबानाज्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकम् । इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोबानाज्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् । जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथम दिवसादारज्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति संप्रदायः। यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥४१॥ थणगं पिऊमाणी, दारगं वा कुमारिअं॥ . तं निस्किवित्तु रोअंतं, आदारे पाणनोअणं ॥४२॥... . (अवचूरिः) स्तन्यं पाययन्ती दारकं कुमारिकां वा । वा निन्नक्रमः। ततो नपुंसकं वा । तं निक्षिप्य रुदन्तं नूम्यादौ आहरेदानयेत् पाननोजनम्।अत्रायं वृद्धसंप्रदायः। गछवासी जश् थणजीवी णिरिकत्तो तो न गिहारोवन वामा वा । अह अन्नं पिआ- .. हारे। तो जश् ण रोवश्तो गिण्ह । अह रोवति तो न गिण्ह । अह अपिअंतो निरिकत्तो थणजीवी रोवश्य तो न गिण्हति । यह न रोवर तो गिएहति । गबनिग्गया ...पुण जाव य थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा पिअंतं वा अपिअंतं वा न गिण्हं ति । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् ।. .: शर जाहे अन्नं पि आहारेजमाढत्तो नवः । ताहे जर पिअंत रोवल वा मा वा।ण गिएहति । अह अपिअंतर्ज ज रोवर तो परिहरंति । अरोविए गिण्हंति । सीसो पाह। तब को दोसो।आयरिया नणंति। तस्स निरिकप्पमाणस्स खरेहिं हजेहिं घिप्पमाणस्स । अथिरत्तणेण परितावणादोसो । मजाराश् वा अवहरेजत्ति ॥ ४२ ॥ (अर्थ.) तथा ( दारगं के ) दारकं एटले बालकने (वा के०) अथवा (कुमारिअं के ) कुमारिकां एटले कुमारिकाने वाशब्दनुं ग्रहण कलुं ने माटे नपुंसकने . (थणगं के ) स्तनकं स्तनने अर्थात् स्तनमाहेला दूधने ( पिङमाणी के) पाययं ती एटले पिवरावती थकी (तं के० ) तत् एटले ते बालक, कुमारिका अथवा नपुंसकने (रोअंतं के०) रुदंतं एटले रुदन करता एवा (निरिकवित्तु के) .. निक्षिप्य एटले मूकीने साधुने (पाणजोधणं के) पाननोजनं एटले अन्नपान (आहारे के०) बाहरेत् एटले वोहोरावे. तो ते न कल्पे. अहीं एवो वृद्धसंप्रदाय बे के, स्थविर कल्पी साधुंनो आचार एवो बे. जे बालकनी स्तनना दूधउपरज आजी.विका होय एटले जे अन्न खातो न होय एवा बालकने स्तनपान करतां मूकीने जो श्राविका वहोराववा आवे, तो ते आहार साधु लेता नथी. पड़ी ते बालक रोतो होय, अथवा न रोतो होय ते कांश जोता नथी. तथा जे बालक अन्ननो तथा स्तनना दूधनो पण श्राहार करे , एवा जनयजीवी पोताना बालकने मूकीने जो स्त्री अन्नपान वहोरावती होय, अने बालकपण भूकवाथी रमे नहीं, तो स्थविरक. पीने ते अन्नपान कल्पे. पण ते बालकने मूकवाथी जो ते रुदन करे, तो ते अन्नपान न कटपे. वली केवल स्तनना दूध उपरज जीवनारो बालक होय, पण साधुने वहोराववा ऊती वखते ते स्तनपान करतो नहीं होय, तो तेवा पोताना बालकने मूकीने पण आपेढुं अन्नपान सूफतुं होय तो ते स्थविरकल्पीने कल्पे, पण ते बालक वहोरावनारी स्त्रीए मूकवाथी रुवे नहीं तो कल्पे, अने रुवे तो न कल्पे, जिनकल्पीनो तो एवो श्राचार बे, के केवल माना दूधनो आहार लेनार वालकने मूकीने स्त्री वहोराववा ऊठे तो ते अन्नपान न कल्पे. पनी ते वालक मूकवानी वखते धावतो होय, अथवा रोतो होय के नहीं होय ते कां जोवानुं नथी. शहां शिष्य पूजे जे के,उपर कहेली रीते अन्नपान केम साधु लेता नथी ? तिहां श्राचार्य कहे जे के, तेम करवाथी दोष उपजे . ते केवा दोष तो के, कदाचित् कठोर हाथे त्यां भूकेला वालकने अस्थिरपणाथी परितापना उपजे, अथवा विलाडी विगेरे यावीने तेने उपजव करे. ॥ ४ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) पुनः कथं न गृण्हीयादित्याह । एवंविधा स्त्री यदि पानजोजनमाहरेदद्यात्तदा साधुन गृण्हीयात् । किं कुर्वती दारकं वालकं, दारिकां च वालिकां, वा शब्दानपुंसकं स्तनं पाययन्ती । किं कृत्वा । तदारकादि रुदत्सम्यादौ निदिप्य । अयमत्र संप्रदायः। गबवासी साधुर्यदि बालकादिः स्तनजीवी नवति । स्तनं च पिबन् वर्तते । स रुदन्नरुदन् वा नवतु । परं तं बालकादिकं नूम्यादौ निक्षिप्याहारं दद्यात्तदा नगृहीयात् । अथ बालकादिः स्तन्यं पिबति। अन्यनोजनमपि करोति । परं निक्षिप्पमाणोरोदिति । तदापि आहारं दीयमानं न गृण्हीयात् । अथ नो रोदनं करोति। तदा गृ. एहीयात्। अथ स्तनजीवी वर्तते परं तत्समये निदिप्यमाणःस्तन्यपानं न कुर्वाणोऽस्ति। परं निक्षिप्यमाणो रोदनं करोति । तदापि स्त्रिया दीयमानमाहारं नो गृण्हीयात् । श्रथ न कुर्वाणोऽस्ति तदा गृण्हीयात् । अथ अन्नमाहर्तुमारब्धोऽस्ति, परं स्तन्यं पि. बन्नस्ति । तदा रोदनं करोतु वा मा वा। साधुन गृण्डीयात् । अयापिवन्नपि यदि रोदिति तदापि न गृण्हीयात् । अत्र शिष्यः प्राह । एवमाहारग्रहणे को दोषः । गुरुराह। खरहस्तैर्बालकादेम्यादौ निदिप्यमाणस्य अस्थिरत्वेन परितापनादोषो जवेत्। मार्जारो वा तं बालादिकमपहरेत् ॥ ४ ॥ - ( टीका.) किं च, थणगं ति सूत्रम् । स्तनं पाययन्ती। किमित्याह । दारकं वा कुमारिकाम् । वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। अतएव नपुंसकं वा । तद्दारकादि निक्षिप्य रुदम्यादौ थाहरेत्पानजोजनम् । अत्रायं वृद्धसंप्रदायः । गबवासी जश थणजीवी पिअंतो णिकित्तो तो न गिण्हंति। रोवन वा मा वा।अह अन्नं पि आहारे। तो जति ण रोवश्तो निण्हंति। अहरोवश्तोन गिण्हंति अह अपिअंतोणि कित्तो थणजीवी रोवर तण गिण्हंति । अहण रोवर तो गिण्हंति । गणिग्गया पुण जाव थणजीवी तावरोवउ वामावा, पिवंतर्ज अपिबंत वाण गिण्हंति । जाहे अन्नं पि आहारे पाढत्तोनवति। ताहे जश् पिबंत तो रोवन वा मा वाण गेण्डंति।अह अपिबंत तोजश्रोवर तो परिहरति । अरोविए गेण्हंति । सीसो थाह । को तब दोसो नि। श्रायरि नण । तस्स णिरिकप्पमाणस्स खरेहिं हहिं घिप्पमाणस्स अथिरत्तणेण परितावणादोसा मजारादि वा अवहरेज त्ति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दिति पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥४३॥ (अवचूरिः) तं नवे इत्यादि गाथा पूर्ववत् ॥ ४३ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। श्३ (अर्थ.) (तं नवे इत्यादि गाथानो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. तथापि तेनो नावार्थ अहिं लखिये बियें.) तेवू असूफतुं अन्नपान साधुने कल्पे नहीं. ॥४३॥ __ (दीपिका.) एवं दीयमानां स्त्रियं प्रति प्रत्याचदीत साधुः। किंवदे दित्याह । तन्नक्तपानं तु पूर्वोक्तं संयतानामकल्पिकमकल्पनीयम् । यतः कारणादेवं ततो ददती स्त्रियं प्रति प्रत्याचवीत वदेत् । न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ५३॥ (टीका.) तं नवे त्ति सूत्रम् । तनवेन्नक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकम् । यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४३॥ - नवे जत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकिअं॥ दितिअं पडिआश्के, न मे कप्पर तारिसं ॥४४॥ - (श्रवचूरिः) यन्नवेङ्गक्तपानं तु कल्पाकल्पविषये शङ्कितं न विद्मः किमिदमुजमादिदोषयुक्तं किं वा नेत्याशङ्कास्पदीनूतम् । असति कल्पनिश्चये ददती प्रत्याचदीत न मे कल्पते तादृशमिति ॥४४॥ . (अर्थ.) जं नवे जत्तपाणं तु इति (जं के) यत् एटले जे (नत्तपाणं तु के०) जक्तपानं तु एटले अन्नपान (कप्पाकप्पंमि के) कल्पाकल्पे एटले कल्पे एवं डे के अकल्पनीक बे, अर्थात उजमादि दोषयुक्त बे, एवी (संकिअं के०) शं. कितं एटले शंकाए करी युक्त होय तो, तेने (दितिअं के) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने (पडिआइके के) प्रत्याचक्षीत एटले ना कहे. केवीरीते ना कहे ते कहे . (न मेकप्प३ तारिसं के०) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवू श्रनपान कल्पे नहि, एम कहे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) किं बहुना, उपदेशस्य सर्वरहस्यमाह । यन्नक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीययोर्विषये शङ्कितं जवेद् न वयं विद्मः किमिदमुजमादिदोषयुक्तं किंवा नेति शङ्कास्थानं स्यात् । तदिनूतं कल्पनीयनिश्चयेऽजाते सति अशनादि दीयमानां स्त्रियं प्रति साधुरिति प्रत्याचहीतेति वदेत् । किम् । न मम कल्पते तादृशमिति॥४॥ (टीका.) किं बहुनेत्युपदेशसर्वस्वमाह । जंजवे त्ति सूत्रम् । यन्नवेशक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषय इत्यर्थः । किम्। शङ्कितं न विद्मः किमिदमुन्मादिदोषयुक्तं किंवा नेत्याशङ्कास्पदीनूतम् । तदिनूतमसति कल्पनीयनिश्चये ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४४॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. दगवारेण पिहित्र्यं, नीसाए पीढएण वा ॥ लोढे वा विलेवे, सिलेसेण वि केाइ ॥ ४८ ॥ (अवचूरिः) दकवारेणोदककुम्भेन, नीसाए निस्सारिकापेषण्या, पीठकेन काष्ठपीठादिना, लोष्टकेन शिलापुत्रके, लेपेन मृल्लेपादिना श्लेषेण वा केन चिजातु सिक्यादिना पिहितम् ॥ ४५ ॥ ( अर्थ. ) वली केवो खाहार न लेवो ते कहे बे. दगवारेण चि. ( दगवारेण के० ) दकवारेण पटले पाणीना घडाए करी (पिहियां के०) पिहितं एटले ढांकेलु, (वा के० ) sarat (नीसाए के० ) निःसारिकया एटले पछरनी लीहाए करी, किंवा (पीढएण के० ) पीठकेन एटले बाजो करी वा ( लोढे के० ) लोष्टेन एटले नीसातरे करी ढांकेलुं (वा० ) अथवा (विलेवेण के० ) विलेपेन एटले मृत्तिकादिकना लेपे करी मुद्रा दइने जे श्रन्नपानना जाजननुं मोढुं बंध कस् बे एवं, किंवा (सिलेसेण वा के०) श्लेषेण वा एटले लाखे करी बीडेली मुद्रादिक होय, तथा कोठी प्रमुखे दाटो दीधो होय, पेटी प्रमुखे तालुं दीधुं होय, अथवा ( केण इ के०) केनचित् एटले कोइ पण वस्तुए करी . ढांक एवं अन्नपान साधुने बहोराववाने राखेलुं होय, तो ( ते न कल्पे.) ॥ ४५ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशमाहारं न गृहीयादित्याह । यदशनादि जाजनस्थं दकवारेण पानीयकुम्जेन पिहितं स्थगितं जवेत् । तथा नीसाएत्ति निस्सारिकया पेawar, पीant काष्ठपीगदिना, लोढेन वापि शिलापुत्रकेण तथा लेपेन वा मृपादिना, श्लेषेण वा केनचितुसिक्थादिना पिहितं जवेत् ॥ ४५ ॥ ( टीका. ) किं च दगवारेण त्ति सूत्रम् । दकवारेणोदककुम्जेन पिहितं जाजनस्थं स्थगितम् । तथा नीसाएत्ति पेषण्या, पीठकेन वा काष्ठपीठादिना, लोढेन वापि शिलापुत्र तथा लेपेन मृलेपनादिना श्लेषेण वा केन चितु सिक्थादिनेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तं च निंदिया दिका, समएडा एव दावए ॥ दितियं पडिच्याइके, न मे कप्पइ तारिंसं ॥ ४६॥ ( अवचूरिः ) तद्भाजनं स्थगितं लिप्तं सद्भियात् श्रमणार्थ दायकः ॥ ५६ ॥ ( अर्थ. ) तं चेति. ( तं के० ) तत् एटले ते ढांकेलु, लीपेलुं अथवा मुद्रित करेलुं एवं अन्नपानादिक जाजन ( समणा एव के० ) श्रमणार्थमेव एटले साधुज पण पोताने अर्थे नहीं. ( उनिंदिया के० ) उद्भिद्य एटले ते मुद्रा फोडी नाखीने अथवा ढांकण उघाडीने ( दावए के० ) दायक: एटले साधुने वहोरा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ... श्य वनारो गृहस्थ (दिजा के) दद्यात् एटले पूर्वोक्त प्रकारच् अन्नपान आपे, तो तेवा अन्नपानने (दिति के) ददतं एटले आपनार एवा गृहस्थ प्रत्ये (पडिआश्के के ) प्रत्याचदीत एटले प्रतिषेधे. केवी रीते प्रतिषेधे ते कहे . ( न मे कप्पर तारिसं के०) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवु अन्नपान कल्पे नहीं. ॥४६॥ (दीपिका.) तत्किं कुर्यादित्याह । पुनः तच्चैतैः पूर्वोक्तैः स्थगितं लिप्तं वा श्रमणार्थ . नात्मार्थं सकृङ्गिद्य दायको दद्यात् । तदित्थंभूतं ददती स्त्रियं साधुर्वदेन मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४६ ॥ .... (टीका.)तं च त्तिसूत्रम् । तच्च स्थगितं वितं वा सत् उभिद्य दद्याबमणार्थ दायकः। नात्माद्यर्थम् । तदिवंचूतं ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृश मिति सूत्रार्थः ५६ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साश्मं तदा ॥ जं जाणिक सुपिजा वा, दाणहा पगडं मं॥४७॥ ___ (अवचूरिः) अशनं पानकं वापि खायं खायं तथा उदनारनालादि लम्कहरीतक्यादि यजानीयादामन्त्रणादिना शृणुयामान्यतो यथा दानार्थ प्रकृतमिदं साधुवा. दार्थ देशान्तरादागतो यो दत्ते ॥ ४ ॥ '(अर्थ.) असणमिति. (असणं के०) अशनं एटले श्रोदनादिक वस्तु, (वा केणे) श्रथवा (पाणगं वि के) पानकमपि एटले दाखवाणी आरनालादिप्रमुख पीवाना पदार्थ ( तहा के० ) तथा (खाश्मं के) खाद्यं एटले लक, मेवा, सुखडी प्रमुख खावाना पदार्थ अने (सामं के) खाद्यं एटले हरीतकी मुखवास प्रमुख पदार्थ. ए माहेला (जं के०) यत एटले जे पदार्थने आमंत्रणादिके करी पोते जाणे, (वा के) अथवा (सुणिजा के) शृणुयात् एटले वीजाना कहेवाथी सांजले. ते केवी रीते जाणे, अथवा सांजले, ते कहे . ( दाणहा पगडं श्मं के) दानार्थ प्रकृतमिदं, ६ एटले ए फलाएं अशनादिक को देशांतरथी आवेला वाणियाए साधुने अथवा पाखंडीजने आपवा माटे प्रकृत एटले नीपजाव्युं . ॥ ७ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयादित्याह । अशनं मुजादि, पानकं वा श्रारना. लादि, खादिम लमुकादि, स्वादिमं हरीतक्यादि साधुर्यजानीयात्स्वयमामन्त्रणादिना वाथवा अन्यतः शृणुयात्। किम् । यदिदमशनादिकं दाणा पगळं । कोऽर्थः। कोऽपि वणिक् देशान्तरादायातः साधुनिमित्तं ददाति । अथवा अव्यापारपाख किन्यो ददाति। तदप्यशनादिकं न गृह्णीयात् ॥४७॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. दगवारे पिढिच्यं, नीसाए पीढएण वा ॥ लोढे वा विलेवे, सिलेसेण वि केाइ ॥ ४८ ॥ (अवचूरिः) दकवारेणोदककुम्नेन, नीसाए निस्सारिकापेपण्या, पीठकेन काष्ठपीठादिना, लोष्टकेन शिलापुत्रकेण, लेपेन मृल्लेपादिना, श्लेषेण वा केन चिजातु सिक्यादिना पिहितम् ॥ ४५ ॥ ( अर्थ. ) वली केवो आहार न लेवो ते कहे बे. दगवारेण ति. ( दगवारेण के० ) दकवारेण पटले पाणीना घडाए करी (पिहिां के०) पिहितं एटले ढांकेलं, (वा के०) थवा ( नीसाए के० ) निःसारिकया एटले पचरनी लीहाए करी, किंवा (पीढए के० ) पीठकेन एटले बाजोठे करी वा ( लोढे के० ) लोप्टेन एटले नीसातरे करी ढांकेलं (ar ho) अथवा (विलेवेण के०) विलेपेन एटले मृत्तिकादिकना लेपे करी मुद्रा दइने जे अन्नपानना जाजननं मोढुं बंध करयुं बे एवं, किंवा (सिलेसेण वा के० ) श्लेषेण वा एटले लाखे करी बीडेली मुद्रादिक होय, तथा कोठी प्रमुखे दाटो दीधो होय, पेटी प्रमुखे तालुं दीधुं होय, अथवा ( केण इ के०) केनचित् एटले कोइ पण वस्तुए करी ढing एवं पान साधुने बहोराववाने राखेतुं होय, तो ( ते न कल्पे . ) ॥ ४५ ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशमाहारं न गृहीयादित्याह । यदशनादि जाजनस्थं दकवारेण पानीयकुम्जेन पिहितं स्थगितं जवेत् । तथा नीसाएत्ति निस्सारिकया पेषण्या, पीठकेन काष्ठपीगदिना, लोढेन वापि शिलापुत्रकेण तथा लेपेन वा मृपादिना, श्लेषेण वा केनचितुसिक्थादिना पिहितं जवेत् ॥ ४५ ॥ ( टीका. ) किं च दगवारेण ति सूत्रम् । दकवारेणोदककुम्नेन पिहितं नाजनस्थं स्थगितम् । तथा नीसाएत्ति पेषण्या, पीठकेन वा काष्ठपीठादिना, लोढेन वापि शिलापुत्र तथा लेपेन लेपनादिना श्लेषेण वा केन चितु सिक्थादिनेति सूत्रार्थः ॥४५॥ तं च वनिंदिया दिका, समणठा एव दावए ॥ दितित्र्यं पडिच्याइके, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ४६ ॥ ( अवचूरिः ) तद्भाजनं स्थगितं लिप्तं सडुद्भिद्यात् श्रमणार्थं दायकः ॥ ४६ ॥ (अर्थ. ) तं चेति. ( सं के० ) तत् एटले ते ढांकेलं, लीपेलुं अथवा मुद्रित करेलुं एवं अन्नपानादिक जाजन ( समणा एव के० ) श्रमणार्थमेव एटले साधुने अवेंज पण पोताने अर्थे नहीं. ( निंदिया के० ) उनिय एटले ते मुद्रा फोडी नाखीने अथवा ढांकण उघाडीने ( दावए के० ) दायक: एटले साधुने वहोरा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । शन्य वनारो गृहस्थ ( दिजा के० ) दद्यात् एटले पूर्वोक्त प्रकार अन्नपान आपे, तो तेवा अन्नपानने ( दिंतियं के० ) ददतं एटले आपनार एवा गृहस्थ प्रत्ये ( पडि के के० ) प्रत्याचक्षीत एटले प्रतिषेधे. केवी रीते प्रतिषेधे ते कहे बे. ( न मे कप्पइ तारिसं के०) न मे कल्पते तादृशं एटले मने ते अन्नपान कल्पे नहीं. ॥ ४६ ॥ ( दीपिका. ) तत्किं कुर्यादित्याह । पुनः तच्चैतैः पूर्वोक्तैः स्थगितं लिप्तं वा श्रमणार्थ नात्मार्थं स दायको दद्यात् । तदित्थंभूतं ददतीं स्त्रियं साधुर्वदेन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४६ ॥ ( टीका. ) तं चत्ति सूत्रम् । तच्च स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य दद्यान्मणार्थं दायकः । नात्माद्यर्थम् । तदिवंभूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ४६ स पागं वावि खाइमं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, दाणठा पगडं इमं ॥ ४७ ॥ ( अवचूरिः ) श्रशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्यं तथा उदनारनालादि लकुकही तक्यादि यजानीयादामन्त्रणा दिना शृणुयाद्धान्यतो यथा दानार्थं प्रकृतमिदं साधुवादार्थ देशान्तरादागतो यो दत्ते ॥ ४७ ॥ (अर्थ) समिति ( असणं के० ) अशनं एटले श्रोदनादिक वस्तु, (वा के०) वा (पागं विके० ) पानकमपि एटले आाखवाणी आरनालादिप्रमुख पीवाना पदार्थ ( तहा के० ) तथा ( खामं के० ) खाद्यं एटले लकु, मेवा, सुखडी प्रमुख खावाना पदार्थ ( साइमं के० ) स्वाद्यं एटले हरीतकी मुखवास प्रमुख पदार्थ. ए माहेला (जं के० ) यत् एटले जे पदार्थने आमंत्रणादिके करी पोते जाणे, (वा के० ) अथवा ( सुणिका के० ) शृणुयांत् एटले वीजाना कहेवाथी सांजले. ते केवी रीते जाणे, अथवा सांजले, ते कहे बे. ( दाणा पगडं इमं के० ) दानार्थ प्रकृतमिदं, इदं एटले ए फलाएं अशनादिक कोइ देशांतरथी आवेला वाणियाए साधुने अथवा पाखंडीने श्रापवा माटे प्रकृत एटले नीपजाव्युं ठे. ॥ ४७ ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशं न गृह्णीयादित्याह । श्रशनं मुद्रादि, पानकं वा खारनालादि, खादिमं लकुकादि, स्वादिमं हरीतक्यादि साधुर्य कानीयात्स्वयमामन्त्रणा दिना वाथवा छान्यतः शृणुयात् । किम् । यदिदमशनादिकं दाषठा पगमं । कोऽर्थः । कोऽपि वणिक् देशान्तरादायातः साधु निमित्तं ददाति । अथवा अव्यापारपाख किन्यो ददाति । तदप्यशनादिकं न गृह्णीयात् ॥ ४७ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्द राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( टीका.) किं च असणत्ति सूत्रम् । श्रशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यम् । श्रशन-मोदनादि । पानकं वारनालादि, खाद्यं लम्कादि, स्वाद्यं हरीतक्यादि । यजानीयादामन्त्रणादिना । शृणुयाहा अन्यतः । यथा दानार्थ प्रकृतमिदम् । दानार्थ प्रकृतं नाम साधुवाद निमित्तं यो ददात्यव्यापारपाखएिकन्यो देशान्तरादेरागतो वणिक्प्रनृतिरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ .तारिसं नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्प३ तारि ॥४॥ - (श्रवचूरिः) तं नवे इत्यादि स्पष्टम् ॥ ४ ॥ ' (अर्थ.) (तं नवे इत्यादि गाथानो अर्थ प्रथम कह्यो ले तेम जाणवो.) तेवू असूफतुं अन्नपान होय तो संयमी साधुने कल्पे नहीं. माटे एवा अन्नपानने श्रापनारी श्राविकाने साधु मने ए कल्पे नहि, एवी रीते कहे. ॥ ॥ - (दीपिका.) तत्किं कुर्यादित्यत आह । तादृशमशनादिकं ददती स्त्रियं प्रति साधुः। किं वदेदित्याह । तन्नक्तपानं साधुपाखएिकदानार्थ यत्प्रकल्पितं तत्संयतानामकल्पिकं न कल्पते गृहीतुम् । यतः कारणादेवं तद्ददती स्त्रियं प्रत्याचक्षीत व देत्साधुर्यन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४ ॥ (टीका ) तारिसं ति सूत्रम्। तादृशं जक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकम्।यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिजा वा, पुस्महा पगडं इमं ॥४ए॥ __(अवचूरिः) पुण्यार्थ प्रकृतं साधुवादानङ्गीकरणेन ॥ ४ ॥ ' (अर्थ.) असणमिति. ( गाथाना पूर्वार्धनो अर्थ पूर्वे कह्यो , ते प्रमाणेज जाणवो.) वली अशनादि चतुर्विध पदार्थ माहेलू (जं के०) यत् एटले जे श्रोदनादि अव्यने (जाणिज के०) जानीयात् एटले आमंत्रणादिके करी जाणे, (वा के) श्रथवा ( सुणिजा के० ) शृणुयात् एटले बीजानी पासेथी सांजले. केवीरीते जाणे अथवा सांजले ते कहे . ( श्मं के० ) इदं एटले ए अमुक अन्न (पुणहा के०) पुण्यार्थं एटले साधुवादने अर्थे नहीं, पण पुण्यने अर्थे ( पग के०) प्रकृतं एटले पार कयुं . एम जाणे अथवा सांजले तो ते न कल्पे. ॥ ४ए ॥... Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ខ្ញុំច១ (दीपिका.) तादृशं श्रशनादिकं ददती स्त्रियं प्रति साधुः किंवदेदित्याह । तनक्तपानं -: साधुपाषएिकदानार्थ यस्प्रकल्पितं तत्संयतानामकल्पिकं न कल्पते गृहीतुं । यतः कार• णादेवं ततो ददती स्त्रियं प्रति वदेत् साधुर्यन्न मम कल्पते तादृशमिति ॥ ४ ॥ . (टीका.) असणं ति सूत्रम् । एवं पुण्यार्थं प्रकृतं नाम साधुवादानगीकरणेन यत्पु- एयार्थं कृतमिति । अत्राह । पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो निदाया श्रम हणमेव । शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः। तथाहि । न पितृकर्मा दिव्यपोहेनात्मा र्थमेव तुजसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति । नैतदेवम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् स्वनोग्या." तिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात् । स्वन्नृत्यनोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्व रयछादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति । ऐतेनादेयदानाजावः प्रत्युक्तः। देयस्यैव यहादानानुपपत्तेः । कदाचिदपि वा दाने यहादानोपपत्तेः । तथा व्यवहारदर्शनात् । अनीदृशस्यैव प्रतिषेधात् । तदारम्नदोषेण योगात् । यहछादाने : तु तदनावेऽप्यारम्नप्रवृत्तेः नासौ तदर्थ इत्यारम्नदोषायोगात् । दृश्यते च कदाचित्सू. तकादाविव सर्वेच्य एव प्रदान विकला शिष्टानिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति । विहि तानुष्ठानत्वाच्च तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गेन । गमनिकामात्रफलत्वा:: प्रयासस्येति ॥४॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दिति पडिभाइके, न मे कप्पश् तारिसं॥५०॥ (श्रवचूरिः) तं नवे इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५० ॥ . (अर्थ.) (तं जवे इत्यादि गाथानो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) तेवू असूफतुं अन्नपान साधुने कल्पे नहि. माटे तेवा अन्नपानने थापनारी श्राविकाने साधु “ मने ए कल्पे नहि" एम कहे. ५० ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृण्हीया दित्यत थाह। साधुः पुण्यार्थ प्रकृतं न गृण्ही. .. यात् । कोऽर्थः । साधुवादानङ्गीकारेण यत्पुण्यार्थ प्रकृतम् । शेषं गाथाघ्यव्याख्यानं पूर्ववज्ज्ञेयम् ॥ ५ ॥ . (टीका.) तं जवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५० ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साश्मं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, वणिमहा पगमं श्मं ॥ १॥ ., (श्रवचूरिः) वनीपकार्थम् । वनीपकाः कृपणाः॥५१॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शज राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ( अर्थ.) तथा असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत्.) अशनादिक चार प्रकारना अन्नपान माहेबुं (जं के०) यत् एटले जे वस्तुने (जाणिज के०) जानीयात् एटले आमंत्रणादिक उपरथी पोते जाणे, (वा के०) अथवा (सुणिजा के) पृणुयात् एटले बीजा पासेथी सांजले, केवी रीते जाणे, अथवा सांजले ते कहे वे ( इमं के) इदं एटले ए चतुर्विध अन्नपान पित्रादिकना उद्देशथी ( वणिमहा के) वनीपकार्थ एटले याचकने, निदाचरने आपवा सारु ( पगडं के०) प्रकृतं एटले तैयार कघु ठे, एम जाणे, अथवा सांजले- तो (ते न कल्पे.)॥५१॥ (टीका.) असणंति सूत्रम् । एवं वनीपकार्थम् । वनीपकाः कृपणाः ॥५१॥ तं नवे नत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पमिआइके, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ५॥ (अवचूरिः) तं जवे इत्यादि गाथा पूर्ववत् ॥ ५ ॥ (अर्थ. ) ( तं नवे एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ) तेवू असूफतुं अन्नपान संयमी साधुने कल्पे नहीं, माटे तेवा अन्नपान प्रत्ये वहोरावनारी श्राविकाप्रत्ये साधु मने ए कल्पे नहि एम कहे. अहिं को शंका करे के, साधु जो पुण्यार्थ करेला अन्नपाननो त्याग करे तो, श्रेष्ठ श्रावकने घेर अन्नपान साधुए लेवुज नहीं एम थाय. कारण के, श्रेष्ठ श्रावक डे ते अज्ञान पुरुषनी पेठे क्यारे पण केवल पोताने अर्थे अन्नपान तैयार करेज नहीं. तो हमेश पोताने अर्थे अन्नपान तैयार करतां तेमां पितृकर्मादि पुण्यनो पण हेतु होय . ए शंकानो उत्तर प्राचार्य कहे जे. एनो अभिप्राय एवो के, श्रेष्ठ श्रावक ज्यारे केवल पितृकर्मादिरूप पुण्यना हेतुथीज पोताने तथा पोताना कुटुंबना माणसने जेटर्बु खपतुं होय तेथी पण वधारे अन्नपान करे तो, तेवू अन्नपान साधुने कल्पे नहीं, परंतु जो श्रेष्ठ श्रावक हमेशना धारा मुजब पोताने अर्थे तथा शुनपरिणामथी अन्नपान तैयार करे, अने वली ते नित्य जेटलुं जोश्ये तेटलुंज तैयार करे, तेमां जो यहाथी ए साधु आवे तो तेने पण वोहोरावे, तो ते अन्यदोषरहित होय, तो साधुने कल्पे . ॥ ५५ ॥ (टीका.) तं नवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं सामं तदा ॥ जंजाणिक सुणिजा वा, समणहा पगम इमं ॥ ५३॥.. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ए (अवचूरिः) असणमिति । श्रमणार्थम् । श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयः॥ ५३॥ __ (अर्थ.) असणमिति. (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत्.) तथा अशन, पान, खाद्य अने स्वाय. ए चार प्रकारना अन्नपान माहेला (जं के ) यत् एटले जे वस्तुने (जाणिजा के) जानीयात एटले आमंत्रणादिके करी पोते जाणे, अथवा ( सुणिजा के) शृ. णुयात् एटले बीजा तरफथी श्रवण करे. केवी रीते जाणे, अथवा श्रवण करे ते कहे . . (श्मं के०) इदं एटले ए अन्नपान ( समणहा के०) श्रमणार्थं एटले शाक्या दिकने . अर्थे (पगडं के०) प्रकृतं एटले तैयार कखु जे. एम जाणे, अथवा सांजले, ... तो ते न कल्पे. ॥ ५३॥ - (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृण्हीयादित्याह। साधुः श्रमणार्थं प्रकृतमशनादिन - गृहीयात् । श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयस्तन्निमित्तं कृतम्। शेषं गाथाघ्यव्याख्यानं पूर्ववत् ॥५३॥ (टीका.) असणं ति सूत्रम् । एवं श्रमणार्थम्।श्रमणा निर्ग्रन्थाः शाक्यादयः॥५३॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दिति पडिआश्के, न मे कप्प३ तारिसं॥५४॥ (अवचूरिः) तं नवे इत्यादिगाथा पूर्ववत् ॥ ५४॥ ___(अर्थ.) (तं नवे एनो अर्थ पूर्ववत्.) तेवू असूफतुं अन्नपान संयमी साधु लिये - नहीं. माटे तेवा अन्नपानने आपनारी श्राविका प्रत्ये पूर्वोक्त साधु कहे के, मने तेवू :: कल्पे नहि. ॥ ५४॥ (दीपिका.) तं नवेत्ति । स्पष्टम् ॥ ५४॥ (टीका.) तं नवे त्ति सूत्रम् । प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ २४ ॥ उद्देसिअंकीअगडं, पूश्कम्मं च श्राहमं॥ अप्नोअरपामिच्चं, मीसजायं विवजए ॥ ५५॥ (अवचूरिः) जदिश्य कृतमौदेशिकं साधूद्देशेन दन उंदनस्य मीलनेन करम्बककरणम् सखएिमकोवृत्तमोदकचूर्णेन गुडपानादि दिवा मोदककरणं च । कीतकृतंडव्यजावक्रयक्रीतन्नेदम् । पूतिकर्म संन्नाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रम् । याहृतं खग्रामाहृतादि । अध्यवपूरकं स्वार्थमूलाग्रहणप्रदेपरूपम् । प्रामित्यं साध्वर्थमुविद्य दानसक्षणम् । मिश्रजातं चादित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपम् ॥ ५५ ॥ ३७ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. . (अर्थ.) तथा उदेसिअंति। (उदेसि के०) प्रौदे शिकं एटले साधुने आपवाना उद्देशथी तैयार करेलुं, अथवा ( कीअगडं) क्रीतकृतं एटले वेचातुं याणेलु, किंवा (पूश्कम्मं के०) पूतिकर्म एटले सूकता आहारमा आधाकर्मीनो नाग नेट्यो होय एवं, तथा (आहडं के) आहृतं एटले ग्रामादिकथी लावे, तेमज(अप्लोयर के) अध्यवपूरकं एटले साधु आव्या जाणी मूल आहार माहे उमेरेलु एवं, अथवा (पामिचं के) प्रामित्यं एटले उडीनुं आणी आपेलु, ( च के) वली (मीसजायं के ) मिश्रजातं एटले गृहने अने साधुने अर्थे नेलु नीपजाव्युं, ते मिश्रजात एवं अन्नपान होय तो ते प्रत्ये ( वजाए के ) वर्जयेत् एटले वर्जे. ॥२५॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात् इत्याह।जद्दिश्य साधुनिमित्तं कृतमौदेशिकं १ क्रीतकृतं अव्यत्नावक्रयकीतनेदं पूतिकर्म च संजाव्यमानाधाकर्मावयवैः संमिश्रम् ३ अन्याहृतं साधुनिमित्तं ग्रामादेरानीयमानं ४ तथा अध्यवपूरकं स्वार्थमूलाजहणे साधुन्निमित्तं प्रदेपरूपं ५ प्रामित्त्यं साधुनिमित्तमुविद्य दानलकणं ६ मिश्रजातं च आदित एव गृहस्थसंयतयोनिमित्तं मिश्रमुपसंस्कृतम् । एतादृशं सर्वमशनादि साधुर्वर्जयेत् परं न गृह्णीयात् ॥ ५५ ॥ __ (टीका.) किंच । उदेसिअंति सूत्रम् । जद्दिश्य कृतमौदेशिकमुद्दिष्टकृतकर्मादिनेदम्। क्रीतकृतं अव्यत्नावक्रयक्रीतनेदम् । पूतिकर्म संजाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् । आहृतं स्वग्रामाहृतादि । तथाध्यवपूरकं स्वार्थमूलाअहणप्रदेपरूपम् । प्रामित्यं साध्वर्थमुविद्य दानलदाणम् ॥ मिश्रजातं चादित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतरूपं वजयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ जग्गम से अ पुचिका, कस्सहा केण वा कडं। सुच्चा निस्संकिअं सुई, पडिगादिक संजए ॥५६॥ (अवचूरिः) संशयव्यपोहोपायमाह । जन्मं तत्प्रसूतिरूपं से तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृबेत् कस्यार्थमेतत् केन वा कृतमिति श्रुत्वा तम्चो न नवदर्थं किंत्वन्यार्थमेवं निःशंकितं प्रतिगृह्णीयात् ॥ ५६ ॥ .. (अर्थ.) हवे संशय टालवाने अर्थे कहे . (य के ) वली पूर्वोक्त साधुने आहार वोहोरतां शंका उपजे तो (संजए के०) संयतः एटले संयमी साधु (से अके) तस्य च एटले ते अन्नपाननी वली ( जग्गमं के०) उजम एटले उत्पत्तिप्रत्ये (पुछिजा के० ) पृछेत्, एटले पूजे. केवी रीतें पूजे ते कहे .(कस्सहा के०) कस्यार्थम् एटले Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । . .शएर कोने वास्ते ए आहार तैयार कस्यो , तथा ( केण वा कडं के) केन वा कृतं एटले कोणे ए अन्नपान तैयार कखु जे. एम पूरीने ते श्राविकाना वचन उपरथी ते अन्नपान (निस्संकिअं के) निःशंकितं एटले उजमादि शंकारहित , अतएव (सुझं के०) निर्दोष बे एवं (सुच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (पडिगाहिज के) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे. ॥ ५६ ॥ (दीपिका.)अथ नजमादिदोषस्य संदेहदूरीकरणाय उपायमाह। संयतः साधुः शुद्धमशनादि निर्दोषं सत्प्रतिगृह्णीयात्।कथम् पूर्व तत्स्वामिनं कर्मकरं वा से तस्य अशनादेः शङ्कितस्य उजमं तनिष्पत्तिरूपं पृछेत् । यथा कस्यार्थमेतत्केन वा कृतम् एतत् । ततः किं कृत्वा । इति तहचः श्रुत्वा । इतीति किम् । न जवदर्थमिदमशनादि कृतं । किंतु अन्यार्थमिति निःशंकितं शंकारहितम् ॥ ५६ ॥ । .. (टीका.) संशयव्यपोहायोपायमाह । उग्गमं ति सूत्रम् । उमं तत्प्रसूतिरूपम् से तस्य शङ्कितस्याशनादेः पृछेत् तत्स्वामिनं परिचरं वा । यथा कस्यार्थमिदं केन वा - कृतमेतदिति । श्रुत्वा तच्चो न नवदर्थं किंत्वन्यार्थमेवंनूतं निःशङ्कितं शुद्धं सत्तहजुत्वादिनावगत्य प्रतिगृह्णीयात्संयतो विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः॥ ५६ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साइमं तदा ॥ पुप्फेसु दुऊ जम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥५॥ (अवचूरिः) पुष्पैर्जातिपुष्पादिनिः नवेत्तैरुन्मिभं वीजैर्हरितैर्वा । तृतीयार्थे सप्तमी ॥५॥ (अर्थ.) असणमिति. वली (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) अशनादि चतुविध अन्नपान (पुप्फेसु के०) पुष्पैः एटले जाति पाटलादिक पुष्पोए करी (वा के०) अथवा (वीएसु के०) वीजैः एटले शालि प्रमुख धान्ये करी अथवा ( हरिएसु के०) हरितैः एटले पूर्वादिक हरितकाये करी ( उम्मीसं के०) जन्मिभं एटले अर्थात् ते पुष्पादिके करी संयुक्त एवं (हुज के०) नवेत् एटले होय. ॥ २७ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात्तदाह।अशनं पानकं वापि खायं स्वायं तथा पुष्पैर्जातिपाटलादिनिव-जैहरितैर्वा यदि जन्मिनं नवेत्तदा संयतो न गृह्णीयात् ददती च किं वदेत्तदाह । दितियमिति ॥ ५७॥ ( टीका.) तथा असणं ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं वाद्यं तथा पुप्पैर्जातिपाटलादिनिः नवेऽन्मिभं वीजैहरितैवेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश राय धनपतसिंघवदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा.. तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ॥ (अवचूरिः) तं नवे इत्यादि स्पष्टम् ॥ ७॥ (अर्थ.) (तु के० ) पुनः (तं जत्तपाणं के०) तनक्तपानं एटले तेवू असूफतुं अन्नपान (संजयाण केa) संयतानां एटले संयमी साधुने (अकप्पियं के०) अकदिपकं एटले अकल्पनीक असूफतुं , माटे तेवा अन्नपानने (दितियं के०) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने, एवी रीतें (पडिआश्के के०) प्रत्याचक्षीत एटले कहे, जे मने ते कल्पे नहि. ॥ ५७ (दीपिका.) तं नवे जत्ता व्याख्या पूर्ववत् ॥ ७ ॥ .. (टीका.) तं नवेत्ति सूत्रम् । तादृशं जक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो दतती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमेवं सूत्रार्थः॥ ५ ॥ असणं पाणगंवा वि, खाइमं साश्म तदा ॥ उदगंमि दुऊ निस्कित्तं, जत्तिंगपणगेसु वा ॥५॥ (अवचूरिः ) उदके जवेन्निदिप्तमुत्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरादिषुचेत्यर्थः॥५॥ (अर्थ.) असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) तथा अशनादि चतुविध अन्नपान (उदगंमि के०) उदके एटले जलने विषे (वा के०) अथवा (उत्तिंगपणगेसु के०) कीडी प्रमुखना नगरपर (निरिकत्तं के०) निक्षिप्तं एटले मूक्युं एवं (हज के) जवेत् एटले थाय. उदकमा निक्षेप करवो तेना बे द बे. एक अनंतरनिदेप अने बीजो परंपरा निदेप. ॥ ५५ ॥ - (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात् इत्याद । अशनं पानकं वापि खायं स्वायं तथा यदि उदके सचित्तपानीयोपरि अथवा उत्तिंगपनकेषु कीटिकानगरेषु निक्षिप्त जवेत् । तदा साधुन गृह्णीयात् ॥ ५॥ (टीका.) तथा असणं ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्यं तथा उदके लवेनिहितमुत्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरोसीषु वेत्यर्थः । उदय निस्कित्तं दुविहं । अणंतरं परंपरं च । अणंतरं. एवणीतपोग्गलियमादि । परोप्परं जलघमोवरि जायण हं दधिमादि । एवं उत्तिंगपणएसु जावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । . २५३ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्पश् तारिसं॥६०॥ . (श्रवचूरिः) तं पूर्ववत् ॥ ६ ॥ (अर्थ.) तेवू असूफतुं अन्नपान साधुऊने कल्पे नहीं. माटे तेवा अन्नपानने थापनारी श्राविकाने “साधु मने ए आहार पाणी कल्पे नहि" एवी रीतें कहे॥६॥ (दीपिका.) ददती च किं वदे दित्याह । पूर्ववत् ॥ ६ ॥ (टीका.) तं नवेत्ति सूत्रम् । तनवेभक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साइमं तदा ॥ तेनम्मि दुळ निस्कित्तं, तं च संघहिआ दए॥६॥ (श्रवचूरिः) तेजसि जवेन्निक्षिप्तं दुग्धादि तन्मम निदां ददत्या मानूत्तापातिशय इत्यग्निं संघट्याशनादि दद्यात्॥ ६१ ॥ (श्रर्थ.) असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) तथा अशनादि चतुविध अन्नपान ( तेजंमि के ) तेजसि एटले तेजस्कायने विपे ( निरिकत्तं के०) निदितं एटले मूक्युं एवं (हुआ के ) नवेत् एटले होय, (च के०) अने (तं के०) ते अग्निने (संघहिया के०) संघट्य एटले संघहीने (दए के०) दद्यात् एटले आपे. ॥ ६१॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात्तदाह । अशनं पानकं खाद्यं स्वाद्यं यदि ते. जसि अग्नी निक्षिप्तं नवेत् तं संघट्य निदां दद्यात् तदा साधुन गृह्णीयात् । कुतः दात्री संघहनं कुर्यात्तत्रोच्यते अहं यावनिदां ददामि तावता मानूत्तापातिशयेन उह. तिष्यत इति ॥ ६१॥ (टीका) तथा असणंति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्य तथा तेजसि नवेन्निहितं तेजसीत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः । तञ्च संघट्य यावनितां ददामि तावत्तापातिशयेन मानूधर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पमिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए राय धनपतसिंघवदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तं नवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥५॥ (अवचूरिः) तं० नवे इत्यादि स्पष्टम् ॥ २७ ॥ (अर्थ.) (तु के० ) पुनः (तं चत्तपाणं केव) तनक्तपानं एटले तेवू असूफतुं अन्नपान (संजयाण के ) संयतानां एटले संयमी साधुने (अकप्पियं के०) अकदिपकं एटले अकल्पनीक असूफतुं , माटे तेवा अन्नपानने (दितियं के०) ददती एटले आपनारी एवी श्राविकाने, एवी रीतें (पडिआश्के के०) प्रत्याचदीत एटले कहे, जे मने ते कल्पे नहि. ॥ ५७ (दीपिका.) तं जवे नत्त व्याख्या पूर्ववत् ॥ २७ ॥ . (टीका.) तं जवेत्ति सूत्रम् । तादृशं जक्तपानं तु संयतानामकदिपकं यतश्चैवमतो दतती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमेवं सूत्रार्थः॥ ५ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्म साश्मं तदा ॥ जदगंमि दुऊ निस्कित्तं, जत्तिंगपणगेसु वा ॥५॥ (अवचूरिः) उदके जवेन्निक्षिप्तमुत्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरादिषुचेत्यर्थः॥५॥ . (अर्थ.) असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ) तथा अशनादि चतुविध अन्नपान (उदगंमि के०) उदके एटले जलने विषे (वा के७) अथवा (उत्तिंगपणगेसु के) कीडी प्रमुखना नगरपर ( निस्कित्तं के०) निदितं एटले मूक्युं एवं (हुजा के) नवेत् एटले थाय. उदकमा निक्षेप करवो तेना बे नेद . एक अनंतरनिदेप अने बीजो परंपरानिदेप. ॥ ५ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात् इत्याह । अशनं पानकं वापि खाद्यं खाद्य तथा यदि उदके सचित्तपानीयोपरि अथवा उत्तिंगपनकेषु कीटिकानगरेषु निक्षिप्त जवेत् । तदा साधुन गृह्णीयात् ॥ ५॥ (टीका.) तथा असणं ति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खाद्यं वाद्यं तथा उदके नवेनिक्षिप्तमुन्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरोसीषु वेत्यर्थः । उदय निरिकत्तं दुविहं । अणंतरं परंपरं च । अणंतरं णवणीतपोग्गलियमादि । परोप्परं जलघमोवरि जायण बं दधिमादि । एवं जतिंगपणएसु जावनीयमिति सूत्रार्थः॥ ५ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । -- दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् ।. शए३ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्पश् तारिसं॥६०॥ . (अवचूरिः) तं पूर्ववत् ॥ ६ ॥ (अर्थ.) तेवू असूऊतुं अन्नपान साधु ने कल्पे नहीं. माटे तेवा अन्नपानने थापनारी श्राविकाने “साधु मने ए आहार पाणी कल्पे नहि" एवी रीतें कहे॥६॥ (दीपिका.) ददती च किं वदे दित्याह । पूर्ववत् ॥ ६ ॥ (टीका.) तं भवेत्ति सूत्रम् । तसवेङ्गक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ असणं पाणगंवा वि, खाश्मं साश्मं तदा ॥ तेजम्मि हुऊ निस्कित्तं, तं च संघट्टिा दए॥६॥ (अवचूरिः) तेजसि लवेन्निहितं मुग्धादि तन्मम निदां ददत्या माजूत्तापातिशय श्त्यग्निं संघट्याशनादि दद्यात्॥ ६१॥ (अर्थ.) असणमिति । (पूर्वार्धनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो.) तथा अशनादि चतुविध अन्नपान ( तेजंमि के ) तेजसि एटले तेजस्कायने विषे ( निरिकत्तं के०) निदितं एटले मूक्युं एवं ( हज के ) नवेत् एटले होय, (च के ) अने (तं के) ते अग्मिने ( संघट्टिया के०) संघव्य एटले संघट्टीने (दए के०) दद्यात् एटले आपे. ॥ ६१॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशं न गृह्णीयात्तदाह । अशनं पानकं खायं स्वाधं यदि ते. जसि अग्नौं निक्षिप्तं नवेत् तं संघट्य निदां दद्यात् तदा साधुन गृह्णीयात् । कुतः दात्री संघट्टनं कुर्यात्तत्रोच्यते अहं यावनिदां ददामि तावता मानूत्तापातिशयेन उह. तिष्यत इति ॥१॥ (टीका ) तथा असणंति सूत्रम् । अशनं पानकं वापि खायं खाद्यं तथा तेजसि नवेन्निंक्षिप्तं तेजसीत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः। तच्च संघव्य यावन्निदां ददामि तावत्तापातिशयेन माजूकुछतिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६१॥ . . तंजवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पनिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६॥ . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए। राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) तं ॥ ६ ॥ (अर्थ. ) (तु के० ) तो तेवू असूफतुं अन्नपान साधुने कल्पे नहीं, माटे तेवा अन्नपानने आपनारीश्राविकाने पूर्वोक्त साधु कहे जे ते अन्नपान मने कट्पे नहि॥६॥ (दीपिका.) तदा ददती प्रति साधुः किं वदे दित्याह । पूर्ववत् ॥ ६ ॥ (टीका.) तं नवेत्ति सूत्रम् । तद्भवेन्नक्तपानं तु संयतानामकल्पिकमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एवं जस्सिक्किया, उसकिया, उकालिआ, पजालिआ, निवाविया, जस्सिचिया, निस्सिचिया, नेवत्तिया, यारिया दए ॥१३॥ (अवचूरिः) यावनिदां दास्यामि तावविध्यास्यतीत्युस्सिच्य अवसl दाहनयात् उन्मुकान्युत्सार्य उज्ज्वाल्यार्धविध्यातं सकृधःदेपेण प्रज्वाल्य पुनः पुनः दाहनयादेव उत्सिच्यातिनृताउज्जननयेन ततो वा दानाथ तीमनादि निषिच्य तन्नाजनाअहितं अव्यमन्यत्र जाजने तेन दद्यात् उतननीत्या वाहितमुदकेन निषिच्य अपवर्त्य तेनैवामिनि दिन नाजनेनान्येन वा दद्यात् अवतार्य दाहजयादानार्थ वा तदन्यच्च साध्वर्थयोगे न कल्पते. ॥.६३ ॥ . (अर्थ. ) ( एवं के) एमज कोश् श्राविका ( जस्सि किया के ) जत्सिच्य एटले चूलामांहे इंधण नाखीने अथवा (जैस्स किया के०) अवसl एटले अधिक बलवानी नीतिथी इंधण चूलामांथी पानं काढी लश्ने अथवा (उजालिआ के) उज्ज्वाट्य एटले थोडा इंधण नाखीने किंवा (पजालिया के०) प्रज्वाट्य एटले घणां इंधणां नाखीने अथवा ( निवाविया के) निर्वाप्य एटले अन्नादिक दाऊवाना जयथी अनि उन्हवीने अथवा ( जस्सिचित्रा के०) उत्सिच्य एटले उजरावाना जयथी कांश्क अन्न काढीने अथवा (निस्सिचित्रा के०) निषिच्य एटले उन्नराएं जाणी तेमाहे पाणी बाटीने किंवा ( उवत्तिया के) अपवर्त्य अग्निउपरतुं अन्न अन्यपात्रमा नाखीने अथवा (उयारिआ के०) अवतार्य एटले दाहना जयथी वासण हेठे उतारीने साधुने (दए के०) वोहोरावे ते न कल्पे. ॥ ३ ॥ (दीपिका.)पुनः कीदृशं अशनादि न गृह्णीयात् इत्याह । एवं जस्सिक्किाइति।यावनिदां ददामि तावत् मानूद्विध्यासतीत्युत्सिच्य दद्यात् १ एवं उस्सक्किा इति अवसl अ पिदाहनयात् जदमुकानि उत्सार्य इत्यर्थः । एवं उमाविया पजालिआ उज्ज्वाट्य अ.वेध्यातं सकृर्दिधनप्रदेपेण ३ प्रज्वाव्य पुनः पुनः एवं निवाविआ निर्वाप्य दाहनया Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययनम् । शशण्य दिनेति नावः ४ एवं उस्सि चिया निस्सिंचिया उत्सिच्य अतितृतात् जनननयेन ततो वा दानार्थं तीमनादि निषिच्य तद्भाजनाद्रहितं द्रव्यमन्यत्र भाजनेन दद्यात् उद्वर्तनायेन वाहितमुदकेन निषिच्य दद्यात् ५ एवं वत्तिच्या उखारिया अपवर्त्यतेनैव निनितेन जाजनेन अन्येन वा दद्यात् तथा अवतार्य दाहज्यादानार्थं वा दद्यात् । तत् अन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ॥ ६३ ॥ 1 ( टीका. ) एवं उस्सिक्कियत्ति । यावनिकां ददामि तावन्मानू द्विध्यास्यतीत्युत्सिच्य दद्यादेवं सक्किया वसतिदाहयाल्मुकान्युत्सार्येत्यर्थः । एवं उकालिया पंजा लिया उज्ज्वाल्यार्ध विध्यातं सकृदिंधनप्रदेपेण । प्रज्वाय पुनः पुनः । एवं निवाविया निर्वाप्य दाहनयादेवेति जावः । एवं उस्सिंचिया निस्सिंचिया । उत्सि - - च्यातिताडुपनजयेन ततो वा दानार्थं तीमनादीनि निषिच्य तद्भाजनाऊ हितं द्रव्यमन्यत्र जाजने तेन दद्यात् । उद्वर्तननयेन वा हितमुदकेन निषिच्य । एवं वित्तिया यारिया | अपवर्त्य तेनैवाग्निनिक्षिप्तेन नाजनेनान्येन वा दद्यात् । तथा अवतार्य दाहनयाद्दानार्थं वा दद्यात् । अत्र तदन्यच्च साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ॥ ६३ ॥ तं नवे त्तपाणं तु, संजयाण कपित्र्यं ॥ दितियं पडियारके, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ६४ ॥ ( अवचूरिः ) तं० पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ (अ.) तो तेव्रं अन्नपान साधुने कल्पे नहीं. माटे ते अन्नपान आपनारी श्राविकाने पूर्वोक्त साधु ' मने तेवुं कल्पे नहि' एम कहे. ॥ ६४ ॥ ( दीपिका.) कदाचित् पूर्वोक्तप्रकारेण तादृशं काचिद्ददाति । तदा तां प्रति साधुः किं कथयेदित्याह । पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ ( टीका. ) तं वेत्ति सूत्रम् । पूर्ववत् । गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य ॥६५॥ हुक कठं सिलं वा वि, इट्ठालं वा वि एकया ॥ ववि संकमाए, तं च होऊ चलाचलं ॥ ६५ ॥ (अवचूरि.) गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य यवेत्तदाह । जवेत्काष्ठं शिला वापि इष्टकाशकलमेकदा एकस्मिन्काले प्रावृमादौ स्थापितं संक्रमार्थं तच्च नवेच्चलाचलमप्रतिष्ठितम् ॥ ६५ ॥ ( अर्थ. ) हुआ इति । तथा ( कटं के० ) काष्ठं एटले काष्ठ, ( वा के० ) अथवा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ( सिलं के० ) शिला एटले पाषाण अथवा (इहालं के० ) इष्टकाशकलं एटले इटनो कटको ते ( एगया के० ) एकदा एटले एकवार चोमासादिकने विपे ( संकमाए के० ) संक्रमार्थं एटले उलंघवाने माटे ( वियं के० ) स्थापितं एटले मूकेलुं ( हुआ के० ) जवेत् एटले होय; (च के०) वली (तं के०) तत् एटले ते काष्ठादिक ( चलाचलं के० ) कां चल कर अचल एटले डगमगतुं एवं ( हुआ के० ) जवेत् एटले होय. ॥ ६५ ॥ ( दीपिका. ) पुनर्गोचराधिकार एव गोचरीप्रविष्टस्य साधोः को विधिरित्याह । एवंविधं काष्ठं शिला वा २ इष्टकाशकलं वा जवेत् किंविशिष्टं काष्ठादि । एकदा एकस्मिन् काले वर्षाकालादौ संक्रमार्थं सुखेन चलनार्थं स्थापितं तदपि च चलाचलमप्रतिष्ठितं जवेत् न तु भवेत् स्थिरमेव ॥ ६५ ॥ ( टीका. ) होऊ ति सूत्रम् । जवेत् काष्ठं शिला वापि इहालं वाप्येकदा एकस्मिन् काले प्रावृडादौ स्थापितं संक्रमार्थं तच्च जवेच्चलाचलमप्रतिष्ठितं न तु स्थिरमेवेति सूत्रार्थः ॥ ६५ ॥ ते निकू चिका, दिठो त संजमो ॥ गंजीरं कुसिरं चेव, सविंदिप्रसमाहिए ॥ ६६ ॥ ( अवचूरिः ) तेन काष्ठा दिना निकुर्न गछेत् । दृष्टस्तत्रासंयमः । तच्चलने प्राप्युपमर्दसंजवात्। गंजीरमप्रकाशं सुषिरमंतःसाररहितम् । अतः सर्वेडियसमाहितो निदुस्तस्मिन् परिहरेदिति ॥ ६६ ॥ (.) तो ( ते के० ) ते काष्ठादिक उपर थने ( जिरकू के० ) निदुः एटले पूर्वोक्त साधु (नगाि के० ) न गच्छेत् एटले गमन करे नहीं. कारण के, ( तब ho ) तत्र एटले ते काष्ठादिकना उपरथी गमन करता थका ( असंजमो के० ) संयमः एटले जीवोपमर्दादि असंयम ( दिनो के० ) दृष्टः एटले दीठो बे. तथा ( सविं दिए के० ) सर्वेयैः एटले सर्व इंद्रियें करी ( समाहिए के० ) समाहित एटले समाधिमान् एटले रागद्वेष रहित एवो साधु बीजा पण ( गंजीरं के० ) गंजीर एटले प्रकाश ने वली ( सिरं के० ) सुषिरं एटले अंदर पोलावालुं एवा जे काष्ठादि तेनो त्याग करे. ॥ ६६ ॥ (दीपिका) तादृशेन चलाचलेन काष्ठादिना साधुः किं न कुर्यात् इत्याह । तेन काा दिना निकुर्न गछेत् । कथमित्याह । तत्र काष्ठादौ गमनेऽसंयमो दृष्टः । कथं काष्ठादिचप्राणिनामुपमर्दसंजवात् । तथा एवंविधमन्यदपि काष्ठादि परिहरेत् साधुः । किं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । शए विशिष्टं काष्ठादि । गम्भीरमप्रकाशं पुनः शुषिरमन्तःसाररहितम् । किं साधुः। सर्वेजियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावकुर्वाणः ॥ ६६ ॥ (टीका.) ण तेण त्ति सूत्रम् । न तेन काष्ठादिना निगुर्गछेत्। किमित्यत्राह। दृष्टस्तत्रासंयमः। तच्चलने प्राण्युपमर्दसंजवात् । तथा गम्भीरमप्रकाशं शुषिरं चैवान्तःसाररहितम्। सर्वेलियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगबन् परिहरेदिति सूत्रार्थः॥६६॥ निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ता मारुते॥ मंचं कीलं च पासायं, समणहा एव दावए॥६॥ (श्रवचूरिः) निश्रेणिं फलकं पीठमुत्स्मृत्योर्वीकृत्य मञ्चं की चोत्स्नृत्य प्रासादमारोहेत् श्रमणार्थं दायकः ॥ ६७ ॥ (अर्थ.) हवे घरमाहेलां दोषो टालवा, ते कहे. तथा ( दावए के०) दायकः एटले साधुने वहोरावनारो पुरुष ( समणहा के०) श्रमणार्थं एटले साधुने आहारपाणी वहोराववाने अर्थे ( निस्सेणिं के) निश्रेणिं एटले नीसरणीने अथवा (फलगं के० ) फलकं एटले पाटीयाने (पीढं के) पी एटले बाजोग्ने, ( मंचं . . के ) मंचं एटले माचाने ( कोलं. के ) कीलकने (उस्स वित्ता णं के०) उत्स्मृत्य .. एटले ऊंचो करीने ( पासायं के ) प्रासादं एटले प्रासादउपर (आरुहे के० ) के आरोहेत् एटले चढे. ॥ ६७ ॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशे प्रकारे न गृह्णीयात् इत्याह । दाता श्रमणार्थ साधुनिमित्तं प्रासादं यदि भारोत् । तदा साधुनिदान गृह्णीयात् । किं कृत्वा प्रासादमारोहेत् । निश्रेणिं १ फलकं पी ३ मंचं कीलं ५ च उत्कृत्य ऊर्ध्वं कृत्वा ॥ ६७॥ (टीका.) किं च हिस्सेणं ति सूत्रम् । निश्रेणिं फलकं पीठं उस्स वित्ता उत्स्मृत्य जवं कृत्वा इत्यर्थः । आरोहेन्मञ्चं कीलकं च उस्मृत्य । कमारोहेदित्याह । प्रासादं श्रमणार्थ साधुनिमित्तं दायको दाता आरोहेत् । एतदप्यग्राह्यमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ उरूदमागी पडिवजा, हबं पायं व लसए॥ पुढविजीवे वि हिंसिजा, जे अतन्निस्सिया जगे॥७॥ (अवचूरिः) दोषमाह । पुःखेनारोहन्ती प्रपतेत् । हस्तं पादं च खूषयेत् खएकयेत् । यानि च तत्पृथिवीनिःश्रितानि जगन्ति प्राणिनस्तानि हिंस्यात् ॥६॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ( . ) हवे तेनो दोष कहे बे. (दुरूहमाणी के०) यारोहन्ती एटले श्रन्नादिक लेवा जणी ते उपर चढती थकी कदाचित् ( पडिवा के० ) प्रपतेत् एटले पडे, अथवा ( हवं के० ) हस्तं एटले पोताना हाथने ( च के० ) वली पोताना ( पायं ० ) पादं एटले पगने (लूस के० ) लूषयेत् एटले पोतेज जांगे, तथा ( पुढवी जीवे वि ho) पृथ्वीजवापिटले पृथ्वी कायजीवोने पण ( हिंसिका के० ) हिंस्यात् एटले ह. (०) च एटले वली ( जे के० ) यानि एटले जे ( तन्नि सिया के० ) नतानि एटले ते पृथ्वीने आश्रय करी रहेलां एवां ( जगे के० ) जगन्ति एटले प्राणियो होय तेने पण हणे ॥ ६८ ॥ ( दीपिका. ) कथं न गृह्णीयात् ? तथा ग्रहणे दोषमाह । निश्रेणिप्रमुखमारोहन्ती स्त्री प्रपत् । प्रपतन्ती च हस्तं वा पादं वा लूषयेत् खकीयं स्वत एव खएमयेत् । पुनरपि कथंचित्तत्र स्थाने पृथिवी जीवान् विहिंस्यात् । पुनरपि यानि तन्निश्रितानि पृथ्वी निश्रितानि जगति प्राणिनः तानपि हिंस्यात् ॥ ६८ ॥ ( टीका. ) अत्रैव दोषमाह । दुरूहमाणि ति सूत्रम् । श्ररोहन्ती प्रपतेत् । प्रपत न्ती च हस्तं पादं वा लूषयेत् स्वकं स्वत एव खयेत् । तथा पृथ्वी जीवान् विहिंस्यात् । कथं चित्तत्रस्थान् । तथा यानि च तन्निश्रितानि जगन्ति प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति सूत्रार्थः ॥ ६८ ॥ एरिसे मदादोसे, जाणिक मदेसिणो ॥ तम्हा मालोदमं निकं, न पडिगिएहंति संजया ॥ ६९ ॥ ( अवचूरि :) शान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः । यस्माद्दोषकारिणी तस्मान्मालापहृतां मालादानीतां निक्षां न प्रतिगृह्णन्ति ॥ ६५ ॥ ( अर्थ. ) हवे गोचरीचर्याना दोषोनो उपसंहार करे बे. एयारिसे इति ( संजया के० ) संयताः एटले संयमी एवा ( महे सिणो के० ) महर्षयः एटले महोटा ऋषियो ( एयारिसे के० ) एतादृशान् एटले ए पूर्वे का ते प्रकारना ( महादोसे ho ) महादोषान् एटले मोटा दोषोने ( जाणिऊण के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले तेमाटे ( मालोहरु के० ) मालाहृतां एटले उपरना माल थकी, एटले मेडाउपरथी उतारीने आपली एवी ( निरकं के० ) निक्षां एटले निक्षाने ( न पडिगिद्वंति के० ) न प्रतिगृह्णति एटले ग्रहण करता नथी. ॥ ६५ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। शएए . ( दीपिका.) ततः साधवः किं कुर्वत इत्याह । एतादृशान् पूर्वोक्तान् महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः । यस्माद्दोषकारिणीयं निदा । तस्मात् मालापहृतां मालोपनीतां निदां न प्रतिगृह्णन्ति । किंविशिष्टा महर्षयः । संयताः सम्यक्संयमे यतनां कुर्वाणाः॥६ए॥ (टीका.) एवारिस त्ति सूत्रम् । ईदृशाननन्तरोदितरूपान्महादोषान् ज्ञात्वा महर्षयः साधवः । यस्माद्दोषकारिणीयं तस्मान्मालापहृतां मालादानीतां निदां न प्रतिगृह्णन्ति संयताः। पागन्तरं वा । हंदि मालोहडं ति । हंदीत्युपप्रदर्शन इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ कंदं मूलं पलंब वा, आम बिन्नं च सन्निरं ॥ तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवऊये॥३०॥ (श्रवचूरिः) सूरणादि कन्दम् । मूलं विदारिकादिरूपम् । अम्लबं तालफलादि । . आम निन्नं च सन्निरं पत्रशाकम् । तुम्बकं प्रतीतं त्वग्मान्तर्वर्त्ति । आओ तुलसीमित्यन्ये । शृङ्गवेरं चाकमामगं परिवर्जयेदिति ॥ ६ ॥ (अर्थ.) हवे केटलीक वहोरवामां निषिद्ध वस्तु बे, ते कहे , कंदमिति. तथा (कंदं के) सूरण विगेरे कंद, ( मूलं के) विदारिकादि मूल, ( वा के०) अथवा ( पलंबं के० ) प्रलंबं एटले तालादिकनां फल अने ( आमं के ) काचं, ।' अथवा (बिन्नं के०) बेद्यं एवं ( सन्निरं के०) पत्रशाक तथा (तुंबागं के०) तूं- . ' बडु, मुधियुं, तेने तथा (सिंगबेरं के०) शृंगबेरं एटले आएं एटलां वानां (श्रा मगं के) आमकं एटले काचां सचित्त होय तो तेने ( परिवाए के) परिवर्जयेत् .. एटले त्याग करे. ॥ ७ ॥ .. (दीपिका.) पुनः किं किं कीदृशं कीदृशं न गृह्णन्ति तदाह । साधुः कन्दं सूरणा दि “वर्जयेत" इत्युक्तिः सर्वत्र लापनीया १ तथा मूलं पिएमादिरूपं २ प्रलंबं वा तालफलादि ३ आम निन्नं च सन्निरम् । सन्निरमिति पत्रशाकं ४ तुंबाकं त्वग्मजान्तर्वत्याडम् । तुलसीमित्यन्ये ५ शृंगबेरं च आर्षकं ६ च आमकं सचित्तम् ॥ ७ ॥ .. ( टीका.) प्रतिषेधाधिकार एवाह। कंदं मूलं ति सूत्रम् । कन्दं सूरणां दिलक्षणम्। मूलं विदारिकारूपम् । प्रलंबं वा तालफलादि । श्रामं बिन्नं वा सन्निरम् । सन्निरमिति पत्रशाकम् । तुम्बाकं त्वग्मजान्तर्वति । आाँ वा तुलसीमित्यन्ये । शृङ्गबेरं चाई: . कम् । आम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥. . .. ........ .. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा, · तदेव सत्तुचुन्नाई, कोलचुन्नाई आवणे ॥ सकुलिं फाणिअं पूअं, अन्नं वा वि तहाविदं ॥१॥ - (अवचूरिः) तथैव सक्तुचूर्णान् सक्तून् कोलचूर्णान् वदरसक्तून् श्रापणे वीथ्याम्। शष्कुलिं तिलपर्पटिकां फाणितं अवगुडं पूपं कणिकादिमयम् । अन्यछा तथाविधं मोदकादि ॥१॥ . (अर्थ.) हवे ( तहेव के०) तथैव एटले तेमज वली ( सत्तुचुन्नाश्के) सक्तुचूर्णानि एटले सत्तुआ (कोलचुन्नार के) कोलचूर्णानि एटले वोरनो जूको तेमज (आवणे के) आपणे एटले वीथीमां तथा ( सकुलिं के) तिल सांकली, अथवा ( फाणियं के० ) फाणितं एटले पातलो गोल (पूयं के) पूपं एटले पूडला तथा ( अन्नं वा वि के०) अन्यछापि एटले अनेरुं पण (तहाविहं के ) तथाविधं एटले तेवा प्रकार- जे मोदकादि अन्नपान होय तो तेने साधु त्याग करे. ॥ १ ॥ - (दीपिका.) पुनः कीदृशं परिवर्जयेदित्याह । तथैव सक्तुचूर्णान् सक्तून् ? कोलचूर्णान् बदरचूर्णान् आपणे वीथ्यां तथा शष्कुलिं तिलपर्पटिकां ३ फाणितं अवगुडं ४ पूपकं कणिका दिमयम् ५ अन्यछा तथाविधं मोदकादि. ॥१॥ - (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव सक्तुचूर्णान् कोलचूर्णान् बदरसक्तून् आपणे वीथ्यां तथा शष्कुली तिलपर्पटिकां फाणितं अवगुडं पूपं कणिकादिमयम् । अन्यछा तथाविधं मोदकादि ॥ १॥ विकायमाणं पसदं, रएणं परिफासिअं॥ दितिअं पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥२॥ (अवचूरिः) विक्रीयमाणमापण इति शेषः । प्रसह्यकमनेक दिनस्थापनेन प्रकटम् । अतएव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्टं व्याप्तम् ॥ २ ॥ _ (अर्थ.) तथा ( विकायमाणं के०) विक्रीयमाणं एटले उकानमां वेचातुं एवं, तथा ( पसढं के० ) प्रसह्यं एटले बहु दिवस राखीने प्रकट करेलु एवं माटेज (रएण के० ) रजसा एटले सचित्त रजें करी ( परिफासिरं के०) परिस्पृष्टं एटले खरड्यु एवं अन्नपान तेने (दितिअं के) ददतीं एटले आपनारीने (पडिआश्के के) प्रत्याचदीत एटले वर्जे. केवीरीतें परिहरे ते कहे . ( न मे कप्पर तारिसं 1) न मे कल्पते तादृशं एटले मने तेवं असूफतुं खपतुं नथी. ॥ २ ॥ .... Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। .. ३०१ ( दीपिका. ) तत्किमित्याह । एवंजूतं सक्तुचूर्णादिकं दीयमानमपि साधुर्नगृहीयादित्यर्थः ॥ ७॥ (टीका.) किमित्याह । विकायमाणं ति सूत्रम् । विक्रीयमाणमापणे इति वर्तते । प्रसह्य अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् । अतएव रजसा पार्थिवेन परिस्पृष्टं व्याप्तम्।तदिवंनूतं तत्र ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रघ्यार्थः ॥ ७ ॥ . ___ बढुअज्यिं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं ॥ ___अबियं तिज्यं बिल्वं, उबुखमं व सिंबलिं ॥ ३ ॥ (अवचूरिः) बह्वस्थिकं पुजलं मांसमनिमिषं वा मत्स्यं बहुकंटकम् । अयं किल । कालाद्यपेक्ष्या ग्रहणे निषेधः । अन्ये त्वाहुः । वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफला ख्ये एते। तथा चाह अस्थिकं अस्थिकवृतफलं तिंयुकं तिंपुरूकीफलं बिल्वमिनुखं शाल्मदिं वबादिफलिम् । वाब्दशस्य व्यवहितः संबन्धः ॥ ३ ॥ (अर्थ.) (बहुअहियं के०) बव्ह स्थि एटले जेमां उलिया घणा , एवा (पुग्गलं के) पुजलं एटले पोगल वृदनुं फल अथवा सीताफल (वा के०) अ. थवा (अणिमिसं के) अनिमिषं एटले अनिमिष नामक फलने अथवा ( बहुकंटयं के०) बहुकंटकं एटले कांटा जेने घणा , एवा फलने अथवा (अबियं के ) अस्थिकं एटले अस्थिकवृदनुं फल अथवा (तिंयं के) तिऽकं एटले तिंकवृदनुं फल तथा ( बिलं के) बिल्वं एटले बिस्वनामक वृदनुं फल तथा (उबुखंड के०) कुखंडं एटले शेलडीना कटका ते प्रत्ये (च के०) वली (सं. .. बिलिं के) शाल्मलि एटले शाल्मलीना फल प्रत्ये ॥ ७३ ॥ (दीपिका.) पुनः किं किं कीदृशं कीदृशं दीयमानमपि न गृह्णीयात् तदाह । साधुः पुजलादिकं दीयमानमपि न गृह्णीयात् श्त्युक्तिः। पुजलं मांसंम्। किंनूतं पुजलम्। बह्वस्थिकं १ तथा अनिमिषं वामत्स्यम्। किंग अनिमिषम्। बहुकंटकम्। अयं किल कालाद्यपेढ़या ग्रहणे प्रतिषेधः । अन्ये तु अनिदधति वनस्पत्यधिकारात् तथाविधफलानिधाने एते इति । तथा च आह । अस्थिकं अस्थिकवृक्षफलं तिंडुकं तिंकुरुकीफलम् । बिल्वं श्वखंडं च एतद्द्वयमपि प्रसिद्धम् । शाब्मली वा वादि फलिं च ॥ ३ ॥ (टीका.) किंच बहुअहियं ति सूत्रम् । बह्वस्थिपुजलं मांसमनिमिषं वा मत्स्यं वा बहुकएटकम् । अयं किल कालाद्यपेक्ष्या ग्रहणे प्रतिषेधः। अन्ये त्वनिदधति वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलानिधाने एते इति । तथा चाह । अलिकं अधिकवृक्षफलम् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तेंऽकं तेंजुरुकीफलम् । बित्वमिनुखएममिति च प्रतीते । शाल्मलिं वा वह्यादिफलिं वा। वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्ध इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ अप्पे सिनोअपजाए, बहुप्नियधम्मिए ॥ दितिअं पडिआइरके, न मे कप्पश् तारिसं॥७॥ (अवचूरिः) अत्रैव दोषमाह । अल्पं स्यानोजनजातम् । बहूतनधर्मकम् । एतत् ददतीम् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) तथा (नोअणजाए के०) नोजनजातं एटले जे पदार्थमां खावायोग्य नाग जे जे ते (अप्पे के ) अस्पं एटले थोडो (सिआ के) स्यात् एटले होय, अने ( बहु जलिय धम्मिए के) बहूतनधर्मकं एटले नांखवा योग्य पुजल घणा । एवो धर्म ते खन्नाव जेनो एवा अर्थात् खाएं थोडं अने पर घj जेमां, एवा फलादिकने (दितिशं के०) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने ( पडिआश्के के ) प्रत्याचदीत एटले परिहरे, वर्जे, ते एवीरीतें के, (न मे कप्पर तारिसं के०) मने तेवू असूक्तुं अन्नपान खपतुं नथी. ॥ ॥ (दीपिका.) एतहणे दोषमाह । बहुअहिअपुग्गलादिके नदिते सति अल्पं स्यात् जोजनजातं तथा एतत् बहूतनधर्मकं च । यतश्चैवं ततो ददती प्रति साधुवैदेत् न मम कल्पते तादृशमिति ॥४॥ (टीका.) अत्रैव दोषमाह । अप्पत्ति सूत्रम् । अल्पं स्यानोजनजातमत्रापि तु बहूतनधर्मकमेतत् । यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचदीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तदेवुच्चावयं पाणं, अज्ज्वावारधोअणं ॥ संसेश्मं चाललोदगं, अढणाधोअं विवङाए ॥ ज्य ( अवचूरिः ) उक्तोऽशन विधिः संप्रति पानविधिमाह । तथैव यथाशनमुचावचम् । जच्चं वर्णाद्युपेतं बादापानादि अवचं वर्णादिहीनं प्रत्यारनालादिकम् । अथवा वारकधावनं गुडघटधावनम् । अथवा धान्यस्थालीदालनायपि । संस्वेदजं पिष्टोदकादि । एतदशनवउत्सर्गापवादान्यां गृह्णीयादिति शेषः । तन्दुलोदमधुनाधौतमपरिणतं विवर्जयेत् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) अहिंसुधी अन्न लेवानो विधि कह्यो, हवे पाणी लेवानो विधि कहे ऐ तहेव त्ति (तहेव के०) तथैव एटले जेम अन्न लेवानो विधि कह्यो, तेमज (उच्चाः, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०३ वयं के) उच्चावचं, एटले जेने केशरादिकनो सुगंध ते अाखवाणी, साखरवाणी प्रमुख अने अवच ते जेने सारो गंध अथवा वर्ण नथी एवं कांजीतुं पाणी विगेरे (पाणं के०) पानं एटले पीवानो पदार्थ, (अडवा के) अथवा (वारधोअणं के) गोलनो घडो धोश्ने काढीनाखेतुं पाणी, सेलडीने रसें खरड्या घडा, धोवण, अथवा थाली प्रमुख, धोवण, अथवा (संसेश्मं के) संस्वेदजं एटले कथरोटनुं धोयण ले. तथा (चाउलोदगं के०) तंडुलोदकं एटले चोखानुं धोयण ते ( अहुणाधो के०) अधुनाधौतं एटले तत्कालनुं धोएबुं जेनो फरस परिणम्यो नयी तेवा पीवाना पदार्थने पूर्वोक्त साधु ( विवङाए के) विवर्जयेत् एटले विवशेषे करी वर्जे. ॥ ५ ॥ . (दीपिका.) उक्तोऽशन विधिः। अथ पानविधिमाह । एवं विधं पानं गृह्णीयात्।किविधं पानम्। तथैव उच्चावचं तथैव यथाअशनमुच्चावचम्। उच्चं वर्णाद्युपेतं जादापानादि अवचं वर्णादिहीनं प्रत्यारनालादि । अथ वा वारकधावनं गुडघटधावनादि धान्यस्थालीदालनादि संस्वेदजं पिष्टोदकादि । एतत् अशनवत् उत्सर्गापवादाज्यां साधुर्यहीयात् इति वाक्यशेषः । तन्मुलोदकमधुनाधौतमपरिणतं साधुर्विवर्जयेत् ॥ ५ ॥ - (टीका.) उक्तोऽशन विधिः । सांप्रतं पानविधिमाह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव यथाशनमनन्तरमुच्चावचं तथा पानमुच्चं वर्णाद्युपेतं प्रादापानादि । अवचं वर्णादि हीनं प्रत्यारनालादि । अथवा वारकधावनं गुडघटधावनमित्यर्थः। संस्वेदजं पि..ष्टोदकादि । एतदशनवपुत्सर्गापवादान्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः । तन्मुलोदकमहिकरकं अधुनाधौतमपरिणतं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ ___जं जाणेऊ चिरा धोयं, मईए दंसणेण वा ॥ - पडिपुचिकण सुच्चा वा, जं च निस्संकिअं नवे ॥६॥ ' (अवचूरिः) अत्रैव विधिमाह । यजानीयात्तन्छुलोदकं चिराझौतम् । कथम् । मत्या दर्शनेन वा। वाशब्दश्चकारार्थः। सूत्रानुसारमत्या दर्शनेन च वर्णापरिणतेन । प्रतिपृव्य श्रुत्वा च तत्प्रतिवचः यच्च निःशङ्कितं तत् गृह्णीयादिति शेषः ॥ ६ ॥ - (अर्थ.) वली (जं के ) यत् एटले जे चोखानुं पाणी ( चिराधोअं के) चिरधौतं एटले घणी वखतनुं धोयुं जे एम ( जाणिज के० ) जानीयात् एटले जाणे. शाथी जाणे तो के, (मए के) मत्या एटले पोतानी सूत्रानुसारी बुद्धिए करी (वा के०) अथवा (दसणेण के०) दर्शनेन एटले प्रत्यद दृष्टिए करी, (वा के) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. किंवा (पडिपुछिऊण के०) प्रतिपृथ्य एटले गृहस्थने पूठीने तथा ( सुच्चा के ) श्रुत्वा एटले घणी वेलानुं धोयु डे एवं गृहस्थना मुखथी सांजलीने (जं के ) यत् एटले जे. पूर्वोक्त पाणी ( निस्संकिअं के ) निःशंकितं एटले शंकारहित एवं (नवे के०) नवेत् एटले होय तो ते साधु ग्रहण करे. ॥ ६ ॥ (दीपिका.) अत्रैव विधिमाह । साधुर्यत्तन्छलोदकमेवं जानीयात्तद् गृह्णीयादिति शेषः। किंविशिष्टं तन्फुलोदकं चिराझौतम् । कथं जानीयादित्याह । मत्या तहणादिकर्मजया तथा दर्शनेन वा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण वा । किं कृत्वा । इति गृहस्थं पृष्ट्वा । इतीति किम् । कियती वेला अस्य धौतस्य जाता इति । च पुनः इति श्रुत्वा गृहस्थात् । श्तीति किम् । महती वेला जाता अस्य धौतस्य शति । एवं च यन्निःशंकितं नवति तगृह्णीयादिति ॥ ६ ॥ (टीका.) अत्रैव विधिमाह ।जंजाणिज त्ति सूत्रम् । यत्तन्छुलोदकं जानीयाहियाचिरधौतम् । कथं जानीयादित्यत आह । मत्या दर्शनेन वा । मत्या तद्रहणादिकमजया । दर्शनेन वा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण । चकारो वाशब्दार्थः। तदप्येवंचूतं कियती वेलास्य धौतस्येति पृष्ट्वा गृहस्थम् । श्रुत्वा वा महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनम् । यच्चेति यदेव निःशङ्कितं नवति निरवयवप्रशान्ततया तन्मुलोदकं तत्प्रति गृह्णीयादिति । विशेषः पिएमनिर्युक्तावुक्त इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगादिऊ संजए॥ अद संकियं नविका, आसाश्त्ता ण रोअए॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) उष्णोदकमजीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदएपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेति वर्तते । तदिबंनूतं प्रतिगृह्णीयात् संयतः। आरनालमपि पूत्यादिदोषरहितं देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वा इति । अथ शङ्कितं भवेत् पूत्यादिदोषेण । तत आखाद्य रोचयेत् विनिश्चयं कुर्यात् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) हवे वली उष्णोदक लेवानो विधि कहे . अजीवमिति (संजए के०) संयतः एटले साधु जे उदक लेवानुं होय तेने (अजीवं के०)जीवरहित एटले प्रासुक अने (परिणतं के०.) जेनी वेला परिणमी डे एवं (नचा के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने अर्थात् त्रिदंडपरिवर्तनादिके करी शुक बे, एम सूत्रानुसारी बुद्धिथी जाणीने (प. डिगाहिजा के०) प्रतिगृह्णीयात् एटले ग्रहण करे, वहोरे. (अह के०) अथ. अहि अथ शब्दें करी बीजो पद ग्रहण करवो. ते एवी रीते के, जो पूर्वोक्तरीतें खेवान Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०५ उदक प्रासुक नहीं होय, अने (संकियं के०) शंकितं एटले कोश् प्रकारना दोषनी. शंकासहित (जविजा के०) नवेत् एटले होय तो (आसाश्त्ता णं के) श्राखाद्य एटले हाथे लइ जीन्ने चाखी (रोपए के) रोचयेत् एटले निश्चय करे, अर्थात् जीन पर मूकीने तेनो निश्चय करे के, ए प्रासुक लेवा जोग के के नथी, ॥७॥ (दीपिका.) अथ उष्णोदकादिविधिमाह । संयतः साधुः एवं विधमुष्णोदकं गृह्णीयादिति नक्तिः । किं कृत्वा। अजीवं प्रासुकं तथा परिणतं त्रिदण्मोत्कलितम्। चतुर्थरसमपि अपूत्यादि देहोपकारकं मत्या दर्शनेन वा ज्ञात्वा अथ शङ्कितं नवेत्त्यादिजावेन । ततः तत्पानीयमास्वाद्य रोचयेछिनिश्चयं कुर्यात् ॥ ७ ॥ (टीका.) उष्णोदकादिविधिमाह । अजीवं ति सूत्रम् । उष्णोदकमजीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदएपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि वर्तते। तदिलुनूतं प्रतिगृहीयात्संयतः । चतुर्थरसमपूत्यादि देहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः । अथ शङ्कितं नवेत्त्यादिनावेन तत आखाद्य रोचयेन्निश्चयं कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ - थोवमासायणघाए, हबगंमि दलादि मे॥ मामे अचंबिलं पूअं, नालं तिन्हं विणित्तए ॥ जज ॥ __(अवचूरिः) स्तोकमास्वादनार्थं प्रथमं तावत् हस्ते देहि । यदि साधुप्रायोग्य ततो ग्रहीष्ये । मामे अत्यम्ल पूति तृष्णापनोदाय नालम् । ततः किमनेनानुपयोगिनेति । आस्वादितं चेत्साधुप्रायोग्यं गृह्यते ॥ ७ ॥ (अर्थ.) केवी रीतें निश्चय करे, ते कहे बे. वली संयमी साधु पाणी वहोरतां गृहस्थने कहे के, (थोवं के) स्तोकं एटले थोडं पाणी (आसायणहाए के) आस्वादनार्थ एटले चाखवाने अर्थे (मे के०) मुऊने (हबगंमि के०) हस्ते एटले हाथने विषे ( दलाहि के) देहि एटले आप. जो प्राशुक हशे तो हुं लश्श, ( अचंबिलं के०) अत्यम्लं एटले अतिशय खाटुं अथवा (पूवं के) पूतं एटले कोडं एवं ( तिन्हं के० ) तृषणां एटले तृषाने ( विणित्तए के ) विनेतुं एटले निवारण करवाने (नालं के०) समर्थ नथी, माटे एवं पाणी ( मे के) मने (मा के) नहीं खपे. ॥ ॥ (दीपिका. ) अथ केन विधिना विनिश्चयं कुर्यादित्याह साधुर्दातारं प्रति एवं वदेत् । एवं किम्।मे मम हस्ते आस्वादनार्थं स्तोकं पानीयं प्रथमं देहि ।यदि साधोरुप Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. जोग्यं ततो ग्रहीष्ये । मा मे मम अत्यम्लं पूति तृषापनोदाय न श्रलं समर्थ । ततः किभनेन अप्रयोजनेनेति । तत अस्वादितं सच्च तत्साधुयोग्यं चेनवति तदा गृह्यत एव नो चेत्तदाग्राह्यम् ॥ ७ ॥ (टीका.) तच्चैवं योवं ति सूत्रम् । स्तोकमास्वादनाथ प्रथमं तावत् हस्ते देहि मे। यदि साधुप्रायोग्यं ततोग्रहीष्ये । मा मे अत्यम्ल पूति नालं तृडपनोदाय । ततः किमनेनानुपयोगिनेति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तं च अचंबिलं पूयं, नालं तिन्हं विणित्तए॥ दितिअंपडिभाइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ए॥ ... (अवचूरिः) तं च । नालं तृष्णापनोदाय ॥ sए ॥ (अर्थ.) माटे तं च इति. (तं के ) तत् एटले ते ( अच्चं विलं के०) अत्यम्लं एटले अतिशय खाटुं अथवा (पूयं के) पूतं एटले कोयु एवं जल (तिन्हं विणित्तए के) तृष्णां विनेतुं एटले तृषानुं निवारण करवाने अर्थे (नालं के) समर्थ नयी. एवा पाणीने (दितिरं के०) ददतीं एटले आपनारी एवी श्राविकाने ( पडिआश्के के० ) प्रत्याचदीत एटले कहे के, मने तेवू असूक्तुं पाणी कल्पे नहि.॥ उए । (दीपिका.) अश्य कदाचित् स्त्री तदत्यम्लमपि ददाति तदा तां ददती प्रति साधुः किं वक्ति तदाह । तच अत्यम्दं पूति न अदं समर्थं तृष्णां विनेतुं ततो ददती प्रति वक्ति न मम कल्पते तादृश मिति ॥ ए॥ - (टीका.) तं च त्ति सूत्रम् । सुगमम् ॥ ए॥ लं च होऊ अकामेणं, विमणेण पडिबिअं॥ तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥७॥ (अवचूरिः) तच्चात्यम्लादि नवेदकामेनोपरोधशीलतया विमनस्केनान्यचित्तेन प्रतीलितं गृहीतं तदात्मना कायापकारकमित्यनानोगधर्मश्रख्या न पिबेत्। नाप्यन्येन्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधझापनार्थ दापनग्रहणमिति॥॥ (अर्थ.) पूर्वोक्त जल कदाचित् देनार श्राविकाए आग्रहपूर्वक साधुने वहोराव्यु तो तेनुं शुं करवू ते कहे . तं च इति. वली कदाचित् ते संजमी साधुए (तं के) तत् एटले उपर कहेढुं एबुं अत्यम्लादि जल (अकामेणं के०) अकामेन Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३०७ एटले श्वा नहीं बता पण आपनारना आग्रहथी अथवा (. विमणेण के ) विमनस्केन एटले मन ठेकाणे नहीं होवाथी (पडिलिकं हुज के) प्रतीवितं नवेत्। एटले ग्रहण कहुं होय तो (तं के०) ते जल ( अप्पणा के ) आत्मना एटले पोते (ण पिबे के०) न पिबेत् एटले पिए नहि. तथा (अन्नस्स वि के) अन्यस्यापि एटले बीजाने पण (नो दावए के०) न दापयेत् एटले अपावे नहीं. कारण ते पीवा. योग्य नथी. ॥ ७० ॥ (दीपिका.) अथ अकामादिना कदाचित् तदत्यम्लादिकं गृहीतं तदा को विधिस्तदाह । एवं विधमत्यम्लादि साधुना कदाचित् अकामेन आग्रहवशेन विमन- . स्केन अन्यचित्तेन प्रतीछितं गृहीतं नवेत् । तदापि तत् साधुन पिबेत् कायस्यापकारक मिति अनाजोगधर्मश्रद्धयापि नापि । अन्येच्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम् । इह च श्यं नावना । सबब संजमं संजमा अप्पाणं चेव रस्किजा इति ॥ ७॥ (टीका.) आस्वादितं च सत्साधुप्रायोग्यं चेनह्यत एव नो चेदग्राह्यम् । तं च त्ति सूत्रम् । तच्चात्यम्लादि नवेदकामेन उपरोधशीलतया विमनस्केनान्यचित्तेन प्रतीप्सितं गृहीतम् । तदात्मना कायापकारकमित्यनाजोगधर्मश्रध्यान पिबेत् ।नाप्यन्येच्यो दापयेत् । रत्नाधिकेनापि खयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम् । इह च सबब संजमं संजमा अप्पाणमेवेत्यादि नावनयेति सूत्रार्थः ॥॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेदिआ॥ जयं परिहविजा, परिहप्प पडिकमे ॥१॥ (श्रवचूरिः) अस्यैव विधिमाह । एकान्तमवक्रम्याचित्तं दग्धप्रदेशादि प्रत्युपेय चनुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन स्थएिमलमिति गम्यम्। यतं परिष्ठापयेत् । विधिना त्रि. वाक्यपूर्वं व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिकामेदीर्यापथिकीम् ॥१॥ ' (अर्थ.) त्यारे ते साधु पोते पीये नहि, अने बीजाने आपे नहि, ते पाणीनुं शुं करे ते कहे . एगंतमिति ( एगंतं के ) एकांतस्थानके ( अवकमित्ता. के) श्रवक्रम्य एटले जश्ने तथा (अचित्तं के०) जीवरहित जग्याने ( पडिलेहिया के०) प्रतिलेख्य एटले दृष्टिए करी जोश्ने तथा रजोहरणेकरी पडिलेहीने (जयं के०) यतं एटले शीघ्रताथी नहि, पण जयणाए करी (परिविजा के०) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ राय धनपतसिंघ वहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा प्रतिष्ठापयेत् एटले ते पाणीने परववे अने (परिप्प के० ) प्रतिष्ठाप्य एटले परववी ने ( पडिक्कमे के० ) प्रतिक्रामेत् एटले इरियावहि प्रतिक्रमण करे. ॥ ८१ ॥ ( दीपिका . ) ननु स्वयं तादृशं न पिवेत् ग्रन्यस्य न पाययेत्तर्हि किं कुर्यादि त्याह । साधुस्तत्पूर्वं गृहीतमत्यम्ला दिकं प्रतिष्ठापयेत् विधिना व्युत्सृजेत् । किंकृत्वा । ए कान्तं स्थानमवक्रम्य गत्वा चित्तं दग्धप्रदेशादि स्थानं प्रत्युपेक्ष्य चक्कुषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन स्थ एकलमिति शेषः । कथं प्रतिष्ठापयेत् । यतमत्वरितम् न शीघ्रम् । प्र तिष्ठापनानन्तरं किं कुर्यादित्याह । प्रतिष्ठाप्य वसतिमुपाश्रयमागतः सन् प्रतिक्रामे दर्यापथिकम् । एतच्च बहिरागत नियमकरण सिद्धम् प्रतिक्रमणमवहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमण नियमज्ञापनार्थमिति ॥ ८१ ॥ ( टीका . ) स्यैव विधिमाह । एतं ति सूत्रम् । एकान्तमवक्रम्य गत्वा श्र चित्तं दग्धदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा, प्रमृज्य रजोहरणेन । स्थ मिलमिति गम्यते यतमत्वरितं प्रतिष्ठापयेद्विधिना त्रिर्वाक्यपूर्वं व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकाम् । एतच्च वहिरागत नियमकरण सिद्धम् प्रतिक्रमणमवहिर पि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमण नियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ८१ ॥ सिया गोयर ग्गग, इचिका परिनुत्तु ॥ कुंठगं नितिमूलं वा, पडिले दित्ता एफासु ॥ ८२ ॥ ( अवचूरि : ) अन्नपान विधिमनिधाय जोजनविधिमाह । स्यानोचरायगतो ग्रा मान्तरं vिai प्रविष्ट इश्छेत्परिजोक्तुं बालादिः पिपासाद्य निनूतः सन् । तत्र साधुवसtara कोष्ठकं शून्यहमादि नित्तिनूतं कुडयैकदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा, प्र मृज्य च रजोहरणेन । प्रासुकं बीजादिरहितम् ॥ ८२ ॥ अ (अर्थ. ) एवी रीते अन्न पान लेवानो विधि को वे जोजननो विधि कहे बे. ते संयमी साधु ( गोयर ग्गगर्न के० ) गोचरायगतः एटले गोचरीए गयो थको तिहां (सिया के ० ) स्यात् कदाचित् एटले जो कदाचित् ( परिमुत्तु के० ) परिजोक्, पटले जोजन करवाने ( विद्या के० ) श्छेत् एटले इछे. तो त्यां साधुनी वसति होवाथी ( कुगं के० ) कोष्ठकं एटले शून्य घर मादिकने विषे ( वा के० ) अथवा (नित्तिमूलं के०) मठादिकनी जीतना मूल आगल (फासु के० ) प्रासुकं एटले सूती शुद्ध एवी भूमिने ( पडिले हित्ता ए के० ) दृष्टिए करी जोइने ॥ ८२ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३० ए ( दीपिका . ) एवमन्नपानग्रहण विधिं कथयित्वा जोजनविधिमाह । बालादिः साधुः पिपासाद्य निनूतः स्यात् कदाचिगोचराग्रगतो ग्रामान्तरं निक्षार्थं प्रविष्टः सन् परि नोक्तुमिच्छेत् । तदा तत्र वसतिर्नास्ति । तदा कोष्ठकं शून्यं च मठादि नित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादित्याह ॥ ८२ ॥ ( टीका. ) एवमन्नपानग्रहण विधिमनिधाय जोजनविधिमाह । सिया ति सूत्रम् । स्यात् कदाचिशेोचरायगतो ग्रामान्तरे निक्षां प्रविष्ट इछेत्परिनोक्तुं पानादि पिपासाद्य निनूतः सन् । तत्र साधुवसत्यनावे कोष्टकं शून्यवट्टमवादि नित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा, प्रमृज्य च रजोहरणेन प्रासुकं बीजादिरहितं चेति सूत्रार्थः ॥ ८२ ॥ अन्न वित्तु मेदावी, पडिन्नंमि संवुरुं ॥ दबगं संपम कित्ता, तब चुंजिक संजए ॥ ८३ ॥ ( अवचूरिः ) अनुज्ञाप्य तत्स्वामिनं मेधावी साधुः प्रतिने कोष्ठकादौ संवृत उपयुक्तः साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु हस्तकं मुखव स्विकारूपमादायेति वाक्यशेषः । संप्रमृज्य विधिना तेन कार्यं तत्र मुञ्जीत संयतः ॥ ८३ ॥ ( अर्थ. ) पी ( मेहावी के० ) मेधावी एटले बुद्धिमंत एवो ( संजए के० ) संयतः एटले ते साधु ( अन्न वित्तु के० ) अनुज्ञाप्य एटले गृहस्थनी अनुज्ञा लइने ( पछिन्नंमि के०) प्रतिबन्ने एटले तृणादिके करी ढाकेला एवा वामने विषे ( संडे के० ) संवृतः एटले उपयुक्त थको इरियाबही पडिकमीने ( दवगं ho ) हस्तकं एटले मुहपत्ति लइने हस्तपादादि अवयवने ( संपमत्ता के० ) संप्रमृज्य एटले सारीरीते पूंजीने ( तब के० ) ते स्थलने विषे ( जुंजित के० ) मुंजीत एटले रागद्वेष मूकीने जोजन करे. ॥ ८३ ॥ ( दीपिका . ) संयतः साधुस्तत्र स्थाने वदयमाणेन विधिना रागद्वेषरहितः सन् भुञ्जीत । किं कृत्वा । तत्स्वामिनमवग्रहमनुज्ञाप्य आदेशं गृहीत्वा सागारिकपरिहारतो विश्रामणव्याजेन । किंभूतः संयतः । मेधावी साधुसामाचारी विधिज्ञः । किंभूते कोकादिस्थाने । प्रतिने उपरि तृणादिनिराधादिते न चाकाशे । किंभूतः संयतः । संवृत उपयुक्तः सन्नीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा ततो हस्तकं मुखवस्त्रिका रूपमादाय इति शेषः । तेन विधिना कार्य संप्रमृज्य भुञ्जीत ॥ ८३ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (टीका.) तत्र अणुन वित्ति सूत्रम् । अनुज्ञाप्य सागारिकपरिहारतो विश्रमणव्याजेन तत्वामिनमवग्रहं मेधावी साधुः प्रतिबन्ने तत्र कोष्टकादौ संवृत उपयुक्तः सन् साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु हस्तकं सुखव स्त्रिकारूपम् । आदायेति वाक्यशेषः । संप्रमृज्य विधिना तेन कायं तत्र जुञ्जीत संयतो रागडेपावपाकृत्येति सूत्रार्थः ॥ ३॥ तब से मुंजमाणस्स, अहिअं कंटन सित्रा॥ तणकसकरं वा वि, अन्नं वा वि तहाविदं ॥४॥ . (अवचूरिः) तत्र कोष्ठकादौ से तस्य साधो जानस्यास्थिकं कएटको वा स्यात् । कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहीते पुजल एवेत्यन्ये । तृणकाष्ठशर्करं वापि । अन्यहापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति ॥ ४ ॥ .. (अर्थ.) त्यां जोजन करनार मुनिने आहारमां जो अस्थ्यादिक आवे तो ते शु करे, ते कहे. ( तब के) तत्र एटले तिहां (चुंजमाणस्स के) मुंजानस्य एटले नोजन करता एवा ( से के०) तस्य एटले ते साधुने आहार मांहे कदाचित् (अहियं के० ) अस्थिकं एटले हाडकुं तथा (कंटो के) कंटकः एटले कांटो गृहस्थना प्रमादथी ( सिथा के०) स्यात् आव्यो होय, ( वा के) अथवा ( तणकसकरं वि के) तृणकाष्ठशर्करमपि एटले तृण, काष्ठ तथा शर्करा ते कांकरो आव्यो होय, (अन्नं वा वि के0) अन्यहापि एटले बीजुं पण ( तहाविहं के.) तथाविधं एटले तेवुज कांई आव्युं होय तो ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथ तत्र जुञ्जानस्य साधोः अस्थि वा कएटकादि वा स्यात् तदा साधुः किं कुर्यादित्याह।तत्र कोष्ठकादौ से तस्य साधोः नुजानस्य अस्थि वा रकएटको वा २ स्यात् । अन्ये वदन्ति कथंचित् गृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहिते पुजल एव । तृणं वा ३ काष्ठं वा ४ शर्करा वा ५ स्यात् । अन्यछापि तथाविधं बदरकएटकादि वा स्यात् ॥ ४ ॥ (टीका.) तब त्ति सूत्रम् । तत्र कोष्ठकादौ से तस्य साधो जानस्य अस्थिकएटको वा स्यात् । कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् कारणगृहीते पुजल एवेत्यन्ये । तृणकाष्ठशर्करादि चापि स्यात् । उचितनोजनेऽन्यछापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । तं जस्किवित्तु न निस्किवे, आसएण न बड्डए॥ दबेण तं गहेकण, एगंतमवक्कमे ॥५॥ (अवचूरिः) तदस्थ्यादि उत्क्षिप्य हस्तेन यत्रकुत्रचिन्न क्षिपेत् । आस्येन मुखेन नोत् मा नूहिराधनेति। अपि तु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेत्॥५॥ (अर्थ ). (तं के) तत् एटले ते अस्थिप्रमुख पदार्थने जमता हाथे करी (उरिकवित्तु के० ) उत्क्षिप्य एटले जपाडीने (न निरिकवे के ) न निक्षिपेत एटले ज्यां त्यां बूटुं नाखे नहीं. तथा (आसएण के) आस्येन एटले मुखें करी (न उडुए के) नोप्लेत् एटले थुकी पण नाखे नहीं. तो शुं करे तो के, (हरण के) हस्तेन एटले हाथे करी (तं के०) ते अस्थि प्रमुखने (गहेऊणं के०) गृहीत्वा एटले ग्रहण करीने (एगंतं के०) एकांतस्थलने विषे ( अवकमे के०) अवकामेत् एटले जाय. ॥ ५ ॥ __(दीपिका.) साधुः तदस्थ्यादिकमुदिप्य हस्तेन यत्र क्वचिन्न निक्षिपेत् । तथा श्रास्येन मुखेन न उप्लेत् माहिराधना इति हेतोः। अपि तु किं कुर्यात् । हस्तेन तदस्थ्यादिकं गृहीत्वा एकान्तं निर्व्यञ्जनं स्थानमवक्रामेजछेत् ॥ ५ ॥ (टीका.) तं जस्किवित्तु इति सूत्रम् । तदस्थ्यादि उदिप्य हस्तेन यत्र क्वचिन्न निक्षिपेत् । तथास्येन मुखेन नोभेत् । अपितु हस्तेन गृहीत्वा तदस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेदिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिश्रा॥ जयं परिहविजा, परिहप्प पडिकमे ॥६॥. (अवचूरिः) एकान्तमवक्रम्य अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य तं यतं परिष्ठापयेत् । परिष्ठाप्य प्रतिकामेत् ॥ ६॥ (अर्थ) उपरनी गाथामां कह्या प्रमाणे ( एगंतं के ) एकांतस्थलने विषे (अवकमित्ता के०) अवक्रम्य एटले जश्ने (जयं के०) यतं एटले जयणासहित (परिविजा के) परग्वे, (परिछप्प के ) परवीने पडी (पडिकमे के) प्रतिकामेत् एटले शरियावही पडिकमे. ॥ ६ ॥ ___(दीपिका.) तत्र गत्वा किं कुर्यादित्याह । साधुस्तदस्थ्यादिकं यतमत्वरितं Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रतिष्ठापयेत् । किंकृत्वा । एकान्तमवक्रम्य गत्वा । पुनः किं कृत्वा। यचित्तं प्राशुकं प्रत्युपेय चनुषा, रजोहरणेन प्रमाय॑ च परिष्ठाप्य च प्रतिकामेदीर्यापथिकी मिति ॥ ६। (टीका.) एगंत त्ति सूत्रम्। एकान्तमवक्रम्य यचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत् प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामेदिति । नावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सिआय निस्कू इचिजा, सिङमागम्म नुत्तुअं॥ सपिंडपायमागम्म, मुअं से पडिलेहिया ॥७॥ (अवचूरिः) वसतिमधिकृत्य नोजन विधिमाह । स्यानिकुरिठय्यां वसतिमा गम्य परिजोक्तुम् । सपिएकपातेन विशुद्धनिदया सहागम्य । वसतिमिति गम्यते उन्मुकं स्थानं प्रत्युपेक्ष्य तत्रस्थो निदां शोधयेत् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) हवे पोताने स्थानकने विषे आहार लेवानो विधि कहे . ( सिआ के स्यात् कदाचित् एटले जो कदाजित् बीजा कोपण कारणना अनावथी (जिस्कू के जिनुः एटले साधु (सिङां के०) शय्याम् एटले उपाश्रय प्रत्ये (आगम्म के०) आगम्य एटले आवीने (जुत्तुझं के ) नोक्तुं एटले नोजन करवा (इविद्या के ) श्वेत एटले श्छे. तो ( सपिंडपायं के०) सपिंडपातं एटले शुद्ध निदाए सहित एवो ते साधु (श्रागम्म के०) आगम्य एटले उपासरानी पासें आवीने बाहर उनो थकोज (उंडुअं के०) उन्मुकं एटले भोजननी चूमि प्रत्ये (पडिले हिथा के०) पडिलेहे. ॥७॥ (दीपिका.) अथ वसतिमधिकृत्य जोजन विधिमाह । स्यात् कदाचित् तदन्यकारणाजावे सति निः श्छेत् शय्यां व तिम् । किं कृत्वा । आगम्य तत्र आगत्य । किमर्थं परिनोक्तं नोजननिमित्तम् । तत्रायें विधिः। सपिएफपायं पिएमपातेन विशुझसमुदानेन आगम्य । वसतिमिति शेषः बहिरेव उन्मुकं स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिएकपातं विशोधयेत् ॥ ७ ॥ ( टीका.) वसतिमधिकृत्य जोजन विधिमाह । सिआय त्ति सूत्रम् । स्यात् कदाचित् तदन्यकारणानावे सति निकुरिछेत् । शय्यां वसतिमागम्य परिनोक्तुं तत्रायं विधिः। सह पिणरूपातेन विशुरूसमुदानेनागम्य । वसतिमिति गम्यते । तत्र बहिरेवोन्मुकं स्थानं प्रत्युपेदय विधिना तत्रस्थः पिएमपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुपो मुणी॥ शरियावदियमायाय, आग अपडिकमे ॥ ७ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३१३ (श्रवचूरिः) विनयेन नैषेधिकीनमःदमाश्रमणेज्योञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य वसतिमिति सकाशे गुरोर्मुनिः पथिकामादाय तत्सूत्रं पठित्वा आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिकामेत् कायोत्सर्ग कुर्यादिति ॥ ७ ॥ (अर्थ.) पली; (मुणी के ) मुनिः एटले संयमी साधु ( विणयेण के) विनयेन एटले; निसिही केहवी, करांजलि रचीने 'नमः दमाश्रमणेभ्यः' एम केह, ए रूप जे विनय ते विनय करी उपासराने विषे (पविसित्ता के०) प्रविश्य एटले प्रवेश करीने (गुरुणो के० ) गुरोः एटले गुरुना ( सगासे के०) सकाशे एटले समीप जागमां (शरियाव हियं के०) रियापथिकां एटले झरियाव हियाए ए सूत्रने (आयाए के) आदाय एटले पठन करीने पढ़ी (आग के ) आगतः एटले गुरुनी पासे प्राप्त थयो थको (पडिकमे के.) प्रतिक्रामेत् एटले कायोत्सर्ग करे. ॥ ७ ॥ (दीपिका ) ततः पश्चात्किं कुर्यादित्याह । साधुस्तत्र आगतो गुरुसमीपं प्रतिकामेत् कायोत्सर्ग कुर्यात् । किं कृत्वा । गुरुससगासे शरियावहिरं आयाय गुरुसमीपे ापथिका "श्वामि पडिकमिज" इत्यादि पाउरूपां आयाय पठित्वा । पुनः किं कृत्वा। विणएण पविसित्ता। पूर्व पिएकं विशोध्य बहिर्विनयेन नैषेधिकीनमःदमाश्रमणेज्योऽजखिकरणलक्षणेन । वसतिमिति शेषः । प्रविश्य ॥ ७ ॥ (टीका.) तत ऊर्च विणएण त्ति सूत्रम्। विशोध्य पिएक बहिर्विनयेन नैषेधिकीनमःदमाश्रमणेच्योऽञ्जलिकरणलक्षणेन प्रविश्य वसतिमिति गम्यते । सकाशे गुरोः मुनिर्गुरुसमीप इत्यर्थः । ापथिकामादाय “श्वामि पडिक्कमिजं - रियावहियाए” इत्यादि पवित्वा सूत्रम् । आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत्कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः॥ ॥ . अानोश्त्ता ण नीसेसं, अश्आरं जहक्कम ॥ गमणागमणे चेव, नत्ते पाणे च संजए ॥ नए॥ (अवचूरिः) तत्र कायोत्सर्ग आजोगयित्वा ज्ञात्वा निःशेषमतीचारं यथाक्रमं गमनागमनयोश्चैवं नक्तपानयोश्च संयतः कायोत्सर्गस्थो हृदि स्थापयेत् ॥ ए॥ (अर्थ.) आजोश्त्ता णमिति. पनी ( संजए के० ) संयतः एटले ते पूर्वोक्त साधु काउसग्गने विषे रह्यो थको (गमणागमणे के०) गमनागमनयोः एटले जतां अने आवतां उपजेला (चेव के) वली (त्नत्तपाणे के०) नक्तपानयोः एटले नात पाणी वोहोरतां उपजेला (नीसेसं के०) निःशेषं एटले संपूर्ण (अश्यारं के०) ४० Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ राय धनपतसिंघवदापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. अतिचारं एटले अतिचारने ( जहकमं के) यथाक्रमं एटवे अनुक्रमें (थानोश्त्ता के) आजोगयित्वा एटले जाणीने स्मरण करीने हृदयने विये स्थापे. ॥जए॥ (दीपिका.) ततः किं कुर्यादित्याह । साधुः कायोत्सर्गस्थः तमतिचारं हृदये स्थापयेत्।किंनूतमतिचारम् । निःशेषम् । यथाक्रमं परिपाट्या। किं कृत्वा । तत्र कायोत्सर्गे श्रानोगयित्वा ज्ञात्वा । कुत्रेत्याह । गमनागमनयोः । गमने गलत यागमन आगतः। पुनः नक्तपानयोः नक्ते पाने च ॥ नए ॥ (टीका.) अनोश्त्ता णं ति सूत्रम् । तत्र कायोत्सर्गे आनोगयित्वा ज्ञात्वा निः. शेषमतिचारं यथाक्रमं परिपाट्या। केत्याह । गमनागमनयोश्चैव । गमने गठत थागमन आगबतो योऽतिचारः। तथा जक्तपानयोश्च । नक्ते पाने च योऽतिचारः। तं संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ जअप्पन्नो अणुविग्गो, अवखित्तेण चेअसा॥ आलोए गुरुसगासे, जं जदा गहिअंनवे॥ ए॥ _(अवचूरिः) विधिनोत्सारिते च तस्मिन् रुजुप्रज्ञोऽनुद्विग्नः । तुदादिजयात्प्रशान्तः । अव्यादिप्तेन चेतसा आलोचयेगुरुसकाशे । गुरोर्निवेदयेदिति नावः। यदशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तप्रदानादिना गृहीतं नवेत् ॥ ए० ॥ (अर्थ.) पठी, ( उकुप्पन्नो के० ) रुजुप्रज्ञः एटले रुजु ते सरल, कपटरहित एवी प्रज्ञा बुधि जेनी एवो, तथा (अणुव्वग्गो के) अनुछिन्नः एटले जेने उद्विग्नपणुं, व्यग्रपणुं नथी एवो ते पूर्वोक्त साधु ( अबरिकत्तेण के० ) अव्यादिप्तेन एटले जेने विदेप ते चंचल पणुं नथी, एवा (चेअसा के) चेतसा एटले अंतः. करणे करी (गुरुसगासे के०) गुरुसकाशे एटले गुरुनी समीपे (आलोए के) आलोचयेत् एटले आलोचे, कहे. शुं कहे तो के, (जं के०) यत् एटले जे आहारादिक (जहा के०) यथा एटले जे प्रकारे ( गहिरं के०) गृहीतं एटले वहोस्खु (नवे के ) जवेत् एटले होय ते सर्व गुरुनी पासें आलोचे.॥ ए॥ ( दीपिका.) कायोत्सर्गे पारिते च किं कुर्यादित्याह । साधुरशनादि यथा येन प्रकारेण हस्तप्रदानादिना गृहीतं नवेत्, तशुरुसमीपे आलोचयेजुरोनिवेदयेदितिनावः । केन । एवं विधेन चेतसा । किंजूतेन चेतसा । अवस्कित्तेण अव्यादिन अन्यत्र उपयोगमगछता। किंतः साधुः । झजुप्रज्ञः अकुटिलमतिः । पुनः किंनूतः साधुः । अनुछिन्नः सर्वत्र कुदादिजयात् प्रशान्तः॥ ए ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३२५ (टीका.) विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् उअप्पन्नत्ति सूत्रम् । राजुप्रज्ञः अकु: टिलमतिः सर्वत्र अनुहिनः कुदादिजयात्प्रशान्तः अव्या दिप्तेन चेतसान्यत्रोप__ योगमगडतेत्यर्थः । आलोचयेजुरुसकाशे गुरोनिवेदयेदिति जावः । यदशनादि यथा __ येन प्रकारेण हस्तदानादिना गृहीतं नवेदिति सूत्रार्थः॥ ए न सम्ममालोइयं कुडा, पुर्वि पहा व जंकडं। पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसहो चिंतए इमं ॥१॥ - (अवचूरिः) न सम्यगालोचितं सूममझानात् अनाजोगेनाननुस्मरणाझा पूर्व प श्चाधा यत्कृतं पुरःकर्म वा पश्चात्कर्म वा पुनरालोचनानन्तरं प्रतिक्रामेत् । तस्य सूदमा.. तिचारस्य “श्छामि पडिकमिजं गोअरचरिआए” इत्यादि पठित्वा व्युत्सृष्टः कायो__ सर्गस्थश्चिन्तयेदिदं वयमाणलदणम् ॥ १ ॥ (अर्थ.) पड़ी शुं करे ते कहे . ते साधु, ( जं के.) यत् एटले जे सूक्ष्म अज्ञानथी ( सम्मं के०) सम्यक एटले सारीरीते (बालो के ) आलोचितं एटले आलोयुं (न हुडा के०) न होय. हवे शुं ते कहे . ( व के०) अथवा (जं के०) यत् एटले जे (पुवं कडं के०) पूर्वकर्म अने (पहा कडं के ) पश्चात् कर्म होय, (तस्स के ) तेने (पुणो के०) पुनः एटले फरी ( पडिकमे के०) प्रतिक्रमण करे. पली (वोसको के० ) व्युत्सृष्टः एटले कायोत्सर्गमा रह्यो थको (इमं के) इदं एटले आगल केहेशे ते (चिंतए के) चिंतयेत् एटले चिंतवे.॥ ए१॥ - (दीपिका.) ततः किं कुर्यादित्याह साधुस्तस्य सूमातिचारस्य यत्पूर्वं कृतं. तत् पुरः कर्म यत्पश्चात्कृतं तत् पश्चात्कर्म सूमं न सम्यगालोचितं नवेत् । कुतः। अझानादनाजोगेनाननुस्मरणाहा । तत्सर्वं पुनरालोचनानन्तरकालं प्रतिक्रामेत् । किं कृत्वा । “श्छामि पडिकमिजं गोअरचरिआए” इत्यादि सूत्रं पठित्वा । ततो व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थ इदं वयमाणं गाथारूपं चिन्तयेत् ॥ ए१ ॥ __ (टीका.) तदनु च न संमं ति सूत्रम् । न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्ममझानात् । अनानोगेनाननुस्मरणाछा पूर्व पश्चाद्वा यत्कृतं पुरःकर्म पश्चात्कर्म वेत्यर्थः । पुनरालोचनोत्तरकालं प्रतिकामेत्तस्य सूक्ष्मातिचारस्य श्यामि पडिकमिजं गोअरचरिआए " इत्यादि सूत्रम् । पठित्वा व्युत्सृष्टः कायोत्सर्गस्थश्चिन्तयेदिदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा दा जिहिं असावा, वित्ती साहू देसिया ॥ मुसाहादेबस्स, सादुदेहस्स धारणा ॥ ९२ ॥ ( अवचूरि: ) अहो विस्मये । जिनैस्तीर्थ करैरसावद्यापापा वृत्तिर्वर्त्तना साधूनां द र्शिता मोक्षसाधन देतोः सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय ॥ ९२ ॥ ( अर्थ. ) ( अहो के० ) अहो इति विस्मये ( जिणेहिं के० ) जिनैः एटले राग द्वेषादिके रहित एवा तीर्थंकरोए ( साहूए के० ) साधूनां एटले साधु लोकोने (सावा के ) असावया एटले दोषरहित पापरहित एवी ( वित्ती के० वृत्तिः एटले गोचरीरूप वृत्ति ( देसिया के० ) देशिता अथवा दर्शिता एटले केवी सारी कही बे, अथवा देखाडी बे! जूयो, के जे गोचरी वृत्ति ( मुरकसा हण हे उस्ल के० ) मोक्षसाधन देतोः एटले मोक्ष साधवाने कारणभूत एवा ( साहुदेहस्त के० ) साधु देहस्य एटले साधुना देने ( धारणा के० ) धारणाय एटले धारण, पोषण, सं यमनो निर्वाह करवो तेने थे . ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) किं चिन्तयेत्तदाह । श्रहो इति विस्मये जिनैस्तीर्थकरैः साधून वृत्तिदर्शिता देशिता वा । किंनूता वृत्तिः । श्रसावद्या पापा । कस्मै । साधुदेहस्य धा रणाय धारणार्थं । किंनूतस्य साधुदेहस्य | मोक्षसाधनहेतोः मोक्षसाधनं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तस्य हेतोः ॥ २ ॥ - ( टीका. ) हो जिणेहिं सूत्रम् । श्रहो इत्याश्चयें । जिनैस्तीर्थ करैरसावधापापा वृत्तिर्वर्त्तना साधूनां दर्शिता देशिता वा । मोक्षसाधन हेतोः सम्यग्दर्शनज्ञानचा - रित्रसाधनस्य साधुदेहस्य धारणाय संधारणार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ए‍ ॥ मुक्कारेण पारिता, करिता जिणसंथवं ॥ सनायं पठवित्ताणं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ए३ ॥ ( अवचूरि : ) नमस्कारेण पारयित्वा नमो अरिहंताणमिति कृत्वा जिन संस्तवं लोगस्सेत्यादि स्वाध्यायं प्रस्थाप्य विश्राम्येत्क्षणं कालं मुनिः ॥ ए३॥ (.) पी, ( नमुक्कारेण के० ) " नमो अरिहंताणं" एवा उच्चारे करी ( पारिता के० ) पारथित्वा एटले पूर्वोक्त काउस्सग्ग पारीने तथा ( जिणसंथवं के० ) जिन जे तीर्थंकर तेमनो जे संस्तव एटले. ' लोगस्सुकोअगरे ' इत्यादि स्तवन तेने ( करिता ० ) कृत्वा एटले एकवार संपूर्ण पठन करीने पढी ( सनायं के० ) स्वाध्यायं एटले सिद्धांतनी गायाने ( पवित्ता णं के० ) प्रस्थाप्य एटले पूर्ण करीने Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम्। . .. ३१७ ( मुणी के०) मुनि. एटले पूर्वोक्त साधु (खणं के०) दणं एटले कणमात्र (वीसमिजा के) विश्राम्येत् एटले विश्रांति लिये. ॥ ए३ ॥ . (दीपिका.) ततः किं कुर्यादित्याह । मुनिः कणं स्तोककालं विश्राम्येत् । किं कृत्वा। नमस्कारेण नमो अरिहंताणमिति कथनरूपेण कायोत्सर्ग पारयित्वा । पुनः किं कृत्वा । जिनसंस्तवं लोगस्सुजोयगरे इत्यादिरूपं कृत्वा । अतो यदि न पूर्व प्रस्थापितः ततः स्वध्यायं प्रस्थाप्य मंडल्युपजीवकः तं स्वाध्यायमेव कुर्यात् । यावदन्ये आगबन्ति । यः पुनस्तदन्यः पकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् ॥ ए३ ॥ (टीका.) ततश्च णमोकारेणत्ति सूत्रम् । नमस्कारेण पारयित्वा नमो अरिहंताणमित्यनेन कृत्वा जिनसंस्तवं “लोगस्सुजोअगरे” इत्यादिरूपं । ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः स्वाध्यायं प्रस्थाप्य मंडदयुपजीवकस्तमेव कुर्यात् । यावदन्य आगठन्ति । यः पुनस्तदन्यः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् दणं स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ए३ ॥ वीसमंतो इमं चिंते, दियमहं लानमहिन॥ ___जश् मे अणुग्णहं कुज्जा, साढू दुजामि तारि॥ ए४॥ ( अवचूरिः ) विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत्परिणतचेतसा हितं कल्याणप्रापकमर्थं वयमाणं लानेन निर्जरादिनार्थोऽस्येति लानार्थिकः । यदि मेऽनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिएमग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो जवसमुतात् ॥ ए४॥ . (अर्थ.) साधु विश्रामानंतर शुं करे ते कहे . पडी, (लालमहि के) लानार्थी एटले कर्मनिर्जरारूप लाननो अर्थी एवो पूर्वोक्त साधु (वीसमंतो के०) विश्राम्यन् एटले विश्रांति देतो थको (श्मं के०) श्मं एटले आ केहशे ते (हियम के) हितमर्थं एटले हित जे कल्याण तेने पमाडनार एवा अर्थप्रत्ये (चिंते के) चिंतयेत् एटले चिंतन करे. ते एवी रीतेः-(जर के) यदि एटले जो (साहू के०) साधु ( मे के) मारा उपर एटले मे आणेला प्रासुक पिंडने ग्रहण करीने (अणुग्गहं के०) अनुग्रहम् एटले प्रसादने (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे. तो तेनो हुँ ( तारिउ के ) तारितः एटले नवसमुअथी तारेलो एवो (हुजामि के०) नवा मि एटले था.॥ ए४ ॥ ( दीपिका.) पुनः साधुर्विश्रामानन्तरं किं कुर्यादित्याह। साधुर्विश्राम्यन् इदं हितं कल्याणप्रापकमर्थं वदयमाणलक्षणं चिन्तयेत्।केन । चेतसा परिणतेन मनसा। किंनूतः Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. साधुः । लानेन निरादिना अर्थोऽस्येतिलानार्थिकः सन् । कथमित्याह । यत एवं जानाति यदि मे मम साधवः मया आनीतो यः प्रासुकः पिएकः तस्य ग्रहणेन अनुग्रहं प्रसादं कुर्युः । तदाहं तारितो नवसमुखात् स्यां नवामि । एवं चिन्तयित्वा उचितवेलायां साधुराचार्यमामन्त्रयेत् यद्याचार्यों गृह्णाति ततो नव्यम् । कदाचित् स स्वयं न गृह्णाति तदा तस्य वाच्यं “हे नगवन् देहि केन्यश्चित्" इत्युक्ते यदि साधुः किं दातव्यं कस्यापि ददाति तदा सुन्दरम् । अथाचार्यों नणति त्वमेव देहि । तदा किं कुर्यादित्याह ॥ ए४ ॥ (टीका.) वीसमंत त्ति सूत्रम् । विश्राम्यन्निदं चिंतयेत् परिणतेन चेतसा हितं कल्याणप्रापकमिममर्थं वदयमाणम् । किं विशिष्टः सन् । जावलानेन निर्जरादिनाथोऽस्येति लानार्थिकः । यदि मे मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिएमग्रहणा' ' त्ततः स्यामहं तारितो नवसमुादिति सूत्रार्थः ॥ ए४ ॥ साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिक जदकमं ॥ जश् तब के इबिजा, तेहिं सहिं तु मुंजए ॥ एय॥ (श्रवचूरिः) साधुस्ततो गुर्वनुज्ञातः मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् यथाक्रमं यथारत्नाधिकतया । ग्रहणौचित्यापेक्षया वा । यदि तत्र केचन श्छेयुस्ततस्तैः सार्धं जुजीत संविनागदानेन । ए५ ॥ . (अर्थ.) एम चिंतवीने पनी योग्य वेलाने विष आचार्यने आहार बेवाने विनति करे. जो ते आचार्य आहार लिये, तो सारूं, नहीं तो तेने वली केहq के, जे हे जगवन् ! आप ए आहार कोश्ने आपो. पडी ते आचार्य जो ते आहार कोश पुरुषने आपे, तो सारूं, अने जो ते आचार्य एम कहे के, तुंज कोश्ने आप. त्यारें आगल केहवाशे तेप्रमाणे करे. साहवोत्ति सूत्र. ( त के०) ततः एटले आचार्यनी आज्ञा लीधा परी (साहवो के) साधुः एटले ते साधु (चियत्तणं के) मनः प्रणिधाने करी पोताना धर्मबांधव एवा बीजा साधुऊने (जहकमं के०) यथाक्रमं एटले योग्यताने अनुक्रमे करी अर्थात जे श्रेष्ठ होय तेने प्रथम ते पली बीजा ने एवे अनुक्रमेकरी (निमंतिज के०) निमंत्रयेत एटले आमंत्रण करे. पडी, (ज३ के०) यदि एटले जो (तब के०) सत्र एटले ते साधमां (केश के०) कश्चित् एटो कोइ पण साधु आहार लेवाने ( इबिजा के ) श्वेत एटले श्छे, तो ( तेहिं सकि क) तैः सार्धं एटले तेमनी साथे (मुंजए के) जुजीत एटले नोजन करे. ॥५॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययनम् । ३१ ( दीपिका. ) साधुस्ततो गुरुणानुज्ञातः सन् यथाक्रमं यथारत्ताधिकतया ग्रहणौचित्यापेक्षया वालादिक्रमेणेत्यन्ये वदन्ति । साधून निमन्त्रयेत् केन | चित्ते मनःप्रीत्या ततो यदि केचन धर्मवान्धवा इवेयुरंगी कुर्युस्तदा तैः सार्द्धमुचितसंविभागदानेन साधुर्भुञ्जीत ॥ ए५ ॥ ( टीका. ) एवं संचिन्त्यो चितवेलायामाचार्य मामन्त्रयेद्यदि गृह्णाति शोजनं नो sarsat जगवन्देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यम् । यतो यदि ददाति सुन्दरमेव जति त्वमेव प्रछ । अत्रान्तरे साहवो त्ति सूत्रम् । साधूंस्ततो गुर्वनुज्ञातः सन् चित्ते ति मनःप्रणिधानेन निमन्त्रयेत् । यथाक्रमं यथारत्नाधिकतया । ग्रह्णौ चित्यापेक्ष्या बालादिक्रमेणेत्यन्ये । यदि तत्र केचन धर्मबान्धवा इवेयुरम्युपगच्छेयुस्ततस्तैः सार्धं जुञ्जीत उचितसंविभागदानेनेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ अह कोइ न इचिका, तब चुंजिज एक ॥ आलोए नायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥ ए६ ॥ ( अवचूरिः ) अथ कश्चिन्नेछेत्ततो मुञ्जीत एकको रागादिरहितः । आलोकजाजने मक्षिकायपोहाय प्रकाशप्रधाने जाजन इत्यर्थः । यतं प्रयत्नेन परिशातयन् हस्तमुखाभ्यामनुवन् ॥ ए६ ॥ (अर्थ) ( ० ) अथ एटले अनंतर ( कोइ के० ) कश्चित् एटले कोइ प ( न इाि के० ) न श्छेत् एटले आहार लेवाने इछे नहीं. ( तर्ज के० ) ततः तो पी ( एक के० ) एककः एटले एकलोज ( चुंजित के० ) मुंजीत एटले नोजन करे. शामां जोजन करे ते कहे बे. ( सादु के० ) पूर्वोक्त साधु (आलोए के० ) - लोके एटले प्रकाशसहित, ज्यां प्रकाश घणो बें, एवा ( जाय के० ) जाजने एटले पात्रमां (जयं के० ) जयणाए करी तथा (अपरिसा डियं के० ) अपरिशातयन् एटले हाथमांथी अथवा मुखमांथी कणमात्र न पडे तेवीरीते जोजन करे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका . ) कोपि नेवेत्तदा किं कुर्यादित्याह । अथ कोपि साधुचेत्तदा साधुरेकाकी रागादिरहितो मुञ्जीत । कथं मुञ्जीतेत्याह । श्रालोकजाजने मदिकादीनामपोहाय प्रकाशप्रधाने नाजन इत्यर्थः । यतः प्रयत्नेन तत्रोपयुक्तः । किं कुर्वन् । यपरिशातथन् । हस्तमुखाच्यां कणमात्रमपि न त्यजन् ॥ ए६ ॥ ( टीका. ) अह के इत्ति सूत्रम् । अथ कश्विन्नेवेत् साधुस्ततो मुञ्जीत एकको रागादिरहित इति । कथं जुञ्जीतेत्यत्राह । यलोके जाजने मक्षिकायपोहाय प्र Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा काशप्रधाने जाजनइत्यर्थः । साधुः प्रत्रजितः यतं प्रयत्नेन तंत्रोपयुक्तः व्यपरिशा तं हस्तमुखाभ्यामनुझन् इति सूत्रार्थः ॥ ए६ ॥ तित्तगं व कमुच्छ्रं व कसायं, यंविलं व मदुरं लवणं वा ॥ एप्रल-इमन्नच पत्तं, मदु घयं व चुंजिक संजए ॥ ए७ ॥ ( अवचूरिः) नोजनमधिकृत्य विधिमाह । तिक्तमे लुकवालुकादि । कटुकमा कती मनादि । कषायं वल्लादि । अम्लमारनालादि । मधुरं कीरादि । प्रकृतिकारं ल वोत्कटं शाकादि वा । एततिक्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना । प्राप्तमन्यार्थ प्र युक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव भुञ्जीत न चर्वणाद्यर्थम् ॥ ए ॥ (अर्थ) हवे जोजननो विधि कहे बे. जो ते आहारमां ( तित्तगं के० ) तिक्त कं एटले कडवो पदार्थ ते एलुक वालुकादिक होय. ( च के० ) बली ( कडुयं के० ) कटुकं एटले आएं इत्यादि तीखो पदार्थ होय, तथा ( कसायं के० ) कषायं एटले कषायलो ते कोठ बेहेडां वगेरे पदार्थ होय, ( च के० ) वली ( त्र्यं विलं के० ) अ म्लं एटले दधि बारा प्रमुख खाटो पदार्थ होय, अथवा मदुरं के० ) मधुरं एटले साकर दुध प्रमुख मधुर पदार्थ होय, ( वा के० ) किंवा ( लवणं के० ) खा. रो पदार्थ होय, तो ( एय के० ) ( लद्धं के० ) लब्धं एटले मलेला एवा तथा (पतं ० ) अन्यार्थ प्रयुक्तं एटले सिद्धांतनी रीते मोक्षसाधनकारक एवा पोताना देह निर्वाहार्थ पूर्वोक्त पदार्थने ( संजए के० ) संयतः एटले रागद्वेषरहित एवो साधु (महु घयं व के० ) मधुघृतमिव एटले सरस घीसरखा जाणीने (मुं जिन के० ) जुञ्जीत एटले जोजन करे. ॥ ए७॥ ( दीपिका. ) थ जोज्यमाश्रित्य विशेषमाह । संयत एवंविधमपि अशनादि म घृतमिव मधुघृतसमानं मृष्टमिति ज्ञात्वा भुञ्जीत । किं विशिष्टमशनादि । तिक्तं वा एलुकवालुकादि ९ कटुकमातीमनादि २ कषायं बल्लादि ३ विलं वा अम्लं त कारनालादि ४ मधुरं क्षीरदध्यादि ५ लवणं वा प्रकृतिकारं तथाविधशाकादि न्या लवणोत्कटं एतत् लब्धं श्रागमे उक्तेन विधिना प्राप्तं । पुनः कीदृशं अन्यार्थ - प्रयुक्तं अन्यार्थ अक्षोपांगन्यायेन देहार्थं परमार्थतों हि तत्साधकमिति कृत्वा मोकार्य प्रयुक्तं परं न वर्णाद्यर्थम् ॥ ७ ॥ ( टीका. ) जोज्यमधिकृत्य विशेषमाह । तित्तगंवत्ति सूत्रम् । तिक्तकं वा एलवालुकादि । कटुकं वा प्राईकतीमनादि । कषायं वल्लादि । काम्लं तक्रारनालादि । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। ३२१ मधुरं क्षीरमध्वादि । लवणं वा प्रकृतिदारं तथाविधं शाकादि । लवणोत्कटं वान्यत् । एतत्तिक्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना प्राप्तम् । अन्यार्थमदोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोकार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव च जुञ्जीत संयतः । न वर्णाद्यर्थम् । अथवा मधुघृतमिव णो वामा हणुश्रा दाहिणं हणुअं संचारेज त्ति सूत्रार्थः॥ ए अरसं विरसंवा वि, सूअं वा असूअं ॥ नवं वा जश् वा सुकं, मंयुकुम्मासनोअणं ॥ एक् ॥ (श्रवचूरिः) अरसमप्राप्तरसं हिंग्वादिनिरसंस्कृतम् । विरसं पुराणौदनादि । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् । असूचितं तसहितम्। आई वा प्रचुरव्यञ्जनं यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं मंथुकुल्माषनोजनं मंथु बदरचूर्णादि। कुटमाषाः सिझनाषा इति ॥ए॥ ... (अर्थ.) तथा (अरसं के०) जेने रस एटले रुचि नयी एवा हिंग तेलादिकना वघारे रहित पदार्थने (वा के) अथवा (विरसं विके) विरसमपि वि एटले गयो ने रस एटले सार जेमांथी एवा ठंडा थएला अन्नादिकने पण ( वा के०) अथवा (सूश्थं के) सूचितं एटले घणा व्यंजनादिके करी युक्त एवा पदार्थने अथवा (असूश्शं के) असूचितं एटले व्यंजनादिके रहित एवा पदार्थने अथवा ए बे पदनो एवो अर्थ करवो के, (सूश्यं के०) दातारना कहेवाथी आपेला किंवा (असूश्यं के०) दातारना कह्या विना आपेला एवा पदार्थने ( वा के० ) अथवा ( उवं के०) आई एटले ढीढुं सरस दहीसहित तथा वघार सहित शाक प्रमुख ते प्रत्ये (वा के०) अथवा (सुकं के०) शुष्कं एटले सूकुं वधारविनानुं शाक खाखरादिक तेने अथवा ( मंथु के०) बोरकूट वगेरे पदार्थ प्रत्ये अथवा (कुम्मासनोअणं के०) कुक्ष्माषनोजनं एटसे थडदना वाकलाना नोजनने ॥ ए॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशमशनादीत्याह । एतादृशं नोजनं वर्तते । तस्य श्रग्रिमगाथया सह योजना कार्या। किंन्नूतमशनादि जोजनम् । थरसं रसवर्जितं हिंग्वादिनिरसंस्कृतम् । पुनः किंजूतम् । विरसं वा विगतरसं पुराणमोदनादि । पुनः किंतूतम् । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् वा अथवा असूचितं व्यञ्जनादिरहितम् । श्रन्ये तु एवमर्थं कुर्वन्ति । सूचितं कथयित्वा दत्तम्, यसूचितमकथयित्वा वा दत्तम् । पुनः किंतूतम् । थाई प्रचुरव्यजनम् । यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनम् । किंतूतं तदित्याह । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. काशप्रधाने जाजनइत्यर्थः । साधुः प्रत्रजितः यतं प्रयत्नेन तंत्रोपयुक्तः व्यपरिशातं हस्तमुखाभ्यामनुझन् इति सूत्रार्थः ॥ ए६ ॥ तित्तगं व क व कसायं, यंविलं व महुरं लवणं वा ॥ एप्रल ६मन्नव पत्तं, मदु घयं व भुंजिक संजए ॥ ए७ ॥ ( अवचूरिः ) जोजनमधिकृत्य विधिमाह । तिक्तमे लुकवालुकादि । कटुकमाईकती मनादि । कषायं वल्लादि । अम्लमारनालादि । मधुरं दीरादि । प्रकृतिकारं लवोत्कटं शाकादि वा । एतत्तित्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना । प्राप्तमन्यार्थ प्रयुक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव भुञ्जीत न चर्वणाद्यर्थम् ॥ ए ॥ ( . ) हवे जोजननो विधि कहे बे. जो ते आहारमा ( तित्तगं के० ) तिक्त कं एटले कडवो पदार्थ ते एलुक वालुकादिक होय. ( च के० ) वली ( कडुयं के० ) कटुकं एटले आएं इत्यादि तीखो पदार्थ होय, तथा ( कसायं के० ) कषायं एटले कषायलो ते कोट बेहेडां वगेरे पदार्थ होय, ( च के० ) वली ( अंबिलं के० ) अ - म्लं एटले दधि बारा प्रमुख खाटो पदार्थ होय, अथवा ( महुरं के० ) मधुरं एटले साकर दुध प्रमुख मधुर पदार्थ होय, ( वा के० ) किंवा ( लवणं के० ) खारो पदार्थ होय, तो ( एय के० ) आ ( लऊं के० ) लब्धं एटले मलेला एवा तथा ( प ० ) अन्यार्थप्रयुक्तं एटले सिद्धांतनी रीते मोक्षसाधनकारक एवा पोताना देह निर्वाहार्थ पूर्वोक्त पदार्थने ( संजए के० ) संयतः एटले रागद्वेषरहित वो साधु (महु घयं व के० ) मधुघृतमिव एटले सरस घीसरखा जाणीने ( ॐजिस के० ) जुञ्जीत एटले जोजन करे. ॥ ए॥ ( दीपिका. ) थ जोज्यमाश्रित्य विशेषमाह । संयत एवंविधमपि अशनादि म धुघृतमिव मधुघृतसमानं मृष्टमिति ज्ञात्वा जुञ्जीत । किंविशिष्टमशनादि । तिक्तं वा एलुकवालुकादि ९ कटुकमातीमनादि २ कषायं बल्लादि ३ बिलं वा अम्लं त करनालादि ४ मधुरं कीरदध्यादि ५ लवणं वा प्रकृतिकारं तथाविधशाकादि अ न्यथा लवणोत्कटं एतत् लब्धं आगमे उक्तेन विधिना प्राप्तं । पुनः कीदृशं अन्यार्थ - प्रयुक्तं अन्यार्थ अक्षोपांगन्यायेन देहार्थं परमार्थतों हि तत्साधकमिति कृत्वा मोकार्थं प्रयुक्तं परं न वर्णाद्यर्थम् ॥ ७ ॥ ( टीका. ) जोज्यमधिकृत्य विशेषमाह । तित्तगंवत्ति सूत्रम् । तिक्तकं वा एलवालुकादि । कटुकं वा प्राईकती मनादि । कषायं वल्लादि । छाम्लं तक्रारनालादि । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३२१ मधुरं क्षीरमध्वादि । लवणं वा प्रकृतिकारं तथाविधं शाकादि । लवणोत्कटं वान्यत् । एततिक्तादि लब्धमागमोक्तेन विधिना प्राप्तम् । अन्यार्थमहोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमिति कृत्वा मधु घृतमिव च भुञ्जीत संयतः । न वर्णाद्यर्थम् । अथवा मधुघृतमिव णो वामार्ज दणुधा दाहिणं हां संचारे ति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ परसं विरसं वा वि, सूइयं वा असूयं ॥ उल्लं वा जइ वा सुकं, मंयुकुम्मासनोप्रणं ॥ ए८ ॥ ( अवचूरिः ) श्ररसमप्राप्तरसं हिंग्वादिनिरसंस्कृतम् । विरसं पुराणौदनादि सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् । सूचितं तद्रहितम् । आई वा प्रचुरव्यञ्जनं यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं मंथुकुल्माषनोजनं मंथु बदरचूर्णादि । कुल्माषाः सिद्धजाषा इति ॥ ८ ॥ (.) तथा ( रसं के० ) जेने रस एटले रुचि नयी एवा हिंग तेलादिकना वधारे रहित पदार्थने (वा के० ) अथवा ( विरसं विके० ) विरसमपि वि एटले गयो बे रस एटले सार जेमांथी एवा ठंडा थपला अन्नादिकने पण ( वा के० ) अथवा (सू ho ) सूचितं एटले घणा व्यंजनादिके करी युक्त एवा पदार्थने अथवा ( असूश्रं के० ) असूचितं एटले व्यंजनादिके रहित एवा पदार्थने अथवा ए वे पदनो एवो अर्थ करवो के, (सूयं के०) दातारना कहेवाथी आपेला किंवा ( असूां के० ) दातारना का विना पेला वा पदार्थने ( वा के० ) अथवा ( जहां के०) आई एटले ढीलुं सरस दहीसहित तथा वघार सहित शाक प्रमुख ते प्रत्ये ( वा के० ) अथवा (सुक्कं के० ) शुष्कं एटले सूकुं वघारविनानुं शाक खाखरादिक तेने अथवा ( मंथु के० ) बोरकूट वगेरे पदार्थ प्रत्ये अथवा ( कुम्मासनोखणं के० ) कुल्माषनोजनं एटले अदना बाकलाना जोजनने ॥ ए८ ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशमशनादीत्याह । एतादृशं नोजनं वर्तते । तस्य श्रग्रिमगायया सह योजना कार्या । किंनूतमशनादि जोजनम् । रसं रसवर्जितं हिंग्वादि - निरसंस्कृतम् । पुनः किंभूतम् । विरसं वा विगतरसं पुराणमोदनादि । पुनः किंभूतम् । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् वा अथवा असूचितं व्यञ्जनादिरहितम् । अन्ये तु एवमर्थं कुर्वन्ति । सूचितं कथयित्वा दत्तम्, सूचितमकथयित्वा वा दत्तम् । पुनः किंनूतम् । श्राद्धं प्रचुरव्यञ्जनम् । यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनम् । किंभूतं तदित्याह । ४१ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. मंथुकुम्मासनोजनं । मंथु बदरचूर्णादि । कुदमापाः सिझमाषाः । केचिन्छदन्ति कुट्माषा यवमाषाः ॥ ए७ ॥ (टीका.) किंच अरसं ति सूत्रम् । अरसमसंप्राप्तरसं हिंग्या दिजिरसंस्कृतमित्यर्थः। विरसं वापि विगतरसमतिपुराणौदनादि । सूचितं व्यञ्जनादियुक्तम् । असूचितं वा तसहितं वा। कथयित्वा श्रकथयित्वा वा दत्तमित्यन्ये। आई प्रचुरव्यञ्जनम् । यदि वा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं वा। किं तदित्याह । मन्युकुटमाषनोजनम् । मन्थु वदरचूर्णादि । कुदमाषाः सिझमाषाः । यवमाषा इत्यन्ये । इति सूत्रार्थः ॥ ए॥ · नप्पलं नाश् दीलिजा, अप्पं वा बढु फासुअं॥ मुहालई मुदाजीवी, मुंजिज्जा दोसवङिअं॥ एए॥ (श्रवचूरिः) उत्पन्नं विधिना प्राप्तं नातिहीलयेत्, अल्पं वा न देहपूरकमिति, बहु वासारणायं किमान ती । प्रासुकं निर्जीवं मुधालब्धं खटिकाचप्पटिकाव्यतिरेकेण मुधाजीवी न जात्याद्याजीवी जुञ्जीत संयोजनारहितम् ॥ एए ॥ (अर्थ.) ( उप्पमं के ) उत्पन्नं एटले सिद्धांतमां कहेली रीतप्रमाणे मलेलो जे पूर्वोक्त आहार तेने ( नाश्हीलिजा के०) नातिहीलयेत् एटले निंदे नहि, एज वात प्रकट कहे : ( अप्पं के० ) अल्पं एटले एमन अल्प होय तो कहे जे देहपूरक पण आहार मल्यो नथी, एथी शुं पूर्फ़ डवानुं ? अथवा ( बहु के) घणो होय, तो एम न कहे के, असार प्राय आहार मल्यो, तेथी झुं थाय ? ( फासुयं के०) प्रासुकं एटले. सूऊतो होय तेने निंदे नहीं. तेनुं कारण कहे जे, के ते आहार (मुहालझं के०) मुधालब्धं एटले मंत्रतंत्रादिक उपकार कीधा विना तथा माया आलाप विना मलेलो डे, माटे निंदे नहीं. बीजं कारण कहे डे के, ते साधु केवो ने तो के, (मुहाजीवी के०) मुधाजीवी एटले जात्यादिक देखाड्या विना आहारनो लेनार , तथा सर्वथा अनिदानजीवी बे, माटे श्राहारने निंदे नहीं. तो शुं करे ते कहे . ( दोसवजिअं के०) दोषवर्जितं एटले संयोजनादि दो परहित एवा श्राहार प्रत्ये (मुंजिका के०) मुंजीत एटले नोजन करे. ॥ एए ___ ( दीपिका.) एतनोजनं किमित्याह । एवं पूर्वोक्तमरसादिकमशनादि साधु - जीत । परं नाति हीलयेत् सर्वथा न निन्देत् । किनूतमशनम् । विधिना प्राप्तमपं नवेत् तदा नैवं ज्ञातव्यं वक्तव्यं वा । यत् किमेतददपमानं न देहपूरकमपि । तथा बहु वा असारप्रायं किमनेनासारेण । किंनूतमशनम् । फासुझं प्रासुकं यस्मात् Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। ३३३ प्राणा गता निर्जीवं जातम् । अन्येत्वाचार्या इत्थं व्याख्यां कुर्वन्ति । अल्पशब्दाहिरसादि वा बहु प्रासुकं सर्वथा शुद्धं नातिहीलयेत्।अपि त्वेवं नावयेत्। यदेव इह लोका ममानुपकारिणः प्रयन्ति तदेव शोजनमिति । किंनूतमशनम् । मुधा लब्धं मन्त्रतन्त्रादिना अप्राप्तम् । किंनूतः साधुः । मुधाजीवी सर्वथा अनिदानजीवी । श्र. न्ये वदन्ति जात्यादिना न जीवी । एवं विधमशनादि दोषवर्जितं संयोजनादिदोषवर्जितं साधुर्जुञ्जीत ॥ एए ॥ (टीका.) एतनोजनं कि मित्याह । जप्पमं ति सूत्रम् । उत्पन्नं विधिना प्राप्तं नातिहीलयेत्सर्वथा न निन्देत् । अल्पमात्रमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन । बहु वा असारप्रायमिति । वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। किंविशिष्टं तदित्याह । प्रासुकं प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः । अन्ये तु व्याचदते, अल्पं वा । वाशब्दाहिरसादि वा । बहुप्रासुकं सर्वथा शुद्धं नातिहीलयेदिति । अपि त्वेवं जावयेत् । यदेवेह लोका ममानुपकारिणः प्रयठन्ति तदेव शोजनमिति । एवं मुधालब्धं कोंटलादिव्यतिरेकेण प्राप्त मुधाजीवी सर्वथा अनिदानजीवी । जात्याद्यनाजीवक इत्यन्ये । जुञ्जीत दोषवर्जितं संयोजनादिरहितमिति सूत्रार्थः ॥ एए॥ उलहान मुहादाई, मुदाजीवी वि दुल्लदा॥ मुदादाई मुहाजीवी, दो वि गति सुग्गइंति बेमि ॥ १० ॥ पिमेसणाए पढमो उद्देसो सम्मत्तो॥१॥ _ (अवचूरिः) उर्लना एव मुधादातारः । मुधाजी विनोऽपि उर्लनास्तथाविधचेलकवत् । अमीषां फलमाह । मुधादातारो मुधाजी विनश्च डावप्येतौ गलतः सुगतिं सिद्धिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिदेवलोकसुमानुष्यप्रत्यागमपरंपरया। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १० ॥ इति पिएसैषणाध्ययने प्रथमोदेशकावचूरिः ॥१॥ . (अर्थ.) हवे, गुरुर्नु वचन कहे . ( मुहादाई के०) मुधादायी एटले प्रत्युपकार बुद्धिविना थाहार थापनारा एवा लोको ए संसारमाहे ( उवहार्ड के०) उर्लनाः एटले उर्लन . तथा ( मुहाजीवी वि के०) मुधाजीव्यपि एटले मुधा ए. टले मंत्रयंत्रादिक देखाड्या विना आहारना लेनारा पण (उसहा के) मुलनाः एटले उर्लन . ए (मुहादाई के०) मुंधादायी एवो श्रावक तथा (मुहाजीवी के०) मुधाजीवी एवो साधु ए ( दो वि के ) बन्ने जण ( सुगई के०) सुगतिं Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. एटले सति जे मोक ते प्रत्ये ( गांति के० ) जाय ठे. (त्ति वेमि के० ) इति ब्रवीमि एटले एम हुं तीर्थंकरना उपदेशथी कहुं तुं. दवे मुधाजीवी साधु उपर दृष्टांत कहे बेः- एक राजा धर्मनी परीक्षा करवा मातो हतो, जे कोइ उपर उपकार करीने तेना वदलामां तेनी पासेथी यन्नपान खे, एकां धर्म नथी. माटे शुद्धधर्म कोण पाले बे, तेनी हुं परीक्षा करूं तुं. एम विचारी तेथे मोदक थापा सारु घणा साधुर्जने तेड्या. त्यारे कार्पटिकादिक - नेक लोको एकता था. ते जोइ राजा तेमने पूलवा लाग्यो के, तमे कया साधनथी निर्वाह करो बो ? त्यारे एके कह्युं के, हुं मुखेकरी निर्वाह करूं बुं, वीजाए कयुं, ढुं पगे करी, त्रीजाएं कयुं हुं हाथे करी, चोथाए कच्युं हुं लोकना अनुग्रहाथी, पांचमायुं हुं मुधाजीवी बुं. ते सांजली राजाएं तेनो खुलासो ते जुदा जुदा सर्वेने पूग्यो, त्यारे पेहलो मुखथी आजीविका चलावनारो केहवा लाग्यो के, हुं संदेशो केहनार बुं माटे मारी उपजीविका मुखउपरज बे. वीजो पगथी श्राजीवका चलावना केवा लाग्यो के, हुं लेखवाहक बुं, माटे मारी उपजीविका पग उपर बे, त्री जो हस्तजीवी केहवा लाग्यो के, हुं लेखक बुं माटे मारी उपजीविका हाथपर बे, चोथो परिव्राजक केहवा लाग्यो के, हुं प्रव्रजित हुं, माटे मारी जीविका लोको उपर बे. पांचमो जैनी साधु हतो तेथे कयुं के, मे संवेगथी दीक्षा लीधी बे माटे ढुं मुधाजीव एटले जात्यादि आलंबन विना तथा प्रत्युपकार बुद्धिविना मलेल आहार वडे निर्वाह करनार बुं. ते सांजली राजाए जाएंयुं के, ए पांचमो साधु कहे बे, ते खरो धर्म बे. एम जाणी राजा साधुने लइने श्राचार्य पासे गयो, अने दीक्षा लेतो दवो. मां जे साधु कयुं हुं सुधा वृत्तिए जीवमान बुं. ते साधु मुधाजीवी जावो. 3 हवे मुधादायी उपर कथा कहे बे:- एक परिव्राजक हशे ते एक जागवतनी पासेयो ने केवा लाग्यो के, हुं तमारे घेर चोमासुं रहुं तमे मारो निर्वाद चलावो. त्यारे जागवत केहवा लाग्यो के, तमे जो मारुं कांपण काम न करो, केवल निःस्पृहपणे जो रहो, तो हुं तमारो निर्वाह चलावीश. ते परिब्राजके तदत्तिक, नेते जागवतने घेर चोमासुं रह्यो हवे ते जागवत परिव्राजकनो निर्वाह चलावे बे. एक वखत शुं थयुं के, ते जागवतनो घोडो चोरोए हरण करयो दतो, अने सवार थर गयेली जाणी एक ठेकाणे तलावपर बांधी राख्यो हतो, ते वामां ते परिव्राजक तलाव उपर नाहवा गयो, त्यां तेणे ते घोडो जोयो, जोश्ने पढी ते घ्यावीने जागवतने केहवा लाग्यो के, तलावना तीर उपर मारां वस्त्र हुं बीसरी आयो, त्यारे जागवते तलाव उपर माणस मोकल्यो. ते माणसे यावीने जा Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३२५ गवतने कडं के, त्यां में तमारो घोडो जोयो. तेवां वचन दूतना मुखथी सांजली नागवते जाण्यु जे ए वात परिव्राजके कही. पड़ी ते जागवत केहवा लाग्यो, जे हे परिव्राजक ! तमे अहीथी बीजे ठेकाणे जार्ज, हुं तमारो हवेथी निर्वाह चलावीश नहीं. कारण के, तमे अमाझं काम करीने अमारी पासेथी अन्नपान ल्यो, ते कांई शास्त्रमा सूफतुं कडं नथी.. एवं दान थापवाथी दातारने पूर्ण फल मलतुं नथी, अने तेवू दान लेवाथी लेनारने पण अतिचार दोष लागे . एम कही परिव्राजकने अन्नपान थापवानुं बंध कस्तूं. पडी ते परिव्राजक बीजे ठेकाणे गयो. ए दाता मुधादायी जाणवो. ॥ १० ॥ इति पिंडैषणाध्ययनना प्रथम उद्देशनो बालावबोध संपूर्ण ॥१॥ (दीपिका.) मुधाजीवीति । उर्लजमेतदर्शयति । उर्लजा एवंविधा दातारः तथाविधनागवतवत् । मुधाजीविनोऽपि उर्लनास्तथा विधचेबकवत् । एतयोः कथानके वृत्तितो ज्ञेये । अमीषां फलमाह । मुधा दातारो मुधाजी विनश्च छावप्येतो सुगति सिद्धिगतिं गडन्ति । कदाचित् तस्मिन्नेव जवे कदाचिद्देवलोकसुमानुषत्वप्रत्यागमनपरंपरया। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १० ॥ इति श्रीदशवैकालिकसूत्रस्य शब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां पिएषणाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥१॥ (टीका.) उल्लह त्ति । पुर्खना एव मुधादातारस्तथाविधनागवतवत् । मुधाजीविनोऽपि उर्लनास्तथाविधचेबकवत् । अमीषां फलमाह । मुधदातारो मुधाजी विनश्च छावप्येतो गलतः सुगतिं सिद्धिगतिं कदाचिदनन्तरमेव कदाचिदेव लोकसुमानुष प्रत्यागमनपरंपरया।ब्रवीमीति पूर्ववत् अत्र नागवतोदाहरणम्।जहा एगो परिवायगो। सो एगं नागवयं उवहिजे। श्रहं तव गिहे वरिसारत्तं करेमि । मम उदंतं वहाहि । तेण नणि जमम उदंतं न वहसि । एवं हवन त्ति । सो से नागव सेजानत्तपाणादिणा उदंतं वहति । श्रन्नया य तस्स घोडर्ड चोरेहिं हि । अतिप्पत्नायं ति काऊण जालीए बहो । सो श्र परिवायगो तलाए एहायजं गर्छ । तेण सो घोड दिहो। था।. गंतुं जण मम पाणीयतडे पोती विस्सरिया । गोहो विसङिा । तेण घोड दि हो। आगंतुं कहियं तेण । नागवएण णायं जहा परिवायगेण कहियं । तेण परिवायगो नमति । जाहि णाहं तव णि विठं उदंतं वहामि । णिविठं अप्पफलं नवति । एरितो मुधादाई। मुधाजीविमि उदाहरणं । एको राया धम्म परिस्कई । को धम्मो । जो अणि विलुजत्ति । तो तं परिकामि त्ति काऊण मणुस्सा संदिहा। राया मा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. दए देश । तच बहवे कपडियादयो गया पुरिति तुम्हे के मुंजह | - नो जण श्रहं मुहे जामि । थन्नो अहं पाएहिं । श्रन्नो ग्रहं हिं नो अहं लोगाणुग्गहेण । चेल्गो पुछि जण अहं मुहियाए । रन्ना पुष्ठि कहं चि । एगेण कहिां, हं कहगो मुहे गुंजामि । श्रमेण नणियं, थ हं वागो पाएहिं गुंजामि । श्रमेण पित्र्यं श्रहं लेहगो वे हिं । असे जािं, श्रहं निरकू अर्ज लोगाणुग्रहेण । चेल्लएण नणियं श्रहं संजायसंविराग मुहियाए । ताहे सो राया स धम्मो त्ति काऊण आयरियसमी वं ग पडबुद्ध पa । एसो मुहाजीवि त्ति सूत्रार्थः ॥ १०० ॥ इति श्रीहरिजप्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ पिंडेषणाध्यनस्यप्रथमोद्देशकः ॥ १ ॥ पडिग्गदं संलिदित्ता पं, लेवमायाइ संजए ॥ " डुगंधं वा सुगंधं वा, सवं जुंजे न बड्डए ॥ १ ॥ ( श्रवचूरिः ) अथ पिएकैषणाध्ययन द्वितीयोदेशावचूरिः प्रारभ्यते । प्रथमे प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तद्वितीय आह । प्रतिग्रहं संलि निरवयवं कृत्वा लेपमर्यादया श्रापं दुर्गन्धि वा सुगन्धिः सर्वं भुञ्जीत नोनेत् ॥ १ ॥ ( अर्थ. ) पिंडेषणाध्ययननो प्रथम उद्देश कह्यो, तेमां केहवानुं जे बाकी युं ते हवे या बीजा उद्देशमां कहे बे. पडिग्गहत्ति. ( संजए के० ) संयतः एटले साधु आहार करीने पढी ( प डिग्गढ़ के ० ) प्रतिग्रहं एटले पात्रादिकने ( लेवमायाइ ho) ले मर्यादया एटले लेप सुधी ( संविहित्ता णं के० ) संबिल एटले. अंगुलीएकरी रूमी परे लूहीने ( डुगंधं के० ) डुर्गंधं एटले जेने खराब गंध आवे बे, एवा तथा ( वा के० ) अथवा ( सुगंधं के० ) सुगन्धि एटले जेने सारो गंध वे बे, एवा पण आहार ने ( सर्वं के० ) निरवशेषपणे किंचित् पण शेष न राखतां (मुंजे के ) जोजन करे. परंतु ( न बहुए के०) नोप्रेत् एटले बांडे नहि. एटले सरसन्न जमे, छाने नीरस बांडे, एम करे नहीं. ॥ १ ॥ ( दीपिका . ) थपिएकैषणायाः प्रथम उद्देशे यत् उपयोगि नोक्तं तत् द्वितीयो - देशके दर्शयन्नाह । संयतः साधुः दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा जोजनजातं सर्वं समस्तं भुञ्जीतानीयात् परं नोत् । अत्र गन्धग्रहणं रसादीनामुपलक्षणम् । कुतो नोनेत् । उच्यते । संयमविराधनानयात् । किं कृत्वा । प्रतिग्रहं पात्रं संलिह्य प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा । कया । लेपमर्यादया श्रालेपं संविह्य ॥ १ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। ३२७ ( टीका.) पिएमेषणायाः प्रथमोद्दशके प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तदाह । पडिग्गहंति सूत्रम् । प्रतिग्रहं नाजनं संलिख्य प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा । कथमित्याह । लेपमर्यादया आलेपं संलिह्य संयतः साधुः । उर्गन्धि वा सुगन्धि वा नोजनजातम् । गन्धग्रहणं रसायुपलदणम्। सर्वं निरवशेषं जुञ्जीत अश्नीयात् । नोभेत् नोत्सृजेत् किंचिदपि । मानूसंयमविराधना । अस्यैवार्थस्य गरीयस्त्वख्यापनाय सूत्रार्धयो~त्ययोपन्यासः । प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युद्देशादौ तपन्यासार्थं वा । अन्यथैवं स्यात् । उर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सर्वं जुञ्जीत नोप्लेत् । प्रतिग्रहं संविह्य लेपमर्यादया संयतः। विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो अगोअरे॥ अयावयहा नुच्चा णं, जर तेणं न संथरे॥॥ (श्रवचूरिः) शय्यायां वसतौ नैषेधिक्यां स्वाध्यायजूमौ । यहा शय्यैव वासमजस निषेधान्नैषेधिकी तस्यां समापन्नो वा संप्राप्तः । गोचरे कपका दिछात्रमगदौ श्रयावदर्थमसंपूर्ण जुक्त्वा । णमलंकारे । यदि तेन जुक्तेन न संस्तरेन . यापयितुं समर्थः ॥२॥ (अर्थ.) तथा (सेजा के) शय्या एटले उपासराने विषे, अथवा (निसी हिआए के०) नैषेधिक्याम् एटले स्वाध्याय करवानी नूमिकाने विषे बेठेलो एवो साधु. (गोधरे के०) गोचरीने विषे ( समावन्नो के० ) प्राप्त थयो थको ( अयावयहा के०) अयावदर्थं एटले संयमनो निर्वाह करवाने जेटटुं जोश्ये तेट, पूरूं नहीं एवं (जुच्चा णं के०) नुक्त्वा एटले नोजन करीने (जश के०) यदि एटले जो (तेणं के०) तेटला आहारे करी (न संथरे के ) न संस्तरेत् एटले निर्वाहने पामे नहीं. अर्थात् कुधानो उपशम करी शके नहीं. ॥२॥ १ (दीपिका.) विशेषमाह । यदि आपको ग्लानादिर्वा तेन जुक्तेन न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः । तदा द्वितीयवेलामपि गोचरे नक्तपानं गवेषयेत् इत्यग्रिमगाथायाः संबन्धः। किंनूतः देपकादिः। सेजानिसी हिआए समावन्नो। शय्यायां वसतौ नैषेधिक्यां खाध्यायजूमौ । अथवा शय्यैवासमञ्जसनिषेधान्नैषेधिकी तस्यां समापन्नः सन्। किं कृत्वा अयावदर्थं नुक्त्वा न यावदर्थमपरिसमाप्तमित्यर्थः। वाक्यालंकारे॥॥ __ (टीका.) विधि विशेषमाह । सेज त्ति सूत्रम् । शय्यायां वसतौ नैपेधिक्यां वाध्यायनूमौ शय्यैव वासमंजसनिषेधान्नषेधिकी तस्यां समापन्नो वा गोचरे क्षपकादिः .. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. छात्रमादौ अयावदर्थ जुक्त्वा न यावदर्थमपरिसमाप्तमित्यर्थः । णमिति वाक्या लंकारे । यदि तेन नुक्तेन न संस्तरेन्न यापयितुं समर्थः । कपको विषमवेलापत्तन. स्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः ॥२॥ · तन कारणमुप्पामे, नत्तपाणं गवेसए॥ विहिणा पुवउत्तेण, मेणं उत्तरेण य॥३॥ ( अवचूरिः ) ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् जक्तपानं गवे. षयेत् विधिना पूर्वोक्तेन संप्राप्ते निदाकाल इत्यादिना अनेन वदमाणलक्षणेनोत्तरेण च ॥३॥ . (अर्थ.) ( त के0) तो ( कारणं के०) कारणे एटले आहारनुं कारण (जप्पमे के) उत्पन्ने एटले उत्पन्न थये बते ( पुवउत्तेणं के ) पूर्वोक्तेन एटले प्रथम कहेला ( विहिणा के०) विधिना एटले विधिये करी ( य के ) च एटले वली ( श्मेणं के० ) अनेन एटले आ ( उत्तरेणं के) उत्तरेण एटले आगल केहवाशे ते विधिये करी (जत्तपाणं के) जक्तपानं एटले अन्नपानने (गवेसए के) गवेषयेत् एटले गवेषणा करे. ॥३॥ (दीपिका.) ययेकवारं नुक्तेन न संस्तरेत्तदा किं कुर्यादित्याह । पुष्टालंबनः साधुः ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने द्वितीयवारमपि नक्तपानं गवेषयेदन्वेषयेत् । अन्यथा यतीनामेकवारमेव जक्तगवेषणमुक्तम् । केन । विधिना । किं विधिना । पूर्वोक्तेन । संप्राते निदाकाल इत्यादिना। च पुनः । अनेन वदयमाणलक्षणेनोत्तरेण ॥३॥ . (टीका. ) त ति सूत्रम् । ततः कारणे वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् नक्तपानं गवेषयेदन्विष्येत् । अन्यथा सक्तमेव यतीनामिति । विधिना पूर्वोक्तेन संप्राप्ते निदाकाल इत्यदिना अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः॥३॥ कालेण निस्कमे निस्कू, कालेण य पडिकमे॥ अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे॥४॥ (श्रवचूरिः) कालेन यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो निदाकालस्तेन निःकामेत् । निदायै इति शेषः । कालेन वोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पाद्यते तावता प्रतिकामे निदात्रमणात् । अकालं च विवयं । येन स्वाध्यायादि न संजाव्यते स खल्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेत् सर्वयोगोपसंग्रहार्थम् ॥ ४॥.. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। . ३२ए (अर्थ.) (निस्कू केत) निकुः एटले साधु (कालेण के०) कालेन एटले जे गामने विषे जेवारे आहारनी वेला होय ते अवसरे ( हिकमे के ) निःकामेत् एटले गोचरी माटे बाहर जाय, ( य के०) च एटले वली ( कालेण के ) कालेन एटले स्वाध्यायादिकनी वेला थक्ष जाणीने सप्लायने काले (पडिकमे के०) पागे वले. (च के०) वली (अकालं के) जे गोचरीनी वेला न होय, तथा ज्यां आहारनो वखत न होय, एवा अकालने एटले जे कालमां रोकवाथी साधुने खाध्यायादिक थाय नहि ते अकाल जाणवो तेने ( विवजित्ता के ) विवयं एटले वर्जीने (काले के०) काले एटले निदादिकना कालने विषे ( कालं के० ) कालं एटले ते काले योग्य एवा निदादिक कार्यने (समायरे के०) समाचरेत् एटले आचरण करे. ॥४॥ (दीपिका.) तदेव वदयमाणलक्षणमाह । जितुः साधुः वसतेः सकाशादू निदायै निकामेत् । केन। कालेन करणनूतेन ।कः कालः।यो यस्मिन् ग्रामादौ निदायामुचितः। पुनर्जिकुः कालेन तेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिकामेत् निवर्तेत । पुनर्निः काले निदावेलायां कालं निदां समाचरेत् । किं कृत्वा।अकालं च वर्जयित्वा। कोऽकालः । येन कालेन स्वाध्यायादि न संजाव्यते स किल अकालः । खाध्यायादीनि हि खाध्यायवेलायामेव क्रियन्ते ॥४॥ . (टीका.) कालेणं ति सूत्रम् । यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो निदाकालस्तेन करणनूतेन निष्कामे निर्वसतेर्निदायै । कालेन चोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेन्निवर्तेत । जणिशं च । खेत्तं कालो नायणं तिन्निविप्पहुप्पंति हिंमत्ति अह नंगा । अकालं च वर्जयित्वा येन स्वाध्यायादि न संना-. व्यते स खत्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंग्रहार्थं निग-. ... मनम्। निदावेलायां निदां समाचरेत् , स्वाध्यायादिवेलायां स्वाध्यायादीनीति। उक्तं च । जोगो जोगो जिणसासणंमीत्यादि । इति सूत्रार्थः ॥ ४॥ अकाले चरिसी निरकू , कालं न पडिलेदिसि॥ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिदसि ॥५॥ (अवचूरिः) अकालचरणे दोषमाह । अकालचारी कश्चित्साधुरलब्धदः केन । . चित्साधुना प्राप्ता निदा नवेत्यनिहितः सन्नेवं ब्रूयात् । अत्र स्थ बिमलसंनिवेशे कुतो नि. हा । स तेनोक्तः । अकाले चरसि निदांप्रमादात्स्वाध्यायलोनाका कादं न प्रत्युपेक्ष Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) -मा. सेऽयं निकालो न वेति । अकालचरणेनात्मानंच क्लामयसि दीर्घाटनोनोदरजावेन । संनिवेशं च गर्हसि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति ॥ ५ ॥ (.) हवे अकालने विषे गोचरीए जवामां दोष कहे ते. काल त्ति. एक वखते एम, अकालने विषे गोचरीए जनार कोइ एक साधुने जिदा नहि मलवाथी ते दीन थयो, अने ते गामनी निंदा करवा लाग्यो के, शून्य जंगल सरखा एं गाममां निक्षा क्याथी मले ? ते सांजली बीजो साधु तेने कहेवा लाग्यो के, (निरकू के० ) हे नको, साधो ! तुं ( अकाले के० ) ज्यारे जिका मले नहि एवा अकालने विषे ( चरिसि के० ) गोचरीए जाय बे; पण तुं ( कालं के० ) निकायोग्य कालने ( न पडिलेह सि के० ) न प्रत्युपेक्षसे एटले देखतो नथी, वरावर जोतो नथी. तेथी ( अप्पा के० ) पोताना श्रात्माने ( किलामे सि के० ) क्लामय सि एटले किलामणाने पमाडे बे, अर्थात् दीर्घ भ्रमणथी तथा ऊनोदरताना दुःखथी ( च के० ) वली जगवदाज्ञानो लोप करीने दैन्य पाम्याथी ( संनिवेशं के० ) ग्रामप्रत्ये ( गरिहसि के० ) गर्हसि एटले निंदे बे. जे आ गामना लोको दातार नथी, साधुने वहोरावता नथी, इत्यादि निंदा करीतुं जगवाननी आज्ञानो लोप करेबे, अने दैन्य पामे बे. ॥ ५ ॥ (दीपिका) काले गोचरीगमने दोषमाह । कोऽपि साधुरकाले निक्षार्थं प्रविष्टः । अथ कालचारित्वेन निक्षा न लब्धा । तदान्येन केनापि साधुना पृष्टः, जो निक्षा त्वया प्राप्ता न वेति । तदा स वदति कुतोऽत्र स्थएिकलसं निवेशे निक्षाप्राप्तिः । तदान्यः साधुः पृष्ठाकृत्तमकालचारिणं वदति । हे निको ! त्वमकाले चरसि । कस्मात् । प्रमादात् स्वाध्यायलोनाद्वा । पुनस्त्वं कालं किमयं निाकालो नवेत्यादिरूपं न प्रत्युपेक्षसे न जानासि । च पुनस्त्वमकालचरणेनात्मानं कामयसि दीर्घक्रमणेन ऊनोदरताभावेन च । च पुनः संनिवेशं ग्रामादिकमवर्णवादेन गर्हसि । ततो जगवत आज्ञालोपेन दैन्यप्रतिपत्त्या च तव महान्दोषः संभाव्यते । तस्मादकालाटनं न श्रेय इति ॥ ५ ॥ ( टीका. ) अकालचरणे दोषमाह । आकाल ति सूत्रम् । कालचारी कश्चित् साधुरलब्धाः केनचित् साधुना प्राप्ता निदा नवेत्यनिहितः सन्नेवं ब्रूयात् । कुतोऽत्र स्थ एकल संनिवेशे निक्षा । स तेनोच्यते । काले चरसि निको प्रमादात्स्वाध्यायलोनाद्वा । कालं न प्रत्युपेक्षसे । किमयं ज़िक्षाकालो नवेति । अकालचरणेनात्मानं च ग्लयसि दीर्घाटनन्यूनोदरजावेन । संनिवेशं च निन्दसि गर्हसि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । सइ काले चरे निरखू, कुज्जा पुरिसका रिच्यं ॥ लानु तिन सोइका, तंबु त्ति दिखाए ॥ ६ ॥ ३३१ Į ( अवचूरिः ) यस्मादयं दोषः संभाव्यते तस्यादकालाटनं न कुर्यादित्याह । स ति । सति विद्यमाने निक्षाकाले चरेद्विदुः । स्मर्यन्ते यत्र निक्षुकाः स स्मृतिकाल - स्तस्मिन् चरेद्याया क्षुरित्यन्ये । कुर्यात् पुरुषकारं जङ्घाबले सति वीर्याचारं न लङ्घयेत् । श्रमाने सति निकाया इति न शोचयेत् । वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नस्वा तदर्थं च निक्षा नाहारार्थमेव ॥ ६ ॥ (.) माटे ( जिकू के० ) हे साधो ! ( काले के० ) निक्षायोग्य काल ( स के० ) सति एटले ये बते (चरे के० ) चरेत् एटले गोचरी माटे गमन करे, अथवा ( सइकाले के० ) स्मृतिकाले एटले गृहस्थ लोको जे वेलाए साधु लोकोनुं स्मरण करे बे, ते कालने विषे गोचरी माटे गमन करे, अने ( पुरिसकारियां के० ) पुरुषकारं एटले उद्यमने (कुमा के) कुर्यात् एटले करे. वीर्याचारनुं रक्षण करे. गोचरी . करतां कदाचित् जो आहार न मले, तो ( अलाजु ति के० ) अलान इति एटले शुद्ध निकानो लाज ययो नहि माटे ( न सोझा के० ) न शोचेत् एटले शोक करे नहि. तो ( तवुत्ति के० ) तप इति एटले अनशनादिलक्षण तप थाय बे, एम जाणी ( हासए के० ) अधिसदेत एटले कुधा परिषहनुं सहन करे. अर्थात् साधुएं गोचरी जतां एवो विचार करवो के, जो आहार मलशे तो धर्मकायनुं पोषण थशे अने नहि मलशे, तो तपनी वृद्धि थशे. अहीं ढंढण कुमारनं दृष्टांत बे, ते एवी रीतेः- ढंढण कुमार पूर्व नवे पांचसें हल खेडनार लोको उपर राजा तरफथी अधिकारी हता. मध्यान्ह वेलाए जात पाणी श्राव्या पढ़ी एकेको चास पोताना देत्रे देवराव्या पढी तेमने खावा दे. पांचशे खेडुत ने हजार बलद मली पनरसे जीवने नित्य प्रत्ये अंतराय करे. एम चालतां एक वखते ते ढंढण कुमारनो जीव मरण पामीने श्रीकृम महाराजनी ढंढणा नामे राणीनी कुंखे पुत्रपणे उपज्यो. पूर्ण मास थये जन्म पाम्यो पढी मानुं नाम ढंढणा होवाथी नेनुं पण नाम ढंढणकुमार पाड्युं. केटलोक काल वीती जतां ते कुमार जोग सअर्थ थयो एम जाणी तेने मातापिताए उत्तम कन्या परणावी. पबी एक समये श्रीनेमनाथजीनो उपदेश सांजली वैराग्य पामी मातापितानी आज्ञा लइ तेणे दीकालीधी. पी पूर्व जवनुं अंतराय कर्म उदय श्राव्यं. त्यारे नव वार द्वारिका 'नगमांहे बहोरवा गया, पण निर्दोष आहार मल्यो नहि. ते जाणी ढंढणकुमारे Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) -मा. सेऽयं निकालो न वेति । अकालचरणेनात्मानंच क्वामयसि दीर्घाटनोनोदरजावेन । संनिवेशं च गर्हसि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति ॥ ५ ॥ ( . ) हवे अकालने विषे गोचरीए जवामां दोष कहे ते. काल त्ति. एक वखते एम के कालने विषे गोचरीए जनार कोइ एक साधुने जिदा नहि मलवाथी ते दीन थयो, अने ते गामनी निंदा करवा लाग्यो के, शून्य जंगल सरखा ए गाममां जिक्षा क्याथी मले ? ते सांजली बीजो साधु तेने कहेवा लाग्यो के, ( जिरकू के० ) हे नको, साधो ! तुं ( अकाले के० ) ज्यारे निक्षा मले नहि एवा अकालने विषे ( चरसि के० ) गोचरीए जाय बे; पण तुं ( कालं के० ) निकायोग्य कालने ( न पडिलेह सि के ० ) न प्रत्युपेक्षसे एटले देखतो नयी, बरावर जोतो नथी. तेथी ( श्रप्पा के० ) पोताना श्रात्माने ( किलामे सि के० ) क्वामयसि एटले किलामणाने पमाडे बे, अर्थात् दीर्घ भ्रमणथी तथा ऊनोदरताना दुःखथी ( च के० ) वली जगवदाज्ञानो लोप करीने दैन्य पाम्याथी ( संनिवेशं के० ) ग्रामप्रत्ये ( गरिहसि के० ) गर्हसि एटले निंदे बे. जे या गामना लोको दातार नथी, साधुने वहोरावता नथी, इत्यादि निंदा करीतुं जगवाननी श्राज्ञानो लोप करेबे, अने दैन्य पामे बे. ॥ ५ ॥ 0 1 ( दीपिका . ) काले गोचरीगमने दोषमाह । कोऽपि साधुरकाले निक्षार्थं प्रविष्टः । अथ कालचारित्वेन निक्षा न लब्धा । तदान्येन केनापि साधुना पृष्टः, जो निक्षा त्वया प्राप्ता न वेति । तदा स वदति कुतोऽत्र स्थ एकलसंनिवेशे ज़िक्षाप्राप्तिः । तदान्यः साधुः पृछाकृत्तमकालचारिणं वदति । हे निको ! त्वमकाले चरसि । कस्मात् । प्रमादात् स्वाध्यायलोनाद्वा । पुनस्त्वं कालं किमयं निाकालो नवेत्यादिरूपं न प्रत्युपेक्षसे न जानासि । च पुनस्त्वमकालचरणेनात्मानं कामयसि दीर्घक्रमणेन ऊनोदरताभावेन च । च पुनः संनिवेशं ग्रामादिकमवर्णवादेन गर्हसि । ततो गवत आज्ञालोपेन दैन्यप्रतिपत्त्या च तव महान्दोषः संभाव्यते । ' तस्मादकालाटनं न श्रेय इति ॥ ५ ॥ 1 ( टीका.) कालचरणे दोषमाह । आकाल ति सूत्रम् | अकालचारी कश्चित् साधुरलब्धाः केनचित् साधुना प्राप्ता निक्षा नवेत्यनिहितः सन्नेवं ब्रूयात् । कुतोऽत्र स्थल संनिवेशे निक्षा । स तेनोच्यते । काले चरसि निको प्रमादात्स्वाध्यायलोाद्वा । कालं न प्रत्युपेक्षसे । किमयं ज़िक्षाकालो नवेति । अकालचरणेनात्मानं च ग्लयसि दीर्घाटनन्यूनोदरनावेन । संनिवेशं च निन्दसि गर्हसि जगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपद्येति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। . ३३१ .... सइ काले चरे निस्कू, कुज्ना पुरिसकारिअं॥ .....: अलानु त्ति न सोश्जा, तवु त्ति अहिआसए॥६॥ (श्रवचूरिः) यस्मादयं दोषः संजाव्यते तस्यादकालाटनं न कुर्यादित्याह । सइ त्ति । सति विद्यमाने निदाकाले चरेन्निकुः । स्मर्यन्ते यत्र निकुकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन् चरेद्यायानिकुरित्यन्ये । कुर्यात् पुरुषकारं जवाबले सति वीर्याचारं न लकयेत् । अलाने सति निदाया इति न शोचयेत् । वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नवा: त्तदर्थं च निदा नाहारार्थमेव ॥६॥ (अर्थ.) माटे (जिस्कू के ) हे साधो ! ( काले के०) निदायोग्य काल (स के) सति एटले थये बते (चरे के0) चरेत एटले गोचरी माटे गमन करे, श्रथवा. ( सश्काले के०) स्मृतिकाले एटले गृहस्थ लोको जे वेलाए साधु लोकोनुं स्मरण करे , ते कालने विषे गोचरी माटे गमन करे, अने (पुरिसकारिअं के०) पुरुषकारं एटले उद्यमने (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे, वीर्याचारनुं रक्षण करे.गोचरी करतां कदाचित् जो आहार न मले, तो (अलाजु त्ति के०) अलान इति एटखे ' शुद्ध निदानो लाल थयो नहि माटे (न सोश्जा के०) न शोचेत् एटले शोक करे नहि. तो ( तत्ति के०) तप इति एटले अनशनादिलक्षण तप थाय डे, एम जाणी (अहिआसए के) अधिसहेत एटले कुधा परिषहनु सहन करे, अर्थात् साधुए गोचरी जतां एवो विचार करवो के, जो आहार मलशे तो धर्मकायर्नु पोषण यशे, अने नहि मलशे, तो तपनी वृद्धि थशे. अहीं ढंढण कुमारनुं दृष्टांत डे, ते एवी रीतेः- ढंढण कुमार पूर्व नवे पांचसे हल खेडनार लोको उपर राजा तरफथी अधिकारी हता. मध्यान्ह वेलाए नात पाणी आव्या पठी एकेको चास पोताना क्षेत्रे देवराव्या पनी तेमने खावा दे. पांचशे खेडुत अने हजार बलद मली पनरसे जीवने नित्य प्रत्ये अंतराय करे. एम चालतां एक व. खते ते ढंढण कुमारनो जीव मरण पामीने श्रीकृक्ष महाराजनी ढंढणा नामे राणीनी कुंखे पुत्रपणे उपज्यो. पूर्ण मास थये जन्म पाम्यो. पठी मानुं नाम ढंढणा होवाथी तेनुं पण नाम ढंढणकुमार पाड्यु. केटलोक काल वीती जतां ते कुमार नोग समर्थ थयो एम जाणी तेने मातापिताए उत्तम कन्या परणावी. पठी एक समये श्रीनेमनाथजीनो उपदेश सांजली वैराग्य पामी मातापितानी आज्ञा लश् तेणे दीक्षा लीधी. पनी पूर्व जवनुं अंतराय कर्म उदय श्राव्यु. त्यारे नव वार छारिका 'नगरीमाहे वहोरवा गया, पण निर्दोष थाहार मल्यो नहि. ते जाणी ढंढणकुमारे Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. निग्रह लीधो. जे बीजा साधुनुं आणेलुं आहार पाणी माहरें लेतुं नहि, श्रापणी लब्धि सुकतो आहार जो मले, तो जमवु; नहीं तो तपस्या करवी. एम करतां घणा दिवस गया, एकदा प्रस्तावे श्रीकृम महाराजे श्रीनेमिनाथजीने पूज्युं, के ढार हजार साधु मां हाल कोण महा पुष्कर करणीनो करनार के, ते कहो. त्यारे श्री नेमीश्वर जगवाने कयुं, के ताहरो पुत्र ढंढणकुमार जय करणीनो करनार बे. एम सांजली जगवंतने वांदी श्रीकृम महाराज पाठा वल्या. अटलामां ढंढकुमारने सामाज श्रवता दीवा. त्यारे श्रीकृल महाराजे हाथी थकी देवे उतरीने त्रण प्रदक्षिणा दs जक्तिसहित ते ढंढणकुमारने वांद्या. ए कृत्य एक व्यवहारीए जोश्ने मनमा विचार कस्यो, के ए कोई महोटा मुनिराज लागे बे. जेथी एने श्रीकृलमहाराजे पण वंदना करी. एम विचारी ते व्यवहारिये ढंढणकुमारने मोटा मोदक वहोराव्या. ते निर्दोष जोश्ने ढंढणकुमारे वोहोरया. पठी ते ढंढणकुमारे नेमीश्वर नगवान् पासे वीने पूब्युं. हे स्वामिन् ! महारुं अंतराय कर्म दय पाम्युं ? ते सांजली जगवंते कयुं श्र कृमनी लब्धि बे. ताहरी लब्धि नथी. एम सांगली ढंढणकुमारे कुंजारना नीमाडा मांहे ते मोदकनुं चूर्ण करी परवव्युं, अने परतवतां कां एम विचायुं, जे अहो प्राणी ! अंतराय कीधानां केवां मागं फल बे ? एहवं शुभ ध्यान ध्यातां जेम जेम मोदक खूटे, तेम तेम कर्मनां दल त्रूटे. एवीते कर्मबंधनो बेद थयो त्यारे, ते कुमारने केवल ज्ञान थयुं पठी ते कुमार मोदे पहोच्यो. एम ए ढंढणकुमारनी परे महात्मा साधुने कदाचित् जो जिका न मले, तो शोक न करवो. पण मन दृढ राखीने सुधानो परीषह खमवो. इति ढंढण कुमारदृष्टांत. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) ततः साधुः किं कुर्यादित्याह । निदुः काले सति निक्षाकाले जाते | सति चरेदार्थं गछेत् । अन्ये पुनः सइकाले इत्यस्य एवमर्थं कुर्वन्ति । स्मृतिकालो vिarकालो यत्र निकुः स्मर्यते । तस्मिन् पुनर्निदुः पुरुषकारं जङ्घाबले सति वीर्याचारं न लङ्घयेत् । तत्र च चलाने सति निक्षाया अप्राप्तौ सत्यां निकुर्न शोचयेत् । किंतु एवं जावयेत् । मया निक्षा न लब्धा परं वीर्याचारस्त्वाराधितः । वीर्याचारार्थमपि निकाटन न केवलमाहारार्थमेव । अतो न शोचयेत् । अपि तु तप इत्यंधिसदेत अनशनम नोदरतादि वा तपोऽपि नविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेत् ॥ ६ ॥ ( टीका. ) यस्मादयं दोषः संजाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादित्याह । सइ ति सूत्रम् । सति विद्यमाने काले निकासमये चरेद्विदुः । अन्ये तु व्याचते । स्मृतिकाल 'एव कालो निधीयते । स्मर्यन्ते यत्र निकुकाः स स्मृतिकालस्तस्मिन् चरेद्भिदु Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देश। । ३३३ जिदार्थं यायात्। कुर्यात् पुरुषकारं सति जवावले वीर्याचारं न लङ्घयेत् । तत्र चाला. नेऽपि निदाया अलान इति न शोचयेछीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात् । तदर्थं च निदाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचेत् । अपितु तप इत्यधिसहेत। अनशनन्यूनोदरतालवणं तपो नविष्यतीति सम्यग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ तदेवुच्चावया पाणा, नत्तहाए समागया। तंजकुअं न गनिजा, जयमेव परक्कमे ॥७॥ .. ( अवचूरिः) उक्ता कालयतना। क्षेत्रयतनामाह । तहेव त्ति । तथैवोच्चावचाः शोजनाशोजननेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो नक्तार्थं समागता बलिप्रानृतकादिष्वागता जवन्ति । तदृजुकं तेषामनिमुखं न गोत् । तत्संत्रासेनान्तरायाधिकरणदोषात् । किंतु यतमेवोगमनुत्पादयन्पराक्रामेत् ॥ ७॥ .. (अर्थ.) ए कालयतना कही. हवे देवयतना कहे . ( तहेव के०) तथैव ए टले तेमज गोचरी जतां मार्गमांहे (उच्चावया पाणा के०) उच्चावचाः प्राणिनः एटले शुज तथा अशुन एवा हंस कागडा प्रमुख प्राणी (नत्तहाए के०) नक्तार्थ एटले नातपाणीने अर्थे ( समागया के०) समागताः एटले आव्या होय तो ते साधु (तंउजुआं के) तदृजुकं एटले ते प्राणीने सामो (न गबिजा के०) न गमेत् एटले जाय नहीं. कारण के, ते जीवने त्रास उपजे अथवा तेने अंतराय थाय, माटे (जयमेव के) यतमेव एटले जयणा राखीने जेम ते प्राणी छःख उद्वेग न पामे तेम (परक्कमे के ) पराकामेत् एटले गमन करे. ॥ ७॥ (दीपिका.) कालयतनोक्ता । अथ देवयतनामाद। निकुस्तदृजुकं तेषां प्राणिनामनिमुखं संमुखं न गत् । तेषां केषाम्।ये प्राणाः प्राणिनो नक्तार्थ वलिप्राज़तकादिषु समागता जवन्ति। कथम्। तेषां संत्रासेन अन्तरायदोषो नवेत्। तर्हि किं कुर्यात्।यतमेव पराकामेत् तेषामुगमनुत्पादयन् । किंनूताः प्राणिनः । तथैव उच्चा हंसादयः अवचाः काकादयः शोजनाशोचननेदेन नानाप्रकाराः ॥ ७ ॥ - (टीका.) उक्ता कालयतना । अधुना देवयतनामाह ।तहेव त्ति । तथैवोच्चावचाः । शोजनाशोजनन्नेदेन नानाप्रकाराः प्राणिनो नक्तार्थ समागता वलिप्रानृतिकादि1 ष्वागता नवन्ति । तदृजुकं तेषामनिमुखं न गवेत्तत्संत्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदो: पात् । किंतु यतमेव पराकामेत् तमुछेगमनुत्पादयन्निति सूत्रार्थः ॥७॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ राय धनपतसिंघबहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. गोअरग्गपविको अ, न निसीइज कतई॥ कहं च न पबंधिका, चिहित्ता ण व संजए ॥७॥ ... (श्रवचूरिः) गोचरायप्रविष्टस्तु न निषीदेत्कचिद्देवकुलादौ संयमोपघातादिदोषप्रसंगात् । कथां च न प्रबध्नीयात् स्थित्वा कालविलंवे संयत इत्यनेषणा दिप्रसङ्गात् ॥ ७॥ ___ (अर्थ.) हवे गोचरीगत साधु झुं न करे ते कहे . (संजए के०) पूर्वोक्त संयत साधु (गोअरग्गपविठो के०) गोचरायप्रविष्टः एटले प्रधान गोचरीए गयो थको (कघर के) क्वचित् एटले क्याय पण (न निसीज के०) न निषीदेत् एटले वेसे नहीं., (च के०) वली (चिहित्ता ण के०) स्थित्वा एटले बेसीने (कहं के०) कथां एटले धर्मकथाने (न पबंधिका के० ) न प्रवन्नीयात् एटले विस्तारथी कहे नहीं.॥७॥ (दीपिका.) पुनर्गोचरीगतः साधुः किं न कुर्यादित्याह । साधुर्गोचरायप्रविष्टस्तु निदार्थं प्रविष्टः सन् न निषीदेन्नोपविशेत् क्वचिदेवकुलादौ। यतस्तत्र निषीदने संयमस्य घातो नवति । च पुनः कथां धर्मकथादिरूपां न प्रबन्नीयात् प्रबन्धेन न कुर्यात् । अनेन एकव्याकरणे एकदृष्टान्तकथने च अनुशामाह। अतएवाहाकिं कृत्वा ।स्थित्वा। कालपरिग्रहेण संयतो यतिः एवं च क्रियमाणे अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगो नवेत्॥७॥ - (टीका.) गोअरग्ग त्ति सूत्रम् । गोचरायप्रविष्टस्तु जिदार्थ प्रविष्ट इत्यर्थः। न निषीदेनोपविशेत् । क्वचिगृहदेवकुलादौ संयमोपघातादिप्रसंगात् । कयां च धर्मकर ' दिरूपां न प्रबन्नीयान्न प्रबन्धेन कुर्यात् । अनेनैकव्याकरणैकशातानुशामाह । श्रत वाह। स्थित्वा । कालपरिग्रहेण संयत इत्यनेषणाषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः॥ अग्गलं फलिदं दारं, कवाडं वा वि संजए॥ अवलंबिआ न चिहिला, गोअरग्गग मुणी॥ ए॥ (अवचूरिः) नक्ता देवयतना। अव्ययतनामाह । अर्गलां गोपुरकपाटादेः, पा घं कपाटकादेः, छारं शाखामयं, कपाटं छारमात्रं वापि संयतोऽवलम्ब्य न तिष्ठेत् लाघव विराधनादोषात् । गोचराग्रगतो जिदाप्रविष्टो मुनिः॥ए॥ - (अर्थ.) हवे अव्ययतना कहे . वली (संजए के) संयतः एटले संयमी ए (मुणी के०) मुनिः एटले प्रर्वोक्त साधु (गोबरग्गग के०) गोचराग्रगतः एट ___गोचरीने विषे गयो थको ( अग्गलं के) अर्गलां एटले मुंगल (वा के) अथ (फलिहं के) परिघं एटले कपाटना ढांकवाना फलकने अथवा ( दारं के०) बरे 1. पानी शाखाने अथवा ( कवाडं वि के० ) कपाटमपि एटले कमाडने पण (अव Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय नदेशः । ३३५ विश्रा के० ) अवलंव्य एटले उटिंगण दइने ( न चिहिता के० ) न तिष्ठेत् एटले उजो रहे नहीं. ॥ ए ॥ ( दीपिका . ) क्षेत्रयतना उक्ता । अथ द्रव्ययतनामाह । संयतो यतिरर्गलां गोपुरकपाटा दिसंबंधिनी, परिघं कपाटकादिस्थगनं द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारयंत्रं वा अवलंव्य न तिष्ठेत् । कथम् । एवमवलम्वने लाघवविराधनादोषो जवेत् । किंभूतः संयतः । गोचरायगतो निक्षायां प्रविष्टः ॥ ए ॥ ( टीका. ) उक्ता त्रयतना । ऽव्ययतनामाह । अग्गलं ति सूत्रम् । अर्गलं गोपादिसंबन्धिनं, परिघं नगरद्वारा दिसंबन्धिनं द्वारं शाखामयं, कपाटं द्वारयन्त्रं वापि संयतः । अवलम्ब्य न तिष्ठेल्लाघव विराधनादोषात् । गोचराग्रगतो निकाप्रविष्टः । मुनिः संयत इति पर्यायौ तडुपदेशाधिकारादडुष्टावेवेति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ सममा वा वि, किविणं वा वणीमगं ॥ नवसंकमंतं जत्तठा, पापडा एव संजय ॥ १० ॥ ( अवचूरिः) उक्ता ऽव्ययतना | जावयतनामाह । श्रमणं निर्यन्यादि, ब्राह्मणं धिग्ववापि, कृपणं वा पिंमोलकं वनीपकं, दरिद्रं चतुर्णामन्यतममुपसंक्रामन्तं पामीप्येन गच्छन्तमागच्छन्तं वा पानार्थं वा निक्षार्थं संयतः ॥ १० ॥ ( अर्थ. ) हवे जावयतना कहे बे. समणमिति (समणं के० ) श्रमणं एटले साधुने वा के० ) अथवा ( माहणं के० ) ब्राह्मणं एटले ब्राह्मणने अथवा (किविणं के० ) पण एटले पोतानुं धन संची जीख मागे ते कृपणने (वणीमगं के०) वनीपकं एटले रिद्धी पुरुष ए चार पुरुष मांहेलो कोइ पण ( जत्ता के० ) नक्तार्थं एटले आअ ( व के० ) अथवा ( पापठाए के० ) पाणीने अर्थे ( उवसंकमंतं के० ) संक्रामन्तं एटले सामो यावतो होय तो ॥ १० ॥ : ( दीपिका. ) उक्ता द्रव्यविराधना | जाव विराधनामाह । संयतः साधुः श्रमणं सूर्यन्यादिरूपं, ब्राह्मणं धिग्जातीयं, कृपणं वा पिंडोलकं, वनीपकं दरिद्रं एतेषां चतुणी ने. येऽन्यतममुपसंक्रामन्तं सामीप्येन गच्छंतमागच्छंतं वा । किमर्थ । नक्तार्थं पानार्थं वा १७ शं ( टीका. ) उक्ता द्रव्ययतना । जावयतनामाह । समणं ति सूत्रम् । श्रमणं निर्यदिरूपं, ब्राह्मणं धिग्वर्णं वापि कृपणं वा पिएकोलकं वनीपकं पञ्चानामप्यन्यतमम् या संक्रामन्तं सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा जक्तार्थं पानार्थं वा संयतः साधुरिति सूत्रार्थः १० Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) मा. सालु वा विरालियं, कुमुयं उप्पलनालियं ॥ मुगालिच्यं सासवना लियं, उचुखमं निधुमं ॥ १८ ॥ ( अवचूरिः) शालूकं वा उत्पलकन्दम्, विरालिकां पलाशकन्दरूपां पर्ववलिप्रतिप कन्दमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालौ प्रतीतौ । मृणालिकां पद्मिनीकन्दोखां, सर्षपनालिकां सिद्धार्थमञ्जरीम् । इक्कुखं मम निर्वृतं स चित्तम् । निर्वृतग्रहणं सर्वत्र संबध्यते ॥ १८ ॥ ( अर्थ. ) तथा ( निधुडं के० ) अनिर्वृतं एटले शस्त्रपरिणत नथी, एटले काचो सचित्त एवा ( सालु के० ) शालूकं एटले कमलनो कंद, ( वा के० ) अथवा (विrai ho ) विनिकां एटले पलाशनो कंद, ( कुमुत्र्यं के० ) कुमुदं एटले धोला चंद्र विकासी कमलनी अथवा ( उप्पलनाविां के० ) उत्पलनालिकां एटले नीलकम लालिका, किंवा ( मुपावित्र्यं के० ) मृणालिकां एटले कमलना तंतुया अथवा ( सासवनादि के० ) सर्पपनाविकां एटले सरशवनी मांमली, अथवा ( उखंड के० ) इकुखकं एटले सेलडीना कटका ॥ १८ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं किं वर्जयेदित्याह । शालूकं वा उत्पलकन्दम् विरालिकां पलाशकन्दरूपां, पर्व व लिप्रतिपर्वकंद मित्यन्ये । कुमुदोत्पलनाला प्रसिद्धौ । तथा मृणालिकां पद्मिनीकन्दोत्थाम् । सर्षपनाविकां सिद्धार्थमञ्जरीम् । तथा इदुखएकम् । एतत् शालूकांदि सप्तकं किंभूतम् । निर्वृतं सचित्तम् ॥ १८ ॥ (टीका.) तथा सालु ति सूत्रम् । शालूकं वा उत्पलकन्दं । विराविकां पलाशकन्दरू पाम् । पर्वव लिप्रतिपर्वव लिगतिपर्व कन्दमित्यन्ये । कुमुदोत्पलनालौ प्रतीतौ । तथा मृणालिकां पद्मिनीकन्दोछां सर्षपनालिकां सिद्धार्थकमञ्जरीं । तथा इदुख एम निर्वृतं स चित्तम् । एतच्चानिर्वृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यत इति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ तरुणगं वा पवालं, रुकस्स तणगस्स वा ॥ अन्नरस वा वि हरिप्रस्स, ग्रामगं परिवऊए ॥ १९ ॥ 1 ( अवचूरि : ) तरुणकं वा प्रवालं । वृक्षस्य चिञ्चिणिकादेः । तृणस्य वा मधुतृणादेः । अन्यस्य वापि हरितस्यार्जकादेः । याममपरिणतं परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥ ( अर्थ. ) तथा ( वा के० ) अथवा ( रुकस्स के० ) वृक्षस्य एटले आमली यादिक वृनो ( वा के० ) अथवा ( तणगस्स के० ) तृणकस्य एटले तृणना ( वाविके० ) वा (अन्नस्स के० ) अन्यस्य एटले वीजा कोइ (हरिस्त के० ) हरितस्य एटले हरित्काय जीवना (तरुण गं वा पवालं के० ) तरुणं वा प्रवालं एटले Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । तरुण एवा प्रवाल (आमगं के० ) अशस्त्रपरिणत आए के० ) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ १७ ॥ ३.४१ परिणम्या होय, तेने ( परिव ( दीपिका . ) पुनः किं किं तदाह । वृक्षस्य चिञ्चिणिकादेर्वा, तृणस्य वा मधुरतृयादेः, अन्यस्यापि हरितस्यार्जकादेश्च, तरुणकं वा प्रवालमामकमपरिणतं सचित्तम् । संयतः पूर्वगथोक्तं शालूरादि सप्तकं चिंचिणिकादित्रयस्य तरुणप्रवालं च सचित्तं परिवर्जयेत् ॥ १५ ॥ ( टीका. ) किंच तरुणयं ति सूत्रम् । तरुणं वा प्रवालं पल्लवं वृक्षस्य चिञ्चिणिकादेस्तृणस्य वा मधुरतृणादेः अन्यस्य वापि हरितस्यार्यकादेराममपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ तरुणियं वा बिवाडिं, मियं नयिं सई ॥ दितियं पडिआइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) तरुणां वासंजाताम निष्पन्नां विवाडि मुजादिफलिमामाम सिद्धां नर्जितां चष्टां सकृदेकवारम् ॥ २० ॥ अर्थ. ) वृत्ति संयमी साधु ( तरुणियं वा के० ) तरुणां एटले जेमां दाणो हजी वं नयी एवी ( बिवार्डि के० ) मगप्रमुखनी फली ते केवी तो के (आमिश्रं के० ) कां एटले काची अपक तथा ( सयं के० ) सकृत् एटले एकवार ( नयिं ho) नर्जितां एटले पकावेली तेने (दितियं के० ) ददतीं एटले बहोरावनार एवी श्राविकाने ( पडियारके के० ) प्रत्याचक्षीत एटले कहे के, ( तारिसं के० ) ता - दृशं एटले तेवो आहार (मे के०) मुने (न कप्पइ के०) न कल्पते एटले कल्पे नहि. ॥२०॥ (पिका.) पुनः संयतः किं कुर्यात्तदाह । निकुः एवंविधां स्त्रियं प्रति इति वदेत् । इत् किम् । न मे मम एतादृशं जोजनं कल्पते । किं कुर्वतीं स्त्रियम् । विवाडिं मुद्रादिपं म् । किंविशिष्टां विवाडिम् | तरुणां वा असंजातां तथा पुनः नर्जितां । पुनः 1 नूताम् । श्रामाम सिद्धां सचेतनां सकृदेकवारं ददतीम् ॥ २० ॥ ( टीका. ) तथा तरुणियं ति सूत्रम् । तरुणां वा संजातां विवाडिमिति मुद्रादिफलिम्, श्रामाम सिद्धां, सचेतनां तथा नर्जितां सकृदेकवारं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ > Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. :: तदा कोलमणुस्सिन्नं, वेलुअं कासवनालिअं॥ तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवजए॥१॥ (अवचूरिः) तथा कोलं बदरमखिन्नमयुदकाच्यामनापादितविकारान्तरं, वेणुकं वंशकरिवं,कासवनालिकां श्रीपर्णीफलं, तिलपर्पटकं तिलपिष्टमयं, नीपम् नीपः कदंबकस्तत्फलम् । अखिन्नं सर्वत्र योज्यम् ॥२१॥ (अर्थ.) ( तहा के) तथा एटले तेमज वली (अणुस्सिन्नं के ) अस्विन्नं एटले नहिं रांधेला एवा ( कोलं के०) बोर अणुस्सिन्न ए पद सर्वत्र जोडq. तथा (वेतुअं के) वेणुकं एटले वंशकारेलां तथा ( कासवनालियं के०) काश्यपनालिकां एटले श्रीपर्णवृदनुं फल ( तिलपप्पडगं के ) तिलनी पापडी ( नीमं के) नीमवृदनां फल, ते (श्रामगं के ) आमकं एटले. काचां सचित्त अशस्त्र एहवां ते सर्वने (परिवजाए के) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥१॥ (दीपिका.) पुनः साधुः किं वर्जयेत्तदाह । साधुः कोलं बदरं वर्जयेत् । किंनतं कोलम् । अस्विन्नम्। अस्विन्नमिति पदस्य अर्थः सर्वत्र यो । पुनः तिलपर्पटकं पिष्टतिलमयं तथा नीमं नीमफलम्। एतत् सर्वमाम परिवर्जये धुः॥१॥ - (टीका.) तहा कोलं ति. सूत्रम् । तथा कोलं बदरम् । अखिन युदकयोगेनानापादितविकारान्तरम्, वेणुकं वंशकरिबम, कासवनालियं फलम् । अखिन्नमिति सर्वत्र योज्यम् । तथा तिलपर्पटं पिष्टतिलमयम्, नीम कलमामं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ तदेव चागलं पिठं, विडं वा तित्तनिवुडं ॥ तिलपिहपूपिन्नागं, आमगं परिवजए ॥२२॥ (अवचूरिः) तान्मुलं पिष्टं लोमित्यर्थः । विकर्ट वा शुद्धोदकं, तप्तानितमप्रवृत्तत्रिदणं तिल पिष्टं तिललोडे, पूतिपिण्याकं सर्षपखलम् ॥ ॥ (अर्थ.) (तहेव के०) तेमज (चाउलं के०) चावलनो (पिठं के०) पिष्टं एटले आटो तथा ( विकटं के० ) शुद्धोदक (वा के) अथवा (तत्तनिवुडं केप) तप्तनिवृतं ए. टले तपावीने टा९ पाडेलु जल (तिलपिठं के ) तिलपिष्टं ते तलनो लोट तथा (पूति पिसागं के०) पूति पिण्याकं एटले सरसवनो खोल (आमं के) काचो होय तो तेने (परिवजाए के) वर्जे.॥२२॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । - ३४३ (दीपिका) पुनः किं वर्जयेत् साधुस्तदाह । संयतः तथैव तान्हुलं पिष्टं लोह मित्यर्थः । तथा विकटं वा शुद्धोदकं, तथा तप्त निर्वृतं कथितं । सछीतीभूतं तप्ता निर्वृतं वा यत्रि• दमोत्कलितं न जातं तथा तिलपिठं तिललोष्टं, तथा पूति पिण्याकं सर्पपखलम् । एतत्तांडुललोष्टादिपञ्चकं कीदृशम् | आमकमपक्कम् । तत्सर्वं परिवर्जयेत् ॥ २२ ॥ ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव तान्डुलं पिष्टं लोह मित्यर्थः । विकटं वा शुद्धोदकं, तप्त निर्वृतं कथितं सत् शीतीभूतम्, तप्तानिर्वृतं वा अप्रवृत्तत्रिदएकं, तिल पिष्टं तिललोहं, पूर्ति पिण्याकं सर्वपलमामं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ कविछं माडलिंगं च, मूलगं मूलगत्तिच्यं ॥ मं परिणयं, मासा वि न पच ॥ २३ ॥ ( अवचूरिः ) कपिलं कपिछफलं, मातुलिङ्गं वीजपूरकं, मूलकं सपत्रजातं मूलकर्त्तिकां मूलकंदचक्क लिम्, आमामपक्कामशस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रादिना विध्वस्ताम् । अनंतकायत्वामुरुत्वख्यापनार्थमुभयम् ॥ २३ ॥ ( अर्थ. ) हवे साधु मनथी पण जेनी इच्छा न करे ते कहे बे. ( आमां के० ) पक तथा (परिणयां के० ) शस्त्रपरिणतां एटले खपरकाय शस्त्रादिके करी जेनो विध्वंस कस्यो नथी एवा ( कविहं के० ) कपिलं एटले कोठ, ( च के० ) वली. ( माउलिंग के० ) मातुलिंगं एटले वीजोरुं (च के० ) वली (मूलगं के० ) मूलकं एटले मूलो तथा ( मूलकंत्तित्र्यं के० ) मूलकर्त्तिकां एटले मूलकर्त्तिकाने ( मणसा ho ) मनथी पण ( न पचए के० ) न प्रार्थयेत् एटले न प्रार्थना करे. अर्थात् ते वस्तुमां अनंतकायकपणुं वे ते माटे साधु मनश्री पण ते पूर्वोक्त वस्तुनी इच्छा करे नहि. ॥२३॥ ( दीपिका. ) पुनः साधुः प्रार्थयेन्मनसापि न । तदेवाह । साधुः एतदग्रे वक्ष्यमाणं मनसापि न प्रार्थयेत् । किं तदाह । कपित्थं कपित्थफलं, मातुलिंगं च वीजपूरकं, मूलकं सपत्रजालकं, मूलकतिका: मूलकंद चक, आमां अपकां । पुनः कीदृशीं । अ शस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रादिना श्रविध्वस्तां, अनंतकायकत्वात् गुरुत्वख्यापनार्थमुज्जयं मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ २३ ॥ ( टीका. ) कवि ति सूत्रम् । कपिठं कपिठफलं, मातुलुङ्गं च वीजपूरकं, मूलकं सपत्रजालकं मूलवर्त्तिकां मूलकन्दचक्कलिम्, यामामपक्कामशस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रादिना विध्वस्ताम् । अनन्तकायत्वामुरुत्वख्यापनार्थमुनयं मनसापि न प्रार्थये दिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा तदेव फलमंणि, बी मंणि जाणि च ॥ बिहेलगं पियालं च, आमगं परिवकए ॥ २४ ॥ ( अवचूरिः ) तथैव फलमन्धून् बदरचूर्णान्, वीजमन्थून्यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा । बिहेलगं विजीतकं, प्रियालं च राजादनफलम् ॥ २४ ॥ ( अर्थ. ) वली साधु शुं वर्जे ते कहे बे. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज वली ( श्रम के० ) श्रमकं एटले कांचा सचित्त (फलमंणि के० ) फलमंधून एटले वदफलनुं चूर्ण एटले बोरकूट तथा (बी मंणि के०) बीजमंथून एटले जव प्रमुखनो लोट तथा ( बिहेलगं के० ) विजीतकं एटले बहेडानुं फल, (च के० ) वली (पियातं के० ) प्रियाल एटले रायणनां फल तेने ( जाणिया के० ) ज्ञात्वा एटले जाने ( परिवजए के० ) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) पुनः साधुः किं वर्जयेत्तदाह । तथैव फलमंथून बदरचूर्णान्, बीजमंधून यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा सिद्धांतवचनात् तथा बिनीतकं बिजीतकफलम्, प्रियालं च प्रियालफलम् । एतत् फलमंथुप्रमुखचतुष्टयमपि श्रममपरिणतं साधुर्वर्जयेत् ॥ २४ ॥ ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव फलमन्थून् बदरचूर्णान्, बीजमंथून् य वादिचू• र्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतो बिनीतकं प्रियालं वा प्रियालफलं च श्रममपरिणतं परिवर्ज - ये दिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ समुद्राणं चरे निकू, कुलमुच्चावयं सया ॥ नीयं कुलमइक्कम्मं, कसढं नानिधार ॥ २५ ॥ ( यवचूरिः ) विधिमाह । समुदानं नावनैकमाश्रित्य चरेद्विकुः कुलमुच्चावचं विजवापेक्षया नतु गर्हितत्वे सति । नीच कुलमतिक्रम्य दरिद्रकुल मुल्लङ्घ्य उतिमृद्धिमत्कुलं नानिधावेन यायात् ॥ २५ ॥ ( अर्थ. ) हवे साधुने गोचरीनो विधि कहे बे. ( निस्कू के० ) निदुः एटले साधु (समुदाणं के०) समुदानं एटले शुद्ध निक्षाने आश्रय करीने (चरे के०) चरेत् एटले वहोरवा जाय. क्यां वहोरवा जाय ? तो के ( उच्चावयं के०) उच्चावचं एटले धने करी प्रधान ते इक्ष्वाकु कुलादि तथा अवचं एटले धननी अपेक्षायी तु कुंल एवा वे पण कुल प्रत्ये ( सया के० ) सदा एटले निरंतर गमन करे. परंतु (नी कुलं के० ) नीच कुलं एटले धनरहित कुलने (कम्मं के०) व्यतिक्रम्य एटले उहाँ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। चीने बहु लाननी वांगथी (ऊसढं के० ) उत्सृतं एटले धनथी पूर्ण एवा कुल प्रत्ये नानिधारए के० ) नानिधारयेत् एटले जाय नहि. ॥ २५॥ (दीपिका.) अथ गोचरण विधिमाह । साधुः समुदानं शुद्धं नैयं समाश्रित्य चरेजछेत् । कुत्रेत्याह । कुलमुच्चावचं परं सदा अगर्हितत्वे सति । उच्चं प्रजूतधनापेक्षाया प्रधानम् । अवचं तुबधनापेक्ष्याप्रधानं यथापरिपाट्येव चरेत् सदा सर्वकालम् । परं नीचं कुलमतिक्रम्य जवंध्य विनवापेदया प्रचूततरलानार्थमुत्सृतमृद्धिमत् कुलं नानिधारयेत् न निषीदेत् न यायात् । कस्मात् । अनिष्वङ्गालोकलाघवात् ॥ २५॥ ___ (टीका.) विधिमाह । समुआणं ति सूत्रम् । समुदानं नावनैदयमाश्रित्य चरेनिकुः । क्वेत्याह । कुलमुच्चावयं सया। कुलमुच्चावचं सदा । अगर्हितत्वे सति विनवापेक्ष्या प्रधानमप्रधानं च । यथापरिपाट्येव चरेत्सदा सर्वकालम् । नीचं कुलमतिकम्य विनवापेक्षया प्रनूततरलानार्थमुत्सृतमृद्धिमत्कुलं नानिधारयेन्न यायात् । अनिष्वङ्गालोकखाघवादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ अदीणो वित्तिमेसिजा, न विसीइऊ पंभिए॥ __ अमुबिन नोअणंमि, मायले एसणारए॥२६॥ (अवचूरिः ) अदीनां वृत्तिं वर्तनामेषयेत् । न विपीदेदलाने सति पमितः । श्रमूर्छितोऽगृको नोजने मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति एपणारत उनमोत्पादनैपपापक्षपातीति ॥ २६॥ (अर्थ.) हवे साधु शुं करे ते कहे . (पंमिए के) पंमितः एटले बुद्धिमान् (थदीणो के ) अदीनः एटले आहार न मलवाथी अम्लानमुखवालो एवो साधु (वित्तिं के०) वृत्तिं एटले प्राण निर्वाहकवृत्ति प्रत्ये (एसिजाके०) एपयेत् एटले गवे. पणा करे. परंतु (न विसीज केu) न विपीदेत् एटले याहार न मलवाथी विपाद करे नहि. वली ते साधु (नोअणं मि के ) सरस मलेला नोजनने विपे (यमुछिर्ज के०) थमूर्वितः एटले मूळ न करतो तथा वली (मायले के०) मात्राज्ञः एटले थाहारना प्रमाणने जाणनारो वली (एसणारए के) एपणारतः एटले दोपरहित सूफता अशनादिक लेवाने विपे सावधान एवो होय. ॥ २६ ॥ (दीपिका.)यथ कीदृशः किं कुर्यात्साधुस्तदाह। पंडितः साधुः वृत्तिं प्राणवर्तनमेषयेत् । परं न विषीदेदलाने सति न विपादं कुर्यात् । किनूतः पंमितः । अदीनः अव्य Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. दैन्यमङ्गीकृत्य अम्लानवदनः । पुनः किंभूतः पंक्तिः । जोजने मूर्छितः श्रगृद्धः । पुनः किंभूतः पंक्तिः । लाने सति मात्रा आहारमात्रां प्रति । पुनः किंभूतः । एषणात उमोत्पादनैषणापक्षपाती ॥ २६ ॥ ( टीका . ) किं दीण त्ति सूत्रम् । अदीनो द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्या म्लानवदनः । वृंतिर्वर्त्तनम् । एषयेप्रवेषयेत् । न विषीदेदलाने सति विषादं न कुर्यात् । परितः साधुरमूर्तितोऽग्र जोजने । लाने सति मात्रा आहारमात्रां प्रत्येषणार - M मोत्पादनैषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ o बढुं परघरे चि, विविदं खाइमसाइमं ॥ न त पंडि कुप्पे, इवा दिऊ परो न वा ॥ २७ ॥ ( अवचूरिः ) एवं च परिभावयेत् । बहु प्रमाणतः प्रभूतं खाद्यं स्वाद्यं च न तत्र पतिः कुप्येत् सदपि न ददातीति । इछा चेद्दद्यात्परो न वा । इछा परस्य नं तत्रान्यकिं चिञ्चिन्तयेत् ॥ २७ ॥ ( .) हवे ते साधु आ प्रकारे जावना करे. ( परघरे के० ) परगृहे एटले गृहस्थ श्रावकने घरे अथवा अन्यमतीने घरे ( बहुं के० ) घणुं ( विवि के ० ) वि - विटले विविध प्रकारनुं ( खाइमं के० ) खादिमं ते फलादिक तथा ( साइमं के० ) स्वादिमं ते लवंगादिक मुखवास अने उपलक्षणथी उत्तम अशनादिक (०) अस्ति एटले बे, परंतु ते गृहस्थ जो साधुने पे नहि तो ते ( पंमिर्ज के० ) पंक्तिः एटले जाए एवो साधु ( तब के० ) तत्र एटले ते गृहस्थ उपर ( न कुप्पे के० ) न कुप्येत् एटले कोपायमान थाय नहि. अर्थात् रोष करे नहि. परंतु ते साधु एम जाणे के, ( परो के० ) पर जे गृहस्थ बे, तेनी जो आपने आप - वानी ( छा० ) इछा होय तो ( दिऊ के० ) दद्यात् एटले पे, अने ( वा के० ) जो वली इछा न होय तो ( न के० ) न आपे. एम विचारे; पण बीजुं कां विचारे नहि. शा माटे, के सामायिकने बाध यावे. ॥ २७ ॥ ( दीपिका . ) तत एवं च परिभावयेत्तदाह । परगृहेऽसंयतादिगृहे बहु प्रमाणतः प्रभूतमस्ति । किं तत् । खाद्यं स्वाद्यं च । किंभूतम् । विविधमनेकप्रकारम् । उपलक्षणत्वादशनादिकमपि प्रभूतमस्ति । तत्सर्वं सदस्ति । परं न ददाति तदा पंड़ितो न कुप्येन रोषं कुर्याददातुरुपरि । किंतु एवं चिंतयेत् । यदि श्वा स्यात्तदा परो दद्यात् । न. स्यात्तदा न दद्यात्। परमन्यत् किमपि न चिन्तयेत् । कुतः । सामायिकबाधात् ॥ २७ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उदेशः । ३४१ ( टीका. ) एवं च जावयेत् । बहुं ति सूत्रम् । बहु प्रमाणतः प्रभूतं परगृहेऽसंयतादिगृहेऽस्ति विविधमनेकप्रकारं खायं खाद्यम् । एतच्चाशनाद्युपलक्षणम् । न तत्र परितः कुप्येत् सदपि न ददातीति न रोषं कुर्यात् । किंतु इच्छा चेद्दद्यात् परो न वेति । इछा परस्य न तत्रान्यत् किंचिदपि चिन्तयेदिति सामायिकवाधनादिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ सासवचं वा, जत्तं पाएं व संजए ॥ दितस्स न कुप्पा, पच्चरके वि दीस ॥ २८ ॥ अवचूरिः ) एतदेव विशेषेणाह । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवद्भावः । नक्तं पानकं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादौ ॥ २८ ॥ ( अर्थ. ) हवे तेज विशेषे करी कहे . ( संजए के० ) संयतः एटले संयत साधु (सयण के० ) शयन ( श्रास के०) आसन (वछं के०) वस्त्रं एटले वस्त्र, (वा के० ) वली (जत्तं के०) नक्तं एटले जात अन्न (पाणं के० ) पानं एटले जल प्रमुख तेने (दितस्स के० ) अददतः एटले न पता एवा गृहस्थ उपर ( न कुप्पिका के० ) न कुप्येत् एटले कोप करे नहि. वली ते पूर्वोक्त वस्तु ( पच्चरके वि के० ) प्रत्यके ऽपि एटले प्रत्यक्षपणे (दी सर्ज के०) दृश्यमाने एटले देखाय तोपण साधु तेनाउपर क्रोधायमान था नहि. कषाय प्रकट न करे. ॥ २८ ॥ ( दीपिका . ) एतदेव विशेषेणाह । संयतः शयनम्, आसनं, वस्त्रं, नक्तं, पानकं वाददतः तत्खामिनो न कुप्येददातुरुपरि न कोपं कुर्यात् । क सति । तत्स्वामिनः शयनासनादौ प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने ॥ २८ ॥ ( टीका. ) एतदेव विशेषेणाह । सयण त्ति सूत्रम् । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवङ्गावः । तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्तत्स्वामिनः प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ चिपुरिसं वा वि, डहरं वा मल्लगं ॥ वंद माणं न जाइका, नो प्रणं फरुसं वए ॥ २९ ॥ ( अवचूरिः ) स्त्रियं पुरुषं वा । अपेर्नपुंसकं वा । तरुणं वृद्धं वा । वा शब्दान्मध्यमम् । वन्दमानं सन्तं प्रकोऽयमिति न याचेत । अन्नाद्यनावे याचितादाने न चैनं परूपं व्याया ते वन्दनमिति ॥ २९ ॥ ( अर्थ. ) वली साधु पोताने ( वंदमाणं के० ) वंदन करती एवी । ( इष्वियं के०) स्त्रियं एटले स्त्री प्रत्ये (वा के० ) अथवा (पुरिसं के० ) पुरुषं एटले पुरुष प्रत्ये तथा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. दैन्यमङ्गीकृत्य अम्लानवदनः । पुनः किंनूतः पंमितः। नोजने अमूतिः अगृधः । पुनः किंजूतः पंमितः । लाने सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति । पुनः किंनूतः । एषणारत जन्मोत्पादनैषणापक्षपाती ॥२६॥ * ( टीका.) किंच अदीण त्ति सूत्रम्।अदीनो अव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः। - त्तिर्वर्त्तनम् । एषयेज्वेषयेत् । न विषीदेदलाने सति विषादं न कुर्यात् । पएिकतः साधुरमूर्बितोऽगृको नोजने । लाने सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रत्येषणारत उगमोत्पादनैषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ . बहुँ परघरे अडि, विविदं खाश्मसाइमं॥ ..... न तब पंडिन कुप्पे, श्वा दिऊ परो न वा ॥२॥ (अवचूरिः) एवं च परिनावयेत् । बहु प्रमाणतः प्रन्नूतं खाद्यं खाद्यं च न तत्र पएिकतः कुप्येत् सदापि न ददातीति । श्छा चेद्दद्यात्परो न वा।श्या परस्य नं तत्रान्यकिंचिञ्चिन्तयेत् ॥ २७ ॥ (अर्थ.) हवे ते साधु आ प्रकारे जावना करे. (परघरे के) परगृहे एटले गृहस्थ श्रावकने घरे अथवा अन्यमतीने घरे (बहुँ के) घj ( विविहं के) विविधं एटले विविध प्रकारचें ( खाश्मं के० ) खादिमं ते फलादिक तथा ( सामं के०.) खादिमं ते लवंगादिक मुखवास अने उपलक्षणथी उत्तम अशनादिक (अदि के ) अस्ति एटले बे, परंतु ते गृहस्थ जो साधुने आपे नहि तो ते (पंमिर्ज के० ) पंमितः एटले जाण एवो साधु ( तब के ) तत्र एटले ते गृहस्थ उपर (न कुप्पे के०) न कुप्येत् एटले. कोपायमान थाय नहि. अर्थात् रोष करे नहि. परंतु ते साधु एम जाणे के, (परो के०) पर जे गृहस्थ डे, तेनी जो आपणने श्रापवानी (छा के ) श्छा होय तो ( दिल के ) दद्यात् एटले आपे, श्रने (वा के) जो वली श्छा न होय तो (न के ) न आपे. एम विचारे; पण बीजुं कांश विचारे नहि. शा माटे, के सामायिकने बाध आवे. ॥२७॥ . ( दीपिका.) तत एवं च परिजावयेत्तदाह । परगृहेऽसंयतादिगृहे बहु प्रमाणतः प्रजूतमस्ति । किं तत्। खाद्यं खाद्यं च। किंतम् । विविधमनेकप्रकारम्। उपलक्षणत्वाद शनादिकमपि प्रनूतमस्ति । तत्सर्वं सदस्ति । परं न ददाति तदा पंमितो न कुप्य: राष कुर्याददातुरुपरि। किंतु एवं चिंतयेत् । यदि श्वा स्यात्तदा परो दद्यात् । न. न दद्यात् । परमन्यत् किमपि न चिन्तयेत्। कुतः । सामायिकबाधात् ॥ ७ ॥ स्यात्त Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः। -- ३४ .. (टीका.) एवं च जावयेत् । बहुं ति सूत्रम् । बहु प्रमाणतः प्रजूतं परगृहेऽसंयतादिगृहेऽस्ति विविधमनेकप्रकारंखाद्य स्वायम्। एतच्चाशनाद्युपलदाणम् । न तत्र पएिकतः कुप्येत् सदपि न ददातीति न रोषं कुर्यात् । किंतु श्छा चेद्दद्यात् परो न वेति । श्वा परस्य न तत्रान्यत् किंचिदपि चिन्तयेदिति सामायिकबाधनादिति सूत्रार्थः ॥ २७॥ ....... सयपासणवळ वा, नत्तं पाणं व संजए॥ ...... : अदितस्स न कुप्पिका, पच्चरके वि अदीस ॥ ॥ ...... (अवचूरिः) एतदेव विशेषेणाह । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवन्नावः। नक्तं पानकं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादौ ॥ २ ॥ (अर्थ.) हवे तेज विशेषे करी कहे . ( संजए के) संयतः एटले संयत साधु (सयण के) शयन. (आसण के०) श्रासन (वढं के०) वस्त्रं एटले वस्त्र, (वा के०) वली (जत्तं के०) जक्तं एटले नात अन्न (पाणं के) पानं एटले जल प्रमुख तेने (अ'दितस्स के०) अददतः एटले न श्रापता एवा गृहस्थ उपर ( न कुप्पिजा के०) न कुप्येत् एटले कोप करे नहि. वली ते पूर्वोक्त वस्तु (पञ्चके वि के०) प्रत्यदेऽपि एटले प्रत्यक्षपणे (दीस के०) दृश्यमाने एटले देखाय तोपण साधु तेनाउपर क्रोधायमान थाय नहि. कषाय प्रकट न करे. ॥ २ ॥ ___ (दीपिका.) एतदेव विशेषेणाह । संयतः शयनम्, आसनं, वस्त्रं, नक्तं, पानकं वाददतः तत्स्वामिनो न कुप्येददातुरुपरि न कोपं कुर्यात् । क सति । तत्स्वामिनः शयनासनादौ प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने ॥ २७ ॥ ( टीका.) एतदेव विशेषेणाह । सयण त्ति सूत्रम् । शयनासनवस्त्रं चेत्येकवन्नावः । जक्तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत्तत्स्वामिनः प्रत्यदेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ ३०॥ ..... इडिअं पुरिसं वा वि,डहरं वा महलगं॥ . . . वंदमाणं न जाश्जा, नो अणं फरुसं वए॥शए॥ ... (श्रवचूरिः ) स्त्रियं पुरुषं वा।अपेनपुंसकं वा। तरुणं वृद्धं वा।वा शब्दान्मध्यमम् । वन्दमानं सन्तं नजकोऽयमिति न याचेत । अन्नाद्यनावे याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयाथा ते वन्दनमिति ॥ २ ॥ " (अर्थ.) वली साधु पोताने (वंदमाणं के) वंदन करती एवी । (नियं के०) स्त्रियं एटले स्त्रीप्रत्ये (वा के०)अथवा (पुरिसं के) पुरुषं एटले पुरुष प्रत्ये तथा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. वली ( महरं के० ) तरुण प्रत्ये. वाशब्द बे तेथी मध्यवयवालाने पण तथा ( महलगं के० ) महलकं एटले वृद्ध प्रत्ये ( न जाइका के० ) न याचेत एटले याचना करे नहि. केम के, जो वंदना करनारने याचना करे तो ते वंदना करनारना मनमां श्रवला परिणाम थाय. तेथी तेनी जावना जंग पामे. वली सूजता अन्नादिकनामावी याचना करनार साधुने अन्न पे नहि तो पण ते साधु (एं के० ) एनम् एटले एने (फरस ० ) परुषं एटले कठोर वचन ( न वए के० ) न वदेत् एटले बोले नहि. अर्थात् एमन कहे, जे अमने अन्न आपतो नथी, तेथी तारुं करेलुं वंदनादिक सर्व वृथा बे ॥ २५ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किंच साधुः स्त्रियं वा, पुरुषं वा अपिशब्दात् नपुंसकं वा, डहरं तरुणं वा, महलकं वृद्धं वा, वाशब्दाद् मध्यमं वा, वन्दमानं सन्तं नकोऽयमिति ज्ञात्वा न याचेत । कथम् | याचने तेषां विपरिणामो भवति । यतीनामुपरि जावो जवति । अन्नादीनामजावे याचितस्यादाने न चैनं परुषं कठोरं ब्रूयात् । किं परुषम् । वृथा ते वन्दनं यदि न ददासीत्यादि । पाठान्तरं वा । वन्दमानो न याचेत ललिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववत् ॥ २५ ॥ 1 ( टीका. ) इछि ति सूत्रम् । स्त्रियं वा पुरुषं वापि । अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा । डहरं तरुणं, महलकं वा वृद्धं वा । वाशब्दान्मध्यमं वा । वन्दमानं सन्तं जड़कोऽयमिति न याचेत विपरिणामदोषात् । अन्नाद्यजावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयाथा ते वन्दनमित्यादि । पाठान्तरं वा । वन्दमानो न याचेत ललिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिनु न समुक्कसे ॥ एवमने समापस्स, सामानसुचिइ ॥ ३० ॥ ( अवचूरिः ) यो न वन्दते न तस्य कुप्येत् । वन्दितो नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवमन्वेषमाणस्य जगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यख हितम् ॥ ३० ॥ (अर्थ) वली साधु जे बे ते - ( जे के० ) यः एटले जे कोइ गृहस्थादिक होयते पण जो पोताने ( न वंदे के० ) न वन्देत एटले न वांदे, तो पण ( से के० ) तस्मै एटले ते गृहस्थ उपर ( न कुप्पे के० ) न कुप्येत् ऐटले कोपायमान थाय नहि. तेमज वली राजादिक महोटा लोकोए ( वंदि के० ) वंदितः एटले वंदन करेलो साधु (न समुक्कसे के०) न समुत्कर्षेत् एटले अजिमान न करे. ( एवं के०) उपर कड़े Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पश्चमाध्ययने दितीय उद्देशः। .. ३०ए ला बे प्रकारे (अन्नेसमाणस्स केu) अन्वेषमाणस्य एटले जिनाझा प्रमाणे चालनारा -- साधुनुं । ( साममं के०) श्रामण्यं ए साधुपणुं ( अणुचि के ) अनुतिष्ठति एटले अखंड रहे बे. ॥ ३० ॥ (दीपिका.) तथा पुनः किंन्नूतः। यः साधुर्यो गृहस्थादिकोऽपि न वन्दते तदा न कुप्येत् नावन्दमानस्योपरि कोपं कुर्यात्। तथा केनापि राजादिना यदि वन्दितस्तदा न समुत्कर्षेन्नोत्कर्ष कुयात् । एवमुक्तप्रकारछयेनान्वेषमाणस्य जगवदाज्ञयानुपालयतः श्रामण्यं यतित्वमनुतिष्ठत्यखएमम् ॥ ३० ॥ - (टीका.) तथा जे ण वंदि ति सूत्रम् । यो न वन्दते कश्चिगृहस्थादिः। न तस्मै कुप्येत् । तथा वन्दितः केनचिन्नृपादिना न समुत्कर्षेत् । एवमुक्तेन प्रकारेणान्वेषमाणस्य जगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यखएममिति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ ... सि एग लडूं, लोनेण विणिगृह॥ मामेयं दाश्यं संतं, दणं सयमायए ॥३१॥ (अवचूरिः) स्वपदस्तेयप्रतिषेधमाह । स्यादेकको लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोने... नानिष्वङ्गेण विनिग्रहते । मा समेदं जोजनजातं दर्शितं सत् दृष्ट्वा खयमाचार्यादिरादद्यात् ॥ ३१॥ _ (अर्थ, ) हवे पोताना पदने विषे चोरीनो प्रतिषेध कहेजे. (सिया एगळ के०) स्यादेकः कश्चित् एटले जो कदाचित् को एक जघन्य साधु (लहुं के०) लब्ध्वा एटले गोचरीए प्राप्त श्रयेला उत्तम आहारने पामीने (लोनेण के०) लोजेन एटले लो. नथी (विणिगृह के०) विनिगृहते एटले नीरस आहार जपर राखी उत्तम आहारने ढांकी दे. कारण के, ते एम जाणे के ( मेयं के०) ममेदं एटले आ प्रत्यक्ष मने मलेलो मारो आहार जो गुरुने (दाश्यं संतं के) दर्शितं सत् देखाड्यो तो ते श्रा. हारने गुरु ( दखूण के.) दृष्ट्वा एटले जोश्ने (मा सयमायए के०) मा स्वयमादद्यात् एटले रखे पोते ग्रहण करे. अर्थात् घणी महेनतथी मारा आणेला आहारने गुरु जो देखे तो लश्ले तो मने सारं अन्न खावा मले नहि. तेमाटे प्रबन्न राखं एम मानीने सरस आहारने नीरस आहारथी ढांके. ॥ ३१॥ (दीपिका.) अथ स्वपदस्तेयस्य प्रतिषेधमाह । स्यात् कदाचित् साधुरेकः कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्धमुत्कृष्टमाहारं लोनेन आहारगृड्या विनिगूहते अंतप्रांतादिनाहारेण तमुत्कृष्टमाहारमाछादयेत् । कथम् । अहमेव नोदय इति । कि Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० राय धनपतसिंघवदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. मित्यताह । मा मम इदं नोजनजातं दर्शितं सत् दृष्ट्वा आचार्या दिः स्वयमादद्यात् श्रात्मनैव गृह्णीयात् ॥३१॥ . (टीका.) स्वपदस्तेयप्रतिषेधमाह । सिअ त्ति सूत्रम् । स्यात्कदाचिदेकः कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं लोनेनानिष्वङ्गेण विनिगहते। अहमेव नोदय इत्यन्तप्रान्तादिनाबादयति । किमित्यत आह । मा मम इदं नोजनजातं दर्शितं सदृष्ट्वाचार्यादिः स्वयमादद्यादात्मनैव गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ अत्तहागुरुलुछो, बढुं पावं पकुव॥ . उत्तोस असो होइ, निवाणं च न गव॥३२॥ (अवचूरिः) अस्य दोषमाह । आत्मार्थ एव गुरुः प्रधानं यस्य स दुब्धः सन् दजनोजने बह पापं प्रकरोति मायया दारिद्धं कर्म । अयं परलोकदोषः। इहलोकदोषमाह । उस्तोषश्च नवति । येन केनचिदाहारेण तुष्टिरस्य कर्तुं न शक्यते। निर्वाणं च न गवति ॥ ३॥ ...(अर्थ.) हवे. ए. साधुने दोष कहे . ते (बुको के०) लुब्धः एटले लोजियो अर्थात् अतिदुख तथा ( अत्तहागुरु के ) आत्मार्थगुरुकः एटले पोतानो स्वार्थज जेने मोटो लागे जे एवो ते साधु (बहुं पावं के०) बहु पापम् घणा पापने (पकुवर के०) प्रकरोति एटले करे . अने (से के०) ते साधु, (उत्तोसर्ज के०) उस्तोषकः एटले जेवा तेवा पण आहारे ते कुनी तुष्टि थाय नहि. (च के०) वली ( निवाणं के०) मो६ प्रत्ये (नं गबर के०) न गबति एटले जातो नथी, ॥३॥ (दीपिका.) अस्य साधोर्दोषमाह। स साधुः एवं पूर्वोक्तनोजने बहु पापकर्म करोति। किंनूतः साधुः।अत्तहागुरु। आत्मनोर्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुकः ।पुनः किंनूतः स साधुः। बुब्धः तुझः सन् । अयं परलोकदोष उक्तः। अथ इहलोकदोषमाह। पुनः उस्तोषश्च भवति येन केनचिदाहारेणास्य कुलस्य तुष्टिः . कर्तुं न शक्यते । अतएव हेतोः ससाधुः निर्वाणं तु मोदं न गछति। श्ह लोके च धृति न बजते । अनन्तसंसारिकत्वाद् वा मोदं न गवति ॥ ३ ॥ . (टीका.) अस्य दोषमाह । अत्तति सूत्रम् । आत्मार्थ एव जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुर्बुब्धः सन् दुजनोजने बहु प्रनूतं पापं करोति । मा. यया दारिखं कर्मेत्यर्थः । अयं परलोकदोषः । इहलोकदोषमाह । उस्तोषश्च जवति । येन केनचिदाहारेणास्य कुलसत्त्वस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते । अत एव नि Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... . : ... दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। . . .३५१ , र्वाणं च न गवति । इह लोक एव धृतिं न बनते । अनन्तसंसारिकत्वाहा मोदं : न गवतीति सूत्रार्थः॥ ३५ ॥ .... सिआ एगन लहूं, विविदं पाणनोअणं ॥ नदगं नद्दगं नुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ (अवचूरिः) एवं यः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तोऽधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते। स्यादेको लब्ध्वेति पूर्ववत्। विविधं पाननोजनं निदाचर्यां गत एव जमकं नमकं घृतपूर्णादि जुक्त्वा विवर्णं अम्लखलादि, विरसं शीतोदनादि। आहरेदानयेत् ॥ ३३ ॥ (अर्थ.) ( सिश्रा के०.) स्यात् एटले कदाचित् (एगा के०) एककः एटले एकलो साधु ( विविहं के०) विविधं एटले विविध प्रकारचें (पाणनोअणं के) पान नोजनं एटले पाननोजनने (ल के०) लब्ध्वा एटले पामीने (जद्दगं जद्दगं के०) नजकं नमकं एटले सारं घेवर प्रमुख (जुच्चा के0) जुक्त्वा एटले नदण करीने ( विवन्नं के) विवर्णं एटले वर्णरहित तथा विरसं एटले रसरहित आहार प्रत्ये (आहरे के ) उपासरे लावे. ॥ ३३ ॥ .. (दीपिका.) एवं च यः प्रत्यक्षमपहरति स प्रत्यकहर उक्तः। अधुना यः परोक्षमप हरति स परोदहर उच्यते । एकः कोऽपि बुब्धः सन् स्यात् कदाचित् विविधमनेक प्रकारं पाननोजनं तत्र निदाचार्यायां गत एव नकं नमकं जव्यं घृतपूरादिकं नुक्त्वा . बहिरेव वापि यत् विवर्णमम्लखलादि विरसं विगतरसं शीतोदनाद्याहरेत् ॥ ३३ ॥ ___(टीका.) एवं यः प्रत्यदः प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः। अधुना यः परोक्षः परोदमपहरति स उच्यते। सिथ त्ति सूत्रम् । स्यादेकोऽपि लब्ध्वेति पूर्ववत् । विविधमनेकप्रकारं पाननोजनं निदाचर्यागत एव ।नजकंनकं घृतपूर्णादि जुक्त्वा विवर्ण विगतवर्णमम्लखलादि विरसं विगतरसं शीतोदनाद्याहरेदानयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ ...... जाणं तु ता इमे समणा, आययही अयं मुणी॥. . संतुझो सेवए पंतं, लूदवित्ती सुतोस ॥ ३४ ॥ ___(श्रवचूरिः ) किमर्थमेवं कुर्यादित्याह । जानंतु मां तावतूमणाः शेषसाधवः। श्रायतार्थी मोदार्थ्ययं मुनिः संतुष्टो लाजालानयोः समः सेवते प्रान्तमसारं रूदवृत्तिः संयमवृत्तिः सुतोष्यो येन केनचित्तोषं नीयत इति ॥ ३४ ॥ . .... ... . (अर्थ.) ते साधु शामाटे एम करे बे ते कहे जे. (श्मे के) मे एटले श्रा (समणा के) श्रमणाः एटले साधु (तु केणः) निश्चये (ता के:) तावत् एटले Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रथम (जाणंतु के०) जानन्तु एटले जाणो. शीरीते जाणो ते कहे . ( अयं के) अयं एटसे आ (मुणी के) मुनिः एटले साधु जे ते (आययही के.) अयतार्थी एटले मोदनो अर्थी बे. माटे ( संतुहों के). संतुष्टः एटले लान थाय न थाय तो पण संतोषवालो, ( सुतोस के०) सुतोष्यः एटले अंतप्रांत वस्तुवडे पण संतोष पामनार तथा ( लूह वित्ती के) रूदवृत्तिः एटले संयमनेविषे रहेलो एवो ए साधु (पंतं के) प्रान्तं एटले असारवस्तुने ( सेवए के ) सेवते एटले सेवे .॥ ३४ ॥ (दीपिका.) किमर्थमेवं कुर्यादित्याह। स बुब्धः साधुः । एवं जानाति। एवं किं। श्रमणाः शेषसाधवः तावत् आदौ मां जानन्तु यथा अयं मुनिः साधुः आयतार्थी मोक्षार्थी । पुनः कीदृशः । संतुष्टः लानेऽलाने च समः सन् प्रान्तमसारं सेवते । किंग मुनिः।रूदवृत्तिः संयमवृत्तिः।पुनः किं नूतः।सुतोष्यो येन केन चित्तोषं नीयत इति॥३॥ (टीका.) स किमर्थमेवं कुर्यादित्यत आह । जाणंतु ति सूत्रम्।जानन्तु तावन्मां श्रमणाः शेषसाधवो यथा आयतार्थी मोदार्थी अयं मुनिः साधुः संतुष्टो लानालानयोः समः सेवते प्रान्तमसारं रूदवृत्तिः संयमवृत्तिः सुतोष्यः येन केनचित्तोषं नीयत इति सूत्रार्थः ॥ ३४॥ पूअणहा जसोकामी, माणसम्माणकामए॥ बढुं पसवई पावं, मायासलं च कुवर ॥ ३५॥ (अवचूरिः ) एतदपि किमर्थं कुर्यादित्याह।पूजनार्थ स्वपदपरपदाच्यां सामान्येन पूजा नविष्यति । यशःकामी अहो अयमिति प्रवादार्थी । वन्दनान्युबानादिर्मानः। वस्त्रपात्रादिनिः संमानः। तत्कामः। स चैवंचूतः प्रसूते निर्वर्त्तयति । तजुरुत्वादेव । सम्यगनालोचयन् मायाशव्यं चावशल्यं करोति ॥ ३५ ॥ (अर्थ. ) हवे एनो दोष कहे . ए प्रमाणे ते साधु पूर्वोक्त भोजनने विषे जे बहु पाप कर्म करे , ते शामाटे करे नेते कहे . ( पूअणहा के ) पूजनार्थं एटले पोतानां पूजनने अर्थ (जसोकामी के०) यशाकामी एटले यशनी श्बा राखनार अर्थात् स्वपदा परपदयी सामान्य पणाए करी मारी पूजा थाशे, अने वली लोको कहेशे के, आ उत्तम साधु ने एवा धन्य वादने श्वनार ( माणसम्माणकामए के) मानसंमानकामुकः एटले मान जे वंदनान्युडान अने सन्मान ते वस्त्र पात्रादि लाज ते बेहुने श्छनार एवो साधु (वहु पसवई पावं के०) वहु प्रसूते पावं एटले क्वेशना योगथ। घणुंज पाप उत्पन्न करे, (च के०) वली ते पापन गुरुत्व होवाथी तथा रूडी रीते आला Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके पञ्चमाध्ययने क्तिीय उद्देशः। ३५३ चना न करवाथी (मायासवं के.) मायाशल्यं एटले मायाशट्यने (कुवर के) करोति एटले करे . ॥ ३५ ॥ ____(दीपिका.) एतदपि किमर्थमेवं कुर्यादित्याह । एवंविधः साधुर्बह्वतिप्रचुरं पापं प्रधानलेशयोगात् प्रसूते निर्वर्त्तयति तशुरुत्वादेव सम्यग् नालोचयति । ततो मायाशल्यं च नावशल्यं करोति । किंजूतः साधुः । पूजार्थं यशःकामी एवं कुर्वतो मम स्वपदपरपदान्यां सामान्येन पूजा नविष्यतीति यशःकामी। अहो अयमिति प्रवादार्थी वा । पुनः किंनूतः साधुः। मानसंमानकामुकः। मानो वन्दनान्युबानलाननिमित्तः संमानश्च वस्त्रपात्रा दिलाननिमित्तः तयोः कामुको वाञ्छकः ॥ ३५॥ . . (टीका.) एतदपि किमर्थमेवं कुर्यात्तत्राह । पूअणहत्ति सूत्रम् । पूजार्थमेवं कुर्वतः स्वपदपरपदाच्यां सामान्येन पूजा नविष्यतीति यशस्कामी । अहो अयमिति प्रवादार्थं वा । तथा मानसंमानकाम एवं कुर्यात् । तत्र वन्दनाच्युबानलाननिमित्तो मानः । वस्त्रपात्रा दिलाननिमित्तः संमानः । स चैवंचूतः बह्वतिप्रचुरं प्रधानक्लेशयोगात् । प्रसूते निर्वर्त्तयति पापम् । तजुरुत्वादेव सग्यगनालोचयन्।मायाशदयं च नावशट्यं करोतीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ सुरं वा मेरगं वा वि, अन्नं वा मऊगं रसं॥ ससकं न पिबे निस्कू, जसं सारकमप्पणो॥३६॥ __ (अवचूरिः) प्रतिषेधान्तरमाह। सुरां पिष्टादिनिष्पन्नां मेरकं प्रसन्नाख्यं सुराप्रायोग्यव्यनिष्पन्नमन्यं वा मद्यगामिनं रस मिदुरसादिकं धातकीपुष्पवासितम् । सदा परित्यागे केवढ्यादयः साक्षिणो यस्य तत् ससादि केवलिप्रतिषिकं न पिवेनिकुः । अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः सदा सादिनावात् । यशःशब्देन संयमोऽनिधीयते अन्ये तु ग्लानापवाद विषयमेतत्सूत्रमदपसागारिकविधानेन व्याचदत इति ॥ ३६ ॥ (अर्थ.) वली साधुये जे आहार बानो अथवा प्रगट न करवो ते कहे . (निस्कू के) निकुः एटले निग्रंथ साधु (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोताना (जसं के०) यशः एटले यशने वा संयमने (सारकं के०) संरदन् एटले रक्षण करतो तो (ससकं के ) ससादि एटले जेना त्यागने केवली प्रमुख सादी वे एवी अर्थात् जेनो केवलीये सर्वथा सदा प्रतिषेध कस्यो ने एवा (सुरं के०) पिष्टादिकथी थएली मदिराने ( वा के ) तथा ( मेरगं वा वि के) मेरकं वापि एटले महुडानी मदिराने अपिशब्दथकी गोलनी मदिरा पण लेवी. तेने (वा के ) तथा (अन्नं Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस (४३) मा. के० ) अन्यं एटले मदिराप्रायोग्यरसथी बनेला वीजा पण ( मऊगं रसं के० ) माद्यकं रसं एटले मद्यसंबंधी रस ते सीधु प्रमुख तेने पण ( न पिवे के० ) न पिवेत् एटले पीए नहि. बीजा आचार्यों कहे बे के, या सूत्र ग्लानापवादविषयक छे. ॥ ३६ ॥ ( दीपिका . ) पुनः प्रतिषेधान्तरमाह । निकुः सुरादि न पिवेत् । तत्र सुरां वा पिष्टादिनिष्पन्नां, मेरकं वापि प्रसन्नाख्यम्, अन्यं वा सुराप्रायोग्यद्रव्य निष्पन्नं मद्यसंबधिनं रसं सीध्वादिरूपं न पिबेत् । यतः कीदृक् तत् । ससादि सदा परित्यागे सा - दिणः केवल्यादयो यस्य तत् ससादि केवलिप्रतिषिद्धमित्यर्थः । अनेन सर्वथा प्रतिषेध उक्तः सदा साक्षिनावात् । किमिति न पिवेदित्याह । स निक्कुः किं कुर्वन् । श्रा त्मनो यशः संयमं संरक्षन् । अन्ये तु आचार्या एतत् सूत्रं ग्लानापवादविषयम पसागारिक विधानेन व्याचक्षते ॥ ३६ ॥ 1 I ( टीका. ) प्रतिषेधान्तरमाह । सुरं वत्ति सूत्रम् । सुरां वा पिष्टादिनिष्पन्नां, मे रकं वापि प्रसन्नाख्यं, सुराप्रायोग्यद्रव्य निष्पन्नमन्यं वा माद्यं रसं सीध्वादिरूपं ससा - दिकं सदापरित्यागसा दिकेवलिप्रतिषिद्धं न पिबेभिः । अनेनात्यन्तिक एव त त्प्रतिषेधः सदासादिनावात् । किमिति न पिबेदित्याह । यशः संरक्षन्नात्मनः । यशः शब्देन संयमो ऽनिधीयते । अन्ये तु ग्लानापवाद विषयमेतत्सूत्र मल्पसागारिक विधानेन व्याचक्षत इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ पियए एगन तेलो, न मे कोई विप्राणइ ॥ तस्स परसह दोसाइ, निडिं च सुरोह मे ॥ ३७ ॥ ( अवचूरिः ) अत्रैव दोषमाह । पिबत्येको धर्मसहायर हितश्चौरोऽसौ जगवददत्तग्रहणादन्योपदेशयाचनाद्वा । न मां कश्चिद्विजानातीति जावयन् । पश्यतैहिकपारत्रिकांस्तस्य साधोर्दोषान् । निकृतिं मायां शृणुत मे मम कथयतः ॥ ३७ ॥ ( .) सुरादिना पानथी हिज दोष थाय बे, ते कहे बे. ( एग के० ) एककः एटले धर्मसहायरहित अथवा एकांतमां रह्यो एवो ( तेणो के० ) स्तेनः एटले चोर अर्थात् गवाने जे न दीधेलुं ते अन्यने उपदेशादि करी ग्रहण करूं माटे चोर वो पुरुष धर्ममा रह्यो को (पिया के० ) पिवति पटले पूर्वोक्त मदिरानुं पान करे, अने मनमां जाणे जे हुं एकांतमां रह्यो थको मदिरानुं पान करुं हुं, तेथी (मे के०) मने ( कोइ वि. के ० ) कश्चिदपि एटले कोइ पण ( न याण के० ) न जानाति एटले जा पतुं नथी. एम विज्ञावना करे. तो हे शिष्यो (तस्स के० ) तस्य एटले तेना ( दोसाईं के०) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३५५ दोषान् एटले इहलोकसंबंधी अने परलोकसंबंधी दोषोने (पस्सह के०) पश्यत एटले जुवो. (निर्डि के ० ) निकृतिं एटले मायाने अर्थात् कोइ पूबे के तमोए मदिरापान करयुं के, तो ते कपटथी जूनुं बोले, जे मे पीधुं नथी इत्यादि मायाने (चं के०) वली बीजा अवगुणने पाकन करनार एवा ( मे के० ) मम एटले मारायकी (सुरोह के ० ) शृणुत एटले सांजलो ॥ ३७ ॥ ( दीपिका. ) सुरा दिपानेऽत्रैव दोषमाह । एको धर्मसहायरहित एकान्तस्थितो arastra prapa | किंभूत एकः । चौरः जगवता यन्न दत्तं तस्य ग्रहणादन्योपदेशयाचनाद्वा । पुनः किं कुर्वन् । न मां कोऽपि जानातीति विभावयन्निति शेषः । तस्येवंभूतस्य जो शिष्या यूयं दोषानिहलोकसंबन्धिनः परलोकसंबन्धिनश्च पश्यत । च पुनर्निकृतिं मायारूपां शृणुत मम कथयत इति शेषः ॥ ३७ ॥ ( टीका. ) व दोषमाह पियति सूत्रम् । पिबत्येको धर्मसहाय विप्रमुक्तोSeपसागारिक स्थितो वा स्तेनचौरोऽसौ जगवददत्तग्रहणात् । अन्यापदेशयाचनाद्वा । न मां कश्विज्ञानातीति जावयन् तस्येवंभूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकि कांश्च । निकृतिं च मायारूपां शृणुत ममेति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ वटूई सुंडिच्या तस्स, मायामोसं च निकुणो ॥ निवाणं, सययं च प्रसादुआ ॥ ३८ ॥ यसो ( अवचूरिः ) वर्द्धते शौमिका तदत्यन्ता निष्वङ्गरूपा । मायामृषावादं च प्रत्युपलब्धापलापेन वर्द्धते । तस्य निदोः यशश्च स्वपदपरपक्षयोः । अनिर्वाणमतृप्तिः । सततं चासाधुता लोके व्यवहारतश्चरणबाधनेन परमार्थतः ॥ ३८ ॥ ( अर्थ. ) वली ते मदिरापान करनारा निकुने शुं थाय ते कहे बे. ( तस्स के० ) ते मदिरापान करनार (निरकुणो के० ) निक्षोः एटले साधुनुं (सुंमिया के० ) शौमिका एटले आसक्त लोलुपपएं ( वट्टर के० ) वर्द्धते एटले वृद्धि पामे बे. वली (मार यमो के०) माया मृषा एटले माया ने मृषावाद पण वधे बे. कारण के, वारंवामद प्रातिथी वकवाद याय, तेथी निंदा थाय, जवपरंपरा वधे, वली ( यसः के० ) अयशः एटले खपक्षपरपक्षमां तेनी अपकीर्त्ति थाय, ( च के० ) वली ते मदिराना लाजी ( अनिवाणं के० ) अनिर्वाणं एटले तृप्ति ते दुःख वधे बे, अनें (सययं के० ) सततं एटले निरंतर ( साहुया के० ) असाधुता एटले लोकने विषे व्यवहारथी तथा चारित्र परिणामना वाधवडे परमार्थ थकी साधुता वधे ठे. तेने व्यव हारथी लोक साधु जाणे, पण परमार्थे तो ते असाधुज होय . ॥ ३८ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. I ( दीपिका. ) पुनस्तस्य किं जयति तदाह । तस्य जिकोः शौकिकात्यन्ता जिवङ्गरूपा वर्द्धते । पुनः मायामृषावादं च माया च मृषावादश्च तस्य वर्द्धते । प्रत्युपलब्ध• स्थापलापेनेदं च जवपरंपरा हेतुः अनुबन्धदोषात् । तथा त्र्यशश्च स्वपकपरपदयोर्मध्ये तथा तस्य लाने निर्वाणमतृप्तिः दुःखं सततं वर्द्धते । च पुनः साधुता वर्द्धते लोके व्यवहारतः चारित्रपरिणामबाधनेन परमार्थतः ॥ ३८ ॥ ( टीका. ) वह त्ति सूत्रम् । वर्धते शौमिका तदत्यन्ता निष्वङ्गरूपा तस्य मायामृषावादं चेत्येकवद्भावः । प्रत्युपलब्धापलापेन वर्धते तस्य निकोरिदं च जवपरंपरा - हेतुर्बन्धदोषात् । तथा यशश्च स्वपदपरपक्षयोः । तथा अनिर्वाणं तदलाने सततं चासाधुता लोके व्यवहारतः चरणपरिणामबाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः॥ ३८ ॥ निचुविग्गो जहा तेणो, प्रत्तकम्मेहिं डुम्मई ॥ तारिसी मरणं वि, न राहेदि संवरं ॥ ३५ ॥ ( अवचूरिः ) स भूतो सदाप्रशान्तो यथा स्तेनः स्वटुश्चरितैर्युर्मतिस्तादृशः क्विष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रम् ॥ ३९ ॥ (.) वली पण ते मद्यपान करनारने शुं याय ते कहे बे. ( जहा के० यथा एटले जेम ( तेणो के० ) स्तेनः एटले चोर ( सदा के० ) निरंतर ( निचुautho ) नित्योद्विग्नः एटले निरंतर उद्विग्नचित्त थको द्रव्यने ताके बे, तेम ( डुम्बई के० ) दुर्मतिः एटले डुर्बुद्धिवालो जिकु (त्तकम्मेहिं के० ) - त्मकर्मनिः एटले पोताना मद्यपान प्रमुख कर्मोए करी घणुंज दुःख पामेबे. ( तारि - सः के० ) तादृशः एटले तेवो दुष्टचित्तवालो निकु ( मरणंते वि के० ) मरणांतेऽपि एटले मरना अवसरने विषे पण ( संवरं के०) संवरने (न आराहे के०) न याराधयति एटले राधे नहीं. सदैव अकुशल बुद्धि होवाथी तेने संवरवीजनो अभाव बे. ॥ ३ए॥ ( दीपिका. ) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । स इत्थंभूतो निक्कुः नित्यो द्विग्नः सदाप्रशान्तः स्यात् । यथा स्तेनश्चोरः । कैः । यत्मकर्म निः स्वकीय दुश्चरितैः । किंभूतो जिन्दुः । दुर्मतिः डुर्बुद्धिः । तादृशः सन् संक्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि संवरं चारित्रं नाराधयति सदैवाकुशल बुद्धया तस्य संवरबीजाजावात् ॥ ३५ ॥ ( टीका. ) किं । निचुविग्गत्ति सूत्रम् । स इंछंभूतो नित्योद्विग्नः सदाप्रशान्तो यथा स्तेनश्चौर आत्मकर्मनिः स्वषुश्चरितैर्युर्म तिर्दुष्टबुद्धिः । तादृशः क्लिष्टसत्त्वो म Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३५७ रातेऽपि चरकालेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रं सदैवाकुशलबुड्या तद्वीजानावादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ प्रायरिए नारादेश, समावि तारिसो॥ गिचा विणं गरिदंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४० ॥ ( अवचूरिः) श्राचार्यान्नाराधयति श्रमणांश्चापि तादृशः । गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं गर्हन्ति कुत्सन्ति । येन जानन्ति तादृशं दुष्टशीलमिति ॥ ४० ॥ (.) वली पण तेनुं शुं याय बे ते कहे बे. ( तारिसों के० ) तादृशः एटले वो डुराचारने सेवनार मद्यपान करनार एवो ते निक्कु ( आयरिआए के० ) - चार्यान् एटले आचार्योंने ( न आराहे के ० ) न आराधति एटले आराधन करे नहि. अशुद्धाव बे तेमाटे तथा ( समणे यवि के० ) श्रमणानपि एटले श्रमण जे साधु तेने पण आराधन करे नहि. ते अश्रुद्ध जाव बे माटे एने (गिहछा वि के० ) गृहस्था अपि गृहस्थो पण ( एवं के० ) एनं एटले ए निकुने ( गरिहंति के० ) गति एटले निंदा करे बे. ( जेण के० ) येन एटले जे कारणें करी ( तारिसं के० ) तादृशं एटले तेवा दुष्टशीलवालाने ( जाति के० ) जानंति एटले जाणे बे. ॥ ४० ॥ ( दीपिका. ) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । तादृशो निक्कराचार्यान्नाराधयति अशुद्धनावत्वात् । तथा श्रमणानपि नाराधयति अशुद्धभावादेव | गृहस्था अपि एनं दुष्टशीलं गर्हन्ति कुत्सन्ति । किमिति । येन कारणेन जानन्ति तादृशं दुष्टशीलमिति ॥४०॥ ( टीका. ) तथा रिए ति सूत्रम् । श्राचार्यान्नाराधयति अशुद्धभावत्वात् । श्रमणांश्चापि तादृशान्नाराधयत्यशुभावत्वादेव । गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं गईन्ते कुत्सन्ति । किमिति । येन जानन्ति तादृशं दुष्टशीलमिति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ एवं तु गुणदी, गुणाणं च विवकए ॥ तारिसी मरणं वि, आरादेहि संवरं ॥ ४१ ॥ (अवचूरिः) एवं सूत्रोक्तप्रकारेणागुणप्रेकी श्रगुणानां प्रमादादीनां प्रेक्षको गुणानां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण विवर्जकः ॥ ४१ ॥ (अर्थ. ) वली पण तेनुं शुं याय ते कहे बे. ( एवं के० ) ए उक्त प्रकारे करी (अप्पेही के० ) गुणप्रेदी एटले गुणरहित अवगुणना स्थानकने जोनार ने ( गुणा च के० ) गुणानां एटले गुणोना स्थानकने ( विवर्ज के० ) विवर्द्धकः एटले Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. दमा दया विनयादिक गुणोनो त्याग करनार एवो (तारिसो के०) तादृशः एटले तेवो पुष्टपरिणामवालो वेषधारी साधु (मरणंते वि के०) मरणांतेऽपि एटले मरण कालने विषे पण (संवरं के०) संवरने एटले चारित्रने (ण आराहेश के०) नाराधयति एटले आराधे नहि ॥४१॥ (दीपिका.) पुनस्तस्य किं स्यादित्याह । एवमुक्तप्रकारेण अगुणप्रेक्षी अगुणान् प्रेदत इत्येवंशीलः । पुनः किं । गुणानां चाप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रवेषकरणेन विवर्जकस्त्यागी। तादृशः विष्ट चित्तपरिणामो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रम् ॥४१॥ (टीका. ) एवं तु त्ति सूत्रम् । एवं तूक्तेन प्रकारेण अगुणप्रेदी अगुणान् प्रमादादीन् प्रेदते तडीलश्च य इत्यर्थः । तथा गुणानां चाप्रमादादीनां खगतानामनासेवनेन परगतानां च प्ररेषेण विवर्जकः त्यागी । तादृशः क्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति संवरं चारित्रमिति सूत्रार्थः ॥४१॥ तवं कुवर मेदावी, पणीअं वजए रसं॥ मऊप्पमायविर, तवस्सी अश्नक्कसो॥४॥ __ (अवचूरिः) यतश्चैवं तदोषत्यागेन तपः करोति मेधावी मर्यादावर्ती प्रणीतं स्निग्धं वर्जयति रसं घृतादि । मद्यप्रमादविरतः । नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यम्। अहं तपस्वीत्युत्कर्षमतिकान्तोऽत्युत्कर्षः । मरणान्तेऽपि अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहितः ॥ ४२ ॥ (अर्थ.) हवे मद्यत्यागनो गुण कहे . ( मेहावी के०) मेधावी बुद्धिमान् मर्यादावर्ती साधु, ( तवं के०) तपः एटले बार प्रकारना तपने (कुवर के०) करोति एटले. करे . तथा (पणी के०) प्रणीतं एटले स्निग्ध एवा (रसं के०) घृतादिक रसने अलोजी थको (वजाए के) वर्जयेत् एटले त्याग करे. केवल घृतादिकनो त्यागज न करे. परंतु (मऊप्पमायविर के) मद्यप्रमादविरतः एटले मद्यपानना प्रमादयकी रहित अने (तवस्सी के०) तपस्वी (अश्उकसो के०) अत्युत्कर्षः एटले हुँ तपस्वी झुं एवा उत्कर्षे रहित एवो जे साधु होय .॥ ४ ॥ (दीपिका.) यतश्चैवमतस्तदोषपरिहारेण साधुः कीदृशः स्यात्तदाह । मेधावी मर्यादावर्ती साधुस्तपः करोति । प्रणीतं स्निग्धं रसं घृतादि वर्जयति । न केवलमेतत् करोति । अपि तु मद्यप्रमाद विरतो नवति । किंनूतो मेधावी। तपस्वी। पुनः किंनूतः थत्युत्कोऽहं तपस्वीत्युत्कर्परहितः ॥ ४२ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३५ए (टीका.) तवं ति सूत्रम् । तपः करोति मेधावी मर्यादावर्ती प्रणीतं स्निग्धं . . यति रसं घृतादिकम् । न केवलमेतत्करोत्यपितु मद्यप्रमादादिविरतो नास्ति क्लितत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः । तपस्वी साधुरत्युत्कर्षोऽहं तपस्त्रीत्युत्कर्षरहित ते सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसादपूश्अं॥ : विनलं अबसंजुत्तं, कित्तइस्सं, सुणेद मे॥४३॥ (अवचूरिः) तस्यैवंचूतस्य पश्यतः। कम् । गुणसंपयूपं संयमम् । किंनूतम् । अनेसाधुपूजितम् । विपुलं मोक्षावहत्वात् । अर्थस्तत्त्वतः कर्मनिर्जरारूपस्तेन संयुक्तम् । र्तयिष्येऽहं शृणुत मे मम सकाशात् ॥४३॥ (अर्थ.) ए पूर्वोक्त प्रकारना साधुने शुं थाय ते कहे . (अणेगसाहुपश्यं के०) नेिकसाधुपूजितं एटले मदिरापाननो त्याग कस्यो २ माटे घणा साधुए पूजित श्रत् िसेवित, तथा वली (विजलं के०) विपुलं एटले मोदावगाहथी विपुल अने अबसंजुत्तं के ). अर्थसंयुक्तं एटले मोक्षसाधक पणुंडे माटे तुडतादिकना परहारथी निरुपम सुखरूप अर्थसहित एवा ( कहाणं के) कल्याणं एटले गुणपदारूप संयमने (पस्सह के) पश्यत एटले जुवो. हवे गुरु कहे . तेहना गुण (कित्तस्सं के) कीर्तयिष्ये एटले कहीश. (मे के) मम एटले महाराथकी सुणेह के०) शृणुत एटले सांजलो, ॥ ३ ॥ - (दीपिका.) एवंनूतस्य तस्य किं स्यादित्याह । तस्य साधोरिबंनूतस्य [यं कल्याणं गुणानां संपड्रपमर्थात्संयमं पश्यत । किंनूतं कल्याणम् । अनेकैः माधुनिः पूजितम् । कोऽर्थः । सेवितमाचरितम् । पुनः किंनूतं कल्याणम् । विपुलं वितीर्णं विपुलमोदावहत्वात् । पुनः किंनूतं कल्याणम् । अर्थसंयुक्तं तुबता दिपरिहारेण निरुपमसुखरूपम् । कथम् । मोदसाधकत्वात् । अहं तं साधु कीर्तयिष्ये । व्यं शृणुत मम कथयत इति शेषः ॥ ५३॥ __(टीका.) तस्स त्ति सूत्रम् । तस्येनूतस्य पश्यत कल्याणं गुणसंपपं संयमम्। के विशिष्टमित्याह । अनेकसाधुपूजितम्।पूजितमिति सेवितमाचरितम् । विपुलं विस्तीर्ण विपुलमोदावहत्वात् । अर्थसंयुक्तं तुतादिपरिहारेण निरुपं मसुखरूपं मोक्षसाधनत्वात् । कीर्तयिष्येऽहम्। शृणुत मे ममेति सूत्रार्थः॥ ५३॥ . Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. एवं तु गुणप्पेही, अगुणाणं च विवकए ॥ तारिसी मरणं वि, रादेश संवरं ॥ ४४ ॥ ( अवचूरिः ) स्पष्टम् ॥ ४४ ॥ (.) प्रकारनो साधु शुं करे ते कहेबे . ( एवं के० ) ए प्रकारे ( तु के ० ) वली ( गुणप्पेही के० ) गुणप्रेक्षी एटले गुण जे श्रप्रमादादि रूप तेने जोनारो, ( च के० ) तथा ( अगुणाएं के० ) अगुणानां एटले पोताने विषे रहेला प्रमाद, क्रोध, हिंसा, प्रमुख दोष तेने ( विवर्ज के० ) विवर्जकः एटले तेवा अगुणोनो त्यागी एवो (तारिसो के० ) तादृशः एटले तेवो गुणवान् साधु ( मरते वि ho ) मरणांतेऽपि मरणने अवसरे पण ( संवरं के० ) चारित्रने (खारादेश के०) सेवन करे. अर्थात् शुद्ध निरतिचारपणे पंच महाव्रत पाले. ॥ ४४ ॥ ( दीपिका . ) एवंविधश्च स साधुः किं करोतीत्यत आह । एवं तूक्तप्रकारेण स साधुः तादृशः सन् शुद्धाचारः सन् मरणान्तेऽपि चरमकालेऽपि संवरं चारित्रमाराधयति स - देव कुलबुला तद्दीजपोषणात् । किंभूतः साधुः । गुणप्रेही गुणान् श्रप्रमादादीन् प्रेकृत इत्येवंशीलो यः स गुणप्रेकी । तथा पुनः किंभूतः । अगुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन विवर्जकस्त्यागी ॥ ४४ ॥ ( टीका. ) एवं तूक्तेन प्रकारेण स साधुर्गुणप्रेक्षी गुणानप्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः । तथागुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विवर्जकः त्यागी । तादृशः शुद्धवृत्तो मरणान्तेऽपि चरमकालेऽप्याराधयति संवरं चारित्रं सदैव कुशलवुया वीजपोषणादिति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ च्यारिए यारादेश, समावि तारिसी ॥ गिचा विणं पूयंति, जेण जाति तारिसं ॥ ४५ ॥ ( अवचूरिः ) याय० ॥ ४५ ॥ ( अर्थ. ) वली तेवो साधु शुं करे तथा ते साधुने गृहस्थो शुं करे ते कहे ठे. ( तारिसी के० ) तादृशः एटले तेवो गुणवान् साधु ( चायरिए के० ) आचार्यान् एटले याचायाने शुद्धात्री ( आदेश के० ) याराधयति एटले आराधे ठे. तथा शुद्ध जावबीज (समये के०) श्रमणान् एटले साधुने पण यारा, सेवा नक्ति करें, तथा ( गिद्दड़ा वि के० ) गृहस्था अपि एटले गृहस्थो पण ( एणं के० ) एनं Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पञ्चमाध्ययने वितीय उद्देशः। ३६१ एटले ए साधुने (पूअंति के०) पूजयंति एटले पूजन करे , वंदना नमस्कार करे , तथा आदर संमान करी वस्त्रपात्रादि आपे . (जेण के) येन एटले जे कारण माटे ते गृहस्थो (तारिसं के) तादृशं एटले तेवा शुद्ध धर्मीने ( जाणंति के० ) जाणे . ॥ ४५ ॥ (दीपिका.) पुनः स किं करोति । तं च गृहस्थाः किं कुर्वन्तीत्याह । तादृशो गुणवान् । साधुरााचार्यानाराधयति शुमनावत्वात् । अपि पुनः श्रमणानाराधयति शुद्धनावत्वादेव । तथा गृहस्था अप्येनं पूजयन्ति । कथम् । येन कारणेन ते जानन्ति तादृशं शुई धर्मम् ॥ ४५ ॥ (टीका.) तथा आयरिअ त्ति सूत्रम् । आचार्यानाराधयति शुद्धन्नावत्वात् । श्रमणांश्चापि तादृश आराधयति शुधनावत्वादेव । गृहस्था अपि शुषवृत्तमेनं पूजयन्ति। किमिति । येन जानन्ति तादृशं शुद्धवृत्तमिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे॥ आयारनावतेणे अ, कुबई देवकिविसं ॥४६॥ (अवचूरिः) स्तेनाधिकार एवेदमाह । तपस्तेनः पकवत् कश्चित्कृशः केनचित्पृष्टः दपकस्त्वम्। स खपूजाद्यर्थसाह। अहम्।अथवा वक्ति, साधव एव दपकास्तूष्णीं वास्ते । एवं वास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित्पृष्ट इत्याह। रूपस्तेनो राजपुत्रतुल्यादिरूपः पृष्टः । आचारस्तेनः सदाचारो नवान् श्रूयत इत्युक्तः स आह सदाचारास्तपोधनाः। जावस्तेनः शुननावरूपः। एवमीदृशः पालयन्नपि क्रियां देवकिदिवषिकं कर्म करोति निर्वर्त्तयतीत्यर्थः ॥ ४६॥ ___ (अर्थ.) हवे ए चोरना अधिकारमांज कहे . एटले या प्रकारे जे होय ते चोर कहेवाय एम कहे . (तवतेणे के०) तपस्तेनः एटले तपनो चोर अर्थात् को पूठे जे तमो तपस्वी बो? त्यारे ते कहे,जे हां, हूं तपस्वी वं. एटले ते तप न करे, ने कहे जे हुं तप करनारो बु. एने तपस्तेन कहियें. वली पोताना स्वन्नावेज तप विना शरीर सुवर्बु थ गयु होय तेने देखीने गृहस्थ पूजे, जे तमे उमासी प्रमुख तप करोगे? त्यारे ते पोतानो महिमा वधारवाने अर्थे गृहस्थने कहे जे साधु सदाय तपस्वी होय. अथवा मौन करी रहे. त्या गृहस्थ जाणे जे ए महोटा पुरुष पोताने मुखे पोतानुं वखाण केम करे ? पण ए महोटा तपस्वी देखाय ठे. तेमाटे उत्तर देता नथी. श्रा रीते तपनो चोर जाणवो. तथा (वयतेणे के०) वचःस्तेनः एटले वचननो चोर ते शास्त्रनी वार्ता न जाणे, पण वचन कलाए करी सनाने रीजवे. तेने लोको पूठे, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग ततालीस (४३) मा. जे तमे याचांरांगादि अग्यार छांग छाने वार उपांग प्रमुख सर्व सिद्धांत जण्या हो ? त्यारे कहे, जे साधु तो जणेज एमां शुं पूवुं ? त्यारे लोक जाणे जे ए महोटो पंडित देखाय बे. ते वचननो चोर जाणवो. ( व के० ) तथा ( रूवते के० ) रूपस्तेनः एटले रूपनो चोर, ते राजपुत्र समानरूप जोइ कोइ गृहस्थ पूवे जे तमे राजाना पुत्र को ? त्यारे मौन करी रहे. ते रूपनो चोर जाणवो तथा (आयार के० ) घ्याचारस्तेनः एटले कोइक वैराग्य बिना बाह्य क्रिया करता देखीने पूढे के, हे खामिन्! जे महा याचारवंत मुक आचार्यना शिष्य सांगल्या बे, ते तमेज बो ? त्यारे ते कहे, जे हा. ते हुं पोतेज तुं. तथा (च के०) वली (जावतेथे के० ) जावस्तेनः एटले जेम कोइ सूत्रार्थना संदेह कोइ गीतार्थने पूबे, अने ते गीतार्थना मुखधी सांजलीने पठी कहे. जे हुं पण एमज जाएं बुं. पण समारी परीक्षा जोवा पूब्धुं एम कहे, परंतु पाधरुं न बोले. तेने जावचोर कहियें. ए प्रकारे शोजानो अर्थी जीव ( देवकिब्विसं के० ) देवकिल्विषं एटले कि - विषया देवतापणाने पामे. ॥ ४६ ॥ ( दीपिका . ) पुनस्तेनाधिकार एवेदमाह । एवंविधः साधुः देवकिल्विषं कर्म करोति निर्वर्त्तयतीत्यर्थः । किंभूतः साधुः । तपस्तेनः, वास्तेनः, तथा रूपस्तेनश्च, यो नरः, तथा आचारस्तेनः, तथा नावस्तेनश्च । तत्र तपस्तेनो नाम यः क्षपकरूपसदृशः । केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति । तदा पूजार्थमाह श्रहमिति । अथवा वक्ति साधवः क्षपका एव । अथवा तूष्णीमास्ते । एवं वाक्स्तेनो धर्मकथकादिसदृशरूपः कोऽपि केनचित् पृष्टस्तथैवात् । एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादिसदृशरूपः पृष्टस्तथैवाह । एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवर्त्तिसदृशरूपस्तथैवाह । जावस्तेनस्तु परोत्प्रेक्षितं कथंचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मया तत्प्रपञ्चेनेदं चर्चित मित्याद्याह । स इत्यंभूतः साधुष्टजावदोषात् क्रियां पालयन्न पिदेव किल्बिषं निर्वर्त्तयति ॥ ४६ ॥ ( टीका. ) स्तेनाधिकार एवेदमाह । तवत्ति सूत्रम् । तपस्तेनो वाक्स्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारनावस्तेनश्च पालयन्नपि क्रियां तथा जावदोषात्किल्बि करोति । किषिकं कर्म निर्वर्त्तयतीत्यर्थः । तपस्तेनो नाम रूपकरूपकतुल्यः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति । स पूजाद्यर्थमाहाहम् । श्रथवा वक्ति साधव एव कूपकास्तूष्णीं वास्ते । एवं वाक्स्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति । एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः। एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति । जावस्तेनस्तु परोत्प्रेदितं कथंचित् किंचित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्षितमपि मयैतत्प्रपञ्चेन चर्चित मित्यादेति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । लडू वि देवत्तं, वन्नो देव किंब्बिसे || तावि से न याणाइ, किं मे किवा इमं फलं ॥ ४७ ॥ ३६३ ( श्रवचूरिः ) छाय मिभूतो लब्ध्वापि देवत्वमुपपन्नो देवकिल्विषिके काये तत्राप्यसौ न जानाति विशुद्धावधिज्ञानाभावात् । किं मे मम कृत्वेदं फलं किल्वियदेवत्वमिति ॥ ४७ ॥ (.) वली पण ते पूर्वोक्त साधुने शुं थाय बे ते कहे ते. (देवत्तं के०) देवत्वं एटतथाविध क्रियाना पालनथ की देवपणाने (लडूण वि के० ) लब्ध्वापि एटले पामीने पण ( देवकिब्बिसे के०) देवकिल्विषे एटले किल्बिषकाय देवतामां श्रवतरीने (तावि ० ) तत्रापि एटले ते नवमां पण विशुद्ध एवा अवधिज्ञानना प्रजावथकी ( से के० ) सः एटले ते ( न यापाइ के० ) न जानाति एटले जाणे नहि जे ( मे ho) मम एटले मने (किं किच्चा के० ) किं कृत्वा एटले कइ क्रिया करवाथी ( इमं फलं के० ) इदं फलं एटले श्रा किल्बिषिया देवपणानुं फल मयुं. ते न जाणे. ॥ ४७ ॥ ( दीपिका. ) पुनस्तस्य किं स्यात्तदाह । यसौ साधुर्लब्ध्वापि देवत्वं तथाविधक्रियापासनवशेन उपपन्नो देव किल्बिषे देवकिल्बिषकाये तत्रापि सं न जानाति विशुइस्यावधेरजावेन । किं न जानाति । तदाह । किं कृत्वा ममेदं फलं किल्विषदेवत्वं जातमिति ॥ ४७ ॥ ( टीका. ) श्रयं चेयंभूतः । लडूण त्ति सूत्रम् । लब्ध्वापि देवत्वं तथाविध क्रियापालनवशेन उपपन्नो देवकिल्बिषे देवकिल्वि षिकाये । तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धावधिना । किं मम कृत्वा इदं फलं किल्बिषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥ तत्तो वि से चइत्ताणं, लनिही एलमूत्रयं ॥ नरगं तिरिस्कयो वा, बोदी जच सुल्लदा ॥ ४८ ॥ ( अवचूरि : ) अस्यैव दोषान्तरमाह । ततो देवलोकादसौ च्युत्वा । लप्स्यते एलमूकता मजजापानुकारित्वं नृत्वेऽपि । यत्र बोधिईर्लना । तथा नरकं तिर्यग्योनिं वा पारंपर्येण लप्स्यते । वोधिर्यत्र सुदुर्लभः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्रासिरापा इति भविष्यत्काल निर्देशः ॥ ४८ ॥ ( अर्थ. ) वली पण ते साधु दोषांतरने पामे ठे. ते कहे वे (से के०) सः एटले ते ( तत्तो वि ० ) ततोऽपि एटले त्यांथी पण एटले देवलोकथकी पण (चइताएं के० ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. च्युत्वा एटले च्यवीने (एलमूअगं के) एलमूकतां एटले मेपनापानुकारिपणाने ( ल पिही के०) लप्स्यते एटले पामशे. त्यांथी पण च्यवीने जवपरंपराए ( नरयं के ) नरकने (वा के०) तथा (तिरिकजोणि के०) तिर्यग्यो नि एटले तिर्यच योनिने पण पामशे. (जब के०) यत्र एटले ज्यां ( वोही के) बोधिः एटले सकलसंपत्तिकारिणी एवी जिनधर्मनी प्राप्ति (उबहा के०) उर्लना एटले कुर्लन ठे. ॥४॥ (दीपिका.) पुनरस्यैव साधोर्दोषान्तरमाह । ततोऽपि देवलोकाच्युत्वापि स साधुर्मानुषत्वे. एलमूकतामजनाषानुकारित्वं लप्स्यते । पुनस्ततोऽपि परंपरया नरकं तिर्यग्योनि वा लप्स्यते। तत्र च बोधिः सकलसंपत्तिकारिणी जिनधर्मप्राप्तिः सुषुलना कुरापा फुःखेन प्राप्या नविष्यतीति ॥ ४॥ . ( टीका.) अत्रैव दोषान्तरमाह । तत्तो वि त्ति सूत्रम् । ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यत एलमूकतामजनाषानुकारित्वं मानुषत्वे । तया नरकं तिर्यग्योनि वा पारंपर्येण लप्स्यते । बोधिर्यत्र सुपुर्लनः सकलसंपन्निवन्धना यत्र जिनधर्मप्रातिधुरापा । इह च प्राप्नोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृन्नावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति चविष्यत्काल निर्देश इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ एअंच दोसं दणं, नायपुत्तेण नासिअं॥ अणुमायं पि मेदावी, मायामोसं विवजाए ॥४॥ (अवचूरिः) प्रकृतमुपसंहरति । एनं च दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषिकादिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वागमतो ज्ञातपुत्रेण लाषितमणुमात्रमपि मायामृषावादं वर्जयेन्मेधावी मर्यादावर्ती ॥ ४ ॥ ___ (अर्थ.) हवे चालती वातनो उपसंहार करे . (मेहावी के०) मेधावी एटले. मर्यादावती साधु (एअं के०) एतं एटले पूर्वोक्त प्रकारना (दोसं के०) दोषं एटले श्रामण्य थकी पण किदिबषदेवत्वप्राप्तिरूप दोषने (दळूणं के०) दृष्ट्वा एटले देखीने (नायपुत्तेण के०) शातपुत्रेण एटले महावीर स्वामीए (नासिओं के०) नाषितं एटले कडं बे, जे (अणुमायं पि के०) अणुमात्रमपि एटले अणुमात्र पण (मायामोसं के) मायामृषावादं एटले मायाए करीने जे जूई बोलवू, तेने ( विवजाए के०) विवर्जयेत् एटले वर्जे, त्याग करे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) अथ प्रकृतस्य उपसंहारमाह । मेधावी मर्यादावर्ती साधुः एनं पूवोतं. दोषं सत्यपि. श्रामण्ये किस्विषदेवत्वप्राप्तिरूपं दृष्ट्रा मायामृषावादं पूर्वोक्तं विव Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके पञ्चमाध्ययने द्वितीय उद्देशः । ३६५ जयेत् परित्यजेत् । किंभूतं दोषम् । श्रगमतो ज्ञातपुत्रेण जगवता वर्द्धमानखामिना जापितमुक्तम् । किंनूतं मायामृषावादं अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किं पुनः प्रभूतम् । ( टीका.) प्रकृतमुपसंहरति । एवं च त्ति सूत्रम् । एतं च दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्वि पिकत्वादिप्राप्तिरूपं दृष्ट्वागमतो ज्ञातपुत्रेण जगवता वर्द्धमानेन जापितमुक्तम् | अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रभूतं मेधावी मर्यादावर्त्ती मायामृषावादमन्तरोदितं वर्जयेत्परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ सिकिऊण निकेसणसोहिं, संजयाण बुझाए समासे ॥ तच निकुसुमपिदिदिए, तिलक गुणवं विदरिकासि त्ति वेमि ॥ ५० ॥ संमत्तं पिंडेपणानामप्रयणं पंचमं ॥ ५ ॥ ( अवचूरिः ) अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । शिक्षित्वा निदेषणाशुद्धिं संयतेच्यो बुद्धेभ्यो साधुभ्योऽवगत तत्त्वेन्यः । न द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात् । तत्र निदैषणायां निक्षुः सुप्रणिहितेन्द्रियः श्रोत्रादिनिर्वा तदुपयुक्तः । तीव्रो लागुणोऽसंयमकरणे यस्य स उत्कृष्टसंयम इत्यर्थः । अनेन प्रकारेण गुणवान्विहरेत् ॥ २० ॥ इत्यवचूरिकायां पिएकैषणाध्ययनं पञ्चमम् ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) हवे अध्ययननो उपसंहार करता बता जे करवुं ते कहे वे. (बुद्धाएं के०) बुद्धानां एटले बुद्ध, तत्त्वना जाए एटले द्रव्यसाधु नहि एवा (संजयाणं के० ) संयतेन्यः एटले संयत एवा गुर्वादि साधुना ( सगासे के० ) सकाशात् एटले पासेयी ( निरके सोहिं के०) पिणाशुद्धिं एटले निषणानी शुद्धिने ( सिकिऊ के० ) शि दित्वा एटले शीखीने, मणीने ( तब के०) तत्र एटले ते एषणा समितिने विषे ( निरक hu ) निकुः एटले साधु ( सुप्पणि हिदिए के० ) सुप्रणिहितें प्रियः एटले निश्चल - समताजावे राख्या वे पांचे इंद्रियो जेणे एवो थयो बतो ( तिवला के० ) तीव्रलः एटले अनाचार करवामां तीव्र लावालो तथा ( गुणवं के० ) गुणवान् एटले पूर्वोक्त (साधुगुणसहित एवो ते साधु ( विहरिका के० ) विहरेत् एटले विचरे. (त्ति वेमि के० ) इति ब्रवीमि एटले श्रीवीरजगवाने एम कहेल वे तेप्रमाणे हुं कहुं तुं. ॥ ५० ॥ इति श्रीदशवैकालिकवालाववोधे पंचमाध्ययन संपूर्ण ॥ ५ ॥ व ( दीपिका . ) याध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । तत्र निपणायां निर्विहरेत् सामाचारपालनं कुर्यात् । किं कृत्वा | जिंकेपणाशुद्धिं पिएममार्गणशुद्धिमुरुमा दिरूपां शित्वाधीत्य । केन्यः सकाशादित्याह । संयतेच्यः साधुत्र्यः । किंविशिष्टेन्यः संयतेज्यः । 1 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनामसंग्रह, जाग तेतालीस (४३) - मा, बुद्धेभ्यो ज्ञाततत्त्वेन्यः ज्ञातार्थेभ्यो म द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात् । किंनूतो निक्कुः । सुप्र पिहितेंद्रियः श्रोत्रादिनिरिन्द्रियैर्गाढं तडुपयुक्तः । पुनः किंभूतो निकुः । तीव्रलजः । तीना लगानाचार करणे यस्य स तीव्रला उत्कृष्टसंयम इत्यर्थः । पुनः किंनूतो निशुः । गुणवान् पूर्वोक्तप्रकारेण साधुगुणैः सहितः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २० ॥ 1 इति पिएषणाध्ययने द्वितीयोदेशकः ॥ २ ॥ समाप्तं पिल्लेपणाध्ययनम् ॥ ५ ॥ ( टीका.) श्रध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह । सिरिकऊण त्ति सूत्रम् । शिक्षित्वाधीत्य जिषणाशु किमुप्रमादिरूपाम् । केन्यः सकाशादित्याह । संयतेभ्यः साधुच्यो बुद्धेच्योऽवगतत्त्वेच्यः सकाशात् । ततः किमित्याह । तत्र निर्दोषणायां निकुः साधुः सुप्रणिहितेन्द्रियः श्रोत्रादि निर्गाढं तदुपयुक्तः तीव्रलऊ उत्कृष्टसंयमः सन् । अनेन प्रका रेण गुणवान् विहरेत् सामाचारीपालनं कुर्यादिति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः । सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं पिंडैषणाध्ययनम् ॥ ५० ॥ इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैका लिकशब्दार्थवृत्तौ पिएकैषणाध्ययनं समाप्तम् ॥ ५ ॥ छाथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनम् । नाण सदंसण संपन्नं, संजमे तवे रथं ॥ गणिमागमसंपन्नं, नकाणम्मि समोसढं ॥ १ ॥ रायाणो रायमचा य, मादणा अडवखत्तिय ॥ पुच्छंति निदुप्पाणो, कहं ने खायारगोयरे ॥ २ ॥ ( अवचूरि : ) अथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनमारज्यतेऽस्यायं संबन्धः । इह पूर्वाध्ययने जिक्षाशोधिरुक्ता । इह तु गोचरगतेन सता स्वाचारं पृष्ठेन तद्विदापि महाजनसमक्षं न तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यमित्यपित्वालये गुरवो वा कथ यन्तीति वाच्यम् । इत्येतदुच्यते । ज्ञानं मतिश्रुतज्ञानादि, दर्शनं क्षायोपशमिका दि, ताज्यां संपन्नं युक्तम् । संयमे पञ्चाश्रवविरमणादौ तपसि चानशनादौ रतमासक्तम् । गणोऽस्याऽस्तीति गणी तं गणिनमाचार्य गणसंपन्नं विशिष्टश्रुतधरम् । बह्रागमत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमेतत् । उद्याने समवस्तृतं स्थितं धर्मदेशनार्थं वा प्रवृत्तम् ॥ १ ॥ राजानो नरपत्यो मन्त्रिणो ब्राह्मणाः । श्रडुवत्ति तथा । क्षत्रियाः श्रेष्ठयादयः पृष्ठन्ति निनृतात्मानोऽसंचान्ताः कृताञ्जलयः । कथं ने जवतामाचारगोचरः क्रियाकलापः स्थितः ॥ २ ॥ (अर्थ. ) हवे ब्रुं महाचारकथानाम अध्ययन कहे बे. या अध्ययननो संबंध था Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३६४ प्रमाणे केः-पूर्वे पांचमा अध्ययनमां साधुए निर्दोष आहार सेवो एम कडं. हवे ते थाहार जे संयमवंत होय तेज लहे, माटे बहा अध्ययनमा अढार स्थानकरूप संयमनो आचार कहे. हवे ते पूर्वोक्त अध्ययनमां निर्दोष आहारने अर्थे साधु गोचरीये गयो होय तिहां राजा विगेरे पूजे के, हे साधो! तमारो आचार केवो . त्यारे ते कहे, जो साधुनो श्राचार सांजलवानो तमारो नाव होय, तो उद्यानमां श्राचार्य समोसख्या बे. तिहां जश् साधुनो याचार पूडो. ते सर्व कहेशे. ते श्राचार्य केवा ते कदे . ( नाण के) ज्ञान ते श्रुतज्ञानादिक ( दसण के०) दर्शन ते सम्यक्त्व अझारूप, तेणे करी (संपन्नं के०) संपन्नं एटले सहित (संजमेणके०) संयमे एटले सत्तरनेद संयमने विषे तथा (तवे के ) तपसि एटले वारजेदवाला तपने विषे (रयं के०) रतं एटले रक्त एवा अने (आगमसंपन्नं के०) आगमसंपन्नं एटले शागम जे सिद्धांत तेवडे संपूर्ण नरेलाअर्थात् छादशांगीना जाणनार एवा(उजाणम्मि के) उद्याने एटले ग्रामानुग्राम ते एक गामथी वीजे गाम एम अनुक्रमे विहार करता थका उद्यानने विषे (समोसढं के०) समवसृतं एटले समोसख्या एवा आचार्य प्रत्ये राजादिक लोको पू..॥१॥ (रायाणो के०) राजानः एटले राजा (य के०) च एटले वली (रायमच्चा के ) राजामात्याः एटले राजाऊना अमात्य जे मंत्री (माहणा के०) ब्राह्मणाः एटले ब्राह्मणो (अव के०) अथवा (खत्तिथा के०) क्षत्रियाः एटले जातिवंत सूर्यवंशी प्रमुख क्षत्रियो ते (निहुअप्पाणो के) निनृतात्मानः एटले असंत्रांत थका निश्चल मनथी हाथ जोडीने (पुठंति के) पृढ़ति एटले पूठे. शुं पूछे तो के, हेनगवन् ! (ने के०) जवतां एटसे तमारो (थायारगोअरो के०) आचारगोचरः एटले जे क्रियाकलापनो आश्रय करी तमे रहेला बो ते क्रियाकलाप ( कहं के ) कथं एटले केवी रीतेने ते कहो.॥२॥ (दीपिका.) व्याख्यातं पिएमषणाध्ययनमधुना महाचारकथाख्यमध्ययनमारन्यते । थस्य चाध्ययनस्यायमनिसंवन्धः । इह इतः पूर्वाध्ययने साधोनिक्षाविशुछिरुक्ता। इह तु गोचरप्रविष्टेन सता स्वस्य श्राचारं पृष्टेन श्राचारझेनापि महाजनसमदं तत्रे. • व स्थाने विस्तरतो न कथयितव्यम् । अपितूपाश्रये गुरवः कथयिष्यन्तीति वक्तव्यम्। • इत्येतपुच्यते। इत्यनेन संवन्धेन आयातमिदमध्ययनमिति । तथाहि गायात्रयेणोक्ति- मेलनम् । राजानो नरपतयः, राजामात्याश्च मंत्रिणः, ब्राह्मणाः प्रसिझाः, थदुवत्ति तथा क्षत्रियाः श्रेष्ठ्यादयः, साधु प्रतीति वन्ति । इतीति किम् । कथं ने नजावतामाचारगोचरः क्रियाकलापः। यं प्रति त्वं स्थितोऽसि । किंता राजादयः। निनृता Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. दोहिलो एवो (आयारगोअरं के ) आचारगोचरं एटले क्रियाकलाप जे तेने (मे के) मम सकाशात् एटले मारायकी ( सुणेह के०) शृणुत एटले सांबलो. ॥ ४॥ . (दीपिका.) किं वदे दित्याह । हंदीत्युपप्रदर्शने। हे राजादयः यूयं धर्मार्थकामानामाचारगोचरं क्रियाकलापं मत्समीपावृणुत इत्युक्तिः । धर्मश्चारित्रधर्मादिस्तस्य अर्थः प्रयोजनं मोदः तं कामयन्ते वांन्ति विशुद्धविहितानुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा मुमुदवस्तेषाम् । किंजूतानां धर्मार्थकामानाम् । निर्ग्रन्थानां वाह्यान्यन्तरग्रन्थिरहितानाम् । किंनूतमाचारगोचरं । जीमं कर्मशत्रूणामपेदया रौद्धम् ।पुनःकिंजूतमाचारगोचरम् । सकलं संपूर्ण पुरधिष्ठितं कुछसत्वैईराश्रयमिति॥४॥ . ( टीका.) हंदि त्ति सूत्रम् । हंदीत्युपप्रदर्शने । तमेनम् ।धर्मार्थकामानामिति । धमश्चारित्रादिस्तस्यार्थः प्रयोजनं मोदस्तं कामयन्तीउन्तीति विशुझवि हितानुष्ठानकरणेनेति धमार्थकामा मुमुक्षवस्तेषां निर्ग्रन्थानां वाह्यान्यन्तरग्रन्थरहितानां शृणुत मम समीपादाचारगोचरं क्रियाकलापं नीमं कर्मशवपेदया रौड़ सकलं संपूर्ण पुरधिष्ठं नुसत्त्वैधुराश्रयमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ नन्नब एरिसं वुत्तं, जं लोए परमञ्च्चरं ॥ विग्लहाणनाइरस, न नूअं न जविस्स॥५॥ (अवचूरिः) वस्तु यहोके प्राणिलोके परमश्चरमत्यन्तःकरं विपुलं मोदहेतुत्वात् संयमस्थानं तमजनशीलस्य तस्य न नूतं न नविष्यत्यन्यत्र जिनमतादिति ॥५॥ (अर्थ.) हवे पाडली गाथार्जमां निग्रंथोना आचारनुं जे कथन तेनो उपन्यास कस्यो बे, तो हवे आ गाथाए करी ते आचार गोचरनुं अर्थ थकी गौरव कहे . हे राजादिको ( अन्नब के ) अन्यत्र एटले जिनमत शिवायना कापिलादिक मतोने विषे को ठेकाणे पण आ प्रकारनो शुक आचार (न एरिसं बुत्तं के०) नेशमुक्तं एटले एवो कह्यो नथी. वली (लोए के) लोके एटले सामान्य लोकने विषे (परमउच्चरं के ) परमपुष्करं एटले जेनुं पालवू घणुं कठिन बे एवो ते आचार । गोचर . तेथीज (विजलहाणनाश्स्स के) विपुलस्थाननाजः एटले गदा हेतुरूप एवा संयमस्थानने नजनारा साधुजने पूर्वे ( ननूअं के०) न नूतं एटले. बाजुं कश् थयुं नथी, तथा (न नविस्स के०) न नविष्यति एटो तेवं बीजुं .. ३ पण नहीं. तेम उपलक्षणथी वर्तमान काले पण तेवु बीजुं नथी. ॥५॥ (दीपिका.) इह अनंतरसूत्रे निर्ग्रन्थानामाचारगोचरस्य यत्कथनं ......... Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । कृतः। अथ तस्यैवार्थतो गुरुतामाह । जो राजादयः जिनमतादन्यत्र कपिलादिमत दृशं यत् पूर्वमुक्तं आचारगोचरं वस्तु यलोके प्राणिलोके परमदुश्चरमत्यन्तदुष्करं वस्तु। विपुलस्थाननाजिनः। कोऽर्थः। विपुलस्थानं विपुलमोदहेत्वात् संयमस्थानं तमजते सेवत इत्येवंशीलः विपुलस्थाननाजी तस्य विपुलस्थाननाजिनः साधोः न नूतं न नविष्यति ॥५॥ (टीका.) धर्मार्थकामानित्युक्तम् । तदेतत्सूत्रस्पर्श नियुक्त्या निरूपयति । तत्र धर्मनिदेपो यथा प्रथमाध्ययने । नवरं. लोकोत्तरमाह ॥ धम्मो वावीसविहो, अगारधम्मोणगारधम्मो अ॥ पढमो अ वारसविहो, दसहा पुण वीयर्ड हो। ॥१२॥व्याख्या धर्मोहाविंशतिविधः सामान्येन छाविंशतिप्रकारः। अगारधर्मो गृहस्थधर्मः। अनगारधमश्च साधुधर्मः। प्रथमश्चागारधर्मो द्वादश विधः। दशधा पुनर्हितीयोऽनगारधर्मो नवतीति गाथासमासार्थः॥१॥व्यासार्थं चाह॥ पंचय अणुवयाई गुणवयाच होंति तिन्नेव॥ सिरकावयाई चनरो, गिहिधम्मो बारसविहो अ ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ पंचाणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरत्यादीनि गुणव्रतानि च नवन्ति त्रीण्येव दिग्नतादीनि । शिदापदानि चत्वारि सामायिकादीनि । गृहिधर्मो छादश विधस्तु एप एवाणुव्रतादिः। अणुव्रता दिखरूपं चावश्यके चर्चितत्वानोक्तमिति गाथार्थः ॥ १३ ॥ साधुधर्ममाह । खंती अ मद्दवाव, मुत्ती तवसंजमे अ बोधवे॥सच्चं सोचं आकिं-चणं च बंनं च जश्धम्मो॥१४॥व्याख्या॥दान्तिश्च मार्दवम् आर्जवं मुक्तिः तपःसंयमौ च वोडव्यौ सत्यं शौचमाकिंचन्यं ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथाकरार्थः । नावार्थः पुनर्यथा प्रथमाध्ययने॥१॥धम्मो एसुवश्को, अस्स चउबिहो उ निकेवो।हेण विहो, चउसहिविहो विनागेणं ॥१५॥व्याख्या॥ धर्म एष उपदिष्टो व्याख्यातः अधुनात्वर्थावसरस्तवेदमाह । अर्थस्य चतुर्विधस्तु निदेपो नामादिनेदात् । तत्रौघेन सामान्यतः पड्विधोऽर्थ थागमनोयागमव्यतिरिक्तो व्यार्थः । चतुःषष्टिविधो विनागेन विशेपेणेति गाथासमुदायार्थः ॥ १५॥ अवयवार्थं त्वाह ॥ धन्नाणि रयणयावर, उपयचनप्पय तहेव .. कुविरं च ॥ हेण उबिहठो, एसो धीरेहिं पन्नत्तो॥१६॥व्याख्या॥धान्यानि यवादी नि, रनं सुवर्णं, स्थावरं नूमिगृहादि, स्पिदं गन्न्यादि, चतुप्पदं गवादि, तथैव कुप्यं च ताम्रकलशाद्यनेकविधम् । उधेन पविधोऽर्थ एपोऽनन्तरोदितः धीरैस्तीर्थकरगणधरैः प्रजातः (प्ररूपित इतिगाथार्थः ॥१६॥ एनमेव विजागतोऽनिधित्सुराह ॥ चवीसा चवीसा, तिगडुगदसहा यणेगविह एव॥सवेसिं पिश्मसिं,विनागमदयं पवकामि॥१७॥व्याख्या ६ चतुर्विशति चतुर्विशतीति चतुर्विशतिविधो धान्यायों रत्नार्थश्च। त्रिदिशधेति।त्रिविधः Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तेम थवाथी देश विराधना तथा सर्व विराधनारहित थाय ठे, ते माटे प्रथम अवगुणो कहे. (जाइं के०) यानि एटले जे ( दस अच्य हाणाई के) दशाष्टकस्थानानि एटले दस अने आउ मली अढार स्थानकोने आश्रय करीने (बालो के०) बाल। एटले बालक ( अवरनई के ) अपराध्यति एटले अपराध करे . ते कवी रीते। अपराध करे में तो के, ( तब के ) तत्र एटले ते अढार स्तानकमाहेढुं (अन्नयरे गणे के०)अन्यतरस्मिन् स्थाने एटले हर को एक स्थानकने विपे प्रमादयी जे वर्त्त, ते (निग्गंथत्ता के०) निर्ग्रथत्वतः एटले निग्रंथ पणा यकी (नस्स के०) नश्यति एटले व्रष्ट थाय डे, एटले साधुनां व्रत नांगे डे.॥ ७॥ . (दीपिका.) ते च गुणा अगुणपरिहारेण अखएका अस्फुटिताच नवन्तीति प्रथममगुणा उच्यन्ते । बालोऽज्ञानी यानि दशाष्टौ अष्टादश स्थानानि असंयमस्थानानि वदयमाणलक्षणानि आश्रित्य अपराध्यति तत्सेवनया अपराधं प्राप्नोति । कथम राध्यतीत्याह । तत्र अन्यतरे अष्टादशानामसंयमस्थानानां मध्ये एकतर स्मिन्नपि स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निर्यन्थत्वा निर्यन्थजावाद् नश्यति निश्चयनयेन अपैति । के। पूर्वोक्तो बाल इति ॥ ७॥ (टीका.) ते चागुणपरिहारेणाखंडास्फुटितानवन्तीति अगुणास्तावमुच्यन्ते ri दसत्ति सूत्रम् । दशाष्टौ च स्थानान्यसंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलदणानि या न्याश्रित्य बालोझोऽपराध्यति तत्सेवनयापराधमाप्नोति । कथमपराध्यतीत्याह । तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन निर्ग्रन्थत्वान्निर्यन्यनावाश्यति निश्चयनयेनापति बाल इति सूत्रार्थः ॥ ७॥ वयनकं कायकं, अकप्पो गिदिनायणं ॥ पलियंकनिसका य, सणाणं सोदवजणं ॥७॥ (अवचूरिः) कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह । व्रतषटुं प्राणातिपातविरत्यादीनि रात्रिनोजनविरतिषष्ठानि । कायषटुं पृथिव्यादयः। अकल्पः शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वदयमाणः। गृहिनाजनं गृहस्थसंबन्धिकांस्यनाजनादि।पर्यङ्कःशयनीय विशेषः। निषद्या। स्नानं देशसर्वन्नेदनिन्नं शोनावर्जनं विनूषणपरित्यागः वर्जन मिति सर्वत्र योज्यम् ॥७॥ (अर्थ.) हवे ते अढारे स्थानकनां नाम कही तेने वर्जवानो उपदेश कहे . ( वयळकं के०) व्रतषट्कं एटले १ प्राणातिपात, ५ मृषावाद, ३ अदत्तादान, ४ अ. ब्रह्मचर्य, ५ परिग्रह, ६ रात्रिनोजन ए ब तथा (कायबकं के०) कायषट्कं एटल Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ... .... दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्।.. ३७७ पृथ्वीकाय, अप्काय,ए तेजस्काय,१७ वायुकाय, ११ वनस्पतिकाय अने १५ त्रसकाय तेनी विराधना तथा ( अकप्पो के०) अकल्पः एटले १३ ठाकल्प आचारादिक, (गिहिनायणं के०) गृहिचाजनं एटले १४ गृहस्थतुं नाजन कांस्यपात्रादिक तथा (पतिअंक के०) १५ पर्यंकः एटले ढालीयो तथा (निसजा के०) निषद्या एटले १६ बेसवानां अनेक प्रकारनां आसन (सिणाणं के०) स्नानं एटले १७ स्नान करवू ते (सोजा के०) १७ शोना ए अढार स्थानक (वजाणं के ) वर्जनं एटले वर्जवां. ॥७॥ ___(दीपिका.) कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह । व्रतषटुं प्राणातिपातविरमणमूषावादविरमणादत्तादान विरमणब्राह्मविरमण परिग्रह विरमणरात्रिनोजनविरमणरूपम् । तथा कायषटुं पृथित्यतेजोवायुवनस्पतित्रसकायरूपम् । अकल्पकः शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वदयमाणः । १३ गृहिनाजनं गृहस्थसंबन्धिकांस्यन्नाजनादि प्रतीतम् । १४ पर्यङ्कः शयनीय विशेषः प्रतीतः। १५ निषद्या च गृह एकानेकरूपा। १६ स्नानं देशतः सर्वतश्च धा । १७ शोजावर्जनं च विजूषापरित्यागः । १७ वर्जनशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते। स्नानवर्जनमित्यादि ॥ ॥ . (टीका.) अमुमेवार्थं सूत्रस्पर्श नियुक्त्या स्पष्टयति । अहारस गणारं, आयारकहाए जाईनाणियाई॥ तेसिं अन्नतराग, सेवंतु न हो सो समणो ॥३३॥व्या॥ अष्टादश स्थानान्याचारकथायां प्रस्तुतायां यानि नणितानि तीर्थकरैः। तेषामन्यतरस्थानं सेवमानो न जवत्यसौ श्रमण आसेवक इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकारः॥ वयबकं कायबक, अकप्पो गिहिजायणं ॥ पलियंकनिसेजा य सिणाणं सोहवऊणं॥३॥व्या॥ व्रतषटुं प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिनोजनविरतिषष्ठानि षड् व्रतानि । कायषटुं पृथिव्यादयः षड् जीवनिकायाः। अकल्पः शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः । गृहिलाजनं गृहस्थसंबन्धि कांस्यनाजनादि प्रतीतम्। पर्यङ्कः शयनीय विशेषः प्रतीतः। निषद्या च गृह एकानेकरूपा । स्नानं देशसर्वनेदजिन्नम् । शोनावर्जनं विनूषापरित्यागः । वर्जनमिति च प्रत्येकमनिसंबध्यते । शोजावर्जनं स्नानवर्जनमित्यादीति गाथार्थः ॥॥ तविमं पढमं गणं, महावीरेण देसिअं ॥ अहिंसा निजणा दिहा, सवन्नएसु. संजमो॥ ए॥ .. ( अवचूरिः ) तत्राष्टादश विधस्थानगणे व्रतषटुं वा अनासेवनहारेणेदं व.. दयमाणलक्षणं प्रथमं गुणस्थानं महावीरेण देशितं कथितम् । अहिंसा निपुणा आ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. धाकर्मापरिजोगाद् दृष्टा साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा । श्रस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः संयमो नान्यत्र ॥ ए ॥ (अर्थ) (मिं के०) तत्रेदं एटले ते अढारस्थानकमाहेलुं था (पढमं के० ) प्रथमं एटले प्रथम (वाणं के०) स्थानं एटले स्थानक (महावीरेण के०) महावीरस्वामी ए (देसि के०) देशितं एटले अनासेवनद्वारे करी कहेलुं छे. ते केम तथा शुं कहेलुं वे तो, (हिंसा के०) जीवदया (निजणा के० ) निपुणा एटले जली घणा सुखनी देनारी एवी (दिघा के०) दृष्टा एटले दीवी बे. ते कारण माटे ( सवनूएस के०) सर्वभूतेषु एटले प्राणिमात्र विषे ( संजमो के०) संयमः एटले संयम राखवो. अर्थात् दया राखवी. ॥ ॥ 1 ( दीपिका . ) गुणा अष्टादशस्थानेषु अखएकास्फुटिताः कर्तव्यास्तत्र विधिमाह । तत्र अष्टादशविधस्थानगणे व्रतपते वा महावीरेण भगवता इदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथमं स्थानमनासेवनद्वारेण देशितं कथितम् । किं तदित्याह । श्रहिंसा न हिंसा हिंसा जीवदया । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्दशितेत्यत आह । किंभूता हिंसा । निपुणा श्राधकर्मा परिनोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा न आगमद्वारेण देशिता । अपि तु दृष्टा साक्षाद्धर्मसाधनत्वेनोपलब्धा । किमिति इयमेव निपुणा इत्याह । यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः संयमो नान्यत्र to कृता दिनोगविधानादिति ॥ ९ ॥ ( टीका. ) व्याख्याता सूत्रस्पर्श निर्युक्तिरधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते । अस्य चायमनिसंबन्धः । गुणा अष्टादशसु स्थानेषु अखएकास्फुटिताः कर्तव्यास्तत्र विधिमाह । तचमं ति सूत्रम् । तत्राष्टादशविधे स्थानगणे व्रतष्टुं वा अनासेवनाद्वारेणेदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथमं स्थानं महावीरेण जगवतापश्चिमतीर्थकरेण देशितं कथितम् । यता हिंसेति । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्दर्शितेत्यत आह । निपुणा आधाकर्माद्यपरिजोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्षा । नो यागमद्वारेण देशिता । अपितु दृष्टा साक्षाद्धर्मसाधनत्वेनोपलब्धा । किमितीयमेव निपुणेत्यत श्राह । यतोऽस्यामेव महावीरदे शितायां सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः संयमो नान्यत्रो द्दिश्य कृतादिनोग विधानादिति सूत्रार्थः ॥ ए॥ जावंति लोए पापा, तसा अश्व यावरा ॥ ते जाणमजाणं वा न ढणे णो विधाय ॥ १० ॥ ( यवचूरिः ) यावन्तो लोके प्राणास्त्रसास्तथा स्थावराश्च तान् रागाद्य निनूतो Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३७ए व्यापादनबुड्या जानन्वा पारतन्त्र्येण वा न हन्यात् । नापिघातयेदन्यैः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणाद् नतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयात् ॥ १० ॥ (अर्थ.) ए पूर्वोक्त जीवहिंसानिषेधने स्पष्ट करी कहे जे. (जावंति के ) यावन्ति एटले जेटला (लोए के०) लोके एटले लोकने विषे ( तसा के०) साः एटले स एवा (अव के) अथवा (थावरा के०) स्थावराः एटले स्थावर एवा (पाणा के)प्राणिनः एटले जीवो जे. (ते के०) तान् एटले ते जीवने (जाणमजाणं वा के) जाननजानन्वा एटले जाणते प्रयोजने अने अजाणते प्रमादे करी ( न हणे के०) न हन्यात् एटले हणे नहि. तेम ( णोविघायए के० ) नापिघातयेत् एटले अनेरा पासे विघात करावे नहि. अने विघात करनार बीजाने अनुमोदे नहि. ॥ १० ॥ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । यतो हि जगवत श्यमाज्ञा यावन्तो लोके केचन 'प्राणिनस्त्रसा वीछियादयः । अथवा स्थावराः पृथिव्यादयस्तान् जानन् रागाद्यजिनूतो व्यापादनबुद्ध्या अजानन् वा प्रमादपारतन्त्र्येण साधुस्तान् जीवान् न हन्यात् स्वयम् । नचाजिघातयेदन्यैर्नच नतोऽप्यन्यान् समनुजानीयात् । अतो निपुणदृष्टेति ॥ १०॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । जावंति सूत्रम् । यतो हि नागवत्याज्ञा । यावन्तः केचन लोके प्राणिनस्त्रसाहीन्डियादयः। अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः। ताञ्जानन् रागाद्यनिनूतो व्यापादनबुड्या अजानन्वा प्रमादपातन्त्र्येण न हन्यात् स्वयम् । नापि घातयेदन्यैः । एकग्रहणे तजातीयग्रहणादू नतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादतो निपुणा दृष्टेति सूत्रार्थः ॥ १०॥ सबे जीवा वि चंति, जीविजं न मरिजिनं ॥ तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंया वज्जयंति णं ॥११॥ (अवचूरिः) सर्वे जीवा अपि वन्ति जीवितुं न मर्तुं प्राणस्य वदनत्वात् । यस्मादेवं तस्मात्प्राणिवधं घोरं रौद्धं कुःखहेतुत्वान्निर्यन्या वर्जयन्ति । णमलंकारे ॥१९॥ (अर्थ.) जीव अहिंसाथीज केम जव्य कहेवाय ते कहे . ( सत्वे विके) सर्वेऽपि एटले सर्वे पण (जीवा के) जीवो (जीविजं के ) जीवितुं एटले जीववाने (छति के०) श्या करे . परंतु (मरि झिालं के.) मर्तुं एटले मरवाने. श्छा करता नथी. कारण के, सर्व प्राणीने जीववानी श्राशा परिपूर्ण रहे . (तम्हा के०) तस्मात् एटले ते कारण माटे (निग्गंथा के०) निर्ग्रन्थाः एटले निग्रंथ एवा साधु (घोरं के०) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस-(४३)-मा. घोरं एटले जयंकर एवा ( पाणवहं के०) प्राणवधं एटले प्राणिवधने (वयंति के ) वर्जयंति एटले त्याग करे . णं ने ते वाक्यालंकारने अर्थे ठे. ॥ ११ ॥ . (दीपिका.) ननु अहिंसैव कथं जव्येत्यत आह । तस्मात्कारणाद् निग्रन्थाः सा. धवः प्राणवधं वर्जयन्ति । किंजूतं प्राणवधम् । घोरं रौद्धं कुःखहेतुत्वात् । तस्मात् कस्मात् । यतः सर्वे जीवा अपि सुखितादिन्नेदा जिन्ना जीवितुमिबन्ति न मर्तुम् । कथम्। प्राणवसनत्वात्तेषां सर्वेषाम् । णमिति वाक्यालंकारे ॥११॥ - ( टीका. ) अहिंसैव कथं साध्वीत्येतदेवाह । सब ति सूत्रम् । सर्वे जीवा अपि पुःखिता दिनेद निन्ना बन्ति जीवितुं न मतुं प्राणवहनत्वात् । यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं घोरं रौड़ कुःखहेतुत्वाद् निग्रन्थाः साधबो वर्जयन्ति लावतः । णमिति वाक्यालंकार इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अप्पणका परहा वा, कोदा वा जवा जया॥ - सिगं न मुसं बूषा, नो वि अन्नं वयावए ॥१३॥ (अवचूरिः) उक्तः प्रथमस्थान विधिः। द्वितीयस्थानमाह । आत्मार्थमात्मनिमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं समानेन' कार्य परार्थमेव वा क्रोधाछा त्वं दास इति । एकग्रहणे तजातीयग्रहणम् । मानाबहुश्रुतोऽहम् । मायातो निदाटनासमर्थोऽहम् । लोनाडोननतरान्नलाने सति प्रान्तस्य शुद्धस्याप्यशुद्धमिदमित्यादि । जयात्किंचितिथं कृत्वा प्रायश्चित्तनयान्न कृतम् । हिंसक परपीडाकारि न ब्रूयात् । नाप्यन्यं वादयेदन्यं वदन्तमपि न समनुजानीयात् ॥ १५ ॥ (अर्थ.) हवे बीजुं व्रत कहे . ( अप्पणहा के) आत्मार्थं एटले पोताने अर्थे तथा (परहं के) परार्थं एटले पारके अर्थ (कोहा वा के) कोधाछा एटले क्रोध थकी एटले तुं दास ने इत्यादि वाक्योए करी ( जर वा के०) यदि वा एटले अथवा मानमायालोले करी तथा (जया के0) जयाहा एटले नये करी (हिंसग के०) हिंसकं एटले हिसा जेथी याय तेढुं (मुसं के०) मृषा एटले खोटुं (न बूआ के०) न ब्रूयात् एटले बोले नहि. अने ( अन्नं वि के०) अन्यमपि एटले बीजाने पण ( नो वयावए के०) नो वादयेत् एटले बोलावे नहि. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) उक्तः प्रथमस्थान विधिः । अथ द्वितीयस्थानविधिमाह । साधुर्मूपावचनं न ब्रूयात् स्वयमात्मना । नापि भूषा अन्यं वादयेत् । एकग्रहणे तजातीयग्रहणादिति न्यायेन अन्यान् मृषा बुबतो न समनुजानीयात् । किंनूतं मृषा। हिंसक Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३८१ परपीडाकारि । सर्वमेव किमर्थं न वदेत् । श्रात्मार्थमात्मनिमित्तम् । कथम् । ग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादिरूपम् । तथा परार्थं वा परनिमित्तं वा एवमेव पूर्ववत् । तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादिरूपम् । एकग्रहणेन तातीयानां ग्रहणमिति न्यायात् । मानात् । कथम्। अबहुश्रुत एवाहं बहुश्रुत इत्यादिरूपम् । मायातो वा । कथम् । जिकाटनस्यालस्येन मम पादपीडा वर्त्तत इत्यादिरूपम् । लोनाद्वा । कथम् । शोजनतरस्यान्नस्य लाने सति अन्तप्रान्तस्याहारस्य एषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादिरूपम् यदि वा जयात् । कथम् । किंचित् पापं कृत्वा प्रायश्चित्तनयान्न कृतं मयेति वदति । एवं हास्यादिष्वपि योजना कार्या ॥ १२ ॥ ( टीका.) उक्तः प्रथमस्थानविधिः । अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह । अप्पड ति सूत्रम् । आत्मार्थमात्मनिमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि । परार्थ वा परनिमित्तं वा । एवमेव तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि । एकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति मानाडाबहुत एवाहं बहुश्रुत इत्यादि । मायातो निहाटनपरिजिहीर्षया पापीडा ममेत्यादि । लोनाछोजनतरान्नलाने सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि । यदि वा जयात् किंचिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तनयान्न कृतमित्यादि । एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम् । अतएवाह । हिंसकं परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा ब्रूयात् स्वयम् । नाप्यन्यं वादयेत् । एकग्रहणे तजातीयग्रहणाच्च ब्रुवतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादित्यादीति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ मुसावा लोगम्मि, सबसाहूहिं गरिदिन | विस्सा सोनूचा, तम्हा मोसं विवकए ॥ १३ ॥ ( अवचूरिः ) मृषावादो हि लोके सर्वसाधुनिर्गर्हितो निन्दितः सर्वत्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात् । अविश्वास्यश्वाविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी स्यात् । यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेत् ॥ १३ ॥ ( . ) वली पण ते मृषावाद वर्जवो एम कहे बे. ( सवलोम्मि के० ) सर्वलोके एटले सर्व लोकने विषे ( मुसावार्ड के० ) मृषावादः एटले मृषावाद ( स साहू हिं के० ) सर्वसाधुनिः एटले सर्व साधुर्जए ( गरिहि के० ) गर्हितः एले जगत्मा निंदित बे. कारण के, ते सर्वने तापकारक बे. तेथी प्रतिज्ञा पालन कराती नयी (च के०) तथा वली मृषावाद करनार पुरुष (जूच्या के०) जूतानां एटले प्राणिमात्रोने ( विसासो के० ) अविश्वास्यः एटले विश्वास करवा अयोग्य एवो Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)-मा. या . ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले तेमाटे ( मोसं के० ) मृषा एटले मृषावादने ( विवए के० ) विवर्जयेत् एटले त्याग करे. अर्थात् मृषावाद न करे. ए वीजुं स्थानक कयुं ॥ १३ ॥ ( दीपिका . ) किमित्येतदेव मृषावदनं नेत्याह । मृपावदो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुनिर्गर्हितो निन्दितोऽस्ति । सर्वत्र तापकारित्वात्प्रतिज्ञातस्यापरिपालनात् पुनर्मृषावादादविश्वास्योऽविश्वसनीयश्च नूतानां प्राणिनां मृपावादी जवेत् । यस्मादेवं तस्मात्साधुर्मृषावादं विवर्जयेत् ॥ १३ ॥ ( टीका . ) किमित्येतदेव मित्याह । मुसावाजत्ति सूत्रम् । मृषावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधु निर्गर्हितो निन्दितः । सर्वत्रतापकारित्वात् । प्रतिज्ञातापालनात् । अविश्वास्यश्चाविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी जवति । यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं ॥ दंतसाद मित्तं वि, उग्गहंसि जाइया ॥ १४॥ ( अवचूरिः ) उक्तो द्वितीयस्थानविधिः । तृतीयस्थानमाह । चित्तवद् द्विपदादि । चित्तवद्धिरण्यादि । अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च । यदि वा बहु मूल्यप्रमाणाज्यां दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणाद्यवग्रहे यस्य यत्तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति ॥ १४ ॥ ( अर्थ. ) हवे श्रीजुं स्थान कड़े ते. ( चित्तमंतं के० ) चित्तवत् एटले द्विपदादि ( वा के०) वली (चित्तं के०) चित्तवत् एटले हिरण्यादि (अप्पं के० ) अल्पं एटले अल्पमूल्यवानुं (जश्वा के ० ) यदिवा एटले अथवा (बहुं के ० ) बहु एटले मूल्य थी अथवा प्रमाणी मोटुं (दंतसोहण मित्तं पि ० ) दन्तशोधनमात्रमपि एटले दंतशोधनमात्र ते एक तृणमात्र पण ( अजा के० ) छायाचित्वा एटले माग्या विना ( उग्गहंसि ho ) अवग्रहे एटले गृहस्थना अवग्रहमां पडेली वस्तुने साधु ग्रहण न करे. ॥ १४ ॥ ( दीपिका. ) उक्तो द्वितीयस्थानविधिः । सांप्रतं तृतीयस्थानविधिमाह । साधवोSयाचित्वा कदाचनापि न किमपि गृह्णन्ति । यतः साधूनां सर्वमवग्रहयाचने गृहस्थैर्दत्तं ग्राह्यं नान्यथा । किं तदाह । चित्तवद् द्विपदादि । अचित्तवद् वा हिरण्यादि । अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च । यदि वा बहु मूल्य प्रमाणाभ्यामेव । किं बहुना । दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणाद्यपि । एतावता साधवस्तृणाद्यप्यदत्तं न गृह्णन्ति किमन्यत् ॥ १४॥ ( टीका. ) उक्तो द्वितीय स्थान विधिः । तृतीयस्थानविधिमाह । चित्तमंत त्ति सूत्रम् । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३३ चित्तवविपदादि वा। अचित्तवछा हिरण्यादि । अल्पं वा मूख्यतः प्रमाणतश्च । यदि वा बहु मूल्यप्रमाणाच्यामेव । किं बहुना। दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि । अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदा चनेति सूत्रार्थः ॥ १४॥ तं अप्पणा न गिएहति नो वि गिएहावए परं॥ अन्नं वा गिएहमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ १५॥ (अवचूरिः) तच्चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वात् । नापि ग्राहयन्ति परं - विरतत्वादेव । अन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव न समनुजानन्ति संयताः॥ १५॥ । (अर्थ.) फरीने पण तेज वात कहे .(संजया के०)संयताः एटले संयत जे साधु ते (तं के ) ते पूर्वोक्त सचित्त अने अचित्त वस्तुने ( अप्पणा के) आत्मना एटले पोते (न गिएहंति के०) न गृहंति एटले ग्रहण करता नथी. तथा (परं के०) वीजापासे (नो वि गिण्हावए के) नापि ग्राहयन्ति एटले ग्रहण करावे पण नहि. (वा के०) वली (गिण्हमाणं पि के०) गृह्णन्तमपि एटले ग्रहण करतो होय तेने पण पोते (नाणुजाणंति के) नानुजानंति एटले अनुमोदना आपे नहि. ॥ १५ ॥ ( दीपिका.) पुनस्तदेवाह । संयताः तमिति तत्पूर्वोक्तं चित्तवदचित्तवदादि आत्मना स्वयं न गृहंति विरतत्वात् । नापि परं प्रति ग्राहयन्ति विरतत्वादेव । तथा श्रन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव न समणुजाणंति नानुमन्यन्ते ॥ १५ ॥ (टीका.) एतदेवाह । तं ति सूत्रम् । तञ्चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतस्वान्नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव । तथान्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयं नानुजानन्ति नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः॥ १५ ॥ . . अबंनचरिअं घोरं, पमायं दुरदिहिअं॥ ____ नायरंति मुणी लोए, जेआययणवजियो ॥१६॥ (अवचूरिः) उक्तस्तृतीयस्थान विधिः। चतुर्थस्थान विधिमाह । अब्रह्मचर्य घोरं मुर्गतिहेतुत्वात् प्रमादमूलत्वादू उराश्रयं उस्सेवमनन्तनवहेतुत्वाद् नाचरन्ति पुनये लोके नेदश्चारित्रनेदस्तदायतनं तत्स्थानं तहर्जिनः ॥ १६ ॥ (अर्थ.) चतुर्थ स्थान विधि कहे . (नेयाययणवडियो के०) नेदायतनवर्जिनः एटले नेद जे चारित्रन्नेदना स्थानक तेने वर्जता अर्थात् चारित्रातिचारथी नय पामता एवा (मुणी के)मुनयः एटले मुनियो (लोए के०) लोके एटले मनुष्य लोकने विपे (उरहिहि के) उरधिष्ठितं एटले पुराराध्य एवा तथा (पमायं के०) प्रमादं एटले Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा, प्रमादनुं मूलकारण एवाने ( घोरं के० ) घोरं एटले रौद्रगतिनुं हेतुरूप एवा ( श्रबंजरिi ho ) ब्रह्मचर्यं एटले ब्रह्मने ( नायरंति के० ) नाचरंति एटले श्रच - रण करता नथी. अर्थात् ब्रह्मसेवन करता नथी. ॥ १६ ॥ ( दीपिका . ) तृतीय स्थान विधिरुक्तः । अथ चतुर्थ स्थानविधिमाह । मुनयो लोके मनुष्यलोकेऽब्रह्मचर्यं प्रतीतं नाचरन्ति न सेवन्ते । किंनूतमब्रह्म । घोरं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात् । पुनः किंनूतमब्रह्म । प्रमादं प्रमादवत् । कथम् । सर्वदा प्रमादमूलत्वात् । पुनः किंनूतमब्रह्म । डुरधिष्ठितं पुराश्रयं दुःसेवं विदित जिनवचनेन अनन्तसंसारहेतुत्वात् । यतश्चैवमतएव मुनयोऽब्रह्म न सेवन्त इत्यर्थः । किंनूता मुनयः । नेदायतनवर्जिनः । नेदश्चारित्रभेदस्तस्यायतनं स्थान मिदमब्रह्मचर्यमेव । उक्तन्यायात्तद्वर्जिनश्चारित्रा तिचारनीरव इत्यर्थः ॥ १६ ॥ ( टीका. ) उक्तस्तृतीयस्थान विधिः । चतुर्थस्थानविधिमाह । अवंति सूत्रम् । ब्रह्मचर्यं प्रतीतं घोरं रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात् । प्रमादं प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् । डुराश्रयं दुस्सेव्यं विदित जिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात् । यतश्चैवमतो नाचरन्ति नासेवन्ते मुनयो लोके मनुष्यलोके । किंविशिष्टा इत्याह । नेदायतनवर्जिनो नेदश्चारित्रभेदस्तदायतनं तत्स्थान मिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिनश्चारित्रा तिचारजीव इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ॥ तम्हा मेदुपसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति णं ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) बीजमधर्मस्य पापस्य महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुद्रयं संघातं विदितै हिकापायाः तस्मान् मैथुनसंसर्ग संबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्यथा वजयन्ति । वाक्यालंकारे ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) वली पण ( अहम्मस्स के० ) अधर्मस्य एटले अधर्मनुं ( मूलं के० ) मूल तथा ( महादोससमुस्सयं के० ) महादोषसमुच्छ्रयं एटले चोरी प्रमुख महोटा दोषोनी उत्पत्तिनुं स्थानक बे, तेमां महादोषनो संचय बे, ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( निग्गंथा के० ) निग्रंथाः एटले निग्रंथ एवा साधु ( एयं के० ) एतत् एटले या ( मेहुण संसगं के० ) मैथुनसंसर्ग एटले मैथुनना संसर्गने (वजयंति के० ) वर्जयंति एटले त्याग करे बे. णं ए वाक्यालंकारार्थ बे ॥ १७ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३८५ ( दीपिका . ) एतदेव निगमयति । णं इति वाक्यालंकारे । निर्ग्रन्याः साधवः तस्मात् कारणात् मैथुन संसर्गं मैथुन संबन्धं योषित आलापाद्यपि वर्जयन्ति । तस्मात् कस्मात् । यत एतदब्रह्मसेवनमधर्मस्य पापस्य मूलं बीजमिति परलोकसंबन्धी अपायः । कष्टं पुनरेतद् महादोषसमुत्र्यं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुत्र्यं संघातवदिति इहलोकसंबन्धी अपायः । कष्टमिति उनयलोक कष्टदातृत्वाद् मैथुनवर्जनं युक्तं साधूनाम् ॥ १७ ॥ ( टीका. ) एतदेव निगमयति । मूलं ति सूत्रम् । मूलं बीजमेतदधर्मस्य पापस्येति पारलौकिकोऽपायः । महादोषसमुछ्रयं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुद्रय संघातव दित्यै दिकोऽपायः । यस्मादेवं तस्मान्मैथुनसंसर्ग मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्या वर्जयन्ति । यमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ बिडमुप्रेइमं लोणं, तिचं सप्पिं च फाणि ॥ न ते संनिदिमिति, नायपुत्तवरिया ॥ १८ ॥ ( अवचूरिः) उक्तश्चतुर्थस्थान विधिः । पञ्चमस्थानविधिमाह । बिडं गोमूत्रा दिपक्कमुङ्गेयं सामुद्रादि । यद्वा । बिडं प्रासुकमुद्भेद्यमप्रासुकमेवं द्विधा लवणम् । तैलं सर्पिश्च । फाणितं द्रवगुड तलवणाद्येवमन्यच्च न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति पर्युषितं न स्थापयन्ति ज्ञातपुत्रवचोरताः ॥ १८ ॥ ( अर्थ. ) हवे पंचम स्थान विधि कहे बे. ( नायपुत्तवर्जरया के० ) ज्ञातपुत्रवचोरताः एटले महावीर स्वामीना वचनमां रक्त एवा अर्थात् महावीर स्वामीना वचन प्र माणे चालनार एवा साधु ( विडं के० ) बिडलवण अथवा गोमूत्रादिपक एवं ( लोणं के० ) लवण तथा ( नेइमं के० ) उद्भेद्यं एटले समुद्रना जलथी यतुं लवण अथवा बिड एटले प्राक ने उसे एटले अप्रासुक लवण कह्युं तथा ( तिल्लं के० ) तैलं एटले तेल ( सप्पि के० ) सर्पिः एटले घृत ( फाशि के० ) फाणितं एटले गोसनी राव ( ते के० ) ते सर्व वस्तुउने ( संनिहिं के० ) संनिधिं एटले रात्रिवास राखवाने ( न इति के० ) इछता नथी. ॥ १८ ॥ ( दीपिका. ) चतुर्थस्थानविधिः प्रोक्तः । अथ पञ्चमस्थानविधिमाह । साधव एतेषां सन्निधिं न कुर्वति पर्युषितम् । कोऽर्थः । रात्रौ रक्षितं न स्थापयन्ति । किंविशिष्टाः साधवः । ज्ञातपुत्रवचोरताः । ज्ञातपुत्रः श्रीवर्द्धमानखामी तस्य वचने निस्संगताप्रतिपादन तत्परे रता सक्ताः । केषां सन्निधिं न कुर्वन्ति तान्याह । विडं गोमू ४९ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. त्रादिकम् १ उद्यं सामुद्रादि २ विडं प्रासुकमुद्भेद्यमप्रासुकमित्येवं द्विप्रकारं लवणं तथा तैलं ३ सर्पिश्च घृतं ४ फाणितं द्रवगुडः ५ एतच्च लवणाद्यपि एवं द्विप्रकारमन्यच्च रात्रौ न रक्षन्तीत्यर्थः ॥ १८ ॥ " ( टीका. ) प्रतिपादितश्चतुर्थस्थान विधिः । इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाह । विडत्ति सूत्रम् । बिडं गोमूत्रा दिपक्कं उज्ञेयं सामुद्रादि । यद्वा विडं प्रासुकमुद्यमप्रासुकमध्येवं द्विप्रकारं लवणम् । तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम् । तत्र तैलं प्रतीतं, सर्पिर्वृतं, फाणितं द्रवगुडः । एतल्लवणाद्येवंप्रकारमन्यच्च न ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति पर्युषितं स्थापयन्ति । ज्ञातपुत्रवचोरता जगवर्धमानवचसि निःसंगताप्रतिपादनपरे सक्ता इति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ लोहस्सेस फासे, मन्ने अन्नयरामवि ॥ जे सिच्या सन्निहि कामे, गिढ़ी पचइए न से ॥ १९ ॥ ( अवचूरिः ) संनिधिदोषमाह । लोजस्यैषोऽनुस्पर्शोऽनुभावः । यदेतत्सं निधिकरणम् । मन्ये मन्यन्ते प्राकृतत्वादेकवचनम् । एवमाहुस्तीर्यकरगणधरा अन्यतरामपि यः स्यात्सं निधिं कामयते सेवते । गृहस्थोऽसौ न प्रव्रजितः । प्रव्रजितस्य दुर्गतेरभावात् ॥ १५ ॥ ( . ) हवे संनिधि राखवाना दोष कहे बे. जे संनिधिनुं करवुं बे, ते ( एस के० ) एषः एटले या चारित्रने विघ्न करनार चतुर्थ कषाय एवा ( लोस्स के० ) arat एटले बोनो (अणुफास के० ) अनुस्पर्शः एटले महिमा बे. ते कारण माटे हुं (मन्ने के० ) मन्ये एटले मानुं हुं के (जे के०) ये एटले जे साधु (अन्नयराम विके०) श्र न्यतरामपि एटले थोडी पण ( संनिहिं के० ) सनिधिं एटले संनिधिने ( सिया के ० ) स्यात् कदाचित् एटले जो कदाचित् ( कामे के० ) कामयते एटले सेवन करे, तो ते साधु (गही के० ) गृही एटले गृहस्थ जाणवो. पण ( से के० ) ते पवण के० ) प्रव्रजितः एटले प्रत्रजित ( न के०) नथी. संनिधि एटले संनिधीयते एटले नजीक करा आत्माने नरकादिकने विषे जेथी तेने संनिधि कहियें. ॥ १७ ॥ ( दीपिका. ) यथ सन्निधिदोषमाह । लोजस्य चारित्र विघ्नकारिणश्चतुर्थकषायस्य एषोऽनुस्पर्श एषोऽनुनावो यडुत संनिधीकरणमिति । यतश्चैवमतो मन्ये मन्यन्ते प्राकृतशैल्या एकवचनम् । एवं तीर्थकर गणधरा आहुः । अन्यतरां स्तोकामपि यः स्यात् यः कदाचित् संनिधिं कामयते सेवते कामी । छातः स जावतो गृही गृहस्थः । नासौ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३८७ प्रव्रजितः । कस्माद्दुर्गति निमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः । संनिधीयते नरकादिषु आत्मा श्र नेनेति संनिधिरिति शब्दार्थात् । प्रत्रजितस्य च दुर्गतिगमनानावादिति ॥ १५ ॥ ( टीका. ) संनिधिदोषमाह । लोनस्स त्ति सूत्रम् । लोजस्य चारित्रविकारिणश्चतुर्थकषायस्य एसएफासत्ति । एषोऽनुस्पर्श एषोऽनुजावो यदेतत्सं निधिकरणमिति । यतश्चैवमतो मन्ये मन्यन्ते । प्राकृतशैल्या एकवचनम् । एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः । अन्यतरामपि स्तोकामपि यः स्यात् यः कदाचित्संनिधिं कामयते सेवते । गृही गृहस्थोऽसौ जावतः प्रत्रजितो नेति दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः । संनिधीयते नरका दिष्वात्मानयेति संनिधिरिति शब्दार्थात्प्रव्रजितस्य च दुर्गतिगमनानावादिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ जं पिवळं व पायं वा, कंबलं पायपुंबणं ॥ तंपि संजमला, धारंति परिहरति ॥ २० ॥ ( यवचूरिः ) यद्येवं तदा वस्त्रादिधारणे कथं साधूनामसंनिधिरित्याह । यद्यप्यागमोक्तं वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वर्षाकल्पादि । पादप्रोंबनं रजोहरणं तदपि संयमलकार्थं पात्रादि तदनावे गृहिजाजने षट्कायवधः । लार्थं वस्त्रं धारयन्ति परिहरन्ति च परिमुञ्जते पुष्टालम्बनेन ॥ २० ॥ (अर्थ) हिं को शंका करे के, साधु वस्त्रादिक राखे बे, तो तेनो ते साधुdr संनिधि दोष केम न लागे ? त्यांक कहे बे के साधु (जं पि के० ) यदपि एटले जे पण आगमोक्त एवा (वढं के० ) वस्त्रं एटले चोलपट्टादि (च के०) वली ( पायं के० ) पात्र एटले पात्र ( वा के० ) वा एटले वली ( कंबलं के० ) कंबलं एटले वर्षाकल्पादि तथा (पाय पुंबणं के० ) पादप्रोञ्बनं एटले रजोहरण ( तं पि के० ) तदपि ते सर्व पुष्टावनी ( संयमला के० ) संयमलार्थं एटले संयमनी लाज पालवाने ( धारयति के०) धारण करे बे. (च के० ) तथा वली (परिहरंति के० ) परिमुंजते एटले जोगवे बे. पात्रादि विना संयमनुं रक्षण थाय नहि. कारण के, गृहस्थना पा मां संयमी जो जोजन करे, तो षट्कायनो वध याय. छाने जे वस्त्र बे, ते लाने अर्थे बे. अथवा एम पण अर्थ थाय के, संयम तेज लका कहियें. ते संयमरूप लकाना रक्षण माटे वस्त्रपात्रादि धारण करे बे. ॥ २० ॥ ( दीपिका. ) अत्राह । यद्येवं वस्त्रादि धारयतां साधूनां कथं न संनिधिरित्याह । साधवो यद्यपि आगमोक्तं वस्त्रं वा । चोलपट्टादि वा १ पात्रं वालाव्वादि २ कंवलं वर्षा - Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. कल्पादि ३ पादप्रोञ्छनं ४ रजोहरणं धारयन्ति पुष्टालम्बनविधानेन । परिहरन्ति च परिजुञ्जते च मूळरहिताः । तदपि किमर्थम् । संयमलजार्थं संयमार्थं पात्रादि । तघ्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहनाजने सति संयमपालनाजावात् । लजार्थं वस्त्रम् । तष्ठ्यतिरेकेण अंगनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लजताया उत्पत्तेः । अथवा संयम एव संयमलजा तदर्थं सर्वमेव वस्त्रादि धारयन्तीत्यादि ॥ २०॥ .. (टीका.) आह । यद्येवं वस्त्रादि धारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत थाह । जं पि त्ति सूत्रम् । यदप्यागमोक्तं वस्त्रं वा चोलपट्टकादि, पात्रं वालाबुकादि, कम्बल वर्षाकल्पादि, पादपुंडनं रजोहरणम्। तदपि संयमलजार्थ मिति संयमार्थं पात्रादि।तव्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थजाजने सति संयमपालनाजावात् । लजार्थं वस्त्रं, तध्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लजातोपपत्तेः । श्रथवा संयम एव लजा तदर्थं सर्वमेतत्रादि धारयन्ति । पुष्टालम्बन विधानेन परिहरन्ति च परिनुजते च मूर्नारहिता इति सूत्रार्थः॥ २० ॥ न सो परिग्गदो वुत्तो, नायपुत्तेण ताणा॥ मुबा परिग्गहो वुत्तो, श्अ वुत्तं मदेसिणा ॥१॥ (अवचूरिः) यतश्चैवं ततो न सोत्ति । नासौ निरनिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षण: परिग्रह उक्तः । बन्धुहेतुत्वाजावात् । केन । शातपुत्रेण वर्धमानेन त्रात्रा खपरत्राणसमर्थेन अपि तु मूळ असत्स्वपि वस्त्रादिष्वनिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वात् । एवमुक्तं महर्षिणा गणधरेण शय्यंजवखामिना ॥१॥ (अर्थ.) (श के० ) इति एटले था प्रकारे ( मदेसिणा के०) महर्षिणा एटले सय्यं नव खामीए सूत्रमा (वृत्तं के०) उक्तं एटले कहेलु डे के, (ताणा के०) त्रात्रा एटले जीवनुं रक्षण करनार एवा (नायपुत्तेण के०) ज्ञातपुत्रेण एटले ज्ञात जे प्रधान दत्रिय सिझार्थ तेमना पुत्र एवा वर्षमान खामीए (सो के०) सः एटले ते संयमपालनार्थ चोलपट्टादिक साधु जे राखे ,ते (परिग्गहो के०) परिग्रहः एटले परिग्रह (न वुत्तो केण) न उक्तः एटले कह्यो नथी.अने(मुछा परिग्गहो के०) मूळ परिग्रहः एटले अविद्यमान वस्त्रादिकने विषे मूळ राखवी तेज परिग्रह (वुत्तो के०) उक्तः एटले कह्यो .॥१॥ (दीपिका.) यतश्चैवं ततो महर्षिणा शय्यंजवेन गणधरेण सूत्र इत्युक्तम् । श्तीति किम् । ज्ञातपुत्रेण झातः प्रधानः दात्रियः सिद्धार्थः तस्य पुत्रेण वर्षमानवामिना नासो निर्ममत्वेन वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तोऽर्थतः । कस्मात् । बन्धहेतु Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३नए त्वानावात् । किंजूतेन ज्ञातपुत्रेण। तारणा त्रात्रा। स्वपरत्राणसमर्थेन।अपितु कः परिग्रहो महावीरेणार्थतः प्रोक्त इत्याह । मूळ परिग्रह उक्तः। असत्स्वपि वस्त्रादिषु लौल्यम्।कुतः।बन्धहेतुत्वात्। शिष्यः प्राह। ननु वस्त्रादीनामनावेऽपि यदि मू तदा वस्त्रादि सन्नावे सति कथं न मूर्छ । उच्यते । साधूनां सम्यग्बोधेन मूळया बीजनूतस्याबोधस्योपघातात् ॥१॥ (टीका.) यतश्चैवमतो एसो ति सूत्रम् । नासौ निरनिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वानावात् । केन। ज्ञातपुत्रेण ज्ञात उदारद त्रियः सिझार्थः तत्पुत्रेण वर्धमानेन त्रात्रा स्वपरपरित्राणसमर्थेन ।अपि तु मूर्गसत्स्वपि वस्त्रादिध्वनिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वादर्थतस्तीर्थकरेण । ततोऽवधार्य इत्येवमुक्तो महर्षिणा गणधरेण । सूत्रे सेऊंनव आहेति सूत्रार्थः ॥२१॥ सबबुवहिणा बुझा, संरकणपरिग्गः ॥ अवि अप्पणो वि देहंमि, नायरंति ममाश्यं ॥२२॥ (श्रवचूरिः) वस्त्राद्यनावे मूळ स्यात् । तद्नावे कथं नेत्याह । सर्वत्रोचितक्षेत्रकाले चोपधिनागमोक्तेन सहिता अपि बुद्धा शाततत्वाः संरक्षणाय षलां कायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति । ममत्वमिति योगः। अप्यात्मनो देहेऽपि ममाश्यं ममत्वं न चरन्ति ॥ २५ ॥ . (थर्थ.) (बुझा के) बुद्धाः एटले यथावत् जाणी लीधुं ने वस्तुतत्त्व जेणे एवा साधु (सबलुवहिणा के ) सर्वत्रोपाधिना एटले सर्वत्र योग्य एवा देत्रकालने विषे श्रागमोक्त उपाधि जे वस्त्रादि तेणे करी (संरकणपरिग्गहे के) संरक्षणपरिग्रहे एटले षटजीवनिकायोना संरक्षणने अर्थे परिग्रह जे ने तेने विषे (थवि के०) अपि एटले पण (अप्पणो वि केu) श्रात्मनोऽपि एटले पोताना पण (देहंमि के ) देहे एटले देहने विषे पण ( ममाश्यं के०) ममत्वं एटले ममत्वादिकने (नायरंति के ) नाचरंति एटले आचरण करता नथी. ॥ ॥ (दीपिका.) बुद्धा यथावज्झातत्त्वाः साधवः संरक्षणपरिग्रहे संरक्षणाय पलां जीवनिकायानां परिग्रहे सत्यपि न आचरन्ति ममत्व मिति उक्तियोजना । केन । सर्वत्र उपधिना सर्वत्र योग्ये क्षेत्रे काले च उपधिना आगमोक्तेन वस्त्रादिना । कुतः । ते परिग्रहे वस्त्रादिरूपे ममत्वं न कुर्वन्तीत्याह । यतस्ते जगवन्त यात्मनोऽपि देह श्रात्मनो धर्मकायेऽपि ममत्वमात्मीयानिमानं विशिष्टप्रतिवन्धसंगतिं न कुर्वन्ति । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहा ३ए राय धनपतसिंघ बहारका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा, वस्तुनस्तत्त्वस्य ज्ञानात् किमनेन वस्त्रादिना तिष्ठतु दूरे तावत् अन्यत् सर्वम् । देहवत् परिग्रहेऽपि न ममत्वमात्मीयानिमानं विशिष्टप्रतिवन्धसंगतिं कुर्वन्ति ॥ २२ ॥ (टीका.) श्राह। वस्त्राद्यनावनाविन्यपि मूर्ग कथं वस्त्रादिनावे साधूनां न नविष्यति । उच्यते।सम्यग्बोधेन तद्वीजनूताबोधोपघातादाह च । सबबति सूत्रम्।सर्वत्रोचिते क्षेत्रे काले चोपधिना आगमोक्लेन वस्त्रादिना सहापि बुझा यथावहिदितवस्तुतत्त्वाः साधवः संरक्षणपरिग्रह इति संरक्षणाय षलां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः। किंवानेन ते हि जगवन्तः अप्यात्मनोऽपि देह इत्यात्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्ट प्रतिबन्धसंगतिं न कुर्वन्ति । ममत्वमात्मीयानिधानं वस्तुतस्वावबोधात् । तिष्ठतु तावदन्यत्। ततश्च देहवदपरिग्रह एव तदिति सूत्रार्थः ॥२२॥ अहो निच्चं तवो कम्म, सबबुझे िवन्निअं॥ जा य लजासमा वित्ती, एगनत्तं च नोअणं ॥१३॥ (अवचूरिः) उक्तः पञ्चमस्थान विधिः। अथ षष्ठस्थान विधिमाह । अहो नित्यं तपः कर्म।अहो इति विस्मये । अपायानावेन तदन्यगुणवृद्धिसंजवादप्रतिपाति तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वबुबैस्तीर्थकरैर्वर्णितं देशितम् । किं विशिष्टम्।या च लजासमा वृत्तिलजासंयमस्तत्समा तुल्या संयमाविरोधिनी वृत्तिर्देहपालना । एकजक्तं व्यत एकसंख्यम् ।जावतः कर्मबंन्धानावाद द्वितीयं जोजनं यत्र ॥ २३ ॥ (अर्थ.) हवे षष्ठ स्थान कहे . (अहो के०) अहो इति आश्चर्ये (निच्चं के०) नित्यं एटले निरंतर ( तवोकम्मं के० ) तपाकर्म ते ( सबबुझेहिं के०) सर्वबुधैः एटले सर्व बुधजनोए एटले विजनोए (वमिश्र के) वर्णितं एटले वर्णन करेलु . ( जाय के ) या च एटले वली जे ( वित्ती के ) वृत्तिः एटले देहपालन रूप वृत्ति (लजासमा के) लजासमा एटले संयम समान बे, ते शुं तो के ( एगलत्तं च नोअणं के) एकनक्तंच नोजनं एटले ते एक नक्त नोजन .॥ २३ ॥ (दीपिका.) उक्तः पञ्चमः स्थान विधिः। अधुना षष्ठस्थान विधिमाह । अहो इति आश्चर्ये। तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वतीर्थकरैर्वर्णितं देशितम्। किंविशिष्टं तपःकर्म। नित्यमपायस्य अनावेन गुणवृद्धिसंजवात अप्रतिपात्येव । किविशिष्टं तप इत्याह । या च वृत्तिर्वर्तनं देहपालना। किंतूता वृत्तिः। लजासमा लजासंयमः तेनसमा सदृशी तुल्या। संयमाविरोधिनीस्यर्थः। च पुनः एक जक्तं नोजनं एकनक्तं अव्यतो नावतश्च यस्मिन्नोजने तत्तथा । तत्र अव्यत एकं एकसंख्यानुगतं नावत एकं कर्मबन्धस्याजावेना Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ३१ द्वतीयं तदिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा नावत एकत्वस्य अन्नावादिति ॥३॥ (टीका.) उक्तः पञ्चमस्थान विधिरधुना षष्ठमधिकृत्याह । अहो ति सूत्रम् । अहो नित्यं तपः कर्मेति।अहो विस्मये। नित्यं नामापायाजावेन तदन्यगुणवृद्धिसंनवाप्रतिपात्येव तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं सर्वबुद्धः सर्वतीर्थकरैवर्णितं देशितम्। किंविशिष्टमियाह । यावबजासमावृत्तिः । लजा संयमस्तेन समा सशी तुल्या संयमाविरोधिनीयर्थः । वर्तनं वृत्तिर्देहपालना एकनक्तं च नोजनम् । एकं नक्तं अव्यतो जावतश्च एकस्मन् नोजने तत्तथा।व्यत एकमेकसंख्यानुगतं, नावत एकं कर्मबन्धाजावादहितीपम्। तदिवस एव रागादिरहितस्यान्यथा नावत एकत्वाजावादिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ संति मे सुदुमा पाणा, तसा अदुव थावरा ॥ जाई रा अपासंतो, कदमेसणिअंचरे ॥ २४ ॥ (श्रवचूरिः) रात्रिनोजने प्राणातिपातसंचवेन कर्मवन्धं द्वितीयं दर्शयति । संयेते प्रत्यक्षोपलच्यमानस्वरूपाः सूदमाः प्राणिनस्त्रसा अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः। यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् कथमेषणीयं चरिष्यते सत्वानुपरोधेन नोदयते असंचव एवैषणीयस्य ॥ २४ ॥ (अर्थ.) हवे रात्रिनोजनमा प्राणियोनो अतिपात जे तेथी कर्मबंध साथे सहितीयता बतावे . (श्मे के०)आ प्रत्यद जपलज्यमानस्वरूप एवा (तसा के०) त्रसाः रटले त्रस जीवो (अव केu) अथवा (थावरा के०) स्थावराः एटले स्थावरो तथा "सुहुमा केय) सूक्ष्माः एटले सूम (पाणा के०) प्राणाः एटले प्राणीयो (संति के०) , जाई के०) यान् एटले जे प्राणियोने (रा के०) रात्रौ एटले रात्रिने विषे, (अपासंतो के ) अपश्यतः एटले न जोता एवा साधुळे (कहं के) कथं एटले केम (एसणिधे के०) एषणीयं एटले एषणीयने (चरे के०) चरेत् एटले लोगवशे ॥ २४ ॥ (दीपिका.) अथ रात्रिनोजने प्राणानामतिपातसंजवेन कर्मवन्धेन सह सहितीयतां दर्शयति।श्मे एते प्रत्यक्षमुपलन्यमानस्वरूपाःप्राणिनःसंन्ति जीवा वर्तन्ते। किं. विशिष्टाःप्राणिनः। सूमाः श्लदणाः।के ते। त्रसादीन्जियादयः। अथवा स्थावराः पृ. थिव्यादयः। यान् प्राणिनो रात्रौ चक्षुषा अपश्यन् साधुः कथमेषणीयं चरिष्यति जोक्ष्यते । असंजव एषणीयस्य रात्रौ। कथम् । सत्वानां घातात् ॥ २४॥ (टीका.) रात्रिनोजने प्राणातिपातसंजवेन कर्मबन्धसहितीयतां दर्शयति । संति मे ति सूत्रम् । सन्त्येते प्रत्यदोपलच्यमानखरूपाः सूक्ष्माः प्राणिनो जीवा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. स्त्रसा वीन्छियादयः अथवा स्थावराः पृथिव्यादयः।यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् चक्षुषा कथमेषणीयं सत्त्वानुपरोधेन चरिष्यति जोयते च । असंचव एव रात्रावेषणीयचरणस्येति सूत्रार्थः ॥२४॥ उदनवं बीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं॥ दिया ताई विवजिजा,रा तब कहं चरे॥२५॥ (अवचूरिः) रात्रिनोजनदोषमनिधाय ग्रहणगतमाह । उदकाईमेकग्रहणे तजातीयानां ग्रहणात् सस्निग्धादिग्रहः। बीजसंसक्तमोदनादि । अथवा बीजानि . पृथग्मूलान्येव । संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति। प्राणिनः संपातिमादयो निपतिता मह्यां जवन्ति । दिवा तान्युदका णि विवर्जयेत् । रात्रौ तत्र कथं चरेत् ॥ २५॥ (अर्थ.) हवे रात्रिनोजनना दोष ग्रहण करवाने माटे सूत्र कहे . ( उदजवं के०) पाणीए करी जीना एवा अने (बीअंसंसत्तं के ) बीजसंसक्तं एटले बीजे करी संसक्त एटले जेमां बीज पड्या होय एवो आहार होय तथा ( महिं के) मयां एटले पृथ्वीपर (पाणा के०) प्राणाः एटले प्राणियो (निवडिया के) निपतिताः एटले पड्या होय, ( दिया के०) दिवा एटले दिवसे (ताई के) तान् एटले ते जीवोने ( विवजिआ के) विवर्जयेत् एटले वर्जे, पण ( रा के ) रात्रिए ( तब के०) तत्र एटले ते ठेकाणे ( कहं चरे के०) कथं चरेत् एटखे केम संयम रक्षण पूर्वक चाले ॥२५॥ (दीपिका.) एवं रात्रिनोजने दोषं कथयित्वा ग्रहणगतंदोषमाह। एतानि उदका. औदीनि दिवा पापन्नीरुश्चनुषा पश्यन् विवर्जयेत्। परं रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमस्य श्रनुपरोधेन । असंचव एव शुद्धचरणस्य।कानि तानि उदकाआदीनीत्याह । उदकार्ड पूर्ववत् । एकग्रहणेन तजातीयानां सस्निग्धादीनां ग्रहणं । तथा बीजसंसक्तं बीजेन संसतं मिश्रं तदोदनादिकमिति शेषः। अथवा बीजानि पृथक्नूतान्येव।संसक्तं चरनालाद्यपरेण मिश्रम् । तथा प्राणिनः संपातिमप्रनृतयो मह्यां पृथिव्यां निपतिताः संजवन्ति। तत उदकार्डादीनि रात्रौ अनवलोकनेन वर्जयितुमशक्यत्वेन विशेषतः साधोश्चरणानावः ॥ २५॥ (टीका.) एवं रात्रौ नोजने दोषमनिधायाधुना ग्रहणगतमाह। उदउद्धं ति सूत्रम् । उदका पूर्ववदेकग्रहणे तजातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः । तथा बीजसंसक्तं बीजैर्मिश्रमोदनादीति गम्यते । अथवा बीजानि पृथगन्जूतान्येव । संसक्त Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके पष्ठमध्ययनम् । ३३ चारनालाय परेणेति तथा । प्राणिनः संपातिमप्रनृतयो निपतिता मह्यां पृथिव्यां संजवन्ति । ननु दिवाप्येतत्संभवत्येव । सत्यम् । किंतु परलोकनी रुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकार्डादीनि विवर्जयेत् । रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमानुपरोधेनासंजव एव शुद्धचरणस्येति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ एच दोसं दहूणं, नायपुत्ते नासि ॥ सवादारं न मुंजंति, निग्गंथा राइनोणं ॥ २६ ॥ ( अवचूरिः) उपसंहरन्नाह । एतं चानंतरोदितं प्राणिहिंसादिरूपं वान्यमात्मनिधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण जाषितम् । सर्वाहारं चतुर्विधमध्यशनादिलक्षणं न जुञ्जते निर्ग्रन्या रात्रिभोजनम् ॥ २६ ॥ (अर्थ. ) हवे अधिकारने पूर्ण करता थका कहे बे. (निग्गंथा के० ) निर्यथाः एटले निर्यय एवा साधु, ( नायपुत्ते के० ) ज्ञातपुत्रेण एटले महावीरस्वामी ए ( नासि के० ) जाषितं एटले को एवो (एयं के० ) एतं एटले या पूर्वोक्त प्राणिहिंसारूप ( दोसं के० ) दोषं एटले दोषने (च के० ) बीजा आत्मविराधनादि लक्षण एवा दोषने पण चक्षुए करी (दहूणं के०) दृष्ट्वा एटले जोने (सव्वाहारं के०) सर्वाहारं एटले चतुर्विध अशनादिकने श्रीने ( राइनो के० ) रात्रिभोजनं एटले रात्रिभोजनने (न मुंजंति के ० ) न भुञ्जते एटले करता नथी. ए बहुं व्रत कयुं ॥ २६ ॥ ( दीपिका. ) नमधिकारं पूर्ण कुर्वन्नाह । निर्मन्थाः साधवः सर्वाहारं चतुविधमप्यशनादिकमाश्रित्य रात्रिभोजनं न भुञ्जते । किं कृत्वा । एतं पूर्वोक्तं प्राणिहिंसारूपं । चशब्दादन्यमात्मविराधनादिलक्षणं दोषं चक्षुषा दृष्ट्वा । किंनूतं दोषम् । ज्ञातपुत्रेण श्रीमहावीरदेवेन जगवता जाषितं कथितम् ॥ २६ ॥ ( टीका. ) उपसंहरति । एवं चत्ति सूत्रम् । एतं चानन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपमन्यं चात्मविराधना दिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण जगवता जाषितमुक्तं सर्वाहारं चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते निर्ग्रन्थाः साधवो रात्रिनोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ पुढविकायं न हिंसंति, मासा वयसा कायसा ॥ तिविदेणं करणजोएणं, संजया सुसमादिश्रा ॥ २७ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तं व्रतषटुमिदानीं कायषटुमाह । पृथ्वीकार्य न हिंसन्त्या लेख ५० Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. नादिना । मनसा वाचा कायेन । त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रवृतिकरणादिरूपेण संयताः सुसमाहिता उपयुक्ताः ॥ २७ ॥ (अर्थ.) हवे बकाय कहे . ( सुसमाहिया के ) सुसमाहिताः एटले सुसमाधिवंत एवा ( संयता के ) संयताः एटले साधु (पुढ विकायं के०) पृथ्वीकायं एटले पृथ्वीकायने (मणसा के) मनसा एटले भने करी ( वयसा के०) वाचा एटले वचने करी अने ( कायसा के ) कायेन एटले कायाए करी ( तिविहेण के) त्रिविधेन एटले त्रण प्रकारना ( करणजोएणं के० ) करणयोगेन एटले करण करावण अनुमोदन वडे करीने (न हिंसंति के०) हणता नथी. ॥ ७ ॥ (दीपिका. ) एवं व्रतषटुं कथितम् । अथ कायषटुं कथ्यते । तत्र पूर्व पृथिवीकायमाश्रित्याह । संयताः साधवः पृथिवीकायं न हिंसन्ति आलेखनादिप्रकारेण । केन। मनसा वाचा कायेन । उपलदणमेतदित्याह। त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रतिनिः करणकारणानुमोदनारूपेण । किंजूताः संयताः । सुसमाहिता नद्युक्ताः ॥ २७ ॥ (टीका.) उक्तं व्रतषटमधुना कायषटमुच्यते । तत्र पृथिवीकायमधिकृत्याह । पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथ्वीकार्य न हिंसन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन । उपलक्षणमेतदत एवाह । त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रवृतितिः। करणादिरूपेण । के न हिंसन्तीत्याह । संयताः साधवः सुसमाहिता उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ॥२७॥ पुदविकायं विहिंसंतो, हिंसईज तयस्सिए॥ तसे अ विविद पाणे, चकुसे अ अचकुसे ॥श्न॥ (अवचूरिः) अत्रैव हिंसादोषमाह। पृथ्वीकार्य हिंसन् हिनस्त्येव । तुरेवार्थे । तः । दाश्रितान् पृथ्व्याद्याश्रितान् सान् विविधान् प्राणिनो हीन्डियादीन् वा स्थावरांश्च चाकुषान् चकुरिन्द्रियग्राह्यान् अग्राह्यांश्च ॥ २७ ॥ ... (अर्थ.) (पुढविकायं के) पृथ्वीकार्य एटले पृथ्वीकायने ( विहिंसंतो के०) विहिंसन् एटले विशेषे करी हणतो थको (तयस्सिए के०) तदाश्रितान् एटले ते पृथ्वीकायने आश्रयी रहेला एवा (तसे के०) सान् एटले त्रस प्राणीउने (य के०) च एटले वली ( विविहे पाणे के०) विविधान् प्राणान् एटले अनेक प्राणीउने तथा (चकुसे के) चाकुषान् एटले चनुए देखाय एवा जीवने तथा (अचकुसे के) अचाकुषान् एटले चनुथी नहि देखाय एवा जीवोने एटले सूक्ष्म अने बादर एवा जीवोने ' (हिंसर के) हिनस्ति एटले हणे . ॥॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३५ ( दीपिका ) अत्रैव हिंसादोषमाह । साधुः पृथिवीकायमालेखनादिना प्रकारेण हिंसन् तु निश्चयेन हिनस्त्येव । कानित्याह । प्राणान्छीडियादीन् । किंविधान् । अ. नेकप्रकारान् । सान् चशब्दात् स्थावरान् अप्कायादीन् । किंजूतान् प्राणान् । तदाश्रितान् पृथिवीसमाश्रितान्। पुनः किंजूतान् प्राणान् । चाकुषान् चकु ह्यान् कांश्चित् । पुनः किंजूतान् प्राणान् । अचाकुषान् चकुरिंजियेण अग्राह्यान् ॥ २७ ॥ . __(टीका. ) अत्रैव हिंसादोषमाह । पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथिवीकार्य हिंसन्नालेखनादिना प्रकारेण हिनस्त्येव । तुरवधारणार्थे । व्यापादयत्येव तदाश्रितान् पृथिवीश्रितान् सांश्च विविधान् प्राणिनो हीन्द्रियादीन् । चशब्दात्स्थावरांश्चाप्कायादीन् चाकषांश्चाचाक्षुषांश्च चकुरिन्द्रियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ . . । तम्हा एनं विप्राणित्ता, दोसं उग्गश्वट्टणं॥ . पुढविकायसमारंनं, जावजीवा वजाए ॥२॥ (श्रवचूरिः) तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसादिलक्षणं उर्गतिवर्धनं पृथ्वीकायसमारंनं यावजीवमेव वर्जयेत् ॥ २५ ॥ (अर्थ.) एम बे, त्यारें साधुए शुं करवू ते कहे . (तम्हा के०) तस्मात् एटले · ते कारण माटे ( एरं के ) एतं एटले आ (दोसं के०) दोषं एटले पूर्वोक्त दोषने (विश्राणित्ता के०) विज्ञाय एटले जाणीने (उग्गश्वट्टणं के०) उर्गतिवर्षानं एटले उर्गतिने वधारनार एवा ( पुढ विकायसमारंजं के ) पृथिवीकायसमारम्नंएटले पृथ्वीकायना समारंचने (जावजीवाइं के) यावजीवं एटले यावजीव पर्यंत (वझाए के०) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ए॥ : ( दीपिका.) यस्मादेवं ततः किं साधुना कर्तव्यमित्याह । यस्मादेवं तस्मात्पृथिवीकायसमारंनमालेखनादिना यावजीवं साधुर्वर्जयेत् । किं कृत्वा । एतं पूर्वोक्तं दोषं विज्ञाय पृथिव्याश्रितजीवहिंसालदणं दूषणं ज्ञात्वा । किंजूतं दोषम् । मुर्गतिवईनं संसारवर्डनम् ॥ ए॥ । (टीका.) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम् । तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसालदणं उर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं पृथिवीकायसमारंनमालेखनादि यावजीवं या; वङीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ३७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. आजकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा॥ तिविदेण करणजोएण, संजया सुसमादित्रा॥३०॥ अानकायं विहिंसंतो, हिंसई न तयस्सिए॥ तसे अविवि पाणे, चस्कुसे अ अचस्कुसे ॥३१॥ तम्दा एअं विआणित्ता, दोसं झुग्गवढणं ॥ आनकायसमारंनं जावजीवाई वऊए ॥ ३२॥ . (श्रवचूरिः) उक्तः सप्तमस्थान विधिः। अथाष्टममाह । स्पष्टम् ॥३०॥३१॥३॥ (अर्थ.) हवे अष्टम स्थान विधि कहे . आत्रीशमी, एकत्रीशमी अने वत्रीशमी गाथानो अर्थ अनुक्रमे सत्तावीसमी, अहावीसमी, गणत्रीसमी गाथाना अर्थ समान करवो. मात्र फेर एटलो डे के, जे ठेकाणे त्रणे गाथामां पुढवीकाय एवं पद बे, ते ठेकाणे आत्रणे गाथामां अप्काय एवं पद , तेनो अर्थ अप्काय जीव एवो करवो. ॥३०॥३१॥३२॥ (दीपिका.) सप्तमस्थान विधिरुक्तः । अथाष्टमस्थानविधिः कथ्यते । इदं गाथात्रयं पृथिवीकायगाथात्रयं यथा पूर्वं व्याख्यातं तथा व्याख्येयम् । नवरं तत्र पृथिवीनाम्ना अत्राप्कायनाम्ना ॥ ३० ॥ ३१ ॥३॥ .. (टीका.) उक्तः सप्तमस्थानविधिः । अधुनाष्टमस्थानविधिमधिकृत्योच्यते। श्राजकायं ति सूत्रम् । सूत्रत्रयमकायानिलापेन नेयम्। ततश्चायमप्युक्त एव ॥३॥३१॥३॥ जायतेअंन श्छति, पावगं जलिश्त्तए॥ तिकमन्नयरं सद, सवन वि उरासयं ॥३३॥ (श्रवचूरिः) नवमस्थानमाह । जाततेजसमग्निं नेलन्ति मनःप्रतिनिरपि पापमेव पापकं प्रचूतसत्त्वापकारित्वेनाशुजम् । किं नेबन्तीत्याह । ज्वलयितुं वृद्धिं नेतुं तीक्ष्णं बेदकरणात्मकमन्यतरत्सर्वतोधारं शस्त्रं सर्वतोऽपि पुराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयम् ॥ ३३ ॥ (अर्थ.) हवे नवमस्थान कहे जे. वली साधु (पावगं के०) पापकं एटले पापरूप (तिकं के०) तीक्ष्णं एटले तीक्ष्ण (अन्नयरं के०) अन्यतरत् एटले सर्वतो धारावाला (सबं के०) शस्त्र समान अने (सव के०) सर्वतः एटले सर्वस्थते (कुरासयं के) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ... . ३ए कोथी पासे न जवाय एवा (जायतेनं के) जाततेजसं एटले अग्निने (जलश्त्तए के०) ज्वलयितुं एटले ज्वलन करवाने (न खंति के०) श्छता नथी॥ ३३ ॥ (दीपिका.) सांप्रतं नवमस्थान विधि कथयति।साधवः जाततेजसमनिकायं मनःप्रतिनिरपि ज्वलयितुमुत्पादयितुं वृद्धिं प्रापयितुं न श्छन्ति। किंनूतं जाततेजसम्। पापकं पाप एव पापकस्तम् । कथम् । प्रनूतजीवसंहारकारकत्वात् । पुनः किंनूतम्।। जाततेजसम् तीक्ष्णं बेदकरणखरूपमन्यतरं शस्त्रमेकधारादिशस्त्ररूपं न । किंतु सर्वतोधारशस्त्रम् श्रत एव सर्वतोऽपि उराश्रयं सर्वतोधारत्वेनानाश्रयणीयमित्यर्थः ॥ ३३ ॥ (टीका. ) सांप्रतं नवमस्थान विधिमाह । जायतेथे ति सूत्रम् ।जाततेजा अग्निःतं जाततेजसं नेहन्ति । मनःप्रतिनिरपि पापकं पाप एव पापकस्तं प्रनूतसत्त्वापकारित्वेनाशुलमित्यर्थः । किं नेबन्तीत्याह । ज्वलयितुमुत्पादयितुं वृर्षि वा नेतुम् । किंवि: शिष्टमित्याह । तीक्ष्णं बेदकरणात्मकमन्यतरत् शस्त्रं सर्वशस्त्रम् । एकधारादिशस्त्रव्यक्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति जावः ।अत एव सर्वतोऽपि उराश्रयं सर्वतोधारत्वे: .. नानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ पाईणं पडिणं वा वि, उहँ अणुदिसामवि ॥ अहे दाहिणन वा वि, ददे उतरवि अ॥३४॥ - (श्रवचूरिः) प्राच्या प्रतीच्यां वापि ऊ मनुदिदवपि। सप्तम्यर्थे षष्ठी । अधों .. दक्षिणतश्चापि दहति नरमीकरोति उत्तरतोऽपि च ॥ ३४ ॥ (अर्थ.) एज वली स्पष्ट करता थका कहे . ते अग्नि (पाहणं के) प्राच्यां एटले पूर्व दिशामां तथा (पडिणं के०) प्रतीच्यां एटले पश्चिम दिशामां (उडूं के०)जीम् एटले ऊर्ध्व दिशामां अने (अणुदिसामवि के०) अनुदिव पि एटले विदिशिमा (अहे के) अधः एटले अधोदिशिमां तथा (दाहिण वा वि के०) दक्षिणतो वापि एटले दक्षिण दिशामां पण (उत्तर विश्र के)उत्तरतोऽपि च एटले उत्तर दिशामां पण दाह्य वस्तुने (दहे के०) दहति एटले बाले. . ॥ ३४ ॥ . (दीपिका.) एतदेव स्पष्टं कुर्वन्नाह । अमिरिति शेषः । प्राच्या पूर्वस्यां दिशि, तथा प्रतीच्या पश्चिमायां दिशि, उर्ध्वं, अणुदिसामवि । सप्तम्यर्थे षष्ठी। अध इति अधोदिशि, पुनर्दक्षिणतश्चापि, दाह्यं वस्तु दहति जस्मसात् करोति । सर्वासु दिनु विदिनु च जीवसंहारं करोतीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । पाहणं ति सूत्रम् । प्राच्या प्रतीच्यां वापि पू. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एन राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. यां पश्चिमायां चेत्यर्थः । ऊर्ध्वमनु दिदवपि । सुपां सुपो जवन्तीति सप्तम्यर्थे पष्ठी । विदिदवपीत्यर्थः । अधो दक्षिणतश्चापि दहति दाॉ जस्मीकरोत्युत्तरतोऽपि च । सर्वासु दिनु विदिक्कु च दहतीति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ आणमेसमाधान, हववाहो न संस.॥ तं पश्वपयावहा, संजया किंचि नारजे ॥ ३५॥ __ (अवचूरिः) भूतानामेष आघातहेतुत्वात् आघातः । हव्यवाडग्निर्न संशयः । तं हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थमालोकशीतापनोदार्थ किंचित्संघटनादिना नारनते ॥३५॥ _ (अर्थ.) ए कारण माटे (नूआणं के०) जूतानां एटले नूतप्राणिमात्रने (एस के०) एषः एटले आ (हत्ववाहो के ) हव्यवाट् एटले अग्नि ( आघा के०) आघातः एटले आघातनो करनारो जे. तेमां (न संसर्च के०) न संशयः एटले संशय नथी. ते कारण माटे (तं के०) ते अग्निने (पश्व के०) प्रदीप एटले प्रदीपने अर्थे दीवाने अर्थे तथा (पयावहा के०)प्रतापार्थं एटले तापने अर्थे ( संजया के०) संयताः एटले साधु (किंचि के०) किंचित् एटले कांश्क पण (नारने के०) नारजन्ते आरंज करता नथी. ॥३५॥ (दीपिका.) यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । जूतानां स्थावरत्रसानामेष हव्यवाहो वन्हिः आघातो न संशयः। एवमेव तदाघात एवेति नावः। ततः कारणात् संयताः तं वह्नि प्रदीपार्थ प्रकाशकरणाय प्रतापनार्थं च शीतनांशाय किंचित् संघटनादिनापि न श्रारजन्ते साधुधर्मनाशननीत्या ॥ ३५ ॥ (टीका.) यतश्चैवमतो नूआण ति सूत्रम् । नूतानां स्थावरादीनामेष आघात आघातहेतुत्वादाघातः । हव्यवाहोऽग्निर्न संशय इत्येवमेवैतदाघात एवेति नावः । येनैवं तेन तं हव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थमालोकशीतापनोदार्थं संयताः साधवः । किंचित्संघटनादिनापि नारजन्ते । संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३५॥ तम्हा एअं विप्राणित्ता, दोसं उग्गश्वढणं ॥ तेनकायसमारंनं, जावजीवाई वजए ॥३६॥ (अवचूरिः ) तम्हा इति । सुगमम् ॥ ३६॥ (अर्थ.) (तम्हा के) तस्मात् एटले ते कारण माटे, साधु (जुग्गर वहणं के०) उर्गतिवर्धनं एटले पुर्गतिने वधारनार एवा ( एवं के०) एतं एटले आ (दोस) दोषं एटले दोषने ( विश्राणित्ता के०) विज्ञाय एटले जाणीने (तेउकायं के ) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम्। ३एए तेजस्कायं एटले अग्निकायना (समारंजं के०) समारंजने (जावजीवा के) यावजीवमेव एटले जावजीव पर्यंत (वजाए के) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ३६ ॥ . ( दीपिका.) यस्मादेवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । पूर्ववत् उक्तिलापनिका अर्थश्च कार्यः । नवरमनिकायनाम ग्राह्यम् ॥ ३६ ॥ (टीका.) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३६ ॥ अपिलस्स समारंनं, बुहा मन्नति तारिसं ॥ सावज्जबहुलं चेअं; नेअंताहिं सेविअं॥३७॥ (अवचूरिः ) उक्तं नवमस्थानमधुना दशमस्थानमाह । अनिलस्य समारम्नं तालवृन्तादिन्तिः करणं बुद्धा मन्यन्ते तादृशमग्निसमारंजसदृशं सावधबहुलं पापनूयिष्ठं चैवमिति कृत्वा नैनं त्रातृभिः सुसाधुभिः सेवितम् ॥ ३७॥ (अर्थ.) हवे दशम स्थान विधि कहे . (बुझा के ) बुझाः एटले तीर्थंकरो (एवं के) आ प्रकारे (सावजबहुलं के०) सावद्यबहुलं एटले सावध करी बहुल एवा (अनिलस्ल के०) अनिलस्य एटले वायुकायना (समारंजं के०) समारंजने (तारिसं के) तादृशं एटले पूर्वोक्त जेवो अनिकायनो संमारंन कह्यो तेवा ने (मन्नंति के०) मन्यन्ते एटले भाने बे. ते माटे (ताहिं के) त्रातृनिः एटले षट्कायरक्षक साधुए (न सेविअं के०) न सेवितं एटले सेवन करेलो नथी. अर्थात् साधुयें ते सेवन करवो नहि. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) इति नवमस्थान विधिः कथितः । अथ दशमस्थान विधिः कथ्यते। बुझास्तीर्थकरा अनिलस्य वायुकायस्य समारंनं व्यजनादिनिः करणं तादृशमग्निकायसमारंजसदृशं मन्यन्ते जानन्ति । तथा एवं वायुकायसमारंजं सावद्यबहुलं पापनूयिष्ठमिति कृत्वा सर्वकालमेव न एनं ताग्निर्जीवरदाकारकैः साधुनिः सेवितमाचरितमिति मन्यन्ते बुझा एव ॥ ३७॥ (टीका.) उक्तो नवमस्थान विधिः । सांप्रतं दशमस्थानविधिमधिकृत्याह । श्रपिलस्स त्ति । अनिलस्थ वायोः समारम्नं तालवृन्तादितिः करणं बुद्धास्तीर्थकरा म. न्यन्ते जानन्ति । तादृशं जाततेजःसमारम्नसदृशं सावद्यबहुलं पापनूयिष्ठं चैतमिति कृत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृभिः सुसाधुनिः सेवितमाचरितं मन्यन्ते बुझा एवेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. तालिअंटेन पत्तेण, साहाविढुअणेण वा ॥ न ते वीश्नमिति, वेआवेऊण वा परं॥३०॥ - (श्रवचूरिः) तालवंतेन पत्रेण शाखाविधूननेन वा न ते वीजितुमिछति श्रास्मानमात्मना । नापि वीजापयितुं वा परम् ॥ ३० ॥ (अर्थ.) हवे वली ते पूर्वोक्त वात स्पष्ट करता बता कहे . (ते के०) ते उत्तम साधु ( तालिशंटेण के०) तालवृंतेन एटले तालना विंजणायें करी ( पत्तेण के) पत्रेण एटले पांदडायें करी (वा के०) वली (साहाविहुअणेण के०) शाखा विधूननेन एटले वृदनी शाखाना हलाववे करी ( वीचं के०) वीजितुं एटले वींजवाने अर्थात् पवन नाखवाने (न श्छति के०) श्वता नथी. तेम (वा के०) वली (परं के०) परने एटले बीजापासे वायु नखावे नहीं, अने नाखताने अनुमोदे नहि. ॥ ३७॥ __ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टीकुर्वन्नाह । ते साधवः तालवृन्तेन १ पत्रेण २ शाखाविधूननेन वा ३ कृत्वा आत्मनात्मानं वीजितुं नेबन्ति । नापि तालवृन्तादिभिः परैः श्रात्मानं बीजयंति । नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्ते । तालवृन्तादीनां खरूपं यथा षट्जीवनिकायां व्याख्यातं तथा शेयम् ॥ ३० ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । तालियंटेण त्ति सूत्रम् । तालवृन्तेन पत्रेण शाखावि. धूननेन वेत्यमीषां स्वरूपं यथा षड्जीव निकायिकायाम्।न ते साधवो वीजितुमिछन्त्यात्मानमात्मना । नापि वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिनिरेव । नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ ___जं पि व व पायं वा, कंबलं पायपुंबणं॥ न ते वायमुरंति, जयं परिदरंति अ॥३॥ (अंवचूरिः) यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कंबलं वा पादपुंबनममीषां पूर्वोक्तधर्मोपकरणं तेनापि न वातमुदीरयन्ति श्रयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया। किंतु तं परिहरन्ति परिनोगपरिहारेण धारणपरिहारेण वा ॥ ३ ॥ (अर्थ.) हवे साधने पोताना जपकरणोए करी वायुनी विराधना थाय तेनो परिहार करता थका कहे . (जं पि के ) यदपि एटले जे पण ( वढं के) वस्त्रं एटले वस्त्र (च के०) वली ( पायं के ) पात्रं एटले पात्र, वली ( केवल के०) कंबलं एटले कांवलो ( पायलणं के० ) पादपुंउनं एटले पायपुंठण. (ते के०) ते पूर्वोक्त साधु आ जपकरणोए करी (वायं के० ) वातं एटले वायुन Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । - ४०१ ( न उश्रयंति के० ) न उदीरयंति एटले उदीरणा करे नहि. त्यारे केम करे तो के ( जयं के० ) यतं एटले यतनाए वस्त्र पढेरे, फाटके नहि. जयणासहित पडिलेहादिक क्रिया करे. परंतु वायुकायनी विराधना थाय तेम न करे. ॥ ३ ॥ ( दीपिका. ) थोपकरणात् या विराधना जवति तां परिहरन्नाह । यदपि वस्त्रं वा १ पात्र वा २ कम्बलं वा ३ पादप्रोंनं वा ॥ एतेषां पूर्वव्याख्यातार्थानां यद्धर्मोपकरणं तेनापि धर्मोपकरणेन ते साधवो न वातमुदीरयन्ति । कया । श्रयतनया प्रतिक्रियया । किंतु यतं परिहरन्ति परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण च ॥ ३७ ॥ ( टीका. ) उपकरणात्तद्विराधनेत्येतदपि परिहरन्नाह । जं पित्ति सूत्रम् । यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कंवलं वा पादपुंबनममीषां पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते वातमुदीरयन्ति । यतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया । किंतु यतं परिहरति परिजोगपरिहारेण धारणा परिहारेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ तम्दा एच् विप्राणित्ता, दोसं डुग्गश्वहणं ॥ वाडकायसमारंनं, जावजीवाई वऊए ॥ ४० ॥ ( अवचूरिः ) तम्ह ति सूत्रं पूर्ववत् । नवरं, वायुकाया जिलापेन नेयम् ॥ ४० ॥ ( अर्थ. ) ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते माटे ( एवं के० ) एतं एटले श्री ( 5गवणं के० ) दुर्गतिवर्द्धनं एटले दुर्गतिने वधारनार एवा ( दोसं के० ) दोषं एटले दोषने ( विचाणित्ता के० ) विज्ञाय एटले जाणीने ( जावजीवाई के० ) यावजीवमेव एटले जावजीव पर्यंत ( वायुकायसमारंभं के० ) रंजने ( वजए के० ) वर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ४० ॥ वायुकायना समा ( दीपिका. ) यत एवायं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्नः ततः किं कार्यमित्याह । पूर्ववत् । नवरम् । वायुकायनाम ग्राह्यम् ॥ ४० ॥ ( टीका. ) यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भः । तम्ह त्ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववत् । उक्तो दशमस्थानविधिः ॥ ४० ॥ वणस्सई नं हिंसंति, मासा वयसा कायसा ॥ तिविदेश करणजोएणं, संजया सुसमाहिच्या ॥ ४१ ॥ वसई विहिंसंतो, हिंसई तयस्सिए | तसे विविदे पाणे, चकुसे अ अचरकुसे ॥ ४२ ॥ ५१ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा तम्हा यं विनापित्ता, दोसं डुग्गश्वहणं ॥ वणस्स समारंनं, जावजीवाई वऊए ॥ ४३ ॥ ( अवचूरिः ) उक्तं दशमस्थानमधुना एकादशस्थानमाह वणस्स इत्यादि । गाथात्रयं पूर्ववयाख्येयम् ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ( अर्थ. ) हवे ग्यारमुं स्थान कहे बे. हवे वणस्सश्कायं ए एकतालीशमी गाथाथी आरंजीने त्रेतालीशमी गाथा पर्यंत अर्थ आज अध्ययननी सत्तावीशमी, श्रावशी अने गणत्रीशमी गाथाना अर्थ समान जाणवो. पण सत्तावीशमी गाथामा पुढवीकाय एवो पाव बे तेने बदले एकतालीशमी गाथामां मात्र वणस्सइ कार्य एवोपाठ कहेवो. अहिं वणस्सर एटले वनस्पतिकाय एवो अर्थ बेबाकी अर्थ गाथार्जुनो समान बे ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ( दीपिका. ) एवमुक्तो दशमस्थानविधिः । अथैकादशस्थानविधिः कथ्यते । एतप्राथात्रयव्याख्यानमपि पूर्ववत् ज्ञेयम् । नवरं वनस्पतिनाम ग्राह्यम् ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ( टीका. ) वणस्स इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पतेर जिलापेन ज्ञेयम् । ततश्चैकादशस्थानविधिरयुक्त एव ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ तसकायं न हिंसंति, मासा वयसा कायसा ॥ तिविदेश करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥ ४४ ॥ तसकायं विदिसंतो, हिंसई व तयस्सिए | तसेच विविदे पाणे, चकुसे चकु ॥ ४५॥ तम्दा ए वित्र्याणित्ता, दोसं डुग्गश्वहणं ॥ तसकायसमारंनं, जावजीवाई वऊएं ॥ ४६ ॥ ( अवचूरि : ) अथ द्वादशस्थानमाह । तसकायमित्यादि गाथात्रयं पूर्ववत् ॥ ४५ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ . ( अर्थ. ) हवे बारमुं स्थान कहे बे. तसकायं न हिंसंति ए. चुम्मालीशमी गाथाथी बेतालीशमी गाया पर्यंत चालीशमी गाथाथी त्रेतालीश गाथा पर्यंत जेवो अर्थ बे वो जावो. मात्र ते एकतालीशमी गाथामां वणस्सर एवो पाठ वे तेने बदले यहीं तसकार्य एवो पाठ कदेवो. मात्र एटलोज फेर बे तेथी तसकार्य एनो अर्थ सकाय एवो करवो. ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४०.३ ( दीपिका.) द्वादशस्थान विधिरुच्यते । एतमाथात्रयस्यापि व्याख्यानं पूर्ववत् कार्यम् | नवरं त्रसनाम ग्राह्यम् ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ( टीका. ) सांप्रतं द्वादशस्थान विधिरुच्यते । तसकायं ति सूत्रम् । त्रसकायं द्वीन्द्रियादिरूपं न दिसन्त्यारम्प्रवृत्त्या मनसा वाचा कायेन तदहित चिन्तनादिना त्रिविधेन करणयोगेन मनःप्रभृतिभिः करणादिना प्रकारेण संयताः साधवः सुसमाहिताः । उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ तत्रैव हिंसादोषमाह । तसकायं ति सूत्रम् । सायं विहिंसन्नरम्नप्रवृत्त्यादिना प्रकारेण हिनस्त्येव । तुरवधारणार्थे । व्यापादयत्येव । तदाश्रितांसान् विविधांश्च प्राणिनः तदन्यही न्द्रियादीन् । चशब्दात्स्थावरांश्च पृथिव्यादीन् चाकुषानचा कुषांश्च कुरिन्द्रियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ यस्मादेवं तम्ह चि सूत्रम् । तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तदाश्रितजीव हिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धनं सकायसमारम्नं तेन तेन विधिना यावजीवया यावजीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ जाई चत्तारि जुकाइ, इसिला दारमाइणि ॥ ताई तु विवतो, संजमं प्रणुपाल ॥ ४७ ॥ ! ( अवचूरिः ) उक्तो द्वादशस्थान विधिः । प्रतिपादितं कायषटुम् । तत्प्रतिपादनाडुक्का मूलगुणाः । अधुनैतद्वृतिभूतोत्तरगुणास्ते चाकल्पादयः षमुत्तरगुणाः । यथोतम् । कप्पो गिहिनायां ति । तत्राकल्पो द्विविधः । शिष्यकस्थापनाकल्प प्रकल्पस्थापना कल्पश्च । तत्राद्योऽनधीत पिएम नियुक्त्या दिना श्रानीतमपि श्राहारादि न कल्पते यत उक्तम् । अणही या खलु जेणं, पिंकेसणसिव पाएसा ॥ तेपाणिआणि जंइणो, पंतन पिंकमाई ॥ १ ॥ उडबद्धमि न अणला, वासावासेसु दो वि षो सेहा ॥ दिरिकऊंती पायं, उवणाकप्पो इमो होइ ॥ २ ॥ कल्पस्थापनाकल्पं त्वाह जाई ति । यानि चत्वारि अनोज्यानि ऋषीणां साधूनामाहारादीनि श्राहारशय्यावस्त्रपात्राणि । तानि तु विवर्जयन् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् ॥ ४७ ॥ ( अर्थ. ) ए प्रकारे द्वादश स्थाननो विधि को अने ते द्वादश स्थानना प्रतिपादन की कायषक कयुं, अने कायषट्कना कथन थकी साधुना मूल गुणो कह्या. हवे मूलगुणना वाडसरखा आगल उत्तर गुणो बे, तेमना प्रतिपादननो अवसर श्राव्यो. वली ते उत्तर गुणो अकल्पादिक बे. ते तेरमुं स्थानक बे, तेमां अकल्प जे बे, ते बे प्रकारनो बे, तेमां एक शिष्यकस्थापनाकल्प अने वीजो अकल्पस्थापनाकल्प Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तेमां जे नवीन शिष्य पिएमनियुक्त्यादि सूत्र जण्यो नथी, ते शिष्य आहारना दोषो जाणतो नथी. तेणे आणेलो आहार साधुने अकल्प . तेनुं नाम शिष्यकस्थापना कल्प. कहेवू डे के, अणहीा खलु जेणं, पिसण सिङावनपाएसा ॥ तेणाणिश्राणि जश्णो, कप्पंति न पिंम्माईणि ॥ १॥ उनवमि न आणला, वासावासेसु दो वि णो सेहादिरिकजंती पायं, उवणाकप्पो श्मो हो॥२॥ ते अकल्प स्थापना कल्प तो पोते सूत्रकारज कहे . (जाइं चत्तारि के०) चत्वारि यानि एटले जे चार ( इसिणा के०) झषिणा एटले साधुए (आहारमाईणि के० ) आहारादीनि एटले थाहार, शय्या, वस्त्र अने पात्र ( तु के ) वली (ताई के) तानि एटले ते चारने ( विवङांतो के) विवर्जयन् एटले त्याग करतो एवो साधु ( संयम के ) सत्तर प्रकारना संयमने (अणुपालए के) अनुपालयेत् एटले पालन करे. ॥४७॥ (दीपिका.) इत्युक्तो छादशस्थान विधिः । तत्प्रतिपादनेन कायषटुं कथितम् । कायषदकथनेन साधूनां मूलगुणा उक्ताः । अधुना मूलगुणानां वृतिजूता ये उत्तरगुणास्तेषां प्रतिपादनावसरः। ते च उत्तरगुणा अकल्पादयः षट्र। तत्र अकल्पो विविधः। शिष्यकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पश्च । तत्र येन नवीन शिष्येण पिकनियुत्यादि पवितं नास्ति स आहारदोषान् न जानाति । तेन आनीत आहारपिंगो ग्रहीतुं साधूनामकल्पः। स शिष्यकस्थापनाकल्पः । अकल्पस्थापनाकल्पं तु सूत्रकार आह। यानि चत्वार्यनोज्यानि संयमस्य नाशकारित्वेन साधूनामकल्पनीयानि आहारादीनि थाहारशय्यावस्त्रपात्ररूपाणि । तानि तु साधुर्विवर्जयेत् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् । अकल्पनीयस्याहारादिचतुष्टयस्यात्यांगे संयमस्याजावो भवेत् ॥ ७ ॥ ( टीका.) उक्तो छादशस्थानविधिः। प्रतिपादितं कायषटम् । एतत्प्रतिपादनामुक्ता मूलगुणाः। अधुनैतकृतिनूतोत्तरगुणावसरः। ते चाकल्पादयःषडुत्तरगुणाः। यथोक्तम् । श्रकप्पो गिहिनायणमित्यादि । तत्राकल्पो विविधः । शिष्यकस्थापनाकल्पः। अकल्पस्थापनाकल्पश्च। तत्र शिष्यकस्थापनाकल्पः, अनधीतपिएक नियुक्त्या दिनानीतमाहारादि न कल्पत इति। उक्तं च।श्रणहीया खलु जेणं, पिंडेसणसेजवनपाएसा ॥ तेणाणियाणि जतिणो, कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥ जजबमिन अणला, वासावासेज दो वि. णो सेहा ॥ दिरिकांती पायं, उवणाकप्पो मो हो ॥२॥ अकल्पस्थापनाकल्प-" माह । जाति सूत्रम् । यानि चत्वार्यनोज्यानि संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम् । . . ४०५ षीणां साधूनामाहारादीन्याहारशय्यावस्त्रपात्राणि तानि तु विधिना वर्जयन् संयमं सप्तदशप्रकारमनुपालयेत् । तदत्यागे संयमाजावादिति सूत्रार्थः ॥४७॥ पिंडं सिङ च वढं च, चनबं पायमेव य॥ __ अकप्पिन इबिजा, पडिगादिङ कप्पिअं॥४॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । पिंक त्ति सूत्रम् ॥ ४॥ (अर्थ.) हवे तेज वात स्पष्ट रीते कहे . (पिं के०) पि एटले जे अशनादिक श्रादार ( सिङां के०) शय्यां एटले शय्या (च के०) वली (वढं के०) वस्त्रं एटले वस्त्र (च के०) वली (चन के०) चतुर्थ एटले चोथु ( पायमेव य के०) पात्रमेव च एटले पात्र. आ सर्व (अकप्पि के) अकल्फिकं एटले अकल्पनीय एवं होय तो ( न छिजा के ) नेत् एटले न श्वे. तथा (कप्पिसं के०) कल्पिकं एटले निर्दोष होय तो (पडिगाहिजा के०) प्रतिग्रहीयात् एटले ग्रहण करे. कल्पनीक निर्दोष जाणे. ॥४॥ (दीपिका.) अथैतदेव स्पष्टं कुर्वन्नाह । साधुः पिएकं, शय्यां च, वस्त्रं, चतुर्थं पात्रमेव च । एतचतुष्टयं प्रकटार्थम् । अकल्पिकं नेछेत् । कल्पिकं तु यथोचितं प्रतिगृह्णीयादिति विधिः ॥४॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति। पिंड त्ति सूत्रम् । पिएणं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थ पात्रमेव च । एतत्वरूपं प्रकटार्थम् । अकल्पिक नेत् । प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकं यथो चितमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ जे निश्रागं ममायंति, कीअमुदेसिाहडं॥ वहं ते समणुजाणंति, श्न उत्तं मदेसिया ॥४॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । अकल्पिके दोषमाह। केचन व्यसाधवः । निश्रागं ति नित्यमामन्त्रितपिएकं ममायति मामकीनोऽयं पिएम इति कृत्वा गृह्णन्ति । क्रीतमौदेशिकाहृतम् । वधं स्थावरा दिघातं ते ऽव्यसाध्वादयः समनुजानन्ति । - त्युक्तं महर्षिणा श्रीवीरेण ॥४ए॥ (अर्थ) हवे अकल्पिकने विषे दोष कहे . (जे के ये एटले जे कोव्यलिंगी (निश्रागं के०) नियागंएटले नित्य पिंम जे निमंत्रियो पिंग तेने (ममायं ति के) ग्रहण करे .एटले जे कोश्श्रावक साधुने श्रामंत्री मूके जे महारा घरथी एटसो पिंम से जो. तेने ते साधु जो ग्रहण करे, तथा (की के०) क्रीतं एटले वेचायी Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ राय धनपतसिंघ बदांडुरका जैनामसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा लावेला हारने तथा (उद्देसि के० ) देशिकं पटले साधुने थें उद्देशीने करेल आहारने वली (आदमं के० ) आहृतं एटले सामो आऐलो थाहार तेने ग्रहण करे ( ते के० ) ते एटले ते साधु ( वहं के० ) वधं एटले पटुकायना वधने ( सम जाति के० ) समनुजानन्ति एटले अनुमोदना करता जाणवा. या वात कों कही तो के, ( इयं के० ) इदं एटले आ (महेसिया के० ) महर्षिणा एटले ती करे (बुत्तं के० ) उक्तं एटले कहेतुं बे. ॥ ५७ ॥ ( दीपिका. ) अथाकल्पिके दोषं कथयति । ये केचन द्रव्य लिङ्गिनः नियागं नित्यमामन्त्रितपिंडं ममायंति प्रतिगृह्णन्ति । पुनः की तमौदेशिकमाहृतं च गृह्णन्ति । ते वधं स्थावरा दिजीवघातमनुजानन्ति । दातुः प्रवृत्तेरनुमोदनेन । केनेदं कथितमित्याह । इत्युक्तं मईषिणा महामुनिना श्री वर्धमानखामिना ॥ ४५ ॥ ( टीका. ) कल्पिके दोषमाह जे त्ति सूत्रम् । ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यबिङ्गधारिणो नियागं ति नित्यमामन्त्रितं पिएकं ममायंतीति परिगृएहन्ति । तथा फ्रीतमौदेशिकाहृतम् । एतानि यथा कुल्लकाचारकथायाम् । वधं सस्थावरादिघातं ते द्रव्यसाध्वादयः अनुजानन्ति दातृप्रवृत्त्यनुमोदनेन इत्युक्तं च महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तन्हा असणपाणाई, की मुद्दे सियाह ॥ वजयंति विप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ५० ॥ ( अवचूरिः ) तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौद्देशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्ग्रन्था धर्मजीविनः संयमैकजीविनः ॥ ५० ॥ ( अर्थ. ) पूर्वोक्तरीते बे, तो हवे केम करवुं ते कहे बे. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( विप्पाणो के० ) स्थितात्मानः एटले निश्चलप एकरी रह्यो बे धर्मने विषे आत्मा जेनो एवा तथा ( धम्मजीविणो के० ) धर्मजीविनः एटले संयम रूप जीवितव्यना धणी एवा ( निग्गंथा के ) निर्यथाः ए टले निर्बंध साधु ( की के० ) क्रीतं एटले वेचातुं श्रालुं तथा ( उद्दे सिां के० ) शिकं पटले साधुना ज उद्देशथी बनावेल तथा ( श्राहडं के० ) श्राहृतं एटले साधुने माटे मालादिकथी सामुं आणेलं एवं ( असणपाणाई के० ) अशनपानादि एटले अशन, पान, खादिम, खादिम एवा चतुर्विध अन्नने ( वजयंति के० ) वर्जयंति एटले त्याग करे बे ॥ ५० ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। ४०७ (दीपिका.) यस्मादेवं तस्मारिक कर्तव्यमित्याह । तस्मात्कारणात् निर्यन्थाः सा- धवः अशनादिकं चतुर्विधमपि सदोषं क्रीतं, औदेशिकम् , आहृतं च वर्जयन्ति। किंजूता निर्ग्रन्थाः। स्थितात्मानः स्थितो निश्चलत्वेन आत्मा धर्मे येषां ते स्थितात्मानः संयमैकजीविन इत्यर्थः। उक्तोऽकल्पः । अकल्पकथनाच त्रयोदशः स्थानविधिरप्युक्तः ॥५०॥ (टीका.) यस्मादेवं तम्ह त्ति सूत्रम्। तस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौदेशिकमाहृतं वर्जयन्ति स्थितात्मानो महासत्त्वा निर्यन्याः साधवो धर्मजीविनः संयमैकजीविन इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो॥ - मुंजतो असणपाणाई, आयारा परिनस्स॥५१॥ ___(श्रवचूरिः) उक्तोऽकल्पः । तदनिधानामुक्तं त्रयोदशस्थानमधुनोच्यते चतुर्दशस्थानम् । कंसेषु कचोलादिषु कंसपात्रेषु स्थालादिषु कुंममोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृन्मयानाजनेषु । जुञ्जानोऽशनपानादि साध्वाचारात् परित्रश्यति ॥५१॥ . (अर्थ.) हवे चौदमुं स्थानक कहे , तेमां पण गृहस्थना जाजन आश्रयी कहे बे. ( कंसेसु के) कांस्येषु एटले कांसाना वाटका प्रमुखने विषे (पुणो के०) पुनः एटले वली (कंसपाएषु के ) कांस्यपात्रेषु एटले कांसानी थालीयोने विषे तथा (कुंममोएसु के०) कुंडमोदेषु एटले हस्तीना पादना आकार वाला मृत्तिकाना कुंमाने विषे (मुंजानः के०) नोजन करता एवा यति ( आयारा परिजस्स के०) याचारात् परित्रश्यति एटले साधुना आचार थकी ब्रष्ट थाय . ॥५१॥ (दीपिका.) इदानीं चतुर्दशस्थानविधिमाह । साधुः आचारात् साधुसंबन्धिनः परिज्रश्यति भ्रष्टाचारो जवति । किं कुर्वन् साधुः। अशनपानादिकमन्यदोषरहितमपि जुञ्जानः । केषु नाजनेषु जुञ्जान इत्याह । कांस्येषु कटोरिकादिषु, पुनः कांस्यपात्रीषु तिलकादिषु, कुंडमोदेषु हस्तिनः पादाकारेषु मृन्मयादिषु जुञ्जानः ॥५१॥ (टीका.) उक्तोऽकल्पस्तदनिधानात्रयोदशस्थान विधिः । इदानीं चतुर्दशविधिमाह । कंसेसु त्ति सूत्रम् । कंसेषु करोटकादिषु, कंसपात्रेषु तिलकादिषु, कुएफमोदेषु • हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु जुञ्जानोऽशनपानादि तदन्यदोषरहितमपि. श्राचारामणसंबन्धिनः परित्रश्यति अपैतीति सूत्रार्थः ॥५१॥ सीनदगसमारने, मत्तधोअणबटुणे॥ जाई बंनंति नूआई, दिहो तब असंजमो॥५॥ - - - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेंतालीस-(४३)-मा. (श्रवचूरिः) अनन्तरोद्दिष्टनाजनेषु श्रमणा नोक्ष्यन्ते जुक्तं चैनिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति। तदाह । शीतोदकसमारंने सचेतनोदकेन नाजनधावनारम्ने मात्रकधावनोनने यानि क्षिण्यंते हिंस्यन्ते नूतान्यप्कायादीनि । अत्र गृहिनाजननोजने दृष्टः असंयमस्तस्य नोक्तुः ॥ ५॥ . . (अर्थ.) हवे ते पूर्वोक्त पात्रमा जमवाथी जे दोष उपजे, ते कहे . ( सीदगं के) शीतोदकं एटले टाटुं जल तेनो (समारंने के०) समारंन्ने एटले ते गृहस्थना कां स्यादिक पात्रमा जमतां विशेष आरंज थाय त्यां,तथा(मत्तधोयणटुणे के०)मात्रकधावनोज्ने एटले मात्र धोयन बंमने अर्थात् पात्र धोवाना धोवणनो त्याग करे, नाखे त्यां (जाइं के०) यानि एटले जे (जूआई के०) नूतानि एटले प्राणिमात्र होय ते (नंति के ) बेदाय . माटे ( तब के०) तत्र एटले ते गृहस्थना नाजनने विषे जमनार साधुनो (असंजमो के०) असंयमः एटले संयमत्याग थाय . ॥ ५५ ॥ (दीपिका.) कथं तेषु जुञ्जानो ज्रष्टाचारो जवेदित्याह । गृहिलाजनं कांस्यादिकं तत्र जोजने नोजनकर्तुः साधोः केवलिना सोऽसंयमो दृष्टः। स कः । यानि तत्र नूतान्यप्कायादीनि बिद्यन्ते हिंस्यन्ते । क्व । शीतोदकसमारम्ने सचेतनेनोदकेन नाजनस्य धावनारम्ने दालनारम्ने। कथम् । कांस्या दिनाजनेषु श्रमणा नोदयंते, अथवा श्रमणेरेषु जुक्त मिति हेतोः नाजनदालनं कुर्वन्ति गृहस्थाः। पुनः कुत्र। मात्रकधावनोसने कुएममोदकादिषु जाजनेषु दालनजलत्यागेऽसंयमो नवेत् ॥ ५५ ॥ (टीका.) कथमित्याह । सीउदगं ति सूत्रम् । अनंतरोद्दिष्टनाजनेषु श्रमणा जो. 'क्ष्यन्ते जुक्तं चैजिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति । तदा शीतोदकसमारंने सचेतनोदकेन नाजनधावनारंने तथा मात्रकधावनोज्ने कुंडमोदादिषु झालनजलत्यागे यानि क्षिप्यन्ते हिंस्यन्ते नूतान्यप्कायादीनि । सोऽत्र गृहिनाजननोजने दृष्ट उपलब्धः केवलज्ञाननाखता असंयमस्तस्य नोक्तुरिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ पछाकम्म पुरेकम्म, सिआ तब न कप्प३॥ एअमहं न मुंजंति, निग्गंथा गिहिनायणे ॥ ५३॥ (अवचूरिः) पश्चात्कर्म पुरःकर्म स्यात् कदाचित् नवेशहिजाजननोजने । पश्चात्पुर कर्मजावस्तूक्तवदित्येके । अन्ये जुजन्तु तावत्साधवो वयं तु पश्चानोदयाम इति पश्चात्कर्मव्यत्ययेन तु पुरःकर्म व्याचक्षते। एतच्च साधूनां न कल्पते । एतदर्थं पश्चाकर्मपरिहारार्थ न जुञ्जन्ति निर्यथा गृहिजाजने ॥ ५३॥ .... . Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४० ( अर्थ. ) पात्रने अजावे साधुने ( तब के० ) तत्र एटले ते गृहस्थना पात्रने विषे जमवुं (न कप्पइ के०) न कल्पते एटले न कल्पे. कारणके गृहस्थ जम्या पहेला जो पात्रमां साधु जमे तो तेने ( सिया के० ) स्यात् एटले कदाचित् ( पछाकम्मं के० ) पश्चात्कर्म लागे, अने गृहस्थ जम्या पंढी जो गृहस्थना पात्रमां जमे, तो तेने ( पुकम्मं के० ) पुरःकर्म लागे ( एामहं के० ) एतदर्थं एटले पश्चात् कर्म पुरःकर्म टालवाने थें (निग्गंथा के० ) निर्यथाः एटले साधु (गिहिनायणे के०) गृहिजाजने एटले गृहस्थना पात्रने विषे ( न मुंजंति के० ) जोजन करे नहि. ॥ ५३ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किंच निर्यथाः साधव एतदर्थं पश्चात्कर्मपुरः कर्म परिहारार्थं गृहिजाज ने कांस्या दिके न मुञ्जते । कथम् । यतः पश्चात्कर्म पुरःकर्म च धर्मवतां साधूनां न कल्पते । पश्चात्कर्मपुरः कर्मनावस्तु उक्तवदित्येके । अन्ये त्वेवं व्याख्या - नयन्ति । जंतु तावत् साधवो वयं तु पश्चानोदयाम इति पश्चात्कर्म तस्माद्विपरीतं तुपुराकर्म इति ॥ ५३ ॥ ( टीका. ) किंच पाकम्मं ति सूत्रम् । पश्चात्कर्म पुरःकर्म स्यात् तत्र कदाचिप्रवेहिजाजननोजने पश्चात्पुरःकर्म जावस्तूक्तवदित्येके । श्रन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्साधवो वयं पश्चानोदयाम इति । पश्चात्कर्मव्यत्ययेन तु पुरः कर्म व्याचक्षते । एतच्च न कल्पते धर्मचारिणाम् । यतश्चैवमत एतदर्थं पश्चात्कर्मादिपरिहारार्थं न भुञ्जते निग्रंथाः । केत्याह । गृहिनाजनेऽनंतरोदित इति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ यासंदीप लिके, मंचमा सालएसु वा ॥ प्रणायरिमाणं, यासइत्तु सत्तु वा ॥ ५४ ॥ ( अवचूरिः) उक्तो गृहिजाजने दोषस्तदनिधानाडुक्तं चतुर्दशस्थानम् । इदानीं पञ्चदशस्थानमुच्यते । श्रसंदीपर्यको प्रतीतौ । मंचश्च प्रतीतः । श्रशालकस्त्ववष्टम्नसमन्वित आसन विशेषः । एतेष्वनाचरितमार्याणामासितुं स्वपितुं वा शुषिरदोषात् ॥ २४ ॥ (अर्थ. ) हवे पन्नरमुं स्थानक कहे बे. ( अजाणं के० ) आर्याणां एटले आर्य साधु (आसंदी पत्रिकेसु के० ) श्रासंदी पर्यकेषु एटले जडासन रूप आसंदी ढोलीयाने विषे ( मंच के० ) मंचेषु एटले खाटलाने विषे ( वा के० ) वली ( श्रसाल एस के० ) शालकेषु एटले उटिंगणसहित सांगा मांची तथा सिंहासन कुरसीने विषे ( सतु के० ) असितुं एटले वेसवार्थी ( वा के० ) तथा ( सत्तु ५२ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. ho ) खतुं एटले सुवाथी ( अणायरिश्रं के० ) अनाचरितं एटले अनावरणनो दोष लागे ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) हिजाजनदोष उक्तः । तस्यानिधानाच्चतुर्दशस्थान विधिरपि उक्तः । सांप्रतं पंचदशस्थानगतं विधिमाह । श्रासन्दी १ पर्यङ्कः २ मंचश्च एते त्रयोऽपि प्रसिद्धाः । श्रशालकस्तु सर्वाङ्गसमन्वित आसन विशेषः । एतेष्वासितुमुपवेष्टुं स्वष्टुं वा निद्रां कर्तुं वा आर्याणां साधूनामनाचरितम् । कथम् । सुषिरदोषात् ॥ ५४ ॥ ( टीका. ) उक्तो गृहिजाजनदोषः । तदनिधानाच्चतुर्दशस्थान विधिः । सांप्रतं पञ्चदशस्थानविधिमाह । श्रसंदि ति सूत्रम् । आसंदी पर्यको प्रतीतौ । तयोरासंदीपर्यंकयोः प्रतीतयोः । मंचाशालकयोश्च | मंचः प्रतीतः । आशालकस्त्ववष्टंनसमन्वि तासन विशेषः । एतयोरनाचरितमना सेवितमार्याणां साधूनामासितुमुपवेष्टुं स्वतं वा । निद्रातिवादनं वा कर्तुं शुषिरदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ५४ ॥ . नासंदीप लिके, न निसिजा न पीढए ॥ निग्गंथा पडिलेदाए, बुधबुत्तमदिठगा ॥ ५५ ॥ ( अवचूरिः ) अपवादमाह । नासंदीपर्यंकयोः प्रतीतयोः न निषद्यायां गद्दिकायां न पीके वेत्रमादौ वा निर्यथा प्रतिलेख्य राजकुलादिषु निषीदनादि कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । बुद्धोक्ताधिष्ठातारो जिनोक्तानुष्ठानपराः ॥ ५५ ॥ ( अर्थ. ) हवे वली एज स्थानकने विषे अपवाद मार्ग कहे बे. (बुद्धत्तम हिगा के०) बुद्धोक्ताधिष्ठातारः एटले बुद्ध जे तीर्थंकर तेमना कहेलां वचन पालवामां तत्पर एवा ( निग्गंथा के० ) निर्ग्रथा: एटले साधु (आसंदीप लिके के०) आसंदी पर्यकयोः एटले यासंदीपर्यंकने विषे ( पडलेहाए के०) अप्रतिलेख्य एटले पडि - लेह या विना ( न के० ) न एटले बेसवुं प्रमुख करता नथी. तथा ( निसि ho ) निषद्यायां एटले सांगा मांची खुरशी प्रमुखने विषे पण पडिलेहण करया विना ( न के० ) न एटले बेस प्रमुख करता नथी. तथा ( पीढए के० ) पीठके एटले चित्रामणयुक्त आसनपर तथा नेतरना नरेला आसनपर ( न के० ) न एटले बेस प्रमुख करता नथी. ॥ ५५ ॥ ( दीपिका. ) अत्रैव स्थानेऽपवादमार्गमाह । निर्ग्रन्थाः साधवः न श्रासन्दीपर्यकयोः न निषयायामेकादिकल्परूपायां, न पीठके वेत्रमयादौ चकुरा दिना अप्रत्युपेक्ष्य निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । किंभूता निर्यथाः । बुद्धोक्ता Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४११ धिष्ठातारः । बुद्धेन तीर्थकरेण यत्कथितमनुष्ठानं तत्र तत्पराः । इह चाप्रत्युपेदितेषु आसंदी पर्यंक निषद्या दिपीठेषु निषीदनस्य निषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादौ प्र त्युपेदितेषु निषीदनादि कुर्वन्त्यपि । अन्यथा प्रत्युपेदितेष्विति विशेषणस्यामिलनं स्यात् ॥ ५५ ॥ ( टीका. ) अत्रैवापवादमाह । नासंदित्ति सूत्रम् । नासंदी पर्यङ्कयोः प्रतीतयोः । न निषद्यायामेकादिकल्परूपायां न पीठके वेत्रमयादौ निर्ग्रन्थाः साधवोऽप्रत्युपेक्ष्य चकुरादिना निषीदनादि न कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । नञ् सर्वत्रा जिसंबध्यते । न कुर्वउन्तीति । किंविशिष्टा निर्ग्रन्थाः । बुद्धोक्ताधिष्ठातारः । तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः । इह चाप्रत्युपेदितासंघादौ निषीदना निषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपे - हितेषु निषीदनादिविधिमाह । विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ गंभीरविजया एए, पापा दुप्पडिलेहगा || एप्रमठं विवज्जिया ॥ ५६ ॥ संदीपलिको ( अवचूरि : ) गंजीर विजया प्रकाशाश्रयाः । विजयशब्देनाश्रयोऽनिधीयते । एते यासन्यादयः । एतेषु प्राणा ः प्रत्युपेक्ष्या जवन्ति । श्रासन्दी पर्यङ्कश्च । चशब्दान्मकाश्च । एतदर्थं वर्जिताः साधुनिः ॥ ५६ ॥ (अर्थ. ) हवे एम पडिलेहीने पण पूर्वोक्त संदीप्रमुख उपर बेसे तो पण दोष लागे ते कहे बे. (एए के०) एते एटले ए पूर्वोक्त आसंदी पर्यंक मंचादिक ( गंजीरविजया ho) गम्भीर विजयाः गंभीर एटले अप्रकाश वे विजय एटले आश्रय जेनो - र्थात् संयादिक प्राणियोनां गुप्त स्थानक रूप बे तेथी ( डुप्प डिलेहगा के० ) दुःखे करीने वे प्रातिलेखन जेनुं एवा होय बे. ( एामहं के० ) एतदर्थं एटले ए माटे साधु ए (आसंदी पतिको के०) संदीपर्यंकश्च एटले आसंदी ने पक च शब्द मंचादिक पण (विवमिश्रा के० ) विवर्जिताः एटले वर्जित करेला बे. ॥५६॥ ( दीपिका . ) व दोषमाह । एते संदीपर्यंकमंचादयः । गंजीरविजयाः गंजीरः प्रकाशः विजय श्राश्रयो येषां ते गंजीरविजया अप्रकाशाश्रयाः प्राणिनां नवंति । तेन प्राणिन एतेषु दुः प्रत्युपेक्ष्या जवन्ति । पीड्यंते च तेषामुपवेशनादिना । तेन एतदर्थं साधुनिः संद्यादयो विवर्जितास्त्यक्ताः ॥ ५६ ॥ ( टीका. ) तत्रैव दोषमाह । गंजीरं ति सूत्रम् । गंजीरमप्रकाशं विजय आश्रयः प्रकाशाश्रया एते प्राणिनामासंद्यादयः । एवं च प्राणिनो दुः प्रत्युपेक्षणीया एतेषु Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जवन्ति । पीज्यंते चैतउपवेशनादिना । श्रासंदः पर्यंकः। चशब्दान्मंचादयश्च । एतदर्थं विवर्जिताः साधुनिरिति सूत्रार्थः॥ ५६ ॥ गोअरग्गपविहस्स, मसिज्जा जस्स कप्पश्॥ इमेरिसमणायारं, आवळा अबोदिअं॥५॥ (अवचूरिः) उक्तः पर्यङ्कस्थान विधिः। तदनिधानात्पञ्चदशस्थानमुक्तमिदानीं षोडशस्थानविधिमाह । गोचराग्रप्रविष्टस्य निषद्या यस्य कल्पते गृह एव निषीदनं सदा चरति यः साधुः । स खलु एवमीदृशं वदयमाणलक्षणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति श्रबोधिकं मिथ्यात्वफलम् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) या रीते पर्यकस्थानविधि कटो. तेथी ए पन्नरमुं स्थानक कह्यु. हवे सोलमुं स्थानक कहे . ( गोअरग्गपविठस्स के० ) गोचरायप्रविष्टस्य एटले गोचरीए गयो एवा (जस्ल के०) यस्य एटले जे साधुने (निसजा के०) निषया एटले बेसवु ( कप्पर के०) कल्पते एटले कल्पे बे. अर्थात् गोचरीए गयेलो साधु गृहस्थने घेर जर बेसे तो ते साधु ( इमेरिसं के० ) एवमीदृशं एटले हवे कहीशुं ए प्रकारना (अबोहिथं के०) अबोधिकं एटले बोधिबीज सम्यक्त्वरहित मिथ्यात्वरूप फलने (आवजा के०) आपद्यते एटले पामे बे. ॥ ५७ ॥ (दीपिका.) उक्तः पर्यङ्कस्थान विधिः । तस्य कथनेन पञ्चदशस्थानमप्युक्तम् । अथ षोडशस्थानमुच्यते । गोचरायप्रविष्टस्य निदाएं प्रविष्टस्य साधोर्निषद्या कल्पते। गृह एव नीषीदनं समाचरति यः साधुरिति नावः । स साधुः खलु एवमीदृशं वदयमाणलदणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति । किंजूतमनाचारम् ।अबोधिकम् । अबोधिर्मिथ्यात्वं तदेव फलं यस्य स तम् ॥ ५७ ॥ (टीका.) उक्तः पर्यंकस्थानविधिस्तदनिधानात्पंचदशस्थानमिदानी षोडशस्थानमधिकृत्याह । गोअरग्ग त्ति सूत्रम् । गोचराग्रप्रविष्टस्य निदाप्रविष्टस्येत्यर्थः । निषया यस्य कल्पते गृह एव निषीदनं समाचरति यः साधुरिति नावः । स खलु एवमीदृशं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचारमापद्यते प्राप्नोति । अबोधिकं मिथ्यात्वफलमिति सूत्रार्थः ॥५७॥ . विवत्ती बनचेरस्स, पाणाणं च वदे वदो॥ वणीमगपडिग्यान, पडिकोदो अगारिणं ॥ ५ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। .. ४१३ (श्रवचूरिः) अनाचारमाह। विपत्तिब्रह्मचर्यस्य ततः स्त्रियाश्चिरसंगादाधाकर्मादिकरणेन प्राणानां वधे वधो नवति श्रायव्रतस्य । साधौ गृहोपविष्टे वनीपकप्रतिघातः प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्स्वजनानां तस्यास्तथादेपदर्शनात् ॥ ५ ॥ (अर्थ.) हवे श्रा गाथाथी पहेली कहेली गाथामां कडं हतुं के गृहस्थने घरे .. साधु बेसे तेने हवे कहीशुं एवा अनाचार थाय तो हवे ते अनाचारो कहे जे. के जो साधु गोचरीए गयो थको गृहस्थने घेर बेसे तो (बंजचेरस्स के०) ब्रह्मचर्यस्य एटले ब्रह्मचर्यनो ( विवत्ती के ) विपत्तिः एटले नाश थाय. तथा वली (पाणाणं के) प्राणिनां एटसे प्राणियोना ( वहे के०) वधे एटले चिरपरिचयने लीधे - धाकर्मादिक गृहस्थ करे. अने तेथी साधुना संयमनो (वहो के०) वधः एटले वध थाय. तथा (वणीमग के०) वनीपक एटले निदाचर मनुष्यो तेने ( पडिग्घार्ड के) प्रतिघातः एटले प्रतिघात थाय, अर्थात ते निदाचर आवतो जय पामे. जे एक जे त्यां हुं क्यां जालं? तथा वली (अगारिणं के०)अगारिणांएटले गृहस्थने (पडिकोदो के) प्रतिकोधः एटले क्रोध उपजे. ते पोतानी स्त्री.उपर तथा ते साधुनी उपर. ॥५॥ ' (दीपिका.) तमेवानाचारमाह । गृहस्थगृहे निषद्याकरण एतेऽनाचारा इति संनावनया ब्रह्मचर्यस्य विपत्ति शो जवति । कुतः। श्राशाखएकनदोषात् । प्राणिनां च वधे वधो नवति तथासंबन्धादाधाकर्मादिकरणेन । तथा वनीपकप्रतिघातो नवेत् । तदादेपेणादित्सानिधानादिना च। पुनरगारिणः प्रतिक्रोधो नवेत् । तत्स्वजनानां निषद्यायास्तस्याश्च तथादेपदर्शनेन ॥ ७ ॥ (टीका.) अनाचारमाह । विवत्ति त्ति सूत्रम् । विपत्तिर्ब्रह्मचर्यस्याज्ञाखएकनादोषतः। साधुसमाचरणस्य प्राणिनां च वधे वधो नवति । तथा संवन्धादाधाकर्मादिकरणेन वनीपकप्रतीघातः । तदादेपेणादित्सानिधानादिना प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्वजनानां च स्यात्तदादेपदर्शनेनेति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ अगुत्ती बनचेरस्स, बी वा वि संकणं ॥ . . कुसीलवढणं ठाणं, दूर परिवजाए ॥ ५५॥ (श्रवचूरिः) अगुप्तिर्ब्रह्मचर्यस्य तदिन्धियावलोकनेन स्त्रीतश्चापि शङ्का जवति । तत्प्रफुद्धलोचनदर्शनादिनानुनूतगुणायाः कुशीलवईनं स्थानं तक्तेन प्रकारेणासंयमकरं दूरतः परिवर्जयेत् ॥ एए॥ (अर्थ.) वली पण साधुने गृहस्थने घेर वेसवाथी केवा दोषो. उत्पन्न थाय ने Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. ते कड़े बे. गोचरीए जतां गृहस्थने घेर बेसतां साधुने ( वंजचेरस्स के० ) ब्रह्मच र्यस्य एटले ब्रह्मचर्यनो ( अत्ति के० ) गुप्तिः एटले नाश थाय छे. ( वा के० ) वली (इबी विके० ) स्त्रीतोऽपि एटले प्रथम अनुभवेली उत्फुल्लगल्लवाली स्त्रीना सकाशी ( संकणं के० ) शंकनं एटले शंका याय. ते माटे ( कुसीलवट्टणं के० ) कुशीलवर्द्धनं एटले कुशीलने वधारनार एवा ( स्थानं के० ) स्थानकने ( दूर hu ) दूरतः एटले दूरथी ( परिवए के० ) परिवर्जयेत् एटले त्याग करे. ॥ ५७ ॥ ( दीपिका . ) तथा पुनः किं जवेत् साधोस्तथा निषद्याकरणेन ब्रह्मचर्यस्यागुतिर्भवेत् । पुनः उत्फुल्ल गल्ललोचनाया अनुभूतगुणायाः स्त्रियाः सकाशात् शंका जवति । ततः कुशीलवर्द्धनं स्थानमुक्तेन प्रकारेण असंयमवृद्धिकारकं दूरतः परिवर्जयेत् परित्यजेत् साधुः ॥ ५ ॥ ( टीका. ) तथा अगुत्ति त्ति सूत्रम् । अगुतिर्ब्रह्मचर्यस्य तदिन्द्रियाद्यवलोकनेन स्त्रीतश्चापि शङ्का नवति । तदुत्फुल्ललोचन दर्शनादिनानुभूतगुणायाः कुशीलवर्धनं स्थानमुक्तेन प्रकारेणासंयभवृद्धिकारकं दूरतः परिवर्जयेत्परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ तिन्हमन्नयरागस्स, निसिजा जस्स कप्पई ॥ जरा निस्स, वादिच्यस्स तवस्सिणो ॥ ६० ॥ ( अवचूरिः ) सूत्रेणैवापवादमाह । त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानामन्यतरस्यैकस्य निषद्या गृहे यस्य कल्पते तस्य तदासेवने न दोष इति शेषः । कस्य पुनः कउपत इत्याह । जरया निनूतस्यात्यन्तवृद्धस्य व्याधिमतोऽत्यन्तमशक्तस्य तपखिनो विशिष्टरूपकस्यैते च निहाटनं न कार्या एव । श्रात्मलब्धिकाद्यपेक्षया तु सूत्र विषयाः । न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः संभवन्ति । परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीनि ॥ ६० ॥ ( अर्थ. ) हवे वली जे साधुने गृहस्थने घरे बेसतां दोष न लागे ते कहे बे. ( तिन्हं के० ) त्रयाणां एटले आगल जे आज गाथामां कहेवाशे ए त्रण जानी वच्चे ( अन्नरागस्स के० ) अन्यतरस्य एटले कोइ पण एक ( जस्स के० ) यस्य एटले गोचरीए गयेला एवा जे साधुने (निसिद्या के० ) निषद्या एटले बेसवुं ( कप्पइ ha) कल्पते एटले कल्पे बे. हवे ते कथा प्रकारना साधु ते कहे बे. (जराए के०) जरया एटले वृद्धावस्था (सि के० ) अनूितस्य एटले परानव पामेला - तू अतिवृद्ध यएला तथा ( वाहिस्स के० ) व्याधितस्य एटले रोगग्रस्त यएला तथा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४२५ ( तवस्सियो के०) तपखिनः एटले तपस्वी एवा साधुने गोचरीए गया बतां गृहस्थने घेर बेसवु कल्पे. ॥६० ॥ (दीपिका.) अथ सूत्रेण अपवादमाह। त्रयाणामग्रे वदयमाणानां मध्ये अन्यतरस्य एकस्य यस्य गोचरप्रविष्टस्य गृहस्थगृहनिषद्या कल्पते।औचित्येन तस्य निषद्यायाः सेवने न दोष इति वाक्यशेषः । कथं पुनः कल्पत इत्याह । जरया अनिचूतस्य अत्यन्तं वृद्धस्य तथा व्याधितस्य रोगवतोऽत्यन्तमसमर्थस्य तथा तपखिनो विकृष्टदपकस्य । प्राय एते निदाटनं न कार्यन्ते। परमात्मलब्धिकाद्यास्तु निदाटनं कुर्वन्ति, तहिषयं चैतत् सूत्रम् । तत एतेषां प्रायो दोषा न संचवन्ति । परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीनि ॥ ६ ॥ (टीका.) सूत्रेणेवापवादमाह । तिण्ड ति सूत्रम् । त्रयाणां वद्यमाणलक्षणानामन्यतरस्यैकस्य निषद्या गोचरप्रविष्टस्य यस्य कल्पत औचित्येन । तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः। कस्य पुनः कल्पत इत्याह । जरयानिनूतस्यात्यन्तवृक्षस्य व्याधिमतोऽत्यन्तमशक्तस्य तपखिनो विकृष्टदपकस्य । एते च निदाटनं न कार्यत एव । आत्मलब्धिकाद्यपेक्ष्या तु सूत्रविषयः। न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः संनवंति । परिहरंति च वनीपकप्रतिघातादीति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ वाहिन वा अरोगी वा, सिणाणं जो न पडए॥ वुकंतो होश आयारो, जढो दवा संजमो॥६॥ . . . . (अवचूरिः) उक्तो निषद्यास्थान विधिः । तदनिधानामुक्तं षोडशस्थानमिदानी सप्तदशस्थानमाह । व्याधिमान् व्याधियस्तो अरोगी वा स्नानमङ्गदालनं यस्तु प्रार्थयते सेवते। तेनेबंन्नूतेन व्युत्क्रांतो नवत्याचारो बाह्यतपोरूपोऽस्नानपरीषहासहनात् । जढः परित्यक्तो नवति संयमः सत्त्वरदादिः उदकादिविराधनात् ॥१॥ ' (अर्थ.) हवे सत्तरमुं स्थानक कहे . ( वाहि के) व्याधितः एटले व्याधियुक्त ( वा के०) अथवा ( अरोगी के०) अरोगी एटले रोगरहित एवो ( जो उ के) यस्तु एटले जे को साधु (सिणाणं के०) स्नानं एटले स्नानने ( पठए के) प्रार्थयते एटले श्छा करे , ते साधुनो (थायारो के) श्राचारः एटले श्राचार (वुकंतो के०) व्युत्क्रांतः एटले ब्रष्ट थाय . तथा तेनो ( संजमो के ) संयमः एटले संयम जे जे ते (जढो के०) परित्यक्तः एटले ब्रष्ट जाय .॥६॥ (दीपिका.) उक्तो निषधास्थानविधिः। तस्य कथनाच षोडशस्थानमप्युक्तम्।अथ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. सप्तदशस्थानमाह । यस्तु साधुः स्नानमङ्गप्रदालनं प्रार्थयते सेवते । तेन साधुना श्राचारो बाह्यतपोरूपो व्युत्क्रांतो जवति । कथम् । अस्नानपरीषद्स्य असनात्। पुनः संयमः प्राणिरक्षणादिकः जढः परित्यक्तो भवति । कस्मात् । अष्काया दिविराधनात् । किंभूतः साधुर्व्याधितो वा व्याधियस्तो वा पुनः अरोगी वा रोगरहितो वा । केनापि स्नानं न कर्तव्यमित्यर्थः ॥ ६१ ॥ ( टीका. ) उक्तो निषद्यास्थानविधिः । तदनिधानात्षोडशस्थानम् । सांप्रतं सप्तदशस्थानमाह । वाहि त्ति सूत्रम् । व्याधिमान् वा व्याधिग्रस्तः । अरोगी वा रोगविप्रमुक्तो वा । स्नानमङ्गप्रदालनं यस्तु प्रार्थयते सेवत इत्यर्थः । तेनेयंभूतेन व्युत्क्रातो नवत्याचारो बाह्यतपोरूपः । श्रस्नानपरीषहान तिसेवनात् । जढः परित्यक्तो जव ति संयमः प्राणरक्षणादिकः अष्कायादिविराधनादिति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ संति सुदुमा पाणा, घसासु निलगासु च ॥ जेनिक सिणातो, विप्रडेपुप्पिलावए ॥ ६२ ॥ ( अवचूरिः) प्रासुकनानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह । संतीमे सूक्ष्माः प्राणिनो । न्द्रियादयः घसासु उपरभूमिषु जिलगासु तथाविधनू मिराजिषु यांस्तु निदुः स्नानजोत्लव क्रियया विकटेन प्रासुकोदकेन उत्प्लावयति ॥ ६२ ॥ ( .) हवे स्नान कीधाना दोष देखाडे बे. ( घसासु के० ) उषरभू मिने विषे एटले कार भूमिने विषे ( ० ) च एटले वली (जिलगासु के० ) नू मिनी राज एटले फाटो विषे ( इमे के० ) आ ( सुहुमा के० ) सूक्ष्मा: एटले सूक्ष्म एवा (पाणा के० ) प्राणिनः एटले प्राणीयो ( संति के० ) बे. ( जे अ के० ) येच एटले जे जीवोने ( सिणायंतो के० ) स्नानू एटले स्नान करतो एवो ( जिरकू के० ) निक्षुः एटले साधु ( विण के० ) विकृतेन एटले विकृतजले करी ( उपिलावए ho) प्लावयति एटले पलाले बे. तेथी ते जीवोनी विराधना थाय. ॥ ६२ ॥ 1 ( दीपिका . ) संति एते प्रत्यक्षमुपलभ्यमानाः सूक्ष्माः श्लक्ष्णाः प्राणिनो हीन्द्रयादयः । कासु । घसासु सुषिरभूमिषु च । पुनः निलगासु तथा विधनू मिराजीषु । के । यान् सूक्ष्मप्राणान् स्नानं कुर्वन् स्नानजलोलन क्रियया विकृतेन प्रासुकेन जलेन उत्लावयति । तथा च सति प्राणिविराधना भवेत् ततश्च संयमपरित्यागः ॥ ६२ ॥ ( टीका. ) प्रासुकस्थानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह । संतिमेति सूत्रम् । संन्त्येते प्रत्यक्षोपत्वज्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः श्लक्ष्णाः प्राणिनो हीन्द्रियादयः । घसासु Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४१७ शुषिर मिषु जिलगांसु च तथाविधनू मिराजीषु च यांस्तु निक्कुः स्नानजलोशन क्रियया विकृतेन प्रासुकोदकेनोत्प्लावयति । तथा च तद्विराधनाच्च संयमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥ ६२ ॥ तम्हा ते न सिपायंति, सीएण उसिऐप वा ॥ जावजीवं वयं घोरं, सिणाणमदिठगा ॥ ६३ ॥ ( अवचूरि : ) निगमयन्नाह । यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात्ते साधवो न स्त्रांति । शीतोदकेनोष्णोदकेन वा । यावजीवं व्रतं घोरं पुरनुचरम् । अस्नानमाश्रित्याधिठातारोऽस्यैव कर्त्तारः ॥ ६३ ॥ ( .) ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारणमाटे ( ते के० ) ते साधु (सीएए के० ) शीतेन एटले टाढे जले ( वा० के०) अथवा (सिणेण के० ) उष्णेन एटले उष्ण जले ( न सियायंति के० ) न स्नांति एटले स्नान करता नथी. (घोरं के० ) घोरवा (सिणा के० ) अस्नानं एटले स्नान न करवुं ते रूप ( वयं के० ) व्रतं एटले व्रतने ( जावजीवं के० ) यावजीवं एटले जावजीवपर्यंत ( अहिरुगा के० ) अधिष्ठातारः एटले आश्रय करनारा होय बे. ॥ ६३ ॥ ( दीपिका . ) निगमयन्नाह । यस्मादेवं दोषा उक्तास्तस्मात्ते साधवो न स्नानं कुर्वन्ति । न कृत्वा । शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा । प्रासुकाप्रासुकेन वेत्यर्थः । यतस्ते साधवो यावजीवमाजन्म घोरं डुरनुचरमस्नानमाश्रित्य व्रतमधिष्ठातारः यस्यैव व्रतस्य कर्तारः ॥ ६३ ॥ ( टीका . ) निगमयन्नाह । तम्ह ति सूत्रम् । यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात्ते साधवो न स्नान्ति । शीतेन वोष्णेनोदकेन प्रासुकेनाप्रासुकेन वेत्यर्थः । किंविशिष्टास्त इत्याह । यावजीवमाजन्म व्रतं घोरं डुरनुचरमस्नानमाश्रित्याधिष्ठातारः अस्यैव कर्तार इति सूत्रार्थः ॥ ६३ ॥ सिपाडवा कक्क, लुई पमगाणि ॥ गाय सुट्टाए, नायरंति कया इवि ॥ ६४ ॥ ( अवचूरिः ) स्नानं पूर्वोक्तमथवा कल्कं चन्दनादि गन्धद्रव्यम् । पद्मकानि च कुङ्कुमकेसराणि चादन्यच्चैवंविधं गात्रस्योऽर्त्तनार्थ मुहर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि ॥ ६४ ॥ ५३ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) वली साधु झुं करे ते कहे . ( सिणाणं के ) स्नानं एटले पूर्वे कहेलु स्नान ते ( अजुवा के०) अथवा (ककं के) कक्लं एटले चंदनादि कक्ल (बु. इं के०) लोधं एटले लोध्र नामक सुगंधि अव्य (पजमगाणि के०) पद्मकानि एटले कुंकुम केसर (अ के०) च एटले चकारनुं ग्रहण के माटे बीजु पण सुगंधि अव्य ग्रहण करवू. ते सर्वने ( गायस्सुबट्टणहाए के) गात्रस्योर्त्तनार्थाय एटले पोताना शरीरना उर्तन निमित्ते ( कया वि के०) कदाचिदपि एटले कोश् समये पण एटले यावजीवपर्यंत (नायरंति केण) नाचरंति एटले आचरण करता नथी. अर्थात् जेम स्नान न करवू, तेम उवटणुं प्रमुख पण न लगाडवू. ॥ ६४ ॥ (दीपिका.) स्नानं पूर्वोक्तम् । अथवा कक्लं चन्दनादि । लोभ्रं गन्धव्यम् । पझकानि च कुङ्कमकेसराणि । चशब्दादन्यदपि एवं विधं गात्रस्य नहर्त्तनार्थमुहर्तननिमित्तं कदाचिदपि यावङीवमेव साधवो नाचरन्ति ॥ ६४ ॥ (टीका.) सिणाणं ति सूत्रम् । स्नानं पूर्वोक्तम्, अथवा कल्कं चन्दनकटकादि: लोभ्रं गन्धव्यम्, पद्मकानि च कुङ्कुमकेसराणि। चशब्दादन्यच्चैवंविधं गात्रस्यैवोहर्त्तनार्थमुहर्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि यावजीवमेव साधव इति सूत्रार्थः॥६॥ नगिणस्स वा वि मुंमस्स, दीहरोमनहंसिणो॥ मेहुणा नवसंतस्स, किं विनूसा कारिअं॥६५॥ (अवचूरिः) उक्तः स्नानविधिस्तदनिधानात्सप्तदशस्थानमुक्त मिदानीमष्टादशस्थाः नमुच्यते । नग्नस्य कुचेलवतोऽप्युपचारनमस्य जिनकल्पस्य वा मुएकस्य अव्यजावान्यां दीर्घरोमनखवतः जिनकल्पकस्येतरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव स्युः । मैथुनापशान्तस्योपरतस्य किं विनूषया कारिअं कार्यम् ॥ ६५ ॥ __ (अर्थ.) एम स्नानविधि कह्यो. तेथी सत्तरमुं स्थान पण कहेवाणुं. हवे अढारमुं शोनावर्जन नामा स्थान कहे जे. ( नगिणस्स के) नग्नस्य एटले नग्न प्रमाणोपेतवस्त्रधारी अथवा नग्न एवा जिनकल्पी (वा वि के० ) वापि एटले वली पण (मुंगस्स के ) मुंमस्य एटले अव्य नावथी मुंम एवा (दीहरोमनहंसिणो के) दीर्घरोमनखवतः एटले मोहोटा काख प्रमुखना रोम तथा नख वध्या जे जेना एवा एटले जिनकल्पीने सर्वथा नख उतारवा नहि, अने थिविरकल्पी प्रमाणयुक्त राखे, एवा साधु तथा ( मेहुणा के०) मैथुनतः एटले मैथुन थकी ( उवसंतस्स के०) उपशांतस्य एटले शांति पामेला एवा साधुने ( विनूसा के) विषया एटले वि. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके षष्ठमध्ययनम्। . ४२ए जूषादिके करी ( किं कारिआं के ) किं कार्य एटले शुं करवु ले ? अर्थात् कांश पण नहि. ॥६५॥ (दीपिका.) उक्तः स्नानविधिः । तस्य कथनेन सप्तदशस्थानमप्युक्तम् । सांप्रतमष्टादशं स्थानमुच्यते शोनावर्जननाम । शोनायां दोषो नास्ति । यतः अलंकृतश्चापि धर्ममाचरेत् इत्यादि वचनादिति पराजिप्रायमाशंक्य आह । एवं विधस्य साधोः विनूषया शोजया कि कार्य न किंचिदित्यर्थः। किं साधोः। नग्नस्य वापि कुचैलवतोऽप्युपचारनम्नस्य । निरुपचरितनग्नस्य वा जिनकदिपकस्येति सामान्यविषयमेव सूत्रम् । तथा मुण्मस्य अव्यतो जावतश्च । पुनः दीर्घरोमनखवतः कदादिषु दीर्घनखवतो जिनकल्पिकस्य । श्तरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा नवन्ति । पुनः मैथुनाउपशान्तस्योपरतस्येति ॥६५॥ (टीका.) उक्तोऽस्नान विधिः। तदनिधानात्सप्तदशस्थानम्।सांप्रतमष्टादशं शोनावर्जनास्थानमुच्यते । शोजायां नास्ति दोषोऽलंकृतश्चापि चरेधर्ममित्यादिवचनात्परानिप्रायमाशंक्याह । नगिणस्स त्ति सूत्रम् । नग्नस्य वापि कुचैलवतोऽप्युपपचारनग्नस्य निरुपचरितस्य नमस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्य विषयमेव सूत्रम् । मुएकस्य अव्यनावाच्याम् । दीर्घरोमनखवतः। दीर्घरोमवतः कदादिषु, दीर्घनखवतोहस्तादौ जिनकल्पिकस्य । श्तरस्य तु प्रमाणयुक्ता एव नखा नवन्ति । मैथुनाउपशान्तस्योपरतस्य किं विषया राढया कार्य न किंचिदिति सूत्रार्थः ॥ ६५ ॥ विनूसावत्तिअंनिस्कू, कम्मं बंध चिक्कणं ॥ संसारसायरे घोरे, जेणं पड दुरुत्तरे ॥६६॥ (अवचूरिः) प्रयोजनानावमनिधायापायमाह । विजूषाप्रत्ययं विषानिमित्तं निकुः कर्म बध्नाति । चिकणं दारुणं संसारसागरेऽपारे रौ । येन कर्मणा पतति कुरुत्तरेऽत्यन्तदीघे ॥ ६६ ॥ (अर्थ.) ( निस्कू के) निनुः एटले साधु ( विनूसावत्तियं के) विनूपाप्रत्ययं एटले आनूपण निमित्त ( चिकणं के ) चिक्कणं एटले चीकणा एवा (कम्म के) कर्म एटले कर्मने ( वंधर के०) वनाति एटले वांधे . (जेणं के०) येन एटले जे विनूपाए करी (उरुत्तरे के०) उरुत्तारे एटले कुःखे उतरी शकाय एवा तथा ( घोरे के० ) घोरे एटले वीहामणा एवा (संसारसायरे के० ) संसारसा. गरे एटले संसाररूप सागरने विपे ( पडश के०) पतति एटले पडे ठे.॥६६॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) इत्थं प्रयोजनस्यानावं कथयित्वापायमाह । साधुस्तत्कर्म वनाति । किंजूतं कर्म । विनूषाप्रत्ययं विनूषानिमित्तम् । पुनः किंनूतं कर्म । चिक्कणं दारुणम् । तत्किम् । येन कर्मणा साधुः संसारसागरे नवसमुझे पतति । किंजूते संसारे । घोरे रौजे । पुनः किंजूते संसारे। कुरुत्तारेऽकुशलानुबन्धतोऽत्यन्तदीघे ॥ ६६ ॥ (टीका. ) श्वं प्रयोजनानावमनिधायापायमाह । विजूस त्ति सूत्रम् । विजूषाप्रत्ययं विषानिमित्तं जिनुः साधुः कर्म बनाति चिकणं दारुणम् । संसारसागरे घोरे रौद्रे येन कर्मणा पतति । कुरुत्तारे अकुशलानुबंधतोऽत्यंतदीर्घ इति सूत्रार्थः ॥ ६६ ॥ विसावत्तिअंचेअं, बुधा मन्नति तारिसं॥ ... . सावजं बहुलं चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं॥ ६ ॥ (अवचूरिः ) बाह्यविनूषापायमनिधाय संकल्प विनूषापायमाह। विनूषाप्रत्ययं चेतो मनो बुझास्तीर्थकरा मन्यन्ते तादृशं रौअकर्मबन्धहेतुनूतं विनूषा क्रियया सदृशं सावद्यबहुलं चैतदातध्यानानुगतं चेतो नैतत्रातृभिः सेवितम् ॥ ६ ॥ " (अर्थ. ) ए प्रमाणे प्रथमनी गाथामां बाह्य विनूषाना दोषो कह्या. हवे संकल्परूप विषाना दोषो कहे . (बुद्धा के०) बुझाः एटले तीर्थंकरो साधुना (विनूसावत्तिसं के) विनूषाप्रत्ययं एटले आभूषणना संकल्पसहित एवा (चेअं के ) चेतः एटले चित्तने (तारिसं के) तादृशं एटले रौनकर्मबंधनहेतुनूत एवाने ( मन्नंति के०) मन्यते एटले माने जे. ( च के० ) वली ( एवं के) एतत् एटले ए चित्त आर्तध्याने करी (सावजबहुलं के ) सावद्यबहलं एटले सावद्यदोषसहित एटले घणा पापचं कारण ले तेमाटे (ताहिं के ) त्रातृनिः एटले संसारमा कुःखी थता जीवनुं रक्षण करनार एवा आर्य साधुर्जए (न सेविसं के) न सेवितं एटले सेवन करेलुं नथी. ॥ ६ ॥ (दीपिका. ) एवं बाह्य विजूषायामपायमुक्त्वा संकल्प विनूषायामपायमाह । बुद्धास्तीर्थकरा एवं विधं चेतः तादृशं मन्यन्ते । रौई कर्मबन्धहेतुनूतं विनूषा क्रियासदृशं जानन्ति । किं चेतः । विनूषाप्रत्ययं विनूषानिमित्तम् । कोऽर्थः । एवं च यदि मम विजूषा संपद्यत इति तत्प्रवृत्तमित्यर्थः। सावद्यबहुलं च एतत् आर्तध्यानेन अनुगतं चेतो न इत्यंचूतं त्रातृनिः आत्मारामैः आर्यैः साधुनिः सेवितमाचरितं कुशलचित्तत्वात्तेषां साधूनाम् ॥ ६७ ॥ (टीका.) एवं बाह्यविनूषापायमनिधाय संकल्पविनूषापायमाह। विजूस त्ति सूत्र Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४२२ म् । विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं चेत एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपद्यत इति । तस्प्रवृत्त्य चित्तमित्यर्थः । बुद्धास्तीर्थकरा मन्यन्ते जानन्ति । तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषा क्रियासदृशं सावद्यवहुलं चैतदार्तध्यानानुगतं चेतः नैतदिछंभूतं त्रातृजिरात्मारामैः साधुनिः सेवितमाचरितम् । कुशल चित्तत्त्वात्तेषामिति सूत्रार्थः ॥ ६७ ॥ खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमवेगुणे ॥ धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥ ६८ ॥ ( अवचूरिः) उक्ता उत्तरगुणाः । सांप्रतं फलदर्शनेनोपसंहरन्नाह । रुपयन्ति शोधयन्त्यात्मानममोहदर्शिनः । यथावस्थितार्थदर्श निनः । तपसि रताः । किंभूते । संयमाजवगुणे । त एवंभूता धुन्वन्ति कम्पयन्ति पापानि पुराकृतानि । नवानि प्रत्ययाणि पापानि ते नं कुर्वन्ति साधवः ॥ ६८ ॥ अर्थः- शोनावर्जननामा अढारमुं स्थानक कयुं. तेथी अढारे पापस्थानक कला. ते देवा उत्तरगुणो कहा. हवे ते अढार पापस्थानकनो उपसंहार करता थका कहे बे. ( मोह सिके) मोहदर्शिनः एटले मोह रहित वस्तुने जोनारा अर्थात् वस्तुने यथार्थ पणे जाणनारा एवा साधु पोताना (अप्पाणं के० ) आत्मानं एटले आत्माने ( खवंति के ० ) पयंति एटले खपावे, शोधे. (संजमवेगुणे के ० ) संयमार्जवगुणे एटले संयम ने आर्जव वे गुण जेमां एवा ( तवे के० ) तपसि एटले तपने विषे ( रया के० ) रताः एटले रक्त सावधान अर्थात् दमा दयाए करी युक्त एवा साधु (पुरेकडाई के० ) पुराकृतानि एटले पूर्वे घणा जवना करेला एटले जन्मांतरना संचेला ज्ञानावरणादिक वा कर्मो तेने ( धुणंति के० ) धुन्वंति एटले खपावे, यने वली ( ते के० ) ते साधु (नवाई के० ) नवानि एटले नवीन एटले नवां ( पावाई के० ) पापानि एटले पापोने अर्थात अन कमोंने ( न करंति के० ) न कुर्वन्ति एटले करे नहि. अप्रमत्त होवाथी बांधे नहि. ॥ ६८ ॥ ( दीपिका. ) उक्तः शोजावर्जनास्थानविधिः । तस्यानिधानेन चाष्टादशपदमप्युक्तम् । अष्टादशपदकथनेन च उत्तरगुणा उक्ताः । सांप्रतमुक्त फलदर्शनेनोपसंहारमाह । य एवंविधाः साधव यात्मानं जीवं तेन चित्तयोगेन श्रनुपशांतं शमयोजनेन रुपयंति । किंनूताः साधवः । मोहदर्शिनः । श्रमोहं ये पश्यन्ति यथावत् पश्यंति इत्यर्थः । त एव विशेष्यते । पुनः किं० साधवः । तपसि अनशनादिलक्षणे रता व्यासक्ताः । किंभूते तपसि इत्याह । संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणौं यस्य तपसः तस्मिन् संयमश्जुनावगुणप्रधान इत्यर्थः । त एवंभूताः साधवः पापानि धुन्वन्ति कंपयंति । किंभूतानि पापानि । पुरेकडाई Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. पुराकृतानि जन्मांतरेषूपार्जितानि । पुनस्ते साधवो नवानि पापानि न कुर्वति । तथाप्रमत्तत्वादिति ॥ ६८ ॥ ( टीका. ) उक्तः शोजावर्जनास्थान विधिः । तदनिधानादष्टादशं पदम् । तदनिधानाच्चोत्तरगुणाः। सांप्रतमुक्त फलप्रदर्शनेनोपसंहरन्नाह । खवंति ति सूत्रम् । रुपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्तयोगेनानुपशांतं रामयोजनेन जीवम् । किं विशिष्टा इत्याह । अमोहदर्शिनः । मोहं पश्यन्ति यथावत्पश्यन्तीत्यर्थः । त एव विशेष्यन्ते । तपस्यनशनादिलक्षणे रताः सक्ताः । किंविशिष्टे तपसीत्याह । संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणौ यस्य तपसस्तस्मिन् । संयमश्जुनावप्रधाने शुद्ध इत्यर्थः । त एवंभूता धुन्वन्ति कम्पयन्त्यपनयन्ति पापानि पुराकृतानि जन्मान्तरोपात्तानि । नवानि प्रत्ययाणि पापानि न ते साधवः कुर्वन्ति । तथाप्रमत्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ६८ ॥ सवसंता ममा किंचणा, सविकविका गया जसंसिणो ॥ पन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमालाई नवंति ताइणो त्ति बेमि ६७ ॥ धम्मचकामनयां बहं ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) सदोपशान्ताः साधवः श्रममाः ममत्वशून्या अकिंचनाः स्वर्ण मिथ्यात्वरहिताः । खात्मीया विद्या खविद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तथा स्वविद्यविद्य या अनुगता युक्ताः । न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति । यशखिनः शुद्धपारलौकिक यशोवन्तः । त एवंभूता कृतौ परिणते शरत्काल इव चन्द्रमा चन्द्रमा श्व विमला जावमलरहिताः सिद्धिं निर्वृतिं तथा साधवः शेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युपयन्ति गछन्ति त्रातारः खपरापेक्षया साधव इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥६९॥ इति षष्ठाध्ययनावचूरिः ॥ ६ ॥ (अर्थ) वली ते साधु कहेवा बे, तथा कथा पढ़ने पामे बे ते कहे बे. ( सर्जवसं ता के० ) सदोपशांता: एटले निरंतर उपशांत क्रोधरहित कमावंत, ( श्रममा के० ) श्रममाः एटले द्रव्यथी वस्तु उपर छाने जावंथी शरीर उपर नयी ममता जेने एवा ( अकिंचणा के० ) अकिंचना: एटले परिग्रहरहित, ( सवित विज्ञाणुगया के० ) स्वविविद्यानुगताः एटले पोतानी जे परलोकोपकारिणी केवलज्ञान अथवा श्रुतज्ञानरूप विद्या तेणे करी युक्त तथा ( जसं सिणो के० ) यशस्विनः एटले नावथी संयमरूपाने द्रव्यश्री कीर्त्तिरूप यश तेणे करी युक्त तथा (उप्पसन्ने के० ) इतुप्रसन्ने एटले प्रसन्नरुतुमां एटले शारदीय रुतुए एटले शरत्कालमां श्रासोकार्त्तिकनी पूनमनी रात्रे सोलकलासहित. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिके षष्ठमध्ययनम् । ४२३ (विमले के ० ) निर्मल वादलर हित (चंदिमा व के० ) चंद्रमा इव एटले चंद्रमा शोने तेम साधुना सत्तावीश गुण ते रूप कला सहित आठ कर्मरूप वादल तेणे रहित निर्मल एवा (ताइणो के०) त्रातारः एटले बकायना जीवने रक्षण करनार एवा साधु (सिद्धिं के० ) सिद्धिं एटले मुक्तिने (जवंति के ० ) उपयंति एटले पामे छे, छाने कदाचित् जो शेष कर्म रह्या होय तो ( विमाणा के ० ) विमानानि एटले सौधर्मावतंसक प्रमुख विमान प्रत्ये पामे बे. एटले वैमानिक देवता याय. (तिवेमि के ० ) इति ब्रवीमि एटले एम शिष्यप्रत्ये गुरु कहे बे ॥६॥ इति श्रीदशवेकालिकसूत्रस्य षष्ठाध्ययने बालाववोधः समाप्तः ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) किं च । ताइणो ति त्रातारः स्वस्य परस्य चापेक्षया साधवः सिद्धिं मुक्तिं व्रजन्ति । तथाऽपि साधवः शेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युपयान्ति सामीप्येन गति । किं० साधवः । सदा उपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः । पुनः किं० साधवः । यमाः सर्वत्र ममत्वशून्याः । पुनः किं० साधवः । अकिंचना हिरण्यादिव्येण मिथ्यात्वादिनावेन च किंचनेन मुक्ताः । पुनः किं० साधवः । स्वात्मीया विद्या स्वविद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा । खविद्या चासौ विद्या च स्वविद्यविद्या तया विद्यविद्यया अनुगता युक्ताः । न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्या । पुनः किं० साधवः । यशखिनः शुद्धेन परलोकसंवन्धिना यशसा सहिताः । पुनः किं० साधवः । रुतौ प्रसन्ने परिणते शरत्कालादौ विमल इव चंद्रमाः चंद्रमा इव विमला इत्येवंकल्पास्ते नावमलरहिता इत्यर्थः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ६५ ॥ इति दशवैकालिकसूत्रे धर्मार्थकामाख्ये षष्ठेऽध्ययने श्रीसमयसुन्दरोपाध्याय विरचिता शब्दार्थवृत्तिः समाप्ता ॥ ६ ॥ ( टीका . ) किं च सदोवसंत त्ति सूत्रम् । सदोपशान्ताः सर्वकालमेव क्रोधरहिताः । सर्वत्राममा ममत्वशून्याः । श्रकिंचना हिरण्यादि मिथ्यात्वादिद्रव्यन्नावकिंचनविनिर्मुक्ताः । स्वा आत्मीया विद्या स्वविद्या परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया स्वविद्यया विद्ययानुगता युक्ता न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति । त एव विशेव्यन्ते । यशस्विनः शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः । त एवंभूता इतौ प्रसन्ने परिपते शरत्कालादौ विमल इव चन्द्रमाः । चन्द्रमा इव विमलाः । इत्येवंकल्पास्ते नावमलरहिताः सिद्धिं निर्वृतिं तथा सावशेषकर्माणो विमानानि सौधर्मावतंसकादीन्युयान्ति सामीप्येन गच्छन्ति । त्रातारः स्वपरापेक्षया साधव इति त्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्तेच पूर्ववत् । व्याख्यातं षष्टाध्ययनम् ॥ ६९ ॥ । इति श्रीहरिजप्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ पष्ठमध्ययनम् ॥ ६ ॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. अथ वाक्यशुयाख्यं सप्तममध्ययनम् । चन्दं खलु नासाएं, परिसंखाय पन्नवं ॥ इन्हं तु विषयं सिके, दो न नासिक सङ्घसो ॥ १ ॥ ( अवचूरिः ) श्रथ सप्तमं वाक्य शुद्धयध्ययनमारज्यते । पूर्वाध्ययन श्राचारः कथितः । स च निरवद्यवचसा वाच्यः । अतो वाक्यशुद्धिमाह । चतसृणां खलु भाषाणां खलुशब्दोऽवधारणे चतसृणामेव ज्ञातव्यानां जाषाणां सत्यादीनां परिसं ख्याय ज्ञात्वा सर्वैः स्वरूपं प्रकारैरिति वाक्यशेषः । प्रज्ञावान् प्राज्ञः सत्यासत्या - मृषायां द्वायामेव । तुरवधारणे । श्रायां विनयं शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा शिक्षेत जानीयात् । द्वे असत्यासत्यामृषे न जाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति ॥ १ ॥ ( . ) हवे वाक्यशुद्धि नामक अध्ययन शुरू कराय बे. तेनो पूर्वाध्ययननी साथै आ रीते संबंध बे. पूर्वाध्ययनमां कह्युं के, गोचरीए गएला साधुने कोइ कोइ धर्म संबंधी प्रश्न करे तो त्यांज विस्तरथी धर्मकथा न कहेवी, तो उपासरे कहीश, अथवा मारा गुरु कदेशे, एम कहेतुं छाटली वात कही. हवे ते साधु अथवा तेना गुरु - पाराने विषे पृछने विस्तरथी धर्मकथा कहे, ते वचनना गुण दोष जाणी निरद्य वचनथीज कहेवी. ए वात या अध्ययनमां कहेवानी बे. या संबंधी आवेला ए सातमा अध्ययननुं चउन्हें इत्यादि प्रथम सूत्र बे. ( पन्नवं के० ) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली पुरुष ( चउन्हं खलु के० ) चतसृणामेव एटले चारज ( नासाणं ho ) जाषाणाम् एटले जाषाउनुं स्वरूप ( परिसंखाय के० ) परिसंख्याय एटले सर्व प्रकारे जाणीने: ( डुन्हंतु के० ) द्वाभ्यां तु एटले बेज जाषावडे अर्थात् सत्या सत्यामृषा ए वे जाषावडे करीने ज ( विषयं के० ) विनयं एटले शुद्ध प्रयोग करवाने ( सिरके के० ) शिक्षेत एटले शीखे, जाणे. अने बाकी रहेली ( दो hu ) द्वे एटले वे जाषा ( सहसो के० ) सर्वशः एटले सर्व प्रकारे ( न नासिक ho ) न जाषेत एटले न बोले. ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) व्याख्यातं धर्मार्थकामकथानामकं षष्ठमध्ययनम् । अथ वाक्यशुद्धिनामकं सप्तमध्यायनं व्याख्यायते । अस्य अध्ययनस्य पूर्वाध्ययनेन यं संबंधः । पूर्वाध्ययन एवमुक्तं गोचरीप्रविष्टस्य साधोः केनापि पृष्टं त्वं स्वकीयमाचारं कथय । तदा तेन स्वाचारं जानतापि महाजनसमक्षं विस्तरतस्तत्रैव न वक्तव्य आचारः । किंतु उपाश्रये गुरवः कथयिष्यन्तीति वक्तव्यम् । इह सप्तमेऽध्ययने तु उपाश्रयगतेनापि गुरुणा वचनदोषगुणानिज्ञेन निरवद्यवचनेन कथयितव्यमित्येतदुच्यते ! उक्तं च Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । श्य सावळाणवजाणं वयणाणं जो न याण विसेसं ॥ वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं कालं ॥१॥ इत्यनेन संबंधेना यातमिदमध्ययनम् । तत्र.सूत्रम् । प्रज्ञावान् बुकिमान् साधुः छान्यां सत्यासत्यामृषाच्यां नाषान्यां विनयं शुप्रयोगं शिदेत जानीयात् । तुः अवधारणे । छान्यामेवाच्याम् । तत्र विनय इति कोऽर्थः । विनीयतेऽनेन कर्म इति विनयस्तं विनयं पुनः असत्यासत्यामृषे न नाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैः । किं कृत्वा । चतसृणां नाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैः ज्ञात्वा । किम् । स्वरूपमिति शेषः । खबुशब्दोऽवधारणार्थे । नाषाचतुष्टयमेवास्ति नान्या नाषा वर्तते ॥१॥ (टीका.) सांप्रतं वाक्यशुद्ध्याख्यमध्ययनं प्रारच्यते । अस्य चायमनिसंबन्धः। शहानन्तराध्ययने गोचरप्रविष्टेन सता वाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमदं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इत्यपित्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतउक्तम् । इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणानिझेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्येताच्यते । उक्तं च।सावजाणवजाणं, वयणाणं जो न याण विसेसं ॥ वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं कालं ॥१॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निदेपः। तत्र वाक्यशुचिरिति द्विपदं नाम । तत्र वाक्यनिदेपानिधानार्थमाह ॥ निकेवो अचउको, वक्के दवं तु जासदवाई॥ नावे जासासदो, तस्स य एगहिआश्णमो॥३५॥ व्याख्या ॥ निदेपस्तु चतुष्को नामस्थापनाजव्यत्नावलक्षणो वाक्ये वाक्यविषयः। तत्र नामस्थापने कुले ।ऽव्यं तु अव्यवाक्यं पुनईशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तम्।जापाडव्याणि नाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि । नाव इति नाववाक्यं नाषाशब्दः । नाषाव्याणि श. दो ब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकाथिकान्यमूनि वय माणलदणानीति गाथार्थः॥ वकं वयणं च गिरा, सरस्सई नारही श्रगो वाणी ॥ नासा पन्नवणी दे-सणी अ वयजोग जोगे थ॥३६॥ व्याख्या ॥ वाक्यं वचनं च गीः जा. सरस्वती नारतीच गौर्वाक् नाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगो योगश्च एतानि निगदन सिझान्येवेति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ पूर्वोद्दिष्टां व्यादिनाषामाह ॥ दवे तिविहा तदा गहणे, अ निसग्गे तह नवे पराघाए ॥ जावे दवे असुए, चरित्तमाराहणी चेव॥३॥ व्याख्या।। अव्य इति धारपरामर्शः। अव्यनाषा त्रिविधा । ग्रहणे च निसर्गे च तथा " नवेत्पराघाते । तत्र ग्रहणं जाषाडव्याणां काययोगेन यत्। सा ग्रहणव्यनाषा। निस- . व गैस्तेषामेव नाषाव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया । पराघातस्तु निसृष्टनाषाअव्यैस्तद Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ राय धनपतसिंघवदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)- मा. (४३)-मा. न्येषां तथात्मपरिणामापादन क्रियावत्प्रेरणम् । एषा त्रिप्रकारापि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवचितत्वात् द्रव्यजापेति । जाव इति द्वारपरामर्शः । जावजापा त्रिविधैव । द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति । द्रव्यजावज्ञाषा श्रुतजावनाषा चारित्रजावनाषाच । तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तैर्या जाष्यते सा द्रव्यभावनाषा । एवं श्रुतादिष्वपि वाच्यम् । इयं त्रिप्रकारापि वक्र निप्रायात्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्षया नावजाषा । इयं चौघत एवाराधनी चैवेति । द्रव्याराधनत्वाच्चशब्दा द्विराधनी चोजयं वानुनयं च जवति द्रव्याद्याराधना दिय इति । देह व्यजाववाक्यस्वरूपमनिधातव्यं तस्य प्रस्तुतत्वात्तत्किमनया नापयेत्युच्यते । वाक्यपर्यायत्वाङ्गाषाया न दोषः । तत्त्वतस्तस्यैवा निधानादिति गाथासमुदायार्थः ॥ वयवार्थ तु वक्ष्यति । तत्र द्रव्यजावजाषामधिकृत्याराधन्या दिभेदयोजनामाह ॥ राहणी दवे, सच्चा मोसा विराहणी होइ ॥ सच्चामोसा मीसा, असच्चामोसा य पंडिसेहो ॥ ३८ ॥ व्याख्या ॥ आराध्यते परलोकापीडया यथावदनिधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु द्रव्य इति द्रव्यविषया नावजाषा सत्या । तुशब्दात् द्रव्यतो विराधन्यपि काचित्सत्या परपीडासंरक्षण फलनावाराधनादिति । मृषा विराधनी नवति । तद्द्रव्यान्यथानिधानेन तद्विराधनादिति जावः । सत्यामृषा मिश्रा | मित्याराधनी विराधनी च । असत्यामृषा च प्रतिषेध इति नाराधनी नापि विराधनी तद्वाच्यद्रव्ये तथोजयानावादित्यासां च स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्टी जविष्यतीति गाथार्थः ॥ सत्यामाह ॥ जणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पमुच्च सच्चे छा ॥ ववहारजावजोगे, दसमेसचे ॥३॥ व्याख्या ॥ सत्यं तावद्वाक्यं च दशप्रकारं भवति । जनपदसत्यादिदात् । तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेशमाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति । यथोदकार्थे कोंकणकादिषु पयः पिच्चमुदकं नीरमित्याद्यडुष्ट - विवाहेतुत्वान्नानाजनपदे ष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्व्यवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदित्येवं शेषेष्वपि जावना कार्या । संमतसत्यं नाम कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कनवे गोपालादीनामपि संमतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । स्थापनासत्यं नाम अक्षर - मुद्रा विन्यासादिषु यथा माषकोऽयं, कार्षापणोऽयं शतमिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्यं नाम कुलवमर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते, धनमवर्धयन्नपि धनवर्द्धन इत्युच्यते, अयक्षश्च यक्ष इति । रूपसत्यं नाम तङ्गुणस्य तथारूपधारणं रूपसत्यम् । यथा प्रपञ्चयतेः प्रव्रजितरूपधारणमिति । प्रतीत्यसत्यं नाम यथा अनामिकाया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति । तथाहि तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्सहकारिकारणसंनिधानेन तत्तडूपमनिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसत्यं नाम दह्यते गिरिर्गलति जाजनमनुदरा कुन्या लोमा एडकेति गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते तथोदके च गलति ॥ तत्र Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । सति, तथा संजोगबीजप्रजवोदराजावे च सति, तथा लवनयोग्यलोमानावे सति । 1 सत्यं नाम शुक्ला बलाका । सत्यपि पञ्चवर्णसंभवे शुक्लवर्णोत्कटत्वातुलेति । योगसत्यं नाम बत्रयोगात्री दण्मयोगाद्दएकी चेत्येवमादि । दशभमौपम्यसत्यं च । तत्रैौपम्यसत्यं नाम समुद्रवत्तडाग इति गाथार्थः ॥ ॥ उक्ता सत्याधुना मृषावादमाह । कोहे माणे माया, लोभे पेऊ तदेव दोसे छा ॥ हासनए अरकाश्य, उवधाए निस्सिय . दसमा ॥४०॥ व्याख्या ॥ क्रोध इति । क्रोधनिःसृता यथा । क्रोधाजिनूतः पिता पुत्रमाह । . न त्वं मम पुत्रः । यद्वा क्रोधानिनूतो वक्ति तदाशयविपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति एवं माननिःसृता मानाध्मातः क्वचित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आह महाधनोऽहमिति । माया निःसृता मायाकारप्रनृतय हुर्नष्टो गोलक इति । लोज निःसृता वणिप्रतीनामन्यथाकी तमेवेच्छमिदं क्रीतमित्यादि । प्रेमनिःसृता अतिरक्तानां दासोऽहं “तवेत्यादिः । द्वेषनिःसृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादिः । हास्य निःसृता • कान्दर्पिकानां किंचित्कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्टानां न दृष्टमित्यादि । जयनिःसृता तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसानिधानम् । श्रख्यायिका निःसृता तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः । उपघातनिःसृता अचोरे चोर इत्यन्याख्यानवचनमिति गाथार्थः । उक्ता मृषा सांप्रतं सत्यामृषामाह ॥ उप्पन्न विगयमीसग, जीवमजीवेाजीवाजीवे ॥ तहतमी सगा खलु, परित्तश्रद्धा अ अद्धद्धा ॥ ४१ ॥ व्याख्या ॥ उत्पन्न विगत मिश्रति उत्पन्नविषया सत्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दश दारका उत्पन्ना इत्यजिदधतस्तन्यूनाधिकजावे व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषात्वात् । श्वस्ते शतं दास्यामि इत्यनिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात् । अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव सृषात्वसिद्धेः । सर्वथा क्रियाजावेन सर्वथा व्यत्ययादित्येवं विगतादिष्वपि जावनीयमिति । तथाच विगत विषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्यास्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यजिदधतस्तन्यूनाधिकजावे । एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्न विगतोजय सत्यामृषा । यथैकं पत्तनमधिकृत्याहास्मिन्नद्य दश दारका जाता दश च वृद्धा विगता इत्यंनिदधतस्तन्यूनाधिकara | जीवमिश्रा जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकु मिराशौ जीवरा शिरिति । श्रजीव मिश्रा च अजीव विषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेवप्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति । जीवाजीव मिश्रेति जीवाजीव विषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतमिराशौ प्रमाण नियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यनिदधतस्तन्यूनाधिकनावे | तथानन्त मिश्रा खल्विति अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकदान्दौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्य निदधतः । परीतमिश्रा परीतविषया सत्यामृषाः यथानन्तकायलेशवति परीतम्लानमूलादौ परीतोऽयमित्य निदधतः । श्रद्धा मिश्रा कालविषया सत्यामृषा Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४श्राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति । अझमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अमखोच्यते । तहिपया सत्यामृषा यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने त्वरयन् प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह। एवंमिश्रशब्दः प्रत्येकमनिसंवध्यत इति गाथार्थः ॥ ॥ उक्ता सत्यामृपा सांप्रतमसत्यामृषामाह॥श्रामंतणि आणवणी, जायणि तह पुठणीय पन्नवणी॥पच्चरकाणी नासा, नासा श्वाणुलोमा ॥४॥व्याख्या॥श्रामंत्रणी यथा हे देवदत्त इत्यादिः। एषा किलाप्रवर्तकत्वात्सत्यादिनाषात्रयलक्षण वियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्यामृषेति।एवमाशापनी यथेदं कुरु।श्यमपितस्य करणकारणत्नावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अष्टविवदाप्रसूतत्वादसत्यामृषेत्येवं स्वबुध्यान्यत्रापि नावना कार्येति । याचनी यथा निदां प्रयति । तथा प्रबनी यथा कथमेतदिति । प्रज्ञापनी यथा हिंसा दिप्रवृत्तो छःखितादिवति । प्रत्याख्यानी नाषा यथादित्सेति नाषा । श्वानुलोमा च यथा केनचित्कश्चिमुक्तः साधुसकाशं गबाम इति स आह शोजनमिदमिति गाथार्थः ॥४२॥ अणजिग्गहिया नासा, नासा अ अजिग्गहं मि बोधवा ॥ संसयकरणी नासा, वायडवायडा चेव ॥४३॥व्याख्या॥ अननिगृहीता नाषा अर्थमननिगृह्य योच्यते डित्यादिवत् । नाषा चानिगृहे बोकव्या अर्थमनिगृह्य योच्यते घटादिवत् । तथा संशयकरणी च नाषा अनेकार्थसाधारणा योच्यते । सैन्धवमित्यादिवत् । व्याकृता स्पष्टा प्रकटार्था देवदत्तस्यैष जातेत्यादिवत् । अव्याकृता चैवास्पष्टाप्रकटार्या बाललबादीनां थपनिकेत्या दिवदिति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ उक्ता सत्यामृषा । सांप्रतमोघत एवास्याः प्रविजागमाह ॥ सबावि असा उविहा, पात्ता खलु तहा अपजात्ता ॥ पढमा दो पत्ता, उ वरिक्षा.दो अपऊत्ता ॥ ४४ ॥ व्याख्या ॥ सर्वापि च सा सत्यादिनेदनिन्ना लाषा विविधा । पर्याप्ता खलु तथापर्याप्ता । पर्याप्ताया एकपक्ष निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति । तद्व्यवहारसाधनी तहिपरीता पुनरपर्याता अतएवाह । प्रथमे के नाषे स त्यामृषे पर्याप्ते । तथा स्वविषयव्यवहारसाधनात्तथा उपरितने के सत्यामृषासत्या मृषानाषे अपर्याप्ते । तथा स्वविषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ उक्ता जव्यतावनाषा । सांप्रतं श्रुतनावनाषामाह॥सुअधम्मे पुण तिविहा, सच्चा मोसा अस चमोसाथ ॥ सम्म दिछी उ सुवग सो नासई सच्चं ॥ ४५ ॥ व्याख्या ॥श्रतधर्म इति श्रतधर्मविषया पुनस्त्रिविधा जवति जावनाषा । तद्यथा सत्या मृषा सत्यामृषा चेति । तत्र सम्यग्दृष्टिस्तु सम्यग्दृष्टिरेव श्रुतोपयुक्त इत्यागमे यथावदुपयुक्तो यः स नाषते स. त्यमागमानुसारेण वक्तीति गाथार्थः॥ सम्मदिछी उसुअंमि, अणउत्तो अहेजगं चेव ॥ जं नासश् सा मोसा, मिलादिही विश्र तहेव ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ सम्मदिछी सम्य Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम् । ४ गृह ष्टिरेव सामान्येन श्रुते श्रागमे अनुपयुक्तः प्रमादाद्यत्किंचिदहेतुकं चैव यज्ञाषते । तन्तुभ्यः पट एव नवतीत्येवमादि सा मृषा विज्ञानादेरपि तत एव जावादिति । मिथ्यादृष्टिरपि तथैवेत्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद्भाषते सा मृषैव घुणाकरन्यायसंवादेऽपि सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवदिति गाथार्थः ॥ हवइ उ सच्चमोसा, सुमि वरि तिनामि ॥ जं जवउत्तो नासर, एत्तो वोहं चरितंमि ॥ ४७ ॥ व्याख्या ॥ हवश् जवति तु सत्यामृषा श्रुते आगम एव परावर्तनादि कुर्वतः प्रायस्तस्यामंत्र - यादि जाषारूपत्वात्तथोपरितनेऽवधिमनःपर्यायकेवललक्षणे त्रिज्ञान इति ज्ञानत्रये - ऽपि यडुपयुक्तो जाषते सा असत्यामृषा आमंत्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेरित्युक्ता श्रुतजावनाषा । श्रत ऊर्ध्वं वदये चारित्र इति चारित्रविषयां जावनाषामिति गाथार्थः ॥ पढमबिश्या चरिते, जासा दो चेव होंति नायवा ॥ सचरित्तस्स न जासा, सच्चामोसा न इारस्स ॥ ४८ ॥ व्याख्या ॥ प्रथमद्वितीये सत्यामृषे चारित्र इति चारित्रविषये जाषे द्वे एव जवतो ज्ञातव्ये । स्वरूपमाह । सचरित्रस्य चारित्रपरिणामवतः । तुशब्दात्तद्वृद्धिनिबन्धनभूता च जाषा द्रव्यतस्तथान्यथाजावेऽपि सत्या सतां हितत्वादिति । मृषा त्वितरस्याचारित्रस्य तद्वृद्धिनिबन्धनभूता चेति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तं च वाक्यमधुना शुद्धिमाह ॥ णामं ववणा सुद्धी, अदवसुद्धी श्र नावसुद्धी च ॥ एए सिं पत्ते, परूवणा होइ कायक्वा ॥ ४ए ॥ व्याख्या ॥ नामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिर्डव्यशुद्धिश्च जावशुद्धिश्च । एतेषां नामशुद्ध्यादीनां प्रत्येकं प्ररूपणा नवति कर्तव्येति गाथार्थः ॥ तत्र नामस्थापने कुसत्वादनङ्गीकृत्य द्रव्यशुद्धिमाह ॥ तिविदा उ दवसुद्धी, तदवादेस पहाणे थ ॥ तदवगमासो, अमीसा हवइ सुद्धी ॥ ५० ॥ व्याख्या ॥ त्रिविधा तु द्रव्यशुद्धिर्भवति । तद्द्रव्यत इति तद्द्रव्यशुद्धिरादेशत इति श्रादेशद्रव्यशुद्धिः । प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यद्रव्यशुद्धिश्च । तत्रतद्द्रव्यशुद्धिः । अनन्येत्यनन्यद्रव्यशुद्धिर्यद्द्रव्यमन्येन द्रव्येण सहासंयुक्तं सबुद्धं नवति क्षीरं दधि वासौ तद्द्रव्यशुद्धिः । आदेशे मिश्रा जवति शुद्धिरन्यानन्यविषया । एतटुक्तं जवत्यादेशतो द्रव्यशुद्धिर्द्विविधा । अन्यत्वेनानन्यत्वेन च । अन्यत्वे यथा शुद्धवासा देवदत्तः । अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः ॥ || प्रधानद्रव्यशुद्धिमाह । वस्सगंधफासे, समणुला सा पहाडे सुद्धी ॥ तब उ सुकिल महुरा, उ समया चेव पुकोसा ॥ ५१ ॥ व्याख्या ॥ वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता सामान्येन कमनीयता । अथवा मनोज्ञता यथानिप्रायमनुकूलता सा प्राधान्यतः शुद्धिरुच्यते । तत्र चैवंभूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्लमधुरौ वर्णरसौ । तुशब्दात्सुर निमृदू गन्धस्पर्शोच संमतौ । यथा? जिप्रायमपि प्रायो मनोज्ञौ बहूनामिवं प्रवृत्तिसिद्धेः । उत्कृष्टौ च कमनीयौ च । } Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः॥ ॥ उक्ता अव्यशुधिरधुना ना. वशुछिमाह ॥ एमेव नावसुद्धी, तनावाएसर्व पहाणे श्र ॥ तनावगमाएसो, श्रणममीसा हवश् सुद्धी ॥ ५५ ॥ व्याख्या ॥ एवमेवेति यथा अव्यशुधिस्तथा नावशुकिरपि त्रिविधेत्यर्थः । तनाव इति । तनावशुद्धिः। श्रादेशत इति आदेशलावशुद्धिः। प्राधान्येन चेति प्राधान्यनावशुद्धिश्च । तत्र तनावशुद्धिः। अनन्येत्यनन्यन्नावशुधिस्तनावशुद्धिः । यो जावोऽन्येन नावेन सहासंयुक्तः सन् शुद्धो नवति । बुजुदितादेरनायनिलाषा दिवदसौ तनावशुद्धिः । आदेशे मिश्रा नवति शुधिस्तदन्यानन्य वि. . षयेत्यर्थः । एतमुक्तं जवत्यादेशनावशुधिििवधा अन्यत्वेऽनन्यत्वे च । अन्यत्वे यथा शुनावस्य साधोर्गुरुः । अनन्यत्वे शुकनाव इति गाथार्थः ॥ ॥ प्रधानन्नावशुद्धिमा..ह ॥दसणनाणचरित्ते, तवो विसुद्धी पहाणमाएसो ॥ जम्हा न विसुद्धमलो, तेण विसु को हवश् सुद्धो ॥५३॥व्याख्या॥ दर्शनशानचारित्रेषु दर्शनशानचारित्र विषया तथा तपोविशुद्धिः प्राधान्यादेश इति। यदर्शनादीनामादिश्यमानानांप्रधानं सा प्रधानन्नावशुद्धियथा दर्शनादिषु दायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि। तपःप्रधानन्नावशुछिरान्तरतपोऽनु. ष्ठांनाराधनमिति। कथं पुनरियं प्रधानन्नावशुचिरिति । उच्यते। एनिदर्शनादिनिःशु यस्माहिशुझमलो नवति साधुः। कर्ममलरहित इत्यर्थः। तेन च मलेन विशुद्धो मुक्तो नवति सिह इत्यतः प्रधाननावशुधियथोक्तान्येव दर्शनादीनीति गाथार्थः ॥ ॥ उक्ता शुछिरिह च नावशुद्ध्याधिकारः । सा च वाक्यशुद्धेर्नवतीत्याह ॥जं वकं वयमाणस्स, संजमो सुतई न पुण हिंसा ॥ न य अत्तकलुसनावो, तेण इहं वकसु कित्ति ॥ ५४ ॥ व्याख्या ॥ यद्यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुष्यति शुष्य तीति निर्मल उपजायते । न पुनर्हिसा नवति कौशिकादेरिव।न चात्मनः कबुषनाव कानुष्यं उष्टानिसंधिरूपं जायते । तेन कारणेन इह प्रवचने वाक्यशुझिरपेक्षिता वाक्यशुद्धि वशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र यतितव्यमिति गाथार्थः॥ ॥ ततश्चैतदेवं कर्तव्यमित्याह ॥ ॥ वयण विजत्ती कुसल-स्स संजमंमी उ कयमश्स्स । - सुप्तासिएण हुजाहु, विराहणा तब जश्वं ॥५५॥ व्याख्या ॥ वचनविनक्तिः : कुशलस्य वाच्येतरवचनप्रकाराजिज्ञस्य न केवल मिनूतस्यापितु संयम उद्यतमते. . रहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः । तस्याप्येवंचूतस्य कथंचिदु र्षितेन कृतेन जवे. . हिराधना परलोकपीडा । श्रतस्तत्र दुर्जाषितवाक्यपरिकाने यतितव्यं प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः ॥ ॥ श्राह । यद्ये वमलमनेनैव प्रयासेन मौनमेव श्रेय इति । न । अज्ञा स्य तत्रापि दोषादाह च ॥ वयण वित्तिश्रकुसलो, वगयं बहुविहं अयाणंतो ॥ जश् वि न नास किं वी, नव वयगुत्तयं पत्तो ॥५६॥व्याख्या॥ वचन विनत्यकुशला Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्। . . ४३१. च्येतरप्रकाराननिझः । वाग्गतं बहुविधमुत्सर्गादिनेदनिन्नमजानानः यद्यपि न : . पाषते किंचित्।मौनेनैवास्ते नचैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः। तथाप्यसौ अवारगुप्त एवेति गाथाF॥ ॥ व्यतिरेकमाह ॥ वयणविजत्तीकुसलो, वर्जगयं बहुविहं वियाणंतो॥ दिवसं पि. तासमाणो,तहा वि वश्त्तयं पत्तो ॥५॥व्याख्या॥ वचनविनक्तिकुशलो वाच्येतरप्रकानिज्ञः वाग्गतमुत्सर्गादिनेदनिन्नं विजानन् दिवसमपिनाषमाणः सिद्धान्तविधिना त- . गापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः । वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः ॥ ॥ सांप्रतं वचनविनक्तिकुश... तस्यौघतो वचनविधिमाह॥पुवं बुद्धीए पेहित्ता, पहावयमुयाहरे ॥ श्रचकुर्डव नेतारं फिमन्नज ते गिराएजाव्याख्यापूर्वप्रथमेव वचनोच्चारणकाले बुध्या प्रेक्ष्य वाच्यम्। ष्ट्विा पश्चाशाक्यमुदाहरेत् । अर्थापत्त्यापि कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः । दृष्टान्तमाह । अवकुष्मानिवान्ध श्व नेतारमाकर्षकं बुद्धिमन्वेतु गीर्बुध्यनुसारेण वाक्प्रवर्तता मिति : 'लोकार्थः ॥ ॥ उक्तो नाम निष्पन्नो निदेपः । सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर ; इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदं वजन्हें सूत्रम्। चतस्मृणां खबुनाषाणां । खबुशब्दोऽवधारणे। चतसृणामेव । नातोऽन्या जाषा विद्यत इति । जाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैत्विा। स्वरूपमिति वाक्यशेषः । प्रज्ञावान् प्राझो बुद्धिमान् साधुः। किमित्याह । धान्यां सत्यासत्यामृषाच्याम् । तुरवधारणे । छान्यामेवान्यां विनयं शुप्रयोगं । विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा शिदेत जानीयात् । असत्यासत्यामृषे न जाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अजा मुसा ॥ जा अबुधेहि नाश्ना, न तं नासिज पन्नवं॥३॥ (अवचूरिः) या च सत्या परमवक्तव्या सावद्यत्वेनामुत्र स्थिता पवीति कौशिकनाषावत् । सत्यामृषा चात्र नगरे दश दारका जाता इति प्रनृति या बुझेरनाची+ असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिका न तां जाषेत प्रज्ञावान् ॥२॥ - (अर्थ.) (जा च के) या च एटले जे (सच्चा के०) सत्या एटले सत्य एवी प. ना नाषा सावध होवाथी (अवत्तवा:के.). अवक्तव्या एटले बोलवा लायक नथी. जा श्र के०) या च एटले जे. ( सच्चामोसा के०) सत्यामृषाएटले सत्यामृषा एवी. भाषा (अ के०) च एटले तथा (मुसा के.) मृषा एटले असत्यनाषा ए बन्ने आषा सर्वथा बोलवा योग्य नथी, (थ के) च एटने तया (जा के) या ए.... Page #427 --------------------------------------------------------------------------  Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके षष्ठमध्ययनम्।. ४३१. गाच्येतरप्रकारानतिज्ञः । वाग्गतं बहुविधमुत्सर्गादिलेदजिन्नमजानानः यद्यपि न . नाषते किंचित्। मौनेनैवास्ते नचैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः। तथाप्यसौ अवाग्गुप्त एवेति गाथा-) .. यः॥॥ व्यतिरेकमाह ॥ वयणविनत्तीकुसलो, वर्षगयं बहुविहं वियाणंतो॥ दिवसं पि)) नासमाणो,तहा वि वश्युत्तयं पत्तो ॥५॥व्याख्या॥ वचनविनक्तिकुशलो वाच्येतरप्रकारानिज्ञः वाग्गतमुत्सर्गादिनेदनिन्नं विजानन् दिवसमपिजाषमाणः सिद्धान्तविधिना तयापि वाग्गुप्ततां प्राप्तः । वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः ॥ ॥ सांप्रतं वचनविनक्तिकुश बस्यौघतो वचन विधिमाह॥पुवं बुद्धीए पेहित्ता, पछावयमुयाहरे ॥ श्रचकुव नेतारं बुझिमन्नेजते गिरा॥५॥व्याख्या॥पूर्वप्रथमेव वचनोच्चारणकाले बुट्या प्रेक्ष्य वाच्यम्। दृष्ट्वा पश्चाद्वाक्यमुदाहरेत् । अर्थापत्त्यापि कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः । दृष्टान्तमाह । श्रचक्कुष्मानिवान्ध श्व नेतारमाकर्षकं बुद्धिमन्वेतु गीर्बुध्यनुसारेण वाक्प्रवर्ततामिति : श्लोकार्थः ॥ ॥ उक्तो नाम निष्पन्नो निक्षेपः। सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर ; इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदं चउन्हं सूत्रम्। चतसृणां खलु नाषाणां । खबुशब्दोऽवधारणे। चतसृणामेव । नातोऽन्या नाषा विद्यत इति । नाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय सर्वैः प्रकारैत्विा। स्वरूपमिति वाक्यशेषः । प्रज्ञावान् प्राझो बुद्धिमान् साधुः। किमित्याह । छान्यां सत्यासत्यामृषाच्याम् । तुरवधारणे । छान्यामेवान्यां विनयं शुप्रयोगं । विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा शिदेत जानीयात् । असत्यासत्यामृषे न जाषेत सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा अ जा मुसा॥ जा अ बुझेहिं नाश्ना, न तं नासिङ पन्नवं ॥२॥ : (अवचूरिः ) या च सत्या परमवक्तव्या सावद्यत्वेनामुत्र स्थिता पवीति कौशिकनाषावत् । सत्यामृषा चात्र नगरे दश दारका जाता इति प्रति या बुबैरनाची+ असत्यामृषा आमन्त्रण्याशापन्यादिका न तां नाषेत प्रज्ञावान् ॥२॥ नई (अर्थ.) ( जा च के ) या च एटले जे (सच्चा के०) सत्या एटले सत्य एवी प.. हांग नाषा सावध होवाथी (अवत्तवा के.) अवक्तव्या एटले बोलवा लायक नथी. जा श्र के०) या च एटले जे ( सच्चामोसा के०) सत्यामृषा एटले सत्यामृषा एवी पाषा (अ के०) च एटले तथा (मुसा के) मृषा एटले असत्यनाषा ए वन्ने भाषा सर्वथा बोलवा योग्य नथी, (थ के) च एटले तथा (जा के) या ए.... Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ राय धनपतसिंघ वदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. टसे जे श्रामंत्रण्यादि असत्यामृपा नापा (बुद्धेहिं के० ) बुरेः एटले तीर्थकरोए ( नान्ना के०) नाचरिता एटले आचीर्ण नयी. (तं के०) तो एटले ते जापाने ( पन्नवं के०) प्रज्ञावान् साधु (न नासिज के०) न नापेत एटले वोले नहि. ॥२॥ (दीपिका.) विनयमेवाह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुः तां नापां न जापेत । न इत्थंनूता वाचमुदाहरेत् । ता कामित्याह । या च सत्या नापा सा पदार्थतत्त्वमहीकृत्यावक्तव्या सावद्यत्वेनानुच्चारणीया । यथा अमुत्र स्थिता पक्षीति कौशिकनामतापसन्नापावत् । तत्सत्यमपि न ब्रूयात् परपीडाकरं वचः॥ तत्सत्यस्य प्रसादेन को शिको नरकं गतः ॥ या च सत्यामृषा साप्यवक्तव्या न वक्तव्या। यथा दश दारका जाताः। मृषा च नाषा सवैव न वक्तव्या । या च नापा बुबैस्तीर्थकरेगणधरैश्च नाची । असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा अविधिपूर्वकं खरा दिना प्रकारेण तामपि न नाषेत इति गाथार्थः॥२॥ __(टीका.) विनयमेवाह । जा अ सच्च त्ति सूत्रम् । या च सत्या पदार्थतत्त्वमंगीकृत्यावक्तव्यानुच्चारणीया सावद्यत्वेन अमुत्र स्थिता पक्षीति कौशिकनापावत् । सत्यामृषा वा यथा दश दारका जाता इत्यादिलदणा। मृषा च संपूर्णव । च शब्दस्य व्यवहितः संबन्धः। या च बुबैस्तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याझापन्यादिलदणा श्रविधिपूर्वकं खरादिना प्रकारेण नैनां नाषेत नेत्यजूतां वाचं समुदाहरेत् । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥५॥ असच्चमोसं सच्चं च, अपवजमककसं॥ समुप्पेदमसंदिहं, गिरं भासिज पन्नवं ॥३॥ (अवचूरिः) उक्तावाच्या । वाच्यामाह । असत्यामृषां सत्यां च । श्यं सावद्यापि सकर्कशापि जवतीत्याह । असावद्यामकर्कशां समुत्प्रेदय विचार्य खपरोपकारिणीम सन्दिग्धां स्पष्टां गिरं नाषेत ब्रूयात् ॥३॥ (अर्थ.) बोलवा अयोग्य नाषा कही. हवे बोलवा योग्य जे जाषा ते कहे . (पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिमान साधु (अणवऊ के ) अनवद्यां एटले पापरहित एवी तथा ( अककसं के०) अकर्कशां एटले जे कगेर नहि अर्थात् जेथी मत्सर विगेरे उत्पन्न न थाय एवी (असच्चमोसं के० ) असत्यामृषां एटले असत्यामृषा नाषा (च के) अने ( सच्चं के) सत्यां एटले सत्य नाषा ( सम्मु- - । प्पेहं के०) समुत्प्रेक्ष्य एटले परोपकार करनारी एवो निश्चय करीने (असंदिई Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३३ के० ) असं दिग्धां एटले स्पष्ट, कोइने संशय न रहे तेवी रीते ( नासिद्धता के० ) जा षेत एटले बोले. ॥ ३ ॥ ( दीपिका.) यथाभूता च जाषा न वाच्या सोक्ता । अथ यथाभूता वाच्या तामाह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान्। कः। साधुः। एवमसत्यामृषामुक्तलक्षणां गिरं नाषां जाषेत ब्रूयात् । किंभूतां गिरम् । सत्याम् । इयं च जाषा सावद्यापि कर्कशापि जवत्यत श्राह । किंभूतां गिरम् । अनवद्याम् । श्रवद्यं पापं तेन रहिताम् । पुनः किंनूतां गिरम् । श्रकर्कश कठोरवचनरहिताम् । किं कृत्वा जाषेत । समुत्प्रेक्ष्य स्वस्य परस्य चोपकारकारिणीति बुला पर्यालोच्य । पुनः किंभूतां गिरम् । असंदिग्धां स्पष्टां तत्कालं प्रतिपत्तिहेतुम् ॥३॥ ( टीका.) यथाभूतावाच्या जाषा तथाभूतोक्ता । सांप्रतं यथाभूता वाच्या तथानूतामाह । श्रसच्च मोसं ति सूत्रम् । सत्यामृषामुक्तलक्षणां सत्यां चोक्तलक्षणामेव । यं च सावद्यापि कर्कशापि जवत्यत आह । अनवद्यामपापामकर्कशामतिशयोत्या ह्यमत्सरपूर्वा संप्रेक्ष्य खपरोपकारिणीति बुद्ध्यालोच्य असंदिग्धां स्पष्टामदेपेण प्रतिपत्तिहेतुं गिरं वाचं जाषेत ब्रूयात् । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ एयं च अष्ठमन्नं वा, जं तु नामेइ सासयं ॥ स नासं सञ्च्चमोसं च तं पि धीरो विवकए ॥ ४ ॥ (अवचूरिः) सांप्रतं सत्यामृषा निषेधार्थमाह । एतं चार्थमनन्तरप्रतिषिद्धं सावद्यकर्कश विषयमन्यं वा एवंजातीयम् । एतन्मध्याद्य एव कश्चिदर्थो नामयत्यननुगुणं प्रतिकूलं करोति शाश्वतं मोक्षम् । तमाश्रित्य स साधुः पूर्वोक्तनाषाजापकत्वेनाधिकृतो भाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । श्रपिशब्दात् सत्यापि या तथाभूता तामपि धीरो धीमान् वर्जयेत् ॥ ४ ॥ ( अर्थ. ) हवे सत्यमाषा छाने सत्यामृषा जाषानो प्रतिषेध कहे बे. (जं तु के० ) यस्तु एटले जे अर्थ निश्चयथी ( सासयं के० ) शाश्वतं एटले शाश्वत एवा मोक्षने ( नामे के० ) नामयति एटले प्रतिकूल करे, अर्थात् मोक्षने हरकत उत्पन्न करे, ते ( एवं के० ) एतं एटले या उपर कहेला सावद्य तथा कर्कश जाषारूप ( श्रहं ho) अर्थ एटले बोलवाना विषयने (च के० ) तथा ( अ वा के० ) अन्यं वा एटले एवाज बीजा विषयने श्राश्रयीने ( धीरो के० ) धीरः एटले धीर एवो ( स के० ) सः एटले ते पूर्वोक्त साधु ( सच्चमोसं जासं के० ) सत्यामृषां जाषां एटले सत्यामृषा ५५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. भाषा प्रत्ये (च के० ) वली अपि शब्दथी ते प्रकारनी जे सत्यनापा (तं पि के०) तामपि एटले ते जाने पण (विवए के० ) विवर्जयेत् एटले विशेषेकरी ने वर्जे. ॥ ४ ॥ ( दीपिका. ) सांप्रतं सत्यामृपाजापाप्रतिषेधार्थमाह । धीरो बुद्धिमान् साधुः एतं च अर्थ पूर्वं प्रतिषिद्धं सावद्यकर्कशवचनविषयं च एतजातीयमेतत्सदृशं प्राकृतत्वात् यस्तु नामयति शाश्वतं । अत्र य एव कश्चिदर्थो नामयति । कोऽर्थः । अननुगुणं क रोति । कोऽर्थः । मोक्षमनुकूलं न करोति । स शाश्वतं मोक्षमाश्रित्य पूर्वोक्तनापाजाषकत्वेन अधिकृतो नाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । श्रपिशब्दात् सत्यापि या तथा नूता तामपि जाषां विवर्जयेत् ॥ ४ ॥ ( टीका. ) सांप्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाह । एवं च त्ति सूत्रम् । एतं चार्थ - मनन्तरप्रतिषिद्धं सावद्यकर्कश विषयमन्यं वा एवंजातीयं प्राकृतशैल्या यस्तु नामयति शाश्वतं य एव कश्चिदर्थो नामयत्यननुगुणं करोति शाश्वतं मोदं तमाश्रित्य स साधुः पूर्वोक्तनाषाभाषकत्वेनाधिकृतो जाषां सत्यामृषामपि पूर्वोक्ताम् । श्रपिशब्दात्सत्यापि या तथाभूता तामपि धीरो बुद्धिमान्विवर्जयेदिति भावः । श्राह । सत्यामृषाजापाया उघत एव प्रतिषेधात्तथाविधसत्यायाश्च सावद्यत्वेन गतार्थं सूत्रमित्युच्यते । मोक्षपीडाकरं सूक्ष्ममप्यर्थ मंगी कृत्यान्यतरजाषाभाषणमपि न कर्तव्यमित्यतिशयप्रदर्शनपर मेतद्दृष्टव्यमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ वितदं पि तदामुत्तिं, जं गिरं नासए नरो ॥ तम्दा सो पुठो पावे, किं पुणं जो मुसं व ॥ ५ ॥ (अवचूरिः) मृषाजापारकार्थमाह । वितथमतथ्यम् । अपिर्जिनक्रमेण । तथामूर्त्यपि कथं चित्तत्स्वरूपमपि वस्तु पुरुषनेपथ्य स्थितख्याद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं जाषते नरः इयं स्त्री आगच्छति गायति वा । तस्माद्भाषणादेवंभूतात्पूर्वमेवासौ स्पृष्टो बद्धः पापेन । किं पुनर्यो मृषा वक्ति ॥ ५ ॥ ( अर्थ. ) हवे मृषा जाषाथी रक्षण करवाने अर्थे कहे बे. ( नरो के० ) नरः ए-. टले मनुष्य ( वितहं के० ) वितथं एटले असत्य बतां कोइपण रीते ( तहामुि के० ) तथामूर्त्ति एटले सत्यवस्तु जेवुं स्वरूप पामेली वस्तु जेम के पुरुषनो वेष धारण करवाथी पुरुषपणाने पामेली स्त्रीने आश्रयीने पण (जं के०) यां एटले जे ( गिरं के०) गिरं एटले वचन प्रत्ये (नासए के० ) जाषते एटले बोले. (तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते वचन शकी ( सो के० ) सः एटले ते बोलनार पुरुष पूर्वोक्त वचन बोलवा - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३५ नो विचार मनमा आणे बे, तेज समये ( पावेणं के० ) पापेन एटले पाप कर्मवडें ( पुट्ठों के० ) स्पृष्टः एटले फर्साय बे, अर्थात् कर्मबंधन पामे बे. एम बे तो ( जो केप ) यः एटले जे पुरुष ( मुसं के० ) मृषा एटले जेथी प्राणीनो उपघात थाय एवी असत्य जापाने (वए के०) वदेत् एटले बोले, ते पुरुष ( किं पुण के० ) किं पुनः एटले पाप कर्मवडे बंधाय एमां शुं कहेतुं ? ॥ ५ ॥ - ( दीपिका. ) सांप्रतं मृषाभाषायाः संरक्षणार्थमाह । यो नरो वितथमसत्यं तथामूर्त्यपि कथं चित्तत्स्वरूपं वस्तु पुरुषनेपथ्य स्थितवनिताद्यपि अङ्गीकृत्य यां गिरं जायते यथा इयं स्त्री आगच्छति गायति वा इत्यादिरूपाम् । असौ अपि नरः तस्मात् जाबगादेवंभूतात् जाषणात् पूर्वमेव जाषणा जिसंधिकाले पापेन कर्मणा स्पृष्टो बद्धः । किं पुनर्यो मृषा प्राणघातकारिणीं वाचं वदेत् । स वक्ता अतिशयेन पापकर्मणा बद्ध्यत इत्यर्थः ॥ ५ ॥ > ( टीका. ) सांप्रतं मृषाभाषा संरक्षणार्थमाह । वित पित्ति सूत्रम् । वितथमतथ्यं तयामूर्त्यपि कथं चित्तत्स्वरूपमपि वस्तु अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः । एतडुक्तं जवति । पुरुष नेपथ्य स्थितव निताद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं जाषते नरः । इयं स्त्रीं गछति गायति वेत्यादिरूपां तस्माद्भाषणादेवंभूतात्पूर्वमेवासौ वक्ता भाषणा जिसधिकाले स्पृष्टः पापेन बद्धः कर्मणा । किं पुनर्यो मृषा वक्ति नूतोपघातिनीं वाचं स सुतरां बद्ध्यत इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ I तदा गच्छामो वकामो, अमुगं वा ऐ नविस्स ॥ वा एां करिस्सामि, एसो वा ां करिस्सइ ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) यस्मादेवं तस्माङ्गमिष्यामः श्व इतोऽन्यत्र वक्ष्याम एवश्वस्तत्तदौषधहेतुम् । अमुकं वा नः कार्यं वसत्यादिकं जविष्यत्येव । श्रहं वेदं लोचं करिष्याम्येव नियमेन । एष एवास्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येव ॥ ६ ॥ ( अर्थ. ) जे कारण माटे असत्य बतां सत्य जेवुं स्वरूप पामेली वस्तु आश्रयी वचनथी कर्मबंध थाय बे, ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे यावती काले अहिथी बीजे स्थानके ( गछामो के० ) गमिष्यामः एटले अवश्य जश्शुंज. श्रा - वतीकाले अमुक औषध प्रमुख ( वरकामो के० ) वक्ष्यामः एटले अवश्य 'कही ज ( वा के० ) अथवा ( ऐ के० ) नः एटले श्रमारुं (मुगं के० ) अमुकं एटले अमुक वसति प्रमुख कार्य ( विस्सर के ० . ) तविष्यति एटले थशेज. ( वा के० ) अथवा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अहं के ) अहं एटले हुँ ( णं के ) इदम् एटले ा कार्य ( करिस्सामि के) करिष्यामि एटले अवश्य करीश. (वा के) अथवा ( एसो के) एषः एटले था साधु ( णं के०) इदम् एटले आ माझं विश्रामणादि कार्य (करिस्सर के) करिष्यति एटले करशेज. ॥६॥ (दीपिका.) पुनः कीदृशी भाषां साधुन वदे दित्याह । यस्माहितयं तथामूर्त्यपि वस्तु अङ्गीकृत्य नाषमाणो वध्यते पापकर्मणा तस्माद्वयं गमिष्याम एव श्व स्तोऽन्यत्र । वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तं अमुकं वा नोऽस्माकं वसत्यादि कार्य जविष्यत्येव । अहं च दं लोचादि करिष्यामि नियमेन । एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादिकं करिष्यत्येव ॥६॥ (टीका.) तम्ह त्ति सूत्रम् । यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य नापमाणो बध्यते । तस्मानमिष्याम एव श्व इतोऽन्यत्र । वदयाम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति । अमुकं वा नः कार्य वसत्यादि नविष्यत्येव । अहं चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन । एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः ॥ ६॥ . एवमा न जा नासा, एसकालंमि संकिआ॥ . ... संपयाश्म हे वा, तं पि धीरो विवजए॥७॥ (श्रवचूरिः) एवमाद्या तु या नाषा एष्यत्काले शंकिता बहुविप्नत्वान्मुहूर्तादीनां सांप्रतातीतयोरपि या शंकिता । सांप्रतार्थे स्त्रीनरानिश्चय एष पुरुष इति । अतीतार्थेऽप्येवमेव । बलीवईतत्स्यायनिश्चये तदा च गौरस्मानिर्दष्टेति । याप्येवंचूता जाषा शङ्किता । तामपि धीरो विवर्जयेत् ॥ ७॥ (अर्थ.) ( एवमा ज के ) एवमाया तु एटले इत्यादिक (एसकालंमि के) एष्यत्काले एटले नविष्य काल संबंधी अर्थात् जावी कालमां बनवानी जे वात ते वात संबधी (वा के०) अथवा (संपयाश्अमले के०) सांप्रतातीतार्थयोः एटले वर्तमान कालमां बनती वात संबधी तथा अतीतकालमां थर गएल वात संबंधी (जा के०) या एटले जे (नासा के०) नाषा एटले जाषा (संकिा के०) शंकिता एटले शंकायुक्त होय, ( तं पि के०) तामपि एटले ते नाषाने पण ( धीरो के) धीरः एटले धीर एवो साधु (विवाए के) विवर्जयेत् एटले वर्जे, बोले नहि. नाविकालमां बनवानी से वस्तु तेनो कांज निश्चय कही शकाय नहि. कारण के, कणे क्षणे अंतराय ताकी रह्या.बे, माटे नावि.वात शंकित होय . तेम Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४३७... वर्तमान कालनी वात पण शंकित होय , जेम कोइ माणसने दूरथी देखिये तो . तेना स्त्रीपुरुषपणानो निश्चय थतो नथी. तथा अतीतकालनी वस्तु पण शंकित होय -जे, जेमके स्थूलदृष्टिए देखवाथी गाय ने के बलद ले तेनो निर्णय कस्या विना मात्र आपणे व्यक्ति जोश होय तो तेना स्त्रीपुरुषपणानो संशय रहे . श्रारीते नूत, नावी अने वर्तमान काले शंकित वात होय ते साधुए निश्चित न बोलवी.॥७॥ .. (दीपिका.) तर्हि किं कर्तव्यमित्याह । धीरः पंडितः साधुरेवमाद्या या नाषा। .. आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्यादिग्रहणम् । एष्यत्काले नविष्यत्काल विषया बहुविघ्नत्वान्मुहर्तादीनां शंकिता किमिदमित्रमेव नविष्यति उतान्यथेति अनिश्चितगोचरा तथा सांप्रतातीतार्थयोरपि या शंकिता । सांप्रतार्थे स्त्रीपुरुषयोरनिश्चये सति एष पुरुष इति। अतीतार्थेऽपि एवमेव बलीवर्दतत्स्यायनिश्चये तदा गौरस्मानिर्दृष्ट इति याप्येवंजूता जाषा शंकिता तामपि विवर्जयेत् । तथानावनिश्चयाजावेन व्यजिचा• रतो मृषात्वस्योपपत्तेः विघ्नतो गमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसंगात् सर्वमेव सा. . वसरं वक्तव्यमिति रहस्यम् ॥ ७॥ ..... -: (टीका.) एवमा त्ति सूत्रम् । एवमाद्यातु या नाषा । श्रादिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः। एष्यत्काले नविष्यत्काल विषया बहुविनत्वात् मुहूर्तादीनां शङ्किता किमिदमित्रमेव नविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा । तथासांप्रतातीतार्थयोरपि या शङ्किता । सांप्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति । अतीतार्थेऽप्येवमेव बलीवर्दतत्त्यायनिश्चये तदात्र गौरस्मानिर्दष्ट इति । याप्येवंजूता नाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत् । तथाजावनिश्चयाजावेन व्यनिचारतो मृषात्वोपपत्तेर्विततो गमनादौ - गृहस्थमध्ये लाघवादिप्रसंगात् सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ .. ... .... . अश्अंमि अकालंमि, पचप्पलमणागए॥ जमहं तु न जाणिजा, एवमेअं ति नो वए ॥७॥ । (अवचूरिः) अतीतकाले प्रत्युत्पन्ने च वर्तमानेऽनागते च यमर्थ तु न जानी। यात्सम्यक् एवमेवायं तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयात् ॥ ७॥ .... है (अर्थ.) वली. पूर्वोक्त साधु (अश्शूमि के०) अतीते एटले अतीत कालसंवं . धी(अ के) च एटले पुनः (पञ्चप्पलमणागए के०)प्रत्युत्पन्नानागते एटले वर्तमान अने जावी एवा ( कालंमि के.) काले एटले कालसंबंधी (जं के०) यं एटले जे ( अहं के० ) अर्थम् एटखे वस्तुने (न जाणिजा के०) न जानीयात् एटले. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.३८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस (४३) - मा. जाणता न होय. ते वस्तुने आश्रयी ( एवमेत्र्यं तु के० ) एवमेतत्तु एटले या वस्तु आ तेज बे एम (नो वए के० ) नो वदेत् एटले कहे नहि. अर्थात् जे वस्तु वराबर जाणे नहि, ते एवीज बें एम निश्चयथी न कहेवी ॥ ८ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किंच साधुरतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च काले यमर्थ तु न जानीयात् सम्यग् एवमयमिति । तमर्थमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न वदेत् न ब्रूयात् श्रयमज्ञातस्यार्थस्य जाषणे निषेध उक्तः ॥ ८ ॥ ( टीका. ) इयंमिति सूत्रम् । श्रतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च यमर्थं तु न जानीयात् सम्यगेवमयमिति तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूया - दिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ कालंमि, पचप्पलमा गए ॥ मि जब संका नवे तंतु, एवमेत्र् ति नो वए ॥ ॥ ( अवचूरिः ) यत्रार्थे शंका जवेत्तमपीत्यर्थः ॥ ए ॥ (अर्थ) उपरली गाथामां अज्ञात वात न कहेवी एम कयुं. हवे शंकित वातनो प्रतिषेध कहे . ( इ मिश्रा पचप्पलमा गए कालंमि के०) तीते च प्रत्युत्पन्ना - नागते काले एटले छातीत ने वर्तमान ने जावी कालसंबंधी ( जब के० ) यंत्र एटले जे वस्तु विषे ( संका के० ) शंका एटले 'त्र वात या रीते बे के नह एव शंका (जवे के० ) जवेत् एटले होय. ( तं तु के०) तं तु एटले ते वस्तुने 2 - नेज (एवमेतु के० ) एवमेतत्तु एटले ' या वस्तु श्रा रीतेज बे. एम (नो वए के० ) नो वदेत् एटले बोले नहि. ॥ ए॥ ( दीपिका. ) साधुरितीते काले च प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्र अर्थे शंका संदेहो नवेतू तं शंकितमर्थमाश्रित्य एवमेतदिति निश्चयं न वदेत् । अयमपि निषेधः शंकितस्य भाषणे प्रतिषेधरूपः ॥ ए ॥ ( टीका. ) श्रयमज्ञातनाषणप्रतिषेधस्तथा अश्यामि ति सूत्रम् । श्रतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का नवेन्न तमर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः ॥ ए॥ इयंमि कालंमि, पचप्पलमणागए । च निस्सं किच्यं नवे जं तु, एवमेत्र्यं तु निद्दिसे ॥ १० ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४३.५ (अवचूरिः ) निःशंकितं नवेद्यदर्थजातं तु शब्दाच्चानवद्यं तत् एवमिति निर्दिशेत् ॥ १० ॥ (अर्थ) (मि पच्चुप्प समागए कालंमि के० ) अतीते च प्रत्युत्पन्नानागते काले एटले नूत, जावी ने वर्तमान कालने विषे ( जं तु के ० ) यंतु एटले जे. वस्तु तो ( निस्सं कि के० ) निःशङ्कितं एटले शंकारहित, निश्चित होय, ते वस्तुने ( एवमेति के० ) एवमेतदिति एटले या वात एमज बे रीते ( निद्दिसे के ० ) • निर्दिशेत् एटले कहे. ॥ १० ॥ ( दीपिका . ) तर्हि कीदृशं वचनं वदेदित्याह । साधुरतीते च काले, प्रत्युत्पन्ने वर्तमानकाले, अनागते च काले यमर्थजातं निःशकितं शंकारहितं निस्संदेहं जवेत् । तुशब्दात् यन्निः पापं च भवेत् । तदेवमेतदिति निर्दिशेत् । श्रन्ये त्वाचार्या वं वदन्ति स्तोकं स्तोकमिति परिमितया वाचा निर्दिशेत् ॥ १० ॥ ( टीका. ) यमपि विशेषतः शङ्कितनाषणप्रतिषेधस्तथा । इयंमि त्ति सूत्रम् । श्रतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं जवेत् । तुशब्दादनवद्यं तदेवमेतदिति निर्दिशेत् । अन्ये पठन्ति स्तोकमिति । तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ - तदेव फरसा नासा, गुरुजनवधाणी ॥ सच्चा विसान वत्तवा, जन पावस्स आगमो ॥ ११ ॥ ( श्रयचूरिः ) तथैव परुषा जाषा निष्ठुरा कठोरा जावस्नेहरहिता गुरुनूतोपधातिनी महाभूतोपघातवती यथा कश्चित्कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तं दास मित्य निदधतः । सत्यापि सा न वक्तव्या यतो यस्या जाषायाः पापागमोऽकुशलबन्धो जवति ॥ ११ ॥ (अर्थ. ) वली केवी जाषा न बोलवी ते कहे बे. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( नासा के० ) जाषा एटले जे जाषा ( फरुसा के० ) परुषा एटले कठोर होय, जाव| स्नेह विनानी होय, तथा ( गुरुनूवघाइणी के० ) गुरुभूतोपघातिनी एटले घणा * प्राणियोनो घात करनारी एवी होय, जेम के, कोइ पुरुष कोनो कुलपुत्र कहेवातो होय तो तेने दास कहेवुं. इत्यादि जे जाषा ( सा के० ) सा एटले ते जाषा ( सच्चा वि. ho) सत्यापि एटले वाह्य स्वरूपथी सत्य देखाय बे तो पण ते ( न वत्तवा के० ) न वक्तव्या एटले जावने श्राश्रयीने न बोलवी. कारण के, ( जर्ज के० ) यतः एटले जे Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. कठोर ने गुरुनूतोपघातिनी जाषाथी (पावस्स के० ) पापस्य एटले अशुभकर्म बंधनो ( गमो के० ) श्रागमः एटले प्राप्ति थाय ठे. ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशीं भाषां न वदेदित्याह । तथैव साधुना परुषा कठो राजाषा वस्नेहरहिता न वक्तव्या । पुनर्या किंभूता जाया । गुरुनूतोपघातिनी बहुप्राणघातकारिणी जवति । सा सर्वथा सत्यापि बाह्यार्थतया जावमङ्गीकृत्य या कश्चित् कचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तं प्रति श्रयं दास इति न वदेत् । यतो यस्या जाषायाः सकाशात् पापस्य आगमो जवेत् ॥ ११ ॥ ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव परुषा जाषा निष्ठुरा जावस्त्रेदरहिता गुरुभूतोपघातिनी महाभूतोपघातवती यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यदितः सर्वथा सत्यापि सा बाह्यार्थतया नावमंगीकृत्य न वक्तव्या । यतो यस्या जाषायाः सकाशात्पापस्यागमः अकुशलबन्धो जवतीति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ तदेव का काण त्ति, पंडगं पंडगत्ति वा ॥ वाहियं वा विरोगित्ति, ते चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ ( वरिः ) तथैव काणं निन्नादं पंकगं नपुंसकं पंरुगमिति व्याधिमंतं वापि रोगीति स्तेनं चोर इति न वदेत् ॥ १२ ॥ 3 (अर्थ. ) ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज (काणं के० ) काणं एटले जेनी एक a नकामी बे एवा काणा पुरुषने ( काण त्ति के० ) काण इति एटले 'तुं काणो बे श्रा रीते तेमज (पंडगं के० ) पएमकं एटले नपुंसकने ( पंडग त्ति के० ) पएमक इति एटले 'तुं नपुंसक बे. ' रीते ( वा के० ) वा एटले तथा ( वाहियं के० ) व्याधितं एटले रोगी पुरुषने ( रोगि त्ति के० ) रोगीति एटले 'तुं रोगी बे' आ रीते तेमज ( तेां के० ) स्तेनं एटले चोरने ( चोर त्ति के० ) चोर इति एटले 'तुं चोर बे' या रीते साधु ( नो वए के० ) नो वदेत् पटले कहे नहि कारणके, काणने काप कहेवाथी कदाच अप्रीति उत्पन्न थाय, नपुंसकने नपुंसक कदेवाथी ते शर्माय, रोगीने रोगी कहेवाथी तेनो रोग स्थिर याय, तथा चोरने चोर कदेवाथी तेनुं मन दुखाय, माटे तेम न कहेवुं. ॥ १२ ॥ ( दीपिका. ) पुनः कीदृशीं जाषां न वदेदित्याह । साधुस्तथैव काणं निन्नाकं पु रुषं प्रति ययं काण इति नो वदेत् । तथा पंमकं प्रति छायं पएफको नपुंसक इति न वदेत् । तथा व्याधितं प्रति श्रयं रोगी इति नो वदेत् । तथा स्तेनं चौरं प्रति Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४१ व्ययं चौर इति नो वदेत् । कुतः । श्रप्री तिलकानाश स्थिर रोगंबुद्धि विराधनादिदोषा अनुक्रमेण जवन्ति ॥ १२ ॥ - ( टीका. ) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । काणं निन्ना काण इति तथा एकं नपुंसकं एक इति वा । व्याधिमन्तं वापि रोगीति । स्तेनं चौरं चौर इति नो वदेत् । प्री तिलकानाश स्थिर रोगबुद्धि विराधना दिदोषप्रसङ्गादिति गायार्थः ॥ १२ ॥ एएन्ने अठेणं, परो जेएवढम्म || च्यायारनावदोसन्नू, न तं जासिज्ज पन्नवं ॥ १३ ॥ ( अवचूरिः ) एतेनान्येन वा येनार्थेनोक्तेन परो नोपहन्यते । केनचित्प्रकारेणाचारावदोषज्ञो यतिर्न जाषेत तं प्रज्ञावान् ॥ १३ ॥ (अर्थ) (एए के० ) एतेन एटले या अथवा ( अन्ने के० ) अन्येन एटले बीजा ( जेल के० ) येन एटले जे ( अहे के० ) अर्थेन एटले वस्तु वडे करीने ( परो के० ) परः एटले अन्य पुरुष ( जवहम्मइ के० ) उपहन्यते एटले हणाय, दुःखी थाय. ( तं के० ) तं एटले ते जाषाप्रत्ये (आयाराव दोसन्नू के० ) आचा-: रजावदोषज्ञः एटले साधु सामाचारीमांना जावदोषनो जाने ( पन्नवं के० ) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली एवो साधु ( न नासिक के० ) न जाषेत एटले न बोले. ॥ १३ ॥ ( दीपिका. ) ततः किं कर्तव्यमित्याह । प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुस्तमर्थं न जाषेत । किंभूतः साधुः । बुद्धिमान् आचारनावदोषज्ञः आचारजावस्य दोषान् जानातीति श्राचारभावदोषज्ञः । तमर्थं कम् । येन एतेन अन्येन वा उक्तेन कथितेन अर्थेन केन चित् प्रकारेण परोऽन्य उपहन्यते पीडावान् भवति ॥ १३ ॥ 1 ( टीका. ) एएए ति सूत्रम् । एतेनान्येन वार्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते । येन केनचित्प्रकारेण | आचारनावदोषज्ञो यतिर्न तं जाषेत प्रज्ञावांस्तमर्थ मितिसूत्रार्थः ॥ १३ ॥ तदेव दोले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति ॥ दुम्म डुद वा वि, नेवं नासिक पन्नवं ॥ १४॥ (अवचूरिः ) तदेव तथैव होल रे मूर्ख हालिक । गोलो जारजातः । देशान्तररूढ्या नैर्य संबोधने होलादयो वाच्याः । श्वानो वा विसुल इति ( वीनाल ) डुमको गोऽपि वा नैवं जापेत प्रज्ञावान् ॥ १४ ॥ ५६ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग ततालीस-(४३)-मा. (अर्थ.) ( तदेव के ) तथैव ) एटले तेमज फलाणो पुरुष (होले के) होलः एटले होल बे, (गोतित्ति के) गोल इति एटले गोल वे ए प्रकारे, ( वा के.) वा एटले अथवा (साणो के०) श्वा एटले श्वान , (अ के०) च एटले वली (वसुतित्ति के) वसुल ति एटले वसुल डे ए प्रकारे तथा (उम्मए के०) अमकः एटले अमक , ( वा के) वा एटले अथवा (उहए वि के०) उन्नोऽपि एटले उनंग बे एम पण ( पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली साधु (नो वए के०) नो वदेत् एटले न बोले. गोल प्रमुखशब्दो ते ते जापानी रूढी प्रमाणे कठोर पणुं प्रकाशित करे . माटे अहिं तेनो निषेध कस्यो. ॥ १४॥ (दीपिका.) पुनः साधुः कीदृशीं नाषां न नाषेत इत्याह । बुद्धिमान् साधुस्तथैव तां नाषां न नाषेत। तां कामित्याह । होल १ गोल ५ इति श्वा ३ वसुल ४ इति अमक ५ इति पुर्नग इति । इह होलादिशब्दाः तत्तद्देशेषु प्रसिझनिष्ठुरता दिवाचका अप्रीत्युत्पादकाश्च । अतस्तेषां प्रतिषेधः प्रोक्तः ॥ १४ ॥ - ( टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवति पूर्ववत् । होलो गोल इति श्वा वा। वसुल . इति वा अमको वा पुर्नगश्चापि नैवं नाषेत प्रज्ञावान् । श्ह होलादिशब्दास्तत्तद्देशीप्र.. सिछितो नैष्टुर्या दिवाचका अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अजिए पङिए वा वि, अम्मो मानसिअत्ति अ॥ पिनस्सिए नायणिजत्ति, धूए णत्तुणिअत्ति अ॥१५॥ (अवचूरिः) स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन नाषणप्रतिषेधमुक्त्वा स्त्रियमाश्रित्याह । आर्जिके प्रार्जिके वापि अंब मातृष्वसः इति पितृष्वसः नागिनेयीति कुहितर्नप्त्रीति च । तत्र पितुर्वा मातुर्वा मातार्यिका । तस्यापि या माता सा प्रायिका । शेषानिधानानि प्रकटानि ॥ १५॥ ' (अर्थ.) स्त्रीनी साथे अथवा पुरुषनी साथे सामान्य रीते शीरीते न बोलवू ते कडं. हवे स्त्रीनी साथे शीरीते न बोलq ते कहे बे. पूर्वोक्त साधु जे ते (इडियं के०) स्त्रियम् एटले स्त्रीने (एवं के०) एवं एटले आ प्रकारे (ण आलवे के ) नालपेत् एटले न बोले. कये प्रकारे न बोले ते कहे . ( अजिए के) आर्जिके एटले हे आर्जिके (मानी अथवा पितानी माता) (पहिए के) प्राजिके एटले ह .. प्राणिके ( मानी अथवा पितानी मातानी माता) (वा के) वा एटले अथवा । अम्मो वि के०) अम्बापि एटले हे अंब आ रीते पण (श्र के०) च एटले वता (मा.. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४४३ । उसिथत्ति के) मातृष्वसरिति एटले हे माशी आ प्रकारे, तथा (पिस्सिए के०) पितृष्वसः एटले हे फश, तथा (जाणिकत्ति के०) नागिनेयीति एटले हे नाणेजी ए प्रकारे, तथा (धूए के) कुहितः एटले हे कन्ये, (अ के०) च एटले वली ( णत्तुणिअत्ति के) नष्त्रीति एटले हे पुत्रनी पुत्री ए प्रकारे वचन न कहे. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) इति स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन नाषण निषेधः कृतः। अथ स्त्रियमाश्रित्य .. थाह । साधुः एतानि वचनानि न वदेत्तानि कानि तदाह । हे आर्यिके १ हे प्रायिके वार हे अंब ३ हे मातृष्वसः ४ हे पितृष्वसः ५ हे नागिनेयि ६ हे उहितः ७ हे नप्ति । एतानि- वचनानि. स्त्रिया आमंत्रणे वर्तते तत्र एषां शब्दानामर्थस्त्वेवम् । तंत्र मातुः पितुर्या माता सा आर्यिका । तस्या अपि माता अन्या सा प्रार्यिका । अन्येषां पदार्थः सुगम एव ॥ १५॥ .. . (टीका.) एवं स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन नाषणप्रतिषेधं कृत्वाधुना स्त्रियमधिकृ. त्याह । अहिए ति सूत्रम् । आर्जिके प्रार्जिके वापि अम्ब मातृष्वस इति च पितृष्वसः नागिनेयीति उहितः नप्त्रीति च । एतान्यामन्त्रणवचनानि वर्तते । तत्र मातुः पितुर्वा मातायिका तस्या अपि यान्या माता सा प्रार्जिका। शेषानिधानानि प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥. .. दले दलित्त अन्नित्ति, नट्टे सामिणि गोमि॥ दोले गोले वसुलित्ति, बिअं नेवमालवे ॥१६॥ (श्रवचूरिः) हले हले इति सख्यामंत्रणे । अन्ने इति। नट्टे खामिनि गोमिनि वा। एतानि पूज्यामंत्रणे। होलादयो हीनत्वेऽपि नानादेशापेक्षया स्यामंत्रणवचनानि । होलादिशब्दैः स्त्रियं नैवालपेत् । अनुरागाप्रीतिवचनलाघवदोषाः ॥ १६॥ (श्रर्थ.) ( हलेह तित्ति के० ) हले. हले इति एटले हले हले या प्रकारे, (अन्नि त्ति के०) अन्ने इति एटले हे अन्ने ए प्रकारे (जठे के०) नट्टे एटले हे | न।, ( सामिणि के०) स्वामिनि एटले हे स्वामिनि, ( गोमिणि के०) गोमिनि ३ एटले हे गोमिनि, (होले के) होले एटले हे होले, (गोले के० ) गोले एटले हे गोले, तथा ( वसुति त्ति के०) वसुले इति हे वसुले, ए प्रकारे स्त्रीने आमंत्रण के वचन न कहे. या गाथामां कहेला हलादिक तथा होलादि शब्दो नानादेशनी ।हे अपेक्षाए निंदा गौरव इत्यादि वाचक ठे, एम जाणवू. ॥ १६ ॥ वा (दीपिका.) पुनः किंच साधुः स्त्रियं प्रति नैवं होलादिशब्दैः श्रालपेत् । कथ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. मेवमालपनं कुर्वतः साधोः स्वगर्हातत्प्रहेषवचनलाघवादयो दोपा नवंति। के ते होलादि शब्दा इत्याह । पूर्व ये जक्ताः पुनः हलेहले इत्येवमन्ने इति तथा लट्टे खामिनि गोमिनि होले गोले वसुले इति । एतान्यपि नानादेशापेदया स्त्रीणामामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्नाणि वर्तन्ते ॥ १६ ॥ (टीका.) किं च हले हले ति सूत्रम् । हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा नहि नि खामिनि गोमिनि । तथा होले गोले वसुले इत्येतान्यपि नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्जाणि वर्तन्ते । यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलादिशब्दैरालपेदिति । दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः संगगर्दा तत्प्रवेषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नामधिलेण णं बूआ, श्बीयुत्तेण वा पुणो॥ जदारिदमनिगिनं, आलविङ लविङ वा ॥ १७ ॥ (अवचूरिः) यदि नैवमालपेत् तर्हि कथमालपेदित्याह । नामधेयेन णं एनां ब्रूयात् । नामास्मृतौ स्त्रीगोत्रेण वा पुनः ब्रूयात् । यथा काश्यपगोत्र इति । यथार्ह वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया निगृह्य गुणानालोच्य बालां युवती वृद्धां बाले वृझे धर्मशीले श्त्येवमालपेत् स्तोकं बहुतरं वा लपेत् ॥ १७ ॥ (अर्थ.) एम न बोलq तो शीरीते बोलq ते कहे . पूर्वोक्त साधु कंश कारण पडवाथी (णं के ) एनां एटले आ स्त्री प्रत्ये ( नामधिजेोण के ) नामधेयेन एटले देवदत्ता प्रमुख नामवडे करीने (बूआ के) ब्रूयात् एटले बोले. अर्थात् स्त्रीनें जे नाम प्रसिद्ध होय ते नामथीज तेने बुलाव. कदाच नाम यादमां न होय तो ( वा पुणो के० ) वा पुनः एटले अथवा (श्बीगुत्तेण के) स्त्रीगोत्रेण एटले काश्यप प्रमुख स्त्रीगोत्रवडे करीने बोले. ( जहारिहं के ) यथाईं एटले वय, देश, ऐश्वर्य . इत्यादिकनी अपेदाथी ( अनिगिन के.) अनिगृह्य एटले गुण दोषनो विचार करीने (आल विज के०) आलपेत् एटले थोडं अथवा एकवार बोले. (वा के) पुनः (लविजा के०) लपेत् एटले वारंवार अथवा घणुं बोले. तात्पर्य जेम कोर्नु . मन न मुखाय तेम बोलवू. ॥ १७॥ .. (दीपिका.) अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेणालपनं न कुर्यात् तर्हि कथं कुर्यादित्याह । साधुः नामधेयेन इति नाम्नैव क्वचित्कारणे एतां स्त्रियं ब्रूयात । यथा हे देवदत्त शत ।। श्रथ नाम्नोऽस्मरणे गोत्रेण वा ब्रूयात् स्त्रियम् । यथा हे काश्यपगोत्रे इति । परं यथा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ....... ४५ योग्यं यथार्हम निगृह्य वयोदेशैश्वर्याद्यपेदया गुणदोषानालोच्य तदालपेत् लपेत् वा । षत् सकृछा लपनमालपनं लपनं वारं वारम् अतोऽन्यथा। तत्र च या वृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रिया अन्यथोच्यते धर्मशीला इत्यादिना । अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति ॥ १७ ॥ . (टीका.) नामधिजेणं ति सूत्रम् । नामधेयेनेति नाम्नैव एनां ब्रूयात्स्त्रियं वचिकारणे यथा देवदत्ते इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुनब्रूयात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे इत्येवमादि । यथाईं यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेदयानिगृह्य गुणदोषानालोच्यालपेरपेठाईषत्सकृछालपनमालपनमतोऽन्यथा लपनम् । तत्र वयोवृद्धा मध्यदेश ईश्वरा धर्मप्रियान्यत्रोच्यते । धर्मशील इत्यादिनान्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः॥ १७ ॥ - अङए पड़ए वा वि, बप्पो चुल्वपिन त्ति अ॥ · माउला नाणिज त्ति, पुत्ते गत्तुणिअति अ॥२७॥ (अवचूरिः) नरमाश्रित्य प्रतिषेधमाह । श्रार्यकः पितामहो मातामहश्च । प्रार्यकः प्रपितामहश्च । बप्पः पिता । चुलक पितेति पितृव्यः। मातुल नागिनेयेति पुत्र नप्त इति वचनम् । नप्ता पौत्रः प्रपौत्रो वा ॥ १७ ॥ (अर्थ.) स्त्रीने आश्रयीने शीरीते बोलवू तथा न बोलवू ते कडुं. हवे पुरुषने श्राश्रयीने कहे . (अजाए के०) आर्यकः एटले आर्यक (पजाए के)प्रार्यकः एटले प्रार्यक ( वा के०) अथवा (वि के०) अपि एटले पुनः (बप्पो केय) वप्पः एटले पिता (चुन्नपिन के०) चुबपिता एटले चुत्रपिता (काको)(माजला के०) मातुलः एटले मातुल (मामो) (नागणिज के०)नागिनेयः एटले नागिनेय(नाणेज ) (पुत्ते के०) पुत्रः एटले पुत्र( णत्तुणियत्तिय ) नप्तेतिच एटले नप्ता(पोत्रो) ए प्रकारे पुरुषने उद्देशीने साधुए न वोलवं. ॥ १७ ॥ (दीपिका.) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपन निषेधो विधिश्च । सांप्रतं पुरुषमधिकृत्याह। साधुरिति न वदेत् । इतीति किम् । आर्यकः प्रार्यकश्चापि वप्पचुलक पितेति च तथा . मातुल नागिनेयेति पुत्र नप्ता इति च । इह जावार्थः स्त्रियामिव अष्टश्यः । नवरं. चुलवप्पः पितृव्योऽनिधीयते ॥ १७ ॥ (टीका.) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिपेधो विधिश्च । सांप्रतं पुरुषमाश्रित्याह । अजाए त्ति सूत्रम् । श्रार्यकः प्रार्यकश्चापि वप्पचुलपितेति च तथा मातुलनागिनेयेति Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३)-मा. मेवमालपनं कुर्वतः साधोः स्वगर्हातत्प्रटेषवचनलाघवादयो दोषा नवंति। के ते होलादि शब्दाश्त्याह । पूर्व ये उक्ताः पुनः हलेहले इत्येवमन्ने इति तथा जट्टे स्वामिनि गोमिनि होले गोले वसुले इति । एतान्यपि नानादेशापेक्षया स्त्रीणामामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्जाणि वर्तन्ते ॥ १६ ॥ .. (टीका.) किं च हले हले ति सूत्रम् । हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा नहिनि खामिनि गोमिनि । तथा होले गोले वसुले इत्येतान्यपि नानादेशापेदया थामन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्जाणि वर्तन्ते । यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलादिशब्दैरालपेदिति । दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः संगगर्दा तत्प्रहेषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नामधिलेण ए बूआ, श्बीयुत्तेण वा पुणो॥ जदारिदमनिगिन्नं, आलविङ लविङ वा ॥१७॥ (अवचूरिः) यदि नैवमालपेत् तर्हि कथमालपेदित्याह । नामधेयेन णं एनां ब्रूयात् । नामास्मृतौ स्त्रीगोत्रेण वा पुनः ब्रूयात् । यथा काश्यपगोत्र इति । यथार्ह वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षयानिगृह्य गुणानालोच्य बालां युवती वृद्धां बाले वृछे धर्मशीले इत्येवमालपेत् स्तोकं बहुतरं वा लपेत् ॥ १७ ॥ (अर्थ.) एम न बोलवू तो शीरीते बोलवू ते कहे . पूर्वोक्त साधु कंश कारण पडवाथी ( णं के) एनां एटले आ स्त्री प्रत्ये ( नामधिजेण के) नामधेयेन एटले देवदत्ता प्रमुख नामवडे करीने (बा के ) ब्रूयात एटले बोले. अर्थात स्त्रीतुं जे नाम प्रसिक होय ते नामश्रीज तेने बुलाव. कदाच नाम यादमां न होय तो (वा पुणो के०) वा पुनः एटले अथवा (बीगुत्तण के०) स्त्रीगोत्रेण एटले काश्यप प्रमुख स्त्रीगोत्रवडे करीने बोले. (जहारिहं के ) यथाईं एटले वय, देश, ऐश्वर्य इत्यादिकनी अपेक्षाथी (अनिगिन के) अनिगृह्य एटले गुण दोषनो विचार करीने (आलविऊ के०) आलपेत् एटले थोडं अथवा एकवार बोले. (वा के) पुनः ( ल विज के) लपेत् एटले वारंवार अथवा घणुं बोले. तात्पर्य जेम कोर्नु । मन न उखाय तेम बोलवु.॥ १७॥ (दीपिका.) अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेणालपनं न कुर्यात् तर्हि कथं कुर्यादित्याह । साधुः नामधेयेन इति नाम्नैव क्वचित्कारणे एतां स्त्रियं ब्रूयात । यथा हे देवदत्त शत ।। श्रथ नाम्नोऽस्मरणे गोत्रेण वा ब्रूयात् स्त्रियम् । यथा हे काश्यपगोत्रे इति । परं यथा- २ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४५ योग्यं यथार्हमजिगृह्य वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया गुणदोषानालोच्य तदालपेत् लपेत् वा । इषत् सकृद्वा लपनमालपनं लपनं वारं वारम् अतोऽन्यथा । तत्र च या वृद्धा मध्यदेशे ईश्वरा धर्म प्रिया अन्ययोच्यते धर्मशीला इत्यादिना । श्रन्यथा च यथा न लोकोपघात इति ॥ १७ ॥ ( टीका. ) नामधिजेणं ति सूत्रम् । नामधेयेनेति नात्रैव एनां ब्रूयात्त्रियं कचि - त्कारणे यथा देवदत्ते इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुनब्रूयात् स्त्रियं यथा कायगो इत्येवमादि । यथा यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया निगृह्य गुणदोषानालोच्या पेपेठा ईषत्सकुद्धा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनम् । तत्र वयोवृद्धा मध्यदेश ईश्वरा धर्म प्रियान्यत्रोच्यते । धर्मशील इत्यादिनान्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ ए ए वा वि, बप्पो चुल्लपित्त माउला नाइपिक त्ति, पुत्ते तु प्रिति ॥ ॥ १८ ॥ ( यवचूरिः ) नरमाश्रित्य प्रतिषेधमाह । श्रार्यकः पितामहो मातामहश्च । प्रार्यकः प्रपितामहश्च । वप्पः पिता । चुल्लक पितेति पितृव्यः । मातुल जागिनेयेति पुत्र नतृ इति वचनम् । नप्ता पौत्रः प्रपौत्रो वा ॥ १८ ॥ (अर्थ) स्त्रीने आश्रयीने शीरीते बोलवु तथा न बोलवु ते कयुं. हवे पुरुषने आश्रयीने कहे . ( अए के० ) आर्यकः एटले आर्यक ( पाए के० ) प्रार्थकः एटले प्रार्थक ( वा० ) अथवा (वि. के ० ) अपि एटले पुनः (बप्पो के० ) बप्पः एटले पिता ( चुल्ल पिके० ) चुल पिता एटले चुल्ल पिता (काको) (माउला के०) मातुलः एटले मातुल (मामो) (नाणिक के० ) जागिनेयः एटले जागिनेय ( जाणेज ) (पुत्ते के ० ) पुत्रः एटले. पुत्र ( तुणित्ति ) नप्तेतिच एटले नप्ता ( पोत्रो ) ए प्रकारे पुरुषने उद्देशीने साधु न बोलवु ॥ १८ ॥ 1 ( दीपिका. ) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपन निषेधो विधिश्च । सांप्रतं पुरुषमधिकृत्याह । साधुरिति न वदेत् । इतीति किम् । श्रार्यकः प्रार्यकश्चापि बप्पचुलक पितेति च तथा मातुल जागिनेयेति पुत्र नप्ता इति च । इह जावार्थ: स्त्रियामिव द्रष्टश्यः । नवरं चुल्लप्पः पितृव्योऽनिधीयते ॥ १८ ॥ 1 ( टीका. ) उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो विधिश्व । सांप्रतं पुरुषमाश्रित्याह । 1. अए ति सूत्रम् । श्रार्यकः प्रार्यकश्चापि बप्पचुल्ल पितेति च तथा मातुलजा गिनेयेति Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) -मा. पुत्रसेति च । इह जावार्थः स्त्रियामिव द्रष्टव्यः । नवरं चुल्लवप्पः पितृव्योऽनिधीयत इति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ देनो दलित्ति प्रन्नित्ति, नट्टे सामिप्र गोमिया ॥ होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेवमालवे ॥ १९ ॥ (रिः ) किंच हे जो दलेति अन्नेति जट्टेति स्वामिन् गोमिक होल गोल वसुलेति पुरुषं नैवमालपेत् ॥ १७ ॥ (अर्थ. ) (हे के० ) हे एटले हे ( जो के० ) जो: एटले जो ( हलित्ति के० ) हलेति पटले हल ए प्रकारे (अन्नि त्ति के० ) अन्नेति एटले अन्न ए प्रकारे (नहे के० ) जर्ता एटले जर्ता ( सामिा के० ) स्वामी एटले स्वामी ( गोमी के० ) गोमी एटले गोमी (होलगोल वसुलित्ति के० ) होलगोलवसुल इति एटले होल गोल वसुल ए प्रकारे पुरुषने उद्देशीने साधुए न बोलवुं ॥ १५ ॥ ( दीपिका . ) किंच हे अन्न हे जट्ट हे स्वामिन् हे होल हे गोल हे वसुलेति साधुः पुरुषं नैवमालपेदिति ॥ १५ ॥ ( टीका. ) किंच जोत्ति सूत्रम् । हे जो हलेत्यन्नेति नर्तः खामिन् गोमिन होa गोल वसुल इति पुरुषं नैवमालपेदित्यत्रापि नावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ १.५ ॥ नामधिजे जंबूच्या, पुरिसगुत्तेण वा पुणो ॥ जदारिहमनिगिन, प्रालविक लविङ वा ॥ २० ॥ ( अवचूरिः ) तर्हि कथमालपेत् । पुरुषा जिलापेन योजना कार्येति ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) एम न बोलवुं तो शीरीते बोलवं तेकहे बे. नाम धिणं इत्यादि सूत्र. या गाथानो जावार्थ आज अध्ययननी सत्तरमी गाथामाफक जाणवो. एटलोज फेर के, तेमां स्त्री आश्रयी बात कही बे ते अहिं पुरुष आश्रयी जाणवी ॥ २० ॥ ( दीपिका . ) यदि नैवमालपेत् तर्हि कथमालपे दित्याह । व्याख्या पूर्ववत् । नवरं पुरुषा जिलापेनार्थ योजना कार्या ॥ २० ॥ ( टीका. ) यदि नैवमालपेत्कथं तर्ह्यलपेदित्याह । नामधिजेण ति सूत्रम् । व्याख्या पूर्ववदेव । नवरं पुरुषा जिलापेन योजना कार्येति ॥ २० ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४४७ पंचिंदिआण पाणाणं, एस श्वी अयं पुमं ॥ जाव णं न विजाणिज्जा, ताव जा त्ति पालवे॥२१॥... (श्रवचूरिः) उक्तः पुरुषमाश्रित्यालपने प्रतिषेधो विधिश्च । अधुना पञ्चेन्जियति- . . र्यग्गतं विधिमाह । पंचेन्द्रियाणां प्राणिनां गवादीनां क्वचिडूरे देशे स्थितानामेषा । स्त्री गौः । अयं पुमान् बलीवईः । यावदेतहिशेषेण न जानीयात् तावन्मार्गप्रश्नादौ .. - प्रयोजन उत्पन्ने सति जाशत्ति जातिमाश्रित्य आलपेत् । अस्मात्पशुटोलकात्किय- ... दूरे पन्था इत्येवमादि । अन्यथा लिंगव्यत्ययसंनवान्मृषावादापत्तिः। अत्राह परः। एकेन्द्रिय विकलेजियनारकाणां नपुंसकत्वे सत्यपि मृत्तिका पाषाणो धनरस आपो जलं ज्वलनः पवनस्तरुलता शंखः शक्तिका कीटिका ‘मत्कोटको नंगी नारक इत्यादीनां लिंगव्यत्ययेनोच्यमानत्वात् किं न मृषादोषः। गुरुराह । व्यवहारसत्येन सत्यमेवैतत् । यथा दह्यते गिरिगलति नाजनमनुदरा कन्येति न मृषादोषः ॥१॥ . .. (अर्थ.) पुरुषने उद्देशीने पण वचननो विधि तथा प्रतिषेध कह्यो. हवे तिर्यंच.. पंचेंजिय श्राश्रयी वचनविधि कहे . पंचिंदिआण इत्यादि सूत्र. (पंचिंदित्राण के) पंचेन्डियाणां एटले पंचेंजिय एवा (पाणाण के०) प्राणिनाम् एटले गायप्र- मुख तिर्यंच जीवो क्यांय दूर प्रदेशे रह्या होय तो तेमनामां ( एस के) एषा एटले श्रा (श्ली के ) स्त्री एटले स्त्री ने, (अयं के०) अयं एटले श्रा (पुमं के) पुमान् एटले पुरुष , आ रीते (जाव के) यावत् एटले ज्यासुधी (णं के०) एनं एटले एने (नविजाणिजा के) न विजानीयात् एटले न जाणे. (ताव के०) तावत् - एटले त्यांसुधी मार्गादिकमां को प्रश्न विगेरे करे तो (जाइ त्ति के० ) जातिमिति एटले जातिने आश्रयीने (बालवे के०) आलपेत् एटले बोलq. मार्गादिक को - पूजे तो एम कहेवू के, श्रा फलाणी जातर्नु तिर्यंच बेतुं ने तेथी थोडे बेटे फलाणो. मार्ग डे इत्यादि. ॥१॥... ... (दीपिका.) उक्तः पुरूषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च । अधुना पञ्चेन्जियति-:-. यक्संबन्धिनं वचन विधिमाह। पंचेन्डियाणां प्राणिनां गवादीनां क्वचिदूरदेशे स्थि- : " तानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्दः यावदेतहिशेषेण न विजानीयात् तावन्मार्गे प्रश्नादौ प्रयोजने समुत्पन्ने सति जातिं निमित्तमाश्रित्यालपेत् । अस्मात् गोरूपम्।जातात् कियदूरेण श्त्येवमादि। अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंजवात् मृषावादस्योत्पत्तिःस्यात्। . - बालगोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषा नवन्ति ॥ १॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४वा राय धनपतसिंघबहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. -- ( टीका.) उक्तः पुरुषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च । अधुना.पञ्चेन्जियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह।पंचिंदिआण त्ति सूत्रम् । पञ्चेन्द्रियाणां गवादीनां प्राणिनां कचिछिप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् वलीवर्दः । यावदेत हिशेषेण न - जानीयात् । तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजन उत्पन्ने सति जातिमिति जातिमाश्रित्यालपेत् । अस्माजोरूपजातात्कियरेणेत्येवमादि । अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंचवान्मृषावादापत्तिर्गोपालादीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः। श्रादेपपरिहारौ तु वृद्धविवरणादवसेयौ। तच्चेदम् ।जलिंगवच्चए दोसो ता कीस पुढवा दिनपुंसगत्तेवि पुरिसिविनिदेसो पयदृश।जहा पबरो मट्टिया कर उस्सा मुम्मुरो जाला वार्ड वालीली अंवर्ड अंविलिया. किमि जलूया मकोड कीडिया जमरजे मडिया एवमादि । आयरिज आह । जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयश त्ति ण एब दोसो । पंचिदिएसु पुण ण एयमंगीकीर। गोवालादीण वि ण सुदिधम्म त्ति विपरिणामसंजवार्ड पुछिअसामायारिकहणे वा गुणसंजवादिति इति सूत्रार्थः ॥ २१॥ तदेव माणुसं पसुं, पकिं वा वि सरीसवं ॥ यूले पमेश्ले वने, पायमित्ति अ नो वए॥२२॥ (अवचूरिः) तथैव यथोक्तं प्राग मनुष्यं नार्यादिकं पशुमजादिकं पदिणं वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकं स्थूलोऽत्यंतमांसलोऽयं मनुष्यादिः । तथा प्रमेरः प्रकर्षमेदःसंपन्नः । वध्यो व्यापादनीयः । पाक्य इति च पाकयोग्य इति च नो वदेत् तदप्रीतिवधाशंकादिदोषात् ॥२२॥ (अर्थ.) वली ( तहेव के ) तथैव एटले तेमज (माणुसं के) मानुषं एटले मनुष्यने ( पसुं के) पशुं एटले गाय, बलद प्रमुख पशुने (पकिं. के०) पक्षिणं एटले हंस प्रमुख पदीने ( वा के०) अथवा (सरीसवं वि के०) सरीसृपमपि एटले सर्प इत्यादिकने पण आ ( श्रूले के०) स्थूलः एटले घणो जाडो , (पमेश्ले के०) प्रमेदिलः एटले घणो मेदवालो , (वले के०) वध्यः एटले वध करवायोग्य बे, (अ के) च एटले वली (पायमित्ति के) पाक्य इति एटले पाक करवायोग्य डे ए प्रकारे ( नो वए के०) नो वदेत् एटले न बोलवं. ॥ २२॥ ... .. (दीपिका.) किंच साधुस्तथैव उक्तपूर्व मनुष्यमार्यादिकं पशुमजादिकं पक्षिणं । वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकं प्रति इति न वदेत् । श्तीति किम् । अयं स्थूला. - ऽत्यन्तमांसलो मनुष्यादिः। तथा अयं प्रमेपुरः प्रकर्षण मेदःसंपन्नः। तथा अय Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४४ए वड्यो मारणीयः । अयं पाक्यः पाकप्रायोग्यः। केचिदन्ति पाक्यः कालप्राप्त इत्येवं वचनं न वदेत् । कथम् । अप्रीतिव्यापत्त्याशङ्का दिदोषप्रसङ्गात् ॥ २२ ॥ (टीका.) किंच तहेवत्ति सूत्रम् । तथैव यथोक्तं प्राक् मनुष्यमार्यादिकं पशुमजादिकं पक्षिणं वापि हंसादिकं सरीसृपमजगरादिकम् । स्थूलोऽत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः । तथा प्रमेपुरः प्रकर्षेण मेदःसंपन्नः। तथा वध्यो व्यापादनीयः। पाक्य इति च नो . वदेत् । पाक्यः पाकप्रायोग्यः । कालप्राप्त इत्यन्ये । नो वदेत् नो ब्रूयात् । तदप्रीतिव्यापत्त्याशङ्का दिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ .. परिवूढ त्ति एणं बूषा, बना जवचित्र त्ति अ॥ . . . संजाए पीणिए वा वि, महाकाय त्ति आलवे ॥२३॥ (अवचूरिः) कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदे दित्याह । परि समन्तात् वृद्धः परिवृत श्त्येवं स्थूलं मनुष्यादिकं ब्रूयात् । ब्रूयाउपचित इति संजातःप्रीणितश्चापि निष्पन्नो महाकाय इति चालपेत् ॥ २३॥ . (अर्थ.) कारण पडे तो शीरीते कहे ते कहे . परिवूढ इत्यादि सूत्र. (एं के) एनं एटले ते स्थूल प्राणीने (परिवूढ त्ति के०) परिवृक्ष इति एटले परिवृत ए प्रकारे (बूआ के) ब्रूयात् एटले बोलq. (अ के०) च एटले वली ( उवचित्र त्ति के०) उपचित इति एटले उपचित ए प्रकारे (बूआ के ) ब्रूयात् एटले कहे. (वा के०) अथवा ( संजाए के० ) संजातः एटले संजात, (पीणिए के०) प्रीणितः एटले प्रीणित, ( महाकाय त्ति वि के०) महाकाय इत्यपि एटले महाकाय ए प्रकारे . पण (श्रालवे के०) आलपेत् एटले कहे. ॥ ५३॥ (दीपिका.) कारणे तु उत्पन्न एवं वदे दित्याह । साधुः स्थूलं मनुष्यादिकं प्रति - इति वदेत् । श्तीति किम् । अयं परिवूढो बलोपेतः । अयमुपचितः । अयं संजातः। अयं प्रीणितः । अयं महाकाय इति ब्रूयादालपेत् ॥ २३ ॥ ( टीका.) कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदे दित्याह । परिवूढ त्ति सूत्रम् । परिवृक्ष इ... .. त्येनं स्थूल मनुष्यादि ब्रूयात्तथा ब्रूयाऽपचित इति च । संजातः प्रीणितश्चापि महाकाय इति चालपेत् । परिवृक्षं पलोपचितं परिहरे दित्यादाविति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ ... तदेव गाउनान, दम्मा गोरगत्ति अ॥ ., वादिमा रहजोगित्ति, नेवं नासिङ पन्नवं ॥ २४॥ .. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. ( अवचूरिः ) तथैव गावो दोह्या दोहार्दा दम्या दमनयोग्या गोरथकाः कल्हो - sha इति च वाह्या रथयोग्या इति नैवं जाषेत प्रज्ञावान् ॥ २४ ॥ ( अर्थ. ) वली ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( गार्ड के० ) गावः एटले गायो ( नाdho ) दोह्या: एटले दोहवा योग्य बे, अर्थात् एमनो दोहवानो समय यो बे. ( ० ) च एटले वली ( गोरहगा के० ) गोरथका: एटले वलद ( दम्मा के० ) दम्याः एटले दमवा योग्य बे, ( ति के० ) इति एटले आ प्रकारे तथा ( वाहिमा के० ) वाह्या: एटले जार प्रमुख वदेवा योग्य ठे, तथा ( रहजोगित्ति के० ) रथयोग्या इति एटले रथायोग्य वे ए प्रकारे ( पसवं के० ) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली साधु (नेवं नासिक के०) नैवं जाषेत एटले एम न वोले. ॥ २४ ॥ ( दीपिका . ) पुनः कीदृशीं जाषां न वदेदित्याह । प्राज्ञावान् साधुः न एवं जाषां tra | एवं किमित्याह । एता गावो दोह्या दोहार्हाः । आसां गवां दोहनसमयो वर्तत इत्यर्थः। एते गोरथकाः कल्होडका दम्याः । तथा एते वाह्याः सामान्येन ये केचित् तानाश्रित्य रथ योग्याः । कुतो न जाषेत । उच्यते । अधिकरणलाघवादिदोषा जवन्ति । प्रयोजने तु क्वचित् एवं जाषेत इत्याह ॥ २४ ॥ ( टीका. ) किं च तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव गावो दोह्या दोहार्दा दोहसमय सां वर्तत इत्यर्थः । दम्या दमनीया गोरथका इति च । गोरथकाः कल्होडाः । तथा वाह्याः सामान्येन ये क्वचित्तानाश्रित्य रथयोग्याश्चैत इति नैवं जाषेत । प्रज्ञावान् साधुरधिकरणलाघवादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ जुवं गवित्ति ांबूच्या, धेणुं रसदयत्ति ॥ रहस्से मदल्लए वा वि, वए संवदणित्ति ॥ २५ ॥ ( अवचूरिः ) कार्ये त्वेवं ब्रूयात् । युवा गौरिति दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात् । धेनुं रसदेति च ब्रूयात् । गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महलकं वापि वदेत् संवहनमिति च रथ योग्यं संवदनं धुर्यं वदेत् ॥ २५ ॥ 1 ( .) को वखते काम पडे तो आरीते बोलवं एम कहे बे. जुवं इत्यादि सूत्र. ( णं के० ) एनं एटले ए दमवायोग्य एवाने (जुवं गवित्ति के० ) युवा गौरिति एटले जुवान बलद बे ए प्रकारे ( बूया के० ) ब्रूयात् एटले कहे. ( अ के० ) वली (धे एं के० ) धेनुं एटले थोडा दिवस उपर प्रसव पामेली गायने ( रसदत्ति के० ) इति एटले रस (दूध ) आपनारी बे श्ररीते कहेतुं, तथा ( रहस्से के ) Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . दशवकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४५२ एटले टूको एवा ( वा के० ) अथवा ( महबए वि०) महबकमपि एटले मोटा एवा पण जोतरवा योग्य बलदने ( संवहण त्ति अके) संवहन इति च एटले सं. वहन प्रकारे ( वए के० ) वदेत् एटले बोलवू. ॥ २५ ॥ .. (दीपिका.) साधुः युवा गौरिति दम्यो गौर्युवा इति ब्रूयात् । धेनुं गां रसदा इति ब्रूयात्। रसदा गौरिति। तथा ह्रस्वं महतकं वापि गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महलकं वदेत् संवहन मिति च रथयोग्यं संवहनं धुर्यं वदेत् ॥ २५ ॥ ... (टीका.) प्रयोजने तु कचिदेवं नाषेतेत्याह जुवं ति सूत्रम् । युवा गौरिति दम्यो गौर्युवेति ब्रूयात् । धेनुं गां रसदेति ब्रूयात् । रसदा गौरिति । तथा इस्वं महतकं वापि गोरथकं ह्रस्वं वाह्यं महलकं वदेत् । संवहनमिति रथयोग्यं संवहनं वदेत् । क्वचिदिगुपलक्षणादौ प्रयोजन इति सूत्रार्थः ॥२५॥ तदेव गंतुमुजाणं, पवयाणि वणाणि अ॥ रुका महल पेदाए, नेवं नासिक पन्नवं ॥२६॥ - (श्रवचूरिः ) किंच तथैव गत्वोद्यानं जलक्रीडास्थानं पर्वतान् वनानि च वृद्धान् महतः प्रेक्ष्य नैवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ २६ ॥ (अर्थ.) ( तहेव के० ) तथैव एटले तेमज ( उजाणं के०) उद्यानं एटले कीडा करवाना बगीचामा ( पव्वयाणि के०) पर्वतान् एटले पर्वतो उपर (अ के०) च एटले वली ( वणाणि के) वनानि एटले जंगलोमां (गंतुं के०) गत्वा एटले जश्ने ( महल के०) महतः एटले मोटा ( रुका के) वृदान् एटले वृदोने (पेहाए के) प्रेक्ष्य एटले जोश्ने (पसवं के) प्रज्ञावान् एटले बुझिशाली साधु (एवं के०) कहीशुं ते प्रकारे (न नासिज के०) न नाषेत एटले न बोले.॥२६॥ ... (दीपिका.) पुनः कीदृशीं नाषां साधुन वदे दित्याह । प्रज्ञावान् साधुः एवं नाषां न नाषेत । किं कृत्वा । तथैव पूर्ववत् उद्यानं जलक्रीडास्थानं गत्वा । तथा पर्वतान् प्रतीतान् तथा वनानि च तत्र वृदान् महतो महाप्रमाणान् उत्प्रेक्ष्य दृष्ट्वा ॥२६॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । गत्वोद्यानं जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा । तथा वनानि च । तत्र वृक्षान् महतो महाप्रमाणान् प्रेक्ष्य "वं दृष्ट्वा नैवं जाषेत प्रज्ञावान साधुरिति. सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. अलं पासायखंनाणं, तोरणाणि गिहाणि अ॥ फलिदग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥ ७ ॥ . (अवचूरिः ) किमित्याह । समर्थाः प्रासादस्तंचयोः तोरणानां नगरतोरणादीनां गृहाणां च परिघार्गलानावां तत्र परिघो नगरछारे, अर्गला गोपाटादौ नौः प्रतीता । आसामिति योज्यम् । अलमुदकोणीनां अरघट्टजलधारिणीनाम् ॥ २७ ॥ (अर्थ.) शीरीते न बोलवू ते कहे. अलं इत्यादि सूत्र. आ वृदो (पासायकंजाणं के०) प्रासादस्तंनानां एटले एक स्तंन प्रासाद (महेल) वनाववाने तथा बीजा पण घर कामने योग्य एवा स्तंन बनाववाने (अलं के०) अलं एटले योग्य वे. (श्र के०) च एटले वली आ वृदो ( तोरणानि के) तोरणानाम् एटले नगर प्रमुखना दरवाजा तथा (गिहाणि के०) गृहाणां एटले विविध प्रकारनां घरो वनाववा योग्य जे. तथा आ वृदो (फलिहग्गलनावाणं के०) परिघार्गलानावाम् एटले परिघ (नगरनी चूंगल), अर्गला (घरप्रमुखनी मुंगल) अने नौ (नौका होडी प्रमुख) बनाववा योग्य . तथा आ वृदो (उदगदोणीणं के०) उदकोणीनां एटले रहेट पासे पाणी जरवा माटे मूकाती लाकडानी मोटी कुंडी बनाववा योग्य जे.एम न कहे, - (दीपिका.) एवं किं न जाषेत इत्याह । एते वृक्षाः प्रासादस्तंनानां तथा परिघार्गलानावां तत्र नगरकारे परिघो, गोपाटादिषु अर्गला, नौस्तु प्रसिधा । आसामलमेते वृदाः। तथा उदकोणीनां उदकोण्योऽरघजलधारिकाः। एतेषां प्रासादस्तंनादीनामेते वृदा योग्या इति साधुन वदेत् ॥ २७॥ (टीका.) किमित्याह । अलं ति सूत्रम् । अवं पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्नयोः । अत्रैकस्तंनः प्रासादः स्तंजस्तु स्तंन एव तयोरखम्। तथा तोरणानां नगरतोरणादीनां गृहाणां च कुटीरकादीनाम्।अलमिति योगा तथा परिघार्गलानावां वा। . तत्र नगरधारे परिघः ।गोपाटादिष्वर्गला । नौः प्रतीतेति । आसामलमेते वृक्षाः। तथोदकोणीनामलम् । उदकोण्योऽरहद्दजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥२७॥ पीढए चंगबेरे अ, नंगले मश्यं सिश्रा॥ जंतलही व नानी वा, गंडिआ व अलं सिया॥॥ .... (अवचूरिः) चतुर्थ्यर्थे प्रथमा । पीठकाय काष्ठासनाय।चंगबेरं च काष्ठपात्री। नांग लाय हलाय, महिकाय सनारायः स्यात् । यंत्रलष्टयै वा । यन्त्र यष्टिः प्रसिका।नानिः ; ... शकटचक्रतुंबम् । गंमिकायै वादं स्युरेते वृदाः ॥ २७ ॥ . Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४५३ . (अर्थ.) तथा श्रा वृदो (पीढए के० ) पीठकाय एटले पीठक (आसनविशेष) बनाववा, (अ के) च एटले वली ( चंगबेरे के) चंगबेराय एटले चंगबेर नामाः काष्ठपात्र बनाववा, (अ के) च एटले वली (नंगले के०) लांगलाय एटले हल बनाववा, (श्र के०) च एटले वली (मश्रं के) मयिकाय वटले म यिकनामनी वावेलां बीज ढांकवाना काममा आवती वस्तु बनाववाने, (व के) अथवा (जंतलही के) यंत्रयष्टये एटले कोश् यंत्रनी लाकडी बनावाने (वा के०) अथवा ( नानी के०) नानये एटले पश्डानी नानि बनाववाने (व के ) अथवा (गंमिश्रा के०) गंमिकायै एटले सुवर्णकारनी सोनुं टीपवानी एरण बनाववाने (अवं सिआ के० ) अलं स्युः एटले योग्य . आ रीते न बोलवू. ॥ २७ ॥ (दीपिका.) पुनराह। पीठकाय अलमेते वृक्षाः । अत्र पीठकादिशब्देषु सर्वत्र चंतुर्थ्यर्थे प्रथमास्ति । परमर्थस्तु चतुर्थैव कार्यः। तथा च चंगबेरं काष्ठपात्री तस्मै अलम् । तथा लांगलं हलं तस्मै, तथा महिकाय महिकमुप्तबीजाबादनं । तथा यंत्रयष्टथै वा। तथा नाजये का । नानिः शकटरथांगम् । गंडिकायै वा । गंडिका सुवर्णकाराधिकरणस्थापनी । एते वृक्षा अलं समर्था एवं जाषां साधुन जाषेत ॥ ७ ॥ (टीका.) तथा पीढए त्ति सूत्रम् । पीठकायालमेते वृक्षाः। पीठकं प्रतीतं तदर्थम् । सुपा सुपो जवन्तीति चयुर्थ्यथें प्रथमा । एवं सर्वत्र योजनीयम् । तथा चंगबे-- रायेति।चंगबेरं काष्ठपात्री तथा नंगति।लागलं हलं । तथा अलं मयिकाय स्यात् । मयिकमुप्तबीजाबादनम् । तथा यंत्रयष्टये वा। यंत्रयष्टिः प्रतीता । तथा नानये वा। नानिः शकटरथाङ्गम् । गंडिकायै वालं स्युरेते वृदा इति नैवं नाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते। गंडिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिरणी) स्थापनी जवतीति सूत्रार्थः ॥२॥ - आसणं सयणं जाणं, दुजा वा किंचुवस्सए॥ - भूवघाणिं नासं, नेवं नासिक पन्नवं ॥२॥ (अवचूरिः) श्रासनमासंदकादि, शयनं पर्यकादि,यानं वाहनादि, नवेछा किंचि, उपाश्रये हारकपाटादि एतेषु वृदेष्विति नूतोपघातिनी जाषां नैवं नाषेत प्रज्ञावान् श्ए (अर्थ.) तेमज (श्रासणं के०) आसनं एटले आसन (सयणं के० ) शयनं स. एटले खाट पलंग प्रमुख शयन,(जाणं के०) यानं एटले रथ प्रमुख यान, ( वा के०) अथवा (किंच के०) किंच एटले वली एवीज बीजी कांपण वस्तु (उवस्सए के) "उपाश्रये एटले उपासराने विषे (हुजा के०) नवेत् एटले होय. तो उपर कह्या . . Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ राय धनपतसिंघबदाउरका जैनागमसंग्रह, भाग तेतालीस-(४३)-मा. - प्रमाणे वृक्ष श्राश्रयी (नूवघाणिं के० ) नूतोपघातिनी एटले प्राणीने पीडाकरां नारी एवी ( एवं के०) एवं एटले उपर कही ते प्रकारनी (नासं के) नाषां एटले जाषा प्रत्ये ( पसवं के०) प्रज्ञावान् एटले जाण साधु (न नासिज के) न जाषेत एटले न बोले.॥ए ॥ ___ (दीपिका.) पुनराह । प्रज्ञावान् साधुः एवं विधां नूतोपघातिनी प्राणिसंहारकारिणी नाषां न नाषेत । एवं कामित्याह । एतेषु वृदेषु आसनमासंदकादि, शयनं पर्यकादि, यानं युग्यादि, नवेत् वा किंचित् उपाश्रये वसतौ । अन्यका बारपात्रादि । दोषाश्चात्र तनखामी व्यंतरादिर्वा कुप्येत्, सलकणो वा वृद इति गृह्णीयात् । अनि. यमितजाषिणो लाघवं चेत्यादयः॥ ए॥ ___(टीका.) तथा आसणं ति सूत्रम् । आसनमासंदकादि शयनं पर्यकादि यानं युग्यादि नवेठा किंचिउपाश्रये वसतावन्यद् द्वारपात्राये तेषु वृदेष्वपि नूतोपघातिनी सत्वपीडाकारिणी नाषां नैवं नाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः। दोषाश्चात्र तनखामी व्यन्तरादिः कुप्येत् । सलक्षणो वा वृक्ष इत्यनिगृह्णीयात् । अनियमितनाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः॥ ए॥ तदेव गंतुमुजाणं, पवयाणि वणाणि अ॥ रुका महल पेहाए, एवं नासिज्ज पन्नवं ॥३०॥ (अवचूरिः ) विधिमाह । तहेव त्ति पूर्ववत् । नवरमेवं नाषेत ॥ ३०॥ (अर्थ.) कारण पडे तो शी रीते बोलतुं ते कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले तेमज ( उजाणं के०) उद्यानं एटले उद्यान प्रत्ये, ( पचयाणि के०) पर्वतान् एटले पर्वत प्रत्ये तथा (वणाणि के०) वनानि एटले वन प्रत्ये ( गंतुं के०) गत्वा एटले जश्ने अने ( महल के ) महतः एटले मोटा एवा (रुरके के वृक्षान् एटले वृक्ष प्रत्ये (पेहाए के० ) प्रेक्ष्य एटले जोश्ने (पलवं के०) प्रज्ञावान् एटले जाण साधु ( एवं के०) आ प्रकारे (नासिक के०) नाषेत एटले बोले. ॥३०॥ (दीपिका.) अत्रैव विधिमाह । वस्तुतः पूर्ववदेव । नवरं महतो वृक्षान् दृष्ट्वा प्र. झावान् साधुः एवं नाषेत ॥ ३० ॥ ... (टीका.)अत्रैव विधिमाह।तदेव त्ति सूत्रम्।वस्तुतः पूर्ववदेव। नवरमेवं जाषेत॥३०॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४५५ जाश्मंता श्मे रुका, दीदवद्या महालया ॥ पयायसाला वडिमा, वए दरिसणित्ति अ॥३१॥ . (अवचूरिः) जातिमन्त उत्तमजातय एतेऽशोकाद्या वृक्षाः दीर्घवृत्ता महालया वटादयः संजातशाखा उत्पन्नटाला विटपिनो वदेत् । दर्शनीया इति च विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेत् ॥३१॥ . (अर्थ.) मार्ग देखाडवा प्रसुख कारण पडे तो साधुए था रीते बोलवु. जाश्मंत इत्यादि सूत्र. (जाश्मंत के०) जातिमन्तः एटले ऊंची जातना अशोकप्रमुख, (दीह के०) दीर्घाः एटले दीर्घ एवा नालियरी प्रमुख, ( वहा के) वृत्ताः एटले गोल आकारना नंदीवृद प्रमुख (अ के०) च एटले तथा ( महालया के) महालयाः एटले मोटा विस्तारवाला वडप्रमुख, (श्मे के०) आ (रुका के) वृदाः एटले वृदो ( पयायसाला के०) प्रजातशाखाः एटले उत्पन्न थडे घणी शाखा जेमने एवा तथा ( विममा के) विटपिनः एटले शाखाउँथी नीकलेली शाखावाला तथा ( दरिसणित्ति के०) दर्शनीया इति एटले दर्शनीय जे था प्रकारे ( वए के) वदेत् एटले बोलवं. ॥ ३१) (दीपिका.) एवं किमित्याह । साधुः इति वदेत् । श्तीति किम् । एते वृदा जातिमन्त उत्तमजातीया अशोकादयोऽनेकप्रकारा वा उपलन्यमानस्वरूपाः। पुनः दीर्घा नालिकेरीप्रनृतयः। पुनर्वृत्ता नन्दिवृदादयः। पुनः महालया वटादयः। पुनः एते प्रजातशाखा उत्पन्नडाला विटपिनः प्रशाखावन्तः। पुनः एते दर्शनीया इति वदेत् । एवमपिकदावदेत् ।प्रयोजने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ उत्पन्नेसति अन्यदा नेति ॥३१॥ (टीका.) जाश्मंत त्ति सूत्रम् । जातिमन्त उत्तमजातयोऽशोकादयः। अनेकप्रकारा एत उपलन्यमानखरूपा वृदा दीर्घवृत्ता महालया। दीर्घा नालिकेरीप्रनृतयः। वृत्ता नन्दिवृदादयः। महालया वटादयः । प्रजातशाखा उत्पन्नडाला विटपिनः प्रशाखावन्तो वदेदर्शनीया इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेन्नान्यदेति सूत्रार्थः॥३१॥ तदा फलाई पक्काई, पायखळा नो वए ॥ वेलोश्याइं टालाइं, वेदिमाश त्ति नो वए ॥३॥ (अवचूरिः) तथा फलानि आम्रादीनि पक्कानि पाकेन गर्ताप्रक्षेपकोडवपलालादिना विपाच्य जयाणीति नो वदेत्। वेलोचितानि ग्रहणकालप्राप्तानि अतःपरं कालं. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. न सहते। टालानि अबकास्थीनि अद्यापि कोमलानि । हैधिकानि पेशीसंपादनेन विधाकरणाऱ्याणि । तछाक्यश्रवणात् तत्स्वामिग्रहणात् संयमविराधना ॥ ३ ॥ - (अर्थ.) (तह के ) तथा एटले तेम ( फलाणि के०) फलानि एटले आंवा प्रमु खनां फलो ( पक्का के०) पक्कानि एटले पाकेला ; अथवा (पायखजार के) - पाकखाद्यानि एटले घासमां अथवा खाडा विगेरेमा राखी पकावीने लक्षण करवा योग्य जे एम ( नो वए के) नो वदेत् एटले न कहे. तथा पूर्वोक्त फलोज (वेलोश्या के०) वेलोचितानि एटले अतिशय पाक होवाथी जेमनो ग्रहण करवानो समय आवी रह्यो बे, एवा अथवा ( टाला के) टालानि एटले कोमल एवा अथवा (वेहिमा के०) दैधिकानि एटले अठी बंधा गयाथी वे जाग करवा योग्य बे, (त्ति के) इति एटले आ प्रकारे पूर्वोक्त साधु (न वए के०) न वदेत् एट कहे नहि. ॥ ३२ ॥ . (दीपिका.) पुनः किं न वदे दित्याह । साधुः इति नो वदेत् । इतीति किम् । तथा फलानि आम्रादीनि पाकप्राप्तानि जातानि। तथा पाकखायानि बझास्थीनि गर्ताप्रदे· पकोजवपलालादिना विपाच्य जहणयोग्यानीति । तथा वेलोचितानि पाकातिशयतः ग्रहणकालोचितानि । अतःपरं कालं न विषहंत इत्यर्थः । तथा टालानि अबझास्थीनि कोमलानीति । तथा धिकानीति पेशीसंपादनेन वैधीनावकरणयोग्यानि वेति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रैते । न च नाश एव अमीषां न शोजनानि वा प्रकारांतरनोगेन इत्यवधार्य गृहिप्रवृत्त्याधिकरणादय इति ॥ ३ ॥ . ( टीका.) तहा फलाणि त्ति सूत्रम् । तथा फलान्याम्रफलादीनि पक्कानि पाकप्रा. तानि तथा पाकखाद्यानि बझास्थीनीति गर्तप्रदेपकोडवपलालादिना विपाच्य जदाणयोग्यानीति नो वदेत्। तथा वेलोचितानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि |श्रतः परं कालं न विषहंतीत्यर्थः । टालान्यबझास्थीनि कोमलानीति यमुक्तं नवति । तथा वैधिकानीति पेशीसंपादनेन छैधीनावकरणयोग्यानीति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रात जवं नाश एवामीषां न शोजनानि वा प्रकारान्तरजोगेनेत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ असंथडा इमे अंबा, बदुनिवडिमा फला॥ वश्क बहु संनू, नूअरूव ति वा पुणो ॥३३॥ (अवचूरिः) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह । असमर्था एते थाम्रा Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। .. ४५७ अतिचारेण न शकुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः।आम्रग्रहणं प्रधानवृदोपलदणम्। एतेन पक्वार्थ उक्तः । बहुनिवर्तितफलाः। बहनि निर्वतितानि बझास्थीनि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थः। वदे बहुसंनूताः। बहूनि पाकातिशयतः संजूतानि ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते। अनेन वेलोचितार्थः । नूतरूपा इति वा पुनर्वदेत्।चूतानि रूपाणि अबकास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते अनेन टालार्थः ॥३३॥ ___(अर्थ.) कारण पडे तो आ रीते कहेवू एम कहे . असंथडा इत्यादि सूत्र. (श्मे के०) श्मे एटले आ (अंबा के०) आम्राः एटले आम्रवृदो जे ते (असंथडा के०) असमर्थाः एटले पोताना फलोनो नार धारण करवाने असमर्थ . ( पक्कफलवाला एम कहेवाने बदले आ रीते कहे.) तेमज (बहुनिवटिमा फला के०) बहुनिर्वर्तितफलाः एटले आ आम्र वृदोउपर गोटदीवाला फलो घणां बंधा गएलां बे. (पकावीने लक्षण करवा योग्य जे एम कहेवाने वदले आम कहे.) तेमज (बहुसंजूआ के०) बहुसंनूताः एटले आ आम्रादिवृदोने विषे परिपक्व फलो घणा तैयार थएलां डे. (अतिशय पक्क फलो बे, एम कहेवाने बदले आम कदेवं.) तेमज (वा के) अथवा (पुणो के०) पुनः (नूअरूवित्ति के०) नूतरूपा इति एटले गोटली बंधाया विनाना फलवाला एवा आ आम्र वृदादिक .(कोमल फलवाला इत्यादि कहेवाने बदले आम कहे.)॥ ३३ ॥ ___(दीपिका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदे दित्याह । असमर्था एते थाम्रा अतिनारेण नम्रा न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षाणामुपलक्षणम् । एतेन पक्वार्थ उक्तः। तथा बदनि निर्वतितानि बझास्थीनि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः । वदेत् बहुसंनूताः । बहनि संनूतानि रूपाणि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथाविधाः । अनेन वेलोचितार्थ उक्तः । तथा नूतरूपा इति वा पुनर्वदेत् । नूतानि रूपाणि अबकास्थीनि कोमलफल- रूपाणि येषु ते तथा अनेन टालाद्यर्थ उपलदित इति ॥ ३३ ॥ (टीका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदे दित्याह । असंथड त्ति सूत्रम् । ' असमर्था एत थाम्रा अतिनारेण न शन्कुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः । थाम्रग्र। हणं प्रधानवृदोपलक्षणम् । एतेन पक्वार्थ उक्तः । तथा बहुनिवर्तितफलाः। बहनि निर्वतितानि बझास्थीनि फलानि येषु ते तथा । अनेन पाकखाद्यार्थ उक्तः । वदे. बहुसंनूताः । वहनि संनूतानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा । अनेन वेलोचिताद्यर्थ उपलदित इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ . . . . . Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४यन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तदेवोसहिन पकान, नीलिमा ग्वीइ अ॥ लाइमा नजिमान त्ति, पिलुखज त्ति नो वए ॥ ३४ ॥ (अवचूरिः) तथैवौषधयः शाल्यादयः पक्का नीलिकाश्ववय इति वरचणका दिलक्षणाः। लवनवत्यो लवनयोग्याः । नर्जनवत्यो जर्जनयोग्यास्तथा पृथुकनया इति दा वदेत् ॥ ३४ ॥ (अर्थ.) (तहेव के०) तथैव एटले तेमज (सहि के०) उपध्यः एटले शाली, गहू प्रमुख उषधी ( पक्का के०) पक्काः एटले पाकेली , (अ के०) च एटले वली (नीलियार्ड बवी के) नीलावयः एटले वाल, चोला प्रमुख कगेल (लाश्मा के) लवनवत्यः एटले लणवा योग्य , (नडिआ के०) जजनवत्यः एटले टुंजवा योग्य जे, (त्ति के) इति एटले आ प्रकारे तथा (पिहखज त्ति के०) पृथुकनया इति एटले पोक करीने नदण करवा योग्य जे या प्रकारे (नो वए के०) नो वदेत् एटले न कहेवू. ॥३४॥ (दीपिका.) पुनराह । तथैव तेनैव प्रकारेण षधयः शाल्या दिलदणाः पक्का इति नो वदेत् । तथा नीलाः बवय इति वाचवलकादिफललदाणाः। तथा लवनवत्यो लवनयोग्याः। नर्जनवत्य इति ननयोग्याः। तथा पृथुकजदया इति नो वदेत् । पृथुकलक्षणयोग्या इति नो वदेदिति पदं सर्वत्र संबध्यते । पृथुका अर्बपक्कशाब्यादिषु क्रियन्ते । अनिधानदोषाः पूर्ववत् ॥३४॥ __ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथौषधयः शादयादिलणाः पक्का इति। तथा नीलाश्वय इति वा । वाचवलकादिफललक्षणाः । तथा लवनवत्यो लवनयोग्याः । नर्जनवत्य इति नर्जनयोग्याः । तथा पृथुकनदया इति पृथुकनदणयोग्याः। नो वदेदिति सर्वत्रानिसंबध्यते । पृथुका अर्धपक्कशाव्यादिषु क्रियन्ते । अनिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥३४॥ रूढा बहुसंनूआ, थिरा सढा विअ॥ गमिआन पसून, संसारानत्ति आलवे ॥ ३५॥ (अवचूरिः) कार्ये मार्गदर्शनादावेवमालपेत् । रूढाः प्रापुता बहुसंजूता निपन्नप्रायाः स्थिरा निष्पन्ना उत्तृता इति वा जपघातेच्यो निर्गता वा । गर्भिता अनिर्गतशीर्षकाः । प्रसूता निर्गतशीर्षकाः । संसाराः संजाततन्मुला इत्यालपेत् । पक्काद्यर्थयोजना कार्या वधिया ॥३५॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । . ४थए (अर्थ..) एम न बोलवू तो कारण पडे शीरीते बोलवं ते कहे .पूर्वोक्त उषधी (रूढा के०) रूढाः एटले उत्पन्न थएनी बे, (बहुसंजूआ के०) बहुसंनूताः एटले घणे नागे निष्पन्न थएली, (थिरा के०) स्थिराः एटले निष्पन्न थएली , (विश्र के०) अपिच एटले वली (ऊसढा के) उत्सृताः एटले उपघातथी नीकलेली बे, तेमज (गनिया के०) गर्जिताः एटले जेना डोडा बहार नीकल्या नथी एवी (पसूार्ड के) प्रसूताः एटले जेना डोडा बहार नीकल्या बे एवी तथा (संसारा के) संसाराः एटले डांगर प्रमुख सार वस्तु जेने माथे तैयार थर रही डे एवी , (त्ति . के०) इति एटले ा प्रकारे (थालवे के) आलपेत् एटले कहे. ॥ ३५ ॥ ... (दीपिका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादौ एवमालपेदित्याह । साधुः एवमालपेत् । एवं किमित्याह । रूढाः प्रापुर्जुताः बहुसंनूता निष्पन्नप्रायाः । स्थिरा निष्पन्नाः। जमृता इति वा उपघातेन्यो निर्गता इति वा । तथा गर्जिता अनिर्गतशीर्षकाः। प्र. सूता निर्गतशीर्षकाः । संसाराः संजाततन्मुलादिसारा इत्येवमालपेत् । पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्या ॥ ३५॥ .. (टीका.) प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह । रूढ त्ति सूत्रम् । रूढाः प्रापुञ्जूताः । बहुसंनूता निष्पन्नप्रायाः। स्थिरा निष्पन्नाः । उत्सृता इति जपघातेच्यो निर्गता इति वा । तथा गनिता अनिर्गतशीर्षकाः । प्रसूता निर्गतशीर्षकाः । संसाराः संजाततन्मुलादिसारा इत्येवमालपेत् । पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्येति सूत्रार्थः॥३५॥ तदेव संखमि नच्चा, किच्चं कळंति नो वए॥ तेणगं वावि वन्नित्ति, सुतिबित्ति अ श्रावगा ॥३६॥ ___(अवचूरिः) तथैव संखमि ज्ञात्वा करणीयेति पित्रादिनिमित्तं सांवत्सरिका कायवैषेति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहणादोषात् । स्तेनकं वा वध्य इति नो वदेत्। सुतीर्था इति च । चशब्दादुस्तीर्था इति च । आपगा नद्यः । केनचित्पृष्टः सन् नो व.. देत् । अधिकरणादिदोषात् ॥ ३६ ॥ . (अर्थ.) साधुए वाणी शीरीते बोलवी तथा न बोलवी ए अधिकारमा श्रा बीजें 'कहे . ( तहेव के ) तथैव एटले तेमज ( संखमि के०) संखमि एटले जेने विषे प्राणियोनां आयुष्यो खंमित थाय बे एवी क्रियाने ( नच्चा के०) ज्ञात्वा एटले जा. पीने (करणिकं ति के०) करणीयति एटले पित्रादिकनी तृप्तिने अर्थे श्रा अवश्य 'करवीज आ रीते ( नो वए के) नो वदेत् एटले न बोलवू. (वा के) वा एटो Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. अथवा (तेगं वा विके० ) स्तेनकं वापि एटले चोरने पण (वनित्ति के० ) वध्य इति एटले वध करवा योग्य बे या प्रकारे ( अ के० ) च एटले वली ( आपगा के० ) आपगाः एटले नदीने ( सुतिचित्ति के० ) सुतीर्था इति एटले सुखे तरवा योग्य या रीते न कहेतुं ॥ ३६ ॥ ( दीपिका. ) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाह । साधुः संखमिं ज्ञात्वा एषा पित्रादिनिमित्तं करणीया एव इति नो वदेत् । मिथ्यात्वस्य उपबृंहणादोषात् । ननु संखमि इति कः शब्दार्थः । उच्यते संखंड्यंते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरण - क्रियायां सा संखडी । तथा स्तेनकं चौरं ज्ञात्वा अयं वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतेस्तेननिश्चयादिदोषप्रसंगात् । तथा आपगा नद्यः सुतीर्थाः । चशब्दादुस्तीर्णा एता इति केनापि पृष्टः सन् नो वदेत् । अधिकरणविघातादिदोषप्रसंगात् ॥ ३६ ॥ ( टीका. ) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमात इदमपरमाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव संखाित्वा । संखंड्यन्ते प्राणिनामायंषि यस्यां प्रकरण क्रियायां सासंखडी तां ज्ञात्वा करणीयेति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषैति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात् । तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रसंगात् । सुतीर्था इति च । चशब्दाद्दुतीर्था इति वा । आपगा नद्यः केनचित्पृष्टः सन्न वदेत् । श्रधिकरणविघातादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ संखडिं संखडिंबूच्या, पणिच् ति तेगं ॥ बहुसमा णि तिचाणि यावगाणं विप्रागरे ॥ ३७ ॥ ( श्रवचूरिः ) कार्ये एवं वदेत् संखडि संखडी इति ब्रूयात् । पणितार्थ इति स्तेनकं ब्रूयात् | शिक्षकादिविपाकदर्शनादौ । पणितेनाऽर्थोस्य पणितार्थः । प्राणिद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः । बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यारणीयात् ॥ ३७ ॥ ( (अ.) कारण पडे तो या रीते कहेतुं एम कहे बे. संखडिं इत्यादि सूत्र. ( संखडिं के० ) संखर्डि एटले संखडी प्रत्ये ( संखडि के० ) संखडिं एटले संकीर्णा संखर्डी एमज ० ) ब्रूयात् एटले कहेतुं. अर्थात् साधुए साधुने कहेतुं पडे, अथवा बीजं कां काम पडे तो संखडिने संखडि शब्द वडेज कहेवी. ( तेगं के० ) स्तेनकं एटले चोरने (पत्ति के० ) पणितार्थ इति एटले पोताना जीवने जोखममां नाखीने स्वार्थ साधनारो आरीते ( बूया के० ) ब्रूयात् एटले कहेतुं तेमज ( धावगाणं के० ) आपगानां एटले नदीनां (तिचाणि के० ) तीर्थानि एटले उतरी जवानां Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। . ४६१ मार्गाने (बहुसमा के०) बहुसमानि एटले घणा खरा सम , विषम नथी, एम. (वियागरे के.) व्यागृणीयात् एटले कहे. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) प्रयोजन उत्पन्ने सति पुनः साधुरेवं वदे दित्याह । साधुः संखडिं इति ब्रूयात् साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति तथा स्तेनकं वदेत् शैदकादिकर्मविपाकदर्शनादौ । पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः । प्राणयूतप्रयोजन इत्यर्थः। तथा बहु समानि तीर्थानि आपगानां नदीनामिति व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति ॥ ३७॥ ( टीका.) प्रयोजने पुनरेवं वदे दित्याह । संखडि त्ति सूत्रम् । संखडि संखडिं ब्रूयात् । साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत् । शै: दकादिकर्मविपाकदर्शनादौ पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः । प्राणद्यूतप्रयोजन - त्यर्थः । तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ तदा नश्न पुन्नाज, कायतिऊ त्ति नो वए। नावादि तारिमान त्ति, पाणिपिऊ त्ति नो वए ॥३७॥ . (अवचूरिः) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदम् । तथा नद्यः पूर्णा इति नो वदेत् प्रवृत्तिदोषात् । कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत् । नौनिस्तरणीयास्तरणयोग्या इति नो वदेत् । तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत् ॥ ३ ॥ (अर्थ.) वाणीना विधिनातथा प्रतिषेधना अधिकारमांज वली कहे .तहाश्त्यादि सूत्र. (तहा केक) तथा एटले तेमज पूर्वोक्त साधुए (ना के०) नद्यः एटले नदी (पुन्ना के) पुर्णाः एटले परिपूर्ण जरेलीबे, तेमज (कायतिजा के०) काय" तरणीयाः एटले शरीरवडे तरवा योग्य बे, (त्ति के०) इति एटले आ रीते (नो वए के) नो वदेत् न कहेवं. तथा (नावाहिं के०) नौनिः एटले नौका ( होडी) वडे खा करीने (तारिमाज त्ति के) तरणीया इति एटले तरवा योग्य जे आ रीते तथा एम (पाणि पिज त्ति के) प्राणिपेया इति एटले तट उपर रहेला प्राणिथी जेमना ज़ल. 143 पीवाय एवा ले आ रीते (नोवए के०) नोवदेत् एटले न बोलवू. ॥ ३० ॥ .. . ___ (दीपिका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह । साधुरिति नो वदेत् ।इतीति SH" किम् । नद्यः पूर्णा नृताः । कथम् । प्रवृत्तश्रवणनिर्वर्तनादिदोषात् । तथा काय तरणीयाः शरीरतरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । साधुवचनेन नो विघ्न इति प्रवर्त्तनादि a. जवा Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. श्रथवा (तेणगं वा वि के०) स्तेनकं वापि एटले चोरने पण (वनित्ति के० ) वध्य इति एटले वध करवा योग्य बे आ प्रकारे (अ के०) च एटले वली (थापगा के०) आपगाः एटले नदीओने (सुतिबित्ति के०) सुतीय इति एटले सुखे तरवा योग्य ने श्रा रीते न कहेवू. ॥ ३६ ॥ (दीपिका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान श्दमपरमाह । साधुः संखमि ज्ञात्वा एषा पित्रादिनिमित्तं करणीया एव इति नो वदेत् । मिथ्यात्वस्य उपबृंहणादोषात् । ननु संखमिति कः शब्दार्थः। उच्यते संखंड्यंते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी तथा स्तेनकं चौरं ज्ञात्वा अयं वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतेस्तेननिश्चयादिदोषप्रसंगात् । तथा आपगा नद्यः सुतीर्थाः। चशब्दावस्तीर्णा एता इति केनापि पृष्टः सन् नो वदेत् । अधिकरण विघातादिदोषप्रसंगात् ॥ ३६ ॥ ... ( टीका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमात इदमपरमाह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव संखडिं ज्ञात्वा । संखंड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरण क्रियायां सासंखडी तां ज्ञात्वा करणीयेति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात् । तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत् । तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रसंगात् । सुतीर्था इति च। चशब्दाहुस्तीर्था इति वा। आपगा नद्यः केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत् । अधिकरण विघातादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥३६॥ संखडिं संखडिं बूआ, पणिअहत्ति तेणगं॥ बहुसमाणि तिबाणि, आवगाणं विआगरे॥ ३७॥ - (अवचूरिः) कार्ये एवं वदेत् संखडि संखडी इति ब्रूयात् । पणितार्थ इति स्तेनकं ब्रूयात् । शिक्षकादिविपाकदर्शनादौ । पणितेनाऽर्थोस्य पणितार्थः । प्राणियूतप्रयोजन . इत्यर्थः । बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् ॥ ३ ॥ (अर्थ.) कारण पडे तो आ रीते कहेQ एम कहे . संखडिं इत्यादि सूत्र. (संर्खा के) संखडि एटले संखडी प्रत्ये (संस्खडि के०) संखडिं एटले संकीर्णा संखडर्डी एमज (बूया के०) ब्रूयात् एटले कहेवू. अर्थात साधुए साधुने कहेवू पडे, अथवा बाइ कांश काम पडे तो संखडिने संखडि शब्द वडेज कवी. ( तेणगं के) स्तेनक ए टले चोरने (पणिअहत्ति के०) पणितार्थ इति एटले पोताना जीवने जोखममा ना खीने स्वार्थ साधनारो आरीते (ब्रा के) यात एटले कहेवु. तेमज (आवगाए के०) श्रापगानां एटले नदीनां (तिबाणि के) तीर्थानि एटले उतरी जवान Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। . ४६१ मार्गाने (बहुसमा के०) बहुसमानि एटले घणा खरा सम डे, विषम नथी, एम (विआगरे के.) व्यागृणीयात् एटले कहे. ॥ ३॥ - (दीपिका.) प्रयोजन उत्पन्ने सति पुनः साधुरेवं वदे दित्याह । साधुः संखडिं इति ब्रूयात् साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति तथा स्तेनकं वदेत् शैदकादिकर्मविपाकदर्शनादौ । पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः। प्राणयूतप्रयोजन इत्यर्थः। तथा बहु समानि तीर्थानि आपगानां नदीनामिति व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति ॥ ३७॥ (टीका.) प्रयोजने पुनरेवं वदे दित्याह । संखडि त्ति सूत्रम् । संखडि संखडि बयात् । साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि । पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत् । शै: दकादिकर्मविपाकदर्शनादौ पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः । प्राणघूतप्रयोजन इत्यर्थः । तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् । साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ तदा नश्न पुन्नाज, कायतिऊ त्ति नो वए॥ नावाहिं तारिमान त्ति, पाणिपिऊ त्ति नो वए ॥३॥ (अवचूरिः) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदम् । तथा नद्यः पूर्णा इति नो वदेत् प्रवृत्तिदोषात् । कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत् । नौनिस्तरणीयास्तरणयोग्या इति नो वदेत् । तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत् ॥ ३७॥ (अर्थ.) वाणीना विधिना तथा प्रतिषेधना अधिकारमांज वली कहे .तहाश्त्यादि । सूत्र. (तहा केक) तथा एटले तेमज पूर्वोक्त साधुए (नळ के०) नद्यः एटले नदी (पुन्नार्ड के०) पुर्णाः एटले परिपूर्ण नरेली बे, तेमज (कायतिजा के) कायतरणीयाः एटले शरीरवडे तरवा योग्य , (त्ति के) इति एटले श्रा रीते (नो वए के.) नो वदेत् न कहे. तथा (नावाहिं के०) नौनिः एटले नौका (होडी) वडे करीने (तारिमाउ ति के) तरणीया इति एटले तरवा योग्य आ रीते तथा . (पाणिपिऊ त्ति के) प्राणिपेया इति एटले तट उपर रहेला प्राणिथी जेमना जल. बीउ पीवाय एवा ले आ रीते ( नोवए के) नोवदेत् एटले न बोलवू. ॥ ३७॥ . . . (दीपिका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह । साधुरिति नो वदेत् । इतीति किम् । नद्यः पूर्णा नृताः । कथम् । प्रवृत्तश्रवण निर्वर्तनादिदोषात् । तथा काय"तरणीयाः शरीरतरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । साधुवचनेन नो विघ्न इति प्रवर्त्तनादि Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)मा. प्रसंगात् । तथा नौनिलोणी निस्तरणीयास्तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्तनात् । तथा प्राणिपेया इति नो बदेत् । तटस्थप्राणिपेया इति नो वदेत् । तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति ॥ ३ ॥ ( टीका.) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह ।' तहा नश् ति सूत्रम् । तथा नद्यः पूर्णा नृता इति नो वदेत् । प्रवृत्तश्रवण निवर्तनादिदोषात् । तथा कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत् । साधुवचनतोऽविघ्नमिति प्रवर्त्तनादिप्रसङ्गात् । तथा नौनिमोणी निस्तरणीयास्तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत् । अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात्। तथा प्राणिपेयास्तटस्थप्राणिपेया नोवदे दिति।तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति सूत्रार्थः॥३०॥ बहुबादडा अगादा, बहुसलिनुप्पिलोदगा॥ बदुविबडोदगाआवि, एवं नासिक पन्नवं ॥ ३०॥ (अवचरिः) कथं वदेदित्याह । बहधा नताः प्रायशो नृताः। बह्वगाधाः प्रायोगम्नीराः । बहुसतिलोत्पीलोदकाः प्रतिश्रोतोवाहितापरसरितः । बहुविस्तीर्णोदकाश्चापि खतीरप्लावनविस्तृतजला एवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ ३ ॥ (अर्थ.) कारण पडे तो आ रीते कहे, एम कहे जे. बहु इत्यादि सूत्र. ( पन्नवं के) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिशाली पुरुष पूर्वोक्त नदीउने (बहुबाहडा के०) बहुजूताः एटले प्राये नरेली , तथा (अगाहा के) अगाधाः एटले प्राये ऊंडी बे. तेमज (बहुसविलुप्पिलोदगा के०) बहुसलिलोत्पीडोदकाः एटले बीजी नदीना प्रवाहोने पाबल हटावनारी एवी (बहुविबडोदगा आवि के) बहु विस्तीर्णोदका अपि एटले पोताना तीरने पलली नाखे एवा जलने धारण करनारी बे. (एवं के०) आरीते (नासिज के०) नाषेत एटले बोले. ॥ ३५॥ (दीपिका.) प्रयोजने साधुार्गकथनादावेवं नाषेत इत्याह । प्रज्ञावान् साधुः एवं नाषेत वदयमाणं परं नतु तदागतपृष्टोऽहं न जानामीति ब्रूयात् । कथम् । प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रषादिदोषप्रसंगात् । एवं किमित्याह । बहुध तृताः प्रायशो जूता इत्यर्थः। तथा अगाहा इति बह्वगाधाः प्रायोगंजीराः । बहु सलिलोत्पीलोदकाः प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः । तथा बहुधा विस्तीर्णोदका श्च खतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च इति । वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह ॥ ३ ॥ ( टीका. ) प्रयोजने तु साधुमार्गकथनादावेवं नाषेतेत्याह । बहुवाहड त्ति स जम् । बहुनृताः प्रायशो नृता इत्यर्थः। तथागाधा इति बह्वगाधाः प्रायोगम्नीराः Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४६३ बहुसलिलोत्पीडोदकाः प्रतिस्त्रोतोवा हितापरसरित इत्यर्थः । तथा विस्तीर्णोदकाश्च स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च । एवं जाषेत प्रज्ञावान् साधुर्नतु तदागतपृष्टो न वेद्म्यहमिति ब्रूयात् । प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ तदेव सावऊं जोगं, परस्सठा निठि ॥ कीरमा ति वा नच्चा, सावऊं न लवे मुणी ॥ ४० ॥ - ( अवचूरिः ) तथैव सावद्यं योगं व्यापारमधिकरणं समादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्पन्नं क्रियमाणं वा वर्त्तमानम् । वाशब्दाद्भविष्यत्कालजाविनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् ॥ ४० ॥ (अर्थ) वाणीना विधि प्रतिषेध अधिकारमां वली कहे बे. (तदेव के० ) तथैव एटले तेमज (सावऊं के ० ) सावद्यं एटले पाप सहित एवो ( जोगं के० ) योगं एटले व्यापार ( परस्साए के० ) परार्थ एटले परने अर्थे ( निहिां के० ) निष्ठितं एटले पूर्वे यश रहेलो बे, (कीरमाणं के० ) क्रियमाणं एटले वर्तमान काले थाय बे, ( वा के० ) अथवा जविष्य काले थशे, ( ति के० ) इति एटले या प्रकारे ( नच्चा ho ) ज्ञात्वा एटले जाणीने (मुणी के० ) मुनिः एटले साधु जे ते ( सावऊं के० ) सावधं एटले पापसहित जाषा प्रत्ये ( न लवे के० ) नालपेत् एटले न कहे. ॥ ४० ॥ * ( दीपिका . ) तथैव मुनिः साधुः सावद्यं योगं सपापं व्यापारमधिकरणसनादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्ठितं निष्पन्नं न ब्रूयात् । तथा क्रियमाणं । वाशब्दात् विष्यत्कालजा विनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नालपेत् सपापं न ब्रूयात् ॥ ४० ॥ .शा. ( अवचूरिः ) सावधं वर्जयेत् निरवद्यं जाषेते तत्सावद्य निरवद्यमाह । - सादि । सुष्ठु पक्कं सहस्रपाकादि । सुष्ठु बिन्नं वनादि सुष्टु हृतं शुद्रस्य वित्तम् । सुष्टु स्मृतः प्रत्यनीकः । चत्रापि सुशब्दोऽनुवर्त्तते । सुनिष्ठितं वित्ताजिमा निनो वित्तम्। सुलष्टा सुन्द ( टीका. ) वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव सावद्यं सपापं योगं व्यापारमधिकरणं समादिविषयं परस्यार्थाय परनिमित्तं निष्ठितं निष्पन्नं तथा क्रियमाणं वा वर्त्तमानम् । वाशब्दाद्भविष्यत्कालनाविनं वा ज्ञात्वा सावद्यं नाल: पेत् । सपापं न ब्रूयात् । मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुचिन्ने सुदडे मडे ॥ सुनिठिए सुलठित्ति, सावऊं वज्रए मुणी ॥ ४१ ॥ ' Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा रा कन्येति सावद्यं वर्जयेत् । अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् । निरवद्यं नापेत । सुकृतमनेन वैयावृत्त्यादि । सुपक्कं ब्रह्मचर्य साधोः। सुनिन्नं स्नेहवन्धनं। सुहृतमात्मानं स्वजनादेः। सुमृतं पंमितमरणेन । सुनिष्टितं कर्म अप्रमत्तसाधोः । सुलष्टा क्रियेति ब्रूयात् ॥४१॥ __ (अर्थ.) उपरती गाथामां कहेला अर्थ-ज वधारे स्पष्टीकरण करे ते. सुकडित्ति इत्यादि सूत्र. (मुणी के०) मुनिः एटले साधु (सावऊं के०) सावयं एटले सावध वचन प्रत्ये (वजए के०) वर्जयेत् एटले वर्जे, शीरीते वर्जे ते कहे . (सुकडित्ति के०) सुकृतमिति एटले को ऊगडा टंटाना फेसला वास्ते सना ठीक करी एम न कहे. (सुपकित्ति के०) सुपक्क मिति एटले सहस्रपाक प्रमुख तेलनो पाक सारी पेठे कस्यो एम न कहे. (सुबिन्ने के०) सुछिन्नं एटले जंगल प्रमुख कापी नाख्युं ते ठीक कडे, एम न कहे. (सुहडे के०) सुहृतं एटले को कुछ माणसनुं धन चोरा गयु ते ठीक थयु, एम न कहे. (मडे के०) मृतः एटले फलाणो मुस्मन मरी गयो ते ठीक थयु, एम न कहेवु. ( सुनिधि के०) सुनिष्ठितं एटले हुं पैसावालो एवो अहंकार राखनार फलाणानुं धन नाश पाम्युं ते ठीक थयुं एम न कहेवू. तथा (सुलहित्ति के०) सुलष्टेति एटले फलाणी कन्या सुंदर ने एम कहे. एवा सावद्य वचन न कहेवा. पण निरवद्य वचन तो कहेवा. जेम के, फलाणा साधुए वेयावच्च सुकृतं एटले सारं कस्तूं. फलाणा साधुनुं ब्रह्मचर्य सुपक्कं एटले सारं परिपक्क थयु. फलाणा सा. धुए पोताना संबंधीउने विषे रहेढुं स्नेहबंधन सुबिन्नं एटले सारीपेठे कापी नाख्यु. शिष्यना उपकरण उपसर्गमां सुहृतं एटले लुप्त थया ते ठीक थयु. फलाणो साधु सु. मृतः एटले पंमित मरण पाम्यो ते ठीक थयु. को प्रमाद रहित साधुनुं कर्म सुनिष्टितं एटले सारीपेठे खपा गयु. फलाणा साधुनी क्रिया सुलष्टा एटले बहु सारी ने आ रीते निरवद्य वचन कहे. ॥१॥ (दीपिका.) तत्र निष्ठितं न एवं ब्रूयादित्याह।मुनिःसाधुः इति सावद्य सपापमिति वदयमाणप्रकारेण वर्जयेत् ।इतीति किम् । तदाह । सुकृतमिति सुष्टु कृतं सनादि। सुपकंति । सुष्टु पक्कं सहस्रपाकादि । सुन्नित्ति सुष्टु मिन्नं वनादि । सुहमित्ति सुष्टु हृतं कुषस्य वित्तम् । मडेति सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इति । अत्रापि सुशब्दोऽनुवत्तेते । सुनिध्यिति सुष्टु निष्ठितं वित्तानिमानिनो वित्तम् । सुलहत्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेत् मुनिः।अनुमत्यादिदोषप्रसंगात्। निरवयं निःपापं तु वदेत् । श्द| मेव पद्यमर्थान्तरेण व्याख्यानयति सुकमित्ति । सुष्टु कृतं वैयावृत्त्यमनेन । सुपकत्ति।सुप ब्रह्मचर्य साधोः।सुबिन्नमिति। सुष्टु बिन्नं स्नेहवन्धनमनेन। सुहृतमिति सुष्टु हृतं शिष्य Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४६५ कोपरणम् उपसर्गे।सुमृतमिति सुष्टु मृतः पंमितमरणेन साधुरिति।अत्र सुशब्दोऽनुवर्तते। सुनिष्ठितं कर्म अप्रमत्तसंयतस्य । सुखहित्ति सुन्दरा साधुक्रिया इत्येवमादिरिति॥१॥ (टीका.) तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयादित्याह । सुकड त्ति सूत्रम् । सुकृतमिति सुष्टु कृतं सन्नादि।सुपक्वमिति सुष्टु पक्कं सहस्रपाकादि। सुबिन्नमिति सुष्टु बिन्नं तहनादि । सुहृतमिति सुष्टु हृतं तुअस्य वित्तम्।सुमृतश्ति सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इत्यत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते।सुनिष्ठितमिति सुष्टु निष्ठितं वित्तानिमानिनो वित्तम् । सुलहित्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेद् मुनिरनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् । निरवयं तु न वर्जयेत् । यथा सुकृतमिति सुष्टु कृतं वैयावृत्त्यमनेन । सुपक्कमिति सुष्टु पक्कं ब्रह्मचर्य साधोः। सुबिन्नमिति सुष्टु मिन्नं स्नेहबंधनमनेन । सुहृतमिति सुष्टु हृतं शिष्यकोपकरमुपसर्गे । सुमृत इति सुष्टु मृतः पंमितमरणेन साधुरिति।अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते । सुनिष्ठितमिति सुष्टु निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य । सुलह ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति सूत्रार्थः॥४१॥ .. पयत्तपक त्ति व पकमालवे, पयत्तबिन्नत्ति व बिन्नमालवे॥ पयत्तलहित्ति व कम्मदेनअं, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे ॥४॥ (अवचूरिः) उक्तानुक्तापवादविधिमाह । प्रयत्नपक्क मिति वा पक्कमालपेत् । प्रयत्नपक्कं सहस्रपाकादि ग्लानार्थम् । प्रयत्न छिन्नमिति वा बिन्नमालपेत् । प्रयत्नछिन्नं वनादि। प्रयत्नलष्टेति वा लष्टा सुन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक्पालनीया । कर्महेतुकमिति सर्वमेव कृतादि सत्कर्मकमालपेत् । प्रहारगाढं ब्रूयात् ॥ ४२ ॥ ' (अर्थ.) हवे अपवादमार्ग कहे . पयत्त इत्यादि सूत्र, सहस्रपाकादि तेलतुं ग्लान विगेरेने प्रयोजन होय तो साधु (पकं के०) पक्कं एटले पाकसि थएल एवा सहस्रपाकादि तेलने ( पयत्तपकित्ति के ).प्रयत्नपक्वमिति एटले घणी म. हेनतथी पकावेबुं बे ए प्रकारे ( आलवे के ) आलपेत् एटले कहे. तेमज साधु प्रसंगथी साधुऊने कहे होय तो ( बिन्नं के) बिन्नं एटले कापी नाखेला वन वि गैरेने ( पयत्तबिन्नं के०) प्रयत्नचिन्नं एटले प्रयत्न करी कापेलुं जे ए प्रकारे (आलंवे के०) आलपेत् एटले कहे. ( व के० ) वा एटले अथवा सुंदर कन्याने ( पयत्तलहित्ति के) प्रयत्नलष्टेति एटले आ कन्या दीक्षा ले तो एनुं प्रयत्नथी पालन करवू जोश्ये आ रीते सर्वने ( कम्महेजअं के ) कर्महेतुकं एटले कर्म डे हेतु जेनो एवं कहे. ( व के ) वा एटले अथवा ( गाढं के ) गाढने ( पहार । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.६६ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा गाढ a ho ) प्रहारगाढ मिति एटले प्रहारगाढ ए प्रकारे ( घालवे के० ) आल पेत् एटले कहे. ॥ ४२ ॥ ( दीपिका. ) उक्तानुक्तविधिमाह । साधुग्लानिप्रयोजने प्रयत्नपक्कमिति वा प्रयत्नपक्कमेतत् । पक्कं सहस्रपाकादि एवमालपेत् । तथा प्रयत्नछिन्नमिति वा प्रयत्न चिन्नमेतत् वनादि । साधु निवेदनादावेवमालपेत् । तथा पयत्तल द्विति वा प्रयत्नसुन्दरा कन्या दी. दिता सती सम्यक् पालनीयेति । कर्महेतुकमिति सर्वमेव कृतादिकर्मनिमित्तमालपेदितियोगः । गाढप्रहारमिति वा कंचन गाढमालपेत् । गाढप्रहारं ब्रूयात् क्वचित्प्रयोजने । एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता जवन्तीति ॥ ४२ ॥ ( टीका. ) उक्तानुक्तापवादविधिमाह । पयत्त त्ति सूत्रम् । प्रयत्नपक्कमिति वा प्रयत्नपक्कमेतत् । पक्कं सहस्रपाकादि ग्लानप्रयोजन एवमालपेत् । तथा प्रयत्न छिन्नमिति वा प्रयत्ननिमेतत् न्निं वनादि । साधु निवेदनादौ एवमालपेत् । तथा प्रयत्ललष्टेति वा । प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीदिता सती सम्यक् पालनीयेति । कर्महेतुक मिति सर्वमेव वा कृतादिकर्मनिमित्तमालपेदिति योगः । तथा गाढप्रहारमिति वा । कंचन गाढमा - लपेत् । गाढप्रहारं ब्रूयात्कचित्प्रयोजन एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता जवन्तीति सूत्रार्थः ॥ ५२ ॥ सबुकसं परग्धं वा, अडलं नचि एरिसं ॥ विकिप्रभवत्तवं यवित्तं चैव नो वए ॥ ४३ ॥ " = ( यवचूरिः ) व्यवहारे पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं वदेदित्याह । एतन्मध्ये इदं सर्वोत्कृ स्वावेन सुन्दरमित्यर्थः । परार्धं वा बहुमूल्य क्रीतमिति जावः । छातुलं नास्तीदृशं चिदपि । विविति । सुकृतं सुलनमीदृशं सर्वत्रापि । अवक्तव्यमनन्तगुणमेतत् प्रीतिकरं चैतदित्येवं नो वदेत् ॥ ४३ ॥ ( अर्थ. ) को व्यवहार चालतो होय त्यारे कोइ पूढे अथवा न पूढे तो ए तें न कहे एम कहे बे सबुकसं इत्यादि सूत्र, या वस्तुमां या वस्तु (सबुकर के० ) सर्वोत्कृष्टं एटले स्वभावथीज सारी सुंदर बे, ( वा के० ) अथवा च्या वस्तु ( रग्घं के० ) परार्धं एटले घणी मोंघी बे, तथा आ वस्तु ( अलं के० ) अतुलं एट बीजे क्या ए जोडो न मल्ले एवी बे, (नबि एरिसं के० ) नास्तीदृशं एटले एवी ब जे ठेकाणे न मले, तेमज या वस्तु (अविक्कि के० ) संस्कृतं एटले बराबर चे रकी करेली नथी, तथा या वस्तु ( अवत्तवं के० ) अवक्तव्यं एटले एनामां घ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४६ गुण होवाथी वर्णन करी-शकाय एवी नयी. (वा के०) अथवा था वस्तु (अविधत्तं के०) अप्रीतिकरं एटले अप्रीति उत्पन्न करनारी , श्री प्रकारे साधु (नो वए के०) नो वदेत् एटले. न कहे. ॥ ४३ ॥ (दीपिका.) कचिट्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं वदेदित्याह । साधुः एवं वक्ष्यमाणं नो वदेत् । एवं किमित्याह । एतन्मध्य इदं सर्वोत्कृष्टं खजावेन सुन्दरमित्यर्थः । परार्घ वा उत्तमाघ वा महाघु क्रीतमित्यर्थः । अतुसं नास्तीगन्यत्रापि क्वचित् । अविकिअंति असंस्कृतं सुलनमीदृशमन्यत्रापि । अवक्तव्यमिति अनंतगुणमेतदेव । अविअत्तं वा अप्रीतिकरं च एतत्। शति एवं नो वदेत् साधुः । अधिकरणान्तरायादिदोषप्रसंगादिति ॥ ४३ ॥ ... ( टीका.) कचिट्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्रूयादित्याह । सबुक्कसं ति सूत्रम् । एतन्मध्य इदं सर्वोत्कृष्टं खन्नावेन सुन्दरमित्यर्थः । परार्धं वोत्तमा वा महाघ क्रीतमिति नावः। अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि कचित् । अविकिरं ति । असंस्कृतं सुलनमीहशमन्यत्रापि । श्रवक्तव्यमित्यनन्तगुणमेतत् । अविअत्तं वा प्रीतिकरं चैतदिति नो वदेत् । अधिकरणान्तराया दिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ५३॥ सबमेअं वश्स्सामि, सबमेअंति नो वए॥ अणुवी सवं सबन, एवं नासिक पन्नवं ॥४४॥ (अवचूरिः ) सर्वमेतदयामीति केनचित्कस्यचित्संदिष्टे सर्वमेतत्वया वक्तव्य मिति सर्वमेतदयामीति नो वदेत् । सर्वस्य स्वरव्यञ्जनायुपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्। .. कस्यचित्संदेशं प्रयन् सर्वमिति नो वदेत् । अतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्व वाच्यं सर्वेषु कार्येषु यथासंजवायनिधानादिना मृषावादो न जवत्येवं नाषेत प्रज्ञावान् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) सबमेशं इत्यादि सूत्र, ज्यारे साधुने को कहे के, आ मे कहेली सर्व वात फलाणाने कहेजो. त्यारे साधु (सबमेअं वश्स्सामि के ) सर्वमेतदयामि : एटले आ सर्व वात कहीश एम ( नो वएं के०) नो वदेत् एटले न कहे. तेमज कोइ ने संदेशो कहेवराववो होय तो संदेशो कहेनारने तुं (सबमेअं के) सर्वमेतत् ए. टले या सर्व वात फलाणाने कहे जे. या प्रकारे (नो वएं के) नो वदेत् एट सन कहे. कारण के, एकना मुखमांथी नीकलेला तेना तेज शब्द स्वरव्यंजनसहित नोबीजो को कही शके तेम नथी. माटे ( पन्नवं के०) प्रज्ञावान् एटले बुद्धिमान् साधु ( सबब के०) सर्वत्र एटले सर्व ठेकाणे ( सवं के०) सर्वं एटले सर्व (श्रणुवी .. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ४६८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसग्रह, नाग तेतालीस (४३) - प्रा. के० ) अनुचिन्त्य एटले विचारीने ( एवं के० ) दोष न लागे एवी रीते ( नासिक के० ) जाषेत एटले बोले. ॥ ४४ ॥ · ( दीपिका. ) पुनः किंच सर्वमेतद् वक्ष्यामीति केनचित्कस्यचित् संदिष्टे सर्वमे - तत् त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद् वक्ष्यामीति साधुन वदेत् । सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । तथा सर्वमेतदिति नो वदेत् । कस्य चित् संदेहं प्रयछन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्यमिति नो वदेत् । सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । संवानिधाने मृषावादादयो यतश्च दोषा जवन्ति । एवमतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्व वाच्यं सर्वेषु कार्येषु । यथासंभवाद्य निधानादिना मृषावादो न जवत्येवम् ॥ ४४ ॥ ( टीका. ) किं च समेां ति सूत्रम् । सर्वमेतद्वदयामीति केन चित् कस्य चित् संदिष्टे सर्वमेतत्त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद्वदयामीति नो वदेत् । सर्वस्य तथास्वव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । तथा सर्वमेतदिति नो वदेत् । कस्य चित्संदेशं प्रयछन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्य इति नो वदेत् । सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् । असंजवानिधाने मृषावादः । यतश्चैवमतोऽनुचिन्त्यालोच्य सर्वं वाच्यं सर्वत्र कार्येषु । यथा संवाद्य निधानादिना मृषावादो न जवत्येवं नाषेत प्र ज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ 'सुक्की वा सुविक्की, व्यकिऊं किकमेव वा ॥ इमं गिरह इमं मुंच, पणीच्यं नो वित्र्यागरे ॥ ४५ ॥ ( वचूरिः ) सुक्रीतं वेति । केन चित्क्रीतं दर्शितं सत् सुक्रीतं इति नो वदेत् । किंचित्केचितिं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति नो वदेत् । केनचित्क्रीते पृष्टे के क्राईमेव न जवतीति नो वदेत् । तथैव क्रेयमेव वा इदं पण्यं गृहाण महार्घ जवि - ष्यति । इदं मुञ्च समर्धं जविष्यतीति पणितं पण्यं न व्यायणीयात् ॥ ४५ ॥ (अ.) वली सुक्की इत्यादि सूत्र. कोइ माणस कर वस्तु वेचाथी लइने साधुने देखा तो ते साधु (सुकीचं के०) सुक्रीतं एटले ठीक वेचाथी लीधी एम (नवियाग के० ) न व्यागृणीयात् एटले न कहे. तेमज कोइ कई वस्तु वेचीने साधुने पूबे तं साधु (सुविक्कीचं के० ) सुविक्रीतं एटले जली वेची नाखी एम न कहे. तेमज को कइ वस्तु वेचीने साधुने पूढे तो साधु ( कि के० ) अयं एटले खरीदवा ला यक नथी. ( वा के० ) अथवा ( किजमेव के० ) क्रेयमेव एटले खरीदवा योग्यज है या रीते न कहे. तेमज ( इमं के० ) या (पणियां के० ) पणितं एटले करियाएं Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... : . दशवकालिके सप्तमाध्ययनम्। . क्षाए (गिव्ह के०) गृहाण एटले नरी राख. कारण श्रागल जतां श्रा मोंधु थशे. तथा (श्मं के) आ करियाणु (मुंच के०) काढी नाख. कारण ए थोडा कालमां सोंधु थशे. आ रीते साधु न कहे.॥ ४५ ॥ (दीपिका.) किंच साधुः एवं न व्यागृणीयात् । एवमिति किम् । यदाह सुकीअमिति।केनचित् किंचित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति योगः। तथा सुविकी अमिति। किंचित् केनचित् विक्रीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात्। तथा केनचित्कीते पृष्टे अक्रेयं क्रयाहमेव वा न नवतीति न व्यागृणीयात् । तथैवमेव केयमेव वा क्र. याई मिति। तथेदं गुडादि गृहाण, आगामिनि काले महाघ नविष्यतीति। तथेदं मुञ्च घृतादि आगामिनि काले समर्घ नविष्यतीति, पणितं पण्यं क्रयाणकं नैवं व्यागृणीया त् । अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसंगादिति ॥४५॥ (टीका.) किंच सुकीनं वत्ति सूत्रम्। सुकीतं वेति । किंचित् केन चित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न व्यागृणीयात् इति योगः। तथा सुविक्रीतमिति । किंचिस्केनचिटिक्रीतं दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात् । तथा केन चित् क्रीते पृष्टोऽयं याहमेव न जवतीति न व्यागृणीयात् । तथैवमेव केयमेव वा क्र. यामेवेति । तथेदं गुडादि गृहाणागामिनि काले महाघ नविष्यति । तथेदं मुञ्च घु. ताद्यागामिनि काले समर्घ जविष्यतीति कृत्वा पणितं पण्यं नैव व्यागृणीयात् । अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अप्पग्घे वा महंग्घे वा, कए वा विकए वि वा ॥ . .. पणिअहे समुप्पन्ने, अपवनं वित्रागरे॥४६॥ ... __(अवचूरिः) अल्पार्थे वा महार्थे वा क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे पण्यवस्तु. नि समुत्पन्ने केनचित्पृष्टः सन् अनवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारोऽत्रसाधूनां व्यापारानावात् ॥ ४६॥ (अर्थ.) या विषयमांज विधि कहे . अप्पग्घे इत्यादि सूत्र. (अप्पग्घे के०). अल्पाघे एटले थोडा मूल्यनुं ( वा के०) अथवा ( महग्धे के०) महाघे एटले घणा मूल्यन (पणिय के०) पणितार्थे एटले करियाणुं (कए के०) क्रये एटले खरीदनी बाबदमां (वा के०) अथवा ( विकए के) विक्रये एटले वेचाणनी बावदमां ( समुप्पले के०) समुत्पन्ने एटले आवी पड्यु होय, अने साधुने कोश् पूजे तोते साधु Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (श्रणव के० ) अनवद्यं एटजे निरवद्य वचन. ( वियागरे के ) व्यागृणीयात् ए. टले बोले. अर्थात् एम कहे के, श्रमे साधु बिये, माटे आ बावदमां कंश पण बोलवा. नो अमने अधिकार नथी. ॥४६ ॥ .. (दीपिका.) अत्रैव विधिमाह ।अल्पार्धे वा महार्वे वा । कस्मिन् । इत्याह । कये वा विक्रये वापि पणितार्थे वा पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित्पृष्टः सन् साधुः अनवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारः तपस्विनां व्यापारस्य अन्जावादिति ॥ ४६॥ (टीका.) तत्रैव विधिमाह । अप्पग्घे व त्ति सूत्रम् । अस्पार्थे वा महार्वे वा । कस्मिन्नित्याह । क्रये वा विक्रयेऽपि वा पणितार्थे पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन्ननवद्यमपापं व्यागृणीयात् । यथा नाधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापाराजावादिति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ . तदेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा॥ सयं चिह वयाहि त्ति, नेवं नासिङ पनवं ॥४७॥ (अवचूरिः) तथैवासंयतं गृहस्थं धीरो यतिः आस्व इहैव, एहि अत्र, कुरु चेदं । कार्य, शेष्व निया, तिष्ठ दणं, व्रज ग्राममिति नैवं नाषेत ॥ ४ ॥ (अर्थ.) तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के ) तथैव एटलें तेमज (पलवं के०) प्रज्ञावान एटले बुद्धिशाली अने (धीरो के ) धीरः एटले संयम पालवामां धीर एवो साधु (असंजयं के) असंयतं एटले अविरत एवा गृहस्थने (आस के०) आस्व एटले बेस, ( एहि के० ) एहि एटले आव, ( वा के) अथवा ( करेहि के०) कुरु एटले आ काम कर, (सयं के०) शेष्व एटले सुई रहे, (चिठ के०) तिष्ठ एटले उन्नो रहे, तथा ( वयाहि के०) व्रज एटले फलाणे ठेकाणे जा, (त्ति के) इति एटले या प्रकारे (नैवं नासिज के०) नैवं नाषेत एटले दोष लागे एवी रीते न बोले.॥४॥ - (दीपिका.) पुनः किंच प्रज्ञावान् बुद्धिमान् धीरः पएिकतो यतिः असंयतं गृहस्थं प्रति इति न नाषेत । इतीति किम् । त्वमिहैव आस्व जपविश, त्वमेहि अत्र, त्वमिदं संचयादि कुरु, तथा निळ्या त्वं शेष्व, तथा स्वमत्र तिष्ठ जवस्थानेन, तथा त्वं वज ग्राममिति ॥४॥ ( टीका.) किंच तहेव त्ति सूत्रम् । तथैवासंयतं गृहस्थं धीरः संयतः श्रास्वेहैव Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। .....४७१ एहीतोऽत्र, कुरु वेदं संचयादि, तथा शेष्व निजया, तिष्ठोलस्थानेन, व्रज ग्राममिति । नैवं नाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ बहवे इमे असाहू, लोए बुच्चंति साहुणो॥ - न लवे असाहु साह त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे ॥४॥ (अवचूरिः) बहव एते उपलन्यमानस्वरूपा आजीवकादयोऽसाधवो निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिलोके प्राणिसंघात जच्यन्ते साधवः सामान्येन । तत्र नालपेदसाधु साधुम् । साधु साधुमित्यालपेत् ॥ ४ ॥ (अर्थ.) बहवे इत्यादि सूत्र. (बहवे के ) बहवः एटले घणा (श्मे के) श्रा ( अंसाहू के) असाधवः एटले खरेखर साधु नथी एवा लोको (लोएं के०) लोके एटले आ लोकने विषे ( साहुणो के०) साधवः एटले साधु जे एम . (वुच्चंति के) उच्यन्ते एटले कहेवाय बे. पण पूर्वोक्त साधु ( असाहुं के०) असाधु एटले खरेखर साधु न होय तेने ( साहु त्ति के ) साधुमिति एटले श्रा साधु ए प्रकारे (न लवे के०) नालपेत् एटले न कहे. अने ( साई के०) साधु एटले साधुने ( साहु त्ति के ) साधुमिति एटले साधु ए प्रकारे (आलवे के०) आलपेत् एटले कहे. ॥४॥ .. ( दीपिका.) पुनः किंच लोके प्राणिलोके प्राणिसंघात एते बहव उपलक्ष्यमानस्वरूपा आजीवकादयो मोदसाधकयोगमाश्रित्य साधव उच्यन्ते सामान्येन । प रमसाधु साधु न बालपेत् । मृषावादप्रसङ्गात् । अपितु साधुं प्रति साधुमालपेत् । । नतु तमपि ना लपेत्।उपबृंहणा प्रशंसा गुणानां तस्या अकरणेऽतिचारदोषः स्यात् ॥धना (टीका.) किंच बहव त्ति सूत्रम् । बहव एते उपलन्यमानस्वरूपा श्राजीवकादयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया लोके तु प्राणिसंघात उच्यन्ते साधवः ' सामान्येन । तत्र नालपेदसाधु साधु मृषावादप्रसङ्गात् । अपितु साधु साधुमित्या१ लपेत् । नतु तमपि नालपेत् । उपबृंहणातिचारदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं ॥ ___ एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥४ए॥ (अवचूरिः) किंविशिष्टं साधुमित्यालपेदित्याह । ज्ञानदर्शनसंपन्नं संयमे तपसि 4. रतं एवंगुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत् । न तु व्यलिङ्गधारिणमिति ॥ ४ ॥ 7 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. - (अर्थ.) हवे केवाने साधु कहे, ते कहे . नाण श्त्यादि सूत्र. ( नाणदंसणसंपन्नं के०) ज्ञानदर्शनसंपन्नं एटले ज्ञान अने दर्शन वडे करीने जे युक्त होय, तथा (संजमे के०) संयमे एटले संयमने विषे (अ के०) च एटले वली ( तवे के) तपसि एटले तपस्याने विषे ( रयं के०) रतं एटले आसक्त होय. ( एवंगुणसमाउत्तं के) एवंगुणसमायुक्तं एटले एवा गुणे करीने जे युक्त होय ते ( संजयं के०) संयतं एटले संयमधारीने ( साहुं के०) साधु एटले साधु ए रीते (आलवे के०) आलपेत् एटले कहे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) किंविशिष्टं साधु साधुमालपेदित्याह । एवं विधं संयतं साधुमालपेत्। किंजूतं संयतम् । ज्ञानदर्शनसंपन्नं ज्ञानदर्शनाच्या संपूर्ण समृद्धम् । पुनः किंनूतं संयतम्। संयमे सप्तदशन्नेदे च पुनः तपसि हादशन्नेदे रतं यथाशक्ति तत्परम् । एवं पूर्वोक्तगुणसमायुक्तं न तु व्यलिङ्गधारिणम् ॥ ४ ॥ (टीका.) किंविशिष्टं साधु साधुमित्यालपेदित्यत आह । नाण त्ति सूत्रम् । ज्ञानदर्शनसंपन्नं समृहं संयमे तपसि च रतं यथाशक्ति । एवंगुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत् । न तु जव्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ .. देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च बुग्गहे॥ अमुगाणं जन दोन, मा वा दोन त्ति नो वए ॥ ५॥ (अवचूरिः) देवानांसुराणां मनुजानांपादीनां तिरश्चां महिषादीनां विग्रहे संग्रा मे सत्यमुकानांजयो नवतुमा वानवतु इति वा नो वदेत्।अधिकरणतत्स्वामिद्वेषात्॥२०॥ . (अर्थ.) वली देवाणं इत्यादि सूत्र. ( देवाणं के) देवानां एटले देवताउँने (च के० ) वली ( मणुयाणं के० ) मनुष्याणां एटले मनुष्योनो ( च के ) वल (तिरियाणं के०) तिरश्चां एटले पाडा प्रमुख तिर्यंचोनो (वुग्गहे के०) विग्रह एटले संग्राम थए बते ( अमुआणं के० ) अमुकानां एटले देवादिकोमा फलाणाना (जर्ड के०) जयः एटले जय ( होउ के०) नवतु एटले था. ( वा के) अथवा (अमुगाणं के) अमुकानां एटले फलाणानो ( जर्ज के० ) जयः एटले जय (म होउ के०) मा नवतु एटले न था. (त्ति के०) इति एटले आ प्रकारे साधु (नो वए के०) नो वदेत् एटले न कहे. कारण तेथी अधिकरण दोष लागे , तथा द्वेष उत्पन्न थाय . ॥ ५० ॥ (दीपिका.) किंच साधुरिति नो वदेत् । इतीति किम्।अमुकानां देवानां जयो । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४७३ वतु वा मा नवतु इति नो वदेत् । कथम् । अधिकरणतत्स्वाम्या दिशेषप्रसङ्गात् । क सति । देवानां देवासुराणां मनुजानां च नरेन्द्रादीनां तिरश्चां च महिषादीनां विग्रहे संग्रामे सति ॥ ५० ॥ (टीका.) किंच देवाणं ति सूत्रम् । देवानां देवासुराणां मनुजानां नरेन्द्रादीनां तिरश्चां महिषादीनां च विद्महे संग्रामे सति अमुकानां देवादीनां जयो नवतु मा वा जवत्विति नो वदेदधिकरणतत्स्वाम्यादिषदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः॥ ५० ॥ ... वा वुहं च सीनन्हं, खेमं धायं सिवं ति वा॥ कया णु ढुङ एआणि, मा वा दोन त्ति नो वए ॥५१॥... (अवचूरिः ) वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वर्षणं वा,शीतोष्णं प्रतीतं, देमं राजविज्वरशून्यं, धान्यं सुनिदं, शिवमुपसर्गरहितं । कदा नु नवेयुरेतानि वातादीनि मा वा नवेयुरिति नो वदेत् । अधिकरणवातादिसत्त्वपीडाप्रसङ्गात् । तथा अनवने आर्तध्यानादिदोषात् ॥ ५१ ॥ . .. (अर्थ.) वली वा इत्यादि सूत्र. (वा के०) वायुः एटले ठंडक आपनारो दक्षिण दिशा प्रमुखनो पवन, ( वुहं के.) वृष्टं एटले वर्साद, (सीउन्हं के०) शीतोमं एटले शीत अने जप्स, (खेमं के) देमं एटले उपवनी शांति, (धाअं के०) भ्रातं एटले सुनिदा ( सुकाल), (वा के ) अथवा (सिवं के) शिवं एटले सर्वे उपसर्गनी शांति (एआणि के०) एतानि एटले आ उपर कहेला वायु प्रमुख (कया णु के०) कदा नु एटले क्यारे (हुज के) जवेयुः एटले थशे. (वा के) अथवा पूर्वोक्त वायु प्रमुख ( मा होज के०) मा जवन्तु एटले न था, (त्ति के) शति एटले था प्रकारे साधु ( नो वए के ) नो वदेत् एटले न कहे. कारण के, साधुना कहेवा प्रमाणे कदाच थशे तो जीवोने पीडा विगेरे थाय, अने कदाच नं - थशे तो साधुने आर्तध्यान थाय. ॥५१॥ 2 (दीपिका.) पुनः किंच धर्मादिना अनिनूतो यतिरेवं नो वदेत् । अधिकरणादि दोषप्रसङ्गात् । वातादिषु सत्सु सत्वपीडाप्राप्तेः। तचनतस्तथानवनेऽपि आर्तध्यानजात वादिति एवं नो वदेत् । तत्किम् । वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं प्रतीतम्, देमं राजविज्वरशून्यं, पुनःभ्रातं सुनिद, शिवमिति वा उपसर्गरहितं कदा नु नवेयुरेतानि वातादीनि मा वा नवेयुरिति ॥५१॥ । (टीका.) किं च वाउ त्ति सूत्रम् । वातो मलयमारुतादिः, वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं . Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रतीतं, देमं विज्वरशून्यं, धातं सुनिदं, शिव मिति चोपसर्गरहितं कदा नु नवेयुरेतानि वातादीनि मावा नवेयुरिति धर्माद्यनिनूतो नो वदेदधिकरणादिदोषप्रसङ्गामातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेः । तद्वचनतस्तथानवनेऽप्यातध्यान नावादिति सूत्रार्थः ॥५१॥ तदेव मेहं व नदं व माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वश्जा ॥ समुखिए उनए वा पनए, वश्त वा वुह बलाढ्य त्ति ॥५॥ (अवचूरिः) तथैव मेघ वा ननो वा मानवं वाश्रित्य देवदेव इति गिरं नो वदेत्।एवं नन आकाशं मानवं राजानं देवमिति नो वदेत् । मिथ्यालाघवादिप्रसंगात् । कथं तर्हि वदे दित्याह । मेघमुन्नतं दृष्ट्वा संमूर्मित इति उन्नतो वा पयोद इति वदेछा वृष्टो बलाहक इति ॥ ५५॥ -: ( अर्थ.) तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के०) तथैव एटले तेमज ( मेहं के०) मेघं एटले मेघने (वादलाने) ( व के० ) अथवा ( नहं के ) नन्नः एटले आकाशने (व के) अथवा (माण के) मानवं एटले मनुष्यने आश्रयीने ( देवदेव त्ति के) देवदेव इति एटले आ देवदेव ने आ प्रकारे (गिरं के) गिरं एटले वाणी प्रत्ये साधु (ण वजा के०) न वदेत् एटले न बोले. तात्पर्य चढे_ वादळू जोश्ने देव चढ्यो एम न बोले, तथा आकाशने अने मनुष्यने पण देव न कहे. त्यारे शीरीते बोलवू ते कहे . चढेधुं वादळु जोश्ने (पए के०) पयोदः एटले मेघ (सुमुखिए के) संमूर्छितः एटले चढ्यो , (वा के ) अथवा (उन्नए के०) उन्नतः एटले ऊंचो थएल बे, ( वा के ) अथवा ( वुह बलाहय के ) वृष्टो बलाहकः एटले आ मेघ वरस्यो (त्ति के० ) इति एटले आ प्रकारे (वश्ज के०) वदेत् एटले बोले. ॥५॥ (दीपिका.) किं नो वदेदित्याह । साधुः तथैव मेघ वा ननो वा आकाशं मानवं वा थाश्रित्य नो देवदेव इति गिरं वदेत् । मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत् । एवं नन आकाशं मानवं राजानं दृष्ट्वा देव इति नो वदेत् । कथम्। मिथ्यालाघवादित सङ्गात्। कथं तर्हि वदे दित्याह।मेघमुन्नतं दृष्ट्वा संमूर्बित उन्नतो वा पयोद इति वदेत् अथवा वृष्टो बलाहक इति वदेत् ॥ ५॥ (टीका.) तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव मेघ वा ननो मानवं वाश्रित्य नो देवदेव F गरं वदेत् ।मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो. देव शति नो वदेत् । एवं नन्न आकाशं मानवं राजान Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । दशवैकालिके सप्तमाध्ययनम्। ४७५ वा देवमिति नो वदेत् मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदेदित्याह । उन्नतं दृष्ट्वा संमूति उन्नतो वा पयोद इति वदेछा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः॥ ५५ ॥ . अंतलिक त्ति ए बू, गुनाणुचरिअ त्ति अ॥ . .. - रिधिमंतं नरं दिस्स, रिधिमंतं ति आलवे ॥ ५३॥ (श्रवचूरिः) नन श्राश्रित्याह । ननोन्तरीक्षमिति ब्रूयात् गुह्यकानुचरितं सुरैः सेवितमिति वा । छिमन्तं संपपेतं नरं दृष्ट्वा । किमित्याह । छिमन्तमिति ऋद्धिमानय मित्यालपेत् ॥ ५३॥ (अर्थ.) हवे आकाश आश्रयी शी रीते बोलq ते कहे . अंतलिक इत्यादि सूत्र. (णं के०) एनत् एटले ए आकाश प्रत्ये (अंतलिकं ति के०) अंतरिदमिति एटले अतरिद ए प्रकारे (वा के० ) अथवा (गुप्ताणुचरित्र त्ति के०) गुह्यानुचरितमिति एटले देवताए सेवित ने श्रा प्रकारे कहेवं. ए रीतेज मेघने पण कहेवू. तेमज (रिछिमंतं के०) झझिमन्तं एटले कहिशाली एवा (नरं के०) नरं एटले माणसने (दिस्स के) दृष्ट्वा एटले जोश्ने ( रिद्धिमंतं ति के०) झझिमन्तमिति एटले था माणस झधिमंत बे आ रीते (आलवे के०) आलपेत् एटले कहे. ॥ ५३ ॥ (दीपिका.) पुनः आकाशमाश्रित्याह । साधुः इह नन्नः अंतरिक्षमिति ब्रूयात् । गुह्यानुचरितमिति वा ।सुरसे वितमित्यर्थः। एवं किल मेघोऽपि तमुनयशब्दवाच्य एव । तथा छिमन्तं संपदा सहितं नरं दृष्ट्वा । किमित्याह । छिमंतमिति झकिमानयमिति एवमालपेत् । कथम् । व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थम् ॥ ५३॥ (टीका.) नज़ श्राश्रित्याह । अंतलिक त्ति सूत्रम् । इह ननोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयाजुह्यकानुचरितमिति वा। सुरसे वितमित्यर्थः । एवं किल मेघोऽप्येतज्जयशब्दवाच्य एव । तथा शधिमन्तं संपमुपेतं नरं दृष्ट्वा किमित्याह । रिछिमंतमिति । छिमानयमित्येवमालपेत् । व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ तदेव सावजाणुमोअणी गिरा, नदारिणी जा य परोवघाणी॥ 1 से कोद लोह नय दास माणवो, न दासमाणो वि गिरं वश्का॥५४॥ पदव (अवचूरिः ) तथैव सावद्यानुमोदिनी गीर्वाक सुष्टु हतो ग्राम इत्यादिः । अवधा रिणी दमित्रमेवेति । संशयकारिणी वा। या च परोपघातिनी यथा मांसं न दोषाय। दिसे इति ताम् । क्रोधाशोनाघ्नयाछा मानाछा ।प्रमादादीनामुपसदणमेतन्मानवः पुमा- . र साधुन हसन्नपि गिरं वदेत् । प्रनूतकर्मवन्धहेतुत्वात् ॥ ५४॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) -मा. (अर्थ. ) वली तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( या के०) जे ( गिरा के ० ) गीः एटले वाणी ( सावऊणुमोणी के० ) सावधानुमोदिनी एटले ग्रामहणाय ते ठीक थयुं इत्यादि सावध क्रियाने अनुमोदना आपनारी होय, ( श्र के० ) तथा जे वाणी (उहारिणी के० ) अवधारिणी एटले आ वात आ रीतेज बे, एम निश्चयी कहेनारी होय, तथा जे वाणी (परोवघाइणी के०) परोपघातिनी एटले मांसकण करवामां दोष नथी इत्यादि परपीडा करनारी होय. ( से के०) तां एटले ते वाणी प्रत्ये ( मावो के ) मानवः एटले साधु जे ते ( कोह लोन जय हास के० ) क्रोध लोहासात् एटले क्रोधथी, लोजथी, जयथी अथवा हासथी ( हासमाणो वि के० ) हसन्नपि एटले मस्करी करता पण ( न वा के० ) न वदेत् एटले न वोले. कारण के, तेथी कर्मबंध विगेरे थाय बे ॥ ५४ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किंच मानवः पुमान् साधुः हसन्नपि एवं गिरं न वदेत् । कस्मात् प्रभूतकर्मदेतुत्वात् । एवं कामित्याह । तथैव पूर्वोक्तप्रकारेण सुष्टु हतो ग्राम इति सा वद्यानुमोदिनी गीर्वाणी जाषा तां नो वदेत् । तथा इमेवेति संशयकारिणी अवधा रिणी जाषा तामपि नो वदेत् । पुनर्या च परोपघातिनी यथा मांसं न दोषाय । से इति तामेवंभूतामपि नो वदेत् । कस्माद् मानव एवंभूतां सपापां जाषां वदतीत्याह । को धाका लोनाका जयाद्वा । उपलक्षणत्वात् प्रमादादेर्वा ॥ २४ ॥ ( टीका. ) किंच तदेव त्ति सूत्रम् । तथैव सावधानुमोदिनी गीर्वाग़ यथा सुष्टु हतो ग्राम इति । तथावधारिणीद मित्रमेवेति । संशयकारिणी वा । या च परोपघातिनी यथा मां समदोषाय । से इति तामेवंभूतां क्रोधालोमायायासाद्वा । मानप्रमादादीनामुपलक्षणमेतत्। मानवः पुमान् साधु सन्नपि गिरं वदेत् । प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥५४॥ सुवक्कसुद्धिं समुपेदिया, मुणी गिरं च दुछं परिवकए सया ॥ मिट्ठे अणुवी नासए, सयाणवके लहई पसंसणं ॥ ५५ ॥ ( वचूरिः ) वाक्यशुद्धिमाह । सद्वाक्यशुद्धिं स्ववाक्यशुद्धिं स वाक्यशुद्धिं वा । सतीं शोजनों, स्वामात्मीयां, स इति वक्ता । वाक्यशुद्धिं संप्रेक्ष्य सम्यग् दृष्ट्वा मुनिः गिरं तु दुष्टामुक्तलक्षणां परिवर्जयेत्सदा । मिताम दुष्टामनुचिन्त्य पर्यालोच्य जापमाए सन् सतां साधूनां मध्ये बनते प्रशंसनम् ॥ ५५ ॥ ( अर्थ. ) हवे वाक्यशुद्धिनुं फल कहे बे. सुवक इत्यादि सूत्र. ( मुणी के० ४ प्रतिबंधकमवन्धहेतुत्वादिति पाठान्तरम् । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i दशवेकालिके सप्तमाध्ययनम् । ४७७ मुनिः एटले साधु जे ते ( सुवक्कसुद्धिं के० ) सुवाक्यशुद्धिं एटले वचननी सारी शु प्रत्ये ( समुप्पे हिया के० ) समुत्प्रेक्ष्य एटले जोइने (सया के० ) सदा एटले निरंतर (डुडं के० ) दुष्टां एटले दुष्ट एवी ( गिरं के० ) वाणी प्रत्ये ( तु के० ) निश्वये ( परिवार के० ) परिवर्जयेत् एटले वजें तथा (मित्रां के० ) मितं एटले परि मितने अहं के० ) अष्ट एटले दोषरहितं एवं वचन ( अणुवीर के० ) अनुचिन्त्य एटले विचारीने ( जासए के० ) जाषेत एटले बोले. एम करवायी (सयाण मने के० ) सतां मध्ये एटले सत्पुरुषोमां ( पसंसणं के० ) प्रशंसां एटले प्रशंसा प्रत्ये ( लहर के० ) लनते एटले पामे बे. ॥ ५५ ॥ ( दीपिका. ) वचनशुद्धिफलमाह । मुनिः दुष्टां गिरं परिवर्जयेत् । किं कृत्वा । स्ववाक्यशुद्धिं स्वकीयवाक्यशुद्धिं सहाक्यशुद्धिं शोजनां वाक्यशुद्धिं वा संप्रेक्ष्य स म्यक् दृष्ट्वा सदा सर्वदा । तर्हि कीदृशीं वदेदित्याह । मितं स्वरतः परिणामतश्च - sष्टं देशकालोपपन्नादि विचिन्त्य पर्यालोच्य जाषमाणः सतां साधूनां मध्ये प्र शंसनं प्रशंसां प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ २५ ॥ ( टीका. ) वाक्यशुद्धिफलमाह । सुवक्क त्ति सूत्रम् । सद्वाक्यशुद्धिं स्ववाक्यशुद्धिं वासवाक्यशुद्धिं वा । सतीं शोजनां, स्वामात्मीयां, स इति वक्ता । वाक्यशुद्धिं संप्रेक्ष्य सम्यग् दृष्ट्वा मुनिः साधुः गिरं तु दुष्टां यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा । किंतु । मितं स्वरतः परिणामतश्च, अडुष्टं देशकालोपपन्नादि अनुविचिन्त्य पर्यालोच्य भाषमाणः सन् सतां साधूनां मध्ये बजते प्रशंसनं प्राप्नोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः ॥ ५८ ॥ नासाई दोसे या गुणे जाणिच्या, तीसे श्रं दुठे परिवऊए सया || बसु संजए सामणि सया जए, वइक बुड़े दिमा पुलो मित्रां ॥ ५६ ॥ ( अवचूरिः ) यतश्चैवमतो जाषाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा तस्याश्च दुष्टायाः परिव|| र्जकः सदा एवंभूतः सन् षट्सु जीवनिकायेषु संयतः तथा श्रामण्ये श्रमणजावे . सदा यत उद्युक्तो वदेद्दु हितं परिणामसुंदरमनुलोमं मनोहर मिति ॥ ५६ ॥ ( अर्थ. ) जे कारण माटे एम बे ते कारण माटे नासार इत्यादि सूत्र ( बसु षट्सु एटले षट् जीव निकायने विषे ( संजए के० ) संयतः एटले सारी पेठे प्रतना राखनार तथा ( सामणिए के० ) श्रामण्ये एटले श्रमण जावमां अर्थात् चा के रेत्रना चढता परिणाम राखवामां (सया के० ) सदा एटले निरंतर ( जए के० ) तः एटले उद्यमवान् एवो (बुद्धे के० ) बुद्धः एटले ज्ञानी साधु (जासाइ के० ) 0 ) Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. लाषायाः एटले नापाना ( दोसे के०) दोषान् एटले दोषोने (श्र के०) च एटले वली. ( गुणे के) गुणान् एटले गुणोने (जाणिश्रा के) ज्ञात्वा एटले जाणीने (अ के0) च एटले वली (तीसे के०) तस्याः एटले ते (उठे के०) पुष्टायाः ए. टले उष्ट नाषाने ( सया के०) सदा एटले निरंतर ) परिवजाए के) परिवर्जकः एटले वर्जनार एवो थर ( हिश्रमाणुलोमिअं के०) हितानुलोमं एटले परिणामे हितकारी अने मधुर एवं वचन ( वश्त के ) वदेत् एटले बोले. ॥ ५६ ॥ (दीपिका.) यतश्चैवं ततः साधुः किंकुर्यादित्याह । साधुः एवंविधः सन् हितानुलोमं हितं परिणामसुंदरमनुलोमं मनोहारि वचनं वदेत् । किं कृत्वा । जापायाः प्रवकथिताया दोषान् गुणांश्च ज्ञात्वा। किं साधुः। तस्या पुष्टायानाषायाः परिवर्जकः। किं. साधुः।उसु संजए।षद्सु जीवनिकायेषु संयतः। पुनः किं साधुः। श्रामण्येश्रमणनावे चारित्रपरिणामनेदे सदा सर्वकालमुद्युक्तः। पुनःकिं साधुः। बुद्धः शाततत्त्वः ॥५६॥ (टीका.) यतश्चैवमतो लासा ति सूत्रम् । नाषाया उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च ज्ञात्वा यथावदवेत्य तस्याश्च कुष्टाया नाषायाः परिवर्जकः सदा एवंनूतः सन् षड़जीव निकायेषु संयतः तथा श्रामण्ये श्रमणनावे चरणपरिणामगर्ने चेष्टिते सदा यतः सर्वकालमुद्युक्तः सन् वदे बुझो हितानुलोमं हितं परिणामसुन्दरमनुलोमं मनोहारीति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ परिस्कनासी सुसमादिदिए, चउकसायावगए अणिस्सिए ॥ स निछुणे धुन्नमलं पुरेकरूं, पारादए लोगमिणं तदा परं तिबेमि॥५॥ सुवक्तसुही अप्नयणं सम्मत्तं ॥७॥ (अवचूरिः) उपसंहरन्नाह । परीयजाषी आलोचितवक्ता सुसमाहितेन्द्रियः अप गतचतुःकषायः अनिश्रितो अव्यनाव निश्रारहितः स श्छन्नूतो निईय प्रस्फोट्य धूतमदं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरकृतम् । आराधयति । लोकमेनं मनुष्यलोकं वाक्य तत्वेन । तथा परमिति परलोकं निर्वाणं पारंपर्येण अनन्तरे वा इति ब्रवीमि ॥ ७ ॥ इति दशवैकालिकावचूरिकायां सुवाक्यशुध्यध्ययनम् ॥ ७॥ (अर्थ.) हवे अध्ययननो उपसंहार करता थका कहे जे.परिक इत्यादि .. (परिकनासी के ) परीक्ष्य नाषी एटले सावध निरवद्यनो विचार करीने . . ... एवो तथा ( सुसमाहिदिए के ) सुसमाहितेन्जियः एटले सर्वे इंजियोने .. बाखनार एवो तेमज (चउकसायावगए के.) अपगतचतुःकषायः एटले क्रोध, Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके सप्तमाध्ययनम् । ए इत्यादि कषोयोने रोकनार एवो, तथा ( अणि स्सिए के) अनिश्रितः एटले अव्य नाव निश्रा रहित अर्थात् को ठेकाणे पण प्रतिबंध रहित एवो (स के) ते साधु ( पुरेकडे के ) पुराकृतं एटले पूर्वनवे करेला एवा (धुन्नमलं के) धूनमलं एटले पाप रूप मलने ( निकुणे के० ( निर्धूय काढी नाखीने (इणं के०) श्मं एटले श्रा (लोगं के०) लोकं एटले लोकने (तहा के०) तथा एटले तेमज (परं के) परलोक प्रत्ये (आराहए के७) आराधयति एटले आराधे . एटले संयम पाली आ लोकने तथा अनंतर अथवा परंपराए निर्वाण पामी परलोकने आराधे . ( ति बेमि के) इति ब्रवीमि एटले जगवनना उपदेशथी एम कहुं बु, पण खमतिथी कहेतो नथी॥७॥ । इति श्री दशवैकालिकना बालावबोधनुं सप्तमाध्यन संपूर्ण ॥ ७॥ . (दीपिका.) अथ उपसंहरन्नाह । स एवंविधः साधुः एनं मनुष्यलोकं वाक्संय३ तत्वेन आराधयति प्रगुणीकरोति । किं कृत्वा। धूनमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरे । कृतं नि य प्रस्फोट्य तथा परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं यथासंभवमनंतरं पारंपर्येण वा । किं साधुः। परियन्नाषी आलोच्यनाषी । पुनः किं साधुः । सुसमाहि तेन्द्धियः सुप्रणिहितेंजिय इत्यर्थः । पुनः किं साधुः। अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिक" पायनिरोधकर्ता इति जावः । पुनः किंनूतः साधुः । अनिश्रितः अव्यनावनिश्रारहितः प्रतिबन्धविप्रमुक्तः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ५ ॥ इति श्रीसमयसुंदरोपाध्यायविरचितायां दशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ वाक्यशुद्ध्य-'. ध्ययनं समाप्तम् ॥ ७॥ (टीका.) उपसंहरन्नाह । परिकत्ति सूत्रम् । परीयत्नाषी आलोचितवक्ता। तथा सुसमाहितेन्जियः सुप्रणि हितेन्द्रिय इत्यर्थः।अपगतचतुष्कषायः क्रोधादि निरोरोधकर्तेति नावः । अनिश्रितो अव्यत्नावनिश्रारहितः । प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम् । स नूतो निर्धूय प्रस्फोट्य धूनमलं पापमलं पुराकृतं जन्मान्तरकृतम्। किमित्याराधयति।प्रगुणीकरोति लोकमेनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन तथा परमिति परलोकमा. "राधयति निर्वाणलोकं यथासंभवमनन्तरं पारंपर्येण वेति गर्नः । ब्रवीमीति पूर्ववत् । तयाः पूर्ववदेव ॥ २७॥ ६५ इति श्रीहरिजमसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां वाक्यशुध्यध्ययनस्य बायाख्यानं समाप्तम् ॥ ७॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० रा धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ॥ श्रथाचारप्रणिधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥ आयारप्पणिदिं लधुं, जहा काय निकुला | तं ने उदाहरिस्सामि, आपुधिं सुह मे ॥ १ ॥ ( श्रवचूरि :) पूर्वाध्ययने सुवाक्यशुद्धिरुक्ता । सा चाचारे प्रणिहितस्य जवतीति तत्र यत्नवता जवितव्यमत एतडुच्यते । श्राचारेत्यादि । आचारस्य प्रकृष्टो निधिः प्रणिधिः । तं लब्ध्वा यथा कर्तव्यमनुष्ठेयं निकषा तं प्रकारं ने जवय उदाहरिष्यामि । श्रानु पूर्व्या परिपाट्या शृणुत मे मम सकाशादिति गौतमायाः स्वशिष्यानादुः ॥ १ ॥ ( . ) सातमा अध्ययनमां वाक्यशुद्धि कही, एटले साधुए वचनना गुण दोष जाणी निरवद्य वचन बोलवुं, एम कयुं. हवे या आचार प्रणिधिनामक अध्यमां कहेवानुं एम ने के, आचारने विषे तत्पर रहेला साधुथीज निरवद्य वचन बोलाय बे, माटे याचार पालवामां घपोज प्रयत्न करवो. एवा संबधथी आवेला या अध्ययननुं यारप्पणिहिं इत्यादि प्रथम सूत्र बे. तेनो अर्थ ( निरकुणा के० ) जि. कुणा एटले साधुए ( श्रयारप्पणिहिं के० ) आचारप्रणिधिं एटले आचाररूप उत्कृष्ट निधिप्रत्ये ( लहुँ के० ) लब्ध्वा एटले पामीने ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( कायa ho ) कर्तव्यं एटले पोतानी क्रिया करवी. ( तं के० ) ते प्रकार ( ने के० ) ज़वधः एटले तमने ( उदाहरिस्सामि के० ) उदाहरिष्यामि एटले कहीश. मे ( ० ) आनुपूर्व्या एटले अनुक्रमे ( मे के० ) मम सकाशात् एटले माराथकी (सुणेह के० ) शृणुत एटले सांनलो. एम गौतमादिक गणधरो पोताना शिष्योने कहे बे. ॥ १ ॥ (दीपिका) व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनं नाम सप्तममध्ययनम् । अथ आचारणिधिनामकमष्टममध्ययनं प्रारभ्यते । अस्य चायम निसंबन्धः । इतः पूर्वाध्ययने सा धुना वचनगुणदोषान् जानता निःपापं वचनं वक्तव्यमित्युक्तम् । इह तु निःपापं वचन माचारे स्थितस्य जवतीति श्राचारे यत्तः कार्य इत्येतदुच्यत इति । अनेन संबन्धेना यातमिदमध्ययनं व्याख्यायते । तथाहि श्रीमहावीरदेवः स्वकीय शिष्यान् गौतमादी ने वमाह । तमाचारप्रणिधिं ने नवस्य उदाहरिष्यामि कथयिष्याम्यानुपूर्व्या परिपाल यूयं शृणु मे मम । कथयत इति शेषः । तं कम् । यमाचारप्रणिधिं लब्ध्वा प्राप् निकुणा साधुना यथा येन प्रकारेण विहितानुष्ठानं कर्तव्यम् || १ | ( टीका. ) व्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनम् । इदानीमा चारप्रणिध्याख्यमारभ्यते Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । अस्य चायमनिसंबन्धः। श्हानन्तराध्ययने साधुना वचनगुणदोषानिझेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्येतमुक्तम् । इह तु तन्निरवचं वच आचारे प्रणिहितस्य जवतीति तत्र यत्नवता नवितव्यमित्येतकुच्यते ॥ उक्तं च ॥ पणिहाणरहिवस्सेह, निरवऊ पि नासिअं॥सावजतुझं विन्नेअं, अलबेणेहसंवुममित्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । - अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निदेपः । तत्र चाचारप्रणिधिरिति छिपदं नाम। तत्राचारनिदेपमतिदिशन् प्रणिधिं च प्रतिपादयन्नाह ॥ जो पुत्विं उदिछो, आयारो सो अहीणमरित्तो ॥ उविहो अ होइ पणिही, दवे नावे अ नायवो ॥५ए ॥ व्याख्या ॥ यः पूर्व कुक्षकाचारकथायामुद्दिष्ट आचारः सोऽहीनातिरिक्तस्तदवस्थ एवेहापि । अष्टव्य इति वाक्यशेषः । कुमत्वान्नामस्थापने अनादृत्य प्रणिधिमधिकृत्याह । विविधश्च भवति प्रणिधिः । कथमित्याह । अव्य इति अव्य: विषयो नाव इतिजावविषयश्च ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ तत्र ॥ दवे निहाणमाई, मायपउत्ताणि चेव दवाणि ॥ नावि दिअनोइंदिश, सुविहो उ पसब अपसबो ॥६० ॥ व्याख्या ॥ अव्य इति अव्य विषयः प्रणिधिनिधानादि प्रणिहितं निधानं निक्षिप्तमित्यर्थः। श्रादिशब्दः स्वन्नेदप्रख्यापकः। मायाप्रयुक्तानि चेह व्याणि अव्यप्रणिधिः। पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणं स्त्रिया वा पुरुषवेषेण चेत्यादि । तथा नाव इति । नावप्रणिधिदिविधः। इन्द्रियप्रणिधिनॊन्छियप्रणिधिश्च । तत्रेन्डियप्रणिधिर्डिविधः। प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति गाथार्थः ॥ प्रशस्तमिन्जियप्रणिधिमाह ॥ सदेसु अ रूवेसु श्र, गंधेसु रसेसु तह य फासेसु॥न वि रजश्न वि पुस्स, एसा खलु इंदिअप्पणिही॥६॥ व्याख्या ॥ शब्देषु च रूपेषु च गन्धेषु रसेषु तथा च स्पर्शेषु एतेष्विन्जियार्थे विष्टानिष्टेषु चकुरादिनिरिंजियैर्नापि रज्यते नापि हिष्यते । एष खलु माध्यस्थ्यलक्षण इन्डियप्रणिधिः प्रशस्त इति गाथार्थः ॥ अन्यथा त्वप्रशस्तस्तत्र दोषमाह॥सोइंदिअर स्सी हिज, मुक्काहिं सदमुनि जीवो॥आश्व अणाजत्तो, सदगुणसमुहिए दोसे ॥६॥ . व्याख्या॥श्रोत्रेन्डियरश्मि निः श्रोजियरज्जुनिः मुक्तानिरुवृंखलानिः । किमित्याह । यो शब्दमूर्छितः शब्दको जीव आदत्ते गृण्हात्यनुपयुक्तः सन् । कानित्याह । शब्दगु'इदं समुबितान् दोषान् । शब्द एवेंजियगुणः, तत्समुनितान् दोषान् वन्धवधादीन् श्रोत्रे• निजयरमुनिरादत्त इति गाथार्थः ॥ शेपेंजियातिदेशमाह ॥जह एसो सद्देसु, एसेव माद कमो उसेसएहिं पि॥चनहिं पि इंदिए हिं,रूवे गंधे रसे फासे ॥६३॥ व्याख्या ॥ यथेष रिपा शव्देषु शब्द विषयः श्रोत्रेन्डियमधिकृत्य दोष उक्तः । एष एव क्रमः शेषैरपि चकुराप्रदिनिश्चतुर्जिरपीलियैर्दोषानिधाने अष्टव्यस्तद्यथा। चरिकन्दिअरस्सीहिं उ, इत्यादि। - श्रतएवाह । रूपे गन्धे रसे स्पर्शे। रूपादिविषय इतिगाथार्थः॥अमुमेवाएं दृष्टान्तानि: / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. धानेनाह ॥ जस्स खबु उप्पणिहिया-णि इंदियाई तवं चरंतस्स ॥ सो हीरइ असहीणे हिं, सारही वा तुरंगेहिं ॥ ६ ॥ व्याख्या ॥ यस्य खस्विति यस्यापि छुःप्रणि हितानीन्द्रियाणि विश्रोतोगामी नि तपश्चरत इति । तपोऽपि कुर्वतः स तथाजूतो ह्रियतेऽपनीयते । इंडियैरेव निर्वाणहेतोश्चरणात् । दृष्टान्तमाह । अखाधीनरखवशैः सारथिरिव रथनेतेव तुरंगमैरश्वैरिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्त इंजियप्रणिधिर्नोजियप्रणिधिमाह ॥ कोहं माणं मायं, लोहं च महप्नयाणि चत्तारि ॥ जो रुंन सुप्तप्पा, एसो नोइंदिअप्पणिही॥ ६५ ॥ व्याख्या ॥ क्रोधं मानं मायां लोनं चेत्येतेषां स्वरूपमनंतानुबंध्या दिनेदनिन्नं पूर्ववत् । अत एव च महानयानि चत्वारि सम्यगर्शनादिप्रतिबंधरूपत्वात् । एतानि यो रुणकि शुखात्मा उदय निरोधादिना एष निरोझा तरोधपरिणामानन्यत्वान्नोजियप्रणिधिः कुशलपरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ एतदनिरोधे दोषमाह ॥ जस्त विमुप्पणि हिआ, होंति कसाया तवं चरंतस्स ॥ सो बालतवस्सी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुण ॥ ६६ ॥ व्याख्या ॥ यस्यापि कस्य चिः व्यवहारतपखिनो पुःप्रणिहिता अनिरुका नवन्ति कषायाः क्रोधादयस्तपश्चरतस्तपः कुर्वत इत्यर्थः । स बालतखीव उपवासपारणकप्रनूततरारम्नको जीवो गजस्नानपरिश्रमं करोति । चतुर्थषष्ठादिनिमित्तानिध्यानतःप्रजूततरकर्मबन्धोपपत्तेरिति गाथार्थः॥ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह ॥ सामन्नमणुचरंत-स्स कसाया जस्स जकडा होति ॥ मन्नामि जफुलं, ब निष्फलं तस्स सामन्नं ॥६७ ॥ व्याख्या ॥ श्रामण्यमनुचरतः श्रमणनावमपि ऽव्यतः पालयत इत्यर्थः। कषाया यस्योत्कटा नवन्ति क्रोधादयः। मन्ये शकुपुष्पमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्य मिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ एसो सुविहो पणिही, सुझो जश् दोसु तस्स तेसिं च ॥ एबो पसबमपसबलकणमतब निष्फन्नं ॥ ६७ ॥ व्याख्या ॥ एषोऽनन्तरोदितो विविधः प्रणिधिरिन्जियनोइन्डियलक्षणः शुद्ध इति निदोषो नवति । यदि योर्बाह्यान्यन्तरचेष्टयोस्तस्यनियकपायवतः तेषां चेन्द्रियकषायाणां सम्यग्योगो नवति । एतमुक्तं जवति । यदि वाह्यचेष्टायामच्यन्तरचेष्टायां च तस्य प्रणिधिमत इंजियाणां कषायाणां च निग्रहो नवति । ततः शुद्धप्रणिधिरितरथा त्वशुद्ध एवमपि तत्त्वनीत्याज्यन्तरैव चेष्टेद गरीयसीत्याह । अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्तं चारु, तथाप्रशस्तमचारु लक्षणं प्रणिधेरध्या त्मनिप्पन्नमध्यवसानोजतमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह ॥ मायागारवसहिर्ज, दि. थनोईदिएहिं अपसो ॥ धम्मवा अ पसबो, इंदिअनोइंदिअप्पणिही ॥६॥ व्याख्या ॥ मायागारवसहितो मातृस्थानयुक्त अध्यादिगारवयुक्तश्चेन्जियनोन्धि ययोनिग्रहं करोति । मातृस्थानत यादिप्रत्युपेक्षणं अव्यदान्त्याद्यासवेनं तथा रु Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४८३ या दिगारवात्यप्रशस्त इत्ययमप्रशस्तः प्रणिधिः । तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति । मायागारवरहितो धर्मार्थमेवेन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहं करोति । यः स तदनेदोपचारात्प्रशस्तः सुन्दर इन्द्रियनोइन्द्रियप्रणिधिर्निर्जरा फलत्वादिति गाथार्थः ॥ सांप्रतमप्रशस्तेतरप्रणिधेर्दोषगुणावाद || विहं कम्मरयं, बंधइ छापसवपणि हिमात्तो ॥ तं चैव खवेश पुणो, पसपपिही समात्तो ॥ ७० ॥ व्याख्या ॥ अष्टविधं ज्ञानावरया दिनेदात् कर्मरजो बभ्रात्यादत्ते । क इत्याह । अप्रशस्तप्रणिधिसमायुक्तः प्रशस्तप्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः । तदेवाष्टविधं कर्मरजः क्षपयति पुनः । कदेत्याह । प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः ॥ संयमाद्यर्थं च प्रणिधिः प्रयोक्तव्य इत्याह ॥ दंसणनाचरिता - संजमो तस्स साहबठाए || पणिही परंजित्र्ावो, ऋणायणाई च वजाई ॥ ७१ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि संयमः संपूर्णः । तस्य संपूर्ण संयमस्य साधनार्थं प्रणिधिः प्रशस्तः प्रयोक्तव्यः । तथा अनायतनानि च विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि इति गाथार्थः ॥ एवमकरणे दोषमाह ॥ डुप्पपि हि जोगी पुण, लंबिआइ संजमं श्रयातो ॥ वीसबनिसांगो-व कंटले जह पडतो ॥ ७२ ॥ व्याख्या ॥ डुःप्रणिहितयोगी पुनः । सुप्रणिधिरहितः प्रव्रजित इत्यर्थः । संयते खंड्यते संयममजाननः । संयत एवेति । दृष्टान्तमाह । विष्टब्धो निस्सृष्टाङ्गस्तथा प्रयत्नपरः कंटकवति श्वा यथा पतन् कश्चिन्यते तद्वदसौ संयम इति गाथार्थः ॥ व्यतिरेकमाह ॥ सुप्पहजोगी पुए, न लिप्पई पुवन विश्रदोसेहिं ॥ निद्दह ा कम्माई, सुक्कतपाई जहा अग्गी ॥ ७३ ॥ व्याख्या ॥ सुप्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिहितः प्रब्रजितः न लिप्यते पूर्वतिदोषैः कर्मबन्धादिनिः संवृताश्रवद्वारत्वात् । निर्दहति च कर्माणि प्राक्तनानि । तपःप्रणिधिजावेन । दृष्टान्तमाह । शुष्कतृणानि यथा श्रग्निर्दहति तद्वदिति गाथार्थः ॥ तम्हा ज अप्पस, पपिहाणं उनिऊण समषेणं ॥ पणिहाणंमि पसबे, जि यारहित ॥४॥ व्याख्या ॥ यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिदुःखद इतरस्तु सुखद- . स्तस्मादप्रशस्तं प्रणिधानमप्रशस्तं प्रणिधिमुनित्वा परित्यज्य श्रमणेन साधुना प्रणिधाने प्रणिधौ प्रशस्ते कल्याणे यत्नः कार्य इति वाक्यशेषः । निगमयन्नाह । जति आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः ॥ उक्तो नाम निष्पन्नो निदेपः सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रागनुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् | यार इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्राचारप्रणिधिमुक्तलक्षणं लब्ध्वा प्राप्य यथा येन प्रकारेण कर्तव्यं विहितानुष्ठानं निक्षुणा साधुना तं प्रकारं ने जवजय उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि । श्रनुपूर्व्या परिपाठ्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानादुरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. पुढविदगअगणिमारुअ, तणरुस्कस्स बीयगा॥ तस्सा अपाणा जीव त्ति, ३२ वुत्तं मदेसिया ॥२॥ (अवचूरिः) तंप्रकारमाह। पृथिव्युदकाग्निवायवः तृणवृदसवीजका एते पंच एकेप्रियाःत्रसाश्च प्राणिनो हीलियादय एते जीवाश्त्युक्तं महर्षिणा वीरेण गौतमेन वा २ (अर्थ.) हवे तेज प्रकार कहे उ. पुढवि इत्यादि सूत्र. (पुढवि दग अगणिमा रुब के०) पृथिव्युदकानिमारुताः एटले पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय अने वायुकाय तथा (तणरुरकस्सबीअगा के) तृणवृदसवीजाः एटले वीजसहित तृण अने वृद अर्थात् वनस्पतिकाय ए पांच एकेडिय (अ के०) च एटले वली (तसा पाणा के०) त्रसाः प्राणिनः एटले त्रस प्राणी ए सर्व ( जीवत्ति के० ) जीवा इति एटले जीव ने, (३२ के०) इति एंटले आ प्रकारे (महेसिणा के०) महर्षिणा एटले श्री महावीर खामीए अथवा श्रीगौतमखामीए (वुत्तं के०) उक्तं एटले कयु . ॥२॥ (दीपिका.) अथ तं प्रकारमाह महर्षिणा श्रीवर्धमानेन गौतमेन वा इति एवम् उक्तम् । एवं किमित्याह । एते जीवाः। एते क इत्याह । पृथिव्युदकानिवायवः । पुनस्तृणवृदाः सबीजाः। एते पंचैकें जियाः पूर्ववत् । त्रसाश्च प्राणिनो हीन्द्रियादयः। एते सर्वेऽपि जीवा झेयाः। यतश्चैते जीवास्ततः किं कर्तव्यमित्याह ॥२॥ (टीका.) तं प्रकारमाह। पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथिव्युदकाग्निवायवस्तृणवृदसवीजा एते पञ्चैकेन्जियकायाः पूर्ववत् । त्रसाश्च प्राणिनो हीन्जियादयो जीवा इत्युक्तं महर्षिणा वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः॥॥ तेसिं अवजोएण, निच्चं दोअवयं सिया॥ मणसा कायवक्केणं, एवं दव संजए॥३॥ (श्रवचूरिः) यतश्चैवमतस्तेषां पृथिव्यादीनामरणयोगेन अहिंसाव्यापारेण ज. वितव्यं वर्तितव्यं स्याग्निकुणा मनसा कायेन वाक्येन एवं वर्तमानोऽहिंसकः सं. नवति संयतः नान्यथा ॥३॥ (अर्थ.) जे माटे उपर कहेला जीव ने ते माटे तेसिं इत्यादि सूत्र. (जिस्कुणा के) निकुणा एटले साधुए (मणसा के) मनसा एटले मनवडे (काय के०) का येन एटले कायावडे तथा (वक्केणं के०) वाक्येन एटले वचनवडे (तेसिं के) तेषाँ एटले उपर कहेला जीवोनो ( अबणजोएण के ) अक्षणयोगेनः एटले हिंसारूप Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४८५ व्यापारने वर्जनार एवाए ( निच्चं के० ) नित्यं एटले हमेशां ( होवयं सिया के० ) नवितव्यं स्यात् होवुं जोश्ये. कारण के, ( एवं के० ) यारी हिंसकपणे वर्तवाथीज साधु जे ते (संजए के०) संयतः एटले संयत एवो (हवइ के० ) जवति एटले थाय बे. ॥३॥ ( दीपिका. ) निक्षुणा एतेषां पृथिव्यादिजीवानां अक्षणयोगेना हिंसाव्यापारेण नित्यं जवितव्यं वर्त्तितव्यं स्यात् । केन । मनसा कायेन वाक्येन । एजिः कारणैरित्यर्थः । एवं वर्त्तमानोऽहिंसकः सन् संयतः संभवति नान्यः ॥ ३ ॥ ( टीका. ) यतश्चैवमतः तेसिं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तेषां पृथिव्यादीना - मक्षणयोगेनाहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यं वर्त्तितव्यं स्यात् निक्षुणा मनसा कायेन वाक्येनै जिः कारणैरित्यर्थः । एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् जवति संयतो नान्यथेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ पुढविं नित्ति सिलं लेलुं, नेव निंदे न संलिहे ॥ तिविदे करणजोएण, संजए सुसमाहिए ॥ ४ ॥ ( अवचूरिः ) षड्जी वा हिंसा सामान्येनोक्त्वा विशेषेणाह । पृथ्वीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिलां पाषाणात्मिकां लेष्टुमिहालखंड नैव जिंद्यात् न संलिखेत् । तत्र भेदनं द्वैधीनावः । संलेखनमीषल्लेखनं त्रिविधेन करणयोगेन संयतः सुसमाहितः । शुद्धभाव इति ४ ( अर्थ. ) पूर्वोक्त प्रकारे सामान्य पणे सर्वे जीवोनी हिंसा वर्जवाथी साधुनुं संयतपणं कहींने हवे तेज विषय सविस्तर कहे बे. पुढवि इत्यादि सूत्र. ( संजए के० ) संयतः एटले संयत एवो तथा ( सुसमाहिए के० ) सुसमाहितः एटले शुद्ध जाववालो एवो साधु जे ते ( णिविहे करणजोए के० ) त्रिविधेन करणयोगेन एटले मन वचन कायाए न करवुं, न कराव, न अनुमोदवुं ए रूप त्रण योग वडे ( पुढविं के० ) पृथिवीं एटले शुद्ध पृथ्वी प्रत्ये, ( नित्तिं के० ) नित्तिं एटले जींत प्रत्ये, (सिल के० ) शिलां एटले पाषाण रूप शिला प्रत्ये तथा ( लेलुं के० ) लोष्टं एटले ईट विगे. रेना कटका प्रत्ये (नेव जिंदे के० ) नैव निन्द्यात् एटले एकना वे कटका न करे, तथा ( न संलिहे के ० ) न संलिखेत् एटले घर्पणादिक न करे. ॥ ४ ॥ (दीपिका) एवं सामान्येन षड्जीवनिकायस्याहिंसायां संयतत्वं कथयित्वा तं नेत विधि विधानतो विशेपेणाह । संयतः साधुः । पृथवीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिलां पापारूपां लेष्टुमिहालखंड नैव निंद्यान्न संविखेत् । तत्र भेदनं द्वैधी जावाघ्यापादनं, संले Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन्द राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(५३)-मा. खनमीषल्लेखनम् । त्रिविधेन त्रिकरणयोगेन न करोति मनसा वचसा कायेन । किं सं. यतः। सुसमाहितः समाधिमान् शुद्ध इत्यर्थः ॥४॥ __(टीका.) एवं सामान्येन षड्जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमन्निधायाधुना तनतविधि विशेषेणाह । पुढवि त्ति सूत्रम् । पृथिवीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिलां पाषाणात्मिकां लेष्टुमिट्टालखंडं नैव निंद्यात् नो संलिखेत् । तत्र नेदनं वैधीनावोत्पादनं सं. लेखनमीषलेखनं त्रिविधेन करणयोगेन न करोति मनसेत्यादिना संयतः साधुः सुसमाहितः शुनाव इति सूत्रार्थः॥४॥ सुपुढवीं न निसीए, ससरकंमि अ आसणे॥ पमजित्तु निसीइजा, जाश्त्ता जस्स नग्गरं ॥५॥ (अवचूरिः) शुझपृथ्व्यामचित्तायामनन्तरितायां न निषीदेत् । निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनादिग्रहः । सरजस्के पृथिवीरजोगुपिकत आसने पीठकादौ । अ. चेतनायां तु संमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेत् । याचित्वा । यस्यावग्रह मिति । यस्य संबंधिनी तमवग्रहमनुज्ञाप्येत्यर्थः ॥५॥ (अर्थ.) सुद्ध इत्यादि सूत्र. साधु जे तेणे (सुझपुढवीं के०) गुपृथिवीं ए. टले शस्त्रथी हणायली नहि एवी सचित्त नूमिउपर बच्चे कांश पण आंतरं न होय तो (न निसीए के०) न निषीदेत् एटले न बेसबु. तथा (ससरकंमि के) सरजस्के एटले नूमिना सचित्त रजश्री वीटायला (आसणे के०) आसने एटले पीठक प्रमुख आस. | नने विषे पण न बेस. तेमज अचित्त नूमि होय तो (जस्स के०) यस्य एटले जेनी नूमि होय तेनी पासे (जग्गहं के०) अवग्रहं एटले अवग्रह प्रत्ये (जाश्त्ता के) याचित्वा एटले मागीने तथा (पमजित्तु के०)प्रमायं एटले रजोहरणवडे प्रमाजीने (निसीजा के ) निषीदेत् एटले बेसबुं. ॥५॥ (दीपिका.) पुनः किंच संयतः शुथिव्यां शस्त्रेण या न उपहता तस्यां पृ. । थिव्यां न निषीदेत् । तथा पुनः आसने पीठकादौ न निषीदेत् निषीदनग्रहणात है स्थानत्वग्वतपरिग्रहः। किंत श्रासने । सरजस्के पृथिवीरजोवगुंमिते वा। तहि का कुर्यात्। अचेतनां पृथिवी ज्ञात्वा रजोहरणेन प्रमृज्य निषीदेत् । किं कृत्वा अव याचित्वा । कोऽर्थः । यस्य गृहस्थादेः संबंधिनी पृथिवी वर्तते, तं गहस्थमनु ना आदेशं लात्वा इत्यर्थः॥५॥ ___(टीका.) तथा सुरु ति सूत्रम् । शुक्रप्टथिव्यामशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां रापर Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ច។ निषीदेत् । तथा सरजस्के वा पृथ्वीरजोवगुएिकते वासने पीठकादौ न निषीदेत् । निपीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । अचेतनायां तु प्रमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेज्ज्ञात्वेत्यचेतनां ज्ञात्वा याचयित्वावग्रहमिति । यस्य संबंधिनी पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥५॥ सीनंदगं न सेविका, सिलावुहं दिमाणि अ॥ जसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगादिङ संजए॥६॥ (अवचूरिः) उक्तः पृथिवीकायविधिः।इदानीमकायविधिमाह । शीतोदकं सचित्तोदकं न सेवेत । तथा शिलाः करकाः। वृष्टं वर्षणं हिमानि च न सेवेत। उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्तासुकं त्रिदंमोकृतं । नोष्णोदकमानं प्रतिगृह्णीत संयतः साधुरेतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति ॥६॥ (अर्थ.) पृथ्वीकायनो विधि कह्यो. हवे अकायनो विधि कहे . सीउंदगं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (सीजेदगं के) शीतोदकं एटले सचित्त जल प्रत्ये (न सेविजा के०) न सेवेत एटले न सेवे. तेमज ( सिलावुठं के०) शिलावृष्टं एटले वर्सा दमां पडता करा प्रत्ये (अ के०) च एटले वली (हिमानि के०) हिमानि एटले । बरफ प्रत्ये पण न सेवे. एम न करे तो पोतानो निर्वाह शी रीते करे ते कहे . { (तत्तफासुअं के) तप्तप्रासुकं एटले तपावी अचित्त करेलु एवा (उसिणोदगं के०) । उष्णोदकं एटले जष्ण जल प्रत्ये (संजए के) संयतः एटले साधु जे ते (पडिग्गा हिज के०) प्रतिगृह्णीयात् एटले निर्वाहने अर्थे ग्रहण करे. ॥६॥ । (दीपिका.) इति पृथिवीकाय विधिरुक्तः। अथ अप्कायविधिमाह । संयतः साधुः शीतोदकं पृथिवीतनवं सच्चित्तोदकं सचित्तपानीयं न सेवेत । तथा शिलावृष्टिं हिमानि च न सेवेत । अत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्षणं, हिमं प्र. • सह प्राय उत्तरापये जवति । आह । यद्येवं तर्हि कथं साधुर्वर्त्तत इत्याह । उष्णोदकं ___ कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदंडोहत्तं नोष्णोदकमात्रं प्रतिगृह्णीयात् वृत्यर्थम् । एतच्च सौवीरादीनामुपलक्षणम् ॥ ६ ॥ या (टीका.) उक्तः पृथिवीकायविधिरधुना अप्कायविधिमाह । सीउँदगं ति सूसम् । शीतोदकं पृथिव्युनवं सञ्चित्तोदकं न सेवेत । तथा शिलावृष्टं हिमानि च न वेत । अत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्पणं, हिमं प्रतीतं प्राय उत्ततपथे नवति । यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह । जपणोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं तप्तं Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. बनमीषब्लेखनम् । त्रिविधेन त्रिकरणयोगेन न करोति मनसा वचसा कायेन । किं संतः। सुसमाहितः समाधिमान् शुद्ध श्त्यर्थः ॥४॥ (टीका.) एवं सामान्येन षड्जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमनिधायाधुना तम. विधि विशेषेणाह । पुढ वि त्ति सूत्रम् । पृथिवीं शुद्धां नित्तिं तटीं शिलां पाषाणामकां लेष्टुमिट्टालखंडं नैव निंद्यात् नो संलिखेत् । तत्र नेदनं धीनावोत्पादनं संखनमीषलेखनं त्रिविधेन करणयोगेन न करोति मनसेत्यादिना संयतः साधुः सुमाहितः शुरूनाव इति सूत्रार्थः॥४॥ सुपुढवीं न निसीए, ससरकंमि अ आसणे॥ . पमजित्तु निसीइजा, जाइत्ता जस्स नग्गरं ॥५॥ (अवचूरिः) शुभपृथ्व्यामचित्तायामनन्तरितायां न निषीदेत् । निषीदनग्रह तत्स्थानत्वग्वर्तनादिग्रहः । सरजस्के पृथिवीरजोगुपिकत आसने पीठकादौ । तनायां तु संमृज्य तां रजोहरणेन निषीदेत् । याचित्वा । यस्यावग्रह मिति । यस बंधिनी तमवग्रहमनुज्ञाप्येत्यर्थः ॥५॥ (अर्थ.) सुझ इत्यादि सूत्र, साधु जे तेणे (सुपुढवीं के) शुभपृथिवीं ए ले शस्त्रथी हणायली नहि एवी सचित्त जूमिउपर बच्चे कांश पण आंतरं न होय त न निसीए के०) न निषीदेत् एटले न बेसवं. तथा (ससरकंमिके) सरजस्के एटई मिना सचित्त रजथी वीटायला (आसणे के०) आसने एटले पीठक प्रमुख आसने विषे पण न बेसवं. तेमज अचित्त नूमि होय तो (जस्त के०) यस्य एटले जे नूमि होय तेनी पासे (जग्गहं के०) अवग्रहं एटले अवग्रह प्रत्ये (जाश्त्ता के) याचत्वा एटले मागीने तथा (पमझिात्तु के०)प्रमायं एटले रजोहरणवडे प्रमाजीन निसीजा के) निषीदेत् एटले बेसवु. ॥५॥ (दीपिका.) पुनः किंच संयतः शुष्पथिव्यां शस्त्रेण या न उपहता तस्यां पृ. थव्यां न निषीदेत् । तथा पुनः आसने पीठकादौ न निषीदेत् निषी... : स्थानत्वग्वतपरिग्रहः। किंत श्रासने । सरजस्के पृथिवीरजोवणुमिते वा । तहि । कुर्यात्। अचेतनां पृथिवीं ज्ञात्वा रजोहरणेन प्रमृज्य निषीदेत् । किं कृत्वा .. याचित्वा । कोऽर्थः । यस्य गृहस्थादेः संबंधिनी पृथिवी वर्तते, ते . . ! आदेशं लात्वा इत्यर्थः ॥५॥ ___(टीका.) तथा सुछ ति सूत्रम् । शुक्रष्टथिव्यामशस्त्रोपहतायामनन्तरितायो । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOR दशवैका लिकेऽष्टमाध्ययनम् । निषीदेत् । तथा सरजस्के वा पृथ्वीरजोवगुरिरुते वासने पीठकादौ न निषीदेत् । निपी दनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः । अचेतनायां तु प्रमृज्य तां रजोहरणेन निपीदेज्ज्ञात्वेत्यचेतनां ज्ञात्वा याचयित्वावग्रहमिति । यस्य संबंधिनी पृथिवी तमवग्रहमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ ॥ सीद्गं न सेविका, सिलावुठं हिमाणि उसिणोद्गं तत्तफासु, पडिगाहिक संजए ॥ ६ ॥ ( श्रवचूरिः ) उक्तः पृथिवीकायविधिः । इदानीमप्काय विधिमाह । शीतोदकं सचितोदकं न सेवेत । तथा शिलाः करकाः । वृष्टं वर्षणं हिमानि च न सेवेत । उष्णोदकं कथितोदकं ततप्रा सुकं तप्तं सत्प्रासुकं त्रिदोद्धृतं । नोष्णोदकमात्रं प्रतिगृह्णीत संयतः साधुरेतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति ॥ ६ ॥ (अर्थ) पृथ्वी कायनो विधि को हवे अष्कायनो विधि कहे वे सीउंदगं 5त्यादि सूत्र, साधु जे ते ( सीउदगं के० ) शीतोदकं एटले सचित्त जल प्रत्ये ( न सेविज्ञा के० ) न सेवेत एटले न सेवे. तेमज ( सिलावु के० ) शिलावृष्टं एटले वर्सामां पडता करा प्रत्ये ( के० ) च एटले वली ( हिमानि के० ) हिमानि एटले बरफ प्रत्ये पण न सेवे. एम न करे तो पोतानो निर्वाह शी रीते करे ते कहे वे. 1 ( तत्तफा सुचं के० ) तप्तप्रासुकं एटले तपावी अचित्त करेलुं एवा ( उसिणोदगं के० ) उष्णोदकं एटले उष्ण जल प्रत्ये ( संजए के० ) संयतः एटले साधु जे ते ( पडिग्गाहि ० ) प्रतिगृह्णीयात् एटले निर्वाहने अर्थे ग्रहण करे. ॥ ६ ॥ 7 ( दीपिका. ) इति पृथिवी काय विधिरुक्तः । अथ अकाय विधिमाह । संयतः साधुः शीतोदकं पृथिवीतङ्गवं सच्चित्तोदकं सचित्तपानीयं न सेवेत । तथा शिलावृष्टिं हि - मानि च न सेवेत । अत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रसरूं प्राय उत्तरापथे जवति । श्राह । यद्येवं तर्हि कथं साधुर्वर्त्तत इत्याह । उष्णोदकं कथितोदकं तप्तप्रासुकं ततं सत्प्रासुकं त्रिदंडोहत्तं नोप्णोदकमात्रं प्रतिगृहीयात् वृत्यर्थम् । एतच्च सौवीरादीनामुपलक्षणम् ॥ ६ ॥ तसं स्थमनुतम् ( टीका. ) उक्तः पृथिवीकाय विधिरधुना काय विधिमाह । सीउदगं ति सू। शीतोदकं पृथिव्युद्भवं सच्चित्तोदकं न सेवेत । तथा शिलावृष्टं हिमानि च न ति । यत्र शिला ग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते । वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रतीतं प्राय उत्तपये जवति । यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह । उष्णोदकं कथितोदकं ततप्रामुकं तप्तं न्तरिता Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. सत्प्रासुकं त्रिदंडोवृत्तम् । नोष्णोदकमात्रम् । प्रतिगृह्णीयावृत्त्यर्थं संयतः साधुः । एतच्च सौवीराद्युपलकणमिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ जदनवं अप्पणो कार्य, नेव पुं न संलिहे॥ समुप्पेह तदानूअं, नो णं संघट्टए मुणी ॥३॥ (अवचूरिः) नदीमुत्तीर्णः निदाप्रविष्टो वा वृष्टिहतमुदका मुदकविंचितमात्मनः कायं नैव पुंबयेत् वस्त्रादिना न संविखेत्पाणिना । अपि तु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथानूतमुदका दिरूपं नैनं कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न संस्स्पृशे दिति ॥७॥ (अर्थ.) तेमज (मुणी के०) मुनिः एटले मुनि जे ते (अप्पणो के०) श्रात्मनः एटले पोतानुं (कायं के०) कायं एटले शरीर (उदजवं के०) उदकार्ड एटले को पण रीते जलथी पलली गयुं होय तो तेने (नेव पुंडे के०) नैव पुंबयेत् एटले वस्त्र, तृण इत्यादि वस्तुवडे लुवे नहि, अथवा हाथवडे (नसंलिहे के०) न संलिखेत एटले स्पर्शपण करे नहि. तो शंकरे ते कहे . (तहानूअं के०) तथानूतं एटले तेवा जलथी पललेला एवा (णं के) एनं एटले ते शरीरने (न घट्टए के०) न घयेत् एटले सं. घट्ट न करे, थोडो पण स्पर्श न करे. ॥ ॥ . (दीपिका.) पुनः मुनिः नदीमुत्तीर्णः निदायां प्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकाई मुदकबिंदुव्याप्तमात्मनः कायं शरीरं सस्निग्धं वा नैव पुंडयेत् । वस्त्रतृणादिनिनसंहि खेत् पाणिना हस्तेनापि । किं कृत्वा । समुत्प्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथाचूतमुदका दिल कायं न एनं संघट्टयेत् मनागपि न संस्पृशेत् ॥ ७॥ (टीका.) तथा उदजनं ति सूत्रम् । नदीमुत्तीर्णो निदाप्रविष्टो वा वृष्टिहर उदकार्डमुदकबिन्दुचितमात्मनः कायं शरीरं स्निग्धं वा नैव पुंबयेस्त्रतृणादिजिर्न संविखेत्पाणिनापितु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य तथानूतमुदका दिरूपं नैव कार्य संघट्टयेन्मु निर्मनागपि न स्पृशे दिति सूत्रार्थः॥७॥ इंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा स जोअं॥ न जिला न घटिका, नो णं निवावए मुणी॥ ७॥ ( अवचूरिः) उक्तोऽप्कायविधिः अथ तेजःकायविधिमाह।अंगारं .. मग्निमयःपिंगानुगमर्चिनिबन्नज्वाला। अलातमुदमुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यथः किमित्याह । नोत्सिंजेन्न घट्टयेत् । तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं [...] नैनमग्निं निर्वापयेत् ॥ ७॥ . Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४नए (अर्थ.) अप्कायनी यतना कही, हवे तेजस्कायनी कहे . (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (इंगालं के०) अंगारं एटले ज्वालारहित अग्नि प्रत्ये, (अगणिं के०) थनिं एटले तपायला लोहडाना गोलामा रहेल अग्नि प्रत्ये, (अच्चिं के०) अर्चिः एटले श्रग्निथी लूटी पडेली ज्वाला प्रत्ये (वा के०) अथवा (सजोशं के०) सज्योतिः एटले अग्निसहित एवा (अलायं के०) अलातं एटले काष्ठादिक प्रत्ये (न जंजिजा के) नोत्सिंचेत् एटले दिवा प्रमुखने उलवी नाखे नहि, (न घहिजा के०) न घट्टयेत् एटले माहोमाहे धर्पण न करे, तेमज ( णं के ) एनं एटले आ अनि प्रत्ये (नो निवावए के०) नो निर्वापयेत् एटले उलवी नाखे नहि. ॥७॥ (दीपिका.) उक्तोऽप्कायविधिः । अथ तेजःकायविधिमाह। मुनिः अग्निंप्रति एवं न कुर्यात्.। एवं किमित्याह । अंगारं ज्वालारहितम् । अनिमियःपिंमानुगं तथाचिः प्रदीपादेः ठिन्नज्वाला । तथा अलातमुस्मुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः । किमित्याह । न उत्सिचेत् न घट्टयेत् । तत्र उत्सिंचनं उत्सेचनं प्रदीपादेर्घट्टनं मिथश्चालनं तथा न एनमग्निं निर्वापयेत् अनावमापादयेत् ॥ ७॥ (टीका.) उक्तोऽप्कायविधिः। तेजस्कायविधिमाह । इंगालं ति सूत्रम् । श्रङ्गारं ज्वालारहितमग्निमयःपिएकानुगतमचित्रिउन्नज्वालमलातमुमुकं वा। सज्योतिः साग्नि कमित्यर्थः । किमित्याह । नोत्सिंचेत् न घट्टयेत् तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं - मिथश्चालनम्। तथा नैनमग्निं निर्वापयेदनावमापादयेन्मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विदुरोण वा॥ न वीइक अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥५॥ न (अवचूरिः) प्रतिपादितस्तेजस्कायः वायुकायविधिमाह । तालवृन्तेन व्यजनवि। संघट शेपेण पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना शाखया वृक्षनालरूपया विधूननेन वा व्यजनेनैव वा ___ न वीजयेदात्मनः कार्य स्वशरीरमित्यर्थः । वाह्यं वापि पुजलमुष्णोदकादि ॥ ए॥ (यर्थ.) तेजस्कायनी यतना कही. हवे वायुकायनी यतना कहे ठे. साधु जे । ते (थप्पणो के०) श्रात्मनः एटले पोताना ( कायं के० ) कायं एटले शरीर प्रत्ये साला( वा के०) अथवा (वाहिरं के०) बाह्यं एटले पोताना शरीरश्री बाहर रदेला एवा नि पुग्गलं वि के०) पुशलमपि एटले उप्ण जल प्रमुख पुजल प्रत्ये पाण (तालियं टेण 40 ) तालवृन्तेन एटले ताडपत्रना पंखावडे: (पत्तेण के०) पत्रेण एटले कमलपत्रा. देकवडे, ( साहाए के०) शाखया एटले वृक्षादिकनी शाखाबडे (वा के०) अथवा 2. 4. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. सत्प्रासुकं त्रिदंडोत्तम् । नोष्णोदकमात्रम् । प्रतिगृह्णीयावृत्त्यर्थं संयतः साधुः । एतच्च सौवीराद्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥६॥ उदनवं अप्पणो कायं, नेव पुं न संलिदे॥ समुप्पेद तहानूअं, नो एं संघटए मुणी ॥ ७॥ (अवचूरिः) नदीमुत्तीर्णः निदाप्रविष्टो वा दृष्टिहतमुदका मुदकविंचितमात्मनः कायं नैव पुंडयेत् वस्त्रादिना न संलिखेत्पाणिना । अपि तु संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथाजूतमुदकार्थादिरूपं नैनं कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न संस्स्पृशे दिति ॥७॥ (अर्थ.) तेमज (मुणी के०) मुनिः एटले मुनि जे ते (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोतानुं (कायं के०) कायं एटले शरीर (उदउद्धं के०) उदकार्ड एटले को पण रीतेजलथी पलली गयुं होय तो तेने (नेव पुंजे के०) नैव पुंडयेत् एटले वस्त्र, तृण इत्यादि वस्तुवडे लुवे नहि, अथवा हाथवडे (नसंलिहे के ) न संलिखेत् एटले स्पर्शपण करे नहि. तो शुं करे ते कहे . ( तहानूअं के०) तथान्नूतं एटले तेवा जलथी प. ललेला एवा (णं के०) एनं एटले ते शरीरने (न घट्टए के०) न घट्टयेत् एटले सं. घट्ट न करे, थोडो पण स्पर्श न करे. ॥७॥ (दीपिका.) पुनः मुनिः नदीमुत्तीर्णः निदायां प्रविष्टो वा वृष्टिहत उदकाई मुदकबिंदुव्याप्तमात्मनः कायं शरीरं सस्निग्धं वा नैव पुंयेत् । वस्त्रतृणादिनिर्नसंहि खेत् पाणिना हस्तेनापि । किं कृत्वा । समुत्प्रेक्ष्य निरीक्ष्य । तथाचूतमुदकाओ दिला कायं न एनं संघट्टयेत् मनागपि न संस्पृशेत् ॥ ७॥ (टीका.) तथा उदउ ति सूत्रम् । नदीमुत्तीर्णो निदाप्रविष्टो वा वृष्टिहरू उदकार्डमुदकबिन्दुचितमात्मनः कार्य शरीरं स्निग्धं वा नैव पुंडयेस्त्रतृणादिजिने संविखेत्पाणिनापितु संप्रेदय निरीक्ष्य तथाजूतमुदका दिरूपं नैव कायं संघट्टयेन्मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ इंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा स जोश्अं॥ न जिजा न घटिका, नो णं निवावए मुणी॥७॥ (अवचूरिः) उक्तोऽप्कायविधिः। अथ तेजःकायविधिमाह।अंगारं ज्वाला मग्निमयःपिंमानुगमचिनिबन्नज्वाला। अलातमुमुकं वा सज्योतिः सा। .. किमित्याह । नोसिंजेन्न घट्टयेत । तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं मिथ नैनमग्निं निर्वापयेत् ॥ ७॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । មិចប __ (अर्थ.) अप्कायनी मतना कही, हवे तेजस्कायनी कहे . (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (शंगालं के०) अंगारं एटले ज्वालारहित अनि प्रत्ये, (अगणिं के०) अग्निं एटले तपायला लोहडाना गोलामा रहेल अग्नि प्रत्ये, (अचिं के०) अर्चिः एटले अग्निथी बूटी पडेली ज्वाला प्रत्ये (वा के) अथवा (सजोश्यं के०) सज्योतिः एटले अग्निसहित एवा (अलायं के) अलातं एटले काष्ठादिक प्रत्ये (न जंजिला । के०) नोत्सिंचेत् एटले दिवा प्रमुखने उलवी नाखे नहि, (न घट्टिा के०) न घट्टयेत् एटले माहोमाहे घर्षण न करे, तेमज ( णं के ) एनं एटले आ अग्नि प्रत्ये .. (नो निवावए के०) नो निर्वापयेत् एटले उलवी नाखे नहि. ॥७॥ (दीपिका.) उक्तोऽप्कायविधिः । अथ तेजःकायविधिमाह। मुनिः अग्निंप्रति एवं · न कुर्यात्.। एवं किमित्याह । अंगारं ज्वालारहितम् । अनिमियःपिंमानुगं तथार्चिः . प्रदीपादेः बिन्नज्वाला । तथा अलातमुटमुकं वा सज्योतिः साग्निकमित्यर्थः । किमित्याह । न उत्सिंचेत् न घट्टयेत् । तत्र उत्सिंचनं उत्सेचनं प्रदीपादेर्घट्टनं मिथश्चालनं तथा न एनमग्निं निर्वापयेत् अनावमापादयेत् ॥ ७ ॥ (टीका. ) उक्तोऽप्कायविधिः । तेजस्कायविधिमाह । इंगालं ति सूत्रम् । अङ्गारं । ज्वालारहितमग्निमयःपिएकानुगतमर्चिश्छिन्नज्वालमलातमुमुकं वा। सज्योतिः साग्नि। कमित्यर्थः । किमित्याह । नोत्सिंचेत् न घट्टयेत् तत्रोंजनमुत्सेचनं प्रदीपादेः घट्टनं मिथश्चालनम्।तथा नैनमग्निं निर्वापयेदनावमापादयेन्मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ॥ तालिअंटेण पत्तेण, सादाए विहुणेण वा ॥ न वीज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥५॥ वि (अवचूरिः) प्रतिपादितस्तेजस्कायः वायुकार्यविधिमाह । तालवृन्तेन व्यजनवि। ध शेषेण पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना शाखया वृक्षामालरूपया विधूननेन वा व्यजनेनैव वा न वीजयेदात्मनः कायं खशरीर मित्यर्थः। बाह्यं वापि पुजलमुष्णोदकादि ॥ ए॥ (अर्थ.) तेजस्कायनी यतना कही. हवे वायुकायनी यतना कहे . साधु जे ते (अप्पणो के) आत्मनः एटले पोताना ( कायं के ) कायं एटले शरीर प्रत्ये माया( वा के०) अथवा (वाहिरं के०) वाह्यं एटले पोताना शरीरथी बाहर रहेला एवा Felt पुग्गलं वि के०) पुशलमपि एटले उषण जल प्रमुख पुजल प्रत्ये पण (तालिवेटेण Chu) तालवृन्तेन एटले ताडपत्रना पंखावडे, (पत्तेण के) पत्रेण एटले कमलपत्रान देकवडे, (साहाए के०) शाखया एटले वृक्षादिकनी शाखावडे (वा के०) अथवा . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद जाग तेतालीस (४३) - मा. ( विदु के० ) विधुवनेन एटले मोरपीठ विगेरेना पंखावडे ( न वीइज के ० ) न वीजयेत् एटले वीजावे नहि. पवन नाखे नहि. ॥ ए ॥ ( दीपिका. ) इति तेजस्काय उक्तः । छाय वायुकाय विधिमाह । मुनिः श्रात्मनः कार्य न वीजयेत् बाह्यं वापि पुजलमुष्णोदकादि । केन न वीजयेदित्याह । तालवृन्तेन व्यजनविशेषेण तथा पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना तथा शाखया वृक्षमालरूपया वि धूपनेन व्यजनेन वा ॥ ५॥ ( टीका. ) प्रतिपादितस्तेजः कायविधिः । वायुकाय विधिमाह । तालियंटे ति सूत्रम् । तालवृन्तेन व्यजन विशेषेण, पत्रेण पद्मिनीपत्रादिना । शाखया वृडालरूपया विधूपनेन वा व्यजनेन वा । किमित्याह । न वीजयेदात्मनः कार्य स्वशरीरमित्यर्थः । बाह्यं वापि पुलमुष्णोदकादीति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ " तपरुकं न विंदिका, फलं मूलं व कस्स ई ॥ श्रामगं विविदं बीयं, मासा वि ए पहए ॥ १० ॥ ( यवचूरिः ) उक्तो वायुकायविधिः । अथ वनस्पतिकाय विधिमाह । तृणानि द दीनि वृक्षाः कदंबादयः । एतन्न बिन्द्यात् । फलं मूलं वा कस्यचिद्वृतादेः । श्रममशत्रोपहतं विविधमनेकप्रकारं मनसापि वीजं न प्रार्थयेत्किं पुनरनीयात् ॥ १७ ॥ (.) वायुकायनी यतना कही. हवे वनस्पतिकायनी यतना कहे बे. तब इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( तणरुरकं के० ) तृणवृक्षं एटले दर्ज प्रमुख तृण प्रत्ये कदंब, प्रमुख वृक्ष प्रत्ये (न बिंदिया के०) न बिन्धात् एटले तोडे नहि. तेमज (कस्स इ० ) कस्यचित् एटले कोइ पण वृक्षना ( फलं के० ) फलं एटले फल प्रत्ये ( व के० ) वा एटले अथवा ( मूलं के० ) मूलं एटले मूल प्रत्ये तोडे न हि. तेमज (श्रम के० ) आमकं एटले शस्त्रथी न हणायला एवा ( विविदं के० ) विविधं एटले अनेक प्रकारना (बी के०) बीजं एटले बीज प्रत्ये ( मणसा वि के० ) मनसापि एटले मनबडे पण ( न पछए के० ) न प्रार्थयेत् एटले इछे नहि. ॥ १० ( दीपिका. ) इति वायुकाय विधिः प्रतिपादितः । श्राथ वनस्पतिकायविधिमाह साधुः] तृणवृक्षं न बिन्द्यात् । तत्र तृणानि दर्जादीनि । वृक्षाः कदम्बादयः । तथा द देः कस्यचित्फलं मूलकं वा न बिन्धात् । तथा यमकं शस्त्रेण यन्त्र उपहतं एवं.. विविधमनेकप्रकारं वीजं साधुर्मनसापि न प्रार्थयेत् । कथं पुनर्जयेत् ॥ १० ॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ४१ ( टीका.) प्रतिपादितो वायुकाय विधिर्वनस्पतिकायविधिमाह। तण त्ति सूत्रम् । तृणवृक्षमित्येकवघ्नावः । तृणानि दर्जादीनि, वृक्षाः कदम्बादयः, एतान्न निन्द्यात् ।। फलं मूलं वा कस्य चिदादेन विन्द्यात् । तथा आममशस्त्रोपहतं विविधननेकप्रकारं बीजं न मनसापि प्रार्थयेत् , किमुत नाश्नीयादिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ गहणेसु न चिहिजा, बीएसु हरिएसु वा॥ उदगंमि तदा निन्छ, जत्तिंगवणगेसु वा ॥११॥ (अवचूरिः ) तथा गहनेषु वन निकुञादिषु न तिष्ठेत् संघटनादिदोषात् । बीजेषु प्रसारितशाट्यादिषु, हरितेषु दूर्वादिषु च न तिष्ठेत् । उदके तथा नित्यम् । तत्रोदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । उत्र्तिगाः सर्पछत्ररूपाः। पनक जसिः वनस्पतिविशेषः ॥११॥ (अर्थ.) तेमज गहणेसु इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (गहणेसु के०) गहनेषु ए-.. टले वृदना कुंजने विषे (न चिहिजा के०) न तिष्ठेत् एटले उन्ना न रहे. कारण के, . तेथी संघट्टन प्रमुख दोष लागवानो संचव जे. तेमज (बीएसु के० ) बीजेषु एटले • नूमिउपर पथरायला शालि प्रमुख धान्यने विषे ( वा के०) अथवा (हरिएसु के०) . । हरितेषु एटले दूर्वा प्रमुख हरित कायने विषे (तहा के ) तथा एटवे तेमज (नि। चं के०) नित्यं एटले कोइ पण समये (उदगंमि के०) उदके एटले उदक नामक ॥ वनस्पतिकायने विषे (वा के०) अथवा ( उत्तिंगपणएसु केu) जत्तिंगपनकयोः ए टले बिलाडाना टोपने नामे जेलखाता वनस्पतिकायने विषे अने पनक एटले लीलन ३ फूलनने विषे पण उन्ना न रहे. ॥ ११ ॥ (दीपिका.) पुनः किं न कुर्यादित्याह । साधुर्गहनेषु वनेषु निकुञ्जेषु न तिष्ठेत् । - संघटनादिदोषप्रसंगात् । तथा वीजेषु प्रसारितशादयादिषु वा,तथा हरितेषु वा दूर्वा दिषु न तिष्ठेत् । उदके तथा नित्यम् । तत्र जदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । यथोक्तम् । उदए अवए पणए इत्यादि । उदकमेवेत्यन्ये । तत्र नियमतो वनस्पतिलावात् । तथा व उत्तिङ्गपनकयोर्वा न तिष्ठेत् । तत्र उत्तिंगः सर्पजत्रादिः। पनक जहिवनस्पतिरिति ॥११॥ ॥॥ (टीका.) तथा गहणेसु ति सूत्रम् । गहनेषु वननिकुञ्जेषु न तिष्ठेत् । संघटनादिदोषप्रसंगात् । तथा वीजेषु प्रसारितशाख्यादिषु हरितेषु वा दूर्वादिषु न तिष्ठेत् । । । उदके तथा नित्यम् । अत्रोदकमनन्तवनस्पतिविशेषः । यथोक्तम् । उदए अवए प.. गए इत्यादि । उदकमेवान्ये । तत्र नियमतो वनस्पतिनावात् । जत्तिङ्गपनकयो न इत, तिष्ठेत् । तत्रोत्तिङ्गः सर्पबत्रादिः । पनक उहिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ॥ ११॥ .. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. - तसे पाणे न हिंसिका, वाया अज्य कम्मुणा॥ जवर सबनूएसु, पासेजा विविहं जगं ॥२॥ (अवचूरिः ) उक्तो वनस्पतिविधिस्त्रसकायविधिमाह । त्रसान् प्राणिनो वीन्छि यादीन्न हिंस्यात् । वाचाथवा कर्मणा कायेन । मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणम् । उपरतो हिंसानिवृत्तः सर्वजूतेषु पश्ये विविधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति१२ (अर्थ.) वनस्पतिकायनी यतना कही. हवे त्रस कायनी यतना कहे. तसे ३ त्यादि सूत्र. ( सवनूएसु के०) सर्वत्रूतेषु एटले सर्व प्राणीयोने विषे (जवर के) उपरतः एटले दंडनो त्याग करनार एवो साधु जे ते ( वाया के०) वाचा एटले वाणीवडे (अव के०) अथवा ( कम्मुणा के०) कर्मणा एटले कायावडे (तसे पाणे के०) त्रसान् प्राणिनः एटले त्रस जीव प्रत्ये (न हिंसिका के०) न हिंस्यात् एटले हणे नहि, पण (विविहं के०) विविधं एटले नानाविध एवा (जगं के०) जगत् एटले जीवसमुदायरूप जगत् प्रत्ये कर्मना वशथी नरकादिगतिने विषे ब्रमण करनारुंडे एम (पासिज के०) पश्येत् एटले जुवे, कारण के, एम करवाशी वैराग्य उत्पन्न थाय.॥१२॥ .. ( दीपिका.) उक्तो वनस्पतिविधिः । अथ त्रसविधिमाह। साधुः सान् प्राणिनो हीजियादीन् न हिंस्यात् । कथमित्याह । वाचा वचनेन, अथवा कर्मणा कायेन । मनसोऽपि ग्रहणं कार्यं तस्य तयोरन्तर्गतत्वात् । पुनः साधुरुपरतः सन् । केषु । सर्वभूतेषु । दूरीकृतदएमः सन् पश्येत् विविधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति सूत्रार्थः ॥ १२॥ .. (टीका.) उक्तो वनस्पतिकाय विधिः । त्रसविधिमाह । तस त्ति सूत्रम् । त्रसप्राणिनो हीन्द्रियादीन् न हिंस्यात् । कथमित्याह । वाचा अथवा कर्मणा कायेन मनसस्तदन्तर्गतत्वादग्रहणम् । अपि चोपरतः सर्वभूतेषु निक्षिप्तदएकः सन् पश्येछि. विधं जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं निर्वेदायेति सूत्रार्थः ॥ १२॥ . __अह सुदुमा पेदाए, जाई जाणित्तु संजए॥ दयादिगारी नूएसु, आस चिह सएहि वा ॥ १३ ॥ (अवचूरिः) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । अष्टौ सूक्ष्मणि वक्ष्यमाणलक्षणानि प्रेक्ष्योपयोगत श्रासीत तिष्ठेत् शयीत वा इति योगः। यानि ज्ञात्वा दया धिकारी नूतेषु नवत्यन्यथा दयाधिकार्येव नेति तानि प्रेक्ष्य तजहित एवासनादि कुर्यादन्यथा तेषां विराधनेन सातिचारतेति ॥ १३ ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिकेऽष्टमाध्ययनम् । ४३ ( अर्थ. ) स्थूल जीवनी यतना कही. दवे सूक्ष्म जीवनी कहे वे यह इत्यादि सूत्र. ( संजए के० ) संयतः एटले साधु जे ते ( के० ) आठ ( सुहुमाइ के० ) सूक्ष्माणि एटले सूक्ष्म वस्तु प्रत्ये ( पेहा के० ) प्रेदय एटले जाणीने ( श्रास के० ) श्रासीत एटले बेसे, ( चिह्न के० ) तिष्ठेत् एटले बना रहे, ( वा के० ) अथवा (सएहि ० ) शयीत एटले सुइ रहे. ते श्राव वस्तु कइ ते लक्षणथी कहे बे. साधु जे ते (जाइ० ) यानि एटले जे आव वस्तु प्रत्ये ( जाणित के० ) ज्ञात्वा एटले जाने (नूएस के० ) भूतेषु एटले जीव संबंधी ( दयाहिगारी के० ) दयाधिकारी एटले दयानो अधिकारी थाय बे. ॥ १३ ॥ ( दीपिका. ) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । संयतः साधुः अष्टौ सूक्ष्माणि ग्रे वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्य निरीक्ष्य उपयोगत श्रासीत तिष्ठेत् शयीत वेति योगः । किंभूतानि सूक्ष्माणि इत्याह । यानि ज्ञात्वा संयतो परिज्ञया प्रत्यारख्यानपरिज्ञया च भूतेषु दयाधिकारी जवति । अन्यथा दयाधिकार्येव न स्यात् । तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एव श्रासनादि कुर्यात् । अन्यथा तेषां सातिचारतेति ॥ १३ ॥ ( टीका. ) उक्तः स्थूल विधिः । सूक्ष्म विधिमाह । श्रति सूत्रम् । अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगत यासी त्तिष्ठेष्ठयीत वे ति योगः । किं विशिष्टानीत्याह । यानि ज्ञात्वा संयतो इपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवत्यन्यथा दयाधिकार्येव नेति तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवासनादीनि कुर्यादन्यथा तेषां सातिचारतेति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कराई हुमाई, जाई पुचिक संजए ॥ इमाई ताई मेदावी, आइकिक विप्रकरणो ॥ १४ ॥ ( अवचूरिः ) कतराणि तान्यष्टौ सूक्ष्माणि । यानि दद्याधिकारित्वाद्भवदयाका पृछेत् संयतः । श्रमूनि तान्यग्रे वक्ष्यमाणानि मेधावी मर्यादावर्त्ती याचकीत विचक्षणः॥ १४ ॥ सापः ( अर्थ. ) हवे शिष्य गुरुने प्रश्न करे बे. कयराणि इत्यादि सूत्र. ( संजए के० ) संयतः एटले साधु जे ते दयानो अधिकारी थवाने अर्थ ( जाई के० ) यानि एटले जे श्राव सूक्ष्मने ( पुष्टि के० ) पृछेत् एटले पूवे. गुरु कहे ठे. ( मेहावी के० ) मेधावी एटले बुद्धिशाली एवो ( विकणो के०) विचक्षणः एटले विचक्षण पुरुष जे ते (इमाई के० ) इमानि एटले आ ( ताई के० ) तानि एटले ते आठ वत्तु प्र "त्ये ( आइरिक के० ) याचक्षीत एटले कहे. ॥ १४ ॥ सना Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए४ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) कानि पुनस्तानि अष्टौ इत्याह । कतराणि तानि अष्टौ सूदमाणि। यानि दयाधिकारित्वस्य अनावचयात् पृत् संयतः । अनेन दयाधिकारिण एवं विधेषु प्रयत्नविधिमाह । स हि अवश्यं तऽपकारकाण्यपकारकाणि च पृचति त त्रैव नावप्रतिबन्धादिति । अमूनि च तानि अनन्तरवक्ष्यमाणानि याचदीत विचक्षण इत्यनेनापि एतदेवाह । मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या । एवं हि श्रोतुः तपादेयबु. किनवति । अन्यथा तु विपर्यय इति ॥ १४ ॥ (टीका.) आह। कयराणि तिसूत्रम् । कतराण्यष्टौ सूदमाणि, यानि दयाधिकारित्वानावजयात् पृछेत्संयतः । अनेन दयाधिकारिण एव एवं विधेषु यत्नमाह । सह्यवश्यं तमुपकारकाण्यपकारकाणि च पृष्ठति। तत्रैव नावप्रतिबन्धादिति । अमूनि तानि अनन्तरं वदयमाणानि मेधावी आचदीत विचदण इत्यनेनाप्येतदेवाह । मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या। एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवत्यन्यथा विपर्ययः। सूत्रार्थः१४ सिणेदं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तदेव य ॥ पणगं बीप्रदरिअं च, अंडसुहुमं च अहमं ॥१५॥ (अवचूरिः) स्नेहसूदममवश्यायहिममिहिकाकरकहरतनुरूपम् । पुष्पसूक्ष्मं वटो मुम्बराणां पुष्पाणि । तानि तानि सूक्ष्माणि इति नालदयन्ते । प्राणसूममनुफरि कुंथुः। स हि चलन्नेव विनाव्यते न स्थितः। सूक्ष्मत्वात् । उत्तिंगसूदमं कीटिकानगरम्। तत्र कीटिकाः सूक्ष्मत्वादन्येऽपि च स्युः। पनकसूदमं पञ्चवर्णा फुझिजूंकाष्ठादिषु । बीजसूक्ष्मं शाल्या दिसूमबीजस्य मुखमूले कणिका । या लोके तुषमुखमुच्यते । नहीति प्रसिद्धिः।हरितसूदमं नवोत्पन्नं पृथिवीसमानमेव । अएकसूदमं चाष्टममिति । मक्षिकाकीटिकाग्रहोलिकाब्राह्मणीकृकलासाधएकम् । अत्राह परः। षड्जीवनिकाध्ययने विस्तरेण महाचारकथायां संदेपेण षट्रजीवनिकायरदा उक्ता। साधुना किंपुनरुक्तेत्युच्यते। चारित्रं च षड्जीवनिकायरवातोऽत्रापि तत्प्रख्यापनार्थ पुनरुक्तेऽपि न दोषः ॥१५॥ (अर्थ.) हवे ते आठ सूक्ष्मजीवरूप वस्तु नामनिर्देश वडे कहे .. सिणेह इत्यादि सूत्र. १ (सिणेह के०) स्नेहसूदमम् एटले स्नेह सूदम ते धूअर, हिम, क रा विगेरे. २ (पुप्फसुहुमं के०) पुष्पसूदमम् एटले पुष्पसूक्ष्म ते वड, उंबर इत्यादिकनां फूला के जे तर्ण अने सूक्ष्म होवायी देखाता नथी ते, ३ (पाण के०)प्राणा एटले प्राणि सूक्ष्म ते चालता जणातो अने बेग न जणातो एवो कुंथु नामक . जीव, ४ ( उत्तिंगं के) उत्तिंगं एटले जेमां कीडियो अने बीजा पण जीव होय Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दिन र 0) ना नक दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । uuu एवा कीडींना घर ( तहेवय के० ) तथैवच एटले तेमज ५ (पागं के० ) पनकं एटले चोमासामां भूमि काष्ठ इत्यादि वस्तुने विषे पंच वर्णी लीबन फूलन चढे बे ते, ६ ( बी के० ) बीजं एटले वीज सूक्ष्म ते जेमांथी अंकुर उत्पन्न थाय बे, ते वीजनुं मुख, प ( हरि के० ) हरितं एंटले हरित सूक्ष्म ते अतिशय नवुं उत्पन्न थलुं भूमिसमानवर्णवाल होय ते ते, ( च के० ) पुनः छ ( श्रमं के० ) अष्टमं पटले aaj (अंड के० ) अंडसूदां एटले अंडसूक्ष्म ते माखी, कीडी, काकिंडो इत्यादिकनां इंडां ते जाणवुं ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) स्नेहमिति । स्नेहसूक्ष्ममवश्याय हिम मिहि काकर कहतनुरूपम् । पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि सूक्ष्मापीति न लक्ष्यन्ते । पाणीति । प्राणिसूक्ष्म अनुद्धरिः कुन्थुः । स हि चलन् विनाव्यते न स्थितः सूक्ष्मत्वात् उत्तिंगसूक्ष्मं की टिकानगरम् । तत्र की टिकान्ये च सूक्ष्मसत्वा जवन्ति । तथा पनकमिति पनकसूक्ष्मं प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्द्रव्यलीनः पनक इति । तथा बीजसूक्ष्मं शाब्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका । या लोकेषु तुषमुख मित्युच्यते । हरितं चेति हरितसूक्ष्मं च । तथा अत्यन्तमजिनवमुनिं पृथिवीसमानवर्णमेव असूक्ष्मं च अष्टममिति । एतच्च मक्षिकाकी टिकागृहको किलाब्राह्मणी कृकलासादीनाम एक मिति ॥ १५ ॥ हो ( टीका. ) सिणें ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । स्नेहमिति । स्नेहसूक्ष्ममवश्यायहिममि हि काकरकहतनुरूपम् । पुष्पसूक्ष्मं चेति वटोडुंबराणां पुष्पाणि । तानि तहर्णानि सूक्ष्मापीति न लक्ष्यन्ते । पाणीति । प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिः कुंथुः । स हि चलन् विजाव्यते न स्थितः । सूक्ष्मत्वात् । उत्तिंगं तथैव चेत्युतिंगसूक्ष्मं की टिकानगरं, तत्र की टिकायन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा जवन्ति । तथा पनकमिति पनकसूक्ष्मं प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्द्रव्यलीनः पनक इति । तथा वीजसूक्ष्मं शाल्या. दिवीजस्य मुखमूले कणिका । या लोके तुषमुख मित्युच्यते । हरितं चेति । हरितसूक्ष्मं तच्चात्यन्ता जिनवोद्भिन्नं पृथिवीसमानवर्णमेवेति । सूक्ष्मं चाष्टममिति । एतच्च मक्षिकाकी टिकागृहको किला ब्राह्मणी कृकलासाद्य एक मिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ एवमेाणि जाणित्ता, सवनावेण संजए ॥ अप्पमत्ती जए निश्चं, सविंदिप्रसमाहिए ॥ १६ ॥ ( अवचूरिः ) एवमुक्तप्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन सर्वजावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूप संरक्षणा दिना संयतः साधुः अप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितो यतेत संरक्षणं प्रति नित्यं एकेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगछन् ॥ १६ ॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ( अर्थ. ) एवमेाणि इत्यादि सूत्र ( सविंदियसमा हिउ के० ) सर्वेन्द्रियसमाहितः एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख इंद्रिय विषयने विषे राग द्वेष न करनारो एवो ( संजd ho ) संयतः एटले साधु जे ते ( अप्पमत्तो के० ) अप्रमत्तः एटले प्रमादरहित तो ( एवं के० ) एवं एटले पूर्वोक्त प्रकारे ( एआणि के० ) एतानि एटले सूक्ष्म वस्तु प्रत्ये ( जाणित्ता के० ) झाला एटले जाणीने ( सबनावेण ho) सर्वावेन एटले यथा शक्ति सर्व प्रकारे ( निच्चं के० ) नित्यं एटले नित्य ( जए के० ) यतेत एटले यतना करे. ॥ १६ ॥ 1 ( दीपिका. ) पुनः सूत्रम् । साधुर्नित्यं सर्वकालं यतेत मनोवचनकायेन कृत्वा जी - वानां संरक्षणं प्रति । किं कृत्वा । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एतानि अष्टौ सूक्ष्माणि ज्ञात्वा । केन सर्वजवेन सूत्रादेशेन शक्तेरनुरूपेण । किंभूतः संयतः । संयमवान् । पुनः किंभूतः साधुः । प्रमत्तः प्रमादनिद्रारहितः । पुनः किंभूतः साधुः । सर्वेन्द्रियसमाहितः सर्वेषामिन्द्रियाणां विषयेषु रागद्वेषावगच्छन् ॥ १६ ॥ ( टीका. ) एवमे आणि ति सूत्रम् । यस्य व्याख्या । एवमनेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन सर्वजावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना संयतः साधुः । किमित्याह । श्रप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितः यतेत मनोवाक्कायैः संरक्षणं प्रति नित्यं सर्वकालं सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्निति सूत्रार्थः॥ १६॥ धुवं च परिलेदिका, जोगसापायकंबलं ॥ सिमुच्चारभूमिं च, संथारं वास ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) ध्रुवं च यो यस्य कालः तस्मिन् प्रत्युपेक्षते । योगे सति सति सामध्यें । पात्रग्रहात्पात्रोपधिः । कम्बलग्रहणादृर्णा सूत्रमयपरिग्रहः । शय्यां वसतिं द्विकाल त्रिकालं वर्षासु उच्चारभूमिं संस्तारकं तृणमयादिरूपम् । अथवासनं काष्ठासनं पादोंनं वा ॥ १७ ॥ (.) तेज धुवं इत्यादि सूत्र, साधु जे ते ( धुवं के० ) ध्रुवं एटले नित्य अर्थात् जे वस्तुनो जे पडिलेहणाकाल सिद्धांतमां को होय ते प्रमाणे हमेशां (जोगसा के० ) योगे सति एटले शक्ति होय तो न्यूनाधिक न थाय तेवी रीते ( पडिले - हिता के० ) प्रत्युपेक्षेत एटले पडिले हे. शुं पडिले ते कहे बे. ( पायकंबल के० ) पात्रकंवलं एटले पात्र ते तुंबडं अथवा काष्ठमय पात्र प्रत्ये तथा कंबल एटले ज ननी कांवल प्रमुख प्रत्ये ( सिद्धं के० ) शय्यां एटले वसति उपाश्रय प्रत्ये वे टंक Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । . . . ४ए तथा त्रण टंक (उच्चारनूमि के०) उच्चारनूमि एटले स्थंडिल प्रत्ये (च के) पुनः ( संथारं के०) संस्तारकं एटले तृणमय अथवा बीजो संथारो होय ते प्रत्ये ( अडवा के०) अथवा ( आसणं के) आसनं एटले अपवाद मार्गे ग्रहण करेला पीठ प्रमुख आसन प्रत्ये पडिलेहे. ॥ १७ ॥ (दीपिका.) पुनः साधुः किं कुर्यादित्याह।ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तः अनागतः परिनोगे च तस्मिन् प्रत्युपेदेत। केन । सिद्धान्तविधिना।क सति। योगे सति सामर्थे सति । किं प्रत्युपेदेत इत्याह । पात्रकम्बलं । पात्रग्रहणात् श्रलांबुदारुमयादिपरिग्रहः । कंबलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः । तथा शय्यां वसतिं द्विकालं त्रिकालमुच्चारनुवं च अनापातवदादि स्थं मिलं तथा आसनमपवादेन गृहीतं पीठफलकादि साधुः सर्वं यतनया प्रत्युपेदेत इत्यर्थः ॥ १७ ॥ (टीका.) तथा धुव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। तथा ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिनोगे च तस्मिन् प्रत्युपेदेत सिद्धान्तविधिना योगे सति सति सामर्थे अन्यूनातिरिक्तम् । किं तदित्याह । पात्रकम्बलम् । पात्रग्रहणादलाबुदारुमयादिपरिग्रहः। तथा शय्यां वसति हिकालं त्रिकालं च उच्चारनुवं चानापातवदादि स्थंडिलं तथा संस्तारकं तृणमयादिरूपमथवासनमपवादगृहीतं पीठका। दि प्रत्युपेदेतेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ जच्चारं पासवणं, खेलं सिंघालिअं॥ फासुअं पडिलेदित्ता, परिहाविज संजए॥ १७॥ (अवचूरिः) उच्चारं प्रस्त्रवणं श्लेष्म सिंघाणं जवं एतानि प्रासुकं प्रत्युपेय स्थं. मिलं परिष्ठापयेत् संयतः ॥ १७ ॥ (अर्थ.) तेमज उच्चारं इत्यादि सूत्र. ( संजए के० ) संयतः एटले साधु जे ते " (फासुओं के०) प्रासुकं एटले श्रचित्त एवा स्थंडिलने (पडिले हित्ता के० ) प्रत्यु" पेक्ष्य एटले पडिलेहीने तेने विषे (उच्चारं के०) उच्चारं एटले वडीनीति प्रत्ये, (पासवणं के) प्रस्रवणं एटले लघु नीति प्रत्ये, ( खेलं के० ) श्लेष्म एटले खासी विगेरेथी नीकलता कफ प्रत्ये, तथा ( सिंधाणजविरं के०) सिंघाणजवं एटले ना. कना थने कानना मल प्रत्ये (परिहाविजा के०) परिस्थापयेत् एटले परउये. ॥१॥ पनि (दीपिका.) पुनः साधुः किं कुर्यादित्याह । संयतः साधुः एतानि परिष्ठाच के पुत्सृजेत् । किं कृत्वा । प्रासुकं स्थं डिलमिति शेषः । प्रत्युपेक्ष्य। एतानि कानीत्याह । सुखे उच्चारं १ प्रस्रवणं ५ श्लेष्म ३ सिंहाणजाचं च एतानि सर्वाणि प्रसिझानि ॥ १७ ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (टीका.) तथा जच्चारं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। उच्चारं प्रस्रवणं श्लेष्म सिं. घाणजसमिति प्रतीतानि । एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य । स्थंडिल मिति वाक्यशेपः। परिस्थापयेत्स्टजेदिति सूत्रार्थः ॥ १७॥ पविसित्तु परागारं, पाणहा नोअपस्स वा॥ . जयं चिठे मिश्र नासे, न य रूवेसु मणं करे॥१५॥ (अवचूरिः) वसतिविधिरुक्तः। अथ गोचरप्रवेश विधिमधिकृत्याह । प्रविश्य परागारं परगृहं पानाथ नोजनार्थ वा ग्लानादेरौषधार्थ वा यतं तिष्ठेत् । गवादादीनि नावलोकयेत् । मितं नापेतागमनकार्यादि यतनया । न च रूपेषु मनः कुर्यात् । रूपग्रहणं रसायुपलक्षणम् ॥ १५ ॥ .. (अर्थ. ) उपाश्रयमां शीरीते रहेवू ते कडं. हवे गोचरीए जता साचववानो वि. धि कहे . पविसित्तु इत्यादि सूत्र. गोचरीए गएल साधु जे ते (पाणहा के०) पानार्थ एटले जलादिकने अर्थे (वा के०) अथवा ( नोयणस्स के ) नोजनस्य ए. टले नोजनने अर्थे अथवा ग्लान प्रमुख साधुना औषधने अर्थे (परागारं के०) प. रागारं एटले पारका गृहस्थना घर प्रत्ये (पविसित्त के) प्रविश्य एटले प्रवेश करीने (जयं के) यतं एटले यतनाए (चिठे के०) तिष्ठेत् एटले उन्ना रहे, (मिश्र के०) मितं एटले परिमित (नासे के०) जात एटले बोले, (च के ) तथा (रूवेसु के रूपेषु एटले गृहस्थनी स्त्रीप्रमुखना रूपने विषे (मणं के) भनः एटले मन प्रत्ये (न करे के ) न कुर्यात् एटले न करे. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) इति उपाश्रयस्थानविधिरुक्तः । अथ गोचरप्रवेशनमाश्रित्य आह । साधुः यतं यतनया गवादादिविलोकनेन विना उचितदेशे तिष्ठेत् । किं कृत्वा । परस्य गृहस्थस्य अगारं गृहं पानार्थं नोजनस्य वा ग्लानादेरौषधार्थं वा प्रविश्य पुनः साधुमितं यतनया नाषेत आगमनप्रयोजनादि । परं न च रूपेषु दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात्। एवंनूतानि एतानि इति न मनो निवेशयेत् । रूपग्रहणेन रसादयोऽपि ग्राह्याः ॥१५॥ (टीका.) उपाश्रयस्थान विधिरुक्तो गोचरप्रवेशमधिकृत्याह । पविसित्तु सूत्रम् । प्रविश्य परागारं परगृहं पानार्थं नोजनस्य ग्लानादेरौषधार्थ वा यतं गवादकादीन्य.. नवलोकयन् तिष्ठेषुचितदेशे। मितं यतनया नाषेत आगमनप्रयोजनादीति । नच , रूपेषु दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात् । एवंचूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत् । रूपः ग्रहणं रसाधुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। एए बहुं सुणेहि कन्नेहिं, बहुं अनीदि पिच॥ नय दिलं सुअं सवं, जिस्कू अकाउमरिहः ॥२०॥ (अवचूरिः ) गोचरगतः केनचित्पृष्टः सन्नित्येवं ब्रूयात् । किमित्याह । वहु अनेकप्रकारं शोजनाशोलनं शृणोति कर्णान्याम् । शब्दजातमिति गम्यते। वहु शोजनाशोजनम दिन्यां पश्यति रूपजातम् । न च दृष्टं श्रुतं सर्वं स्वपरोनयाहितं । श्रुता ते पत्नी रुदतीत्येवमादि । निकुराख्यातुमर्हति । चारित्रोपघातित्वादहति च स्वपरोनयहितं दृष्टस्ते राजानमुपशमयन् शिष्य इत्यादि ॥२०॥ (अर्थ.) गोचरी प्रमुख कार्यने अर्थे गृहस्थने घरे गएल साधुने कोश् एवो प्रश्न करे तो श्रारीते उत्तर आपवो, एम कहे जे. बहुं इत्यादि सूत्र, (निस्कू के) निकुः एटले साधु जे ते (कन्नेहिं के०) कणैः एटले कानवडे ( बहुं के०) बहु एटले घj शुज तथा अशुल ( सुणे के०) शृणोति एटले सांजले. तेमज (बलु के) बहु एटले घणुं शुन तथा अशुन (अबीहिं के०) अदिनिः एटले आखवडे (पिछ के) पश्यति एटले जुवे, पण (दिहं के०) दृष्टं एटले दीठेवू तथा (सुअं के०) श्रुतं ए. टले सांजलेलु ( सवं के०) सर्व एटले सर्व शुनाशुन प्रत्ये (अरका के०) आख्यातुं एटले प्रकट कहेवाने (न अरिह के) नार्हति एटले योग्य नथी. ॥ २० ॥ (दीपिका.) अथ गोचरादिगत एव साधुः केनचित् तथाविधं पृष्टः किं ब्रूयादित्याह । अथवा साधुः उपदेशस्य अधिकारे सामान्येन एवमाह । वहु अनेकप्रकारं शोजनमशोजनं च साधुः शृणोति कर्णाच्यां शब्दसमूह मिति शेषः। तथा वहु अनेकप्रकारमेव शोजनमशोजनं च अहिन्यां पश्यति । रूपसमूह मिति शेषः । परं न च दृष्टं श्रुतं सर्व खस्य परस्य जजयस्य च अहितमपि तव पत्नी रुदतीत्येवमादिकं निकु. राख्यातुं कथयितुं न अर्हति चारित्रस्य घातात् । अर्हति च स्वपरोनयहितं दृष्टस्तें शिष्यो राजानमुपशामयन् । एतादृशं तु वचनं कथयेत् ॥ २० ॥ (टीका.) गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्ट एवं ब्रूयादित्याह । वहु त्ति र सूत्रम् । श्रथवा उपदेशाधिकारे सामान्येनाह । बहु त्ति सूत्रम् । वह्वनेकप्रकारं । शोजनाशोननं शृणोति कर्णान्यां शब्दजातमिति गम्यते। तथा वह्वनेकप्रकारमेव - शोननाशोननन्नेदेनादिन्यां पश्यति रूपजातमिति गम्यते । एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्व । स्वपरोनया हितमपि श्रुता ते रुदती पत्नीत्येवमादि जिकुराख्यातुमर्हति चारित्रोपघातात् । अर्हति च स्वपरोजयहितं दृष्टस्ते राजानमुपशामय शिष्य इति सूत्रार्थः ॥२०॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. सुखं वा जइ वा दिछं, न लविकोववाच्यं ॥ नय के जवाएणं, गिदिजोगं समायरे ॥ २१ ॥ ( अवचूरिः ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । श्रुतमन्यतो वा यदि वा दृष्टं स्वयमेव नालपेन जातोपघातिकमुपघात निर्वृत्तं तत्फलं वा औपघातिकं यथा चौरस्त्वमित्यादिरूपम् । न च केनचिडुपायेनोपरोधादिना गृहियोगं समाचरेत् २१ ॥ ( अर्थ. ) उपर कही तेज वात स्पष्ट कहे वे सुयं इत्यादि सूत्र ( उवघा इथं ho ) औपघातिकं एटले उपघातथी यएली अथवा उपघात जेथी थाय एवी वात ( सुखं के० ) श्रुतं एटले सांजली होय, (जश्वा के० ) यदिवा एटले अथवा ( दि. हं के० ) दृष्टं एटले दीठी होय, तो पण साधु जे ते ते वात प्रत्ये ( न लवि के० ) नालपेत् एटले न बोले, तेमज ( केण उवाएण के० ) केनचिदुपायेन एटले कोश पण प्रकारे सूक्ष्म जंगश्री पप ( गिहिजोगं के० ) गृहियोगं एटले गृहस्थनी साथे ना बालकने रमाडवा प्रमुख संबंध अथवा आरंभ समारंभरूप गृहस्थनो व्यापार पण साधु जे ते ( नय समायरे के० ) नच समाचरेत् एटले न करे. ॥ २१ ॥ ( दीपिका . ) पुनरेतदेव स्पष्टयन्नाह । साधुः श्रुतं वा अन्यतः यदि वा दृष्टं वा स्वयमेव वा एतादृशं वचनं न लपेत् न जाषेत । कीदृशं वचनमौपघातिकमुपघातेन निर्वृ तं तत्फलं वा पघातिकं यथा त्वं चौर इत्यादि । अतोऽन्यत् लपेदपीति गम्यते । तथा नच केनचिडुपायेन सूक्ष्मयापि जंग्या गृहियोगं गृहिसंबंधं तद्वालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापारं प्रारम्नरूपं समाचरेत् कुर्यात् नचेति ॥ २१ ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । सुखं ति सूत्रम् । श्रुतं वा अन्यतः यदि वा दृष्टं खयमेव नापेन जाषेत । औपघातिकमुपघातेन निर्वृत्तम् । तत्फलं वा । यथा चौरस्त्वमि त्यादि । तो नालपेदपीति गम्यते । तथा नच केनचिदुपायेन सूक्ष्मयापि नङ्ग्या गृः हियोगं गृहिसंबन्धं तद्वालग्रहणादिरूपं गृहिव्यापारं वा प्रारम्नरूपं समाचरेत् कु. र्यान्नैवेति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ निठाणं रसनिगूढं, जहगं पावगं ति वा ॥ पुठो वा विपुवा, लाभालानं न निद्दिसे ॥ २२ ॥ ( अवचूरिः ) निष्ठानं सर्वगुणोपेतं संनृतमन्नं । रस निर्व्यूढं तद्विपरीतं कदशन मि त्यर्थः । एतदाश्रित्याद्यं नकं द्वितीयं पापकमिति पृष्टः परेण पृष्टो वा स्वयमेव ला जालानं न निर्दिशेदद्य साधु लब्धमसाधु वा शोजनमिदं नगरमशोजन मिति वा ॥ १२ ॥ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . - . a दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । . ५०१ (अर्थ.) वली निहाणं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( पुछो के० ) पृष्टः एटले कोश पूछे तो पण ( वावि के) वापि एटले अथवा ( अपुछो केन्) अपृष्टः एटले कोश न पडे तो पण (निहाणं के) निष्ठानं एटले सर्व गुण वडे युक्त एवा सरस आहार प्रत्ये ( जद्दगं के० ) नमकं एटले सारो एम न कहे, (वा के०) अथवा (र. सनियूढं के०) रस निर्मूढं एटले नीरस आहार प्रत्ये ( पावगं के०) पापकं एटले खराव जे एम न कहे. तथा आजे केवो लाल थयो, एम कोश पूजे अथवा न पूछे तो पण (लानालानं के०) लानालानं एटले मिष्टान्न प्रमुखनी प्राप्ति तथा प्राप्तिनो अनाव ए वनेने (न निदिसे के०) न निर्दिशेत् एटले न कहे. अर्थात् आजे सारो आहार मख्यो, अथवा नहि मल्यो इत्यादि वचन न बोले. ॥ २ ॥ (दीपिका.) पुनः किंचसाधुनिष्ठानादेानमलानं च न निर्दिशेत् । किमाश्रित्य । निष्ठानं सर्वगुणैः सहितं रसनियूंढमेतछिपरीतं कदशनमेतदाश्रित्यायं नमकं द्वितीयं पापकमिति वा । किं साधुः । पृष्टः केनापि कीदृग् लब्धमिति पृष्टो न निर्दिशेत् । अद्य साधु लब्धमसाधु वा कथं शोजनमिदमशोननं वा इदं नगरम् ॥ २२ ॥ (टीका.) किं च णिहाणं ति सूत्रम् । निष्ठानं सर्वगुणोपेतं संतृतमन्नरसं निएंढहमेतहिपरीतं कदशनम् । एतदाश्रित्यायं नजकं द्वितीयं पापकमिति वा । पृष्टो वापि परेण कीदृग् लब्धमिति । अपृष्टो वा स्वयमेव लानालानं निष्ठानादेन निर्दिशेदद्य साधु लब्धमसाधु वा शोजनमिदमपरमशोननं चेति सूत्रार्थः ॥ २२॥ न य नोअमि गिधो, चरे जंबं अयंपिरो॥ अफासुअंन मुंजिका, कीमुद्देसिश्रादडं ॥२३॥ रस्त (श्रवचूरिः ) नच नोजने गृधः सन् विशिष्टवस्तुलानायेश्वरादिकुलेषु मुखमंगजुन्या लिकया चरेत् । अपितु जं ज्ञाताशातकुलेषु अजत्पन् धर्मलाजमामात्रानिधायी चरेर चरेत् । तत्रापि अप्रासुकं सचित्तमिश्नादि कथं चिगृहीतमपि न जुञ्जीत । क्रीत. मौदेशिकाहृतं प्रासुकमपि न तुञ्जीत ॥ २३ ॥ (अर्थ.) न य इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (नोयणं मि के०) नोजने एटले नोज। नने विपे ( गिझो के0 ) गृहः एटले घणी गृद्धिवालो, लालचू यश्ने सारी वस्तुना लानने श्रर्थे धनवंत श्रावकोनाज घरे (न चरे के०) न चरेत् एटले न जाय. तो (थकदश यं पिरो के) अजल्पनशीलः एटले वृथा वकवानुं मूकी देनारा एवा साधु जे ते (जंठं व्यमा के) उठं एटले जावथी कांश्क ज्ञात अने कांक अज्ञात कुल प्रत्ये ( चरे के०) . AA Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३)-मा. चरेत् एटले जाय. (फासु के० ) प्रासुकं एटले प्रासुक न होय सचित्त होय एव वस्तु कोइ पण ते ग्रहण करवामां घ्यावी होय तो पण ( न खुंजिका के० ) न भुञ्जीत एटले नक्षण न करे, तेमज ( कीत्र्यं के० ) क्रीतं एटले वेचाथी लावेल वस्तु तथा ( उदेसि के० ) औदेशिकं एटले साधुना उद्देशश्री तैयार करेल वस्तु प्रत्ये पण क्षण न करे. ॥ २३ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किं । साधुर्भोजने गृद्धः सन् प्रधानवस्तुप्राप्तिनिमितं धनसमृद्धानां गृहे मुखमंगलिकया न चरेत् । अपितु उंठं जावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पनशीलः सन् धर्मलानमात्रकथकः सन् चरेत्तत्रापि अप्रासुकं सचित्तं सन्मिश्रादिकं कथं - चिङ्गृहीतमपि न जुञ्जीत । अथवा की तमौद्देशिकमाहृतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत ॥ २३ ॥ ( टीका. ) किं च न यत्ति सूत्रम् । नच जोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुलानायेश्वरादिकुलेषु मुखमंगलिकया चरेत् । श्रपितु कंठं जावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पनशीलो धर्मला मात्रा निधायी चरेत् । तत्राप्यप्रासुकं सचित्तं सन्मिश्रादि कथं चिङ्गृहीतम पि नञ्जीत । तथा क्रीतमौदेशिकाहृतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत । एतद्विशोध्य विशोधिकोट्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ संनिहिं च न कुविका, मायं पि संजए ॥ मुदाजीवी संब, दविक जगनिस्सिए ॥ २४ ॥ ( अवचूरि :) ) संनिधिं च प्रानिरूपितरूपं न कुर्यादणुमात्रमपि संयतः । मुधाजीवीतिपूर्ववत् । असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवङ्गृहस्थैः । एवंभूतः सन् नवेागन्निश्रितश्चराचररक्षणप्रतिबद्धः ॥ २४ ॥ (अर्थ) संनिहिं इत्यादि सूत्र. ( संजए के० ) संयतः एटले साधु जे ते (श्र मायं पि ० ) अणुमात्रमपि एटले किंचिन्मात्र पण ( संनिहिं के० ) संनिधिं एटले पूर्वे कल संनिधि प्रत्ये ( न कुविजा के० ) न कुर्यात् एटले न करे. तेमज साधु जे ते (मुहाजीवी के० ) मुधाजीवी एटले सर्व सावद्य व्यापारना वर्जक, (असंबद्धे के ० ) असंबद्धः एटले कमलपत्र उपर रहेला जलनी पेठे कोइ पण ठेकाणे आसक्ति न रा खनाराने ( जग निस्सिए के० ) जगन्निश्रितः एटले स्थावरजंगमात्मक जगत्ना रक्षण करनारा एवा ( हवि के० ) जवेत् एटले थाय ॥ २४ ॥ ( दीपिका. ) पुनः किंच। संयतः साधुः संनिधिं च प्रा निरूपितस्वरूपं न कुर्यात्। अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि । किं० संयतः । मुधाजीवी । श्रर्थः पूर्ववत् । पुनः किं० सं. 1 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ५७३ यतः । श्रसंवद्धः गृहस्थैः नलिनीपत्रोदकवत् । एवंनूतः सन् नवेत् जगनिश्रितः चराचरसंरक्षणप्रतिवद्धः ॥२४॥ (टीका.) संनिहिं ति सूत्रम् । संनिधिं च प्रानिरूपितस्वरूपं न कुर्यात् । अणुमात्रमपि स्तोकमपि संयतः साधुः । तथा मुधाजीवति पूर्ववत् । असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवगृहस्थैः। एवंचूतः सन् नवेजगनिश्रितश्चराचरसंरक्षणप्रतिवक इति सूत्रार्थः ॥२॥ लूद वित्ती सुसंतुठे, अप्पिने सुहरे सिया॥ आसुरतं न गबिजा, सुच्चा एवं जिणसासणं ॥२५॥ (अवचूरिः ) रूदैर्ववचणकादिनिवृत्तिर्यस्येति । सुसंतुष्टो येन तेन वा संतोषगामी अल्पेठो न्यूनोदरतयाऽल्पाहारः अदपेन्चत्वानिदादौ सुनरः स्यात् । आसुरत्वं क्रोधनावं न गछेत् । श्रुत्वा जिनशासनं क्रोधविपाकप्रतिपादकमचनम् ॥ २५ ॥ (अर्थ.) वली चूह वित्ती इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (बूहवित्ती के०) रूदवृत्तिः एटले वाल, चोला प्रमुख खूखो आहार करनारा, (सुसंतुके के०) सुसंतुष्टः एटले घणा संतोषी, (अप्पि के०) अटपेडः एटले ऊनोदरी विगेरे कारणने लीधे अल्प श्छा वाला अने (सुहरे के ) सुजरः एटले सुखथी कोश्ने पण उपजव थया विना जेमनुं नरण पोषण थाय एवा (सिआ के०) स्यात् एटले होय. तेमज साधु जे ते (जिणसासणं के०) जिनशासनं एटले क्रोधना परिणाम केहनार जिनशास्त्र प्रत्ये .. (सुच्चा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (आसुरत्तं के०) आसुरत्वं एटले क्रोध प्रत्ये (न गठिजा के०) न गछेत् एटले न जाय.॥२५॥ (दीपिका.) किं साधुः । आसुरत्वं चक्रोधनावं न गरेत् । किं कृत्वा । जिनशासनं .. श्रुत्वा । क्वचित स्वपक्षादौ क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनमाकर्ण्य । किं० साधुः। रूदवृत्तिः रूदैर्ववचणका दिनिर्वृत्तिरस्य इति रूवृत्तिः । पुनः किंनूतः साधुः । सुसं. तुष्टः येन केन संतोषगामी । पुनः किं साधुः अल्पेठः न्यूनोदरतया आहारपरित्यागी सुनरः स्यात् अल्पेठत्वात् । एवं निदादौ इति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः । रूक्षवृत्तिः स्यात् इति ॥ २५ ॥ (टीका.) किंच खूह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। रूदैर्वसचणकादिनिवृत्तिर"स्येति रूदवृत्तिः । सुसंतुष्टो येन वा तेन वा संतोषगामी । थपेठो न्यूनोदरतया हारपरित्यागी सुत्नरः स्यात् । अल्पेठत्वादेव पुनिंदादाविति । फलं प्रत्येकं वा स्यानदिति क्रियायोगः । रूदवृत्तिः स्यादित्यादि । तथा सुरत्वं क्रोधनावं न गठेक्कचित् . X. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५०४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा. स्वपक्षादौ श्रुत्वा जिनशासनं क्रोध विपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनम् । जहा चहिं ग ऐहिं, जीवा असुरत्ताए कम्मं करेंति । तं जहा । कोहसीलयाए पाहुडसी लयाए जहा ठाणे जाव जंं मए एस पुरिसे प्राणी मित्रादिही कोसर हर वा तं मे एस किंचि वरन ति । किंतु मम एयाणि वयणिद्याणि कम्माणि श्रवरनंति ति । सम्ममहियासमाणस्स निकरा एवं नविस्सर त्ति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ कन्नसुरकेहिं सहिं, पेमं नानिनिवेस ॥ दारुणं कक्कसं फासं, कारण हासए ॥ २६ ॥ ( श्रवचूरि : ) कर्णसौख्य हेतवः कर्णसौख्याः शब्दा वेणुवीणादिसंबंधिनस्तेषु प्रेम रागं नानिनिवेशयेत् । दारुणमनिष्टं कर्कशं कठिनस्पर्शमुपनतं । कायेनाधिसहेत न तत्र द्वेषं कर्यात् । श्रनेनाद्यंतयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वक्तव्यः ॥ २६ ॥ ((.) तेमज कन्नसुरके हिं इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( कन्नसुरके हिं के० ) कर्ण - सौख्यैः एटले श्रवणेंद्रियने सुख उपजावनारा एवा ( सदेहिं के० ) शब्दैः एटले वेणु वीणा प्रमुख वाद्यादिकना शब्द सांजली तेना उपर ( पेमं के० ) प्रेम एटले प्रेमराग प्रत्ये (नानिनिवेस के०) नानिनिवेशयेत् एटले न करे. तथा (दारुणं के० ) दारुणं ए निष्ट एवा तथा ( कक्कसं के० ) कर्कशं एटले कठिन एवा ( फासं के० ) स्पर्श एटले प्राप्त एल स्पर्शादिक प्रत्ये ( अहियासए के० ) अधिसदेत एटले सहन करे. अर्थात् इष्ट अथवा अनिष्ट इंद्रिय विषय उपर रागद्वेष न करे. ॥ २६ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किं । साधुः शब्देषु वेणुवीणासंबंधिषु न प्रेम अनिनिवेशेयत् । न तेषु रागं कुर्यादित्यर्थः । किंनूतेषु शब्देषु । कर्णयोः सौख्य हेतुषु । पुनः किं० साधुः । स्पर्श प्राप्तं सन्तं कायेन श्रतिसदेत न तत्र द्वेषं कुर्यात् । किंभूतं स्पर्शम्। दारुणं रौद्रमनिष्टमित्यर्थः । पुनः किं० स्पर्शम् | कर्कशं कठिनम् । अनेन याद्यंतयोर्द्वयो रागद्वेषयोः निवारणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वक्तव्यः ॥ २६ ॥ ( टीका. ) तथा कम त्ति सूत्रम् । कर्णसौख्य हेतवः कर्णसौख्याः शब्दा वेणुवीणादिसंबन्धिनस्तेषु प्रेम रागं न अनिनिवेशयेत् न कुर्यादित्यर्थः । तथा दारुणमनिष्टं क र्कशं कठिनं स्पर्शमुपनतं सन्तं कायेनातिसदेन्न तत्र द्वेषं कुर्यादित्यनेनाद्यन्तयोरागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वेदितव्य इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक (अर्थ. ) वली खुद इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( वहि के० ) अवहितः एटले जेना मनमां दैन्य नथी एवो थयो बतो ( खुदं के० ) दुधं एटले मूख प्रत्ये, ( पिवासं के० ) पिपासां एटले तृषा प्रत्ये, (पुस्सि के० ) दुःशय्यां एटले विषम भूमिने विषे सुवा रूप दुःशय्या प्रत्ये, ( सीउन्हं के० ) शीतोष्णं एटले शीत अने उष्ण प्रत्ये, (अर के० ) अरतिं एटले मोहनीय कर्मना उदयथी उत्पन्न थली - गो रति प्रत्ये, तथा ( जयं के० ) जयं एटले व्याघ्र विगेरेथी उत्पन्न यएल जय प्रत्ये, ( हासे ० ) अधिसहेत एटले सहन करे, खमे. कारण के, ( देहडुक्खं के० ) देहःखं एटले देह बतां देहयी उत्पन्न यतुं दुःख सहन करवुं ते ( महाफलं के० ) महाफलं एटले मोटुं मोद रूप फल आपनारुं एवं बे. ॥ २७ ॥ 10 स मरा ( दीपिका . ) किंच संसारे तत्सर्वमधिसदेत । तत् किमित्याह । कुधं बुजुकां, पिएं। पासां तृपं दुःशय्यां विषमनूम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रसिद्धम्, अरतिं मोहनीयकस मझवां, जयं व्याघ्रादिसमुद्भवम् । किंभूतः साधुः । अव्यथितः श्रदीनमनाः सन् देह' दुःखं महाफलं संचिन्त्य इति शेषः । तथा च शरीरे सति एतत् पुखं शरीरं वा सम्यक् प्रतिसह्यमानं च मोकफलमेवेदमिति ॥ २७ ॥ वेपुरी एम निः दशवेकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । खुदं पिवास पुरिस, सीनन्दं परई जयं ॥ हिच्या वहिन, देहड़कं महाफलं ॥ २७ ॥ " H". ५०५ ( यवचूरिः) कुधम् । शीतोष्णौ प्रतीतौ । रतिं मोहनीयोद्भवां जयं व्याघ्रादिसमुछम तिस ताव्यथितोऽदीनमनाः सन् देहदुःखं महाफलमिति संचिन्त्येति शेषः ॥ २७ ॥ ( टीका. ) किं च खुहं पित्ति सूत्रम् । कुधं बुदां पिपासां तृपं दुःशय्यां विपमभूम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रतीतमरतिं मोहनीयोद्भवां जयं व्याघ्रादिसमुहमतिसहेदेतत्सर्वमेव । श्रव्यथितोऽदीनमनाः सन् देहःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतद्दुःखं शरीरं वा सारं सम्यगतिसह्यमानं च मोक्षफलमेवेदमिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ अचं गयंमिच्याइच्चे, पुरवा अणुग्गए ॥ आहारमाश्यं सवं, मासा वि ण पत्रए ॥ २८ ॥ ( अवचूरिः ) अस्तं गत यादित्ये संध्यायां पुरस्ताच्चानुमते प्रत्युपसि थाहारात्मकं सर्वं न प्रार्थयेद् मनसापि ॥ २८ ॥ ૪ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अर्थ. ) वली अळ इत्यादि सूत्र. आदित्ये एटले सूर्य जे ते (अठं गयंमि के०) अस्तं गते एटले आथमे बते ( अ के०) च एटले पुनः ( पुरठा अणुग्गए के) पुरस्तादनुजते एटले प्रजात समये फरिथी न जगे त्या सूधी ( सवं के०) सर्व एटले संपूर्ण (आहारमाश्यं के ) आहारात्मकं एटले चतुर्विध थाहार रूप वस्तु प्रत्ये (मणसा वि केण) मनसापि एटले मने करीने पण (न पचए के०) न प्रार्थयेत् एटले श्छे नहि. ॥ २७ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः आहारात्मकं सर्वमाहारजातं समस्तमेवं सति मनसापि न प्रार्थयेत्। किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति। एवं सतीति किम् । श्रादित्ये सूर्येऽस्तंगतेऽस्तपर्वतं प्राप्तेऽदर्शनीनूते वा पुरस्ताच्च अनुमते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः ॥ २७ ॥ (टीका.) किंच अळ ति सूत्रम् । अस्तं गत आदित्ये अस्तपर्वतं प्राप्ते अदर्शनीजूते वा पुरस्ताच्चानुमते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः । आहारात्मकं सर्व निरवशेषमा. हारजातं मनसापि न प्रार्थयेत् । किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ अतिंतिणे अचवले, अप्पनासी मिश्रासणे॥ . - हविज नअरे दंते, थोवं लडुं न खिसए ॥२५॥ (अवचूरिः) अतिंतिणो नामालानेऽपि नेषयत्किंचनजाषी । अचपलः स्थिरः। अल्पनाषी कारणेऽपि मितजाषी। मिताशनो मितनोक्ता । एवंनतो लवेदरेदान्तो येन तेन वाहारेण तृप्तः। स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेद् देयं दातारं वा न हीलयेत् ॥५॥ (अर्थ.) दिवसे पण कदाच आहार न मले तो शुं करवू ते कहेले. अतितिणे इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (अतिंतिणे के०) अतिंतिणः एटले आहार न मले तो पण किंचिन्मात्र पण न बोलनारा एवा, (अचवले के०) अचपलः एटले सर्व स्था; नके स्थिर एवा, (अप्पनासी के ) श्रदपनाषी एटले कारण पडे परिमित बोल: नारा एवा, (मियासणे के०) मिताशनः एटले परिमित जोजन करनारा एवा तथा (जअरे दंते के०) उदरे दान्तः एटले पोतानुं पेट पोताना वशमां राखनारा अर्थात् नीरस, तुब जेवो आहार मले तेवा आहार उपर निर्वाह करनारा एवा (हावजी के ) नवेत् एटले थाय, पण (थोवं के०) स्तोकं एटले अल्पमात्र आहारादिक वस्तु प्रत्ये (लई के०) लब्ध्वा एटले पामीने ( न खिसए के) न खिंसयेत् एटले दाता रनी अथवा मलेली वस्तुनी हीलना न करे. ॥ ए॥ । (दीपिका.) दिवालच्यमानेऽपि आहारे किमित्याह । साधुः श्रतिन्तिणोनवेत्।अ. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५०७ तिन्तिणों नाम अलानेऽपि न यत्किंचननाषी। तथासाधुः अचपलो.नवेत् । सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा अल्पनापी नवेत् कारणे परि मितवक्ता। तथा मिताशनो लवेत् । मितनोजी स्यात् । तथा। उदरे दांतः येन वा तेन वा वृत्तिशीलः। तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेद् देयं दातारं वा न हीलयेत् ॥ ए॥ - (टीका.) दिवाप्यलनमान आहारे किमित्याह । अतितिणेत्ति । अति न्तिणोजवेत् । अतिन्तिणो नामालालेपि नेषयत्किंचनन्नाषी। तथा अचपलो नवेत् । सर्वत्र स्थिर श्त्यर्थः । तथा अल्पजापी कारणे परिमितवक्ता। तथा मिताशनो मितनोक्ता नवेदित्येवंचूतो जवेत् । तथा उदरे दान्तो येन वा तेन वा वृत्तिशीलः। तथा स्तोकं लब्ध्वा न खिसयेत् । देयं दातारं वा न हीलयेदिति सूत्रार्थः ॥ २५॥ न बाहिरं परिनवे, अत्ताणं न समुक्कसे ॥ सुअलाने न मजिजा, जच्चा तवस्सिहिए ॥ ३०॥ (श्रवचूरिः) न बाह्यं खतोऽन्यं परित्नावयेत् । शात्मानं न समुत्कर्षयेत् । श्रुतलानान्यां न मायेत । जात्या तपसि बुझिविषये । उपलक्षणं चैतत्कुलवलरूपाणाम् ॥३॥ (श्रर्थ.) साधुए मद न करवो, ते माटे कहे. न वाहिरं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (वाहिरं के०) वाह्यं एटले पोताथी अन्य एवा कोश् पण जीवने (न परिनवे क०) न परिलवेत् एटले तिरस्कार न पमाडे, धिकारे नहि. तेमज (अत्ताणं के०) श्रात्मानं एटले पोताने (न समुक्कसे के०) न समुत्कर्षयेत् एटले मोटो गणे नहि. अर्थात् हुं केवो उत्कृष्ट ९, एम न माने. तथा (सुअलाने के०) श्रुतलानाच्यां एटले श्रुतज्ञा. नयी हुँ पंडित , एवो अने जोश्ये ते वस्तुनो लान थवाथी हुँ लब्धिमान् हुँ, एवो (न महिला के०) न मायेत एटले मद न करे, तेमज (जच्चा के०) जात्या एटले । जातिवडे, ( तवस्सि के०) तपखित्वेन एटले तपवडे तथा ( बुद्धिए के०) बुद्ध्या ६ एटले बुद्धिवडे पण मद न करे. ॥ ३० ॥ वा (दीपिका.) मदवर्जनार्थमाह। न वाह्यमात्मनोऽन्यं परि जवेत् सामान्येन श्यनूतो ऽहमिति।तथा श्रुतलानाच्यां श्रुतेन श्रुतझानेन लानेन याहारादिप्राप्त्या न मायेत। प. ही कितोऽहं लब्धिमानह मिति। तथा जात्या तापस्येन बुड्या वा न मायेतायथा यहं जा. कर तिसंपन्नः,थहं तपस्वी, यहं बुद्धिमान् इत्येवम् । उपलक्षणं च एतत् कुलवलरूपाणाम् । ने यथा कुलसंपन्नोऽहं, वलसंपन्नोऽहं, रूपसंपन्नोऽहम् इत्येवं न मायेतेत्यर्थः ॥ ३०॥ ( टीका.) मदवर्जनार्थमाह । न वाहिरं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न वा Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ह्यमात्मनोऽन्यं परिनवेत् । तथा आत्मानं न समुत्कर्पयेत् । सामान्येनेठंजूतोऽहमिति । श्रुतलाजाच्यां न मायेत पछिकतो लब्धिमानहमित्येवं । तथा जात्या तपखित्वेन बुद्ध्या वा न मायेतेति वर्त्तते । जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवमु. पलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणाम् । कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न मायेतेति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ . से जाणमजाणं वा, कटु आदम्मिश्र पयं ॥ .. संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअंतं न समायरे ॥३१॥ - (श्रवचूरिः) स साधुत्विाज्ञात्वा जोगतोऽनानोगतश्च कृत्वाऽधार्मिकं पदं राग. पान्यां मूलोत्तरगुणविराधनां संवरेत् क्षिप्रमात्मानं नावतो निवालोचनादिना । द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ ३१ ॥ _ (अर्थ.) आनोगथी अथवा अनाजोगथी विराधना सेवे तो झुं करवू ते कहे. से इत्यादि सूत्र. ( से के०) सः एटले ते साधु जे ते (जाणं के०) जानन् एटले जाणता (वा के०) अथवा (अजाणं के०) अजानन् एटले अजाणता (आहम्मियं पयं के) अधार्मिक पर्द एटले कोइ पण प्रकारे राग वेषथी मूल गुणनी अथवा उत्तर गुणनी विराधना प्रत्ये (कद्दु के०) कृत्वा एटले सेवीने (खिप्पं के०) क्षिप्रं एटले शीघ्र (अप्पाणं के) श्रात्मानं एटले पोताना आत्माने (संवरे के०) संवरेत् एटले नावथी निवृत्त यश आलोचना प्रमुख करी संवरे, तथा (बीअं के०) हितीयं एटले बीजी (तं के०) तत् एटले ते विराधना प्रत्ये (न समायरे के०) न समाचरेत् एटले सेवे नहि ॥३१॥ (दीपिका.) अथ उघत आनोगानाजोगसेवितमर्थमाह । साधुः जानन् अजानन् वा आजोगतोऽनाजोगतश्चेत्यर्थः । आत्मानं क्षिप्रं जावतो निवृत्य आलोचनादिना प्रकारेण संवरेत् । किं कृत्वा अधार्मिकं पदं कथंचिद् रागद्देषान्यां मूलोत्तरगुण विरा• धनामिति नावः। परं न पुनहितीयं तत् समाचरेदनुबन्धदोषात् ॥ ३१ ॥ (टीका. ) उघत आजोगानाजोगसेवितार्थमाह । सेत्ति सूत्रम् । स साधुर्जानः नजानन् वा आनोगतोऽनानोगतश्चेत्यर्थः । कृत्वाधार्मिकं पदं कथंचिनागद्वेषाज्या मूलोत्तरगुण विराधनामिति जावः । संवरेत् दिप्रमात्मानं नावतो. निवालोचना दिना प्रकारेण तथा द्वितीय पुनस्तन्न समाचरेत् । अनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३१॥ : अणायारं परक्कम्म,नेव गृहे न निन्दवे ॥ सुई सया बियडनावे, असंसत्ते जिदिए ॥ ३२॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०ए दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । (अवचूरिः) अनाचारं सावद्ययोगं पराक्रम्यासेव्य गुरूणामन्त आलोचयेन्न निगृहेत् न निहुवीत । तत्र निगृहनं किंचित्कथनं निह्नवः सर्वथापलापः । शुचिरकलुपमतिः । सदा विकटन्नावः । असंसक्तोऽप्रतिवद्धः ॥ ३ ॥ (अर्थ.) हवे एज कहे ते. अणायार इत्यादि सूत्र. (सुई के०) शुचिः एटले जेनी मति मलिन नयी एवा, (सया के) सदा एटले निरंतर (वियडनावे के०) विकटनावः एटले प्रकट नावने धारण करनारा एवा, (असंसत्ते के०) असंसक्तः एटले कोपण ठेकाणे प्रतिबंध न राखनारा एवा तथा (जिदिए के) जितेन्जियः एटदे इंजियोने पोताना वशमा राखनारा एवा साधु जे ते (अणायारं के०) अनाचारं एटले सावध व्यापार प्रत्ये (परकम्म के०) पराक्रम्य एटले सेवीने गुरुनी पासे श्रालोए, पण (नेव गूहे के०) नैव गृहयेत् एटले आलोयणा करता किंचित्मात्र कहीने वाकी सर्व गुप्त न राखे. तेमज (न निन्हवे के०) न निढुवीत एटले सेवेला अनाचरने सर्वथा गुप्त पण न राखे. ॥ ३ ॥ (दीपिका.) पुनः एतदेवाह । साधुः अनाचारं सपापयोगं पराक्रम्य सेव्य गुरुसमीप बालोचयन्न निगृहेन्न निन्द्वीतेति । तत्र निगृहनं किंचित्कथनं निन्हवः सर्वथापलापः। किंजूतः साधुः। शुचिः। न कलुपमतिः। सदा विकटनावः प्रकटनावः । पुनः किंजूतः साधुः। असंसक्तः अप्रतिवद्धः कुत्रापि । पुनः किंनूतः साधुः। जितेजियः अप्रमादः सन् ॥ ३५ ॥ (टीका.) एतदेवाह श्रणायारं ति सूत्रम्।अनाचारं सावधयोगं पराक्रम्यासेव्य गुरुसकाश बालोचयन्नैव गूहयेन निढुवीत । तत्र गृहनं किंचित्कयनं निन्हव एकान्ततोऽपलापः । किंविशिष्टः सन्नित्याह । शुचिरकलुपितमतिः सदा विकटनावः प्रकटनावः। थसंसक्तोऽप्रतिवद्धः । कचिजितेन्द्रियो जितेन्द्रियप्रमादः सन्निति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ अमोहं वयणं कुडा, आयरिअस्स महप्पणो॥ तं परिगिप्न वायाए, कम्मुणा नववायए॥३३॥ (श्रवचरिः ) अमोघमवन्ध्यं वचनं कुर्यात् याचार्यस्य महात्मनः । तत्परिगृह्य वाचा मित्यन्युपगम्य कर्मणा उपपादयेत् क्रियया संपादयेत् ॥ ३३ ॥ । (थर्थ.) तेमज अमोहं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (महप्पणो के०) महात्मनः एटले श्रुतादि गुणे करी श्रेष्ट एवा (थायरिथस्स के०) याचार्यस्य एटले थाचार्यना (वयणं के०) वचनं एटले फलाएं काम कर, इत्यादि वचन प्रत्ये (यमोहं के०) Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. अमोघं एटले फोगट नहि अर्थात् फलवायूँ एबुं (कुजा के) कुर्यात् एटले करे, आचार्यनुं वचन फोगट नहि जवा देवू, फलवालुं करवू एम कयु. ते शी रीते ते क हे. (वायाए के०) वाचा एटले वाणीवडे (तं के) तत् एटले ते श्राचार्यना व. चन प्रत्ये (परिगिल के०) परिगृह्य एटले 'हाजी' कही अंगीकार करीने (कम्मु. णा के० ) कर्मणा एटले हस्तपादादिकनी क्रियावडे (उबवायए के) उपपादयेत् एटले संपादन करे, अर्थात् आचार्यजीए कडं होय ते प्रमाणे करे. ॥ ३३ ॥ (दीपिका.) पुनराह । साधुः आचार्याणां वचनमिदं कुर्वित्यादिरूपममोघं सफदं कुर्यात् । एवमित्यङ्गीकारेण । किंनूतानामाचार्याणां महात्मनां श्रुता दिनिर्गुणैस्तछचनं परिगृह्य वाचा एवमिति अङ्गीकारेण कर्मणा उपपादयेत् क्रियया संपादयेत् ॥३३॥ (टीका. ) तथा अमोहं ति सूत्रम् । अमोघमवन्ध्यं वचनमिदं कुर्वित्यादिरूपं कु. र्यादित्येवमन्युपगमेन । केषामित्याह । आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिनिर्गुणैस्तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यन्युपगमेन कर्मणोपपादयेत् । क्रियया संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३॥ अधुवं जीवि नच्चा, सिभिमग्गं विप्राणिआ॥ विणिअहित नोगेसु, अाजं परिमिअप्पणो ॥३४॥ . ( अवचूरिः) अध्रुवमनित्यं जीवितं ज्ञात्वा सिछिमार्ग सम्यग्विज्ञानादिरूपं विज्ञाय विनिवर्तेत नोगेज्य एवमप्यायुः परिमितं शतवर्षीणमात्मनो विज्ञाय निवर्तेत॥ ३४ ॥ .. (अर्थ.) श्रधुवं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते पोताना (जीविअं के०) जीवीतं ए. टले आयुष्यप्रत्ये (अधुवं के०) अध्रुवं एटले दणिक, घडी एकमां विनाश पामे एवं (नच्चा के) ज्ञात्वा एटले जाणीने तथा ( सिछिमग्गं के) सिधिमार्ग एटले ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रत्ये (विश्राणि के०) विज्ञाय एटले जाणीने तेमज कदाच (अप्पणो के) आत्मनः एटले पोतानुं (आलं के०) आयुः एटल श्रायुष्य पूरुं होय तो पण ते (परिमिश्र के०) परिमितं एटले सो वर्ष प्रमुख प्र. माणवायूँज डे एवं जाणीने (जोगेसु के०) जोगेन्यः एटले कर्मबंधना हेतु एवा विषयना नोगथी (विणिअहिज के०) विनिवर्तेत एटले निवृत्त थाय, दूर रहे. ॥३४॥ (दीपिका.) पुनराह साधुः। जोगेन्यः कर्मवन्धस्य हेतुच्यः निवर्तत । किं कृत्वा। जीवितमध्रुवमनित्यं मरणासन्नं ज्ञात्वा । पुनः किं कृत्वा । सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्शन चारित्रलक्षणं विझाय । तथा अध्रुवमपि आयुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन कि झाय यात्मनो निवर्तेत नोगेच्य इत्यर्थः ॥३४॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ५११ (टीका.) तथा अधुवं ति सूत्रम् । व्याख्या। अध्रुवमनित्यं मरणाशति जीवितं सवन्नाव निवन्धनं ज्ञात्वा। तथा सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्शनशानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत नोगेन्यो वन्धैकहेतुभ्यः । तथाध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विझायात्मनो विनिवर्तेत नोगेन्य इति सूत्रार्थः॥ ३४॥ वलं यामं च पेदाए, सामारुग्गमप्पणो॥ खित्तं कालं च विनाय, तदप्पाणं निझुंजए॥३५॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वढई॥ जाविंदिया न दायंति, ताव धम्म समायरे ।। ३६ ॥ (श्रवचूरिः) उपदेशाधिकारे प्रकान्त श्दमेव समर्थयन्नाह वलं मानसं, स्थाम शारीरं । श्यं गाथा लघुवृहकृत्तौ नोक्ता ॥ ३५ ॥ जरा यावन्न पीडयति । व्याधिर्यावन्न वईते । यावदिन्छियाणि न हीयन्ते । तावदत्रान्तरे धर्म समाचरेत् ॥ ३६॥ अर्थः-तेमज वलं इत्यादि सूत्र, साधु जे ते (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोतानी (वलं के०) वलं एटले इंडियनी शक्ति (थाम के) स्थाम एटले शरीरनी शक्ति (सदा के) श्रम एटले श्रद्धा (च के०) अने (आरुग्गं के०) आरोग्यं ए. टले थारोग्य अर्थात् तनपुरुस्ती प्रत्ये (पेहाए केप) प्रेय एटले जोश्ने (च के०) वली (तह के०) तथा एटले तेमज (खित्तं के) क्षेत्र एटले देत्र प्रत्ये, (कालं के०) कालं एटले कालप्रत्ये ( विन्नाय के०) विज्ञाय एटले जाणीने (अप्पाणं के०) थात्मानं एटले पोताने (निझुंजए के) नियुञ्जीत एटले कर्तव्यने विपे जोडे. ॥ ३५ ॥ जरा इत्यादि सूत्र. (जरा के०) जरा एटले वयनी हानि ते वृद्धपणुं जे ते (जाव के०) यावत् एटले ज्यां सुधी (न पीडे के) न पीडयति एटले पीडा, सुःख देतुं नयी, अर्थात् ज्यांसुधी बुढापुं श्राव्युं नथी. तेमज (वाही के०) व्याधिः एटले कामकाज करवानी शक्तिने क्षीण करनार एवो रोग जे ते (जाव के०) यावत् ( एटले ज्यांसुधी (न वह के०) न वर्धते एटले वृद्धि पामतो नयी, अर्थात् ज्यांसुधी ji रोग शरीर उपर जोर करतो नथी. तेमज (इंदिया के०) इंजियाणि एटले कामकाज करवानी शक्तिने साहाय्य करनार चनु प्रमुख इंजियो जे ते (जाव के०) यावत् एटले ज्यांसुधी (न हायंति के०) न हीयंते एटले दहीण, शक्ति विनाना यता नथी. अर्थात् ज्यांसुधी इंजियोनी शक्ति दीण यश् नथी. (ताव के०) तावत् एटसे त्यां सुधी (धम्मं के०) धर्म एटले धर्मप्रत्ये (समायरे के०) समाचरेत् एटले थाचरे ३६ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) उपदेशाधिकारे प्रकान्त इदमेव समर्थयन्नाह । साधुरात्मानं नियोजयेत् । किं कृत्वा । बलं मानसं स्थाम शारीरं प्रेक्ष्य विचार्य । पुनः श्रमामारोग्यमात्मनः पुनः क्षेत्रं कालं च विज्ञाय ॥ ३५ ॥ किं ज्ञात्वा आत्मानं नियोजयेत् इत्याह । साधुस्तावन्तं कालं धर्म चारित्रधर्म समाचरेत् । तावन्तं कियन्तं कालमित्याह । यावत् जरा वयोहानिरूपा न पीडयति । पुनर्यावत् व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्न वळते । पुनर्यावत् इन्द्रियाणि क्रियासामर्थ्यस्य उपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते । तावत् श्र. त्रान्तरे प्रस्ताव इति कृत्वा धर्म समाचरेत् ॥३६॥ (टीका.) उपदेशाधिकारे प्रक्रान्तमेव समथर्यन्नाह ।बलं ति सूत्रम् । जर त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । जरा वयोहानिलकणा यावन्न पीडयति, व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रु र्यावन्न वझते । यावदिन्द्रियाणि क्रियासामोपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयन्ते । ता. वदत्रान्तरे प्रस्ताव इति कृत्वा धर्म समाचरेच्चारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥३६॥ कोदं माणं च मायं च, लोनं च पाववटणं ॥ वमे चत्तारि दोसे ज, श्वतो दिअमप्पणो ॥३॥ (अवचूरिः) धर्मोपायमाह । क्रोधं मानं मायां च लोनं च पापवर्धनम् एते सर्वे पापहेतव इति पापवळनत्वव्यपदेशः । यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोषानेतानेव क्रोधा. दीन् श्छन्नात्मनो हितम् ॥ ३७॥ (अर्थ.) हवे धर्मनो उपाय कहे . कोहं इत्यादि सूत्र. (अप्पणो के०) आत्मनः एटले पोताना (हियं के) हितं एटले हितप्रत्ये (छतो के०) श्वन् एटले श्वा करतो एवो साधु जे ते (पाववट्ठणं के०) पापळनं एटले पापनी वृद्धि करनार एवा (कोहं के०) क्रोधं एटले क्रोध, (च के) वली (माणं के) मान एटले मान, (च के०) वली (मायं के०) मायां एटले माया (च के०) वली (ला. नं के०) लोनं एटले लोन ए (चत्तारि के) चतुरः एटले चार ( दोसे के०) दोषान् एटले दोष प्रत्ये ( वमे के०) वमेत एटले वमे, त्याग करे. कारण के, एनो त्या ग करवाथी सर्व संपदा प्राप्त थाय . ॥ ३ ॥ (दीपिका.) अथ धर्मस्य उपायमाह । साधुः क्रोध, मानं, मायां, लोनं च पाप वईनं पापस्य हेतवः। यतश्च एवं तत एतान् चतुरो दोषान् क्रोधादीन् वमेत् त्यजत् । किं कुर्वन् । आत्मनो हितमिबन्। एतहमने हि सर्वसंपदिति ॥३७॥ (टीका ) तङपायमाह । कोहं गाहा व्याख्या। क्रोधं मानं च मायां च लोनं च से Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५१३ पापवर्धनं सर्व एते पापहेतव इति पापवर्द्धनत्वव्यपदेशः । यतश्चैवमतो वमेच्चतुरो दोपानेतान् क्रोधादीन् हितमिवन्नात्मनः । एतइमने हि सर्वसंपदिति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ कोदो पीई पणासेई, माणो विषयनासो ॥ माया मित्ताणि नासेर, लोनो सवविणासो ॥ ३८ ॥ ( अवचूरिः ) एतमने हि सर्वसंपत् । श्रवमने लिहलोकापायमाह । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति, मानो विनयनाशनः, माया मित्राणि नाशयति, लोनः सर्वविनाशकः । तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावना वितत्वात् ॥ ३८ ॥ ( अर्थ. ) उपर कहेला चार दोषोनो त्याग न करे तो या लोकमांज जे पाय थाय वे ते कहे ते. कोहो इत्यादि सूत्र ( कोहो के० ) क्रोधः एटले क्रोध जे ते (पीई के० ) प्रीतिं एटले प्रीति प्रत्ये ( पणासेइ के० ) प्रणाशयति एटले नाश करेठे. क्रोध चढेला मनुष्यना वचनयी प्रीतिनो नाश थायवे, ए वात अनुभवसिद्ध ठे. (मायो के० ) मानः एटले मद, अहंकार जे ते ( विषयनासो के० ) विनयनाशनः ए टले विनयनो नाश करनार बे. अहंकारी मनुष्य मूर्खताथी कोइनो विनय साचवतो नथी, ए प्रत्यक्ष देखाय ठे. ( माया के० ) माया एटले वक्रतारूप माया जे ते (मिचाणि के० ) मित्राणि एटले मित्र प्रत्ये (नासेइ के० ) नाशयति एटले नाश पमाडे बे. वक्ता (वांका) करनार मनुष्यने तेना मित्र ठोडी दे े, एवो अनुभव वे. (लोजो के० ) सोनः एटले लोन जे ते ( सङ्घविणासो के०) सर्व विनाशनः एटले प्रीति, विनय, मित्र विगेरे सर्वेनो नाश करनारो ठे. कारण लोनथीज क्रोध, मान यने माया थायठे, माटे लोज सर्व दोषोनुं मूल कहेवाय ठे. ॥ ३८ ॥ ( दीपिका. ) वमने तु इह लोक एव कष्टमाह । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति । कोधान्धस्य वचनतः प्रीतेर्विवेददर्शनात् । मानो विनयनाशनः । गर्वेण विनयकरणस्य अदर्शनात् । माया मित्राणि नाशयति । कौटिल्यवतः मित्रत्यागदर्शनात् । लोनः सर्वविनाशनः । परमार्थतः त्रयाणामपि प्रीत्यादीनां नाशदर्शनात् ॥ ३८ ॥ ( टीका. ) श्रमने विह लोक एवापायमाह । कोह त्ति सूत्रम् । क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति । क्रोधान्धवचनतस्तवै ददर्शनात् । मानो विनयनाशनः । श्रवलेपेन मूखतया तदकरणोपलब्धेर्माया मित्राणि नाशयति । कौटिल्यवतस्तत्त्यागदर्शनात् । मोजः सर्वविनाशनः । तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावना वितत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. जवसमेण दणे कोदं, माणं मद्दवया जिणे ॥ मायमऊवनावेन, लोनं संतोस जिणे ॥ ३ ॥ (अवचूरिः) उपशमेन हन्यात्क्रोधं, मानं माईवेनानुत्सृततया, मायां च झजुलावेनाशयतया जयेउदय निरोधादिना, लोनं संतोषतो निःस्पृहत्वेन जयेत्तउदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन ॥ ३५ ॥ (अर्थ.) माटे उवसमेण इत्यादि सूत्र, साधु जे ते (जवसमेण के०) उपशमेन एटले दमारूप उपशमवडे (कोहं के०) क्रोधं एटले क्रोध प्रत्ये (हणे के०) हन्यात् एटले हणे, (माणं के०) मानं एटले अहंकाररूप मानप्रत्ये (मदवया के०) मादवेन एटले मृतावडे ( जिणे के०) जयेत् एटले जीते, नाश करे, (मायां के०) मायां एटले वक्रतारूप मायाप्रत्ये (अङावनावेण के०) झजुन्नावेन एटले सरलतावडे नाश करे, (लोनं के०) लोनं एटले लोन प्रत्ये (संतोस के०) संतोषतः ए. टले संतोषवडे ( जिणे के०) जयेत् एटले जीते, नाश करे, उपर कहेला उपशम प्रमुख उपाय वडे क्रोधादिकना उदयने रोकवो, अने उदय आवेला क्रोधादिकने निष्फल करवा. ॥३ए ॥ (दीपिका.) यत एवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । साधुः क्रोधमुपशमेन दांतिरूपेण हन्यात् । कथम् । उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन । एवं मानं मार्दवेनानुत्सिततया जयेत् । उदय निरोधादिनैव ।मायां च जुनावेनाशठतया जयेत्। उदय निरोधादिनैव। एवं लोजं संतोषतो निस्पृहत्वेन जयेत् । तदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति ॥३॥ । __(टीका. ) यत एवमत उवसमेण त्ति सूत्रम् । उपशमेन शान्तिरूपेण हन्यात क्रोधमुदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेन । एवं मानं मार्दवेनानुस्मृततया जयेत् । उदय: निरोधादिनैव । मायां च जुन्नावेन अवक्रतया जयेत । उदयनिरोधादिनैव । एवं लोन संतोषेण निस्पृहत्वेन जयेत् । उदय निरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः ॥३७॥ कोदो अ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोनो अ पवटमाणा ॥ __चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूला पुणप्नवस्स ॥४०॥ (अवचूरिः) एषां परलोकापायमाह । क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतावुझेखलौ माया च लोनश्च प्रवर्षमानौ । चत्वार एते क्रोधादयः। कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णाः कष्टा कषायाः सिञ्चन्ति अशुजनावजलेन मलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनलेवस्य । नर्जन्मतरोरिति ॥ ४० ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५१५ ( श्रर्थ. ) दवे क्रोध प्रमुख चार कपाय परलोकने विषे पण अनर्थ उत्पन्न करेठे एम कठे. कोहो इत्यादि सूत्र ( यणिग्गही या के० ) अनिगृहीतौ एटले पोताना वशमां ( तावामां ) न राखेला एवा ( कोहो के० ) क्रोधः एटले क्रोध ( अ के० ) च एटले थने (माणो के० ) मानः एटले अहंकाररूप मान तथा ( पवट्टमाया के० ) प्रवर्द्धमानी एटले वृद्धि पामता एवा ( माया के० ) माया एटले वक्रतारूप माया (य ho) च एटले थने (लोनो के०) लोन: एटले लोन मली ( चत्तारि के० ) चत्वारः एटले चार ( कसिया के० ) कृत्स्ना: एटले संपूर्ण, अथवा कृष्णाः एटले अशुभ कर्मना कारणरूप होवाथी काला, अथवा क्लिष्टाः एटले क्लेशवाला एवा (एए कसाया के० ) एते कषायाः एटले आ कषाय जे ते ( पुणप्नवस्स के० ) पुनर्भवस्य एटले पुनर्जन्म• रूप वृना (मूलाई के० ) मूलानि एटले मूल प्रत्ये. (सिंचति के० ) सिञ्चन्ति एटले सिंचे वे. अर्थात् चारे कषाय परलोकने विषे जन्ममरणरूप संसारना कारण ठे. ॥ ४० ॥ 1 ( दीपिका.) क्रोधादीनामेव परलोके कष्टमाह । एते कपायाः चत्वारोऽपि पुनर्जवस्य पुनर्जन्मवृक्षस्य मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि सिञ्चन्ति । अशुनाव जलेनेति शेपः । किंभूताः कषायाः । कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः । के । कषायाः क्रोधश्च मानश्च एतौ द्वावनिगृहीतौ उछृंखलौ । माया च लोजश्च एतौ द्वौ विवर्द्धमानो वृद्धिं गन्त सन्तौ ॥ ४० ॥ ( टीका. ) क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह । कोहो ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । क्रोधश्च मानश्चानिगृहीतौ उछृंखलौ माया च लोजश्च विवर्धमानौ च वृद्धिं गछन्तौ चत्वार एते क्रोधादयः कृत्स्नाः संपूर्णाः कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति थ शुभ नावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि पुनर्नवस्य पुनर्जन्मतरोरिति सूत्रार्थः ४० राय पिएस विषयं पटंजे, धुवसीलयं सययं न दावइका ॥ कुम्मु त्रीणपलीणगुत्तो, परकमिका तवसंजमंमि ॥ ४१ ॥ ( अवचूरिः ) यत एवमतस्तन्निग्रहार्थमिदं कुर्यात् । रत्नाधिकेषु चिरदीक्षितेषु विनयमन्युछानादिकं प्रयुञ्जीत । ध्रुवशीलतामष्टादशसहस्रशीलाङ्गरूपां न दापयेत्सततं कर्म व थालीनप्रलीनगुप्तः । शृङ्गोपाङ्गानि संयम्येत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्तत तपः संयमे तपःप्रधाने संयमे ॥ ४१ ॥ ( . ) एम वे माटे कपायोने जितवाने थे या उपाय करवो, एम कहे ठे. रायलिए इत्यादि सूत्र साधु जे ते ( राय लिएस के० ) रत्नाधिकेषु एटले दीक्षार्थी श्र ( Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा थवा ज्ञान विगेरेथी पोताना करतां अधिक एवा श्राचार्य प्रमुखने विपे (विणयं के विनयं एटले अन्युबान प्रमुख विनय प्रत्ये (पयुंजे के०) प्रयुञ्जीत एटले करे. तथ (धुवसीलयं के०) ध्रुवशीलतां एटले अढारसहस्रशीलांगपालनरूप जे शीलने वि दृढता ते प्रत्ये (सययं के०) सततं एटले निरंतर (न हावजा के०) न हापये एटले गेडे नहि. तेमज (कुम्मु व के) कूर्म श्व एटले कागवानी पेठे (अल्बीणप लीणगुत्तो के०) आलीनप्रलीनगुप्तः एटले पोताना अंगोपांग प्रत्ये सम्यकप्रकारे गुप्त र खीने (तवसंजमम्मि के०) तपःसंयमे एटले तपस्या जेमा प्रधान एवा संयमन विषे (परकमिजा के) पराक्रमेत एटले प्रवृत्त थाय. ॥४१॥ (दीपिका.) यतश्चैवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह । साधुः रत्नाधिके चिरदीक्षितादिषु विनयमन्युबानादिरूपं प्रयुञ्जीत । पुनः ध्रुवशीलतामष्टादशशीला गसहस्रपालनरूपां सततं निरन्तरं यथाशक्ति न हापयेत् । पुनः कूर्म श्व कलपव बालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गानि उपांगानि च सम्यक् संयम्य इत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्ते तपःसंयमे तपःप्रधाने संयम इति ॥४१॥ (टीका.) यत एवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह । रायणिए त्ति । रत्नाहि केषु चिरदीक्षितादिषु विनयमच्युबानादिरूपं प्रयुञ्जीत । तथा ध्रुवशीलतामष्टादशशीला ङ्गासहस्रपालनरूपां सततमनवरतं यथाशक्ति न हापयेत्। तथा कूर्म श्व कप श्वालीन प्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक् संयम्येत्यर्थः । पराक्रमेत प्रवर्तेत तपःसंयमे तपःप्रधाने संयम इति सूत्रार्थः ॥४१॥ निदं च न बहु मनिका, सप्पदासं विवजए॥ मिदो कदाहिं न रमे, सप्नायंमि र सया॥४२॥ (अवचूरिः) निनां च न बहु मन्येत न प्रकामशायी स्यात् । स प्रहासमतीव हा. सरूपं विवर्जयेत् । मिथ कथासु राह स्थिकीषु न रमेत । स्वाध्याये रतः सदा जवेत् ॥४॥ (अर्थ.) वली निदं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( निदं के.) निखां एटले निमा प्रत्ये. (न बहु मन्निजा के०) न बहु मन्येत एटले घणुं मान आपे नहि, अथात् घणी निमा (ऊंघ) लिये नहि. तथा (सप्पहासं के) सप्रहासं एटले जेमा हा सी (मस्करी) घणी होय एवा वचन प्रत्ये (विवाए के) विवर्जयेत् एटले वज. त मज (मिहो कहाहिं के०) मिथः कथासु एटले माहोमाहे एकांतमां बानी वातों के रवामां (न रमे के ) न रमेत एटले रमी रहे नहि. तो अ॒ करे ते कहें ब.. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० दशवकालिकऽष्टमाध्ययनम् । के०) सदा एटले निरंतर (सप्लायंमि के०) स्वाध्याये एटले स्वाध्यायने ( सप्लायने) विपे (रजे के०) रतः एटले यासक्त एवो थाय. ॥४२॥ (दीपिका.) पुनः किंच साधुः निां च न वहु मन्येत न प्रकामशायी स्यात् । पुनः स साधुः प्रहासमतीवहासरूपं विवर्जयेत् । पुनः परस्परं कयासु राह स्यिकीषु न रमेत । तर्हि किं कुर्यादित्याह । स्वाध्याये वाचनादौ रतः तत्परः स्यात् सदा ॥ ४२ ॥ (टीका ) किंच निदं च त्ति सूत्रमस्य व्याख्या। निशां च न बहु मन्येत । न प्र. कामशायी स्यात् । स प्रहासं चातीवहासरूपं विवर्जयेत् । मिथःकथासु राहस्यिकीपु न रमेत । स्वाध्याये वाचनादौ रतः सदा एवंनूतो नवेदिति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अनलसो धुवं ॥ जुत्तो अ समगधम्ममि, अहं लहर अणुत्तरं॥४३॥ - (श्रवचूरिः ) योग विविध मनोवाकायव्यापारं दान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत । श्र_ नलस उत्साहवान् ध्रुवं नित्यमौचित्येन कालादौ अनुप्रेदायां मनोयोगमध्ययने वाग्योगं प्रत्युपेदाणायां काययोगमिति युक्त एवं व्यापृतः श्रमणधर्मे दश विधे अर्थ एलनतेऽनुत्तरं केवलज्ञानरूपमिति ॥ ४३ ॥ " (अर्थ.) तथा जोगं च इत्यादि सूत्र. (धुवं के०) ध्रुवं एटले नित्य, सदाकाल (थनलसो के०) थनलसः एटले यासस्यरहित अर्थात् उत्साहवाला एवा साधु जे ते (समणधम्मम्मि के०) श्रमणधर्म एटले दश प्रकारना साधुधर्मनेविपे (जोगं के०) योगं एटले पोताना मन वचन कायाना योग प्रत्ये (मुंजे के०) युजीत एटले जोडे. कारण के, (समणधम्ममि के०) श्रमणधर्म एटले क्षतिप्रमुख दश प्रका रना साधुधर्मने विपे (जुत्तो के० ) युक्तः एटले जोडेला एवा साधु जे ते (यणुत्तरं त के०) अनुत्तरं एटले सर्वोत्कृष्ट एवा (अहं के०) श्रयं एटले ज्ञान प्रमुख वस्तु ३ प्रत्ये (लदर के०) लनते एटले पामे . ॥ ४३ ॥ ७ (दीपिका.) एवं योगं च त्रिविधं मनोवाकायव्यापारं श्रमणधर्म शान्तिप्रहै। मुखलक्षणे युझीत । किनृतः साधुः । अनलस उत्साह्वान् ध्रुवं कालादीनामा. चित्त्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जन नावेन या अनुप्रेदाकाले मनोयोगम् , यध्ययनकाले वागयोग, प्रत्युपेदाणाकाले काययोगमिति । फलमाह । युक्त एवं व्यानीतः कुन श्रमणधर्म दश विधे सजते यर्थ प्राप्नोत्यनुत्तरं लावार्य झानादिरूपमिति ४३ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (टीका.) तथा जोगं च त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । योगं च त्रिविधं मनोवाकायव्यापारं श्रमणधर्मे दान्त्यादिलक्षणे युञ्जीतानलस उत्साहवान् । ध्रुवं कालाद्योचित्येन नित्यं संपूर्णं सर्वत्र प्रधानोपसर्जननावेन वा अनुप्रेक्षाकाले मनोयागमध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेदाणाकाले काययोगमिति । फलमाह । युक्त एवं व्यापृतः श्रमधर्मे दशविधेऽर्थ बनते प्राप्नोत्यनुत्तरं नावार्थ ज्ञानादिरूपमिति सूत्रार्थः ॥४३॥ इहलोगपारत्तहिरं, जेणंगल सुग्गई॥ बहुस्सुअं पकुवासिजा, पुलिऊवविणिव्यं ॥४४॥ (श्रवचूरिः ) एतदेवाह । श्ह लोके परत्र हितं । येनार्थेन ज्ञानादिना गति सुगति पारंपर्येण सिझिमित्यर्थः । उपदेशाधिकार उक्तखरूपसाधनोपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्षं पर्युपासीत सेवेत । सेवमानश्च पृछेदर्थ विनिश्चयम् ॥ ४ ॥ . (अर्थ.) एज कहे . इहलोग इत्यादि सूत्र. (जेण के०) येन एटले जे ज्ञान प्रमुख वस्तु वडे (इहलोगपारत्तहियं के) इहलोकपरत्रहितं एटले अशुन कर्मनो बंध रोकवाथी आ लोकने विषे अने शुज कर्मना अनुवंधथी परलोकने विषे पण हित थाय. तथा जे ज्ञानादिक वडे साधु जे ते ( सुग्ग के) सुगतिं एटले परंपराए सिकिरूप गति प्रत्ये (ग के०) गति एटले जाय . हवे ज्ञानादि. कनो उपाय कहे . साधु जे ते (बहुस्सुअं के०) बहुश्रुतं एटले आगमवृक्ष अर्थात् श्रागमना पूर्ण जाण एवा आचार्य प्रमुखनी (पछुवासिजा के०) पर्युपासीत एटले सेवा करे. तथा सेवा करता (अडविणिकयं के०) अर्थ विनिश्चयं एटले अनर्थथी रक्षण करनार अने कट्याणने पमाडनार एवा साधनना निर्णय प्रत्ये (पुछिजा के०) पृठेत् एटले पूजे. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) पुनरेतदेवाह । इह लोके परत्र लोके च हितम् । कथम् । श्ह लोके अकुशलप्रवृत्तिकुःख निरोधेन परलोके च कुशलानुबन्धत उजयलोकहितमित्यर्थः । येन अर्थेन ज्ञानादिना करणनूतेन साधुः सुगतिं पारंपर्येण सिझिमित्यर्थः ।गबति । श्रथ उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनस्य उपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्षं साधुः पर्युपासीत सेवेत । तं सेवमानश्च साधुः पृबेदर्थ विनिश्चयमपायरदकं कल्याणा- । वहं वा अर्थावितथनावमिति ॥ ४४ ॥ (टीका.) एतदेवाह । इह लोग त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । इह लोके परत्र हितम् । इहाकुशलप्रवृत्तिषुःख निरोधेन परत्र कुशलानुबन्धत उजयलोकहित Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। . ५१ए मित्यर्थः । येनार्थेन ज्ञानादिना करणजूतेन गति सुगतिं पारंपर्येण सिकिमित्यर्थः। उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनोपायमाह । बहुश्रुतमागमवृक्ष पर्युपासीत सेवेत । सेवमानश्च पृछेदर्थविनिश्चयमपायरदकं कल्याणावहं वार्थावितथनावमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ हवं पायं च कायं च, पणिदाय जिइंदिए। अक्षीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥४५॥ (श्रवचूरिः) हस्तं पादं च कायं च प्रणिधाय संयम्य । जितेन्जियो निनृतो जूत्वा शालीनगुप्तो निषीदेदीषट्वीन उपयुक्त इत्यर्थः । गुरूणां सकाशे मुनिः॥४५॥ (अर्थ.) श्राचार्य प्रमुखनी सेवा करे त्यारे केवी रीते रहे ते कहे . हवं - त्यादि सूत्र. ( जिदिए के) जितेंजियः एटले जेणे पोतानी इंजियो वशमा राखी ठे एवा (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (हवं के०) हस्तं एटले पोताना हाथने (च के०.) पुनः (पायं के०) पादं एटले पगने (च के०) वली (कायं के०) कायं एटले शरीरने (पणिहाय के०) प्रणिधाय एटले विनय सचवाय एवी रीते संकोची राखीने (असीणगुत्तो के०) आलीनगुप्तः एटले उपयोग राखता बता (गुरुणो केण) गुरोः एटले गुरुनी ( सगासे के०) सकाशे एटले समीप नागने विषे (निसिए के०) निषीदेत् एटले बेसे. ॥ ४५ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच । मुनिः गुरोः सकाशे समीपे निषीदेत् । कीदृशः सन्।श्रातीनगुप्त इषवीन उपयुक्त इत्यर्थः । किं कृत्वा निषीदेत् । हस्तं च पादं च कायं च प्रणिधाय संयम्य । पुनः किं कृत्वा । जितेन्द्रियो निनृतो जूत्वा ॥ ४५ ॥ (टीका.) पर्युपासीनश्च हवं ति सूत्रम् । हस्तं पादं च कायं च प्रणिधायेति संयम्य जितेन्जियो निनृतो नूत्वा आलीनगुप्तो निषीदेत् । ईषहीन उपयुक्त इत्यर्थः। सकाशे गुरोर्मुनिरिति सूत्रार्थः ॥४५॥ न परकन न पुरम, नेव किचाण पिहन॥ न य करूं समासिङ, चिहिजा गुरुमंतिए॥४६॥ (श्रवचूरिः) किंच न पढ़तः पार्श्वतो न पुरतो नैव कृत्यानामाचार्याणां पृष्ठतो निषीदेदिति वर्तते । अविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषात् । न च ऊरूं समाश्रित्य अरोरुप'रुं कृत्वा तिष्ठेजुर्वन्तिके । अविनयादिदोषप्रसंगात् ॥ ४६॥ (अर्थ.) वली न परकर्ड इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (किच्चाण के०) कृत्यानां ए Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. टले आचार्य जे तेमना ( परक के० ) पक्षतः एटले पार्श्वनागने विषे ( न निसिए ० ) न निषीदेत् एटले बेसे नहि. कारण के, तेथी विनय प्रमुख थाय वे तथा ( पुर के० ) पुरतः एटले अग्रभागने विषे ( न निसिए के० ) न निपीदेत् एटले बेसे नहि. कारण के, तेथी वंदना करनार लोकोने अंतराय थवानो संभव रहे ठे. तेमज ( पि ० ) पृष्ठतः एटले आचार्य प्रमुखना पृष्ठ जागने विषे (नेव निसिए ho) नैव निषीदेत् एटले नहिज बेसे. कारण के, तेथी याचार्यनी दृष्टि आपणा उपर न रहे. तेमज साधु जे ते ( गुरुणं तिए के० ) गुरोरन्तिके एटले गुरुना समीप जाने विषे ( ऊरुं समासि के० ) ऊरुं समाश्रित्य एटले साथल उपर साथल चढावीने (नय चिहि के० ) न च तिष्ठेत् एटले वेसे नहि. कारण के, तेथी - विनय प्रमुख दोष थाय बे. ॥ ४६ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किम् । साधुः कृत्यानामाचार्याणां न पदतः पार्श्वतो निषीदेत् । एवं न पुरतोऽग्रतः । नापि पृष्ठ तो मार्गतः । यथासंख्यमविनयवंदमानांतरायादर्शनादिदोषाः प्रभवंति । पुनः तत्र उरुं समाश्रित्य करोरुपर्यूरुं कृत्वा न तिष्ठेत् । गुरोऽन्तिकेविनयादिदोषप्रसंगात् ॥ ४६ ॥ 1 ( टीका. ) न परकर्ड ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न पक्षतः पार्श्वतः न पुरतोऽग्रतः । नैव कृत्यानामाचार्याणां पृष्ठतो मार्गतो निषीदेदिति वर्त्तते । यथासंख्य. मविनयवन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसंगात् । न चोरुं समाश्रित्य ऊरोरुपर्यूरुं कृत्वा तिष्ठेर्वन्ति । विनयादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ पुचि न नासिका, नासमाणस्स अंतरा ॥ पिठिमंसं न खाइका, मायामोसं विवकए ॥ ४७ ॥ ( श्रवचूरिः ) उक्तः कायप्रणिधिः । वाक्प्रणिधिमाह । श्रपृष्टो निःकारणं न जाषेत । जाषमाणस्यान्तरा न जाषेत । पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेदतो मायाप्रधानां मृषां वाचं विवर्जयेत् ॥ ४७ ॥ अपु ( अर्थ. ) गुरुनी सेवा करता कायनो संयम को हवे वाणीनो कहे . छि इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( अपुछि के० ) अपृष्टः एटले गुरु पूब्या विना ( न नासिका के ० ) न जाषेत एटले बोले नहि. ( जासमाणस्स के० ) नाषमाणस्य एटले गुरु कां वात करता होय तो तेमनी ( अंतरा के० ) अंतरा एटले बच्चे (न (( o ) न जाषेत एटले बोले नहि. ( पिडिमंसं के० ) पृष्ठिमांसं एटले पीठना प्रत्ये ( न खाइका के० ) न खादेत् एटले खाय नहि, अर्थात् गुरुनी परपूर्व Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिकेऽष्टमाध्ययनम् । -५११ निंदा प्रमुख करे नहि. तेमज ( मायामोसं के० ) मायामृषां एटले माया ( कपट ) प्रधान जेमां बे एवा असत्य वचन प्रत्ये (विवऊए के० ) विवर्जयेत् एटले वर्जे. ॥ ४७ ॥ ( दीपिका. ) इति उक्तः कायप्रणिधिः । अथ वाक्प्रणिधिमाह । साधुरपृष्टः सन् निःकारणं न जाषेत । पुनर्भाषमाणस्य अन्तरापि न जाषेत । नचेदमिछं तवमिति । तथा पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेत् न जाषेत । पुनर्मायामृषां मायाप्रधानं मृषावादं विवर्जयेदिति ॥ ४७ ॥ ( टीका. ) उक्तः कायप्रणिधिर्वाक्प्रणिधिमाह । श्रपुछि ति सूत्रम् । अस्य व्या| पृष्टो निष्कारणं न जाषेत । जाषमाणस्य चान्तरेण न जाषेत । नेदमिद्धं किं तवमिति । तथा पृष्ठिमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपं न खादेन्न नाषेत । मायामृषां मायाप्रधानां मृषावाचं विर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥ अप्पत्तिच्यं जेण सिच्या, आसु कुप्पिक वा परो ॥ सबसो तं न नासिका, नासं दिगामिपिं ॥ ४८ ॥ ( अवचूरिः) अप्रीतिर्येन स्यात् । प्राकृतत्वाङ्गिव्यत्ययः । यया जाषया आशु शीघ्रं कुप्येद्वा परो रोषं दर्शयेत् । सर्वशः सर्वास्ववस्थासु तामियंभूतां जाषामहितगामिनीमुनयलोक विरुद्धां न जाषेत ॥ ४८ ॥ (अर्थ) वली अपत्ति इत्यादि सूत्र. ( जेण के० ) यया एटले जे भाषाए क रीने (अप्पत्ति के०) अप्रीतिः एटले अप्रीति ( सिया के० ) स्यात् पटले याय. ( वा० ) अथवा जे वचने करीने ( परो के० ) परः एटले पारको कोई पुरुष (आसु ० ) आशु एटले शीघ्र ( कुप्पिस के० ) कुप्येत् एटले रोष पामे. (तं के० ) तां एटले ते ( अहिगामिणिं के० ) अहितगामिनीं एटले अहितने करनारी एवी (जासं के० ) जाषां एटले जाषाप्रत्ये (सबसो के० ) सर्वश: एटले सर्व प्रकारे सस्थाने विषे साधु जे ते ( न नासिका के० ) न जाषेत एटले बोले न हि ॥४८॥ ( दीपिका. ) पुनः किंच । साधुः इयंभूतां जाषां न जाषेत । श्वं कीदृशीम् । प्राकृतशैल्या येनेति यया जाषया अप्रीतिः प्रीतिमात्रं जवेत् । तथा श्राशु शीघ्रं कुप्येद् वा परो रोषकार्यं दर्शयेत् । सर्वत्र सर्वास्ववस्थासु तामीदृशीं जाषां न जाषेत । पुनः हितगामिनीमुनयलोक विरुद्धां न जाषेत ॥ ४८ ॥ (टीका . ) किं । पति ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । प्रीतिर्येन स्यादिति । प्राकृतशैल्या येनेति यया भाषया जाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं भवेत् । तथा ६६ I ". Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. श्राशु शीघ्र कुप्येछा परो रोषकार्य दर्शयेत् । सर्वशः सर्वास्ववस्थासु तामिठंजूतां न नाषेत नापामहितगामिनीमुन्नयलोकविरुखामिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ दि मिअं असंदिई, पडिपुन्नं विअंजिअं॥ अयंपिरमणुविग्गं, नासं निसिर अत्तवं ॥४॥ (श्रवचूरिः ) नाषणोपायमाह । दृष्टामिति दृष्टार्थ विषयां स्तोकामसंदिग्धां स्फुटां प्रतिपूर्णा स्वरादिनिः । व्यक्तामलबां जितां परिचितामजदपनशीला नोंच्चै तिनीचेः । अनुहिनां नोगकारिणी निसृजेयाद् आत्मवान् सचेतनः ॥ ४॥ (अर्थ.) हवे केवु वचन बोलवु ते कहे बे. दिलं इत्यादि सूत्र. (अत्तवं के०) आत्मवान् एटले सचेतन एवा साधु जे ते (दिहं के०) दृष्टां एटले पोते जे वात दीठी होय ते संबंधी, (मिश्र के) मितां एटले परिमित, (असं दिई के०) असंदिग्धां एटले संशयरहित अर्थात् जे सांजलवायी कोश्ने शंका उत्पन्न न थाय एवी, (पडिपुन्नं के०) प्रतिप्रणा एटले जेमांना खरव्यंजनादिकनो उच्चार स्पष्ट होवाथी प्रकट एवी, (जिअं के) जितां एटले परिचित एवी, (अयं पिरं के०) अजल्पनशीला एटले ऊचे अथवा नीचे न वलगनारी एवी तथा (अणु विग्गं के०) अनुहिमां एटले जग न उपजावनारी एवी (नासं के०) जाषां एटले जाषा प्रत्ये (निसिरे के) निस्सृजेत् एटले बोले. ॥ ४ ॥ (दीपिका.) नाषणस्य जपायमाह । आत्मवान् सचेतनः साधुः ईदृशीं नाषां निसृजेत् ब्रूयाद । श्रशीं कीदृशी मित्याह । दृष्टां दृष्टार्थ विषयां, पुनर्मितां खरूपप्रयोजनाज्यां स्तोकां, पुनः असंदिग्धां शङ्कारहितां, पुनः प्रतिपूर्णा स्वरादिनिः, व्यक्तां प्रकटां, पुनः जितां परिचितां, पुनः अजल्पनशीला न उच्चैनै नीचैर्लग्नविलग्नां पुनरनुदिनां न उठेगकारिणीमेवंचूतां नाषां साधुब्रूयात् ॥ ४ ॥ । (टीका.) नाषणोपायमाह । दिति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । दृष्टां दृष्टार्थ विषयां मितां स्वरूपप्रयोजनाच्यामसंदिग्धां निःशङ्कितां प्रतिपूर्णा स्वरादिजिय॑क्तामलक्षा जितां परिचितामजपनशीला नोच्चलग्नविलनामनुहिना नोगकारिणीमेवंतां नाषां निसृजेद्र्यादात्मवान् सचेतन इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ आयारपन्नत्तिधर, दिग्विायमहिङगं॥ वायविस्कलिअं नच्चा, न तं नवदसे मुणी ॥ ५० ॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५२३ . (अवचूरिः) आचार आचाराङ्गं प्रज्ञप्तिर्नगवत्यङ्गं । तथा दृष्टिवादस्य च धरमधीयानं वाक्स्खलितं ज्ञात्वा न तमाचारादिधरमुपहसेन्मुनिः ॥ ५० ॥ (अर्थ.) उपदेशना अधिकारमांज आ कहे . आयार इत्यादि सूत्र. (मुणी के) मुनिः एटले साधु जे ते (आयारपन्नत्तिधरं के०) आचारप्रज्ञप्तिधरं एटले श्राचारना धारण करनार होवाथी स्त्रीलिंगादिकना जाण अने पन्नत्तिना धारण करनार होवाथी विशेषणसहित स्त्रीलिंगादिकना जाण एवा तेमज (दिहिवायमहिजागं के) दृष्टिवादमधीयानं एटले दृष्टिवादनुं अध्ययन करनार होवाथी प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्ण विकार, काल, कारक विगेरेना जाण एवा साधु प्रत्ये (वायविकलियं के) वाग्विस्खलितं एटले वचन बोलता लिंग, वचन, विनक्तिमां अनुपयोगथी विविध प्रकारे स्खलना पामेला एवाने (नच्चा के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (तं के०) तं एटले ते साधु प्रत्ये (न उपहसे के०) न उपहसेत् एटले हसे नहि. “आचारादिकना जाण एवा ए साधुनी वाक्चातुरी केवी ?" एवी रीते उपहास (मस्करी) न करे. ॥ ५० ॥ .. (दीपिका.) अथ प्रस्तुतस्य उपदेशस्य अधिकारेण श्दमाह । मुनिः तमाचारादिधरंन उपहसेत् । किनूतं तम्।आचारप्रज्ञप्तिधरम् । आचारधरः स्त्रीलिंगादीनि जानाति। प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषणानि । इत्येवंचूतम् । पुनः किंवृतम्।दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्ण विकारादिविज्ञम्। किं कृत्वान उपहसेत्। तं तादृशं वागविस्खलितं ज्ञात्वा विविधमनेकप्रकारैः लिङ्गनेदादिनिः स्खलितं विज्ञाय नोपहसेत् । किंतु एवं जानाति वदति च। अंहो खलु आचारादिधरस्य वचन एवं कौशलम् । इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तम् । अत इदं गम्यते नाधीतदृष्टिवादं तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनासंजवात् । यदि एवंनूतस्यापि स्खलितं संजवति । नच एवमुपहसे दिति उपदेशः । ततोऽन्यस्य सुतरां संजवति न चासौ हसितव्य इति ॥ ५० ॥ (टीका.) प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह । आयार त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। श्राचारप्रज्ञप्तिधरमित्याचारधरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति । प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेपाणीत्येवंचूतम्।तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्ण विकारकालकारकादिवेदिनं वागविस्खलितं ज्ञात्वा विविधमनेकैः प्रकारैर्लिङ्गन्नेदादिनिः स्खलितं विज्ञाय न तमाचारादिधरमुपहसेन्मुनिः।अहो नु खत्वाचारादिधरस्य वाचि कौशल मित्येवम्।ह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते।नाधीतदृष्टिवादम् । तस्य ज्ञानाप्रमादाति Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. शयतः स्खलनासंचवाद्ययेवंचूतस्यापि स्खलितं संजवति । न चैनमुपहसे दित्युपदेशः। ततोऽन्यस्य सुतरां संजवति । नासौ हसितव्य इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥ नकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिदियो तं न आश्के, नाहिगरणं पयं ॥२॥ . (श्रवचूरिः ) गृहिणा पृष्टः नदत्रमश्विन्यादि स्वप्नं शुभाशुलफलं योगं वशीक. रणादिं निमित्तमतीतादि । मन्त्रं वृश्चिकमन्त्रादि नेषजमतिसाराद्यौपधं गृहिणामसं. यतानां तदेतन्नाचदीत । किंविशिष्टं नूताधिकरणं पदं जूतान्येके न्डियादीन्य धिक्रियन्ते व्यापाद्यन्ते यस्मिन्निति। ततश्चैषां प्रश्न एवं ब्रूयात्। नाधिकारोऽत्रसाधूनां कयने ॥५१॥ . (अर्थ.) वली नकत्तं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( नकतं के०) नदत्रं एटले अश्विनी प्रमुख नदात्र, (सुमिणं के०) स्वप्नं एटले शुभ अशुन प्रमुख स्वप्न, (जोगं के) योगं एटदें वशीकरण, आकर्षणे प्रमुख योग ( निमित्तं के०) निमित्तं एटले थतीत अनागत कथन रूप निमित्त, तथा ( मंतनेस के ) मंत्रनेषजं एटले वीबी प्रमुखना मंत्र अने अतिसार प्रमुख रोगोनुं औषध (तं के) तत् एटले उपर कहेली सर्व वस्तु ( गिहिणं के०) गृहिणां एटले गृहस्थोने (न आश्के के) न आचदीत एटले न कहे. कारण के, उपर कहेली सर्व वस्तु (नूया हिगरणं पयं के) नूताधिकरणं पदं एटले प्राणिना संघट्टन श्रातापन विगेरेनुं स्थानक . माटे गृहस्थ नक्षत्रादि पूछे तो साधुए कहेवु के, आ वातमां अमारो अधिकार नथी. ॥५१॥ (दीपिका.) पुनः किंच साधुर्य हिणा पृष्टः सन्नेतानि गृहिणामसंयतानां नाचदीत न ब्रूयात् । एतानि कानीत्याह । नदात्रमश्विन्यादि १ स्वप्नं शुनाशुजफलमनुनूतादि, योगं वशीकरणादि, निमित्तमतीतादि । मंत्रं वृश्चिकमंत्रादि । नेषजमतिसारादीनां रोगाणामौषधम् । एतत् षटुं किंविशिष्ट मित्याह । नूताधिकरणं पदम् । नूतानि एकेन्द्रियादीनि संघटनादिनाधिक्रियन्ते व्यापाद्यन्ते अस्मिन्निति । ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमिदं ब्रूयात् । यतस्तपस्विनापत्र नक्षत्रादौ नाधिकारः ॥५१॥ (टीका.) किं च नकत्तं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । गृहिणा टष्टः सन्नदात्रमश्विन्यादि । स्वप्नं शुजाशुजफलमनुजूतादिम् । योगं वशीकरणादिम् । निमित्तमती. तादि । मन्त्रं वृश्चिकमन्त्रादिम् । भेषजमतीसारायौषधं गृहिणामसंयतानां तदिदं नाचदीत । किंविशिष्टमित्याह । नूताधिकरणं पदमिति । चूतान्येकेन्छियादीनि संघटनादिनाधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति । ततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमिदं ब्रूयादनधिकारोऽत्र तप भामिति सूत्रार्थः ॥५१॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ५३५ अन्नहं पगडं लयणं, नऊ सयणासणं॥ जच्चारनूमिसंपन्नं, श्वी पसुविवङिअं॥५॥ (अवचूरिः) अन्यार्थं प्रकृतं न साध्वर्थं निर्वतितं लयनं स्थानं वसतिरूपं जजेत् सेवेत । शयनासनमित्यन्यार्थप्रकृतसंस्तारकपीउकादि सेवेत । उच्चारप्रस्रवणनूमिसंयुक्तम् । तहितेऽसकृत्तदर्थं निर्गमनादिदोषात् । स्त्रीपशुविवर्जितमिति ॥ ५५ ॥ (अर्थ.) वली अन्न इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (अन्न के०) अन्यार्थं एटले बीजाने अर्थे (पगडं के०) प्रकृतं एंटले करेलु एवं अर्थात् साधुने निमित्ते नहि करेलु एवं, (उच्चारनूमिसंपन्नं के) उच्चारचूमिसंपन्नं एटले स्थंडिल, मात्र प्रमुखना स्थानक वडे युक्त एवं तथा (श्वीपसुविवजिअं के०) स्त्रीपशुविवर्जितं एटले स्त्री, पशु तथा नपुंसक विगेरेनी ज्यां वसति तथा दृष्टि पण नथी एवं (लयणं के) लयन एटले वसति प्रत्ये (नश्जा के०) नजेत् एटले सेवे. तथा बीजाने अर्थे करेली एवी (सयणासणं के०) शयनासनं एटले संथारो, आसन प्रमुख वस्तु प्रत्ये (नश्क के० ) नजेत् एटले सेवे. ॥ ५५ ॥ . ( दीपिका.) पुनः किंच । साधुः एवं लयनं स्थानं वसतिरूपं नजेत्सेवेत । किंग लयनम् । अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तं कृतम्। तथा शयनासनमपि अन्यार्थ प्रकृतं संस्तारकपीठका दिसेवेताकिंग लयनम्। उच्चारनूमिसंपन्नमुच्चारप्रस्रवणादिम्या संयुक्तम्। कथम्।उच्चारादिनूमिरहिते स्थाने वारंवारमुच्चारादिनिर्गमने दोषा नवन्ति। पुनः किंनूतं लयनं । स्त्रीपशुविवर्जितमेकग्रहणेन तजातीयानां ग्रहणमिति न्यायात् । स्त्रीपशुपएमकविवर्जितम् । स्त्रीप्रमुखालोकनादिरहितमित्यर्थः । तदिवंचूतं लयनं सेवमानस्य साधोः धर्मकथाविधिमाह ॥ ५५ ॥ (टीका.) किं च अन्न ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निर्वर्तितं लयनं स्थानं वसतिरूपं जजेत् सेवेत।शयनासनमित्यन्यायं प्रकृतं संस्तारकपीउकादि रोवतेत्यर्थः । एतदेव विशेष्यते । उच्चारनूमिसंपन्नमुच्चारप्रस्रवणादिनूमियुक्तम् । तहितेऽसकृत्तदर्थं निर्गमनादिदोषात् ।तथा स्त्रीपशुविवर्जितमित्येक. ग्रहणे तजातीयग्रहणात् स्त्रीपशुपएमकविवर्जितं स्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः॥ विवित्ता अ नवे सिजा, नारीणं न लवे कहं॥ गिदिसंथवं न कुजा, कुजा साहिं संथवं ॥ ५३॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) तदिवंचूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह । विविक्ता च थन्यसाधुनिर्विरहिता । च शब्दानुजङ्गप्रायैकपुरुपयुक्ता वा चेनवेठसतिस्ततो नारीणां न लपेत् कथां शंकादिदोषप्रसङ्गात् । औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां कथयेत् । थविविक्तायां स्त्रीणामपि कथयेत् । गृहिसंस्तवं गृहस्थपरिचयं न कुर्यात् । स्नेहादिदोपात्। कुर्यात्साधुभिः सह संस्तवम् ॥ ५३॥ __ (अर्थ.) वली विवित्ता इत्यादि सूत्र. (सिजा के०) शय्या एटले वसति जे ते ( विवित्ता के) विविक्ता एटले वीजा साधुथी रहित तथा एकाद अनाचारी जेवा पुरुष वडे सहित एवी जो (नवे के०) नवेत् एटले होय. तो साधु जे ते (नारीणं के ) नारीणां एटले स्त्रियोनी (कहं के०) कथां एटले कथा प्रत्ये (न लवे के०) न लपेत् एटले न कहे. तथा ( गिहिसंथवं के) गृहिसंस्तवं एटले गृहस्थनी साये परिचय प्रत्ये (न कुजा के०) न कुर्यात् एटले करे नहि. पण (साहू हिं के०) साधुनिः एटले साधुउनी साथे (संथवं के०) संस्तवं एटले परिचय प्रत्ये (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे. ॥ ५३॥ - (दीपिका.) साधुर्यदि एवंविधा शय्या वसतिनवेत् । तदा नारीणां स्त्रीणां कयां न कथयेत् । कथम् । शंका दिदोषप्रसंगात् । योग्यतां विज्ञाय पुरुषाणां कथयेत् । नारीणां तु अविविक्तायां वसतौ कथयेदपि । किंनूता शय्या वसतिः। विविक्ता तदन्यसाधुनिर्व. र्जिता । यत्र अन्ये साधवो न सन्ति । चशब्दात् तथाविधनुजङ्गप्रायैकपुरुषसंयुक्ता नवेत् । तथापि न नारीणां कयां कथयेत् । तथा पुनः साधुर्य हिसंस्तवं न कुर्यात् । स्नेहादिदोषसंजवात् । साधुनिस्तु समं संस्तवं परिचयं काले कल्याण मित्रयोगेन कुशलपदवृद्धिनावं कुर्यादिति ॥ ५३ ॥ (टीका.) तदिबंनूतं लयन सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह । विवित्ता यत्ति सू. त्रम् । अस्य व्याख्या। विविक्ता च तदन्यसाधुनीरहिता च । चशब्दात्तथाविधनुजङ्गप्रायैकपुरुषयुक्ता च नवेबय्या वसतिर्यदि ततो नारीणां स्त्रीणां न कथयेत्कथां शंकादिदोषप्रसंगात् । औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत् । अविविक्तायां नारीणामपीति । तथा गृहिसंस्तवं गृहिपरिचयं न कुर्यात् । तत्स्नेहादिदोषसंजवात् । कुर्यात्साधुनिः सह संस्तवं परिचयं कल्याण मित्रयोगेन कुशलपदादिवृद्धिनावत इति सूत्रार्थः ॥५३॥ जदा कुकुडपोअस्स, निच्चं कुललनयं॥ एवं खु बनयारिस्स, श्रीविग्गदन नयं ॥५४॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५२७ ( श्रवचूरिः ) कथं चिहि संस्तवेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कार्य एव । तत्र कारणमाह । यथा कुक्कुटपोतस्य कुक्कुट शिशोर्नित्यं कुललान्मार्जारामयम् । एवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि जयख्यापनार्थम् ॥ २४ ॥ (अर्थ) को प्रसंगी साधु गृहस्थनी साथै परिचय करे तो पण तेथे गृहस्थ स्त्रीनी साथे तो कोइ काले पण परिचय न करवो. तेनुं कारण बे. जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के 50 ) यथा एटले जेम ( कुक्कुडपोस्स के० ) कुक्कुटपोतस्य एटले कुकडीना बच्याने ( निच्चं के० ) नित्यं एटले निरंतर, हमेशां (कुललर्ड के० ) कुललतः एटले. वि लाडाथी ( जयं के० ) जयं एटले जय बे. ( एवं कु के ० ) एवं खलु एटले एमज (बंजयारिस्स के० ) ब्रह्मचारिणः एटले ब्रह्मचारी एवा साधुने ( इवी विग्गाहर्ज के० ) स्त्रीविग्रहात् एटले स्त्रीना शरीरथी नित्य ( जयं के० ) जयं एटले जय बे. केवल जीवती स्त्रीबीज जय बे एम नयी, पण मृत स्त्रीना कलेवरथी पण जय बे एम जणाववाने श्रर्थे सूत्रमां स्त्रीथी जय बे, एम न कहेतां स्त्रीशरीरथी जय बे एम कयुं.५४ I ( दीपिका. ) कथंचित गृहिसंस्तवनावेऽपि स्त्रीसंस्तवो नैव कर्तव्य इत्यत्र कार - "माह । यथा कुक्कुटपोतस्य कुक्कुटबालस्य नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जारात् जयम् । एवं ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात् स्त्रीशरीरात् जयम् । विग्रहग्रहणं मृतशरीरादपि जयख्यापनार्थम् ॥ ५४ ॥ ( टीका. ) कथं चिहिसंस्तवनावेऽपि स्त्रीसंस्तवो न कर्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह । जह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यथा कुक्कुटपोतस्य कुक्कुट चेल्लकस्य नित्यं सर्वकालं कुललतो मार्जारतो जयम् । एवमेव ब्रह्मचारिणः साधोः स्त्रीविग्रहात्स्त्री शरी राम्रयम् । विग्रदग्रहणं मृतविग्रहादपि जयख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५४ ॥ चित्तनित्तिं न निनाए, नारिं वा सुप्रलंकि ॥ नरकरं पिव दंहू, दिहिं परिसमाहरे ॥ ५५ ॥ ( यवचूरिः ) यतश्चैवमतः चित्रनित्ति चित्रगतां स्त्रीं न निध्यायेन्न निरीक्षेत | नारी वा सचेतनां स्वलंकृतामुपलक्षणमेतदनलंकृतां वा । कथं चिदालोकेऽपि । नास्कर मि दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् निवर्त्तयेदित्यर्थः ॥ ५५ ॥ (.) एम बे माटे चित्तनित्तिं इत्यादि सूत्र साधु जे ते (चित्तनित्तिं के० ) चित्रनित्तिं एटले चित्रामणमां चितारेली स्त्रीने ( वा के० ) वा एटले तेमज (सुचलंकियां के०) स्वयंकृतां एटले सम्यक् प्रकारे अलंकार प्रमुख पहेरेली एवी ( नारि के० ) नारी Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. एटले स्त्रीने (न निलाए के) न निध्यायेत् एटले जुवे नहि. एम करतां पण क. दाच स्त्री जोवामां आवे तो साधु जे ते (जस्करं पिव के०) नास्करमिव एटले सूर्यने जोश्ने जेम तेम स्त्रीने (दहूणं के०) दृष्ट्वा एटले जोश्ने (दिहिं के०) दृष्टिं एटले पोतानी दृष्टिने (पडिसमाहरे के०) प्रतिसमाहरेत् एटले शीघ्र पाठी वाले.॥ ५५॥ (दीपिका.) यतश्च एवं ततः किं कार्यमित्याह । एवं विधामपि नारी साधुन निध्यायेत् न पश्येत् । किंनूतां नारीम् । चित्रगताम् । पुनः किंनूतां नारीम्। स्वलंकृताम् श्रलंकारैः शोजिताम् । उपलक्षणत्वादनलंकृतामपि न निरीक्षेत । कथंचिदर्शनयोगेऽपि जास्करमिव सूर्यमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् शीघ्रमेव निवर्तयेदिति ॥ ५५ ॥ (टीका.) यतश्चैवमतः चित्त ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । चित्रन्नित्तिं चित्रगतां स्त्रियं न निरीदेत न पश्येत् । नारी वा सचेतनामेव स्वलंकृतामुपलदणमेतदनलंकृतां च न निरीदेत । कथं चिदर्शनयोगेऽपि नास्करमिवादित्य मिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्र. तिसमाहरेदागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ दबपायपलिबिन्नं, कन्ननासविगप्पिअं॥ अवि वाससयं नारिं, बनयारी विवाए ॥५६॥ (अवचूरिः) किंबहुना हस्तपादप्रतिबिन्नां विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिका नारीमेवंविधामपि किं पुनस्तरुणीम्। ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधनीव तस्करान् विवर्जयेत् ॥ (अर्थ.) हवे बहु शुं कहिये. हल इत्यादि सूत्र. (बंजयारी के ) ब्रह्मचारी ए. टले परिपूर्ण ब्रह्मव्रतना धारण करनार एवा साधु जे ते (हबपायपलि छिन्नं के०) प्र. तिबिन्न हस्तपादां एटले जेना हाथ पग कपाश् गया बे एवी तथा (कन्ननास विगप्पिसं के) विकृत्तकर्णनासां एटले जेना नाक कान पण कपाश् गया बे, एवी तेमज (वाससयं अवि के०) वर्षशतिकामपि एटले सो वर्षनी उमरे पूगेली एवी पण (नारि के०) नारी एटले स्त्रीने (विवजाए के०) वर्जयेत् एटले वर्जे. अर्थात् एवी स्त्रीनी साथे पण परिचय विगेरे राखे नहि. ॥५६॥ . . (दीपिका.) किंबहुना ब्रह्मचारी साधुः ईदृशीमपि नारी विवर्जयेत् । किमङ्ग पुनः तरुणीं नारीम्। सुतरामेव विवर्जयेत् । किवि शिष्टां नारी हस्तपादपरिबिन्नां यस्या हस्तौ पादौ दिन्नौ वर्तते । पुनः किंनूतां नारीम् कर्णनासाविकृत्तां कौँ नासा च विकृत्ता यस्यास्ताम् । पुनः किंन्नूतां नारीम् । वर्षशतिकाम् । एतादृशीं वृक्षामपि विर्जयेत् । का कानिव। महाधनो यथा चौरान वर्जयेत् ॥५६॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । (टीका.) किं बहुना हब ति सूत्रम् । व्याख्या । हस्तपादप्रतिबिन्नामिति प्र. तिबिन्नहस्तपादाम्।कर्णनासाविकृत्तामिति विकृत्तकर्णनासामपि वर्षशतिका नारीमेवं विधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणीं तां तु सुतरामेव ब्रह्मचारी चारित्रधनो महाधन श्व तस्करान् विवर्जयेदिति सूत्रार्थः॥ ५६ ॥ विनूसा इचिसंसग्गो, पणीअं रसनोअणं ॥ नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालनमं जदा ॥॥ ... (श्रवचूरिः) अपिच । विनूषा नखादिसंस्काररूपा । स्त्रीसंसर्गः । स्निग्धरस जोजनं नरस्यात्मगवेषिण आत्महितचिन्तनपरस्यैतहिषमिव तालपुटम् । तालमात्रव्यापत्तिकर विषकल्पम् ॥ ७ ॥ (अर्थ.) वली विनूसा इत्यादि सूत्र. (अत्तगवेसिस्स के) आत्मगवेषिणः एटले श्रात्माना कल्याणना अर्थी एवा (नरस्स के०) नरस्य एटले मनुष्यने अर्थात् साधुने (विनूसा के०) विनुषा एटले. वस्त्र, आनुषण इत्यादिवडे शरीरने सणगार, ते, (विसंसग्गो के०) स्त्रीसंसर्गः एटले को पण प्रकारे स्त्रीनो संबंध तथा (पणीधरसनोश्रणं के०) प्रणीतरसनोजनम् एटले जेमांथी घी, तेल प्रमुख स्नेह करे ने एवो आहार करवो ते (तालवुमं विसं जहा के०) तालपुटं विषं यथा एटले तालपुट विष सरखो . अर्थात् उपर कहेली त्रणे वस्तु विषसरखी होवाथी साधुए वर्जवी.५७ (दीपिका.) अपिच । नरस्य श्रात्मगवेषिण एतत्सर्वं विषादि तालपुट विषं यथा तालमात्रव्यापत्तिकर विषकल्पम् । तत्किमित्याह । विनूषा वस्त्रादिराढा शोना । स्त्रीसंसर्गो येन केन चित्प्रकारेण स्त्रीसंवन्धः। प्रणीतरसनोजनं गलत्स्नेहरसलक्षणम्५७ (टीका.) श्रपिच । विनूस त्ति सूत्रम् । विनूषा वस्त्रादिराढा, स्त्रीसंसर्गः येन केन चित्प्रकारेण स्त्रीसंबन्धः। प्रणीतरसनोजनं गलत्स्नेहरसान्यवहारः । एतत्सर्वमेव विनूषादि नरस्यात्मगवेषिण श्रात्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा तालमात्रव्यापत्तिकर विषकल्पमहितमिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ __ अंगपञ्चंगसंगणं, चारुल्लविअपेदिअं॥ वीणं तं न निप्लाए, कामरागविवढणं ॥५॥ (श्रवचूरिः) अङ्गानि शिरःप्रनृतीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एषां संस्थानं विन्यास विशेषं, चारु लपितं जल्पितं प्रेक्षितं निरीक्षितं स्त्रीणां संवन्धि तदङ्गप्रत्यङ्गसं Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. स्थानादीनि न निध्यायेत् न निरीक्षेत । एतन्निरीक्ष्यमाणं कामरागविवर्जिन मेथुनानिलाषजनकमित्यर्थः ॥ ५७ ॥ (अर्थ.) वली अंगपञ्चंग इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (कामराग विबढणं के०) कामरागविवईनम् एटले कामरागनी वृद्धि करनार अर्थात् स्त्रीना कामोपन्नोगनी श्छा वधारनार एवं (तं के) तत् एटले ते (श्चीणं के०) स्त्रीणां एटले स्त्रियोनी (अंगपञ्चंगसंगणं के०) अंगप्रत्यंगसंस्थानं एटले मस्तक विगेरे अंगनी, तथा कर्ण, नेत्र विगेरे उपांगनी रचना प्रत्ये तेमज (चारुल विअपेहिथं के०) चारुल पितप्रेक्षितं एटले स्त्रियोनाज सुंदर बालाप अने दृष्टि प्रत्ये (न निलाए के०) न निध्यायेत् एटले जुवे नहि. ॥ ५७ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः स्त्रीणामेतानि न निध्यायेत्, न निरीदेत, न पश्येत् । कुत इत्याह । कामरागविवर्मन मिति । एतन्निरीक्ष्यमाणं मोहदोषात् मैथुना. निलाषं वयति । अत एव अस्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधात् गतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थ नेदेन उपन्यासः कृतः । एतानि कानि इत्याह । अङ्गानि शिरःप्रनृतीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एतेषां संस्थानं विन्यासविशेषम् । तथा चारु शोजनं लपितं जल्पितं प्रेदितं निरीक्षितं स्त्रीणां संबन्धि सर्वम् ॥५॥ (टीका.) अंग त्ति सूत्रम् । व्याख्या। अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानमित्यङ्गानि शिरःप्रन. तीनि । प्रत्यङ्गानि नयनादीनि । एतेषां संस्थानं विन्यास विशेषं, तथा चारु शोजनं लपितप्रेदितं, लपितं जल्पितं, प्रेक्षितं निरीदितं स्त्रीणां संबन्धि तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि न निरीदेत न पश्येत् । किमित्यत आह । कामरागविवर्डनमिति। एतधि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषान् मैथुनानिलाषं वर्डयति । अत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेधाजतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थो नेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नानिनिवेसए॥ अणिचं तेसिं विनाय, परिणाम पुग्गलाण य ॥ ५॥ (अवचूरिः ) विषयेषु शब्दादिषु मनोज्ञेषु प्रेम नाजिनिवेशयेत् न कुर्यात्। एवममनोज्ञेषु वैषम् । अनित्यं परिणामानित्यतया तेषां शब्दादिषु पुजलानां विज्ञाय परिकामं पर्यायान्तरापत्तिरूपम्।ते हि मनोज्ञा अपि दणेनामनोज्ञतया एवममनोझा अपि मनोज्ञतया परिणमन्तीति तुलो रागद्वेषयोर्हेतुः ॥ ५ ॥ (अर्थ) वली विसएसु इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (तेसिं के०) तेषां एटले ते (पुग्ग Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५३१ साणं के०) पुजलानां एटले शब्दादिरूपे परिणमेला पुजलोना (परिणामं के०) परिणामं एटले परिणाम प्रत्ये (अणिचं के०) अनित्यं एटले अनित्य एवाने (विनाय के०) विज्ञाय एटले जाणीने (मणुन्नेसु के) मनोज्ञेषु एटले सुंदर, मनोहर एवा (विसएसु के०) विषयेषु एटले शब्द स्पर्शादि विषयोने विषे (पेमं के०) प्रेम एटले प्रेमरागप्रत्ये (नानिनिवेसए के०) नानिनिवेशयेत् एटले न करे. अर्थात् मनने गमता विषय होय ते घडीमा अणगमता थाय , अने अणगमता होय ते घडीमां मनगमता थाय डे माटे ते उपर रागद्वेष न राखवा. ॥ ५५॥ (दीपिका.) पुनः किंच।साधुः विषयेषु शब्दादिषु प्रेम रागं न अनिनिवेशयेत् न कुर्यात् । किंजूतेषु विषयेषु । मनोडेषु । इन्जियाणामनुकूलेषु । अमनोज्ञेषु च द्वेषं न कुर्यात् । किं कृत्वा । तेषां पुजलानां तुशब्दाबब्दादिविषयसंबन्धिनामनित्यतया परिणामं विज्ञाय जिनवचनानुसारेण । कथम् । विज्ञायते हि मनोज्ञा अपि क्षणाद् श्रमनोज्ञतया परिणमन्ति । श्रमनोज्ञा अपि दाणाद् मनोज्ञतया परिणमन्ति । ततस्तयोरुपरि रागद्वेषकरणं निरर्थकमिति ॥ एए॥ (टीका.) किं च । विसएसु त्ति सूत्रम् । विषयेषु शब्दादिषु मनोझेष्विन्जियानुकूतेषु प्रेम रागं नानिनिवेशयेन्न कुर्यात् । एवममनोज्ञेषु वैषम् । श्राह । उक्तमेवेदं प्राक् कमसोकेहीत्यादौ । किमर्थं पुनरुपन्यास इति । उच्यते । कारण विशेषानिधानेन विशेषोपलम्नार्थ मिति । श्राह च । अनित्यमेव परिणामानित्यतया तेषां पुजलानां तुशब्दाउब्दादिविषयसंबन्धिनामिति योगः। विज्ञायावैत्य जिनवचनानुसारेण । किमित्याह । परिणामं पर्यायान्तरापत्तिलक्षणम् । ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो विषयाः दणादमनोज्ञतया परिणमन्ति । अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतया इति तु; रागवेषयोनिमित्तमिति सूत्रार्थः॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा॥ विणीअतिएहो विहरे, सीईनूएण अप्पणा ॥६॥ (अवचूरिः) एतदेवाह । पुजलानां शब्दादिविषयान्तर्गतानां परिणाममुक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा यथा मनोझेतररूपतया नवन्ति तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णोऽपेतानिलायो विहरेत् । शीतीनूतेन क्रोधायनावेन प्रशान्तेनात्मना ॥ ६० ॥ (अर्थ.) एज प्रकट कहे . पोग्गलाणं इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (तेसिं के०) तेषाम् एटले ते (पोग्गलाणं के०) पुजलानां एटले पुजलोना (परीणामं के०) परि Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-४३-मा. णामं एवले परिणाम प्रत्ये (जहा तहा के०) यथा तथा एटले जेवो ते प्रकारे (न च्चा के) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( विणीथतिण्हो के०) विनीततृष्णः एटले शब्दादि विषयोने विषे रहेला अनिलाषने डोडतो तो (सीनूएण के०) शीतीनूतेन एटले क्रोध प्रमुख अनि उलवा गयाथी शीतल थएला एवा (अप्पणा के०) श्रात्मना ए. टले श्रात्मावडे करीने ( विहरे के) विहरेत् एटले विचरे. ॥६०॥ (दीपिका.) एतदपि स्पष्टयन्नाह । शीतीनूतेन क्रोधादीनां त्यागात् प्रशान्तेन श्रास्मना विहरेत् । किं कृत्वा । तेषां पूर्वोक्तानां पुजलानां परिणामं यथा मनोझामनोज्ञतया जवन्ति।तथा ज्ञात्वा। किंजूतः साधुः। विनीततृष्णो गतानिलापः शब्दादिषु ६० ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयन्नाह । पोग्गलाणं ति सूत्रम् । पुजलानां शब्दादिविषया. न्तर्गतानां परिणाममुक्तलक्षणं तेषां ज्ञात्वा विज्ञाय यथा मनोज्ञेतररूपतया नवन्ति। तथा ज्ञात्वा विनीततृष्णोऽपेतानिलाषः शब्दादिषु विहरेत् । शीतीनूतेन क्रोधाद्यन्यपगमात्प्रशान्तेनात्मनेति सूत्रार्थः ॥ ६७ ॥ जा सहा निकंतो, परिपायहाणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए॥६१॥ - (अवचूरिः) यया श्रच्या संयमगुणखीकरणरूपया निष्क्रान्तो गृहवासात् पर्यायस्थानमुत्तमं प्राप्तः । तामेव श्रमामनुपालयेत् प्रवर्डमानां कुर्यात् । क्व । मूलगुणादिषु आचार्यसंमतेषु । उपलक्षणत्वादईदादिसंमतेषु ॥ ६१॥ (अर्थ.) वली जा इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (जा के०) यया एटले जे (सका के०) श्रच्या एटले श्रका वडे (निरंतो के०) निष्क्रान्तः एटले अविरतिरूप कादवथी नीकल्या, अने (उत्तमं के०) उत्तमं एटले प्रधान एवा (परियायहाणं के०) पर्यायस्थानं एटले सर्व विरतिस्वीकाररूप उत्तम स्थानकप्रत्ये पाम्या. ( तमेव के) तामेव एटले तेज (आयरिशसंमए गुणे के०) आचार्यसंमतेषु गुणेषु एटले तीर्थकर प्रमुखने बहु संमत एवा मूलगुण प्रमुख गुणोने विषे रहेली श्रद्धा प्रत्ये (अणुपालिका के०) अनुपालयेत् एटले रक्षण करे. ॥ ६१॥ __ (दीपिका.) पुनः किं च । साधुः तामेव श्रद्धामप्रतिपातितया प्रवर्षमानां गुणेषु मूलगुणादिलक्षणेषु पालयेत् । किंनूतेषु गुणेषु । आचार्यसंमतेषु तीर्थकरा दिमतेषु । तां काम् । यया. श्रझया प्रधानगुणस्वीकाररूपया निष्क्रान्तोऽविरतिकर्दमात् रीदास्थानमुत्तमं प्रधानं प्राप्तः ॥ ६१॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम् । ५३३ . ( टीका.) किं च जाति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यया श्रध्या प्रधानगुणखीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात्पर्यायस्थानं प्रव्रज्यारूपमुत्तमं प्रधानं प्राप्त इत्यर्थः । तामेव अझामप्रतिपातितया प्रवर्धमानामनुपालयेद्यत्नेन । क इत्याह । गुणेषु मूलगुणादिलदणेष्वाचार्यसंमतेषु तीर्थकरा दिवहुमतेषु । अन्ये तु अझाविशेषणमेतदिति व्याचक्षते । तामेव श्रद्धामनुपालयेशुणेषु । किंनूताम् । आचार्यसंमताम् । न तु खाग्रहकलङ्कितामिति सूत्रार्थः ॥६१॥ . तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अदिहिए ॥ सुरे व सेणाइ समत्तमानदे, अलमप्पणो दोश् अलं परेसिं ॥६॥ (श्रवचूरिः) आचारप्रणिधिफलमाह । तपश्चेदमनशनादिरूपं, संयमयोगं पृथ्व्यादिविषयं संयमव्यापारं, खाध्याययोगं च वाचनादिकं सदाधिष्ठाता तपःप्रनतीनां कर्तेत्यर्थः। स एवंनूतः शूर श्व सुन्नट व सेनया चतुरङ्गया कषायादिरूपया रुकः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रवृतिखड्गाद्यायुधः । अलमत्यर्थमात्मनो नवति संरक्षणाय परेषां च । निराकरणायालम् ॥६॥ (अर्थ.) हवे श्राचारप्रणिधिनुं फल कहे . तवं चिमं इत्यादि सूत्र. (श्मं के०) दं एटले था अर्थात् साधु लोकमां प्रसिद्ध एवा (तवं के०) तपः एटले अनशन प्रमुख तपस्या प्रत्ये (च के०) च एटले वली (संजमजोगं च के०) संयमयोगं एटले षट्काय जीवरक्षारूप संयमव्यापार प्रत्ये (च के०) च एटले वली (संपायजोगं के०) स्वाध्याययोगं एटले वाचना प्रमुख व्यापार प्रत्ये (सया के०) सदा एटले निरंतर (अहिहिए के०) अधिष्ठाता एटले करनार एवा साधु जे ते (सेणा के०) सेनया एटले चतुरंग सेनावडे (सूरे व के०) शूर श्व एटले शूरवीर पुरुष जेम रोकाय , तेम इंडिय कषाय रूप सेना वडे रोकाय त्यारे (समत्तमाउहे के०) समासायुधः एटले तपस्या प्रमुख आयुधो जेनी पासे पूरेपूरां एवो थयो ठतो (थप्पणो के०) आत्मनः एटले पोतानी रक्षा करवाने अर्थे (श्रलं के०) अलं एटले समर्थ (होश के०) नवति एटले थाय . तेमज (परेसिं के०) परेषां एटले वीजा शत्रुठने वारवाने अर्थे पण (अलं के०) समर्थः एटले समर्थ थाय ठे. ॥ ६ ॥ (दीपिका.) अथ श्राचारप्रणिधिफलमाह । साधुः एवं विधः सन् शूर व विकान्तसुनट व । अलमत्यर्थमात्मनः संरक्षणाय श्रलं च परेषां निवारणाय न. वति । किंनूतः साधुः । तपश्च इदमनशनादि छादशन्नेदरूपं सर्वसाधुप्रसिद्धं संयम Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. योगं च पृथिव्यादिविषयसंयमव्यापारं च खाध्याययोगं च वाचनादिव्यापारं च सदा सर्वकालमधिष्ठाता तपःप्रजतीनां कर्ता इत्यर्थः । किनूतः शूरः । सेनया चतुरङ्गवलरूपया इन्धियकषायादिसेनया निरुकः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रवृतिखङ्गायुधः॥६॥ (टीका.) आचारप्रणिधिफलमाह । तवं चिमं ति सूत्रम् । तपश्चेदमनशनादिरूपं साधुलोकप्रतीतं संयमयोगं च पृथिव्यादि विषयं संयमव्यापारं च स्वाध्याययोगं च वाचनादिव्यापारं सदा सर्वकालमधिष्ठाता तपःप्रनृतीनां कर्तेत्यर्थः । इह च तपोऽनिधानात्तग्रहणेऽपि खाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ नेदेनानिधानमिति । स एवंनूतः शूर व विक्रान्तनट श्व सेनया चतुरङ्गरूपया इन्द्रियकपायादिरूपया निरुतः सन् समाप्तायुधः संपूर्णतपःप्रवृतिखङ्गाद्यायुधः अलमत्यर्थमात्मनो नवति संरक्षणाय श्रलं च परेषां निराकरणायेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सप्लायसनाणरयस्स ताणो, अपावनावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन्नई जं सि मलं पुरे कर्म, समीरिअंरुप्पमलं व जोशणा ॥३३॥ (श्रवचूरिः) एतदेव स्पष्टयन्नाह । स्वाध्याय एव सध्यानं तत्र रतस्य त्रातुः स्वान्ययोः अपापन्नावस्य लब्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्धचित्तस्य विशुध्यते अपैति यदस्य साधोर्मलं कर्ममलं पुराकृतं जन्मान्तरोपात्तम् । दृष्टान्तमाह । समीरितं प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषाग्निना ॥६३॥ (अर्थ.) एज प्रकट करवाने अर्थे कहे . सप्लाय इत्यादि सूत्र. (सप्लायसप्राणरयस्स के०) स्वाध्यायसध्यानरतस्य एटले स्वाध्यायरूप शुज ध्यानने विषे श्रासक्त एवा (ताश्णो के०) तायिनः एटले पोतानी तथा परनी रक्षा करनार एवा (अपावन्नावस्स के०) अपापजावस्य एटले लब्धि प्रमुखनी श्वा न होवाथी शुरू चित्तवाला एवा तथा (तवे के०) तपसि एटले तपस्याने विषे ( रयस्स के०) रतस्य एटले थासक्त एवा (सि के०) अस्य एटले ए साधुनुं (जं के०) यत् एटले जे (पुरेकर्म के०) पुराकृतं एटले पूर्वजवे उपार्जेलु एवं ( मलं के) मलं एटले मेलु अशुन कर्म जे ते (जोशणा के०) ज्योतिषा एटले अग्निवडे (समीरिअं के०) समीरितं एटले प्रेरित एवं अर्थात् अग्निथी तपाय (रुप्पमलं व के०) रूप्यमल मिव एटले अग्निना तापथी रूपानुं मल जेम नीकली जाय जे तेम ( विसुत के०) विशुध्यति ____ष्टले शुरू थाय बे, निर्जरा पामे बे. ॥ ६३ ॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेऽष्टमाध्ययनम्। ५३२ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । अस्य साधोः यत् मलं कर्ममलं तत् विशुज्यते अपैति दूरे यातीत्यर्थः। किंनूतं मलम् । पुराकृतं जन्मान्तरेषु उपात्तमुपार्जितम् । केन किंवत् । यथा रूप्यमलम् । किंनूतं रूप्पमलम् । समीरितं प्रेरितं । केन । ज्योतिपानिना । किंचूतस्य साधोः। खाध्यायसध्यानरतस्य खाध्याय एव सध्यानं स्वाध्यायसध्यानं तत्र रतस्य आसक्तस्य । पुनः किंनूतस्य साधोः। त्रातुः स्वस्थ परस्य उन्नयेषां च रक्षणशीलस्य।पुनः किंनूतस्य साधोः। अपापन्नावस्य लब्ध्यादीनां या अपेक्षा तया रहिततया शुभचित्तस्य । पुनः किंनूतस्य साधोः । तपसि अनशनादौ द्वादशविधे रतस्य । एवं विधस्य शुभस्य साधोः पापं दूरे यातीति परमार्थः॥६३ ॥ __ (टीका.) एतदेव स्पष्टयन्नाह । सनाय त्ति सूत्रम् । स्वाध्याय एव सध्यानं तत्र रतस्य सक्तस्य त्रातुः स्वपरोजयत्राणशीलस्य अपापन्नावस्य लब्ध्याद्यपेदारहिततया शुभचित्तस्य तपस्यनशनादौ यथाशक्ति रतस्य विशुध्यतेऽपैति । यदस्य साधोर्मलं कर्ममलं पुराकृतं जन्मान्तरोपात्तम् । दृष्टान्तमाद । समीरितं प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषाभिनेति सूत्रार्थः ॥ ६३ ॥ से तारिसे दुकस जिदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे॥ विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणनपुमावगमेव चंदिमित्ति बेमि॥६॥ आयारपणिही णाम अप्नयणं संमत्तं ॥७॥ (अवचूरिः) ततश्च । स तादृशः पूर्वोदितगुणयुक्तः साधुः पुःखसहः परीपहजेता । श्रुतेन युक्तः । अममो ममत्वरहितः । अकिंचनो व्यकिंचनर हितः। विराजते कर्मघने ज्ञानावरणादिकर्मघने अपगते सति केवलज्ञानलानात् । कृत्स्नानपुटापगमे चन्द्रमा श्वेति ब्रवीमीति ॥ ६ ॥ इत्याचारप्रणिध्यध्ययनावचूरिः ॥७॥ (अर्थ.) माटे से इत्यादि सूत्र. ( तारिसे के०) तादृशः एटले पूर्वोक्त गुणयुक्त एवा (कुरकसहे के०) कुःखसहः एटले परीपहना जितनार एवा (जिदिए के०) जितेन्द्रियः एटले पोतानां इंजिय जेणे जीत्यां ठे एवा (सुएण के०) श्रुतेन एटले श्रुतवडे (जुत्ते के०) युक्तः एटले युक्त एवा, (अममे के० ) अममः एटले सर्वत्र ममतारहित एवा तथा (अकिंचणे के०) थकिंचनः एटले अव्य नाव परिग्रह रहित एवा (से के) सः एटले ते पूर्वोक्त साधु जे ते (कसिणलपुडावगमे के०) कृत्स्नानपुटापगमे एटले संपूर्ण अत्रमंडल (वादलानो समुदाय) विखेरा गये ठते जेम (चंदिमा के०) Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा चंद्रमाः एटले चंद्रमा शोभे बे तेम ( कम्मघम्म के० ) कर्मधने एटले कर्मरूप मेघ ( are ho ) गते एटले नाश पाने ते ( विराय के० ) विराजते एटले शोने इति ब्रवीमि नोर्थ पूर्वे कल बे ते माफक जावो. ॥ ६४ ॥ इति श्री दशवेकालिक सूचना याचारप्रणिधिनामा श्रध्ययननो बालावबोध संपूर्ण ॥८॥ । ( दीपिका . ) ततश्च साधुः कीदृशो जवेदित्याह । स तादृशः पूर्वोक्तगुणयुक्तः साधुविराजते । क इव । चन्द्रमा इव । क्व सति । कृत्स्नाचपुटापगमे समस्तानामचपुटानामपगमे नाशे सति । श्रयं जावः । यथा शरत्काले चंद्रमाः शोजते तथा साधुरपि पगतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इत्यर्थः । किंभूतः साधुः । दुःखसदः परहपीडासहः । पुनः किंभूतः साधुः जितेन्द्रियः पराजितश्रोत्रादिपञ्चेन्द्रियविषयः । पुनः किंभूतः साधुः । श्रुतज्ञानेन युक्तः विद्यावानित्यर्थः । पुनः किंभूतः साधुः । श्र ममः सर्वत्र ममतारहितः । पुनः किंभूतः साधुः । अकिंचनः किंचनरहितः । त्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ६४ ॥ इति श्रीदशवेकालिके सूत्रे श्रीसमय सुन्दरोपाध्याय विरचितायां दीपिकायामष्टमाध्ययनं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ ( टीका. ) ततः से तारिसे त्ति सूत्रम् । व्याख्या । स तादृशोऽनन्तरो दितगुणयुक्तः साधुः दुःखसहः परीषदजेता जितेन्द्रियः पराजितश्रोत्रे न्द्रियादिः । श्रुतेन युक्तो विद्यावानित्यर्थः । ममः सर्वत्र ममत्वरहितः । अकिंचनो ऽव्यजाव किंचनरहितः विराजते शोभते । कर्मघने ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति । निदर्शनमाद | कृत्स्नाचपुटापगम इव चन्द्रमा इति । यथा कृत्स्ने कृष्णे वा अपुढे अगपते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपि अपगतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् ॥ ८ ॥ इति श्री हरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैका लिकबृहद्वृत्तावष्टमाध्ययनम् ॥ ८ ॥ अष्टाध्ययनं संपूर्णम् ॥ ८ ॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५३४ ‘यंना व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिके । सो चेव ज तस्स अनूश्नावो, फलं व कीअस्स वदाय हो ॥१॥ (अवचूरिः) अथ विनयसमाध्यध्ययनावचूरिः। पूर्वाध्ययने साधुनाचारे यत्नवता नाव्यमित्युक्तम् । इह च श्राचारवानेव विनयसंपन्नो नवति । अतोऽत्र विनय उच्यते। स्तम्नाछा मानाछा जात्यादिनिरुत्तमोऽहमिति । अहं गुरुनिराकुष्ट इति क्रोधाददा. न्तिलक्षणात् । मायाप्रमादात् । शूलं मे बाधत इत्यादिमायातः । प्रमादान्निप्रादेः । गुरोः सकाशे विनयं ग्रहणासवेन शिदारूपं न शिदेत । स एव तु स्तम्नादिविनय शिक्षा विघ्नहेतुस्तस्य जडमतेः। अनूते वोऽनूतिनावोऽसंपन्नाव इत्यर्थः । किमित्याह । वधाय गुणलक्षण जावप्राणनाशाय नवति । दृष्टान्तमाह । फलमिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय जवति । सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्तछदिति ॥ १ ॥ (अर्थ.) श्राचारप्रणिधिनामा अध्ययन कह्यु. हवे विनयसमाधिनामक अध्ययननो श्रारंन करे . या अध्ययननो पूर्व अध्ययननी साथे संबंध आ रीते . थाउमा अध्ययनमा सामाचारीने सम्यक् प्रकारे पालनार साधुनुं वचन निरवद्य होय , माटे निरवद्य वचन बोलवाने विषे साधुए यतना राखवी- एम कडं. हवे आ विनयसमाधिनामा अध्ययनने विषे ' सामाचारीने अनुसरीने चालनार साधु विनयसंपन्न ज होय डे' एम कहेवानुं . आ संबंधे आवेल ा अध्ययनर्नु यंना व इत्यादि प्रथम सूत्र. जे साधु (थंना के०) स्तम्नात् एटले जातिहीन (हलकी जातना) तथा कुलहीन एवानी पासे हुं शी रीते शिखवा जाजं ? एवा अहंकारथी, (व के०) वा एटले अथवा (कोहा के०) क्रोधात् एटले कंश पण कारणथी उत्पन्न थएल रोषथी (व के०) वा एटले अथवा ( मयप्पमाया के०) मायाप्रमादात् एटले कपटथी अथवा निमा प्रमुख प्रमादथी (गुरुस्तगासे के०) गुरोः सकाशे एटले आचार्य प्रमुख गुरुनी पासे (विणयं के०) विनयं एटले थासेवन प्रमुख विनय प्रत्ये (न सिरके के०) न शिदते एटले शिखतो नथी. (सो चेव के०) स चैव एटले ते स्तंन, क्रोध प्रमुख जे ते ज (ज के०) तु एटले निश्चये करीने (तस्स के ) तस्य एटले ते साधुनो (अनूश्नावो के०) अनूतिनावः एटले ज्ञानरूप संपदानो नाश करनारो एवो (कीअस्स के) कीचकस्य एटले वांसना (फलं व के०) फलमिव एटले फलनी पेठे पोताना (वहाय के०) वधाय एटले गुणरूप नाव प्राणना Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. नाशने अर्थे ( हो के० ) जवति एटले थाय ठे वांसने फल यावे तो तेनो नाश थाय बे, ए वात प्रसिद्ध बे. ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) विनयसमाध्याख्यं नवममध्ययनं व्याख्यायते । तस्य नवमाध्ययनस्य चत्वार उद्देशाः । तत्र प्रथमोदेशकमाह । इह च श्रयं संबन्धः । पूर्वाध्ययने निः पापं वचनमाचारे प्रणिहितस्य सम्यक् स्थितस्य नवतीति तत्र यलवता जाव्यम् । इत्येतत् उक्तम् । इह तु आचारप्रणिहितो यथायोग्य विनयसंपन्न एव जवति । इत्येतडुच्यते । तथाहि शिष्यः गुरोः सकाश आचार्यादेः समीपे विनयमासेवनारूपं शिक्षारूपं च न शिक्षते, न उपादत्ते, न गृह्णातीत्यर्थः । कस्मात् । स्तम्नाद्वा । कथमहं जात्यादिमान् जात्यादिहीनस्य गुरोः समीपे शिदे । तथा क्रोधात् कथं चिदसत्यकरणप्रेरितो रोषाद वा । तथा मायातः शूलं मे वाधत इत्यादिकपटेन । तथा प्रमादात् प्रक्रान्तमुचितमजानन् निद्रादीनां व्यासङ्गेन । स्तम्नादीनां क्रमेण उपन्यासश्च इमेव अमीषां विनयस्य विघ्नतामाश्रित्य ख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्नादिभ्यो गुरोः समीपे विनयं न शिक्षते । श्रन्ये तु श्राचार्या एवं पठन्ति । गुरोः समीपे विनये न तिष्ठति, विनयेन वर्तते, विनयं न सेवत इत्यर्थः । इह स एव स्तम्ना दिर्विनय शिकाविघ्नहेतुस्तस्य जडमतेः अभूतिनाव इति । श्रभूतेनवः अनूतिनावः संपाव इत्यर्थः । किमित्याह । वधाय जवति । गुणलक्षणनाव प्राण विनाशाय जवति । दृष्टान्तमाह । फल मित्र कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य फलं यथा वधाय नवति । तस्मि सति तद्विनाशनात् । तद्वत् इति ॥ १ ॥ । ( टीका. ) अधुना विनयस माध्याख्यमारभ्यते । अस्य चायम निसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने निरवद्यं वच श्राचारे प्रणिहितस्य जवतीति तत्र यत्नवता जवितव्यमित्येतटुक्तम् । इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव जवतीत्येतदुच्यते । उक्तं च ॥ श्रयारपणिहाणं मि, से सम्मं वहई बुहे ॥ णाणादी विणीए जे, मोका निव ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायात मिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निदेपः । तत्र च विनयसमाधिरिति द्विपदं नाम । तन्निदेपायाह ॥ विनयस्स समाहीए, निरकेवो होइ दोह वि चटको | दव विषयंमिति णिसो, सुवस मिच्चेवमाईणि ॥ ७६ ॥ व्याख्या ॥ विनयस्य प्रसिद्ध तत्त्वस्य - माधेश्च प्रसिद्धतत्त्वस्यैव । न्यासो भवति द्वयोरपि चतुष्को नामा दिनेदात् । तत्र नास्थापने कुत्वादनादृत्य द्रव्य विनयमाह । द्रव्यविनये इशरीरमव्यशरीरव्यतिरिक्ते तिनिशो वृक्ष विशेष उदाहरणम् । स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा विनीयते तत्र ॥ .. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथमउद्देशकः। ५३ए तत्र तथा परिणमति योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुएमलादिप्रकारेण विनयनाद् अव्याणि अव्यविनयः । श्रादिशब्दात्तत्तद्योग्यरूप्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ सांप्रतं नाव विनयमाह ॥ लोगोवयारविणजे, अनिमित्तं च कामहेलं च ॥ जयविणयमुकविण, विण खलु पंचहा हो ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ लोकोपचारविनयो लोकप्रतिपत्तिफलोऽर्थ निमित्तं चार्थप्राप्त्यर्थं च कामहेतुश्च काम निमित्तश्च । तथा जयविनयो जयनिमित्तो मोक्ष विनयो मोदनिमित्तः । एवमुपाधिनेदाहिनयः खनु पञ्चधा पञ्चप्रकारो जवतीति गाथासमासार्थः ॥ ॥ व्यासायनिधित्सया तु लोकोपचारविनयमाह ॥ श्रनुगणं अंजलि, श्रासणदाणं अहिपूश्रा य ॥ लोगोवयारविणजे, देवपूश्रा य विहवेण ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ अन्युडानं तचितस्यागतस्यानिमुखमुडानम् । अंजलिविज्ञापनादौ । श्रासनदानं च गृहागतस्य प्रायेण । अतिथिपूजा चाहारादिदानेन । एष चनूतो लोकोपचार विनयः । देवतापूजा च यथाजक्ति बल्याद्युपचाररूपा विनवेनेति यथाविनवं विनवोचितेति गाथार्थः॥ ॥ उक्तो लोकोपचारविनयोऽर्थविनयमाह ॥ श्रनासवित्तिबंदा-गुवत्तणं देसकालदाणं च ॥ अपुहाणं अंजलि-श्रासणदाणं च अबकए ॥ ॥ व्याख्या ॥ अन्याशवृत्तिर्नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं, बन्दोऽनुवर्तनमनिप्रायाराधनं, देशकालदानं च कटकादौ विशिष्टनृपतेः । प्रस्तावदानं च तथाज्युबानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्त्यर्थकतेऽर्थार्थ मिति गाथार्थः ॥४॥ उक्तोऽर्थविनयः । कामादिविनयमाह ॥ एमेव कामविणजे, जए थ नेवमाणुपुवीए ॥ मोकंमि वि पंचविहो, परूवणा तस्सिमा हो ॥ ७० ॥ व्याख्या ॥ एवमेव यथार्थ विनय उक्तोऽन्याशवृत्त्यादिः । तथा कामविनयः । नये चेति । नयविनयश्च ज्ञातव्यो वियः। श्रानुपूर्व्या परिपाट्या । तथाहि । कामिनो वेश्यादीनां कामार्थमेवाच्यासवृत्यादि यथाक्रमं सर्वं कुर्वन्ति ।प्रेष्याश्च नयेन खामिनामित्युक्तौ कामनयविनयौ । मोक्षविनयमाह । मोदेऽपि मोद विषयो वि. नयः पञ्चविधः पञ्चप्रकारः। प्ररूपणा निरूपपणा तस्यैषा नवति वक्ष्यमाणेति गा. थार्थः ॥ ॥ दंसणनाणचरित्ते, तवे श्र तह उवयारिए चेव ॥ एसो थ मोरकवि. णजे, पंचविहो होश नायवो ॥ १ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनशानचारित्रेषु दर्शनशानचारित्रविषयः । तपसि च तपोविषयश्च तथा औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव। एष तु मोक्षविनयो मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो नवति ज्ञातव्य इति गाथासमासार्थः ।। व्यासार्थेन दर्शनविनयमाह ॥ दवाण सबजावा, उवश्हा जे जहा जिणवरेहिं । ते तह सदहश् नरो, दसणविणर्ड हव तम्हा ॥ २ ॥ व्याख्या ॥ व्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वनावाः सर्वपर्याया उपदिष्टाः कथिता येऽगुरुलवादयो यथा येन प्रकारेण Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. नाशने अर्थे (होश के०) लवति एटले थाय बे. वांसने फल आवे तो तेनो नाश थाय बे, ए वात प्रसिक .॥१॥ (दीपिका.) अथ विनयसमाध्याख्यं नवममध्ययनं व्याख्यायते । तस्य नवमाध्ययनस्य चत्वार उद्देशाः । तत्र प्रथमोद्देशकमाह । श्ह च श्रयं संवन्धः। पूर्वाध्ययने निःपापं वचनमाचारे प्रणिहितस्य सम्यक् स्थितस्य नवतीति तत्र यत्नवता नाव्य. म् । इत्येतत् उक्तम् । इह तु श्राचारप्रणिहितो यथायोग्यविनयसंपन्न एव भवति । इत्येतदुच्यते । तथाहि शिष्यः गुरोः सकाश आचार्यादेः समीपे विनयमासेवनारूपं शिदारूपं च न शिदंते, न उपादत्ते, न गृह्णातीत्यर्थः। कस्मात् । स्तम्नाहा। कथमहं जात्यादिमान् जात्या दिहीनस्य गुरोः समीपे शिदे। तथा क्रोधात् कथंचिदसत्यकरणप्रेरितो रोषाद् वा । तथा मायातः शूलं में बाधत इत्यादिकपटेन । तथा प्रमादात् प्रक्रान्तमुचितमजानन् निखादीनां व्यासङ्गेन । स्तम्नादीनां क्रमेण उपन्यासश्च श्वमेव अमीषां विनयस्य विघ्नतामाश्रित्य ख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्नादिन्यो गुरोः समीपे विनयं न शिदते । अन्ये तु आचार्या एवं पठन्ति । गुरोः समीपे विनये न तिष्ठति, विनये न वर्तते, विनयं न श्रासेवत इत्यर्थः। श्ह स एव स्तम्नादिविनयशिदाविघ्नहेतुस्तस्य जडमतेः अनूतिनाव इति । अनूते वः अनूतिनावः असंपन्नाव श्त्यर्थः। किमित्याह । वधाय जवति । गुणलक्षणनावप्राण विनाशाय जवति । दृष्टान्तमाह । फल मिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य फलं यथा वधाय नवति । तस्मिन्सति तहिनाशनात् । तछत् इति ॥ १॥ ( टीका.) अधुना विनयसमाध्याख्यमारच्यते । अस्य चायमनिसंबन्धः । श्हानन्तराध्ययने निरवयं वच आचारे प्रणिहितस्य नवतीति तत्र यत्नवता नवितव्यमित्येतदुक्तम् । इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव नवतीत्येतफुच्यते। उक्तं च ॥आयारपणिहाणं मि, से सम्म व बुहे ॥णाणादीण विणीए जे, मोकळा निविगिहए ॥ इत्यनेनानिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षेपः । तत्र च विनयसमाधिरिति छिपदं नाम । तन्निदेपायाह ॥ विनयस्स समाहीए, निकेवो हो। दोण्ह विचजको ॥ दव विणयंमि तिणिसो, सुवम मिच्चेवमाणि ॥ ७६ ॥ व्याख्या ॥ विनयस्य प्रसिहतत्त्वस्य समाधेश्च प्रसिझतत्त्वस्यैव । न्यासो नवति योरपि चतुष्को नामादिनेदात् । तत्र नामस्थापने कुम्मत्वादनादृत्य व्यविनयमाह । अव्यविनये इशरीरनव्यशरीरव्यतिरक्त तिनिशो वृदा विशेष उदाहरणम् । स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा विनायत तत्र Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथमनुदेशकः । ५३० तत्र तथा परिणमति योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुएमला दिप्रकारेण विनयनाद प्रव्याणि द्रव्यविनयः । श्रादिशब्दात्तत्तद्योग्यरूप्या दिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ सांप्रतं जावविनयमाह ॥ लोगोवयार विराट, श्रवनिमित्तं च कामदेवं च ॥ जय विण्यमुरक विप, विण खलु पंचहा होइ ॥ ७७ ॥ व्याख्या ॥ लोकोपचारविनय लोकप्रतिपत्तिफलोऽर्थनिमित्तं चार्थप्रात्यर्थं च कामदेतुश्च काम निमित्तश्च । तथा जयविनयो जयनिमित्तो मोक्षविनयो मोदनिमित्तः । एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु पञ्चधा पञ्चकारो नवतीति गाथासमासार्थः ॥ ॥ व्यासार्थानि धित्सया तु लोकोपचार विनयमाह ॥ श्रपुगणं अंजलि, श्रसादाणं श्रहिपूश्राय ॥ लोगोवयारवि, देवपूथा य विद्वेष ॥ ७८ ॥ व्याख्या ॥ अन्युठानं तडुचितस्यागतस्यानिमुखमुष्ठानम् | अंजलि र्विज्ञापनादौ । श्रसनदानं च गृहागतस्य प्रायेण । श्रतिथिपूजा चाहारादिदानेन । एष इवंभूतो लोकोपचार विनयः । देवतापूजा च यथाक्ति बल्याद्युपचाररूपा विजवेनेति यथाविजवं विजवोचितेति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तो लोकोपचार विनयोऽर्थ विनयमाह ॥ नासवित्तिनंदा - णुवत्तणं देसकालदाणं च ॥ अपुहा अंजलि - श्रासणदाणं च श्रकए ॥ ए ॥ व्याख्या ॥ अन्याशवृत्तिर्नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं, बन्दोऽनुवर्तनमनिप्रायाराधनं, देशकालदानं च कटकादौ विशिष्ट नृपतेः । प्रस्तावदानं च तथान्युवानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्त्यर्थ कृतेऽर्थार्थमिति गायार्थः ॥ ४ ॥ उक्तोऽर्थविनयः । कामादिविनयमाह ॥ एमेव कामविष, जए व नेमाणुपुवीए | मोरकंमि वि पंचविहो, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ ८० ॥ व्याख्या ॥ एवमेव यथार्थविनय उक्तोऽन्याशवृत्त्यादिः । तथा कामविनयः । नये चेति । जय विनयश्च ज्ञातव्यो विज्ञेयः । श्रानुपूर्व्या परिपाट्या । तथाहि । कामिनो वेश्यादीनां कामार्थमेवाच्यासवृत्त्यादि यथाक्रमं सर्वं कुर्वन्ति । प्रेष्याश्च जयेन स्वामिनामित्युक्तौ कामनयविनयौ । मोक्ष विनयमाह । मोकेऽपि मोद विषयो वि नयः पञ्चविधः पञ्चप्रकारः । प्ररूपणा निरूपपणा तस्यैषा नवति वक्ष्यमाणेति गा. थार्थः ॥ ॥ दंसणनाणचरित्ते, तवे य तह वियारिए चेव ॥ एसो य मोरकवि, पंचविहो होइ नावो ॥ ८१ ॥ व्याख्या ॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु दर्शनज्ञानचारित्रविषयः । तपसि च तपोविषयश्च तथा औपचारिकञ्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव । एप तु मोक्षविनयो मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो जवति ज्ञातव्य इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थेन दर्शन विनयमाह ॥ दद्वाण सबजावा, उवश्ठा जे जहा जिणवरे हिं ॥ ते तह सह नरो, दंसण विष दवइ तम्हा ॥ ८२ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वभावाः सर्वपर्याया उपदिष्टाः कथिता येऽगुरुलध्वादयो यथा येन प्रकारेण · 1 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जिनवरैस्तीर्थकरैस्तान् नावांस्तथा तेन प्रकारेण श्रहत्ते नरः। श्रदधानश्च कर्म विनयति यस्मादर्शनविनयो नवति तस्मादर्शनादिनयो दर्शनविनय ति गाथार्थः ॥ झा. नविनयमाह ॥ नाणं सिरक नाणं, गुणेश नाणेण कुण किच्चा ॥ नाणी नवं न वं. धर, नाणविणी हवः तम्हा ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ ज्ञानं शिदयत्यपूर्व ज्ञानमादत्ते । झानं गुणयति गृहीतं सत्प्रत्यावर्त्तयति । ज्ञानेन करोति कृत्यानि संयमकृत्या नि। एवं शानी नवं कर्म न बनाति । प्राक्तनं च विनयति यस्माज्ञान विनीतो ज्ञानेनापनीतकर्मा नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ चारित्रविनयमाह ॥ अहविहं कम्मचयं, जम्हा रित्तीकरे जयमाणोनवमन्नं च न बंधश्, चरित्तविणी हव तम्हा ॥५॥ व्याख्या ॥ अष्टविधमष्टप्रकारं कर्मचयं कर्मसंघातं प्रागबद्धं यस्माधिक्तं करोति, तुबतापादनेनापनयति । यतमानः क्रियायां यत्नपरः । तथा नवमन्यं च कर्मचयं न बनाति । यस्माच्चारित्रविनय इति, चारित्राहिनयश्चारित्रविनयश्चारित्रेण विनीतकर्मा नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ तपोविनयमाह ॥ अवणे तवेण तमं, उवणे श्र सग्गमोकमप्पाणं ॥ तवविणयनिडयमई,तवोविणी हव तम्हा ॥५॥ व्याख्या॥ अपनयति तपसा तमोऽज्ञानमुपनयति च स्वर्ग मोदमात्मानं जीवम् । तपोविनयनिश्चयमतियस्मादेवं विधस्तपोविनीतो नवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ उपचारविनयमाह ॥ अह उवयारि पुण, उविहो विण समास हो ॥ पडिरूवजोगजुंजण, तहय अणासायणाविण ॥ ७६ ॥ व्याख्या ॥ अथौपचारिकः पुनर्षिविधो विनयः समासतो जवति । हैविध्यमेवाह । प्रतिरूपयोगयोजनम् । तथानाशातना विनय इति गाथासमासार्थः॥ व्यासार्थमाह ॥ पडिरूवो खलु विणजे, काश्अजोएश्वाश्माण सिउँ॥ श्रहचनविहविहो, परूवणा तस्सिमा हो ॥३॥ प्रतिरूप उचितः खलु विनय स्त्रिविधः। काययोगे च वाचि मनसि कायिको वाचिको मानसिकश्च अष्टचतुर्विधद्विविध श्त्यर्थ । कायिकोऽष्टविधः, वाचिकश्चतुर्विधः, मानसो द्विविधः । प्ररूपणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं नवति वदयमाणलक्षणेति गाथार्थः ॥ कायिकमाहः॥ अयुध्य अंजलि, पासणदाणं अजिग्गहकिई थ ॥ सुस्सूसणमणुगबण, संसाहण काय अविहो ॥ ७ ॥ व्याख्या ॥ श्रन्युबानमर्हस्य, अञ्जलिः प्रश्नादौ, आसनदानं पीठकाद्युपनयनमनिग्रहो गुरुनियोगकरणानिसंधिः, कृतिश्चेति कृतिकर्म वन्दनमित्यर्थः। शुश्रूषणं विधिवददूरासन्नतया सेवनं, अनुगमनमागबतः प्रत्युजमनं, संसाधनं च गतोऽनुव्रजनं चाष्ट विधः कायविनय इति गाथार्थः॥ वागादिविनयमाह ॥ हिअमिश्रअफरुसवाई, अणुवाई नासिवा विण ॥ अकुसलचित्तनिरोहो, कुसलमण-दीरणा चेव ॥ तए ॥व्याख्या॥ हितमितापरुषवा गिति । हितवाग्घितंवक्ति परिणामसुन्दरं, मितवाः Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथमनदेशकः । ५४१ 1 स्मितं स्तोकैरदरैः, अपरुषवागपरुषमनिष्ठुरं तथा अनुविचिन्त्यजापी खालो चितवतेति वाचिको विनयः । तथा अकुशलमनोनिरोधः । श्रार्तध्यानादिप्रतिषेधेन कुशलमनदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्त्येति मानस इति गाथार्थः ॥ श्राह । किमर्थमयं प्रति रूपविनयः कस्य चैष इत्युच्यते ॥ पडिरूवो खलु विण, पराणुकात्तिमनुं मुणेावो ॥ - अप्प डिरूवो विष नायवो केवलीणं तु ॥ ० ॥ व्याख्या ॥ प्रतिरूप उचितः खलु विनयः परानुवृत्त्यात्मकः तत्तद्वस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्त्यात्मको मन्तव्यः । छायं च वाहुल्येन ब्रह्मस्थानाम् । तथाप्रतिरूपो विनयः छापरानुवृत्त्यात्मकः स च ज्ञातव्यः केवलिनामेव । तेषां तेनैव प्रकारेण कर्मविनयनात् । तेषामपीत्वरः प्रतिरूपोऽज्ञात केवलजावानां नवत्येवेति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ एसो ने परिक हिर्ज, विप पडिवलकणो तिविहो ॥ बावन्नविहिविहाणं, वैति श्रणासायाविषयं ॥ ९१ ॥ व्याख्या ॥ एषोऽनन्तरोदितो ने नवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षण स्त्रिविधः कायिकादिः । द्विपञ्चाशद्विधिविधानमेतावत्प्रजेदमित्यर्थः । ब्रुवतेऽनिदधति । तीकरा नाशातना विनयं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह || तिठगर सिद्धकुarm- संघ किया धम्मनाणनाणीणं ॥ श्रयरिय थेर उना, गणीणं तेरस पयाणि ॥ ए२॥ तीर्थकर सिद्धकुल गण संघ क्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा थाचार्यस्य विरोपाध्याय गणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि । अत्र तीर्थकर सिद्धौ प्रसिद्धौ । कुलं नागेन्द्रकुलादि । गणः कोटिकादिः । संघः प्रतीतः । क्रियास्तिवादरूपा । धर्मः श्रुतधर्मादिः । ज्ञानं मत्यादि । ज्ञानिनस्तद्वन्तः । श्राचार्यः प्रतीतः । स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः । उपाध्यायः प्रतीतः । गणाधिपतिर्गणिरिति गायार्थः ॥ एतानि त्रयोदश पदानि श्रनाशातनादिनिश्चतुर्भिर्गुपितानि द्विपञ्चाशद्भवन्तीत्याह ॥ थणासायणा य जत्ती, बहुमाणा वन्नसंजलाय ॥ तिगराई तेरस, चग्गुणा होंति वावन्ना ॥ ५३ ॥ व्यख्या ॥ त्र्यनाशातना च तीर्थकरादीनां । सर्वथा अहीलनेत्यर्थः । तथा जक्तिस्तेष्वेवो चितोपचाररूपा । तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरनावप्रतिबन्धरूपः । तथा च वर्णसंज्वलना तीर्थकरादीनामेव सतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा थनाशातनाद्युपाधि देन जवन्ति द्विपञ्चाशदा इति गाथार्थः ॥ उक्तो विनयः । सांप्रतं समाधिरुच्यते । तत्रापि नामस्थापने सत्वादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाह ॥ दवं जेण व द्वेष, समाई। श्राहिथं च जं दव्वं ॥ जावसमाहि चनविद, दंसणनाणे तवचरिते ॥ ९४ ॥ व्याख्या || द्रव्यमिति । द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिः यथामात्रकमविरोधि वा कीरगुमादि। तथा येन वा इव्येोपयुक्तेन समाधित्रिफलादिना तद् द्रव्यसमाधिरिति । तथा श्राहितं वा यद्द्रव्यं समतां तुलारोपितपलशतादिवत्वस्थाने । तद् द्रव्यं समा Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. धिरित्युक्तो द्रव्यसमाधिः । जावसमाधिमाह । जावसमाधिः प्रशस्त नावा विरोधसदश्चतुर्विधः । चातुर्विध्यमेवाह । दर्शनज्ञान तपश्चारित्रेषु । एतद्विपयो दर्शनादीनां व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथा विरोध इति गाथार्थः ॥ उक्तः समाधिः । तदनिधानान्नामनिष्पन्नो निदेपः । सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत् । तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणयुतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । थंना वत्ति । अस्य व्याख्या । स्तम्नाद्वा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात्क्रोधाद्वा श्रान्तिलक्षणान्मायाप्रमादादिति । मायातो निकृतिरूपायाः प्रमादान्निद्रादेः सकाशात् । किमित्याह । गुरोः सकाश श्राचार्यादेः समीपे विनयमासेवना शिक्षानेद जिन्नं न शिक्षते नोपादत्ते । तत्र स्तम्नात्कथमहं जात्यादिमान् जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीत्येवं क्रोधात्कचिद्वितयकरणचोदितो रोषाद्वा मायातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्प्रक्रान्तो चित मानो निद्रा दिव्यासङ्गेन । स्तम्ना दिक्रमोपन्यासश्चैवमेवामीषां विनय विघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्नादिभ्यो गुरोः सकाशे विनयं न शिक्षते । अन्ये तु पठन्ति । गुरोः सकाशे विनये न तिष्ठति, विनये न वर्त्तते । विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तम्जा दिर्विनय शिक्षा विघ्नहेतुः । तस्य जडमतेरनूतिनाव इत्यनूतेर्भावोऽनूतिजावः । संपद्भाव इत्यर्थः । किमित्याह । वधाय जवति गुणलनावप्राण विनाशाय जवति । दृष्टान्तमाह । फलमिव कीचकस्य । कीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय जवति । सति तस्मिंस्तस्य विनाशात्तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जे प्रावि मंदित्ति गुरुं वश्त्ता, डहरे इमे प्रसुति नच्चा ॥ दीनंति मिचं पडिवऊमाणा, करंति प्रसायण ते गुरूणं ॥ २ ॥ 1 ( अवचूरिः ) ये चापि केचन द्रव्यसाधवो मन्दः सत्प्रज्ञा विकल इति गुरुं विदित्वा । महरोऽयमप्राप्तवयाः स्थापितः अल्पश्रुत इति ज्ञात्वा मन्दादिशब्दैर्हीलयन्ति । या महाप्रज्ञस्त्वमित्यादि । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना गुरुर्न हीलनीय इति त त्त्वमनवगच्छन्तः । कुर्वन्त्याशातनां ते गुरूणाम् । अतो हीलना न कार्या ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) वली जे यावि इत्यादि सूत्र (जे यावि के० ) ये चापि एटले जे द्रव्य साधु (गुरुं के० ) गुरुं एटले पोताना गुरुप्रत्ये ( मंदित्ति के० ) मन्द इति पटले मंद बे, बुद्धिशाली नथी, आगमनी वात युक्तिथी जाणवाने समर्थ नथी ए प्रकारे ( वइत्ता के० ) विदित्वा एटले जाणीने तेमज तेवा कंइ कारणथी न्हानी अवस्थामांज पाटे स्थापन करेल गुरुने (इमे के०) इमे एटले या ( महरे के० ) महरा: एटले काची उमरना वे, तथा ( अप्पा त्ति के० ) अल्पश्रुता इति एटले अल्पश्रुतना Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकेनवमाध्ययने प्रमथनदेशकः । ५४३ जाण वे ए प्रकारे (नच्चा के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( हीलं ति के० ) हीलयन्ति एटले गुरुनो तिरस्कार, निंदा प्रमुख करे छे. ( ते के० ) ते एटले ते साधु (मित्रं के० ) मिथ्यात्वं एटले मिथ्यात्व प्रत्ये ( प डिवऊमाणा के० ) प्रतिपद्यमानाः एटले पामता बता ( गुरूणं के० ) गुरूणां एटले गुरुनी ( श्रसायण के० ) शातनां एटले शातना प्रत्ये ( करंति के० ) कुर्वन्ति एटले करे बे. ॥ २ ॥ ( दीपिका. ) किं च । ये चापि केवलद्रव्यसाधवः श्रगम्नीश जवन्ति । ते द्रव्यसाधवो गुरूणामाचार्याणामाशातनां लघुतापादनरूपां तत्स्थापनाया वहुमानेन कुर्वन्ति । एकस्य गुरोराशातनायां सर्वेषां गुरूणामाशातना इति हेतोर्गुरुणा मिति बहुवचनम् | मन्द इति ज्ञात्वा । सत्प्रज्ञाविकल इति ज्ञात्वा । तथा पुनः कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं गुरुं प्रति त्र्यं महरः अप्राप्तवयाः खलु अयम् । तथा अयं गुरुः अल्पश्रुतः श्रनधीत सिद्धान्त इति ज्ञात्वा । हीलयन्ति । किं कुर्वन्तो हीलयन्ति । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानाः । गुरुर्न हीलनीय इति तत्त्वम् अन्यथा जानन्तः । अतो गुरोहलना न कार्या इत्याह ॥ २ ॥ ( टीका ) किं च । जे वित्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । ये चापि के चन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः । किमित्याह । मन्द इति गुरुं विदित्वा दयोपशमवैचित्र्यात्तन्त्रयुत्यालोचनासमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्य ज्ञात्वा । तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं महरोऽयमप्राप्तवयाः खल्वयं तथा अल्पश्रुत इत्यनधीतागम इति विज्ञाय । किमित्याह । हीलयन्ति सूययासूयया वा खिंसयन्ति । सूययातिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्ध बहुश्रुत इति । असूयया तु मन्दप्रस्त्वमित्याद्यनिदधति । मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना इति गुरुर्न हीलनीय इति तत्त्वमन्यथावगच्छन्तः कुर्वन्त्याशातनां लघुतापादनरूपां ते द्रव्यसाधवः गुरूणामाचार्याणां तत्स्थापनाया वहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम् । यथवा कुर्वन्त्याशातनां स्वसम्यग्दर्श नादिनावापासरूपां ते गुरूणां संवन्धिनीं तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ पगई मंदा वि नवंति एगे, डदा विप्र जे सुयोववेच्या ॥ आयारमंतो गुणसुठिपणा, जे दीलिया सिदिवि नास कुद्धा ॥३॥ ( अवचूरिः ) प्रकृत्या स्वभावेन मन्दा थपि सद्बुद्धिरहिता थपि लघवोऽपि चान्येऽमन्दाः सत्प्रज्ञा यपि । नवन्ति इति वाक्यशेषः । किंविशिष्टाः । ये श्रुतबुद्धयुपेता ज्ञानाद्याचारवन्तः । गुणसुस्थितात्मानः संग्रहादिषु गुणेषु सुष्टु सारं स्थित थात्मा ये Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस-(४३)-मा. षां ते तथा । तथाविधा न हीलनीयाः । ये हीलिताः खिसिताः शिखीवाग्निरिवेन्ध. नसंघातं जस्मसात् कुर्युः । ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुः ॥३॥ __(अर्थ.) माटे गुरुनी हीलना विगेरे न करवी एम कहे रे. पग इत्यादि सूत्र, (एगे के) एके एटले केटला एक वयोवृद्ध साधु (पगरि के०) प्रकृत्या एटले कर्मनी विचित्रताथी बनेला स्वन्नाव वडे (मंदा वि के०) मन्दा ठापि एटले सारी बु. जिथी रहित एवा पण (नवंति के०) जवन्ति एटले होय ठे. तेमज (जे के०) ये एटले जे केटला एक साधु ( महरा वि के०) महरा अपि एटले वयश्री न्हाना होय तो पण (सुअबुद्धोववेथा के०) श्रुतवुयुपेताः एटले श्रुत अने बुझिवडे युक्त एवा (नवंति के०) नवन्ति एटले होय . (आयारमंता के०) याचारवन्तः एटले ज्ञानाचार प्रमुखने सम्यक प्रकारे पालनारा एवा तथा (गुणसुहिअप्पा के०) गुणसुस्थितात्मानः एटले गुणोने विषे स्थिर रह्यो बे आत्मा जेमनो एवा (जे के०) ये एटले उपर कहेला जे साधु (हीलिआ के) हीलिताः एटले हीलना कस्या बता (सिहिरिवं के) शिखीव एटले अग्मिनी पेठे अर्थात् अनि जेम काष्ठसमुदायतुं नस्म करे बे, तेम ते साधु हीलना करनार शिष्यना ज्ञानादि गुण समुदायतुं (नास के) जस्म एटले जस्म (कुजा के०) कुर्युः एटले करे . माटे तेमनी हीलना न करवी. ॥३॥ - (दीपिका.) ये साधवस्ते गुरून् प्रति एवं जानन्ति प्ररूपयन्ति । परं न तु हीलयन्ति । एवं किमित्याह । एके केचन वयोवृद्धाः प्रकृत्या खनावेन कर्मवैचित्र्यात् मन्दा अपि सद्बुधिरहिता अपि जवन्ति । तथा अन्ये केचन महरा अपि अपरिणता अपि वयसा अमन्दा जवन्ति वाक्यशेषः। किंविशिष्टा इत्याह । ये श्रु. तबुद्ध्या उपेताः सहिताः । तथा सत्प्रज्ञावन्तः । श्रुतेन बुझिन्नावेन वा नाविनी वृत्तिमाश्रित्य अल्पश्रुता अपि सर्वथा आचारवन्तो ज्ञानाद्याचारसहिताः। पुनः किंविशिष्टाः । गुणसुस्थितात्मानः। गुणेषु सुष्टु नावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः। ये हीलिताः खिंसिताः शिखीव अग्निरिव इन्धनसमूहं जस्मसात् कुर्युः। झानादिगुणसमूहमपनयेयुरिति ॥ ३ ॥ (टीका.) अतो न कार्या हीलनेत्याह च । पग त्ति सूत्रम् । प्रकृत्या वनावेन कर्मवैचित्र्यान्मन्दा अपि सद्बुधिरहिता अपि नवन्त्येके केचन वयोवृक्षा अपि। तथा महरा अपि चापरिणता अपि च वयसान्येऽमन्दा जवन्तीति वाक्यशेषः । किविशिष्टा इत्याह । ये च श्रुतबुझ्युपेतास्तथा सत्प्रज्ञावन्तः । श्रुतेन बुछिनावेन वा ना Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५४५ विनी वृत्तिमाश्रित्यापश्रुता इति सर्वथा आचारवन्तो ज्ञानाद्याचारसमन्विता गुणसुस्थितात्मानो गुणेषु संग्रहोपग्रहादिषु सुष्टु नावसारं स्थित श्रआत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः । ये हीलिताः खिसिताः शिखीवा निरिवेन्धनसंघातं जस्मसात्कुर्युानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ जे प्रावि नागं मदरं ति नच्चा, आसायए से अहिआय दो॥ - एवायरिश्रपि हु हीलयंतो, निअवई जाश्पदं खु मंदो॥४॥ (अवचूरिः ) विशेपेण महरहीलनादोषमाह । अत्रैव दृष्टान्तदाान्तिकयोर्महदन्तरमाह । यश्चापि कश्चिदपि नागं महरं वालमिति ज्ञात्वा आशातयति किलिञ्चा दिना कदर्थयति । स कदर्यमानो नागः से तस्य कदर्थकस्याहिताय जवति । लक्षणेन प्राणनाशाय स्यात् । एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् निगति जातिपन्यानं हीन्जियादिजातिमार्गम् । मन्दोऽज्ञः संसारं चमतीत्यर्थः ॥४॥ (अर्थ.) हवे कां तेवाज कारणथी पाटे वेठेला न्हानी वयना साधुनी हीलना करवामां बहु दोष ते एम कहे . जे आवि इत्यादि सूत्र. (जे श्रावि के०) यश्चापि एटले जे को अज्ञ पुरुष (नागं के०) नागं एटले सर्पने (महरत्ति के०) महर इति एटले न्हानो ठे एम (नच्चा के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (थासायए के०) थाशातयति एटले सती प्रमुखथी तेने पीडा करे, (स के०) सः एटले ते पीडा पामेलो सर्प (से केव) तस्य एटले ते पीडा आपनार पुरुषने (अहिथाय के०) श्रहिताय एटले अहितने अर्थ (होश के०) नवति एटले थाय ठे, अर्थात् ते सर्प ते पुरुपने दंशादिक करे . (एव के०) एवं एटले था रीते (थायरिथं पि के०) याचार्यमपि एटले कारणथी न्हानी उमरे पाटे बेसाडेला आचार्यनी पण (हीलयंतो के०) हीलयन् एटले हीलना करनार एवो (मंदे के०) मन्दः एटले था पुरुप जे ते (खु के०) खलु एटले निश्चये करीने (जापहं के०) जातिपथं एटले वेरिंजी प्रमुख प्राणिनी जातिना मार्ग प्रत्ये (नियत के०) निर्गठति एटले जाय . अर्थात् संसारमा परिव्रमण करे ठे. ॥४॥ (दीपिका.) थथ विशेपेण महरस्य हीलने दोपमाह । यश्चापि कश्चिदझो नागं सर्प महर इति वाल इति ज्ञात्वा थाशातयति कुजकाष्टादिना कदर्थयति। स नागः कदय॑मानः से तस्य कदर्थनाकारकस्य थहिताय नवति। नदणेन प्राणनाशनात्। एप दृष्टान्तः । यथोपनयः । एवमाचार्यमपि कारणतः थपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. निर्गति जातिपन्थानं हीन्छियादिजातिमार्ग मन्दोऽज्ञः संसारे परित्रमति ॥ ४॥ (टीका.) विशेषेण महरहीलनादोषमाह । जे श्रावि त्ति सूत्रम् । यथापि कश्चिदो नागं सर्प महर इति वाल इति ज्ञात्वा विज्ञाय आशातयति किलिञ्चा दिना कदर्थयति । स कदीमानो नागः से तस्य कदर्थकस्य अहिताय लवति । नकणेन प्राणनाशाय नवति । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनय एवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितं हीलयन् निर्गति जातिपन्थानं बोन्डिया दिजातिमार्गम् । मन्दोऽज्ञः सं. सारे परिचमतीति सूत्रार्थः ॥४॥ आसीविसो वा वि.परं सुरुहो, किं जीवनासान परं नु कुज्जा॥ आयरिश्रपाया पुण अप्पसन्ना,अबोदिआसायण नबि मुरको ॥५॥ (अवचूरिः) आशीविषश्चापि सर्पः परं सुरुष्टः सन् किं जीवितनाशात्परं कुर्यात् । न किंचिदपि । आचार्यपादाः पुनरप्रसन्नाः। किं कुर्वन्तीत्याह । अवोधिं मिथ्यात्वम् । यतश्चैवमत आशातनया गुरोर्नास्ति मोदः ॥ ५ ॥ (अर्थ.) उपर कहेल दृष्टांतमां अने दार्टीतिकमां घणो फेर जे एम कहे . आसीविसो इत्यादि सूत्र. (परं के०) परं एटले अतिशय (सुरुको के) सुरुष्टः एटले घणो रोष (क्रोध) पामेलो एवो (आसीविसो वा वि के) आशीविषो वापि एटले सर्प पण (जीवनासाज के०) जीवनाशात्तु एटले प्राणना नाश करतां (परं के.) परं एटले वधारे (किं नु कुजा के०) किं नु कुर्यात् एटले शुं करे ? अर्थात् सर्प घणो क्रोधी थाय तो प्राण लिये, पण ए करता वधारे \ करे ? (पुण के०) पुनः एटले परंतु (आयरिअपाया के०) आचार्यपादाः एटले परम पुज्य एवा आचार्य जे ते (अप्पसन्ना के०) अप्रसन्नाः एटले हीलना करवाथी खपा थया होय तो (अबोहि के०) अबोधि एटले मिथ्यात्वनी परंपरा प्रत्ये करे बे. माटे (आसायण के०) आशातनया एटले गुरुनी आशातना करे तो (मुरको के) मोक्षः ए. टले मोद जे ते (नवि के०) नास्ति एटले नथी. ॥५॥ (दीपिका.) अन्न दृष्टान्तस्य दार्टान्तिकस्य च महदन्तरमिति एतदेवाह । आशीविषश्चापि सर्पोऽपि परं सुरुष्टः सन् क्रुद्धः सन् । किं जीवितनाशात् मृत्योः परं नु कुर्यात् । न किंचिदपीत्यर्थः । आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना हीलनया अनुग्रहाय अप्रत्ताः। किं कुर्वन्तीत्याह । अबोधि निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहतिं कुर्वन्ति । कथम् । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५४ तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात् । यतश्च एवमतः गुरोः श्राशातनया नास्ति मोक्षः । अबोधिसंतानबन्धेन अनन्तसंसारिकत्वादिति ॥ ५ ॥ ( टीका. ) व दृष्टान्तदान्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह । यासि त्ति सूत्रम् । श्राशीविषश्चापि सर्पोऽपि परं सुरुष्टः सुक्रुद्धः सन् किं जीवितनाशान्मृत्योः परं कुर्यान्न किंचिदपीत्यर्थः । श्राचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना दीलनयाननुग्रहे प्रवृत्ताः। किं कुर्वन्तीत्याह । अयोधिं निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहतिं तदाशातनया मिथ्यात्ववन्धात् । यतश्चैवमत आशातनया गुरोर्नास्ति मोक्ष इति । अबोधिसंतानानुबन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ जो पावगं जलियम वक्कमिज्जा, सीविसं वा विदु कोवइज्जा | जो वा विसं खाय जीविच्ठी, एसोबमासायाया गुरूणं ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) पावकं ज्वलितं सन्तमवक्रामेत अवष्टभ्य तिष्ठेत् । श्रशीविषं वापि हि कोपयेत् । रोषं ग्राहयेद्यो वा विषं खादति जीवितार्थी एषोपमापायप्राप्तिं प्रत्येतडुपमानमाशातनया कृतया गुरूणां संबन्धिन्या तद्वदपायो जवतीति ॥ ६ ॥ ( अर्थ. ) वल्ली जो पावगं इत्यादि सूत्र. ( जो के० ) यः एटले जे पुरुष ( जलि ho ) ज्वलितं एटले देदीप्यमान एवा ( पावर्ग के० ) पावकं एटले नि प्रत्ये (वक्कमिता के० ) अपक्रामेत् एटले वलगी रहे. ( वा के० ) वा एटले अथवा जे पु.. रुष (सविसं वि० ) श्राशीविषमपि एटले सर्पने पण ( हु के० ) खलु एटले निश्चये करीने (कोवा के० ) कोपयेत् एटले क्रोध पमाडें, खीजावे. ( वा के० ) वाटले अथवा (जीविश्री के० ) जीवितार्थी एटले जीववानी इछा करनार एवो ( जो के० ) यः एटले जे पुरुष ( विसं के० ) विषं एटले विष प्रत्ये ( खाय के० ) खादति लेखा (गुरूणं के० ) गुरूणां एटले गुरुर्जनी ( शातनया एटले आशातना करी होय तो ( एसोवमा के० उपर कहेल उपमा (दाखेलो ) जाणवी ॥ ६ ॥ ) सायणया के० ) या एषोपमा एटले आ ( दीपिका . ) पुनराह । यः कोऽपि पावकमग्निं ज्वलितं सन्तमपत्रामेत् श्रवष्टन्य तिष्ठति । आशीविषं वापि भुजंगमं वापि कोपयेत् रोषं ग्राहयेत् । यो वा विषं खादति जीवितार्थी जीवितुकामः । एषा उपमा छापायस्य कष्टस्य प्राप्तिं प्रति एतडुपमानमाशातनया गुरुणां संबन्धिन्या कृतया । तद्वत् कष्टं जवतीति ॥ ६ ॥ ( टीका. ) किं च । जो पावगं ति सूत्रम् । यः पावकमग्निं ज्वलितं सन्तमपत्रा Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. मेदष्टय तिष्ठति । श्राशीविषं वापि हि जुजंगमं वापि हि कोपयेत् । रोषं ग्राहयेत् । यो वा विषं खादति । जीवितार्थी जीवितुकामः । एषोपमापायप्राप्तिं प्रत्येत - पमानम् । श्राशातनया कृतया गुरूणां संवन्धिन्या । तद्वदपायो जवतीति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सिया दु से पावय नो डहिका, असीविसो वा कुविन न नरके ॥ सिच्या विसं दालहलं न मारे, न वि मुरको गुरुदीलगाए ॥ ७ ॥ ( अवचूरिः ) छात्र विशेषमाह । स्यात्कदाचित् मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पात्रको न दहेत् । श्राशीविषो वा कुपितो न जहयेत् । स्यात्कदाचिद्विषं हालाहलं न मारयेत् । नचापि मोको गुरोहलनयाशातनया कृतया जवतीति ॥ ७ ॥ 1 (अर्थ. ) हवे मां पण विशेष कहे बे. सिया इत्यादि सूत्र ( सिश्रा के० ) स्यात् एटले कदाच ( से के० ) सः एटले ते ( पावय के० ) पावकः एटले अनि जे ते मंत्रादिकना प्रभावी ( हु के० ) खलु एटले निश्चये करीने ( नो डहिता के० ) नो दहेत् एटले बाले नहि. ( वा के० ) वा एटले अथवा ( कुवि के० ) कुपितः एटले क्रोध पामेलो एवो (आसी विसो के० ) श्राशीविषः एटले सर्प जे ते ( न जस्के के० ) न जयेत् एटले जप करे नहि. (वि के० ) अपि एटले तेमज ( से के० ) तत् एटले ते घणुं करुं एवं ( हालहलं के० ) हालाहलं एटले हालाहल नामक विष जेते (मंत्रादिकना प्रभावशीज ) ( सिया के० ) स्यात् एटले कदाच ( न मारे के० ) न मारयेत् एटले मरण आपे नहि. उपर कहेली वात कदाच बने, पण ( गुरुहीलte ho ) गुरुहीलनया एटले गुरुमहाराजनी हीलना करी होय तो तेनुं फल जोगव्या विना ( न वि मुरको के० ) न चापि मोक्षः एटले बुटको नथीं. ॥ ७ ॥ ( दीपिका. ) तत्र विशेषमाह । स्यात्कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धात् असौ पावकः श्रग्निः न दहति न जस्मसात् कुर्यात् । श्राशीविषो वा भुजङ्गो वा कुपितो न नक्षयेत् न खादयेत् । तथा कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं हालाहलमतिरौद्रं न मारयेत् न प्राणान् त्याजयेत् । एवमेतत्कदाचिद्भवति परं नापि मोको गुरुहीलनया गुरोः श्रशातनया जवतीति ॥ ७ ॥ ( टीका. ) त्र विशेषमाह । सिश्रा हुत्ति सूत्रम् । स्यात् कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पावकोऽग्निर्नददेत् न नस्मसात्कुर्यात् । श्राशीविषो वा जुजंगो वा कुपितो न लक्षयेत् न खादयेत् । तथा स्यात्कदा चिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं हालाहलम तिरौद्रं Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। न मारयेत् । न प्राणानां त्यागं कारयेत् । एवमेतत्कदाचिनवति । नचापि मोदो गुरुहीलनया गुरोराशातनया- कृतया नवतीति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ जो पवयं सिरसा नित्तुमिचे, सुत्तं व सीहं पडिबोदइजा ॥ जो वा दए सत्तिअग्गे पदारं, एसोवमासायणया गुरूणं॥७॥ (श्रवचूरिः) यः पर्वतं शिरसा मस्तकेन नेत्तुमिछेत् । सुप्तं वा सिंहं प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरण विशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन । एषोपमाशातनया गुरूणामिति ॥ ७॥ (अर्थ.) वली जो पवयं इत्यादि सूत्र. (जो के०) यः एटले जे पुरुष (पवयं के०) पर्वतं एटले पर्वत प्रत्ये (सिरसा के०) शिरसा एटले पोताना मस्तक बड़ें (नेत्तुं के०) नेत्तुं एटले नांगी नाखवाने (श्वे के०) श्वेत् एटले श्वे. अर्थात् कोश पुरुष माथानी टकरथी पर्वतना कटका करवाने चाहे. (व के०) वा एटले अथवा को पुरुष (सुत्तं के०) सुप्तं एटले सुतेला एवा (सीई के०) सिंहं एटले सिंह प्रत्ये (पडिबोहरा के०) प्रतिबोधयेत् एटले जागृत करे. (वा के०) अथवा (जो के०) यः एटले जे कोइ पण पुरुष (सत्तिअग्गे के) शक्त्यग्रे एटले शक्ति नामक आयुधनी धाराउपर (पहारं के०) प्रहारं एटले पोताना हाथनो प्रहार करे. अर्थात् पो. तानो हाथ जोरथी पगडे. ते, (गुरुणं के०) गुरुणां एटले गुरुर्जनी (आसायणया के०) श्राशातनया एटले आशातना करी होय तो (एसोवमा के०) एषोपमा एटले आ उपर कहेली उपमा (दृष्टांत) जाणवी. ॥ ७ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच। यः पर्वतं शिरसा मस्तकेन नेत्तुंमित्। सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्तेः अग्रे प्रहरण विशेषाये प्रहारं हस्तेन एषा उपमा आशातनया गुरूणाम् ॥ ७॥ (टीका.) किंच । जो पवयं ति सूत्रम् । यः पर्वतं शिरसोत्तमाङ्गेन नेत्तुमिछेत् । सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत् । यो वा ददाति शक्त्यये प्रहरणविशेषाये प्रहारं हस्तेन । एषोपमाशातनया गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ : सित्रा हु सीसेण गिरिं पि निंदे, सिधा हु सीहो कुविन ननके॥ . सिआ न निंदिऊ व सत्तिअग्गं, न प्रावि मुरको गुरुहीलणाए॥ ए॥ (श्रवचूरिः) अत्रापि विशेषमाह । स्यात्कदाचिद्यासुदेवादिः प्रजावातिशयात् शिरसा गिरिमपि निन्द्यात् । स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिंहः कुपितो न जदयेत् । स्या Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५५० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - देवतानुग्रहादेर्न जिन्याद्वा शक्त्ययं प्रहारे दत्तेऽप्येवमेतत्कदा चिद्भवति । न चापि मो गुरुहीलनया गुरोराशातनया जवतीति ॥ ए ॥ ( .) मां विशेष कहे बे. सिया इत्यादि सूत्र वासुदेव प्रमुख पुरुष जे ( सिया के० ) स्यात् एटले कदाच ( हु के० ) खलु एटले निश्चये करीने ( सीसे के० ) शीर्षेण एटले मस्तक वडे ( गिरिं पि के० ) गिरिमपि एटले पर्वतने पण ताना प्रजावथी ( जिंदे के० ) जिन्द्यात् एटले जांगी नाखे तथा ( सिया के स्यात् एटले कदाचित् अर्थात् मंत्रादिकना सामर्थ्यश्री ( कुविप्रो के० ) कुपितः टले क्रोधी थलो एवो ( सीहो के० ) सिंहः एटले सिंह जे ते ( हु के० ) ख एटले निश्चये करीने ( न नरके के० ) न जयेत् एटले लक्षण न करे. ( वा के‍ अथवा (सि के० ) स्यात् एटले कदाच देवतादिकना अनुग्रहाथी ( सत्ति ho ) शक्त्ययं एटले शक्ति नामक श्रायुधनी धारा प्रहार करे बते पण ( नजिं ा के० ) न जिन्यात् एटले शरीरादिकने भेदे नहि. या वात कदाच बने. पण ( विमुरको गुरुहीलाए के० ) न चापि मोको गुरुहीबनया एटले गुरुनी हील करी होय तो तेनुं फल जोगव्या विना बुटको नथी. ॥ ए ॥ ( दीपिका. ) त्र विशेषमाह । स्यात्कदाचित् कश्चिद् वासुदेवादिः प्रजाव तिशयात् शिरसा मस्तकेन गिरिमपि पर्वतमपि जिन्यात् । स्यात्कदाचित् मन्त्रा सामर्थ्यात्सिंहः कुपितो न जयेत् । स्यात्कदाचित् देवतानुग्रहादिना शक्त्ययं प्रहा दत्तेऽपि न जिंद्यात् । एवमेतत् कदाचिद् नवति । परं न चापि मोको गुरुही लनय गुराशातनया जवतीति ॥ ए ॥ ( टीका.) त्र विशेषमाह । सिखा हुत्ति सूत्रम् । स्यात्कदाचित्कश्चिद्वासुदेवा वि प्रभावातिशयाविरसा गिरिमपि पर्वतमपि जिन्यात् स्मान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिंहः पितो न क्षयेत् । स्याद्देवतानुग्रहादेर्न जिन्द्याद्वा शक्त्यमं प्रहारे दत्तेऽपि । एवमेतत्व दाचिद्भवति । न चापि मोको गुरुदीलनया गुरोराशातनया जवतीति सूत्रार्थः ॥ ए आयरिपाया पुण अप्पसन्ना, बोहियासाय नचिमुरको ॥ तम्हा याबाहसुदा निकंखी, गुरुप्पसायानिमुदो रमिता ॥ १० ॥ 1 ( श्रवचूरिः ) एवं पावकाद्याशातनाल्पा । गुर्वाशातना तु महतीति प्रदर्शन र्थमाह । श्राचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्ववत् । यस्मादेवं तस्यादेवानाब Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५५-१ धसुखानिकाङ्क्षी मोक्षसुखाभिलाषी स साधुर्गुरुप्रसादानिमुखः श्राचार्यादिप्रसाद उद्यक्तः सन् रमेत वर्त्तत ॥ १० ॥ ( अर्थ. ) अनि प्रमुखनी आशातना करतां गुरुनी आशातना मोटी बे. एज देखाडवाने यें कहे बे. थायरिय इत्यादि सूत्र " आयरियपाया पुण अप्पसन्ना हिसाब मोरको " एनो अर्थ पांचमी गाथाना उत्तरार्ध माफक जावो. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले जे कारण माटे एम बे ते कारण माटे (अणा• बाहसुदा निक्खी के० ) अनाबाधसुखा निकाङ्क्षी एटले मोक्षसुखनी इछा करनार पुरुष जे ते ( गुरु पसायानिमुहो के० ) गुरुप्रसादानिमुखः एटले गुरुनी प्रसन्नता राखवाने उद्यमवंत एवो ( रमिता के० ) रमेत एटले रहे. ॥ १० ॥ ( दीपिका . ) एवं पावकाशातना श्रल्पा । गुर्वाशातना महतीति श्रतिशयप्रदर्शनार्थमाह । आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना इत्यादि पदद्वयव्याख्या पूर्ववत् । यस्मात् एवं तस्मात् श्रनाबाधसुखा निकाङ्क्षी मोक्षसुखाभिलाषी । साधुर्गुरुप्रसादा निमुखः आचार्यादीनां प्रसाद जयक्तः सन् रमेत ॥ १० ॥ ( टीका. ) एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाद्याशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थ - माह । प्राय रिति सूत्रम् । श्राचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादिः पूर्वार्धः पूर्ववत् । यस्मादेवं तस्मादनाबाधसुखा निकाङ्क्षी मोदसुखा जिलाषी साधुः गुरुप्रसादाजि - मुखः । श्राचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् रमेत वर्तेत इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ जहा हिग्गीजलणं नमसे, नाणादुईमंतपयानिमित्तं ॥ एवायरित्र्यं नवचिछा, प्रांतनाणोवगन वि संतो ॥ ११ ॥ 1 ( यवचूरिः ) केन प्रकारेणेत्याह । यथाहिताग्निर्ज्वलनोपस्कारी ब्राह्मणो ज्वलनं नमस्यति । नानाहुतयो घृताद्याः । मन्त्रपदानि ' अग्नये स्वाहा ' इत्यादीनि । तैरजिसंस्कृतं दीक्षानिषिक्तमित्यर्थः । एवमग्निमिवाचार्यमुपतिष्ठेत् सेवेत । अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ ११ ॥ ( अर्थ. ) हवे शी रीते उद्यमवंत रहे ते कहे बे. जहा इत्यादि सूत्र. ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( श्रहिग्गी के० ) आहिताग्निः एटले स्थापन करया बे निजेणे एवो ब्राह्मण जे ते ( नाणाहुश्मंतपया निमित्तं के० ) नानादुतिमन्त्रपदा. जिषिक्तं एटले घृतादिकनी नानाविध आहुति ने मंत्रना पद वडे संस्कारवालो 1. करेलो एवा (रिंग के० ) अग्निं एटले अनि प्रत्ये (नमसे के० ) नमस्यति एटले Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. पूजा करे . ( एव के०) एवं एटले उपर कहेलो ब्राह्मण जेम अग्निनी पूजा करे ठे, तेम साधु जे ते (अणंतनाणोवग वि संतो के०) अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् एटले स्वपरपर्यायसहित वस्तुने विषय करनारुं माटे ज अनंत एवा झाने करी युक्त होय तो पण (आयरिश्र के०) आचार्य एटले आचार्य प्रत्ये (उवचिश्मा के०) उपतिष्ठेत् एटले विनयथी सेवे. ॥ ११ ॥ (दीपिका.) केन प्रकारेण रमेत इत्याह । श्राहिताग्निः कृतावसथादिर्जाह्मणो येन प्रकारेण ज्वलनमग्निं नमस्यति । किंन्नूतं ज्वलनम् । नानाहुतिमन्त्रपदानिषिक्तम् । तत्र आहुतयोघृतप्रदेपादिरूपाः। मन्त्रपदानि 'अग्नये स्वाहा' इत्येवमादीनि। तैः याहुतिमन्त्रपदैः अनिषिक्तं दीदालंकृतमित्यर्थः । एवमग्निमिव आचार्य विनीतः साधुः उपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत । किंजूतः साधुः। अनन्तज्ञानोपगतोऽपि । अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तत् अनन्तं तेन उपगतः सहितोऽपि सन् किमङ्ग पुनः अन्य इति ॥ ११ ॥ (टीका) केन प्रकारेणेत्याह । जहा हिअरिंग त्ति सूत्रम् । यथाहितानिः कृता' वसथा दिर्ब्राह्मणो ज्वलनमग्निं नमस्यति । किंविशिष्टमित्याह । नानाहुतिमन्त्रपदानिपिक्तम् । तत्राहुतयोघृतप्रदेपादिलक्षणा मन्त्रपदान्यग्नये वाहेत्येवमादीनि।तैरनिषिक्तं दीदासंस्कृतमित्यर्थः। एवमग्निमिवाचार्यमुपतिष्ठेत् विनयेन सेवेत । किंविशिष्ट श्त्याह।अनन्तज्ञानोपगतोऽपीत्यनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तापगतोऽपि सन् । किमङ्ग पुनरन्य इति सूत्रार्थः॥ ११॥ जस्संतिए धम्मपया सिके, तस्संतिए वेणश्यं पञ्जे॥ सकारए सिरसा पंजलीन, कायग्गिरा नो मणसा अनिच्चं ॥१२॥ (अवचूरिः) एतदेवाह । यस्यान्तिके धर्मपदानि सिद्धान्तपदानि शिदेत। तस्यान्तिके तत्समीपे । कि मित्याह । वैनयिकं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति नावः । कथमित्याह । सत्कारयेत् । अन्युबानादिना शिरसोत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः प्रोजताञ्जलिः कायेन, वाचा मस्तकेन वन्द इत्यादिरूपया, मनसा नावप्रतिवन्धरूपेण नित्यं सत्कारयेत् न तु सूत्रग्रहणकाल एव ॥ १२ ॥ (अर्थ.) एज स्पष्ट करे . जस्संतिए इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (जस्संतिए के) यस्यान्तिके एटले जेनी पासे (धम्मपया के०) धर्मपदानि एटले सिद्धांतनां पदो (सिले के०) शिदेत एटले शीखे. (तस्संतिए के०) तस्यान्तिके एटले तेनी पासे (वेण; Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५५३ के० ) वैनयिकं एटले विनय प्रत्ये ( पर्छजे के० ) प्रयुञ्जीत एटले करे. शीरीते विनय करवो ते कडे बे. ( जो के० ) अरे शिष्य ( पंजली के० ) प्रातलिः एटले बे हाथ जोडीने ( सिरसा के० ) शिरसा एटले मस्तकवडे तथा ( कार्यग्गिरा के० ) कायेन गिरा एटले कायावडे छाने " Haru वंदामि " इत्यादि वाणीवडे तेमज ( य के० ) च एटले वली (मएसा के० ) मनसा एटले जावयुक्त मनवडे ( चिं के० ) नित्यं एटले नित्य अर्थात् केवल पाठ लेवाने समयेज नहि, तो सर्व कालनेविषे - ध्यापक गुरुनो (सक्कारए के०) सत्कारयेत् एटले सत्कार करवो. ॥ १२ ॥ ( दीपिका . ) एतदेव पुनः स्पष्टयति । साधुर्यस्य श्राचार्यादेः समीपे धर्मपदानि . धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत यदद्यात् । तस्य याचार्यादेः अन्तिके समीपे विनयं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः । कथं विनयं कुर्यादित्याह । गुरुं सत्कारयेत् । न । श्रयुञ्जानादिना पूर्वोक्तेन युक्तः । पुनः शिरसा मस्तकेन प्राञ्जलिः: सन् । तथा कायेन शरीरेण तथा गिरा वाचा ' मस्तकेन वन्द ' इत्यादिरूपया । जो इति शिष्यस्य श्रामन्त्रणे । मनसा जावप्रतिबन्धरूपेण । नित्यं सदैव सत्कारयेत् । न तु सूग्रहणकाल एव । कुशलानुबन्धच्छेदनप्रसंगात् । एवं च मनसि कुर्यात् ॥ १२ ॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । जस्स त्ति सूत्रम् । यस्यान्तिके यस्य समीपे धर्मपदानि धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिदेतादद्यात् । तस्थान्तिके तत्समीपे । किमित्याह । वै किं प्रयुञ्जीत । विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति जावः । कथमित्याह । सत्कारयेदानादिना पूर्वोक्तेन । शिरसोत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः प्रोताञ्जलिः सन् कायेन देहेन गिरा वाचा ' मस्तकेन वन्दं ' इत्यादिरूपया । जो इति शिष्यामन्त्रणम् । मनसाच जावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं सदैव सत्कारयेत् । न तु सूत्रग्रहणकाल एव । कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसंगादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ लका दया संजमवंनचेरं, कल्लाणनागिस्स विसो दिवाणं ॥ जे मे गुरू सययमपुसासयंति, तेहिं गुरू सययं पूष्प्रयामि ॥ १३ ॥ ( अवचूरि : ) एवं मनसि कुर्यादित्याह । लापवादनयरूपा, दयानुकम्पा, संयमः पृथ्व्यादिविषयः । ब्रह्मचर्यं च । एतल्लादि कल्याणनाजिनो मोनाजिनो जीवस्य विशोधिस्थानं कर्ममलापनयनस्थानं वर्त्तते । अनेन ये मां गुरवः सततमनुशासयन्ति शिक्षयन्ति । तानहं गुरून् सततं पूजयामि ॥ १३ ॥ ( .) गुरुनी सेवा करता मनमां परिणाम केवा राखवा ते कहे बे. लका इ ७० Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ रायं धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. त्यादि सूत्र. (कहाणनागिस्स के०) कल्याण-नागिनः एटले शुजमार्गे चालनार होवाथी कल्याणनो नागी एवा साधुने (लजा के०) लजा एटले लोकापवादनयरूप लजा, (दया के०) दया एटले दया. (संजम के०) संयमः एटले षड्जीवनिकायनी यतना रूप संयम तथा (बंजचेरं के) ब्रह्मचर्य एटले विशुछ तपस्या प्रमुखनुं आचरण करवं ते. या सर्व ( विसोहिगणं के०) विशोधिस्थानं एटले कमरूप मलने धोश नाखनार एवं बे. (जे के०) ये एटले जे (गुरू के०) गुरवः एटले गुरु जे ते (मे के०) मां एटले मने (सययं के०) सततं एटले निरंतर (श्रणुसासयंति के०) अनुशासयन्ति एटले कल्याण प्राप्तिने अर्थे शिखामण देने, (तेहिं के०) तान् एटले ते (गुरू के०) गुरुन् एटले गुरु प्रत्ये (सययं के०) सततं ए. टले निरंतर (पूअयामि के०) पूजयामि एटले पूनुं बुं. ॥ १३॥ (दीपिका.) लजा, दया, संयमो, ब्रह्मचर्यं च एतच्चतुष्टयं कल्याणजागिनो मोदानिलाषिणो जीवस्य विपदव्यावृत्त्या कुशलपदप्रवर्तकत्वेन च विशोधिस्थानं कममलापनयनस्थानं वर्त्तते । तत्र लजा अपवादनयरूपा। दया अनुकम्पा। संयमः पृ. थिव्यादिविषयः। ब्रह्मचर्यं विशुद्धतपोऽनुष्ठानम् । एतत्कथनेन एतज्ज्ञातं । ये गुरवो मां सततं निरन्तरमनुशासयन्ति कट्याणयोग्यतां नयन्ति । तान् अहमेतादृशान् गुरून् सततं पूजयामि । न तेन्यः अन्यः पूजायोग्य इति ॥ १३ ॥ . (टीका.) एवं च मनसि कुर्यादित्याह ।लजा दय त्ति सूत्रम् । लजा अपवादनयरूपा । दयानुकम्पा।संयमः पृथिव्यादिजीवविषयः । ब्रह्मचर्य विशुद्धतपोऽनुष्ठानम्। एतबजादि विपदव्यावृत्त्या कुशलपदाप्रवर्तकत्वेन कल्याण-नागिनो जीवस्य विशोधिस्थानं कर्ममलापनयनस्थानं वर्त्तते । अनेन ये मां गुरव आचार्याः सततमनवरतमनुशासयन्ति कल्याणयोग्यतां नयन्ति । तानहमेवंचूतान् गुरून् सततं पूजयामि । न तेन्योऽन्यः पूजाई इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पनासई केवलनारदं तु॥ एवायरि सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमने व इंदो ॥२४॥ (अवचूरिः) यथा निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः । तपन्नचिर्माली सूर्यः प्रनासयत्युद्दयोतयति । केवलं संपूर्ण नारतम् । तुशब्दादन्यच्च । एवमाचार्यः । श्रुतेन, शीलेन परोह विरतिरूपेण, बुद्ध्या च युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादीन् । एवं वत्तेमानः स साधुनिः परिवृतो विराजते सुरमध्य श्वेन्द्रः ॥ १४ ॥ ........ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५५५ ... (अर्थ.) या कारणथी पण ए गुरु अतिशय पूज्य ने, एम कहे जे. जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के०) यथा एटले जेम ( निसंते के०) निशान्ते एटले रात्रिनो अंत थए बते अर्थात् दिवसने विषे (तवणच्चिमाती के०) तपन्नर्चिौली एटले प्रकाश करतो एवो सूर्य जे ते (तु के०) निश्चये करीने ( केवलजारहं के) केवलनारतं एटले संपूर्ण जरत क्षेत्र प्रत्ये (पत्नासए के०) प्रजासयेत् एटले प्रकाशित करे . (एव के०) एवं एटले ए प्रकारे (आयरि के०) आचार्यः एटले आचार्य जे ते (सुअसीलबु. किए के०) श्रुतशीलबुद्ध्या एटले श्रुत ते आगम, शील ते पारकानुं मातुं करवानी श्वा न राखवी ते अने बुद्धि ते खानाविकबुद्धि ए त्रण वस्तुबडे, जीवादिपदार्थोने यथार्थपणे प्रकाशित करे . तथा (व के) वा एटले जेम (सुरमप्ले के०) सुरमध्ये एटले देवताउँमा (इंदो के) इंडः एटले इंड शोने , तेम साधुसमुदायमा ( विरायई के०) विराजते एटले शोने . ॥ १४ ॥ (दीपिका.) अतः कारणाद् एते पूज्या इत्याह । अर्चिाली सूर्यः निशान्ते रात्रेः अन्ते दिवस इत्यर्थः। केवलं संपूर्ण नारतं नरतदेत्रम्।तुशब्दादन्यच्च । क्रमेण प्रनासयति उयोतयति । किं कुर्वन् अर्चिाली । तपन् । एवमाचार्यों जीवादिनावान् प्रकाशयति । किंनूत आचार्यः । श्रुतशीलबुद्धिकः। श्रुतेन आगमेन शीलेन परोहवि. रमणेन बुट्या च खाजा विक्या युक्तः सन् । एवं च वर्तमान आचार्यः साधुनिः परिवृतो विराजते । क श्व । सुरमध्ये सामानिकादिदेवमध्ये गत झन्छ व ॥ १४ ॥ (टीका.) श्तश्चैते पूज्या इत्याह । जह त्ति सूत्रम् । यथा निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः । तपन्नर्चिर्माली सूर्यः प्रजासयत्युद्दयोतयति । केवलं संपूर्ण नारतं नरतक्षेत्रम्।तुशब्दादन्यच्चाक्रमेणैवमर्चिालीवाचार्यःश्रुतेनागमेन शीलेन परखोह विरतिरूपेण बुद्ध्या च स्वानाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिनावानिति। एवं च वर्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजते।सुरमध्य श्वसामानिकादिमध्यगत श्व इन्शति १४ जदा ससी कोमुश्जोगजुत्तो, नकत्ततारागणपरिखुडप्पा ॥ खे सोहई विमले अप्नमुक्के, एवं गणी सोहर निकुमने ॥१५॥ . (श्रवचूरिः ) किंच । यथा शशी कौमुदीयोगयुक्तः । कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इ. त्यर्थः । नदात्रतारागणपरिवृतात्मा तारादिनिर्वत इत्यर्थः । ख आकाशे शोज़ते विमलेऽज्रमुक्ते । एवं गणी प्राचार्यः शोचते निनुमध्ये ॥ १५ ॥ (अर्थ.) वली जहा इत्यादि सूत्र. (जहा के०) यथा एटले जेम (कोमुजो Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नांग ततालीस-(४३)-मा. गजुत्तो के०) कौमुदीयोगयुक्तः एटले चंडिकाना (चन्नीना) योगे करीने युक्त अर्थात् कार्तिकी पूर्णिमानी रात्रिए उगेलो एवो (नकत्तरागणपरिवुमप्पा के०). नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा एटले नक्षत्रोना तथा ताराऊना समुदाय रूप परिवारे वीटायलो एवो (ससी के०) शशी एटले चंद्रमा जे. ते (अप्पमुक्के के०) अचमुक्ते एटले निर्मल एवा (खे के०) खे एटले आकाशने विषे ( सोहर के०) शोजते एटले शोने जे. (एवं के०) एवं एटले ए प्रकारे (गणी के०) गणिः एटले आचार्य जे ते (निकुमले के०) निकुमध्ये एटले साधुमां (सोहर के०) शोजते एटले शोने .॥१५॥ (दीपिका.) पुनराह । यथा चन्द्रःख आकाशे शोजते । किंजूतः। कौमुदीयोगयुक्तः। कार्तिकपौर्णमास्यामुदितः । पुनः किंजूतः चन्छः । नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा।नदात्रैः ताराणां गणैर्वृन्दैर्युक्त इति भावः । किंजूते खे । अज्रमुक्ते। पुनः किंजूते खे । विमले निर्मले ।अनमुक्तमाकाशमत्यन्तं निर्मलं जवतीति ख्यापनार्थम् । तदेवं चन्द्र श्व गणी आचार्यः शोजते जिगुमध्ये । अतोऽयं गुरुः महत्वात्पूज्य इति ॥ १५ ॥ . (टीका.) किंच । जह त्ति सूत्रम् । यथा शशी चन्दः कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः। स एव विशेष्यते । नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा नक्षत्रादिनियुक्त इति नावः । ख श्राकाशे शोजते । किंविशिष्टे खे। विमलेऽवमुक्ते । अज्रमु. क्तमेवेदं विमलं जवतीति ख्यापनार्थमेतत्। एवं चन्द्र श्व गण्याचार्यः शोजते निकुमध्ये साधुमध्ये । अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ महागरा आयरिया मदेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुझिएं॥ संपाविनकामे अणुत्तराई; आराहए तोस धम्मकामी ॥१६॥ (अवचूरिः) महाकरा ज्ञानादिजावरत्नाकरा मवेषिणो मोदैकानिलाषिणः । कैः। समाधियोगश्रुतशीलबुझिनिः । समाधियोगैः। ध्यानविशेषैः। श्रुतेन हादशाङ्गाज्यासेन। शीलेन सदाचाररूपेण। बुद्ध्या चौत्पत्तिक्यादिरूपया। अन्ये तु व्याचदते । श्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति। तान् आचार्यान् संप्रातुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेछिनयकरणेन। न सकृदेव । अपितु तोषयेदसकृत्करणेन धर्मकामो निर्जरार्थम् ॥१६॥ (अर्थ.) वली महागरा इत्यादि सूत्र. ( अणुत्तरा के०) अनुत्तराणि एटले सर्वोत्कृष्ट एवा ज्ञानादि रनोनी (संपाविजकामे के०) संप्राप्तुकामः एटले प्राप्तिनी इ. छा करनार एवा साधु जे ते ( महागरा के०) महाकरान् एटले झानादि रत्नोनी खा. Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५५७ णरूप एवा तथा ( समाहिजोगेसुअसीलबुछिए के) समाधियोगश्रुतशीलबुझिनिः समाधियोग एटले समाधियोग नामक ध्यानवडे, श्रुत एटले छादशांगी रूप श्रुत . वडे, शील एटले पारकुं मातुं करवानी श्छा न राखवी तेवडे तथा बुद्धि एटलेऔत्पत्तिकी प्रमुख बुद्धिवडे ( महेसि के०) महेषिणः एटले मोद प्राप्तिने अर्थे उद्यमवंत एवा (आयरिआ के) आचार्यान् एटले आचार्यप्रत्ये (आराहए के०) आराधयेत् एटले विनय प्रमुख करीने आराधे. केवल ज्ञान मेलववानी श्याथीज थोडीवार आचार्यनी. आराधना करवी एम नथी. तो (धम्मकामि के) धर्मकामी एटले कर्मनिर्जरानो हेतुचूत एवा धर्मनी श्छा करनार साधु जे ते (तोसय केन्) तोषयेत् एटले सतत सेवा करी आचार्यजीने प्रसन्न करे. ॥ १६ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच।धर्मकामो निर्जरार्थ । नतु ज्ञानफलापेक्यापि । साधुः तान् आचार्यान् संप्राप्तुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद् - विनयकरणेन । न एकवारमेव । किंतु तोषयेद् वारंवारं विनयकरणेन संतोषं ग्राहयेत्। तान् कान् आचार्यान्। ये महाकराः। ज्ञानादिनावरत्नानामाकराः। पुनः किंनूता आचार्याः । महेषिणः मोदैषिणः । कथं महैषिणः । इत्याह । समाधियोगश्रुतशीलबुछिनिः। समाधियोगैानविशेषैः श्रुतेन हादशाङ्गानिधानेन शीलेन परडोह विरतिरूपेण बुद्ध्या च औत्पत्तिक्यादिरूपया । अन्य आचार्या श्वं व्याख्यानयन्ति । समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनामाकरा इति ॥ १६॥ . (टीका.) किंच । महागर त्ति सूत्रम्। महाकरा ज्ञानादिनावरत्नापेक्षया श्राचार्या महैषिणो मोदैषिणः । कथं महैषिण इत्याह । समाधियोगश्रुतशीलवुद्धितिः। समाधियोगान विशेषैः, श्रुतेन हादशाङ्गान्यासेन, शीलेन परोह विरतिरूपेण, बुद्ध्या चौत्पत्तिक्यादिरूपया । अन्ये तु व्याचक्षते । समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति । तानेवंजूतानाचार्यान् संप्रातुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेविनयकरणेन । न सकृदेवापि तु तोषयेदसकृत्करणेन तोपं ग्राहयेत् । धर्मकामो निर्जराथं न तु ज्ञानादिफलापेक्यापीति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ सुच्चा ण मेदावि सुनासिबाई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो॥ अराहश्त्ता पा गुणे अणेगे, से पावई सिक्ष्मिणुतरंति वेमि ॥१७॥ विणयसमाहीए पढमो उद्देसो संमतो॥१॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह,नाग तेतालीस-(४३)-मा. ... ( अवचूरिः) श्रुत्वा मेधावी सुजाषितानि शुश्रूषयेदाचार्यमप्रमत्तः । एवं गुरुशुश्रूषापरः स आराध्य गुणाननेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नोति सिधिमनुत्तरां मुक्तिमनन्तसौख्यामित्यर्थः ॥ १७ ॥ .. इति विनयसमाध्यवचूरावुक्तः प्रथम उद्देशः ॥ १॥ - (अर्थ.) सोच्चा णं इत्यादि सूत्र. ( मेहावि के० ) मेधावी एटले बुद्धिशाली एवा साधु जे ते (सुनासिबार के०) सुनाषितानि एटले गुरुनी अराधनाना फल कहेनारा एवा सारा वचनो प्रत्ये ( सोचा के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (अप्पमत्तो के) श्रप्रमत्तः एटले निनादि प्रमादनो त्याग करतो बतो (आयरिश के०) अचार्यान् एटले श्राचार्यप्रत्ये ( सुस्सूसए के०) शुश्रूषयेत् एटले सेवे; अर्थात् श्राचार्यनी आणामां रहे. श्रा रीते जे वर्ते, ( से के०) सः एटले ते साधु जे ते (अणेगे के०) अनेकान् एटले घणा (गुणे के०) गुणान् एटले ज्ञानादि गुणो प्रत्ये (राहएत्ता के०) आराधयित्वा एटले आराधना करीने (अणुत्तरं के) अनुत्तरां एटले. सर्वोत्कृष्ट एवी (सिमि के०) सिकिं एटले मुक्तिरूप सिद्धि प्रत्ये (पाव के०) प्राप्नोति एटले पामे बे. (तिबेमि) एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. आ गाथामां बे णकार ते वाक्यालंका. रने अर्थे जाणवा ॥ १७ ॥ इति विनयसमाधि अध्ययनना बालावबोधनो प्रथम उद्देश संपूर्ण ॥१॥ (दीपिका.) पुनराह । मेधावी पएिकतः साधुः सदा श्राचार्यान् शुश्रूषयेत् । किं कृत्वा । सुनाषितानि गुर्वाराधनफलानिधायकानि श्रुत्वा । किंविशिष्टो मेधावी । अप्रमत्तः निखादिप्रमादरहितः। य एवं गुरुशुश्रूषापरः स गुणान् अनेकान् झानादिरूपान् आराध्य सिकिमनुत्तरां मुक्तिमनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा प्राप्नोति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १७ ॥ • इति श्रीदशवैकालिके शब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां नवमाध्ययने प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥१॥ - (टीका.) सोचा णं ति सूत्रम् । श्रुत्वा मेधावी सुनाषितानि गुर्वाराधनफलानिधायीनि । किमित्याह । शुश्रूषयेदाचार्यानप्रमत्तो निसादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः। य एवं गुरुशुश्रूषापरः स आराध्य गुणाननेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नोति सिधिमनुत्तराम्। मुक्तिमित्यर्थः । अनन्तरं सुकुलादिपरंपरया वा । ब्रमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ इति श्रीदशवैकालिकटीकायां श्रीहरिजमसूरि विरचितायां नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। यथए .. अथ द्वितीय उद्देशः। मूलान खंधप्पनवो दुमस्स, खंधान पचा समुर्विति साहा ॥ साहप्पसादा विरुदंति पत्ता, तासि पुष्पं च फलं रसो अ॥२॥ (अवचूरिः) अथ द्वितीय उद्देश उच्यते । मूलाद् आदिप्रबन्धात् स्कन्धोत्पत्तिघुमस्य । स्कन्धात्पश्चात्समुपयान्ति शाखाः। शाखान्यः प्रशाखा विरोहन्ति जायन्ते । ताज्योऽपि पत्राणि । ततः से तस्य धुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एव । एते क्रमेण नवन्तीति ॥१॥ - (अर्थ.) हवे विनयना अधिकारमांज बीजो उद्देश कहे . मूलान इत्यादि सूत्र. (मूलाज के) मूलात् एटले मूलथी (जडथी) (उमस्स के०) सुमस्य एटले वृदना (खंधप्पनवो के०) स्कन्धप्रनवः थडनी उत्पत्ति थाय . (पछा के०) पश्चात् एटले थड उत्पन्न थया पडी ( खंधान के) स्कन्धात् एटले थडथकी ( साहा के०) शाखाः एटले शाखाउँ जे ते ( समुर्विति के०) समुपयान्ति एटले उत्पन्न थाय . ( साहप्पसाहा के० ) शाखाच्यः प्रशाखाः एटले शाखाउँथकी नानी शाखा (विरुहंति के०) विरोहन्ति एटले उत्पन्न थाय बे. ( त के) ततः एटले ते नानी शाखाउँ थकी (पत्ता के०) पत्राणि एटले पात्रां उत्पन्न थाय . ते पात्राथकी (सि के) तस्य एटले ते वृदने ( पुप्फ के०) पुष्पं एटले पुष्प ( च के०) च एटले पुनः (फलं के०) फलं एटले फल (श्र के) च एटले अने ( रसो के०) रसः एटले रस अनुक्रमे थाय . ॥१॥ __ (दीपिका.)अथ नवमाध्ययने विनयाधिकार एव द्वितीयोदेशकःप्रारज्यते। पूर्व प्रथमोद्देशके विनयसमाधिरुक्तः। द्वितीयोऽपि विनयाधिकारवान् उच्यते। तत्र सूत्रम्।घुमस्य वृदस्य मूलादादिप्रबन्धात् स्कन्धप्रजवः स्थुमोत्पादः। ततः स्कन्धात्पश्चात् शाखास्तस्य जुजाकल्पाः समुपयान्ति आत्मानं प्राप्नुवंति उत्पद्यन्त इत्यर्थः। तथा शाखान्य जक्तस्वरूपाच्यःप्रशाखास्तासामंशन्नूता विरोहन्ति जायन्ते। तथा तान्योऽपि प्रशाखान्यः पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति। ततस्तदनन्तरं से तस्य सुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च ॥१॥ (टीका.) विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते । तत्रेदमादिम सूत्रम्। मूलाज - त्यादि । श्रस्य व्याख्या।मूलादादिप्रवन्धात् स्कन्धप्रनवः स्युडोत्पादः। कस्येत्याह। सुमस्य वृदस्य। ततः स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्तदनु समुपयान्त्यात्मानं प्राप्नुवंत्युत्पद्यंत इत्यर्थः । कास्ता इत्याह । शाखास्त जाकल्पाः । तथा शाखान्य उक्तलदाणान्यः Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रशाखास्तदंशजूता विरोहन्ति जायन्ते । तथा तेन्योऽपि पत्राणि पर्णानि विरोहन्ति । ततस्तदनन्तरं से तस्य उमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण नवन्तीति सूत्रार्थः ॥ १॥ . एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो असे मुरको॥ जेण कित्तिं सुअं सिग्छ, नीसेसं चाभिगब॥॥ -- (अवचूरिः) एवं दृष्टान्तमनिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह । एवं धर्मकल्पामस्य विनयो मूलम् । परमः प्रधानो रसः से तस्य मोक्षः। स्कन्धप्राप्तानि सुरासुरनरसुखानि । येनेति तृतीया पञ्चम्या ।यतो विनयात्पत्रकल्पां कीर्ति पुष्पकल्पं श्रुतं श्लाघ्यं प्रशंसास्पदनूतं च निःशेषमधिगति प्राप्नोति ॥२॥ (अर्थ.) उपर कहेल दृष्टांत दाट तिकने विषे जोडे जे. एवमित्यादि सूत्र.(एवं के०) एवं एटले जेम वृदना मूल प्रमुख उपर कह्यां तेम ( धम्मस्स के ) धर्मस्य एटले धर्म रूप कल्पवृदनुं ( विण के ) विनयः एटले विनयरूप (मूलं के०) मूलं एटले मूल जाणवू. (अ के०) च एटले अने (से के०) तस्य एटले ते धर्मरूप कल्पवृदानों (मुरको के०) मोदः एटले मोक्षरूप (परमो के०) परमः एटले फलमांनो उत्कृष्ट रस जाणवो. तथा एना खंध विगेरेने स्थानके देवलोकनी प्राप्ति, सारा कुलमां उत्पत्ति प्रमुख जाणवां. हवे विनय केवो ते कहे जे. (जेण के) येन एटले जे विनयवडे सर्वत्र ( कित्तिं के) कीर्ति एटले यश कीर्ति, ( सुझं के०) श्रुतं एटले अंगप्रविष्टादि श्रुत अने ( नीसेसं के०) निःशेषं एटले संपूर्ण (सिग्धं के) श्लाघ्यं एटले श्रेष्ठ वस्तु प्रत्ये (अहिगल के०) अधिगति एटले पामे बे. ॥२॥ - (दीपिका.) एवं दृष्टान्तमनिधाय दान्तिकयोजनामाह। एवं धर्मस्य परमकल्पवृदस्य विनयो मूलमादिप्रबन्धरूपं परम इति अग्रो रसः । से तस्य फलरसवन्मोदः । स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमनसुकुलागमादीनि।अतो विनयः कर्तव्यः। येन विनयेन कृत्वा साधुः कीर्ति सर्वत्र शुनप्रवादरूपामधिगति प्राप्नोति । पुनः श्रुतम् । अङ्गप्रविष्टादि । श्लाघ्यं प्रशंसास्पदीनूतं निःशेषं संपूर्णं च प्राप्नोति ॥२॥ ___ (टीका.)एवं दृष्टान्तमनिधाय दार्शन्तिकयोजनामाह । एवं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। एवं सुममूलवत्।धर्मस्य परमकल्पवृक्षस्य विनयो मूलमादिप्रबन्धरूपम् । परम श्त्यमो रसः। से तस्य फलरसवन्मोदः स्कन्धादिकल्पानि तु देवलोकगमनसुकुलागमनादीनि।श्रतो विनयः कर्तव्यः।किंविशिष्ट इत्याह । येन विनयेन कीर्ति सर्वत्र शुजप्रवादरूपां Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उदेशकः । ५६१ तथा श्रुतमङ्गप्रविष्टादि । श्लाघ्यं प्रशंसास्पदभूतं निःशेषं संपूर्णमधिगच्छति प्राप्नोतीति २ जे चं मिए यदे, दुबाई नियमी सढे ॥ बुन से विणीच्यप्पा, कठं सो गयं जढ़ा ॥ ३ ॥ ( वचूरिः ) विनयवतो दोषमाह । यश्च चंमो रोषणः, मृगो मूर्खः, स्तब्धो जात्यादिमदोन्मत्तः । दुर्वादी प्रियवक्ता । निकृती मायी । शठः संयमयोगेष्वनादृतः । एतेच्यो दोषेयो योऽविनयं करोति । स ब्रह्यते संसारस्रोतसा विनीतात्मा काष्ठं स्रोतोगतं प्रवाहपतितं यथा ॥ ३ ॥ ( (अर्थ) जे विनय साचवतो नथी तेनो दोष कहे बे. जे इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे पुरुष (चं के० ) चकः एटले क्रोधी, ( मिए के० ) मृगः एटले अज्ञ ० ) स्तब्धः एटले जातिप्रमुखना अहंकारथी उन्मत्त थलो, ( डुवाई के० ) डुर्वादी एटले अप्रिय जाषण करनारो, ( निाडी के० ) निकृतिमान् एटले कपटी ( के० ) च एटले ने ( सढे के० ) शठः एटले संयम व्यापारने विषे निष्कालजी एवो होवाथी विनय न करे. ( से के०) सः एटले ते (अविण्यप्पा के० ) अविनीतात्मा एटले सर्व कल्याणं साधन एवा विनयने न साचवनार पुरुष जे ते ( सो गयं के ० ) स्रोतोगतं एटले जलना प्रवाहमां पडेलं ( कटं के० ) काष्ठं एटले काष्ठ ( लाकडुं ) ( जहा के० ) यथा एटले जेम तपाइ जाय बे तेम (वुन के० ) उद्यते एटले संसार समुना प्रवाहमा तपाइ जाय बे. ॥ ३ ॥ ( दीपिका . ) अथ विनयदोषमाह । साधुः एतेभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करो - ति । स संसारस्रोतसा ह्यते । किंवत् । काष्ठमिव । किंभूतं काष्ठम् । स्रोतोगतं नद्यादिवनीपतितम् । किंनूतः साधुः । चएको रोषणः । पुनः किंभूतः साधुः । मृगोऽज्ञो हितमपि उक्तो रुष्यति । पुनः स्तब्धः जात्यादिमदोन्मत्तः । पुनः दुर्वादी प्रियवक्ता । पुनः निकृतिमान् मायासहितः । पुनः शठः संयमयोगेषु यदररहितः । पुनः अविनीतात्मा सकलकल्याणकारणेन विनयेन रहितः ॥ ३ ॥ (टीका.) विनयवतो दोषमाह । जे यत्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । यश्चएको रोषणो मृगोऽज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति । तथा स्तब्धो जात्यादिमदोन्मत्तः । दुर्वागप्रियवक्ता । निकृतिमान् मायोपेतः । शठः संयमयोगेष्वनादृत एज्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति यः । उद्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा थ विनीतात्मा सकलकल्याणक निबन्धन विनय विरहितः । किमिवेत्याह । काष्ठं स्रोतोगतं नद्यादिवहनीपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ ७१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. विषयंमि जो नवाएणं, चोइन कुप्पई नरो ॥ दिवं सो सिरिमिति, दंमेण पहिए ॥ ४ ॥ ( यवचूरि : ) विनय उपायेन एकान्तमृडुजणनादिरूपेण चोदित उक्तः कुप्यति नरो योऽत्र । निदर्शनमाह । दिव्याममानुषीमसौ श्रियमागच्छन्तीमात्मनो जवन्तीं दएन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति ॥ ४ ॥ (अर्थ) वली विषय मि इत्यादि सूत्र ( जो के० ) यः एटले जे ( नरो के० ) नरः एटले मनुष्य जे ते ( उवारण के० ) उपायेन एटले मिष्ट वचन प्रमुख उपाय वडे ( विषयमि के० ) विनये एटले विनयने विषे ( चोइट के० ) चोदितः एटले प्रेरयो तो अर्थात मीठा वचनथी विनय साचववाने थर्थे कोइ कं कहे तो ( कुंप्पई ho) कुप्यति एटले क्रोध करे. ( सो के० ) सः एटले ते पुरुष ( इति के० ) - यान्तीं एटले पोतानी मेले यावती एवी ( दिवं के० ) दिव्यां एटले अलौकिक, श्रेष्ठ वी (सिरिं के० ) श्रियं एटले लक्ष्मी प्रत्ये (दंडेल के० ) दंडेन एटले दंड (लाकडी) वडे (डिसेदए के०) प्रतिषेधयति एटले पाढी वाले बे. तात्पर्य, विनय संपदानुं मूल बे, माटे ते अवश्य करवो. ॥ ४ ॥ ( दीपिका . ) पुनः किंच । यो नरः विनयमुक्तलक्षणं प्रति उपायेन एकान्तमृडुजनादिलक्षणेनापि संबन्धेन चोदित उक्तः सन् कुप्यति रुष्यति । स किं करोतीत्याह । स दिव्याममानुषीं श्रियं लक्ष्मी मागच्छन्तीमात्मनो नवन्तीं दमेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति । श्रयं परमार्थः । विनयः संपदां निमित्तं । तत्रस्खलितं यदि कश्चिनोदयति स गुणः । तत्रापि रोषकरणे वस्तुतः संपदां निषेधः ॥ ४ ॥ ( टीका. ) किं च वियंमीति सूत्रम् । अस्य व्याख्या | विनयमुक्तलक्षणं य उपायेनाप्येकान्तमृडुजणना दिल कणेनाप्यपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः । चोदित उक्तः कुप्यति रुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह । दिव्याममानुषी मसौ नरः श्रियं लक्ष्मी मा - गछन्तीमात्मनो जवन्तीं दएकेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति निवारयति । एतडुक्तं नवति । विनयः संपदो निमित्तम् । तत्र स्खलितं यदि कश्चिच्चोदयति । स गुणस्तत्रापि रोषकरऐन वस्तुतः संपदो निषेधः । उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागत श्रीप्रार्थनाप्रणयनंगकारिणस्तद्रहितास्तदनङ्गकारी च तद्युक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ तदेव प्रविणीअप्पा, नववप्ना दया गया ॥ दीसंति दुदमेहंता, आनिगमुठिया ॥ ५ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः । ५६३ ( अवचूरिः ) विनय दोषमाह । तथैव ते विनीतात्मानः अनात्मज्ञा उपवाह्यानां राजादिवचनानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्या दया अश्वा गजा हस्तिनः । उपलक्षणं चैतन्महिषादीनाम् । दृश्यन्ते तृणादिवोढारः । दुःखं संक्लेशलक्ष्णमेघमाना अनेकार्थत्वादनुजवन्त यजियोग्यं कर्मकरत्वमुपस्थिताः प्राप्ताः ॥ ५ ॥ (.) व विनयना दोष देखाडवाने अर्थे कहे बे. तहेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( विणीअप्पा के० ) अविनीतात्मानः एटले विनयरहित एवा ( ववना के० ) औपवाह्याः एटले प्रधान सेनापति प्रमुख लोकोना (हया के० ) हयाः एटले अश्व तथा ( गया के० ) गजाः एटले गज प्रमुख जे ते ( Sहं के० ) दुःखं एटले दुःख प्रत्ये ( एहंता के० ) एधमानाः एटले जोगवता. एवा तथा (i ho ) नियोग्यं एटले सेवक पणा प्रत्ये ( वहि के० ) - पस्थिताः एटले पामेला एवा अर्थात् भारवाहक (जार उपाडनार यएला ) एवा ( दीसंति के० ) दृश्यन्ते एटले देखाय बे. ॥ ५ ॥ ( दीपिका. ) विनय दोषस्य उपदर्शनार्थमेवाह । तथैव ते विनीतात्मानो विनरहितात्मा उपवाह्यानां राजादिवल्लनानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्या या अश्वा गजा हस्तिन उपलक्षणत्वात् महिषादयश्च एते । किमित्याह । दृश्यन्त उपलजयन्त एव मन्दुरादौ विनयदोषेण उजयलोकवर्त्तिना यवसादिवोद्वारः दुःखं संक्लेशलक्षणमेधमाना अनेकार्थत्वादनुजवन्त नियोग्यं कर्म करनावमुपस्थिताः ॥ ५ ॥ ( टीका. ) विनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति तथैवैतेऽविनीतात्मानो विनयर हिता अनात्मज्ञा उपवाह्यानां राजादिवचनानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः । दया अश्वाः । गजा हस्तिनः । उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते । किमित्याह । दृश्यन्त उपलभ्यन्त एवं मन्डुरादौ विनयदोषेण उज्जयलोकवर्त्तिना यवसादिवोढारः । दुःखं संक्लेशलक्षणमेघयन्तोऽनेकार्थत्वादनुजवन्त आजियोग्यं कर्मकरजावमुपस्थिताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ तदेव सुविणीपप्पा, जववप्ना दया गया ॥ दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ॥ ६ ॥ ( श्रवचूरिः ) एतेष्वेव विनयगुणमाह । तथैवैते सुविनीतात्मान ववप्ना हया गया इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमाह्रादलक्षणमेघमाना द्धिं प्राप्ता विशिष्टपणालयजोजनादिप्राप्तयो महायशसो विख्यातगुणाः ॥ ६ ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. (a) हवे ए अश्वादिकमांज विनय करनारनी स्थिति कहेते. तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले तेमज ( सुविणीअप्पा के० ) सुविनीतात्मानः एटले - सम्यक् प्रकारे विनयवंत एवा ( उववना के० ) औपवाह्याः एटले प्रधान सेनापति प्रमुख लोकोना ( हया के० ) हयाः एटले अश्व तथा ( गया के० ) गजाः एटले गज प्रमुख जे ते (सुहं के ० ) सुखं एटले सुख प्रत्ये ( एहंतो के ० ) एधमानाः एटले जोगवा, (इट्ठि पत्ता के०) रुद्धिं प्राप्ताः एटले ऋद्धि पामेला अने (महायसा के० ) महा' यशसः एटले मोटी जसकीर्ति पामेला एवा (दी संति के०) दृश्यन्ते एटले देखाय वे ॥६॥ (दीपिका) एतेष्वेव विनयगुणमाह । तथैव एते सुविनीतात्मानो विनयवन्त आत्मज्ञा पवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते । किमित्याह । दृश्यन्त उपलभ्यन्ते • सुखमाहादलक्षणमेधमाना अनुजवन्त रुद्धिं प्राप्ता इति विशिष्टभूषणालय जोजनादिनावतः प्राप्तर्कयो महायशसो विख्यातसमुणाः ॥ ६ ॥ ( टीका. ) एतेष्वेव विनयगुणमाह । तदेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति तथैवैते सुविनीतात्मानो विनयवन्त आत्मज्ञा पवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते । किमित्याह । दृश्यन्त उपलभ्यन्त एव सुखमाह्लादलक्षणमेधमाना अनुजवन्त रुद्धिं प्राप्ता इति । विशिष्टभूषणालय जोजनादिजावतः प्राप्तर्द्धयो महायशसो विख्यात - सपा इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ तदेव विणीच्यप्पा, लोगंमि नरनारि ॥ दीसंत मेहता, बाया ते विगलिंदिया ॥ 9 ॥ ( अवचूरिः ) एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह । तथैव तिर्यञ्च श्वाविनीतात्मानः पूर्ववत् । त्रास्मिन् मनुष्यलोके नरनार्यः दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः पूर्ववत् । कशाघातत्राङ्किताः । विकलेन्द्रिया अपनी तनासिकादीन्द्रियाः पारिदारिकादयः ( अर्थ. ) तिर्यंच श्राश्रयी विनयनुं तथा अविनयनुं फल कयुं. हवे मनुष्य श्राश्री कहे . तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के० ) तथैव एटले जेम तिर्यंचमां तेमज ( लोगंसि के० ) लोके एटले लोकने विषे ( विणीअप्पा के० ) अविनीतात्मानः एटले विनयने न साचवनारा एवा ( ते के० ) ते एटले ते ( नरनारि के० ) नरना - र्यः एटले पुरुषो ने स्त्रियो जे ते ( हमेहता के० ) दुःखमेधमानाः एटले दुःखने गवता एवा (बाया के० ) बाता: एटले चालक प्रमुखना प्रहारथी जेमने शरीरे घा प्रमुख पडेला बे एवा तथा ( विगलिंदिया के० ) विकलेन्द्रियाः एटले जेमना Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। ५६५ नाक, कान प्रमुख कपाया बे एवा (दीसंति के ) दृश्यन्ते एटले देखाय बे. अर्थात् परस्त्रीगमन, चोरी प्रमुख अपराध करनार लोकोनी हालत एवी देखाय बे. ॥७॥ .. (दीपिका.) अथ एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यान् अधिकृत्याह । तथैव तिर्यञ्च श्व अविनीतात्मानः। पूर्ववत्। लोकेऽस्मिन् मनुष्यलोके । नरनार्य इति प्रकटार्थम् । दृश्यन्ते कुःखमेधमानाः । पूर्ववत् । गताः कशाघातव्रणाङ्कितशरीरा विकलेन्डिया अपनीतनासिकादीन्डियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः॥ ७ ॥ (टीका.) एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह । तहेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तथैव तिर्यञ्च श्व अविनीतात्मान इति पूर्ववत्। लोकेऽस्मिन्मनुष्यलोके। नरनार्य इति प्रकटार्थम्। दृश्यन्ते उःखमेधमाना इति पूर्ववत्। बाताः कषघातव्रणाङ्कितशरीरा विगलितेन्द्रिया अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः॥७॥ दंमसबपरिङ्गुन्ना, असनवयणेदि अ॥ कलुणा विवन्नबंदा, खुप्पिवासपरिग्गया ॥७॥ (अवचूरिः) दमा वेत्रदएकादयः। शस्त्राणि खड्गादीनि तान्यां परिजीर्णाः समन्ततो उबलनावमापादिता असन्यवचनैश्च खरकर्कशादिनिः । एवंनूताः करुणाहेतुत्वात्सतां करुणा दीना व्यापन्नबन्दसः गतस्वेदाः कुधा पिपासया परिगता व्याप्ताः॥७॥ - (अर्थ.) वली उपर कहेला पुरुषोअने स्त्रियो केवा ने ते कहेले. दंडसव इत्यादि सूत्र. (दंगसबपरिखान्ना के०) दंडशस्त्रपरिजीर्णाः एटले वेत्र प्रमुख दंडना अने खड्ग प्रसुख शस्त्रना प्रहारथी पुर्बल थएला, (अ के) च एटले अने (असलवयणेहि के) असन्यवचनैः एटले कगेर वचनो सांजलीने पण पुर्वल थएला एवा माटेज ( कलुणा के०) करुणाः एटले सत्पुरुषोने दया उपजावे एवा तथा (विवन्नलंदा के०) व्यापनबन्दसः एटले पोतानी इछा माफक जेमनाथी चलातुं नथी, अर्थात् वीजाना तावामां रहेला एवा तेसज (खुप्पिवासपरिग्गया के०) कुत्पिपासापरिगताः एटले हुधा तृषाथी पीडायला एवा देखाय . ॥ ७॥ (दीपिका.) एवं विधाः साधव ह लोके पूर्वमविनयेन गृहीतानां कर्मणामनुनावेन एवंनूताः परलोके तु कुशलस्य अप्रवृत्तेफुःखिततरा विजायन्ते । कीदृशाः। दएका वेत्रदएमादयः शस्त्राणि खनादीनि तैः परिजीर्णाः परि समन्ततोऽवलनावमापादिताः। तथा पुनः कीदृशाः।असन्यवचनैश्च खरकर्कशादिनिः परिजीर्णाः। पुनः कीदृशाः। करुणाः। करुणाहेतुत्वात् । पुनः कीदृशाः । व्यापन्नन्दसः परायत्ततया गतवानिप्रायाः । पुनः Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा. किंभूताः । कुधा बुभुक्षा पिपासा तृषा ताभ्यां परिगता व्याप्ताः । श्रन्नादि निरोधस्तोक-दानाभ्याम् ॥ ८॥ ( टीका. ) तथा दंड त्ति सूत्रम् । दएका वेत्रदएकादयः, शस्त्राणि खङ्गादीनि ताज्यां परिजीर्णाः समन्ततो दुर्बलजावमापादिताः । तथा असभ्यवचनैश्च खरकर्कशा दिनिः परिशीर्षास्त एवंभूताः सतां करुणा हेतुत्वात्करुणा दीना व्यापन्नछन्दसः परायत्ततया अपेतखानिप्रायाः कुधा बुजुया पिपासया तृषा परिगता व्याप्ता अन्नादि निरोधतो दानायामिति । एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुजावत एवंभूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ तदेव सुविणीच्यप्पा, लोगंसि नरनारि ॥ दीसंति सुहमेहता, इहिं पत्ता महायसा ॥ ए ॥ ( श्रवचूरि : ) विनय फलमाह । तथैव सुविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन् नरनार्यः । सुखमेधमाना शद्धिं प्राप्ता महायशसः । पूर्ववत् । न वरं स्वाराधितनृपगुरुजना उजयलोकसाफल्यकारिणः ॥ ए ॥ ( अर्थ. ) हवे विनय साचवनारा मनुष्योनी स्थिति कहे बे. तदेव इत्यादि सूत्र. ( तदेव के ) तथैव एटले जेम विनय साचवनारा तिर्यंचो सुखी देखाय बे तेम ( लोगंसि के० ) लोके एटले लोकने विषे (सुविणीअप्पा के० ) सुविनीतात्मानः एटले सम्यक् प्रकारे विनयने साचवनारा एवा ( नरनारि के० ) नरनार्यः एटले पुरुषो ने स्त्रियो जे ते ( सुहमेता के० ) सुखमेधमानाः एटले सुखने जोगवता एवा, (इट्ठि पत्ता के० ) रुद्धिं प्राप्ताः एटले ऋद्धि पामेला एवा तथा ( महायसा के० ) महायशसः एटले घणा जसकी र्तिवाला एवा ( दीसंति के० ) दृश्यन्ते एटले देखायबे ॥ ॥ ( दीपिका.) विनयफलमाह । श्रस्मिँल्लोके नरनार्यस्तथैव विनीत तिर्यञ्च श्व सुविनीतात्मानो दृश्यन्ते । कीदृश्यो नरनार्यः । सुखमेधमाना रुद्धिं प्राप्ताः । पुनः कीदृश्यः । महायशस इति पूर्ववत् । नवरं, खाराधितगुरुजना उनयलोकसाफल्यकारिण एतइति . + ( टीका. ) विनयफलमाह तदेव ति सूत्रम् । तथैव विनीततिर्यञ्च इव सुविनीतामानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमाना रुद्धिं प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव | नवरं, स्वाराधितनृपगुरुजना उजयलोकसाफल्यकारिए एतइति सूत्रार्थः ए तदेव प्रविणीअप्पा, देवा जरका च्य गुनगा ॥ दीसंति सुह मेहता, या निगमुवा ॥ १० ॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः। य __ (अवचूरिः ) विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह । देवा वैमानिका ज्योतिष्काश्च यदाश्च व्यन्तरा गुह्यका नवनवासिन एते दृश्यन्त आगमचकुवा कुःखमेधमानाः परदिर्शनादिना आनियोग्यमुपस्थिताः ॥ १० ॥ (अर्थ.) हवे देवताउने विषे अविनयर्नु फल कहेले. तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले जेम मनुष्यो तेमज (अविणीअप्पा के०) अविनीतात्मानः एटसे विनयने न साचवनारा एवा ( देवा के०) देवाः एटले ज्योतिषी अने वैमानिक देवता (जरका के०) यदाः एटले व्यंतरो (अ के) च एटले अने (गुनगा के) गुह्यकाः एटले नवनपति जे ते (उहमेहंता के०) उःखमेधमानाः एटले पारकी कि प्रमुख जोवाथी फुःखने नोगवता एवा तथा (आनिगं के०) आजियोग्यं एटले दासपणाने (चाकरपणाने)(उवहि के०) उपस्थिताः एटले पामेला एवा थागमरूप नेत्रवडे ( दीसंति के) दृश्यन्ते एटले देखाय . ॥ १० ॥ (दीपिका.) एतदेव विनयाविनयफलमाह देवानधिकृत्य । तथैव यथा नरनार्योऽविनीतात्मानः । तथैव जन्मान्तरेऽकृतविनया देवा वैमानिका ज्योतिष्का यदाश्च व्यन्तराश्च गुह्यका जवनवासिनस्त एते दृश्यन्ते। केन।आगमनावचनुषा। किं कुर्वाणाः। दुःखमेधमानाः । परेषामाझया परेषां शब्यादिदर्शनेन च । कीदृशाः सन्तः । आनियोग्यमुपस्थिताः । अनियोग आझादानलक्षणः सोऽस्यास्तीत्यनियोगी । तस्य नाव आनियोग्यं कर्मकरजावमुपस्थिताः प्राप्ताः ॥ १० ॥ ___ (टीका.) एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह । तहेव त्ति सूत्रम् । तथैव यथा नरनार्योऽविनीतात्मानो नवान्तरेऽकृतविनया देवा वैमानिका ज्योतिष्का यदाश्च व्यन्तराश्च गुह्यका नवनवासिनस्त एते दृश्यन्ते । आगमन्नावचकुषा कुःखमेधमानाः पराझाकरणपरझकिदर्शनादिना आनियोग्यमुपस्थिता अनियोग आज्ञाप्रदानलकणोऽस्यास्तीत्य नियोगी तन्नाव आनियोग्यं कर्मकरन्नावमित्यर्थः । उपस्थि. ताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥१०॥ तदेव सुविणीअप्पा, देवा जका अगुप्तगा॥ दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ॥ ११ ॥ (श्रवचूरिः) विनयफलमाह । तथैव सुविनीतात्मानो जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिपु झाधि प्राप्ताः ११ (अर्थ.) हवे देवताउँने विपे विनयनुं फल कहे . तहेव इत्यादि सूत्र. (त Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. देव ho) तथैव एटले जेम मनुष्यो तेमज ( सुविणीअप्पा के० ) सुविनीतात्मानः एटले सम्यक् प्रकारे विनयने साचवनारा एवा ( देवा के० ) देवाः एटले वैमानिक ज्योतिषी देवता, ( जरका के० ) यक्षा: एटले व्यंतरो ( के० ) च एटले वली ( गुनगा के० ) गुह्यकाः एटले जवनवासी देवता जे ते ( सुहमेहंता के० ) सुखमेध - मानाः एटले सुखने जोगवनारा एवा, (इट्ठि पत्ता के० ) रुद्धिं प्राप्ताः एटले रुद्धि पामेला एवा तथा ( महायसा के० ) महायशसः एटले मोटा यशना धणी एवा थागमरूप नेत्रवडे (दी संति के० ) दृश्यन्ते एटले देखाय बे ॥ ११ ॥ ( दीपिका . ) विनयफलमाह । तथैवैते देवादयः सुविनीतात्मानः जन्मान्तरकृत विनयाः । निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिषु शुद्धिं प्राप्ता इति देवाधिपादिप्राप्तसमृद्धयो महायशसो विख्यातसगुणा इति । एवं नारकान् विना व्यवहारतो येषु स्थानेषु सुखदुःखसंवस्तेषु विनयस्याविनयस्य च फलं कथितम् ॥ ११ ॥ ( टीका . ) विनयफलमाह तदेव त्ति सूत्रम् । तथैवेति पूर्ववत् । सुविनीतात्मानो जन्मान्तरकृत विनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः । देवा याश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव । दृश्यन्ते सुखमेधमाना महाकल्याणादिषु रुद्धिं प्राप्ता इति । देवाधिपादिप्राप्तयो महायशसो विख्यातसहुणा इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ जे आयरिअनवनायाणं, सुस्सूसावयणंकरे ॥ तेसिं सिरका पवद्वंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२ ॥ ( अवचूरिः ) विशेषेण लोकोत्तर विनयफलमाह । य श्राचार्योपाध्याययोः शुश्रूषका व चनकराः तेषां पुण्यवतां शिक्षा ग्रहणासेवनरूपाः प्रवर्द्धन्ते जल सिक्ता इव पादपाः ॥ १२ ॥ ( .) उपर देवता दिकने विषे लौकिक विनयनुं तथा अविनयनुं फल कयुं. हवे लोकोत्तर विनयनुं फल कहे बे. जे इत्यादि सूत्र. (जे के० ) ये एटले जे शिष्यो (विप्रायणं के० ) आचार्योपाध्याययोः एटले आचार्यनी अने उपाध्यायनी ( सुस्सू सावयकरे के ० ) शुश्रूषावचनकरा: एटले सेवा करनारा अने श्राज्ञा माफक चालनारा एवा होय बे. (ते सिं के० ) तेषां एटले तेमनी ( सिरका के० ) शिक्षा: एटले. - ग्रहण सेवन प्रमुख शिक्षा जे ते (जल सित्ता इव पायवा के० ) जल सिक्ता इव पाद - माः एटले जलथी सींचायला वृदनी जेम (पवद्वेति के० ) प्रवर्द्धन्ते एटले वृद्धि पामे बे. १२ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः । ५६ए (दीपिका.) श्रथ विशेषतो लोकोत्तरं विनयफलमाह । ये सुशिष्या श्राचार्यामुपाध्यायानां च शुश्रूषावचनकराः पूजाप्रधानं यच्चनं तस्य करणे तत्परा जवन्ति। तेषां पुण्यवतां शिक्षा ग्रहणासेवनारूपा नावार्थरूपाः प्रवर्डन्ते वृद्धिं यान्ति । दृष्टान्तमाह । जल सिक्ता यथा पादपा वृक्षाः ॥ १२ ॥ (टीका.) एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखकुःखसंचवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तम् । अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफलमाह । जे आयरिअ ति सूत्रम् । य आचार्योपाध्याययोः प्रतीतयोः शुश्रूषावचनकराः पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यनाजां शिक्षा ग्रहणासेवनालक्षणा नावार्थरूपाः प्रवर्धन्ते वृद्धिमुपयान्ति । दृष्टान्तमाद । जलसिक्ता व पादपा वृक्षा इति सूत्रार्थः॥ १५ ॥ अप्पणछा परहा वा, सिप्पा जणिआणि अ॥ गिहिणो जवनोगमा, श्लोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ (श्रवचूरिः) एतच्च मनस्याध्याय विनयः कार्य इत्याह । आत्मार्थ ममानेनाजीविका नविष्यतीति । परार्थं वा पुत्रमहमेतज्ञाहयिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकार क्रियादीनि । नैपुण्यानि चित्रकलादिलक्षणानि । गृहिण उपनोगार्थमन्नपानादिनोगाय । शिक्षन्त इति शेषः । इहलोकस्य निमित्तम् ॥ १३ ॥ (अर्थ.) हवे कहिशुं ते वात पण मनमा राखीने विनय करवो एम कहे ठे. अप्पणछा इत्यादि सूत्र. ( गिहिणो के) गृहिणः एटले गृहस्थ जे ते (श्लोगस्स के०) इहलोकस्य एटले था लोकने ( कारणा के०) कारणात् एटले अर्थे ( उवनोगहा के०) उपजोगार्थ एटले अन्न, पान प्रमुख नोगनी प्राप्ति सारु (अप्पणा के०) थात्मार्थं एटले पोतानी श्राजीविकाने अर्थे ( वा के०) वा एटले अथवा (परहा के ) परार्थं एटले पुत्रादिकने अर्थे ( सिप्पा के) शिल्पानि एटले कुंजार, सोहार प्रमुखना शिल्पोने (थ के०) च एटले अने ( नेणियाणि के०) नेपुण्यानि एटसे चित्राम प्रमुख कलाऊने शिखे .॥ १३ ॥ (दीपिका.) एवं मनसि थानीय साधुनिर्विनयः कार्य इत्याह । ये गृहिणोऽसंयता इहलोकस्य कारण मिहलोकनिमित्तमिति । उपनोगार्थमन्नपानादिनोगाय । शिदन्त इति शेषः । किमर्थम् । श्रात्मार्थमात्मनिमित्तम् । अनेन मम थाजीविका नवि१:- कारणं इति पाठान्तरम् । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ष्यतीत्येवं, परार्थ वा परनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्राह यिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकारक्रियादीनि नैपुण्यानि च लेखादिकलालक्षणानि ॥ १३ ॥ ( टीका. ) एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह । अप्पड ति सूत्रम् । श्र स्य व्याख्या । श्रात्मार्थमात्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीत्येवम् । परार्थ वा प रनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्राह यिष्यामीत्येवं शिल्पानि कुम्नकार क्रियादीनि नैपुण्यानि चालेख्यादिकलाल कणानि गृहिणोऽसंयता उपजोगार्थमन्नपानादिजोगाय शिक्षन्त इति वाक्यशेषः । इहलोकस्य कारण मिलोक निमित्तमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ जेण बंधं वदं घोरं, परिच्यावं च दारुणं ॥ सिकमाणा निचंति, जुत्ता ते ललिइंदिया ॥ १४ ॥ . ( अवचूरि : ) येन शिल्पा दिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं कषादिनिर्घोरं रौद्रं परितापं च दारुणं निर्भर्त्सना दिजनितं वा शिक्षमाणा गुरोः सकाशानियछन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ताः शिल्पा दिग्रहणे ललितेन्द्रियास्ते गर्भेश्वरा राजपुत्रादयः ॥ १४ ॥ ( अर्थ. ) जेण इत्यादि सूत्र. ( जेण के० ) येन एटले जे शिल्पो तथा कला शीखतां (जुत्ता ho) युक्ताः एटले शिखवाने विषे जोडायला एवा (ल लिइंदिश्रा के ० ) ललितेन्द्रियाः एटले गर्भश्रीमंत एवा ( ते के० ) ते एटले ते राजपुत्रादिक पण ( सिरक माला के० ) शिक्षमाणाः एटले जे शिल्पो तथा कलाई शिखता बता ( बंधं के० ) बन्धं एटले श्रृंखला दिकना बंधप्रत्ये, ( घोरं के० ) घोरं एटले जयंकर एवी ( वदं के० ) वधं एटले चाबक विगेरेनी ताडना प्रत्ये, ( च के० ) वली ( दारुणं के० ) दारु एटले खमी न शकाय एवा ( परिश्रावं के० ) परितापं एटले निर्भर्त्सना प्रमुख परिताप प्रत्ये गुरुकी ( नियति के० ) नियछन्ति एटले पामे बे ॥ १४ ॥ ( दीपिका. ) येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगमादिनिर्वधं कषादिनिः । घोरं रौद्रं परितापं च दारुणमेतजनितं निर्भर्त्सना दिवचनं शिक्षमाणा गुरोः सकाशांत नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ता इति नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते ललितेन्द्रिया लीलागर्जेश्वरा राजपुत्रादयः ॥ १४ ॥ ( टीका. ) जेण त्ति सूत्रम् । येन शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगडादिनिः, वधं कषादिनिः । घोरं रौद्रं परितापं च दारुणमेतजनितमनिष्टं निर्भर्त्सना दिवचनंजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशान्नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । युक्ता इति नियुक्ताः शिल्पा दिय-ढ्णे ते ललितेन्द्रिया गर्जेश्वरा राजपुत्रादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५७१ ते वि तं गुरु पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा॥. सकारंति नमसंति, तुझा निदेसवत्तिणो ॥१५॥ (श्रवचूरिः) तेऽपि तं गुरुं वधादिकारकमपि पूजयन्ति । तस्य शिल्पस्य कारणं निमित्तमिति नावः। तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना । नमस्यन्ति । तुष्टा निर्देशवर्तिन आज्ञाकारिण इति ॥ १५ ॥ (अर्थ.) ते वि इत्यादि सूत्र. (ते वि के) तेऽपि एटले उपर कहेला राजपुत्रादिक पण (तुझा के) तुष्टाः एटले प्रसन्न थर ( निदेसवत्तियो के) निर्देशवर्तिनः एटसे थाझामा रह्या बता (तस्स सिप्पस्स कारणा के) तस्य शिल्पस्य कारणात् एटले ते शिल्पना थापनार गुरु डे माटे (तं के०) तं एटले ते (गुरु के०) गुरुं एटसे कलाचार्य प्रत्ये (पृथंति के०) पूजयन्ति एटले पूजे , ( सकारंति के) सत्कारयन्ति एटले वस्त्रादिक थापी सत्कार करे , तेमज (नमंसंति के) नमस्यन्ति एटले हाथ जोडीने नमस्कार पण करे . ॥ १५ ॥ (दीपिका.) तेऽपि पुरुषाः शिक्षमाणास्तमित्वरमपि गुरुं वन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाभिनन्दनेन । किमर्थम् । तस्य शिल्पस्य कारणात्। तन्निमित्तमिति जावः । पुनस्तं गुरुं ते सत्कारयन्ति वस्त्रादिना । पुनस्तं गुरुं नमस्यन्ति अञ्जखिप्रग्रहणादिना । किंजूतास्ते । तुष्टा इति । अमुत इदमवाप्यत इति तुष्टाः । पुनः किंजूतास्ते । निर्देशवर्तिन श्राज्ञाकारिण इति ॥ १५ ॥ (टीका.) ते वि त्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या। तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनानिनन्दनेन तस्य शिस्पस्येत्वरस्य कारणात्तन्निमित्तमिति नावः। तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना नमस्यन्त्यअलिप्रमदादिना । तुष्टा इत्यमुत इद मवाप्यत इति हृष्टा निर्देशवर्तिन आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ किं पुणं जे सुअग्गाही, अपंतदिअकामए॥ आयरिआ जं वए निकू, तम्हा तं नाश्वत्तए ॥१६॥ (श्रवचूरिः) यदि तेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । ततः किंपुनः साधुः श्रुतग्राही। अनन्तहितकामो मोदकामः । तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या यदन्ति । निक्षुः साधुस्तस्मादाचार्यवचनं नातिवर्त्तते । सर्वमपि संपादयेत् ॥ १६ ॥ ('अर्थ.) राजपुत्रादिक पण कलाचार्यने सेवे . तो पठी किं पुण इत्यादि सूत्र. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. (जे के० ) यः एटले जे पुरुष ( सुग्गाही के० ) श्रुतग्राही एटले केव सिप्रणीत आगम ग्रहण करवा छतो दोय, तथा ( अत हिश्रकामए के० ) अनन्त हितका - मुकः एटले अनंत हितकारी मोहनी इछावालो होय, ते पुरुषे तो ( किंपुरा के० ) किंपुनः एटले आचार्यनी सेवा करवी एमां शुं कहेतुं ? अर्थात् तेणे तो अवश्य गुरुसेवा करवीज जोइये. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारण माटे ( आयरिया के० ) श्राचार्याः एटले आचार्य महाराज जे ते ( जं के० ) यत् एटले जे ( वए के० ) वदन्ति एटले कड़े, ( तं के० ) तत् एटले ते वचन प्रत्ये ( जिरकू के० ( निक्कुः एटले साधु जे ते (नाश्वत्तए के० ) नातिवर्त्तेत एटले उल्लंघन न करें. ॥ १६ ॥ ( दीपिका . ) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । तदा यः साधुमवाञ्चकस्तेन तु गुरवो विशेषतः पूजनीया इत्याह । किं पुनः । यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतस्याTher ग्रहणे जिलाषी । पुनर्यः अनन्त हितकामुकः । मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः । तेन तु गुरवः सुतरां पूजनीया इति । यतश्च एवमत श्राचार्या यत्किमपि वदन्ति तथा तथानेकप्रकारम् । क्षुिः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं न प्रतिवर्तयेत् युक्तत्वात् सर्वमेव संपादयेदिति ॥ १६ ॥ ( टीका. ) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । अतः किं पुत्ति सूत्रम् । किं पुनर्यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणा जिलाषी । अनन्त हितकामुकः । मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः । तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या यदन्ति किमपि तथा तथानेकप्रकारं निकुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्त्तेत । युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नीच्यं सिकं गईं ठाणं, नीयं च सणाणि ॥ नीच्यं च पाए वंदिका, नीचं कुका अ अंजलिं ॥ १७ ॥ ( श्रवचूरिः ) विनयोपायमाह । नीचां शय्यां संस्तारकलक्षणां गुरुशय्यायाः । गतिमाचार्यगतेः । तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद्रुतं यायात् । नीचं स्थानमाचार्यस्थानात् । नीचानि लघुतराषि आसनानि पीठकादीनि च । नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पा दावाचार्य सत्काव विन्देत नावज्ञया कचित्प्रस्तावादौ नीचं नम्रकायं कुर्याच्चाञ्जलिम् । सर्वत्र क्रिया योज्या ॥ ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) हवे विनयनो उपाय कहे बे. नीयं इत्यादि सूत्र, साधु जेते आचार्य करतां पोतानी ( सिद्धं के० ) शय्यां एटले शय्या प्रत्ये ( नीनं के० ) नीचां एटले Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने द्वितीय उदेशकः । ५७३ नीची एवी (कुजा के० ) कुर्यात् एटले करे. आचार्यनी गति करतां पोतानी ( गईं ho) गतिं एटले गति प्रत्ये नीची करे. अर्थात् तेमनी पढवाडे चाले. तेमज (गणं के० ) स्थानं एटले स्थान नीच करे, अर्थात् जे स्थानके आचार्य रहेता होय ते करतां नीचे स्थानके पोते रहे. ( च के० ) पुनः ( नीए के० ) नीचानि एटले गुरुना श्रासन करता नीचा ( सणापि के० ) श्रासनानि एटले आसन उपर गुरुनी आज्ञाथी बेसे. ( च के० ) पुनः ( नी के० ) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नीचो थने ( पाए ho ) पादौ एटले गुरुना चरणने ( वंदिता के० ) वन्देत एटले वांदे, पण श्रवज्ञान वांदे. तेमज कार्य पडे (नीचं के० ) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नमीने ( अञ्जलिं के० ) अंजलिं एटले अंजलि प्रत्ये ( कुका के० ) कुर्यात् एटले करे. अर्थात् हाथ जोडे. ॥ १७ ॥ ( दीपिका : ) थ विनयस्य उपायमाह । साधुः गुरोः सकाशात् शय्यां संस्तारकलक्षणां नीचां कुर्यादित्युक्तिः । एवं साधुः श्राचार्यगतेः सकाशात् स्वकीयां गतिं नीचां कुर्यात् । तस्य गुरोः पृष्ठतो न श्रतिदूरेण न अतिशीघ्रं यायादित्यर्थः । एवं स्थानं यत्र स्थान आचार्य श्रास्ते तस्मात् स्थानात् नीचम् । नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति जावः । पुनः नीचानि लघुतराणि कदाचित् कारणजात आसनानि पीठकादीनि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सन् सेवेत नान्यथा । तथा नीचं च सम्यगवनतमस्तकः सन् श्राचार्यस्य पादौ वन्दते न श्रवज्ञया । तथा क्वचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं कुर्याच्च संपादयेच अञ्जलिम् । न स्थाणुवत् स्तब्ध एवेति ॥ १७ ॥ ( टीका. ) विनयोपायमाह नीचं ति सूत्रम् । नीचां शय्यां संस्तारकलक्षणामाचार्य शय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः । एवं नीचां गतिमाचार्यगतस्तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिडुतं यायादित्यर्थः । एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानायत्राचार्य श्रास्ते तस्मान्नी चतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः । तथा नीचानि लघुतराणि कदाचित्कारणजात शासनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत नान्यथा । तथा नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत । नावज्ञया । तथा कचित्प्रश्नादो नीचं नम्रकायं कुर्यात्संपादयेच्चाञ्जलिं न तु स्थाणुवत्स्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ संघहत्ता कारणं, तदा जवहिणामवि ॥ खमेद च्यवरां मे, वइक न पुत्तिय ॥ १८ ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- -- --- - ५७ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (जे के० ) यः एटले जे पुरुष ( सुश्रग्गाही के० ) श्रुतग्राही एटले केवलिप्रणीत श्रागम ग्रहण करवा श्छतो होय, तथा ( अणंतहियकामए के) अनन्तहितकामुकः एटले अनंत हितकारी मोदनी श्वावालो होय, ते पुरुपे तो ( किंपुण के) किंपुनः एटले आचार्यनी सेवा करवी एमां शुं कहे ? अर्थात् तेणे तो अवश्य गुरुसेवा करवीज जोश्ये. ( तम्हा के) तस्मात् एटले ते कारण माटे (थायरिश्रा के०) श्राचार्याः एटले आचार्य महाराज जे ते (जं के०) यत् एटले जे (वए के०) वदन्ति एटले कहे, (तं के०) तत् एटले ते वचन प्रत्ये (निस्कू के० ( निकुः एटले साधु जे ते (नाश्वत्तए के) नातिवर्तेत एटले उल्लंघन न करे. ॥ १६ ॥ (दीपिका.) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति । तदा यः साधुर्मोदवाञ्चकस्तेन तु गुरवो विशेषतः पूजनीया इत्याह । किं पुनः। यः साधुःश्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतस्यागमस्य ग्रहणे अनिलाषी। पुनर्यः अनन्तहितकामुकः।मोदं यः कामयत इत्यनिप्रायः। तेन तु गुरवः सुतरां पूजनीया शति । यतश्च एवमत आचार्या यत्किमपि वदन्ति तथा तथानेकप्रकारम् । निकुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं न श्रतिवर्तयेत् युक्तत्वात् सर्वमेव संपादयेदिति ॥ १६ ॥ (टीका.) यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति। अतः किं पुण त्ति सूत्रम् । किं पुनर्यः साधुः श्रुतग्राही परमपुरुषप्रणीतागमग्रहणानिलाषी । अनन्तहितकामुकः । मोदं यः कामयत इत्यभिप्रायः। तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति । यतश्चैवमाचार्या यदन्ति किमपि तथा तथानेकप्रकारं निनुः साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्त्तत । युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ नीअं सिङ गई वाणं, नीनं च आसपाणि अ॥ नीअंच पाए वंदिजा, नीअं कुजा अ अंजलिं ॥१७॥ (श्रवचूरिः)विनयोपायमाह ।नीचां शय्यां संस्तारकलहणां गुरुशय्यायाः। गति. माचार्यगतेः । तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातितं यायात् । नीचं स्थानमाचार्यस्थानात् । नीचानि लघुतराणि श्रासनानि पीठकादीनि च । नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कावनिवन्देत नावझया कचित्प्रस्तावादौ नीचं नम्रकायं कुर्याचाञ्जलिम् । सर्वत्र क्रिया योज्या ॥॥१७॥ (अर्थ.) हवे विनयनो उपाय कहे . नीधे इत्यादि सूत्र. साधु जेते आचार्य करतां पोतानी ( सिहं के) शय्यां एटले शय्या प्रत्ये ( नीथं के) नीचा एटल Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५७३ नीची एवी (कुजा के० ) कुर्यात् एटले करे. श्राचार्यनी गति करता पोतानी (गई के०) गतिं एटले गति प्रत्ये नीची करे.अर्थात् तेमनी पनवाडे चाले. तेमज (गणं के०) स्थानं एटले स्थान नीच करे, अर्थात् जे स्थानके आचार्य रहेता होय ते करतां नी. चे स्थानके पोते रहे. ( च के ) पुनः ( नीए के) नीचानि एटले गुरुना श्रासन -करता नीचा ( आसणाणि के०) श्रासनानि एटले आसन उपर गुरुनी आज्ञाथी बेसे. (च के ) पुनः ( नीअं के०) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नीचो थश्ने ( पाए के ) पादौ एटले गुरुना चरणने (वंदिजा के० ) वन्देत एटले वांदे, पण अव. . झाथी न वांदे. तेमज कार्य पडे ( नीअं के) नीचं एटले सम्यक् प्रकारे नमीने (अञ्जलिं के० ) अंजलिं एटले अंजलि प्रत्ये (कुजा के०) कुर्यात् एटले करे. अर्थात् हाथ जोडे. ॥ १७ ॥ . (दीपिकाः) अथ विनयस्य उपायमाह । साधुः गुरोः सकाशात् शय्यां संस्तारक. . लक्षणां नीचां कुर्यादित्युक्तिः। एवं साधुः श्राचार्यगतेः सकाशात् खकीयां गतिं नीचां : कुर्यात् । तस्य गुरोः पृष्ठतो न अति दूरेण न अतिशीघ्रं यायादित्यर्थः । एवं स्थानं यत्र . . स्थान आचार्य श्रास्ते तस्मात् स्थानात् नीचम् । नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति नावः। पुनः नीचानि लघुतराणि कदाचित् कारणजात आसनानि पीठकादीनि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सन् सेवेत नान्यथा। तथा नीचं च सम्यगवनतमस्तकः सन् श्राचार्यस्य पादौ वन्दते न अवज्ञया। तथा कचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं कुर्याच्च संपादयेच अञ्जलिम् । न स्थाणुवत् स्तब्ध एवेति ॥ १७ ॥ __(टीका.) विनयोपायमाह नीति सूत्रम् । नीचां शय्यां संस्तारकलदणामा चार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः। एवं नीचां गतिमाचार्यगतेस्तत्पृष्टतो ना- तिदूरेण नातिनुतं यायादित्यर्थः । एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानाद्यत्राचार्य श्रास्ते तस्मान्नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति नावः। तथा नीचानि लघुतराणि कदाचित्कारणजात श्रासनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत नान्यथा । तथा नीचं सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्कौ वन्देत । नावज्ञया । तथा कचित्प्रश्नादौ नीचं नम्रकायं कुर्यात्संपादयेच्चाञ्जलिं न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ . संघदृश्त्ता काएणं, तदा नवदिणामवि॥ खमेह अवराहं मे, वश्ज न पुणुत्ति अ॥ १७ ॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग ततालीस (४३) -मा. ( श्रवचूरिः ) संघ स्पृष्ट्वा कायेन तयोपधिना वा क्षमखापराधं मे मम न पुनरिति नचाहमेवं भूयः करिष्य इति ॥ १८ ॥ ( अर्थ. ) उपर कह्या प्रमाणे कायानो विनय कहीने हवे वाणीनो विनय कहे d. संघट्टत्ता इत्यादि सूत्र, शिष्य जे ते ( कारण के० ) कायेन एटले शरीरवडे अर्थात् पोताना हाथे श्राचार्यजीना चरणने ( संघट्टत्ता के० ) संघट्टय एटले स्पर्श करीने अथवा पगे स्पर्श न कराय एम होय तो तेमनी ( उवहिणामवि के० ) उपधिनापि एटले उपधिवडे पण अर्थात् श्राचार्यजीना कपडा, उघो प्रमुख उपकरणने पण स्पर्श करीने मिठामि डुक्कड दइ ( वश्ऊ के० ) वदेत् एटले कहे. शुं कड़े ते कहे बे. ( मे के० ) मे एटले मारा ( वराहं के० ) अपराधं एटले अपराध प्रत्ये ( खमेद के० ) कमख एटले खमो, सहन करो . ( न पुति के० ) न पुनरितिच एटले फरिथी एवो अपराध करीश नहि. ॥ १८ ॥ ( दीपिका. ) एवं काय विनयं कथयित्वा वचन विनयमाह । साधुः गुरुं प्रति मिथ्यादुष्कृतपुरःसरम निवन्द्य एवं वदेत् । न पुनरिति । न च श्रहमेवं नूयः करिष्यामीति । एवं किमित्याह । हे गुरो मम मन्दजाग्यस्य अपराधं दोषं क्षमस्व सदस्य । किं कृत्वा । कायेन देहेन कथं चित्तथाविधे प्रदेश उपविष्टं गुरुं संघट्टय स्पृष्ट्वा पुनः उपधिनापि कल्पादिनापि कथंचित् संघट्टय ॥ १८ ॥ ( टीका. ) एवं काय विनयम निधाय वाग्विनयमाह । संघह त्ति सूत्रम् संघट्टप पृष्ट्वा कायेन देन कथं चित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्यं तथोपधिनापि कल्पादिना कथंचित्संघट्टय मिथ्याडुष्कृतपुरःसरमनिवन्द्य क्षमस्व सहखापराधं दोषं मे मन्दभाग्य - स्यैनं वदेब्रूयान्न पुनरिति च नाहमेनं भूयः करिष्यामीति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ डुग्गन वा पच्प्रोएणं, चोइन वहई रहं ॥ एवं बुद्धि किञ्चाणं, वृत्तो वृत्तो पकुवई ॥ १० ॥ ( श्रवचूरिः ) द्वाभ्यां गाथाज्यां कायविनय उक्तः । एतत्स्वयं विद्वान् सर्व करोति । तदन्यः कथमित्याह । डुगौरिव गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेनाराद एक लक्षणेन नोदितो विद्धः सन् वदति रथम् । एवं दुर्बुद्धिः शिष्यः । कृत्यानामाचार्यादीनां कृत्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि पुनः पुनः निहितः प्रकरोति ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) उपर कहेल विनयने बुद्धिमान् शिष्य पोतानी मेले करे, पण जे दुर्बुशिवालो होय ते शीरीते करे ते कहे बे. डुग्गर्न वा इत्यादि सूत्र. ( वा के० ) वा ए Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिके नवमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः । जय टले जेम ( डुग्गर्ड के० ) दुर्गो: एटले गलियो बलद जे ते ( पर्जएणं के० ) प्रतोदेन एटले पराणी वडे ( चोट के० ) चोदितः एटले हणायो बतो ( रहं के० ) रथं एटले रथ प्रत्ये ( वह के० ) वहति एटले बड़े बे, लई जाय बे. ( एवं के० ) एवं एटले ए प्रकारे ( डुबुद्धि के ० ) दुर्बुद्धिः एटले दुष्टबुद्धिवालो शिष्य जे ते ( बुतो बुत्तो के० ) उक्त उक्तः एटले वारंवार कड़ेवाथी ( किच्चाएं के० ) कृत्यानां एटले आचार्य प्रमुखांवित कार्य प्रत्ये ( पकुवइ के० ) प्रकरोति एटले करे बे. ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) एवं सर्वं बुद्धिमान् स्वयमेव करोति तदन्यस्तु कथमित्याह । डुगरिव गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेन खराद एलक्षणेन चोदितः प्रेरितो विद्धः सन् वहति कापि नयति रथम् । एवं दुगैरिव दुर्बुद्धिः शिष्यः कृत्यानामाचार्यादीनां कृत्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि उक्त उक्तः पुनः पुनः अनिहित इत्यर्थः । प्रकरोति निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति ॥ १७ ॥ ( टीका. ) एतच्च बुद्धिमान् स्वयमेव करोति । तदन्यस्तु कथमित्याह । दुग्ग वा इति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । डुगौरिव गलिबलीवर्दवत् प्रतोदेन खराद एफलक्षणेन चोदितो विद्धः सन्वति नयति क्वापि रथं प्रतीतम् । एवं डुगौरिव दुर्बुद्धिरहिताबुद्धिः शिष्यः कृत्यानामाचार्यादीनां कृत्यानि वा तदनिरुचितकार्याणि उक्त उक्तः पुनः पुनरनिहित इत्यर्थः । प्रकरोति निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ लवंते लवंते वा न निसिकाइ पडिस्सु ॥ मुत्तू सणं धीरो, सुस्साए पडिस्सु ॥ कालं बंदोवयारं च, पडिले दित्ता ए देनहिं || ते तेण नवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥ २० ॥ “ 33 ( श्रवचूरिः ) एवं कृतान्यप्यमूनि न शोजनान्यतः कालं शरदादिलक्षणं बन्दस्त दिवारूपमुपचारमाराधनाप्रकारम् । चशब्दादेशादिपरिग्रहः । एतत्प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा हेतुनिर्ययानुरूपैः कारणैः । किमित्याह । तेन तेन उपायेन गृहस्थावर्जनादिना तत्तत्पित्तड्रादिरूपमशनादि संपादयेत् । यद्यस्येच्छानुगं हितं रोचते च ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) श्रा रीते शिष्य गुरुना कार्य करे तो ते ठीक नयी माटे कहे बे. कार्ल इत्यादि सूत्र. शिष्य जे ते ( कालं के० ) कालं एटले शरदृतु प्रमुख काल प्रत्ये ( ढं १:- इयं क्षेपकगाथा बहुषु पुस्तकेषु नोपलभ्यते । परं दीपिकासंवलित मूलपुस्तक उपलब्धा । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. 'दोवयारं के० ) बन्दोपचारं बंद एटले श्राचार्य प्रमुखनी वा थने उपचार एटले सेवा करवानो प्रकार ए बन्नेने ( च के० ) वली देश प्रमुखने पण ( देउहिं के० ) हेतु निः एटले ते ते कारणोवडे ( पडिले हित्ता के० ) प्रत्युपेक्ष्य एटले जाणीने (ते ते के० ) तेन तेन एटले ते ते ( उवाएण के० ) उपायेन एटले उपाय वडे ( तं तं के० ) तत् तत् एटले ते ते वस्तु प्रत्ये ( संप डिवायए के० ) संप्रतिपादयेत् एटले संपादन करें. अर्थात् जोश्ये ते वस्तु सामाचारीने अनुसारे मेलवे ॥ २० ॥ ( दीपिका . ) पुनराचार्यः शिष्यं प्रत्येकवारं वक्ति । अथवा पुनः पुनर्वक्ति । तदा स शिष्य श्रात्मन श्रासने स्थित एवं वचनं श्रुत्वा नोत्तरं ददाति । किं करोति । - मन श्रासनं मुक्त्वा स शिष्यो विनयेन द्वौ हस्तौ संमीव्य उत्तरं ददाति । कथंभूतः सः। धीरो बुद्धिमान् ॥ ( दीपिका . ) एवं च कृतान्यपि अमूनि न शोजनानीत्यत श्राह । साधुस्तत्तत् पित्तहरादिरूपमशनादि गुरोः संप्रतिपादयेडुपानयेत् । केन केन । तेन तेन उपायेन गृहस्थानामावर्जनादिना । किं कृत्वा । कालं शरदा दिलक्षणं बन्दस्तस्य श्छारूपमुपचारम् | माराधनाप्रकारं चशब्दादेशादिकम् । एतत् प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा । कैः । हेतु निर्यथानुरूपैः कारणैः । तथा काले शरदादौ पित्तहादि जोजनं शय्या प्रवात निवाता दिरूपा इछानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनाप्रकारोऽनुलोमजाषणग्रन्याज्यासवैयावृत्त्य रणादिः । देशे अनूपदेशादीनामुचितं निष्ठीवनादिनिर्हेतु निः श्लेमाद्याधिक्यं विज्ञाय तदुचितं संपादयेदिति ॥ २० ॥ ( टीका. ) एवं च कृतान्यमूनि न शोजनानीत्यतः कालं ति सूत्रम् । कालं शरदादिलक्षणं, बन्दस्तदिश्वारूपमुपचारमाराधनाप्रकारं चशब्दाद्देशादिपरिग्रहः । ए तत्प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा । हेतु निर्यथानुरूपै कारणैः । किमित्याह । तेन तेनोपायेन गृहस्थावर्जनादिना तत्तत्पित्तदादिरूपमशनादि संप्रतिपादयेत् । यथा काले शरदादौ पित्तरादि जोजनम् । प्रवात निवातादिरूपा शय्या । इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च । श्राराधनाप्रकारोऽनुलोमं जापणं ग्रन्थान्यासवैयावृत्त्यकरणादिः । देशे अनूपदेशाद्युचितं निष्ठीवनादि निर्हेतु निः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तडुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ विवत्ती प्रविणीच्यस्स; संपत्ती विपित्र्यस्स य ॥ जस्सेय दुदन नायं, सिकं से अभिगच ॥ २१ ॥ ( श्रवचूरिः ) विपत्तिरविनीतस्य गुणानां संप्रातिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणा Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५ नामेव । यस्यैतज्ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तियमुजयमुजयतः विनयाविनयाभ्यां नवतीति ज्ञातम् । शिक्षा ग्रहणासेवनरूपाम् । असाविबंजूतोऽनिगडति प्राप्नोति ॥ २ ॥ (श्रर्थ.) वली विवत्ती इत्यादि सूत्र. (अविणीअस्स के) अविनीतस्य एटले विनयरहित पुरुषना ज्ञानादि गुणनो ( विवत्ती के) विपत्तिः एटले नाश थाय . (य के०) च एटले अने (विणिअस्स के०) विनीतस्य एटले विनयवंत पुरुषना ज्ञानादि गुणोनी (संपत्ती के ) संपत्तिः एटले वृद्धि थाय बे. (जस्स के०) यस्य एटलें जेने (एय के) एतत् एटले उपर कहेल वात (मुहर्ड के० ) उन्नयतः एटले अनुक्रमे अविनयथी अने विनयथी थाय जे एम (नायं के) ज्ञातं एटले जाणवामां श्राव्यु होय, ( से के०) सः एटले ते पुरुष ( सिकं के०)शिदां एटले ग्रहण धारणा रूप शिक्षा प्रत्ये (अनिगम के०) अजिगबति एटले प्राप्त थाय जे. ॥ २५॥ . (दीपिका.) पुनः प्राहा विनीतस्य शिष्यस्य ज्ञानादिगुणानां विपत्तिवति । विनीतस्य च शिष्यस्य ज्ञानादिगुणानां संप्राप्तिर्जवति।यस्य एतत ज्ञानादिप्रात्यप्राप्तिरूपम्। ज्ञानाद्यधिगति प्राप्नोति । नावत उपादेयं ज्ञानादीति ॥ ॥ (टीका.) किंच विवत्ति ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव । यस्यैतज्ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिकयमुजयत उलयाच्यां विनयाविनयाज्यां सकाशात् नवतीत्येवं ज्ञातमुपादेयं चैतदिति जवति । शिक्षा ग्रहणासेवनारूपामसाविळंजूतोऽधिगति प्राप्नोति । जावत उपा. देय परिज्ञानादिति सूत्रार्थः ॥२५॥ - जे आवि चमे मशविगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे॥ अदिधम्मे विणए अकोविए, असंविनागी न हु तस्स मुको ॥३॥ (श्रवचूरिः) यश्चापि चएमः प्रव्रजितोऽपि रोषणः मतिज्ञछिगौरवः । पिशुनः पृष्ठमांसादनो नरः साहसिकोऽकृत्यकरणतत्परः। हीनप्रेषणो हीनगुर्वाज्ञाकरः । अदृष्टधर्माप्राप्तश्रुतादिधर्मा । विनयेऽकोविदोऽपएिकतः। न संविनागवान् । य नूतो न चैव तस्य मोक्षः॥३॥ (अर्थ.) एज वात दृढ करवाने अर्थे विनय न साचवनारने शुं फल मले ने ते कहे . जे श्रावि इत्यादि सूत्र. (जे आवि के०) यश्चापि एटले जे वली (नरे के०) नरः एटले केवल नामनो मनुष्य जे ते चारित्र ग्रहण कस्या पडी पण (चंमे के०) चएमः एटले घणो क्रोधी, ( मशविगारवे के० ) शडिगौरवमतिः एटले पोतानी - Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USG राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. हिना अहंकार मांज मग्न एवो, ( पिसुणे के० ) पिशुनः एटसे चुगली करनारो ( साहस के० ) साहसिकः एटले कृत्य करवाने विषे आसक्त एवो, (हीणपेसणे hu ) हीनप्रेषणः एटले गुरुनी थाज्ञामां न रहेनारो, ( यदिधम्मे के ० ) श्रदृष्टधर्मा. एटले श्रुत चारित्र प्रमुख धर्मने सम्यक् प्रकारे न पामेलो, ( विषए कोविए ho ) विनयेोविदः एटले विनय शी रीते करवो ते न जाणनारो, तथा (संविजागी के० ) असं विनागी एटले कं सारी वस्तु मले तो ते सर्वे साधुउने हेची न आपना एवो होय. ( तस्स के० ) तस्य एटले तेने (मुरको के० ) मोक्षः एटले मोक जे ते ( न हु के० ) न खलु एटले निश्चये नथी. ॥ २३ ॥ ( दीपिका) एतदेव दृढयन् श्रविनीतस्य फलमाह । एवंविधस्य साधोः मोको नास्ति । कथम् । सम्यग्दृष्टेः चारित्रवत इवंविधसंक्लेशस्य श्रभावात् । एवंविधस्य कस्य । यश्चापि च एकः प्रत्रजितोऽपि रोषणः । पुनर्यो मतिरुद्धिगारव इति । रुद्धिगौरवमतिः । द्धिगौरवेऽनि निविष्टः । पुनर्यः पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः । नरो नरव्यअनको न जावनरः । पुनर्यः साहसिकः प्रकृत्यकरणपरः । पुनर्यो हीनगुर्वाज्ञाकरः । पुनर्यः श्रष्टधर्मा । सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा । पुनर्विनयेऽकोविदो विनय विषये - पतिः । पुनर्यः संविभागी । यत्र कुत्रापि लाने न संविभागवान् । य इछंनूतस्तस्य न मोक्षः ॥ २३ ॥ ( टीका. ) एतदेव हृदयन्न विनीतफलमाह । जे श्रवित्ति सूत्रम् । व्याख्या । यश्चापि चमः प्रव्रजितोऽपि रोषणः रुद्धिगौरवमतिः द्धिगौरवे अनिनिविष्टः । पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः । नरो नरव्यञ्जनो न जावनरः । साहसिकोऽकृत्यकरणपरः । हीनप्रेषणः हीनगुर्वाज्ञापरः । दृष्टधर्मा सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा । विनयेऽको विदो विनयविषयेऽपतिः । संविभागी यत्र वचन लाने न संविभागवान् । य एवंभूतोऽधमो नैव तस्य मोहः । सम्यग्दृष्टेश्चारित्रवत इवंविधसंक्केशानावादिति ॥ २३ ॥ । निदेसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुप्रधम्मा विषयंमि को विश्रा ॥ तरित्तु ते घमि दुरुत्तरं खचित्तु कम्मं गइमुत्तमं गयति बेमि ॥ २४ ॥ ॥ विषयसमाहिप्रयणे बीन उद्देसो सम्मत्तो ॥ २॥ 1 ( अवचूरिः ) उपसंहरं विनय फलमाह । निर्देशवर्त्तिन श्राज्ञावर्त्तिनः पुनर्ये गुरूणां - प्राकृतत्वात् श्रुतधर्मार्थाः विनयकोविदाः ते तीर्त्वा महासत्त्वा उघमेनं प्रत्यक्षोपलभ्यं Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः । यूए डुस्तरं दुरुत्तारं समुद्रं रूपयित्वा कर्म निर वशेषं गतिमुत्तमां सिद्ध्याख्यां गताः । ब्रवीमीति पूर्ववत् । इति विनय समाध्यध्ययनम् ॥ २४ ॥ इति द्वितीय उद्देशः ॥ २ ॥ ( अर्थ. ) हवे विनयनुं फल कहीने या उद्देशनो उपसंहार करे बे. निद्देस वित्ती इत्यादि सूत्र. (पु० ) पुनः एटले वली ( जे के० ) ये एटले जे साधु (गुरूणं ho) गुरूणाम् एटले गुरुमहाराजनी ( निद्देस वित्ती के० ) निर्देशवर्त्तिनः एटले था ज्ञामां रहेला एवा, ( सुधम्मा के० ) श्रुतार्थधर्माः एटले गीतार्थ यएला एवा तथा ( वियंम के० ) विनये एटले विनय साचववामां ( कोविया के० ) कोविदाः एटले निपुण एवा होय . ( ते के० ) ते एटले ते साधु ( इणं के० ) एनं एटले श्रा ( पुरुत्तरं के० ) दुरुत्तारं एटले तरी न शकाय एवा ( उघं के० ) उघं एटले संसार समुद्रने (तरित के० ) तीर्त्वा एटले तरीने अने ( कम्मं के० ) कर्म एटले न - वोपयाहि प्रमुख समग्र कर्मने ( खवित्तु के० ) रूपयित्वा एटले खपावीने ( उत्तमं के० ) उत्तमां एटले सर्वोत्कृष्ट एवी ( गई के० ) गतिं एटले सिद्धिनामक गति प्रत्ये ( गय के० ) गताः एटले गया. तिबेमि एनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ॥ २४ ॥ इति नवमाध्ययनना बालावबोधनो द्वितीय उद्देश संपूर्ण ॥ २ ॥ ( दीपिका ) अथ विनयफलस्य नाम्ना उपसंहरन्नाह । एवंविधास्ते साधव उतमां गतिं सिद्धिं गताः । किं कृत्वा । कर्म निरवशेषं समस्तं जवोपग्राहिनामकं रूपयित्वा । पुनः किं कृत्वा । एनमुदधिं प्रत्यक्षोपलच्यमानं संसारसमुद्रं दुरुतारं तीर्त्वा । चरमनवं केवलित्वं च प्राप्येति भावः । ब्रवीमि पूर्ववत् ॥ २४ ॥ इति श्री दशवैकालिके शब्दार्थवृत्तौ श्री समय सुन्दरोपाध्याय विरचितायां विनयसमा : ध्याख्यनवमाध्ययने द्वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ २ ॥ ( टीका. ) विनयफला निधानेनोपसंहरन्नाह । निद्देसवत्ति सूत्रम् । निर्देश श्रज्ञा तद्वर्त्तिनः पुनयें गुरूणामाचार्यादीनां श्रुतार्थधर्मा इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः । विनये कर्त्तव्ये को विदा विपश्चितो य श्वंभूतास्तीर्त्वा ते महासत्त्वा उद्यमेनं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तारं तीर्खेव तीर्त्वा चरमजवं केवलित्वं च प्राप्येति जावः । ततः पयित्वा कर्म निरवशेषं नवोपयाहिसंज्ञितं गतिमुत्तमां सिद्ध्याख्यां गताः प्राप्ताः । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ इति विनयस - माधौ व्याख्यातो द्वितीयोदेशः ॥ २ ॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अथ तृतीय उद्देशः। आयरिश अग्गिमिवादिअग्गी, सुस्सूसमापो पडिजागरिका। आलोअंगिअमेव नच्चा, जो बंदमारादई स पुजो॥१॥ (श्रवचूरिः) अथ विनयसमाध्यध्ययनस्य तृतीय उद्देशः प्रारज्यते । इह च विनीतः पूज्य श्त्युपदर्यते । आचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वा यथानिमाहितामिब्राह्मणः शुश्रूषमाणः सम्यक् सेवमानः प्रतिजागृयात् । तत्तत्कृत्यसंपादनेनोपच. रेत्।अवलोकितं निरीक्षितमिङ्गितमन्ययावृत्तिरूपमेव ज्ञात्वा चाचार्टीयं यः साधुः - न्दोऽनिप्रायमाराधयति । यथा शीते प्रावरणेदणे तदानयनेन । इशिते निष्ठीवनादौ शुंठ्याद्यानयनेन । स पूज्यः पूचाईः कल्याणजागिति ॥१॥ - (अर्थ.) हवे विनयसमाधिनो त्रीजो उद्देश कहे . या उद्देशमां विनयवंत शिष्य पूज्य जे एम कहे . थायरिश इत्यादि सूत्र. (श्राहियग्गी के ) आंहितानिः एटले ब्राह्मण जे ते (अग्गि के०) श्रमिं एटले श्रमिनी जेम शुश्रूषा करतो सावधान रहे, तेम शिष्य जे ते (आयरिश के०) श्राचार्य एटले आचार्य प्रत्ये (सुस्सूसमाणे के०) शुश्रूषमाणः एटले सम्यक् प्रकारे सेवा करतो बतो (पडिजागरिजा के०) प्रतिजागृयात् एटले ते ते कार्य करवामां दद रहे. (जो के० ) यः एटले जे शिष्य जे ते (आलोश्श के०) थालोकितं एटले अचार्यनी दृष्टिप्रत्ये अथवा (इंगिअमेव के०) इङ्गितमेव एटले बाह्य आकारमा थएल फेरफार प्रत्ये (नच्चा के) ज्ञात्वा एटले जाणीने (बंद के०) बन्द एटले आचार्यनी बा माफक (श्राराहश् के०) आराधयति एटले आराधना सेवा करे. ( स के0) सः एटले ते शिष्य (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य वे. ॥१॥ .. ( दीपिका.) अथ तृतीय श्रारज्यते।श्द च विनीतः पूज्या नवेदिति दर्शयन्नाह। यःसाधुःआचार्य सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं चान्यं ज्येष्ठार्य रत्नाधिकं वा प्रतिजाग्यात् तत्तकार्यसंपादनेन उपचरेत् । कः कामिव । श्राहितामिाह्मणः अग्निमिव । किं कुर्वाणः साधुः। श्राहिताग्निाह्मणश्च । शुश्रूषमाणः सम्यक्सेवमानः। प्रतिजागरमाणश्च । उपायमाह । पुनर्यः साधुः श्राचार्यादीनामवलोकितं वीदितं इङ्गितमेव च अन्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा बन्दोऽनिप्रायमाचार्यादीनां विज्ञाय आराधयति । कथमाराधयेदित्याह। शीते पतति सति प्रावरणावलोकने तस्य आनयनेन । तथा इङ्गिते च निष्ठीवना Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः । यूजर दिलक्षणे जाते सति शुक्यादीनामानयनेन एवं कुर्यात् । स श्वंभूतः साधुः पूज्यः पूजाई : कल्याणनागिति ॥ १ ॥ ( टीका.) सांप्रतं तृतीय आरज्यते । इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह । यरिति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्राचार्यं सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वान्यं ज्येष्ठार्यम् । किमित्याह । श्रग्निमिव तेजस्काय मिवाहिताग्निर्ब्राह्मणः शुश्रूषमाणः सम्यक्सेवमानः प्रति जागृयात्। तत्तत्कृत्य संपादनेनोपचरेत् । याह । यथा हिता मिरित्या दिना प्रागिदमुक्तमेव । सत्यम् । किं तु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्येदं तु रत्नाधिकादिमप्यधिकृत्योच्यते । वक्ष्यति च । रायणी विषय मित्यादि । प्रतिजागरणोपायमाह । श्रालोकितं निरीक्षितम् । इङ्गितमेव वान्यथावृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा विज्ञायाचार्ययं यः साधुः बन्दोऽभिप्रायमाराधयति । यया शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने । इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुव्यायानयनेन । स पूज्यः स इयंभूतः साधुः पूजाई : कल्याणजागिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ यारमा विषयं पनंजे, सुस्सुसमाणो परिगिन वक्कं ॥ जहोass किंखमाणो, गुरुं च नासायई स पुको ॥ २ ॥ ( अवचूरि : ) प्रक्रान्ताधिकार एवाह । आचारार्थं ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयं प्रयुङ्क्तेः करोति । शुश्रूषयन् श्रोतुमिच्छन् किमेते वक्ष्यन्तीति । तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यं ततश्चानिकान् मायारहितः श्रद्धया कर्त्तुमिच्छन् विनयं प्रयुङ्क्तेऽतोऽन्यथाकरणेन गुरुं नाशातयति ॥ २ ॥ (.) प्रस्तुत अधिकारमांज वली कहे बे. आयार इत्यादि सूत्र, जे शिष्य ( श्रायारमा के० ) आचारार्थ एटले ज्ञानाचार प्रमुख श्राचारने अर्थे (विषयं के० ) विनयं एटले उपर कहेल विनयने ( पजे के० ) प्रयुङ्गे एटले करे बे. तेमज जे शिष्य ( सुस्सुसमाणो के० ) शुश्रूषन् एटले याचार्य शी आज्ञा करे बे ते सांजलवानीछा करतो तो, ( वक्कं के० ) वाक्यं एटले आचार्यना वचन प्रत्ये ( पडिगिन ho ) परिगृह्य एटले ग्रहण करीने ( जहोवयं के० ) यथोपदिष्टं एटले जेम श्राचाएक ते प्रमाणे ( श्रमिकखमाणो के ० ) अनिकाङ्क्षमाणः एटले करवानी इछा करतो विनय साचवे. पण एथी विपरीत पणे आचरण करीने ( गुरुं के० ) गुरुं गुरु प्रत्ये (नासाय के० ) नाशातयति एटले आशातना करे नहि. ( स ho ) सः एटले ते शिष्य ( पुतो के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य बे. ॥ २ ॥ ( दीपिका . ) पुनः प्रक्रान्त एव अधिकार श्राह । यः साधुः श्राचारार्थं ज्ञानादीना Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. माचाराणां निमित्तं विनयं पूर्वोक्तं प्रयुङ्क्ते करोति । किं कुर्वाणः । शुश्रूषमाणः श्रोतुमिछन् । किमयं गुरुर्वयत्येवं ततस्तेन गुरुणा उक्ते सति वाक्यमाचार्या दिकथितं परिगृह्य ततो यथोपदिष्टं यथा गुरुणा उक्तं तथा अनिकाङ्कन् मायार हितः श्रद्ध्या कर्तुमिछन् सन् विनयं करोति । परं ततोऽन्यथाकरणेन गुरुं न आशातयति न हीलयति । स पूज्यः ॥२॥ (टीका.) प्रक्रान्ताधिकार एवाह।आयरिश त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्राचारार्थं ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयमुक्तलदणं प्रयुङ्क्ते करोति यः शुश्रूषन् श्रोतुमिधन् । किमयं वयतीत्येवम् । तदनु तेनोक्ते सति । परिगृह्य वाक्यमाचार्टीयम् । ततश्च यथोपदिष्टं यथोक्तमेव अनिकांदन्।मायारहितःच्या कर्तुमिबन् विनयं प्रयुक्ते। अतोऽन्यथाकरणेन गुरुं त्वित्याचार्यमेव नाशातयति न हीलयति यः। स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥२॥ रायणिएसु विणयं पजे, डहरा वि असुअ परित्रायजिहा॥ नीअत्तणे व सच्चवाई, जवायवं वककरे स पुजो ॥३॥ (अवचूरिः) रत्नाधिकेषु झानादिरत्ननूषितेषु विनयं प्रयुङ्क्ते करोति । महरा अपिये वयःश्रुतान्यां पर्यायज्येष्ठाश्चिरदी दितास्तेषु च । एवं यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचनावे वर्त्तते। सत्यवादी अविरुभवक्ता अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा यो वाक्यकरो गुरुनिर्देशकरणशीलः ॥३॥ (अर्थ.) वली रायणिएसु इत्यादि सूत्र. जे साधु (रायणिएसु के ) रत्नाधिकेषु एटले ज्ञान दर्शन प्रमुख नाव रत्नोवडे श्रेष्ठ एवा आचार्यादिकने विषे ( विणयं के) विनयं एटले पूर्वोक्त विनय प्रत्ये ( पजे के०) प्रयुक्ते एटले करे. (थ के०) च एटले वली (जे के०) ये एटले जे (डहरा वि के०) डहरा अपि एटले न्हाना साधु पण (परिआयजिहा के०) पर्यायज्येष्ठाः एटले दीक्षा पर्यायथी अथवा श्रुतपर्यायथी मोटा होय तेमनो पण विनय साचवे. तेमज जे साधु ( सच्चवाई के) सत्यवादी एटले यथार्थ वचन बोलनारो, आचार्य प्रमुखने नित्य (जेवायवं के०) अवपातवान् एटले वंदना करनारो, तथा (वककरे के०) वाक्यकरः एटले आचार्या दि. कनी आज्ञा माननारो एवो थयो तो (नीअत्तणे के०) नीचत्वे एटले पोताना करता अधिक गुणी होय तेने नमतो रहे, (स के०) सः एटले ते साधु ( पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य वे.॥३॥ ..(दीपिका.) पुनः किंच । यः साधुः रत्नाधिकेषु जावरतानादिनिरधिकेषु वि Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः। ५३ नयं पूर्वोक्तं प्रयुक्ते करोति । तथा महरा अपि च ये वयसा श्रुतेन च ज्येष्ठाः । पुनर्ये पर्यायज्येष्ठाश्चिरप्रव्रजिताः । तेषु च यो विनयं प्रयुक्ते । एवं यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचनावे वर्तते । पुनर्योऽपि सत्यवादी अविरुरूवक्ता तथा अवपातवान् वन्दनाशीलः निकटवर्ती वा । पूनयों वाक्यकरः गुरोर्निर्देशकरणशीलः । स पूज्यः ॥३॥ (टीका.) किं च रायणिएसु त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। रत्नाधिकेषु ज्ञानादिनावरत्नान्युड़ितेषु विनयं यथोचितं प्रयुङ्क्ते करोति । तथा महरा अपि ये वयानुताज्यां पर्यायज्येष्ठाश्चिरप्रनजितास्तेषु विनयं प्रयुङ्क्ते । एवं च यो नीचत्वे गुणाधिकान् प्रति नीचन्नावे वर्तते। सत्यवाय विरुष्वक्ता तथा अवपातवान् वन्दनशीलो निकटवर्ती वा । एवं च यो वाक्यकरो गुरुनिर्देशकरणशीलः। स पूज्य इति सूत्रार्थः॥३॥ अन्नायचंबं चरई विसुई, जवणच्या समुआणं च निच्चं ॥ अलधुरं नो परिदेवश्जा लडुं न विकबई स पुजो॥ ४॥ (श्रवचूरिः) अज्ञातोंडे परिचयाकरणेन अज्ञातः सन् जावों गृहस्थोछरितादि चरति अटित्वानीतं जुते । विशुधमुजमादिदोषरहितं यापनार्थं संयमनारोशाहिदेहपालनार्थम् । समुदानं चोचितनिदालब्धं च नित्यं सर्वकालं नतूंबमप्ये. कत्रैवाप्तम् । एवंनूतमलब्ध्वा न परिदेवयेत न खेदं यायात् । अनाग्योऽहं कुदेशोऽयमित्यादि । लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकलते न श्लाघां करोति । सपुण्योऽहं शोजनो वायं देश इति ॥४॥ . (अर्थ.) वली अन्नायं इत्यादि सूत्र. जे साधु ( विसुझं के ) विशुद्धं एटले वे. तालीस दोषवडे रहित एवा, (समुआणं के०) समुदानं एटले उचित गोचरी चर्याथी मलेला एवा (अ के ) च एटले तथा ( निचं के) नित्यं एटले को दिवसेज नहि, तो हमेशां ( अन्नाय के०) अज्ञातों एटले जेमनो परिचय नथी एवा गृहस्थोना घरथी स्तोक स्तोक लावेल थाहार प्रत्ये ( जवणच्या के०) यापनार्थम् एटले संयमनार उपाडनार एवा शरीरना निर्वाहने अर्थे ( चरश के०) चरति एटसे लक्षण करे. उपर कहेल प्रकारनो आहार (अलझुओं के) अलब्ध्वा एटले न मले तो (नो परिदेवश्जा के०) नो परिदेवयेत् एटले पोतानी, दातारनी अथवा देश प्रमुखनी निंदा न करे. तेमज ( लहुं के) लब्ध्वा एटले उपर कहेल प्रकारनो श्राहार मले तो पण (न विकबर के०)न विकलते एटले पोतानी, दातारनी श्र Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. थवा देश प्रमुखनी श्लाघा न करे. ( स के ) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ ४॥ (दीपिका.) पुनः किंच । साधुः अज्ञातो परिचयस्य अकरणेन अज्ञातः सन् । जावोंबं गृहस्थोछरितादि चरति अटित्वानीतं जुते । नतु ज्ञातस्तबहुमतमिति। एतदपि विशुझमुझमादिदोषरहिम् ।न तछिपरीतम् । एतदपि यापनार्थ संयमन्नारोछाहिदेहपालनाय । अन्यथा समुदानं च उचितनिदालब्धं च नित्यं सर्वकालं न तु उमपि एकत्रैव बहु लब्धं कादाचित्कं वा।एवंनूतमपि विनागतः अलब्ध्वा अनासाधन परिदेवयेत् न खेदं यायात् । यथा अहं मन्दनाग्यः । अथवा नायं देशः शोजन इति। विजागतः च लब्ध्वा प्राप्य उचितं न विकलते न श्लाघां करोति । यथा अहं महापुण्यवान् । अथवा अयं देशः शोजनः। यो यतिरेवं पूर्वोक्तं कुर्यात् स पूज्यः ॥४॥ (टीका.) किं च । अन्नायं ति सूत्रम् । अज्ञातोंबं परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् जावोज्छ गृहस्थोछरितादि चरत्यटित्वानीतं जुङ्क्ते । न तुझातस्तबहुमतमिति । एतदपि वि. शुधमुजमादिदोषरहितम् । नतहिपरीतम् । एतदपि यापनार्थं संयमनरोछाहिशरीरपालनाय नान्यथा । समुदानं चोचितनिकालब्धं च नित्यं सर्वकालं नतूंबमप्येकत्रैव बहु लब्धं कादाचित्कं वा । एवंनूतमपि विनागतोऽलब्ध्वानासाद्य न परिदेवयेत् । न खेदं यायात् । यथा मन्दनाग्योऽहमशोजनो वायं देश इति। एवमेवं विनागतश्च लब्ध्वा प्राप्योचितं न विकबते न लाघां करोति । सपुण्योऽहं शोजनो वायं देश श्त्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः॥४॥ संथारसिजासणनत्तपाणे, अप्पिनया अश्लाने वि संते॥ जो एवमप्पाणनितोसश्ता, संतोसपाहन्नरए स पुजो ॥५॥ (श्रवचूरिः) सन्थारकशय्यासननक्तपानानि प्रतीतान्येतेष्वल्पेछताऽमूर्खता परिजोगातिरक्ताग्रहणं च अतिलाने सति अपि तोषं याति । येन तेन वा यापयति । संतोषप्राधान्यरतः स पूज्य इति ॥५॥ . (अर्थ.) वली संथार इत्यादिसूत्र. जे साधु ( अश्लाने के) अतिलाने एटले संथारा प्रमुख वस्तुनो गमे एटलो लान (संते वि के) सत्यपि एटले थतो होय तो पण (संथारसिजासणनत्तपाणे के) संस्तारकशय्यासननक्तपानेषु एटले संथारो, .. शय्या, श्रासन, जक्त अने पान प्रमुख वस्तुनी (अपिछ्या के०) अपेछता एटो अप.श्ला राखे, अर्थात् उपकरणने विषे मूळ न राखे, तथा खप करतां लगार प.. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः। एय ण वधारे न ले. ( संतोसपाहन्नरए के) संतोषप्राधान्यरतः एटले मुख्यतावडे संतोषने विषे श्रासक्त अर्थात् संतोष राखवो एज वातने प्रधान माननारा (जो के०) यः एटले जे साधु (अप्पाण के०) आत्मानं एटले पोताने ( अनितोसजा के ) अनितोषयति एटले जे मले तेमां संतोष राखे, (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य .॥५॥ (दीपिका.) किंच । यस्य साधोः संस्तारके शय्यायामासने नक्ते पाने च अल्पेछता अमूर्बया कृत्वा परिजोगादधिकस्य परिहारो वा नवेत् । क सति । सति संस्तारकादीनां गृहस्थेच्यः सकाशात् अतिलाने सत्यपि । यः साधुः एवमात्मानमनितोषयति । येन वा तेन वा श्रात्मानं यापयति । किंनूतो यतिः। संतोषप्राधान्यरतः । संतोष एव प्रधाननावे रत आसक्तः । स साधुः पूज्यः ॥५॥ (टीका.) किं च संथार त्ति सूत्रम् । संस्तारकशय्यासननक्तपानानि प्रतीतान्येव । एतेष्वल्पेठता अमूर्बया परिजोगातिरिक्ताग्रहणं वा । अतिलानेऽपि सति संस्तार कादीनां गृहस्थेच्यः सकाशात् । य एवमात्मानमनितोषयति । येन वा तेन वा याप__ यति संतोषप्राधान्यरतः संतोष एव प्रधाननावे सक्तः। स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥५॥ सक्का सदेचं आसाइ कंटया, अमया उबदया नरेणं॥ अणासए जो उ सहित कंटए, वईमए कन्नसरे स पुजो ॥६॥ (श्रवचूरिः) इन्डियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह । शक्याः सोढुमाशया इदं मे जविष्यतीति । कंटका अयोमया लोहमया उत्सहतार्थोद्यमवता नरेण । अनाशया निरीहः सन् यः सहेत कंटकान् वाङ्मयान् खरा दिवागात्मकान् कर्णसरान् कर्णगामिनः । स पूज्य इति ॥६॥ (अर्थ.) इंजियोनी समता राखवाथी पण शिष्य पूज्य थाय ने, एम कहे . सका इत्यादि सूत्र. ( उबया के०) उत्सहता एटले अव्य उपार्जवाने अर्थे घणो उद्यम करनार एवा (नरेणं के०) नरेण एटले मनुष्य जे तेणे (श्रासार के०) आशया एटले अव्य मलवानी आशाए (अर्डमया के०) श्रयोमयाः एटले लोहडाना (कंटया के) कंटकाः एटले कांटा जे ते ( सहेज के) सोढुं एटले खमवाने (सका के०) शक्याः एटसे योग्य . अर्थात् को जव्यार्थी माणस अव्यनी आशाए लोहडाना कांटावाली पथारीउपर पण सुश रहे. श्रा वात वनवा योग्य वे. तेम (जो उ के०) यस्तु एटले जे साधु वली ( कन्नसरे के०) कर्णसरान् एटले कानमा प्रवेश करता एवा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) -मा. ( ये ० ) वाङ्मयान् एटले कठोर वचन प्रमुख कंटक प्रत्ये ( श्रासए के० ) नाशया एटले कोइ पण प्रकारनी इछा न राखतां ( सहित के० ) सदेत एटले सइन करे. (स के०) सः एटले ते साधु (पुको के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य वे. ॥ ६ ॥ (दीपिका) छाथ इन्द्रियसमाधिद्वारेण साधोः पूज्यतामाह । नरेण कंटका इदं मे भविष्यतीत्याशया सोढुं शक्याः । किंभूताः कंटकाः । श्रयोमया लोहमयाः । किंनूतेन नरेण । उत्साहवता | अर्थोद्यमवता । तथा च कुर्वन्ति केचित् लोहमयकंटकास्तरणशयनमप्यर्थवाञ्छया । परं नतु वचनकंटकाः सोढुं शक्याः । ततो निरीदः सन् कर्णसरान् वाक्कंटकान् सहेत । स पूज्यः ॥ ६॥ ( टीका. ) इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह । सक्क त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । शक्याः सोदुमाशयेतीदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया । क इत्याह । कंटका अयोमया लोहात्मकाः । उत्सहता नरेणार्थोद्यमवतेत्यर्थः । तथा च कुर्वन्ति केचिदयोम कंटकास्तरणशयनमप्यर्थ विप्सया । नतु वाक्कंटकाः शक्या इत्येवं व्यवस्थितेऽनाशया फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु सहेत कंटकान् वाङ्मयान खरादिवागात्मकान् कर्णसरान् कर्णगामिनः । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ मुत्तदुकान हवंति कंटया, मया ते वि तन सुनहरा ॥ वायादुरुत्तापि दुरु-धराणि, वेराणुबंधीणि महप्रयाणि ॥ ७ ॥ ( वरि: ) एतदेव स्पष्टयति । मुहर्त्तदुःखा वेधकाल एव प्रायो दुःख हेतुत्वात् जवन्ति कंटका प्रयोमयास्तेऽपि ततः कायात्सूद्धराः । सुखेनैवो द्रियन्ते । वागूपुरुक्तानि पुरुकराणि दुःखेनो ड्रियन्ते । मनोल वेधनात् । वैरानुबन्धीनि । अतएव कुगतिपातादिजयहेतुत्वान्महाजयानि ॥ ७ ॥ (अर्थ. ) आज वात प्रकट कहे बे. मुहुत्त इत्यादि सूत्र. (अनुमया के० ) अयोमयाः एटले लोहाना (कंटया के० ) कंटका: एटले कंटक जे ते ( उ के०) तु एटले पुनः (मुदुत्तरका के०) मुहूर्त्त दुःखाः एटले प्राये शरीरमां खूते त्यारेज वेदना करनारा एवा ( दवंति के० ) जवन्ति एटले होय . तथा ( ते वि के०) तेऽपि एटले ते कंटक पण (तर्ज के०) ततः एटले ते शरीर थकी (सुजद्धरा के ० ) सूद्धराः एटले सुखे काढी शकाय एवा होय बे, तेमज कदाच ते कंटकथी शरीरे बिद्र पड्या होय तो तेना उपचार पण सुन बे. पण (वायारुताणि के० ) वागुरुक्तानि एटले कठोर वचन रूप कंटक जे ते ( डुरुद्धराणि के० ) डुरुद्धराणि एटले घणा दुःखयी मनमांथी काढी शका Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने वितीय उद्देशकः। ५७ य एवा, ( वेराणुबंधीणि के) वैरानुबन्धीनि एटले पालथी वैरने उत्पन्न करनारा एवा तथा ( महप्पयाणि के) महाजयानि एटले परलोके नरकपात प्रमुख महाजय उपजावनारा एवा . ॥७॥ (दीपिका.) पुनरेतदेव स्पष्टयति । लोहमयाः कंटका मुहूर्तःखा मुहूर्तमदपकालं यावत् फुःखदा नवन्ति ।वेधकाल एवप्रायो दुःखदानात् । तेऽपि कंटकाः । कायात् सूराः सुखेनैव नडियन्ते । व्रणपरिकर्म च क्रियते । परं वचनेन यानि कुरुक्तानि तानि पुरुफराणि जवन्ति दुःखेनैव उद्धियन्ते । मनोरूपलदवेधनात् । किंजूतानि वचनपुरुक्तानि । वैरानुबन्धीनि । तथा श्रवणप्रहेषादिना श्ह लोके परलोके च वैरजावजनकानि । पुनः किंनूतानि।अतएव महाजयानि कुगतिपातनयहेतुनूतानि॥७॥ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति।मुहुत्त त्ति सूत्रम्।मुहूर्तःखा अल्पकालफुःखा जवन्ति कंटकायोमया वेधकाल एव प्रायो दुःखनावात् । तेऽपि ततः कायात्सूकराः सुखेनैवोझियन्ते । व्रणपरिकर्म च क्रियते । वाग्दुरुक्तानि पुन:रुकराणि कुःखेनोझ्यिन्तेमनोलक्षवेधनाद्वैरानुबन्धीनि।तथा श्रवणप्रषा दिनेह परत्र च वैरानुबन्धीनि जवन्ति । अत एव महानयानि कुगतिपातादिमहानयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ समावयंता वयणानिघाया, कन्नंगया दुम्मणिअंजणंति॥ धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिदिए जो सदई स पुजो ॥॥ . (श्रवचूरिः) समापतन्तः केचनाभिघाताः खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सन्तो दौर्मनस्यं पुष्टमनोनावं जनयन्ति प्राणिनाम् । एवंनूतान् वचनानिघातान् धर्म इति कृत्वा समतापरिणामापन्नो नत्वशक्त्यादिना परमानशूरः दानसङ्ग्रामशूरापेदया प्रधानशूरः सन् जितेन्द्रियो यः सहेत स पूज्य इति ॥ ७॥ (अर्थ. ) वली समावयंता इत्यादि सूत्र. ( समावयंता के०) समापतन्तः एटले एका थश्ने सामा आवता एवा (वयणानिघाया के०) वचनानिघाताः एटले क. गेरादि वचनरूप प्रहार जे ते (कन्नंगया के) कर्णगताः एटले काने आव्या उता (उम्मणिशं के०) दौर्मनस्यं एटले मनमां उष्ट विकार प्रत्ये (जणंति के०) जनयन्ति एटसे उत्पन्न करे . (परमग्गसूरे के०) परमानशूरः एटले वीजा शूरवीर पुरुप करतां मोटो शूरवीर एवो (जिदिए के) जितेन्जियः एटले इंजियोने जीतनार एवो (जो के०) यः एटले जे पुरुष (सहश् के०) सहते एटले पूर्वोक्त वचनरूप प्रहार सहन करे. (स के०) सः एटले ते पुरुष (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्यवे.॥॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह, भाग तेतालीस-(४३)-मा. - (दीपिका.) पुनः किंच । वचनानिघाताः खरादिवचनप्रहाराः कर्णगताः सन्तः प्रायो दौर्मनस्यं कुष्टमनोनावं प्राणिनां जनयन्ति । अनादिनवाच्यासात् । किं कुर्वन्तो वचनानिघाताः।समापतन्त एकीनावेन अनिमुखं पतन्तः। अथ च यो यतिस्तान सहते । नतु तैर्विकारमुपदर्शयेत् । किं कृत्वा सहते । धर्म इति कृत्वा सामायिकपरिणाम समापन्नः सन् । नतु अशक्त्यादिना । किंनूतो यतिः। परमानशूरः । प्रधानररः। पुनर्जितेन्जियः। स पूज्य इति ॥ ७ ॥ . (टीका.) किं च समावयंत त्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या। समापतन्त एकीनावेनानिमुखं पतन्तः।क इत्याह।वचनानिघाताःखरादिवचनप्रहाराःकर्णगताः सन्तः प्रायोऽनादिनवान्यासात् दौर्मनस्यं उष्टमनोनावं जनयन्ति।प्राणिनामेवंनूतान्वचनानिघातान् धर्म इति कृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो नत्वशत्यादिना परमानशूरो दानसंग्रामशूरापेक्ष्या प्रधानः शूरो जितेन्द्रियः सन् यः सहते न तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः॥ अवनवायं च परम्मुदस्स, पच्चरकन पडिणीअंच भासं॥ नहारणिं अप्पिकारणिं च, नासं न नासिज सया स पुजोगा - (अवचूरिः) अवर्णवादं च पृष्ठतः अश्लाघा पराङ्मुखस्याप्रत्यकस्य प्रत्यदस्य च प्रत्यनीकां चोरस्त्वमित्यादिरूपां नाषामवधारिणीमशोजन एवायमप्रीतिकारिपी श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां जाषां न नाषेत सदा यः कदाचिदपि नैवं ब्रूयात् । सः पूज्य इति ॥ ए॥ ___ (अर्थ.) तेमज अवन्नवायं इत्यादि सूत्र. जे साधु (परम्मुहस्स के०) परामुखस्य एटले पूठ फेरवीने गएल मनुष्यना (च के०) वली (पञ्चकर्ड के०) प्रत्यक्षतः एट. से प्रत्यक्ष देखाता मनुष्यना (अवन्नवायं के०) अवर्णवादं एटले निंदावचन प्रत्ये (स. या के०) सदा एटले सर्वकाल अर्थात् कोपण काले (न नासिज के०) न नाषेत एटले न बोले. (च के०) अने (पडिणीअं के०) प्रत्यनीकां एटले मनमां कषाय उत्पन करनारी एवी जेम के 'तुं चोर ' इत्यादिक नाषा प्रत्ये को समये पण न बोले. (च के०) तथा (उहारिणिं के०) अवधारिणीं एटले 'श्रा माणस खराब ज डे' इत्यादिक निश्चयवाली वाणी प्रत्ये कोसमयेपण न बोले.तेमज (अप्पिकारिणिं के०) अप्रियकारिणीं एटले कोर्नु सगुं वहावं मरी गयानी वात कहेवा प्रमुख नाषा के जे. सांजलनारना मनमा अप्रीति जपजावनारी होय . ते प्रत्ये कोइ प्रसंगे पण न बलि. (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ए॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने दितीय नद्देशकः। एनए . (दीपिका.) पुनराह । यः श्रवर्णवादमश्लाघावादं परामुखस्य पृष्ठतः प्रत्यदतश्च नो नाषेत सदा कदाचिदपि नैवं ब्रूयात् । तथा प्रत्यनीकामपकारिणीं त्वं चौर इत्यादिरूपां तथा अवधारिणीमशोनन एवायमित्यादिरूपां पुनरप्रीतिकारिणीं च श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां च नाषां वाचं न नाषेत । स यतिः पूज्यः॥ ए॥ (टीका.) तथा अवनवायं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या।अवर्णवादं चाश्लाघावादं च पराङ्मुखस्य पृष्ठत इत्यर्थः । प्रत्यक्षतश्च प्रत्यकस्य च प्रत्यनीकामपकारिणी चोरस्त्वमित्यादिरूपां नाषां तथा अवधारिणीमशोजन एवायमित्यादिरूपामप्रियकारिणीं च श्रोतुम॒तनिवेदनादिरूपां नाषां वाचं न नाषेत सदा । यः कदाचिदपि नैवं ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः॥ ए॥ . अलोलुए अकुदए अमाई, अपिसुणे आवि अदीवित्ती॥ .. नो नावए नो विअनाविअप्पा, अकोलहवे असया स पुज्जो॥१०॥ (श्रवचूरिः) अलोलुपः आहारादिष्वलुब्धः।अकुहक उजालादिकुहकरहितः। अमायी अकौटिव्यः । अपिशुनश्चापि न बेदनेदकर्ता । अदीनवृत्तिराहाराद्यनावेऽपि शुवृत्तिः । नो नावयेदकुशलनावनया परं यथामुकाग्रेऽहं वर्णनीयः। नापिच जावितात्मा स्वयमन्याग्रे वगुणवर्णकः । अकौतुकश्च नटनर्तक्यादिषु ॥ १० ॥ (अर्थ.) तेमज अलोलुए इत्यादि सूत्र. जे साधु (बालोलुए के) अलोलुपः एटले थाहारादिकने विषे लालच न राखनारा (अकुहए के) अकुहकः एटले इंजजाल (जादू) प्रमुख न करनारा (अमाई के०) अमायी एटले मनमां वक्रता नहि राखनारा, (अपिसुणे के ) अपिशुनः एटले चुगली प्रमुख करी कोश्नो छेद नेद न करनारा, (आवि के०) चापि एटले वली पुनः (अदीनवित्ती के०) अदीनवृत्तिः एटले थाहार प्रमुख न मले तोपण मनमां दीनपणुं न राखनारा एवा होयठे. तथा जे साधु (नो नावए के०) नो जावयेत् एटले को वीजा पासे अप्रशस्त नावना करावे नहि, अर्थात् 'फलाणानी बागल तु मारी वखाण कर' इत्यादि वचन कोने कहे नहि, (विथ के०) अपिच एटले वली ( नाविश्नप्पा के०) नावितात्मा एटले पोताने वखाणनारा एवा (नो के०) नथी होता. अर्थात् पोते पोताना वखाण वीजा को आगल करता नथी. (थ के०) च एटले वली जे साधु (श्रकोउहवे के०) अकौतूहलः एटले नाटक प्रमुख जोवानी श्या को काले पण राखता नथी. (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज्यः एटले पूजवा योग्य ते. ॥१॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ( दीपिका . ) तथा यः साधुः अलोलुपः श्राहारादिष्वलुब्धः । पुनः थकुड़क 5 न्द्रजाला दिकुहकर हितः । पुनः श्रमायी कौटिल्यशून्यः । पुनः श्रपिशुनो न वेदनभेदनकर्ता । पुनः यदीनवृत्तिः आहारादीनामनावेऽपि शुरुवृत्तिः । पुनर्यो नो जावकुशावनया परं यथा अमुकपुरतो जवताहं वर्णनीयः । पुनर्यो न जावितात्मा खयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः । पुनः कौतुकश्च सदा नटनर्त्तक्या दिषु । स पूज्यः ॥ १० ॥ ( टीका. ) तथा अलोलुए त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या | अलोलुप आहारा दिष्वलुब्धोऽकुहक इन्द्रजाला दिकुहकर हितः । श्रमायी कौटिल्यशून्योऽपिशुनश्चापि नो वेददकर्ता । यदी नवृत्तिराहारायलानेऽपि शुद्धवृत्तिः । नो जावयेदकुशलजावनया परम् । यथामुकपुरतो जवताहं वर्णनीयः । नापि च जावितात्मा स्वयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापर: कौतुकच सदा नटनर्त्तकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ गुणेहिं साढू अहिं साढू, गिरहादि सादू गुण मुंचसाढू ॥ विच्प्राणिच्या अप्पगमप्पए, जो रागदोसेहिं समो स पु ॥ ११ ॥ ( अवचूरिः ) गुणैः पूर्वोक्तैर्विनयाद्यैः युक्तः साधुर्भवति । अगुणैरुक्त विपरीतैर्न । एवं सति गृहाण साधुगुणान् मुञ्च साधुगुणान् । इति शोजन उपदेशः । एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविधं ज्ञापयति आत्मानमात्मना यस्तथा रागद्वेषयोः समो न रागवान् न द्वेषवान् इति ॥ ११ ॥ (अर्थ. ) वली गुणेहिं इत्यादि सूत्र. जे ( गुणेहिं के० ) गुणैः एटले उपर कहेल विनय प्रमुख गुणवडे युक्त होय, ते ( साहू के० ) साधुः साधु कहेवाय बे. तथा जे ( अगुणेहिं के० ) अगुणैः एटले विनय प्रमुख गुणथी उलटा एवा अविनय प्रमुख दोष वडे युक्त होय ते ( साहू के० ) असाधुः एटले साधु कहवातो नथी. माटे दे शिष्य ( साहूगुण के० ) साधुगुणान् एटले साधुना गुणप्रत्ये ( गिरहाहि के० ) गृहाण एटले ग्रहण कर. तथा ( असाहू के० ) असाधून् एटले जेथी साधु कहेवाय नहि एवा दोषप्रत्ये ( मुंच के० ) मुञ्च एटले त्याग कर. जे साधु ( अप्प ho ) आत्मना एटले पोते ( अप्प के० ) श्रात्मानं एटले पोताना आत्माने पूर्वोक्त गुणवडे ( विद्या के० ) विज्ञापयति एटले विविध प्रकारे जणावे. तथा ( जो के० ) यः एटले जे साधु ( रागदोसेहिं के० ) रागद्वेषयोः एटले राग द्वेषने विषे ( समो के० ) समः एटले समतावाला अर्थात् कोइ उपर पण राग द्वेष न करे. ( स के० ) सः एटले ते साधु ( पुजो के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य बे. ॥ ११ ॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ दशवैकालिके नवमाध्ययने दितीय उद्देशकः। ५१ (दीपिका.) किं च साधुः गुणैः पूर्वोक्तैर्गुणैर्विनयादिनिर्युक्तो नवति । तथा असाधुः श्रगुणैः पुर्वोक्तगुणविपरीतैः जवति । एवं सति च गुणान् साधुगुणान् गृहाण त्वम् । असाधुगुणान् मुञ्च इति शोजन उपदेशः । एवमधिकृत्य विज्ञापयति विविधं झापयति आत्मानमात्मना पुनर्यो रोगटेषयोः समो न रागवान् न षवान् एवं विधो यः साधुः स पूज्यः॥११॥ (टीका.) किंच गुणेहिं ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या । गुणैरनन्तरोदितैर्विनयादिनियुक्तः साधुर्नवति । तथा अगुणैरुक्तगुणविपरीतैरसाधुः। एवं सति गृहाण साधुगुणान्, मुश्चासाधुगुणानिति शोजन उपदेशः। एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविधं झापयत्यात्मानमात्मना यः। तथा रागद्वेषयोः समः, न रागवान्न वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ तदेव मदरं च महक्षगं वा, श्बी पुमं पवश्यं गिहिं वा॥ नो हीलए नो वि अखिंसइका, यंनं च कोदं च चए स पुजोरशा (श्रवचूरिः ) तथैवेति पूर्ववत् । महरं वा महलकं वा । वाशब्दान्मध्यमं, स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा, प्रव्रजितं गृहिणं वाशब्दादन्यतीथिकं वा न हीलयति न खिंसयति च । सकृदुष्टानिधानं हीलनम्। असकृत्खिसनम् । तयोनिमित्तं स्तम्नं च क्रोधं च त्यजेत् ॥ १२ ॥ (अर्थ.) वली तहेव. इत्यादि सूत्र. (तदेव के ) तथैव एटले तेमज जे साधु (डहरं के) डहरं एटले पोताना करता न्हानानी (व के) वा एटले अथवा (महबगं के) महबकं एटले पोताना करता मोटानी ( वा के० ) अथवा (विं के) स्त्रियं एटले स्त्रीनी, ( पुमं के० ) पुमांसं एटले पुरुषनी, ( पवश्यं के०) प्र. व्रजितं एटले साधुनी (वा के० ) अथवा ( गिहिं के) गृहिणं एटले गृहस्थनी (नो हीलए के०) नो हीलयति एटले एकवार हीलना न करे, (अविश्र के०) अपिच एटले वली ( नो खिंसजा के०) नो खिंसयति एटले वारंवार हीलना न करे. (च के०) वली (यंनं के०) स्तम्नं एटले अहंकार प्रत्ये तथा ( कोहं के०) क्रोधं एटसे क्रोध प्रत्ये (चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे. ( स के० ) सः एटले ते साधु ( पुजो के० ) पूज्यः एटले पूजवा योग्य ते. ॥ १५ ॥ (दीपिका.) किंच साधुः एतान्न हीलयति। कानित्याह । तथैव पूर्ववत् । डहरं वा महलकं वा। वाशब्दामध्यमं वा। स्त्रियं,पुमांसम्। उपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा। प्रबजितंवा Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस ४३-मा. गृहिणं वा । वाशब्दात्तदन्यतीर्थिकं वा न हीलयति नापि खिंसयति । तत्र सूयया असूयया वा एकवारं दुष्टानिधानं हीलनम् । तदेव वारं वारं खिंसनम् । हीलनाखिं सनयोश्च निमित्तनूतं स्तम्नं च मानं च क्रोधं रोषं त्यजति । स पूज्यः ॥ १२ ॥ ( टीका. ) किं च तदेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तथैवेति पूर्ववत् । उदरं वा महलकं वा । वाशब्दान्मध्यमं वा स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा प्र व्रजितं गृहिणं वा । वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा । न हीलयति नापि च खिंसयति । तत्र सुयया असूयया वा सकृदुष्टा जिसंधानं हीलनं तदेवासकृत्खिंसनमिति । हीलनखिंसनयोश्च निमित्तनूतं स्तम्नं च मानं च क्रोधं च रोषं च त्यजति यः । स पूज्यो निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ जे मााि सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयति ॥ ते मा मारिदे तवस्सी, जिईदिए सच्चरए स पुजो ॥ १३ ॥ ( अवचूरिः ) ये मानिता अयुबाना दिसत्कारैः सततं शिष्यान्मानयन्ति । श्रुतोपदेशादिना यत्नेन कन्यामिव मातापितरौ । यथा कन्यां वयसा गुणैश्च संव योग्यनर्त्तरि स्थापयतः । एवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवे दिनं कृत्वा महत्याचार्यपदे स्थापयन्ति । तानेवंभूतान् गुरून् मानयति यो मानार्हान् पूजार्दान् तपखी तपःशीलः । जितेन्द्रियः सत्यरत इति ॥ १३ ॥ ( . ) वली जे माया इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) ये एटले जे आचार्य उपाध्याय प्रमुख जे ते ( माणिया के० ) मानिता: एटले अन्युवान, विनय इत्यादिवडे ( सययं के० ) सततं एटले निरंतर ( माणिश्रा के० ) मानिता: एटले सत्कार करेला एवा होय तो ते सत्कार करनार पोताना शिष्यने ( माणयंति के० ) मानयन्ति एca tear गवा विषे प्रेरणा करवा वडे मान आपे बे. वली ( जत्ते के० ) यन एटले वडे (कन्नं व के० ) कन्यामिव एटले कन्यानी पेठे (निवेस यंति के ० ) निवेशयन्ति एटले स्थापन करे बे. अर्थात् जे आचार्यो पोतानो विनय विगेरे साचवनार शिष्यनी जणवा गणवा संबंधी सारी चिंता राखे बे, तथा माबापो कन्याने वधारी सारा पतिनी साथे पर्णावे बे, तेम जे अचार्यो विनयवंत तथा गुणवंत शिष्यने योग्य जोर आचार्य पदे स्थापन करे बे. ( ते के० ) तान् एटले ते ( मारिहे ho ) मानाहान एटले मान आपवा योग्य एवा आचार्यजी प्रत्ये ( तवस्सी के० ) तपस्वी एटले तपस्या करनार अने ( सच्चरए के० ) सत्यरतः एटले सत्य वचन बो Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके नवमाध्ययने तृतीय नद्देशकः। . ५५३ सनार जे साधु (माणए के०) मानयति एटले विनय विगेरे साचवीने मान आपे. (स के०) सः एटले ते साधु (पुजो के) पूज्यः एटले पूजवा योग्य . ॥ १३ ॥ . (दीपिका.) किंच। ये मानिता अन्युडाना दिसत्कारैः सततं निरन्तरं शिप्यान् मानयन्ति श्रुतस्य उपदेशं प्रति चोदनादिनिः। तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति । यथा मातापितरौ कन्यां गुणैर्वयसा च सर्वासु शशिषु योग्ये नर्तरि स्थापयतः। एवमाचार्या अपि शिष्यं सूत्रार्थयोर्वेदिनं दृष्ट्वा महति आचार्यपदे स्थापयन्ति । ततस्तानेवंचूतान् गुरून् यो मानयति अन्युबानादिना। किंनूतान् गुरून् ।मानयोग्यान् मानार्हान् । स पूज्यः। किंजूतः शिष्यः । तपस्वी । पुनः किंनूतः । जितेन्द्रियः । पुनः किंनूतः । सत्यरतः । इदं शिष्यस्य प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणघ्यम् ॥ १३ ॥ ... (टीका.) किं च । जे माणिअति सूत्रम् । ये मानिता अन्युडाना दिसत्कारैः सततमनवरतं शिष्यान्मानयन्ति । श्रुतोपदेशंप्रति चोदनादिनिः। तथा यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति । यथा मातापितरः कन्यां गुणैर्वयसा च संवर्य योग्यवर्तरि स्थापयन्त्येवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्वा महत्याचार्यपदे स्थापयन्ति। तानेवंचूतान्गुरून्मानयति योऽज्युानादिना मानार्हान् मानयोग्यान् तपस्वी सन् । जितेन्जियः सत्यरत इति प्राधान्यख्यापनार्थं विशेषणघ्यम् । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चा ण मेदावि सुनासिआई॥ चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चनक्कसायावगए स पुजो ॥१४॥ (श्रवचूरिः) तेषां गुरूणां गुणसागराणां संवन्धीनीति श्रुत्वा मेधावी सुनाषितानि परलोकोपकारकाणि चरत्याचरति मुनिः । पञ्चरतः पञ्चमहावतयुक्तः। त्रिगुप्तो मनोगुप्त्या दिमान् । चतुःकषायापगतः ॥ १४ ॥ (अर्थ.) तेमज तेसिं इत्यादि सूत्र. ( मेहावि के) मेधावी एटले बुद्धिशाली एवा, (पंचरए के०) पञ्चरतः एटले पंच महाबत पालवाने तत्पर एवा (तिगुत्ते के०) त्रिगुप्तः एटले मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुतिना पालन करनार एवा तथा (चनकसायावगए के०) चतुःकपायापगतः एटले चारे कपायनो नाश करनार एवा (मुणी के० ) मुनिः एटले जे साधु ( गुणसायराणं के०) गुणसागराणां एटले गुणवडे सागर समान एवा ( तेसिं के० ) तेपां एटले ते (गुरूणं के०) गुरूणां एटले श्राचार्य महाराजना ( सुनासिश्राणि के०) सुजापितानि एटले शुन्न एवा उपदेश Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)वचन प्रत्ये ( सुच्चा के ) श्रुत्वा एटले सांजलीने ( चरे के०) चरति एटले गुरु वचन प्रमाणे आचरण करे. ( स के ) सः एटले ते साधु (पुजो के०) पूज एटले पूजवा योग्य . ॥ १४ ॥ ... (दीपिका.) पुनराह । यो मेधावी पएिकतः । एवं विधः सन् चरति । किं कृत्वा गुरूणां तेषां पूर्वोक्तगुणवतां सुनाषितानि श्रुत्वा। किंजूतानां गुरूणाम् । गुणसागरा गुणानां समुजाणाम्। किंजूतो मुनिः। पञ्चरतः पञ्चमहात्रतपालने तत्परः । पुनः किं तो मुनिः । त्रिगुप्तः मनोगुप्तिवचनगुप्तिकायगुप्तिसहितः । पुनः किंजूतो मुनिः । चतु कषायापगतः । क्रोधमानमायालोजाख्यकषायचतुष्टयवर्जितः । स पूज्यः ॥ १४ ॥ (टीका.) तेसिं गुरूणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। तेषां गुरूणामनन्तरोदिता गुणसागराणां गुणसमुद्राणां संबन्धी नि श्रुत्वा मेधावी सुजाषितानि परलोकोपकारक णि। चरत्याचरति । मुनिः साधुः । पञ्चरतः पञ्चमहाव्रतसक्तः। त्रिगुप्तो मनोगुप्त्यादि मान् । चतुःकषायापगत इत्यपगतकोधा दिकषायो यः । स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १४ गुरुमिद सययं पडिअरित्र मुणी, जिणमयनिनणे अनिगमकुसले ॥ . धुणि रयमलं पुरेकम, नासुरमनलं गई वत्ति बेमि ॥१५॥ विषयसमाहीए तइन नदेसो सम्मत्तो॥३॥ (अवचूरिः ) उपसंहरन्नाह । गुरुमाचार्यादिकं सततमनवरतं परिचर्य विधिन राध्य मुनिरागमप्रवीणः । श्रनिगमकुशलो लोकप्रापूर्णकादिप्रतिपत्तिकुशलः । स ए विधूय रजोमलम् । अष्टविधं कर्म पुराकृतम् । नाखरां ज्ञानतेजोमयत्वात् । अतुलां सिद्धि रूपां गतिं बजतीति ब्रवीमि ॥१५॥ इत्यवचूरिकायां नवमाध्ययने तृतीय उदेशः ॥३ (अर्थ. ) हवे विनय, फल कही उपसंहार करे बे. गुरुमित्यादि सूत्र. ( जिण मयनिउणे के ) जिनमतनिपुणः एटले आगममां निपुण एवा, तथा (अजिग मकुसले के०) अनिगमकुशलः एटले परोणा प्रमुखनु वेयावच्च करवामां कुशल एवा (मुणी के ) मुनिः एटले साधु जे ते (इह के) आ लोकने विषे ( सयर के) सततं एटले निरंतर ( गुरुं के ) गुरुं एटले गुरुमहाराजनी (परिचरित्र के परिचर्य एटले सेवा करीने ( पुरेक के०) पुराकृतं एटले पूर्वे करेला एवा ( रयम लं के) रजोमलं एटले अष्टप्रकार कर्मरूप मल प्रत्ये (धुणिय के०) विधूय एट खपावीने (नासुरं के०) नासुरां एटले ज्ञान रूप तेजवानी एवी (अजलं के०)अतुला एटले बीजी सर्वे गति करतां उत्तम एवी (गई के०) गतिं एटले सिरिगति प्रत्ये (व Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ५५ के ) व्रजति एटले जाय . इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर. गणधरना उपदेशथी हूं एम कडं दुं. पण पोतानी भतिथी कहेतो नथी. ॥ १५ ॥ इति श्रीविनयसमाधिनामक नवमा अध्ययनना त्रीजा उद्देशानो वालाववोध संपूर्ण.॥३॥ - (दीपिका.) अथ प्रस्तुतफलस्य नाना उपसंहरन्नाह । एवं विधो मुनिः गतिं सिफिरूपां ब्रजति गहति । किं कृत्वा । गुरुमाचार्यादिरूपमिह मनुष्यलोके सततं निरन्तरं विधिनाराध्य । किंनूतो मुनिः। जिनमतनिपुण आगमे प्रवीणः । पुनः किंनूतो मुनिः । अनिगमकुशलः । लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिददः । किं कृत्वा सिडिं याति । रजोमलं पुरारुतं विधूय । अष्टप्रकारं कर्म दपयित्वेत्यर्थः । किंजूतां गतिम् । नासुरां ज्ञानतेजोमयीम् । पुनः किंजूतां गतिम् । अतुलाम् । अस्याः सदृशी अन्या गतिर्नास्ति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १५ ॥ इति श्रीदशवैकालिके समयसुन्दरविरचितायां शब्दार्थवृत्तौ नवमाध्ययने तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥३॥ . (टीका.)प्रस्तुतफलानिधानेनोपसंहरन्नाह । गुरुं ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या । गुरुभाचार्यादिरूपमिह मनुष्यलोके । सततमनवरतं । परिचर्य विधिनाराध्य ।मुनिः साधुः । किंविशिष्टो मुनिरित्याह। जिनमतनिपुण आगमे प्रवीणः। श्रनिगमकुशलो लोकपाधूर्णकादिप्रतिपत्तिददः । स एवंचूतः। विधूय रजोमलं पुराकृतं पयित्वाप्टप्रकारं कमेंति नावः । किमित्याह । नास्वरां ज्ञानतेजोमयत्वात् । अतुलामनन्यसदृशीं गतिं सिछिरूपां बजतीति गछति । तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रजात्यादिना प्रकारेण । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातस्तृतीय उद्देशः॥३॥ अथ चतुर्थ उद्देशः। सुअं मे अानसं तेणं जगवया एवमकायं । इह खलु येरेविं नगवंतेहिं चत्तारि विषयसमादिहाणा पन्नत्ता । कयरे खलु ते येरोहिं नगवंतेहिं चत्तारि विणयसमादिगणा पन्नत्ता। इमे खलु ते थेरेहिं नगवंतेहिं चत्तारि विणयसमादिहाणा पन्नत्ता । तं जहा। विणयसमाही । सुअसमाही। तवसमाही। आयारसमाही॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएद राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (अवचूरिः) अथ चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते । तत्र सामान्योक्तं विनयं विशेषेणोपदर्शयन्नाह । श्रुतं मयायुष्मन् । तेन जगवता एवमाख्यातमित्येतत्पड्जीवनिकावदृष्टव्यम् । इह देने प्रवचने वा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । स्थविरैर्गणधरैर्जगवनिः परमैश्वर्ययुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्राप्तानि । विनयसमाधिन्नेदरूपाणि प्ररूपितानि । जिनेच्यः श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानि । कतराणि तानीत्यादिना प्रश्नः । अमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनम् । तद्यथा। विनयसमाधिः, श्रुततसमाधिः, तपःसमाधिः, श्राचारसमाधिः । तत्र समाधानं समाधिः । वस्तुत श्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्। विनये विनयाछा समाधिः विनयसमाधिः। एवं शेषेष्वपि शब्दार्थों जावनीयः॥ (अर्थ.) हवे चतुर्थ उद्देशनो श्रारंज करिये बिये. पूर्वे सामान्य प्रकारे विनय कह्यो, तेज विशेषयी श्रा उद्देशमां कहे जे. तेमां सुशं इत्यादि प्रथम सूत्र. (थानसं के०) हे आयुष्मन् एटले दीर्घ आयुष्यना धणी एवा हे शिष्य !(मे के० ) मया एटले हुँ जे तेणे (सुझं के०) श्रुतं एटले सांजव्युं ने के, (तेणं के)तेन एटले ते (जगवया के०) जगवता एटले संपूर्ण ज्ञानादिक वडे युक्त एवा महावीर स्वामीए (एवं के०) या रीते (अरकायं के) आख्यातं एटले कडं . ते या रीते (इह के ) श्रा सिझांतने विषे (खलु के० ) निश्चये (जगवंतेहिं के) जगवनिः एटले संपूर्ण ज्ञानादि वडे युक्त एवा (थेरेहिं के०) स्थविरैः एटले गणधर प्रमुख स्थविरोए (चत्तारि के०) चत्वारि एटले चार ( विणयसमाहिहाणा के) विनयसमाधिस्थानानि एटले विनय समाधिना स्थानक अर्थात् विनयसमाधिना प्रकार ( पन्नत्ता के) प्रज्ञप्तानि एटले प्ररूप्या . (तं जहा के०) तद्यथा एटले ते जेम. एक ( विणयसमाही के) विनयसमाधिः एटले विनयसमाधि, बीजो (सुअसमाही के ) श्रुतसमाधिः एटले श्रुतसमाधि, बीजो (तवसमाही के०) तपःसमाधिः एटले तपसमाधि अने चोथो (यारसमाही के०) आचारसमाधिः एटले आचारसमाधि. पोतानुं जे खरेखर सुख अने खरेखर स्वास्थ्य ( स्वस्थपणुं ) तेने समाधि कहिये. विनयने विषे जेसमाधि ते विनयसमाधि, श्रुतने विषे जे समाधि ते श्रुतसमाधि, तपने विषे जे समाधि ते तपसमाधि अने आचारने विषे जे समाधि ते अचारसमाधि.॥ (दीपिका.) चतुर्थो व्याख्यायते । तत्र सामान्येन य उक्तो विनयस्तस्य विशेषेणोपदर्शनार्थमिदं प्राह । श्रुतं मया हे आयुष्मन तेन जगवता एवमाख्यातमिति । एतद्यथा षड्जीवनिकायां प्रोक्तं तथैव अष्टव्यम् । इह देने प्रवचने वा । खलु२०१ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। एए वाविशेषणार्थः। न केवल मिह । अन्यत्राप्यन्यतीर्थकरप्रवचने स्थविरैर्गणधरैर्जगवलिः परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि प्रज्ञतानि विनयसमाधिन्नेदरूपाणि प्ररूपितानि । नगवतः समीपे श्रुत्वा ग्रन्थतो रचितानीत्यर्थः । कतराणि खलु तानीत्यादिः प्रश्नः। श्रमूनि खलु तानीत्याद्युत्तरदानम् । तद्यथेत्युदाहरणे । विनयसमाधिः। श्रुतसमाधिः। तपःसमाधिः । श्राचारसमाधिश्च । तत्र समाधानं समाधिः। विनये समाधिविनयसमाधिः। एवं शेषेष्वपि अष्टव्यम् ॥ . ( टीका.) अथ चतुर्थोद्देश वारज्यते । तत्र सामान्योक्तविनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाद । सुशं मे इत्यादि सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या। श्रुतं मया आयुष्मंस्तेन जगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा षड्जीवनिकायां तथैव अष्टव्यम्।इह खस्वितीद देने प्रवचने वा। खलुशब्दो विशेषणार्थः। न केवल मिदं किं त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि । स्थविरैर्गणधरैर्जगवन्निः परमैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि विनयसमाधिनेदरूपाणि प्रज्ञप्तानि प्ररूपितानि । जगवतः सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः। कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः । श्रमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनम् । तयत्युदाहरणोपन्यासार्थः। विनयसमाधिः । श्रुतसमाधिः। तपःसमाधिः।आचारसमाधिः । तत्र समाधानं समाधिः । परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम् । विनये विनयाछा समाधिः विनयसमाधिः । एवं शेषेष्वपि शब्दार्थों नावनीयः ॥ . .. विणए सुए अतवे, आयारे निच्च पंमिश्रा॥ अनिरामयंति अप्पाणं, जे नवंति जिदिआ॥२॥ (श्रवचूरिः) एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति। विनये यथोक्तलक्षणे । श्रुतेऽङ्गादौ । तपसि बाह्यादावाचारे मूलगुणादौ । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। नित्यं पएिकता अनिरामयन्त्या निमुख्येन विनयादिषु युञ्जत आत्मानं जीवम् । किमित्यस्योपादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये नवन्ति जितेन्धिया अतएव वस्तुतः पएिकताः ॥१॥ (अर्थ.) हवे एज वात एक श्लोकमां प्रकट कहे . विणए इत्यादि सूत्र. (जे के) ये एटले जे साधु (जिइंदिया के) जितेन्जियाः एटले इंजियोने वश राखनारा होय , ते ( विणए के) विनये एटले पूर्वे कहेल विनयने विषे, (सुए के०) श्रुते एटले एकादशांगी प्रमुख श्रुतने विषे, (तवे के०) तपसि एटले वाह्य तथा धान्यंतर तपने विषे, (श्र के०)च एटले अने(आयारे के०)आचारे एटले पंच महाबत प्रमुख आचारने विषे ( निचं के०) नित्यं एटले नित्य (अप्पाणं के०) था Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. त्मानं एटले पोताने (अजिरामयंति के० ) निरामयन्ति एटले जोडे ठे. ते साधु ज (पंडिया के० ) परिणताः पटले पंडित कड़ेवाय ते ॥ १ ॥ ( दीपिका. ) उक्तमेव श्लोकेन संग्रह्णाति । विषए इत्यादि सूत्रम् । यस्य व्याख्या । विनये यथोक्तलक्षणे थुते श्रङ्गादौ, तपसि वाह्याज्यन्तररूपे, श्राचारे च मूलोत्तरगुणरूपे नित्यं सर्वकालं परिणताः सम्यक् परमार्थवेदिनः । किं कुर्वन्तीत्याह । निरामयन्त्या जिमुख्येन विनयादिषु युञ्जत यात्मानं जीवम् । किमिति । अस्य उपादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये नवन्ति जितेन्द्रियाः जितचकुरादिजावशत्रव एवं परमार्थः ॥ १ ॥ ( टीका. ) एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति । विषयेत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याख्या । विनये • यथोक्तलक्षणे, श्रुते प्रङ्गादौ, तपसि बाह्यादौ, आचारे च मूलगुणादौ । चशब्दस्य व्यव - हित उपन्यासः । नित्यं सर्वकालं परिणताः सम्यक्परमार्थवेदिनः । किं कुर्वन्तीत्याह । निरामयत्यनेकार्थत्वादा जिमुख्येन विनयादिषु युञ्जत श्रात्मानं जीवम् । किमित्यस्यो पादेयत्वात् । क एवं कुर्वन्तीत्याह । ये जवन्ति जितेन्द्रिया जितचकुरा दिजावशत्रवः । त एव परमार्थतः परिकता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ विदा खलु विषयसमाही । तं जहा । ऋणुसासितो सुस्सूस | सम्मं पडिवज्जइ । वयमाराह । नय नवइ अतसंपग्गदिए । चचं पयं नवइ । जवइ अ इब सिलोगो ॥ ( अवचूरि : ) विनयसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति । तद्यथा । अनुशास्यमानस्तत्र तत्र नोद्यमानस्तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति । इछात्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । वेद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतं यथोक्तानुष्ठानेनाराधयति । नच जवत्यत एवात्मसंप्रगृहीतः । आत्मैव सम्यक् प्रकर्षेण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्यादिना । श्रनात्मोत्कर्ष प्रधानत्वा द्विनयादेर्न चैवंभूतो जवतीति । चतुर्थं पदं जवति । सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । उत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति । यत्रेति विनयसमाधौ श्लोक बन्दो विशेषः ॥ ( अर्थ. ) हवे विनयसमाधि विस्तरथी कहे ते. चविदा इत्यादि सूत्र ( विषयसमाही के० ) विनयसमाधिः पटले विनयसमाधि जे ते ( चविदा के० ) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनो (जवइ के० ) नवति एटले थाय बे. ( तं जहा के० ) तद्यथा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः एएए एटले ते जेम साधु जे ते ( अणुसासिहंतो के०) अनुशास्यमानः एटले गुरुए ते ते कार्यने विषे प्रेख्या बता (सुस्सूस के०) शुश्रूषति एटले गुरुर्नु वचन सांजलवा श्छे. ५ (सम्म के०) सम्यक एटले सम्यक् प्रकारे ( पडिवाइ के०) प्रतिपद्यते एटले गुरुए जे जेवी रीते कह्यु होय ते तेवी रीते बराबर' समजे. ३ (वेअं के०) वेदं एटले श्रुतज्ञान प्रत्ये (बाराह के) आराधयति एटले आराधे. अर्थात सिझांतमां कह्या प्रमाणे क्रिया करीने श्रुतज्ञान सफल करे. ४ ( अत्तसंपग्गहिए के) आत्मसंप्रगृहीतः एटले 'हुंज उत्कृष्टो साधु बुं' इत्यादि प्रकारे पोतानी प्रशंसा करनारा एवा ( नय नवश् के) नच नवति एटले न थाय. तात्पर्य विनय साचवतां पोतानी मोटा रखाती नथी, माटे विनयवंत साधु एवा अहंकारी होता नथी. (चउळ पयं के) चतुर्थं पदं एटले बेबु कह्यु ए चतुर्थ पद (नवर के०) जवति एटले थाय . (श के०) च एटले वली (श्व के०) अत्र एटले ए विनय समाधिने विषे (सिलोगो के०) श्लोकः एटले श्लोक (नवर के) नवति एटले .॥ ... ( दीपिका.) अथ विनयसमाधि कथयितुं वाञ्छन् आह । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । अनुशास्यमानः तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषते तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिछति । श्वाप्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । सम्यगविपरीतमनुशासनं यथाविषयमवबुध्यते । स चैवं विशिष्टप्र. त्तेरेव वेदमाराधयति । वेद्यतेऽनेनेति वेदः श्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानतत्परतया स. फलीकरोति । अतः एव विशुद्धप्रवृत्तेन च जक्त्यात्मसंप्रगृहीतः । अत्मैव संप्रगृहीतः सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना । तथा अ. नात्मोत्कर्षप्रधानत्वाहिनयादेन चैवंचूतो भवतीत्यजिप्रायः । चतुर्थं पदं भवति । तदेव सूत्रक्रमप्रामाण्याऊत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति । जवति चात्र श्लोकः । अत्रेति विनयसमाधौ । श्लोकबन्दोविशेषः॥ (टीका.) विनयसमाधिमनिधित्सुराह । चनविदेत्यादि । चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । अणुसासितो इत्यादि । अनुशास्यमानस्तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषति तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिति । श्याप्रवृत्तितः सम्यक् संप्रतिपद्यते । सम्यगविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथाविषयमववुध्यते । स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति । वेद्यतेऽनेनेति वेदः । श्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति । अतएव वशुप्रवृत्तेन च भवत्यात्मसंप्रगृहीतः। श्रात्मैव सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना । स तथानात्मोत्क Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रधानत्वानियादेनचैवंचूतो नवतीत्यनिप्रायः । चतुर्य पदं नवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्याऽत्तरोत्तरगुणापेक्ष्या चतुर्थ मिति । नवति चात्र लोकः । अत्रेति विनयसमाधौ श्लोकश्वन्दो विशेषः॥ पेदेश हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिहिए॥ न य माणमएण मळाई, विणयसमाहिआययहिए ॥ २॥ (श्रवचूरिः) प्रार्थयति हितमनुशासनम्। श्राचार्या दिव्य उपदेशं शुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते । तच नावबुझं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत्करोति न कुर्वन्नपि मानगर्वेण माद्यति मदं याति विनयसमाधौ । आयतार्थी मोक्षार्थी ॥२॥ - (अर्थ.) ते श्लोक श्रा रीते. पेहेश इत्यादि सूत्र. (आययहिए के) थायतार्थी एटले मोदना अर्थी एवा साधु जे ते (हिवाणुसासणं के ) हितानुशासनं एटले इहलोक परलोकने विषे हितकारी एवा उपदेशने आचार्य उपाध्याय विगेरेनी पासेथी (पेहेश के० ) प्रार्थयते एटले श्वे. ( च के० ) पुनः (तं के) तत् एटले ते श्राचार्य प्रमुखोए करेल उपदेश प्रत्ये ( सुस्सूस के०) शुश्रूषति ए. टले जेवो विषय होय ते प्रमाणे जाणे. ( पुणो के०) पुनः एटले वली जे रीते जाण्यु होय ते रीते ( अहिहिए के० ) अधितिष्ठति एटले आचरण करे. पण आचरण करतां ( विणयसमाहि के ) विनयसमाधौ एटले विनयसमाधिना संबंधमां (माणमएण के) मानमदेन एटले अहंकार गर्व वडे (न मऊ के०) न मायति एटले मद न करे. ॥५॥ (दीपिका.) सचायम् । पेहेश इत्यादि। साधुर्हितानुशासनं प्रार्थयत श्वति । पुनः श्राचार्या दिल्य इहलोकपरलोकयोरुपकारिणमुपदेशं शुश्रूषति । धातूनामनेकार्थत्वात् यथाविषयमवबुध्यते । तच्च अवबुद्धः सन् पुनः अधितिष्ठति यथावत् करोति । न च कुर्वन्नपि मानमर्दन गर्वमदेन माद्यति मदं याति । विनयसमाधौ विनयसमाधिविषये । किंनूतः साधुः। आयतार्थिको मोदोर्थीति ॥२॥ (टीका.) स चायम् । पेहेश इत्यादि सूत्रम्। अस्य व्याख्या। प्रार्थयते हितानुशासन मिलतीहलोकपरलोकोपकारिणमाचार्यादिन्य उपदेशम् । शुश्रूषतीत्यनेकार्थत्वायथाविषयमवबुध्यते । तच्चावबुझे सत्पुनरधितिष्ठति यथावत् करोति । न च कुर्वन्नाप मानमदेन मानगर्वेण माद्यति मदं याति । विनयसमाधौ विनयसमाधिविषय. आय- तार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥२॥ . Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः । ६०१ चनविदा खलु सुअसमादी नव। तं जहा। सुश्रं मे नविस्सशत्ति अनाश्त्वं नव। एगग्गचित्तो नविस्सामि त्ति अनाश्अवयं नव। अप्पाणं गवश्स्सामि त्ति अनाश्वयं नवपिन परं गवश्स्सामि त्ति अप्नाश्अवयं नव। चन पयं नव। नव अश्व सिलोगो॥ (अवचूरिः) उक्तो विनयसमाधिः । अथ श्रुतसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति । तद्यथा । श्रुतं मे आचारादि छादशाङ्गं नविष्यतीत्यनया बुद्ध्याध्येतव्यं नवति । न गौरवाद्यालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो नविष्यामि । न विलुतचित्त इत्येवमध्येतव्यं नवत्यनेन चालम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन् विदितधर्मतत्त्व वात्मानं स्थापयिष्यामि शुरूधर्म इत्यनेनालम्बनेनाध्येतव्यं जवति । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं परं धर्मे विनेयं स्थापयिष्यामीत्येवमध्येतव्यं नवत्यनेनाखम्बनेन । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ (अर्थ.) विनयसमाधि कह्यो. हवे श्रुतसमाधि कहे . चनविदा इत्यादि सूत्र. (सुश्रसमाही के ) श्रुतसमाधिः एटले श्रुतसमाधि जे ते ( खलु के ) निश्चये (चजबिहा के) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनी (नवर के०) नवति एटले थाय डे. (तं जहा के०) तद्यथा एटले ते जेम के १ (मे के०) मे एटले मने (सुअं के) श्रुतं एटले आचारांग प्रमुख बादशांग श्रुत जे ते (नविस्स के) नविष्यति ए. टसे प्राप्त थशे. (त्ति के०.) इति एटले ए हेतु माटे ( अनाश्अवयं के) अध्येतव्यं एटले जण गणवू (नवर के०) नवति एटले . पण मान सत्कारने वास्ते नण, गणवू नथी. ५ हुँ जणवा गणवाथी (एगग्गचित्तो के) एकाग्रचित्तः एटले एकाग्रचित्तवालो (जविस्सामि के) नविष्यामि एटले. यश्श. (त्ति के.) इति एटले ए हेतु माटे (अनाश्शायं के) अध्येतव्यं एटले जण, गणवं. (नव के०) नवति एटले . ३ हुं लणवा गणवाथी ( अप्पाणं के०) आत्मानं एटले पोताने धर्मने विपे (घावश्स्सामि के) स्थापयिष्यामि एटले स्थापन करीश. (त्ति के ) इति एटले ए हेतु माटे ( अलाश्शवयं के) अध्येतव्यं एटले नणदुं गणQ (नवर के ) नवति एटले . ४ नणवायी धर्मने विषे (हिजे के) स्थितः एटले रहेलो एवो हुँ ( परं के) परं एटले वीजा मारा शिष्य विगेरेने पण धर्मने विषे (गवश्स्सामि के ) स्थापयिष्यामि एटले स्थापन करीश. (त्ति के ) इति एटले श्रा UE Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा.. हेतु माटे (अनाश्श्रवयं के०) श्रध्येतव्यं एटले नणबु गणवं (जवर के०) लवति एटले . या बेल्लू (चउ के) चतुर्थ एटले चोयुं ( पयं के०) पदं एटसे पद (नवर के) नवति एटले थाय ठे. ( अ के०) च एटले वली (श्च के०) अत्र एटले ए श्रुतसमाधिने विपे (सिलोगो के० ) श्लोकः एटले श्लोक ( लवर के०) नवति एटले जे.॥ (दीपिका.) उक्तो विनयसमाधिः। अथ द्वितीयं श्रुतसमाधिमा । तत्र चलबिहा इत्यादि सूत्रम् । चत्रर्विधःखदु श्रुतसमाधिर्नवति । तद्यथा। श्रुतं मे श्राचारादि हाद. शाझं नविष्यतीत्यनया बुध्याध्येतव्यं नवति । न गौरवाद्यालम्बनेन। तथाध्ययनं कुर्वनेकाग्रचित्तो नविष्यामि । न विप्लुतचित्त इत्यध्येतव्यं जवति । अनेन चालम्बनेन। तथाध्ययनं कुर्वन् शातधर्मतत्त्वोऽहमात्मानं शुरूधर्मे स्थापयिष्यामि । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामीत्यनेन चालम्बनेन । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ (टीका.) उक्तो विनयसमाधिः। श्रुतसमाधिमाह । चलबिहेत्यादि । चतुर्विधःखदु श्रुतसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहारणोपन्यासार्थः। श्रुतं मे आचारादि द्वादशाझं नविष्यतीत्यध्येतव्यं नवति । न गौरवाद्यालम्बनेन। तथाध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो नविष्यामि । न विसुतचित्त इत्यध्येतव्यं नवत्यनेनलम्बनेन । तथाध्ययनं कुर्वन्विदितधर्मतत्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुभधर्म इत्यनेनालम्बनेनाध्येतव्यं नवति । तथाध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे परं विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं नवत्यनेनालम्बनेन । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ नाणमेगग्गचित्तो अ, नि अगवई परं॥ सुआणि अ अहिङित्ता, र सुअसमाहिए ॥ ३॥ _(अवचूरिः) ज्ञानमित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं नवति । एकाग्रचित्तश्च तत्परतयैकामालम्बनश्च भवति । स्थित इति विवेकाझमें स्थिरो जवति । स्थापयति परं धर्मस्थितत्वादन्यमपि स्थापयति । अतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेधीत्य च सक्तो जवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ॥३॥ (अर्थ.) ते श्लोक आ रीते. नाणं इत्यादि सूत्र. नित्य अध्ययन करनार एवा साधुने (णाणं के०) ज्ञानं एटले ज्ञान थाय जे. ( एगग्गचित्तो के ) एकाग्रचित्तः एटले अध्ययन करता चित्तनी एकाग्रता थाय बे. अध्ययन करनार साधु पात " Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०३ विषे (विठ के०) स्थितः एटले रहेलो होय बे. तथा (परं के०) परं एटले बीजा शिष्य प्रमुखने (गवयश् के०) स्थापयति एटले स्थापन करे . ( सुथाणि के) श्रुतानि एटले विविध प्रकारना श्रुत प्रत्ये (अहित्तिा के) अधीत्य एटले जणीने (सुअसमाहिए के० ) श्रुतसमाधौ एटले श्रुतसमाधिने विषे ( र के०) रतः एटसे आसक्त एवा थाय जे. ॥३॥ (दीपिका.) स चायं श्लोकः। नाणमिति । अध्ययनतत्परस्य ज्ञानं नवति। एकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकाग्रालम्बनश्च भवति । स्थित इति विवेकाधम स्थितो जवति । स्थापयति च परमिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति । श्रुतानि च नानाप्रकारण्यधीत्य रतः सक्तो जवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ॥३॥ . (टीका.) स चायम् । णाणमित्यादि । श्रस्य व्याख्या। ज्ञानमित्यध्ययनपरस्य झानं नवति । एकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकामालम्बनश्च नवति। स्थित इति विवेकाधर्मस्थितो नवति। स्थापयति परमिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति । श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च रतः सक्तो नवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः॥३॥ चनविदा खलु तवसमादी नव । तं जदा । नो श्दलोगध्याए तवमदिहिका।नो परलोगध्याए तवमहिमिजा। नो कित्तिवनससिलोगज्याए तवमदिहिजा । नन्नब निकरच्याए तवमदिछिका। चनबं पयं नव।नवर अश्व सिलोगो॥ (श्रवचूरिः) उक्तः श्रुतसमाधिः । तपःसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथा। नेहलोकार्थं लब्ध्यादीछया । तपोऽनशनादिरूपमधितिष्ठेत्कुर्यात् । न परलोकार्थं जननान्तरे लोगाय तपोऽधितिष्ठेत् । ब्रह्मदत्तवत्। एवं न कीर्त्तिवर्णशब्दश्लाघार्थमिति । सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः । एक दिग्रव्यापी वर्णः। अर्डदिग्रव्यापी शब्दः । तत्स्थान एव श्लाघा। नैतदर्थं तपोऽधितिठेत् । नान्यत्र कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत्॥ (अर्थ.) श्रुतसमाधि कह्यो. हवे तपसमाधि कहे . चजबिहा इत्यादि सूत्र. तवसमाही के ) तपःसमाधिः एटले तपसमाधि जे ते ( खलु के) निश्चये (च.. विहा के०) चतुर्विधः एटले चार प्रकारनी (जवर के०) नवति एटले थाय . Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) मा. ( तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते जेम के; १ ( इहलोगध्याए के० ) इहलोकार्थम् एटले धर्मिलनी पेठे या लोकने अर्थे, अर्थात् लब्धि प्रमुखनी प्राप्तिनी श्रर्थे ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो यहि हिजा के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. २ ( परलोग याए के० ) परलोकार्थम् एटले ब्रह्मदत्तनी पेठे परलोकने श्र अर्थात् परनवे सुखादिकनी प्राप्तिने छार्थे ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये (नो हि ठिका के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ३ ( कित्तिवन्नसद्द सिलोगहयाए के०) कीर्त्तिवर्णशब्दश्लोकार्थम् एटले कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोकने थयें ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो अहिहिता के० ) नो अधितिष्ठेत् एa न करे. सर्व दिशाउने विषे जे प्रसिद्धि ते कीर्ति, एक दिशाने विषे जे प्रसिद्धि ते वर्ण, अर्धी दिशाने विषे जे प्रसिद्धि ते शब्द अने जे ठेकाणे रहे तेज ठेकाणे जे प्रसिद्धि ते श्लोक कड़ेवाय बे. ४ ( अन्न निकराए के० ) अन्यत्र निर्जरार्थम् एटले एक निर्जरारूप अर्थ विना ( तवं के० ) तपः एटले तपस्या प्रत्ये ( नो हिहिजा के० ) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. अर्थात् एक निर्जराने अर्थेज तपस्या करे. उपर बेल्नुं कयुं ए (चजन्यं के० ) चतुर्थ एटले चोथुं ( पयं के० ) पदं एटले पद ( जव के० ) जवति एटले थाय बे. ( अ के० ) च एटले वली ( इब के० ) अत्र एटले या तपसमाधिने विषे ( सिलोगो के० ) श्लोकः एटले श्लोक ( जव के० ) नवति एटले . ॥ ( दीपिका. ) उक्तः श्रुतसमाधिः । श्राथ तपःसमाधिमाह । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यथेत्युदाहरणे | नेहलोकार्थ मिलोकनिमित्तं लब्ध्यादेर्वाञ्चया तपः अनशनादिरूपं साधुरधितिष्ठेत् कुर्यात् । धर्मिलवत् । तथा न परलोकार्थं जन्मान्तरजोग निमित्तं तपः अधितिष्ठेद्ब्रह्मदत्तवत् । एवं न कीर्त्तिवर्णशब्दश्लाघार्थं मि ति । तत्र सर्व दिव्याप साधुवादः कीर्त्तिः । एकदिग्व्यापी वर्णः । श्रई दिग्व्यापी शब्दः । स्वस्थान एव साधुवादः श्लोकः श्लाघा वा । न एतन्निमितं तपोऽधितिष्ठेत् । कामः सन् यथा कर्म निजैरैव फलं जवति तथाधितिष्ठेदिति । चतुर्थं पदं नवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ ( टीका. ) उक्तः श्रुतसमाधिः । तपः समाधिमाह । चहा इत्यादि । चतुर्विधः खलु तपःसमाधिजैवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । नेहलोकार्थ मिलोक निमित्तं लब्ध्वा दिवान्या तपोऽनशनादिरूपमधितिष्ठेत्कुर्या ऊर्मिलवत् । तथा न परलोका Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः । थं जन्मान्तरजोग निमित्तं तपोऽधितिष्ठेह्मदत्तवत् । एवं न कीर्त्तिवर्णशब्दश्लाघामिति । सर्व दिव्यापी साधुवादः कीर्त्तिः । एकदिग्ग्व्यापी वर्णः । श्रर्द्ध दिग्व्यापी शब्दः । तत्स्थान एव श्लाघा । नैतदर्थं तपोऽधितिष्ठेत् । अपि तु नान्यत्र निर्जरार्थ - मिति । न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधितिष्ठेत् । अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं वति तथाधितिष्ठेदित्यर्थः । चतुर्थं पदं जवति । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ विविदगुणतवोरए, निच्चं नवइ निरासए निकर ठिए ॥ तवसा धुइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमा दिए ॥ ४ ॥ ६०५ ( श्रवचूरिः ) स चायम् । विविधगुणंतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्ततः । इहलोका दिषु निराशो जवति । निर्जरार्थी विशुद्धस्तपसा धुनोति चिरंतनं नवं च पापं न बध्नाति युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥ ४ ॥ (अर्थ. ) ते श्लोक या रीते. विविध इत्यादि सूत्र. या प्रकारे ( तवसमाहीए ho ) तपःसमाधौ एटले तपसमाधिने विषे ( सया के० ) सदा एटले निरंतर ( जुतो के० ) युक्तः एटले जोडायला साधु केवा होय वे ते कहे बे. ( निच्चं के० ) नित्यं एटले निरंतर (विविद्युतवोरए के० ) विविधगुणतपोरतः एटले अनेक गुने धारण करनार एवी तपस्याने विषे श्रसक्त एवा, ( निरासए के० ) निराशः ए टले इह लोक परलोक प्रमुखनी आशा न राखनार एवा तथा ( निकर हियाए के० ) निर्जरार्थी एटले निर्जराना ार्थी एवा ( जवइ के० ) जवति एटले थाय बे. तथा ( तवसा के० ) तपसा एटले तपस्या वडे ( पुराणपावर्ग के० ) पुराणपापकं एटले चिरकालथी बंधायला पाप कर्म प्रत्ये ( धुइ के० ) धुनोति एटले दूर करे बे. ॥ ४ ॥ ( दीपिका . ) स चायम् । विविध इति । विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्तत एव सदा नवति निराशो निष्प्रत्याश इहलोकादिषु । निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जराथीं । स एवंभूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोत्यपनयति साधुः पुरापापं चिरंतनं कर्म । नवं च न वनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥ ४ ॥ 1 ( टीका. ) स चायम् । विविध इत्यादि । अस्य व्याख्या । विविधगुणतपोरतो हि नित्यमनशनाद्यपेक्षयानेकगुणं यत्तपस्तद्रत एव सदा जवति । निराशो निष्प्रत्याश इहलोकादिषु । निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जराथी । स एवंभूतस्तपसा विशुद्धेन धुनोत्यपनयति । पुराणपापं चिरंतनं कर्म । नवं च न वनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति सूत्रार्थः ॥४॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. चनविदा खलु आयारसमादी नव । तं जहा। नो इहलोगज्याए आयारमविहिजा । नो परलोगड्याए आयारमदिछिका।नो कित्तिवन्नसद्दसिगोगघ्यिाए आयारमदिहिजा । नन्न आरदंतेहिं देकहिं आयारमनिहिता। चनचं पयं नव। नव अब सिलोगो॥ (श्रवचूरिः) उक्तस्तपःसमाधिराचारसमाधिमाद । चतुर्विधः खव्वाचारसमाधि. नवति । तद्यथा । नेहलोकार्थमित्याद्याचारानिधानं पूर्ववत् । यावन्नान्यत्राहसंवन्धिजिरनाभवायैर्हेतुनिराचारं मूलोत्तरगुणमयमधितिष्ठेत् । निरीहः सन् यथा मोक्ष एव जवतीति । चतुर्थं पदं नवति । जवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ (अर्थ.) तपसमाधि कह्यो, हवे आचारसमाधि कहे . चनविदा इत्यादि सूत्र. (थायारसमाही के०) आचारसमाधिः एटले आचारसमाधिजे ते (खलु के०) निश्चये (चनविदा के०)चतुर्विधः एटले चार प्रकारनो (जवर के०) नवति एटले थाय . (तं जहा के०)तद्यथा एटले ते जेम के, १ (इहलोगध्याए के०) इहलोकार्थम् एटले श्रा खोकने अर्थे (आयारं के०) आचारम् एटले मूलगुण प्रमुख आचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ५ (परलोगहिश्राए के) परलोकार्थम् ए. टले परखोकने अर्थे (यारं के०) आचारं एटले आचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के.) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ३ (कित्तिवन्नसद सिलोगहिआए के०) कीर्तिवर्ण. शब्दश्लोकार्थम् एटले कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लोकने अर्थे (आयारं के) श्राचारं एटले श्राचार प्रत्ये (नो अहिहिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. ४ (थनब बारहंतेहिं देऊहिं के० ) अन्यत्रार्हतेतुनिः एटले अरिहंत प्रणीत सिद्धांतमां कहेल हेतुविना (थायारं के० ) आचारं एटले श्राचार प्रत्ये (नो अहि हिजा के०) नो अधितिष्ठेत् एटले न करे. अर्थात् को पण प्रकारनी श्छा न राखतां जेम मोक्ष थाय ते प्रकारे श्राचार पालवो. उपर बेचं कहेलु (चवं के) चतुर्थं एटले चोथु (पयं के०) पदं एटले पद (नव के०) नवति एटले थाय . ( अ के.) च एटले वली (श्व के०) अत्र एटले आ आचार समाधिने विषे (सिलोगो के०) श्लोकः एटले श्लोक जे ते (नवर के०) नवति एटले थाय .॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०७ (दीपिका.) उक्तस्तपःसमाधिः । अथ श्राचारसमाधिमाह । चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति । तद्यथा नेहलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् । न परलोकार्थमाचारमधितिष्ठेत् । न कीर्तिवर्णशब्दश्लोकनिमित्तमाचारमधितिष्ठेत् । नान्यत्र आईतैरर्हत्संबन्धिनिर्हेतुनिराचारं मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीहः सन् यथा मोक्ष एव नवति । नवति चतुर्थं पदम् । नवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ . (टीका.) उक्तस्तपःसमाधिः। आचारसमाधिमाह । चजबिहा इत्यादि। चतुर्विधः खत्वाचारसमाधिर्जवति । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। नेहलोकार्थमित्यादि चाचारानिधाननेदेन पूर्ववद्यावन्नान्यत्राहतैरहत्संबन्धिनिर्हेतुनिरनाश्रवत्वादिजिराचारं मू. . लगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीदः सन् यथा मोक्ष एव नवतीति । चतुर्थं पदं नवति । जवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए॥ आयारसमादिसंवुमे, नव अ दंते नावसंधए ॥ ५॥ (अवचूरिः)स चायम्। जिनवचनरतः। श्रतिन्तिनो न सकृमुक्तः सन्नसूयया नूयो नूयो वक्ता । परिपूर्णः सूत्रादिना । आयतमायतार्थिकः । अत्यन्तं मोक्षा र्थी । आचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवधारः सन् जवति च दान्त इन्जियनोश्निजयदमाच्याम् । नावो मोक्षस्तत्सन्धको मोक्षासन्नताकारी आत्मनः ॥५॥ - (अर्थ.) ते श्लोक आ रीते. जिण इत्यादि सूत्र. ( श्रायारसमाहिसंवुमें के०) श्राचारसमाधिसंवृतः एटले आचारने विष समाधि होवाथी आस्रवने रोकनार एवा साधु जे ते ( जिणवयणरए के) जिनवचनरतः एटले आगमने विषे श्रासक्त एवा, (अतिंतिणे के०) अतिन्तिनः एटले एकवार कंश कटुवचन प्रमुख कयुं हो. य तो मत्सरथी वारंवार तेज वचन प्रमुखने न कहेनार एवा, (पडिपुन्न के०) प्र. तिपूर्णः एटले सूत्रादिक वडे परिपूर्ण नरेखा एवा, (थाययं के०) श्रायतं एटसे अतिशय (श्राययहिए के) आयतार्थिकः एटले मोदना आर्थी एवा, (दंते के०) दान्तः एटले इन्जियोने अने मनने वशमां राखनार एवा, (थ के०) च एटले तथा नावसंधकः एटले पोताना यात्माने मोदनी पासे लइ जनार एवा (नव के) नवति एटले होय . ॥ ५ ॥ (दीपिका.) जिणवयण इत्यादि । जिनवचनरत श्रागमे सक्तः । श्रतिन्तिनो नैकवारं किंचिहुक्तः सन्नसूयया नूयो नूयो वक्ता । प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमाय Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद्, नाग तेतालीस (४३) - मा. तार्थिकः । श्रत्यन्तं मोक्षार्थी । श्राचारसमाधिसंवृत इत्याचारे यः समाधिस्तेन स्थगितावद्वारः स जवति । पुनः किंनूतः । दान्त इन्द्रिनोइन्द्रियदमाच्याम् । जावसंघकः । जावो मोक्षस्तत्संघक श्रात्मनो मोदासन्नकारीति ॥ ५ ॥ ( टीका. ) स चायम् । जिणवयणरए इत्यादि । यस्य व्याख्या | जिनवचनरत यागमे सक्तः । प्रतिन्तिनः न सकृत्किंचिडुक्तः सन्नसूसया भूयो भूयो वक्ता । प्रतिपूर्णः सूत्रादिना । श्रायतमायतार्थिक इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी । श्राचारसमाधिसंवृत इत्याचारे यः समाधिस्तेन स्थगितावद्वारः सन् भवति दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्याम् । नावसंधकः । जावो मोक्षस्तत्संघक आत्मनो मोक्षासन्नकारीति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ निगम चरो समाहिन, सुविसु सुसमाहिप्रप्पन ॥ विजलदियं सुदावहं पुणो, कुवइ प्र सोपयखेममप्पणो ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) सर्वसमाधिफलमाह । श्रभिगम्य ज्ञात्वासेव्य चतुरः समाधी ननन्तरोदितान् सुविशुद्ध मनोवाक्कायैः । सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । स एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुलं विस्तीर्ण हितं पथ्यं सुखं तदात्व श्रायत्यां च पथ्यं सुखमावदति प्रापयति यत्तदसौ साधुः पदं स्थानं देमं शिवमात्मनो नत्वन्यस्येति । श्रन एकाङ्गव्यवच्छेदमाह ॥ ६॥ ( .) हवे सर्व समाधिनुं फल कहे बे. निगम इत्यादि सूत्र (चरो के ० ) चतुरः एटले चार, ( समाहि के० ) समाधीन् एटले उपर कहेल समाधि प्रत्ये निगम के० ) अनिगम्य एटले जाणीने ( सुविसुको के० ) सुविशुद्धः एटले मन वचन काया वडे पवित्र थल एवा, तथा ( सुसमाहिप के० ) सुसमाहितात्मा एटले सत्तर प्रकारना संयमने विषे स्थिर एवा ( सो के० ) सः एटले ते साधु जे ते ( अपणो के० ) श्रात्मनः एटले पोताना ( पयं के० ) पदं एटले पदप्रत्ये ( विजलसुके० ) विपुलसुखं एटले विस्तीर्ण श्रने वर्त्तमान काले तथा नाविकाले हितका - एवाने, (सुहाव के० ) सुखावदं एटले सुखने पमाडनार एवाने (पुणो के० ) पुनः एटले वली (खेमं के० ) देमं एटले कल्याणकारी एवाने ( कुबई के० ) करोति एटले करे बे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) सर्वसमाधिफलमाह । श्रसौ साधुरात्मन एव न त्वन्यस्य पदं स्थानं दमं शिवं करोति । किं कृत्वा । चतुरः समाधीन निगम्य सम्यग्विज्ञाय । किंभूतः साधुः । सुविशुद्ध मनोवाक्कायेन । पुनः सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके नवमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः। ६०॥ स एवंनूतः। किंनूतं पदम् । विपुल हितसुखावहम् । विपुलं विस्तीर्ण हितं तदात्व श्रायतौ च पथ्यं सुखमावहति प्रापयति यत्तत्तथा ॥६॥ (टीका.) सर्वसमाधिफलमाह । अनिगम त्ति सूत्रम् । अनिगम्य विझायासेव्य च चतुरः समाधीननन्तरोदितान् । सुविशुको मनोवाकायैः। सुसमाहितात्मा सप्तदशविधे संयमे । एवंनूतो धर्मराज्यमासाद्य विपुल हितसुखावहं पुनरिति । विपुलं विस्तीर्णं हितं तदात्व आयत्यां च पथ्यं सुखमावहति प्रापयति यत्तत्तथाविधं करोत्यसौ साधुः पदं स्थानं देमं शिवमात्मन इत्यात्मन एव नत्वन्यस्येत्यनेकान्तदणजङ्गव्यवछेदमाहेति सूत्रार्थः ॥६॥ जाइमरणाने मुच्चइ, श्वंयं च चए सबसो॥ सिझे वा दवइ सासए , देवे वा अप्परए मदहिए त्ति बेमि॥॥ चन्हो उद्देसो संमत्तो॥४॥ विणयसमादी पामतयणं संमत्तं ॥५॥ (अवचूरिः ) एतदेव स्पष्टयति।जातिमरणान्मुच्यते। असौ साधुः । श्छस्थमिति। श्छस्थितं नरकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्यहणतया। एवं सिको जूत्वा कर्मक्षयात् । शाश्वतोऽपुनरागामी। सावशेषकर्मा देवो वा । अल्परतः । कायनकल्परतरहितोऽनुत्तरो महर्डिकोऽनुत्तरवैमानिकादिरिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ७ ॥ इति चतुर्थ उद्देशः ॥४॥ इत्यवचूरिकायां व्याख्यातं विनयसमाध्यध्ययनम् ॥ ए॥ (अर्थ.) एज स्पष्ट करे . जा इत्यादि सूत्र. उपर कहेल प्रकारना साधु जे ते (जाश्मरणार्ड के) जातिमरणात् एटले जन्म मरणथी (मुच्चर के० ) मुच्यते ए. टले मुक्त थाय जे. ( च के०) वली (श्चय के०) श्स्थं एटले जेथी नारकी तिर्यंच प्रमुख संझा आवे एवा संस्थान प्रसुख प्रत्ये ( सबसो के०) सर्वशः एटले सर्व प्रकारे( चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे . ( वा के०) अने ( सासए के०) शाश्वतः एटले शाश्वत एवा (सिझे के० ) सिकः एटले सिक (हव के०) न. वति एटले थाय . ( वा के० ) अथवा (थप्परए के० ) अल्परतः एटले कं. डूसमान कामविकार जेने नथी एवो तथा ( महहिए के०) महर्डिकः एटले मोटी इजिवालो एवो ( देवे के ) देवः एटले देवता ( हव के०) नवति एटले थाय ने. इति ब्रवीमि एनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ ७ ॥ चतुर्थ उद्देश संपूर्ण ॥ ४ ॥ इति श्रीदशवकालिक वालाववोधे विनयलमाधि नामक अध्ययन संपूर्ण ॥ ए॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । असौ साधुः । जातिमरणात् संसारात् मुच्यते । पुनः साधुः स्थं त्यजति । कोऽर्थः । दंप्रकारमापन्न मित्रम् । श्वं स्थितमिदंस्थं नारकादिव्यपेदशबीजं वर्णसंस्थानादि सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया । एवं सिको वा कर्मदयात्सिको जवति । कीदृशः सिकः । शाश्वतोऽपुनरागामी सावशेषकर्मा देवो वा नवति । किंनूतः देवः । अल्परतः कंपरिगतकंयनकल्परतरहितः । महर्षिकोऽनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ७॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥४॥ इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ समयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां विनयसमाध्यध्ययनं संपूर्णम् ॥ ए॥ - (टीका.) एतदेव स्यष्टयति । जाइ त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । जातिमरणात्संसारान्मुच्यते । असौ सुसाधुः। श्रस्थं चेतीदं प्रकारमापन्न मिमिळ स्थितमिबंस्थं नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तच्च त्यजति सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया। एवं सिको वा कर्मदयात्सिको नवति । शाश्वतोऽपुनरागामी। सावशेषकर्मा देवो वा । अल्परतः कंपरिगतकंयनकटपरतरहितः । महर्डिकोऽनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः । नयाः पूर्ववत् ॥७॥ इति चतुर्थः ॥४॥ इति श्रीमहरिनजसूरि विरचितायां दशवैकालिकटीकायां व्याख्यातं विनयसमाध्यध्ययनं नाम नवममध्ययनम् ॥ ए॥ अथ दशमं सनिदवध्ययनम् । निकम्म माणा अबुध्वियणे, निच्चं चित्तसमादिन दविजा॥ श्चीण वसं न आवि गजे, वंतं नो पडिआयइ जे स निकू ॥१॥ (अवचूरिः) अथ सनिवध्ययनमारच्यते । अस्य चायं सबन्धः । श्द पूर्वाध्ययन आचारप्रणिहितो विनयी नवतीत्युक्तम् । अत्र तु एतेषु नवसु अध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स निकुरित्युच्यते । निष्क्रम्य प्रव्रज्यां गृहीत्वा व्यन्नावगृहादित्यर्थः। थाज्ञया तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां निष्क्रम्य । परं किमित्याह । बुद्धवचणे अवगततत्त्वतीर्थकरवचने नित्यं समाहितश्चित्तेनानिप्रसन्नो नवेत् । प्रवचन एवा नियुक्त इत्यर्थः । समाधानोपायमाह । स्त्रीणां वशं न चापि गछेत् । त शगतो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिवति । अतो बुद्धवचःसमाधिः। स्त्रीवशत्यागाधान्त यहिषयसुखजंवालंन प्रत्यापिवति यः स निकुविजिनुरित्यर्थः॥१॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६११ (अर्थ.) नवमा अध्ययनमा आचारने सम्यक् प्रकारे पालनार साधु विनयवंत होय जे एम कडं. हवे, पूर्वोक्त नवे अध्ययनमां कहेल आचारने सम्यक् प्रकारे पालनार तेज निकु ( साधु ) कहेवाय ने ए वात था अध्ययनमां कहेवाशे. एवा संबंधथी आवेला ए अध्ययन- निकम्म इत्यादि प्रथम सूत्र. (जे के ) यः एटले जे (आणाश् के) आझ्या एटले तीर्थकर गणधर प्रमुखना उपदेश वडे पोतानी योग्यता जाणीने (निकम्मं के०) निष्क्रम्य एटले गृहावासथी नीकलीने अर्थात् दीक्षा लश्ने (बुद्धवयणे के०) बुद्धवचने एटले सर्वइना वचनने विषे ( निच्चं के) नित्यं एटले सर्व काल (चित्तसमाहिर्ड के०) चित्तसमाहितः एटले मनवडे अतिशय प्रसन्न अर्थात् नित्य आगमने विषे तत्पर एवा (हविजा के०) नवति एटले थाय . (च के०) वली जे (श्वीण के०) स्त्रीणां एटले स्त्रीउँना ( वसं के० ) वशं एटले परतंत्रतामां (न श्राविग के ) नचापि गछति एटले न श्रावे. तथा (वंतं के०) वान्तं एटले वमेला, त्याग करेला एवा विषय सुखने ( नो पडियाविश्र के० ) नो प्रत्यापिवति एटले फरिथी पान करे नहि, अर्थात् सेवे नहि. ( स के०) सः एटले ते ( निस्कू के) निकुः एटले साधु कहेवाय जे. ॥१॥ (दीपिका.) अथ सनिकुनामकमध्ययनमारज्यते। अस्य चायमनिसंवन्धः । इह पूर्वाध्ययन श्राचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो नवतीत्येतफुक्तम् । इह तु एतेष्वेव नववध्ययनेषु व्यवस्थितः स सम्यग्निकुरित्युच्यते । इत्यनेन संवन्धेनायातमिदध्ययनम् । तच्चेदम् । स निकुर्नवेत् । स कः । यः निःक्रम्य व्यत्नावगृहात् प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः । कया । श्राझया तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन । बुद्धवचने तीर्थकरगणधरवचने नित्यं सर्वकालं चित्तेन समाहितः अतिप्रसन्नो नवेत । प्रवचन एव अनियुक्त इति गर्नः। अथ व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह । पुनः स्त्रीणां सर्वासत्कार्यनिवन्धननूतानां वशं तत्परतन्त्रतारूपं नचापि गठेत् । त शगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिवति । अतो बुद्धवचने चित्तसमाधानतः सर्वया स्त्रीवशत्यागात् । अनेनैव उपायेन अन्योपायासंजवात् वान्तं परित्यक्तं यत् विपयवालं न प्रत्यापिवति न मनागपि आनोगतोऽनानोगतश्च तत्सेवते ॥१॥ (टीका.) अधुना सनिदवाख्यमारच्यते । अस्य चायमनिसंवन्धः । इहानन्तराध्ययन श्राचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्नो नवत्येतमुक्तमिह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेपु यो व्यवस्थितः स सम्यग्रनिकुरित्येतउच्यते। इत्यनेनानिसंवन्धेना Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. यातमिदमध्ययनम् । अस्य चानुयोगहारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्नो निक्षे. पः । तत्र च सनिकुरित्यध्ययननामातः सकारो निदेप्तव्यो निकुश्च । तत्र सका. रनिक्षेपमाह ॥ नामं ठवण सयारो, दवे नावे अ हो नायबो ॥ दवे पसंसमाई, नावे जीवो तवजत्तो॥ए॥ अस्य व्याख्यानामसकारः सकार इति नाम । स्थापनासका रः सकार इति स्थापना । ७व्ये नावे च नवति ज्ञातव्यः। व्यसकारो नावसकारश्च । तत्र अव्य इत्यागमनोशागमज्ञशरीरनव्यशरीरतव्यतिरिक्तः प्रशंसा दिविषयो अव्यसकारः । नाव इति नावसकारो जीवस्तउपयुक्तः । तदुपयोगानन्यत्वादिति गार्था र्थः ॥ ॥ ॥ प्रकृतोपयोगीत्यागमनोआगमज्ञशरीरनव्यशरीरातिरिक्तं प्रशंसा. दिविषयं व्यसकारमाह ॥ निदेस पसंसाए , श्लीजावे अ होश् सगारो ॥ निदेसपसंसाए, अहिगारो श्व अनयणे ॥ ए६ ॥ अस्य व्याख्या। निर्देशे प्रशंसायाम स्तिनावे चेत्येतेष्वर्थेषु त्रिषु लवति तु सकारः। तत्र निर्देशे यथा सोऽनन्तर मित्यादि। प्रशंसायां यथा सत्पुरुष इत्यादि । अस्तिनावे यथा सद्भूतममुकमित्यादि । तत्र निर्देशप्रशंसायामिति । निर्देशे प्रशंसायां च यः सकारस्तेनाधिकारोऽत्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः॥ ॥ ॥ एतदेव दर्शयति ॥ जे नावा दसवेा-लिअम्मि करणि वन्निय जिणे हिं॥ तेसिं समावणं मित्ति, जो जन्नस निरकू ॥ ए७ ॥ व्याख्या ॥ ये नावाः पदार्थाः पृथिव्यादिसंरक्षणादयो दशवैकालिके प्रस्तुते शास्त्रे करणीया अनुष्ठेया वर्णिताः कथिता जिनैस्तीर्थकरगणधरैः । तेषां जावानां समापने यथाशक्ति व्यतो नावतश्चाचरणेन पर्यन्तनयनेन यो निकुस्तदर्थं यो निदणशीलो न तूदरा दिनरणार्थम् । नण्यते स निकुरिति । इतिशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। स निकुरित्यत्र निर्देशे सकार इति गायार्थः॥ ॥ ॥प्रशंसायामाह ॥ चरगमरुगाश्याणं, निकुव जीवाण काजणमपोहं ॥ अषयगुणण निउत्तो, होश संसाइ उ स निकू ॥ ए७ ॥ व्याख्या ॥ चरकमरुकादीनामिति । चरकः परिव्राजकविशेषः । मरुका धिग्वर्णाः । आदिशब्दाबाक्यादिपरिग्रहः। अमीषां निदोपजीविनां निदणशीलानामगुणवत्त्वेनापोहं कृत्वा अध्ययनगुण नियुक्तः प्रक्रान्तशास्त्र निष्यंदनूतः प्रक्रान्ताध्ययनानिहितगुणसमन्वितो नवति । प्रशंसायामवगम्यमानायां सन्निनुः संश्चासौ निकुश्च तत्तदन्यापोहेन सनिकुरिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तः सकार श्दानी निकुमनिधातुकाम आह ॥ निरकुस्स य निरकवो, निरुत्तएगहिश्राणि लिंगाणि ॥ श्रगुण हिउँ न निस्कू, अवयवा पंच दारा ॥ एए ॥ व्याख्या ॥ जिदोनिक्षेपो नामादिलक्षणः कार्यः । तथा निरुक्तं च वक्तव्यं निदोरेव । तथा एकार्थिकानि पर्यायशब्दरूपाणि वक्तव्यानि । तथा लिङ्गानि संवेगादीनि । तथा श्रगुणस्थितो न Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६१३ निकुरपितु गुण स्थित एवेत्येतद्वाच्यम् । अत्र चावयवाः पञ्च प्रतिज्ञादयो वक्ष्यमाणाः। इति द्वाराण्येतानीति गाथासमासार्थः ॥ ॥ यथाक्रमं व्यासार्थमाह ॥ णामं aaur free, दवजिरकू ा जावजिर था | दवम्मि आगमाई, अन्नो वि प I वो इमो ॥ ४०० || व्याख्या ॥ नामस्थापना निक्कुरिति । निक्कुशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । नामनिः स्थापना निकुश्चेति । तत्र नामस्थापने कुसत्वादनादृत्य - व्यनिकुमाह । द्रव्य इति द्रव्य निकुरागमादिः । श्रागमनोयागमज्ञशरीरजव्यशरीरतदतिरिक्तैकन विकादिभेद जिन्नः । अन्योऽपि च पर्यायो नेदोऽयं द्रव्यनिकोर्वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ नेा नेाणं चेव, जिंदिवं तदेव य ॥ एए सिं तिहिपि, पत्तेापरूवणं वोछं ॥ ४०२ ॥ व्याख्या || जेदकः पुरुषः, भेदनं चैव परश्वादि, नेत्तव्यं तथैव च काष्ठादीति भावः । एतेषां त्रयाणामपि भेदकादीनां प्रत्येकं पृथक्पृथक् प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एतदेवाह || जह दारुकम्मगारो, जेण जित्तव संजु जिकू ॥ नेवि वजिरकू, जे जायगा अविरया अ ॥ २ ॥ व्याख्या ॥ यथा दारुकर्मकरो वर्धक्यादिः । नेदनजेत्तव्यसंयुक्तः सन् क्रिया विशिष्टविहरणादिदारुसमन्वितो द्रव्य निकुः । द्रव्यं जिनत्तीति कृत्वा । तथान्येऽपि द्रव्यविः अपारमार्थिकाः । क इत्याह । ये याचनका जिक्षणशीला श्रविरताश्च निवृत्ताश्च पापस्थानेन्य इति गाथार्थः ॥ 11 ॥ एते च द्विविधाः । गृहस्था लि - निश्चेति । तदाह || गिहिणो वि सयारंभग, कुप्पन्नं जणं विमग्गं ॥ जीवणिश्र - दी किविणा, ते वजा दव निरकुत्ति ॥ ३ ॥ व्याख्या ॥ गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि सदारंजका नित्यमारम्नकाः षषां जीवनिकायानामृजुप्रज्ञं जनमनालोचकं विमृगयन्तोनेकप्रकारं द्विपदादि । भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यनिधाय याचमाना इव्यनिक्षणशीलत्वाद्द्रव्य निवः । एते च धिग्वणः । तथा ये च जीवनिकायै जीवनिमितं दीनकृपणाः कार्पेटिकादयो निकामटन्ति, तान् विद्याद्विजानीयाद्द्रव्यनिकूनिति । द्रव्यार्थ निक्षणशीलत्वादिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्ता गृहस्थद्रव्य निक्षवः । लिङ्गिनोऽधिकृत्याह ॥ मिचद्दिवी तसथा - वराण पुढवाइविंदियाई ॥ निच्चं वदकरणरया, अवंजयारी अ संचया ॥ ४ ॥ व्याख्या ॥ शाक्य निकुप्रभृतयो हि मियादृष्टयः श्रतत्त्वानि निवेशिनः प्रशमादिलिङ्गशून्याः । त्रसस्थावराणां प्राणिनां पृथिव्यादीनां द्वीन्द्रियादीनां च । अत्र पृथिव्यादयः स्थावराः । द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । नित्यं वधकरणरताः सदैतदतिपातसक्ताः । कथमित्यत्राह । श्रब्रह्मचारिणः । संचयिनश्च यतः । श्रतोऽप्रधानत्वाद्द्रव्य निक्षवः । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एते चात्रह्मचारिणः संचयादेवेति संचयमाद् ॥ पय चउप्प Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ६१४ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. यधणध- न्नकुविप्रतिपरिग्गहे निरया ॥ सच्चित्तनो पयमा - पगाश्र उहिनोई अ ॥ ५ ॥ व्याख्या ॥ द्विपदं दास्यादि, चतुष्पदं गवादि, धनं हिरण्यादि, धान्यं शाल्यादि, कुप्यमलिंजरादि । एतेषु द्विपदादिषु क्रमेण मनोलणादिना करत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे कृतकारितानुमतपरिग्रहे निरताः सक्ताः । न चैतदनार्थम् । विहारान् कारयेद्रम्यान्वासयेच्च बहुश्रुतान् ' इत्यादि वचनात् । सद्भूतगुणानुष्ठायिनो नेवंभूता इत्याशंक्याह । सचित्तनो जिनः । तेऽपि मांसापकाया दिजोजिनः तदप्रतिषेधात् । पचन्तश्च स्वपचास्तापसादय उद्दिष्टनो जिनश्च सर्व एव शाक्यादयः । तत्प्रसिया तपस्विनोऽपि पिएक विशुद्धयपरिज्ञानादिति गाथार्थः ॥ ॥ त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता इत्येतत्याचिख्यासुराह ॥ करणतिर जोतिए, सावजे हे परउजये ॥ . पवत्ते, ते विजा व निरकुत्ति ॥ ६ ॥ व्याख्या ॥ करत्रिक इतिसुपां सुपो नवन्तीति करणत्रिकेन मनोवाक्कायलक्षणेन । योगत्रितय इति कृतकारितानुमतिरूपे सावधे सपापे श्रात्म देतोरात्मनिमित्तं देहाद्युपचयाय । एवं परनिमित्तं मित्राद्युपजोगसाधनाय एवमुनय निमित्तमुनयसाधनार्थम् । एवमर्थायात्माद्यर्थमनर्थाय वा विना प्रयोजनेन श्रार्त्तध्यानचिंतनखरा दिभाषणलक्ष्यवेधनादिनिः प्राणातिपातादौ प्रवृत्तांस्तत्परां - स्तानेवंभूतान् विद्याद्विजानीयात् द्रव्यनिळूनिति । प्रवृत्ताश्चैवं शाक्यादयस्तद्द्रव्यजिव इति गाथार्थः ॥ ॥ ॥ एवं ख्यादिसंयोगाद्विशुद्धतपोऽनुष्ठानाजावा ब्रह्मचारिण एत इत्याह ॥ इबी परिग्गहाउ, आणादाणाइनावसंगा ॥ सुद्धत - वाजावार्ड, कुतिविष्यावंजचारि ति ॥ ७ ॥ व्याख्या || स्त्रीपरिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात् । श्राज्ञादानादिजावसंगाच्च परिणामाशुद्धेरित्यर्थः । नच शाक्या निवः । शुद्धतपोऽनावादिति । शुद्धस्य तपसोऽनावात्तापसादयः कुतीर्थिका ब्रह्मचारिण इति । ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोऽनिधीयते तदचारिण इति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तो द्रव्यनिक्कुः । जावनिकुमाह ॥ श्रगमतो जवउत्तो, तग्गुणसंवे जावंम ॥ तस्स निरुत्तं ने गणत्वए तिहा ॥ ८ ॥ व्याख्या ॥ जावनिकुर्द्विविधः । आगमतो नोआगमतश्च । तत्रागमत उपयुक्त इति निक्षुपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः । तकुण संवेदकस्तु निक्कुगुणसंवेदकः । पुननागमतो नवति नावनिकुरित्युक्तो निक्कुनिदेपः । सांप्रतं निरुक्तमनिधातुकाम याह । तस्य निरुक्तमिति । तस्य निकोर्निश्चितमुक्तमन्वर्थरूपं भेदकभेदन जेत्तव्यैरे निर्जेदैर्वक्ष्यमाणैस्त्रिधा नवतीति गाथार्थः ॥ ॥ एतदेव स्पष्टयति ॥ नेत्तागमोवउत्तो, दुविहतवोनेाणं च नेत्तवं ॥ विहं कम्मखुरं, ते निरुत्तं सनि ॥ ॥ व्याख्या ॥ नेत्ता नेदकोऽत्रागमत उपयुक्तः साधुः । तथा हिविधं वाह्याभ्यन्तरनेदेन तपो भेदनं वर्तते । तथा नेत्तव्यं विदारणीयं चाष्टप्रकारं ज्ञा Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ - दशवैकालिके दशममध्ययनम्। नावरणीयादि कर्म । तच्च कुदादिषुःखहेतुत्वात् कुबब्दवाच्यम् । यतश्चैवं तेन निरुक्तं यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म निनत्ति स निकुरिति गाथार्थः ॥ ॥किं च ॥ जिंदतो अजह खुहं, निरकू जयमाण जई हो ॥ संजमचरज चरज, नवं खिवंतो जवंतो उ ॥ १० ॥ व्याख्या ॥ निन्दंश्च विदारयंश्च यथा दुधं कर्म निकुर्नवति । नावतो यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिवति । एवं संयमचरकः सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायी चरकः एवं जवं संसारं रूपयन् परीत्तं कुर्वन् स एव नवान्तो नवति । नान्यथेति गाथार्थः ॥ ॥ प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाह ॥ जं निकमत्तवित्ती, तेण व निरक खवेश जं च अणं ॥ तवसंजमे तवस्सि-त्ति वा वि अन्नो वि पजाउँ ॥ ११॥ व्याख्या ॥ यद्यस्मानिदामात्रवृत्तिर्जिदामात्रेण सर्वोपधाशुझेन वृत्तिरस्येति समासः। तेन वा निकुर्निदणशीलो निकुरिति कृत्वा अनेनैव प्रसंगेन अन्येपामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह। पयति यद्यस्माछा झणं कर्म तस्मात्दपणः। पयतीति क्षपण इति कृत्वा तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपः तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वापि नवति । तपोऽस्यास्तीति कृत्वान्योऽपि पर्याय इत्यन्योऽपि नेदोऽर्थतो निकुशब्द निरुक्तस्येति गाथार्थः॥ ॥ उक्तं निरुक्तद्वारम् । अधुनैकार्थिकछारमाह॥ तिन्ने ताई दविए, वई अखंते श्रदंत विरए अ॥मुणितावसपन्नवगुजु-निरकू बुझे जर विज अ ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ तीर्णवत्तीर्णः विशुद्धसम्यग्दर्शनादिलानानवार्णवमिति गम्यते। तायोऽस्यास्तीति तायी। तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः ।सुपरिझातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः । अव्यं रागोषरहितः।व्रती च हिंसा दिविरतश्च । दान्तश्च दाम्यति क्षमा करोतीति शान्तः। वहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा । एवं दाम्यतीन्डियादिदम करोतीति दान्तः। विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च । मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तपःप्रधानस्तापसः। प्रज्ञापकोऽपवर्गमार्गस्य प्ररूपकः । झजुर्मायारहितः। संयमवान् वा । निकुः पूर्ववत्।बुकोऽवगततत्त्वः। यतिरुत्तमाश्रमी।प्रयत्नवान् वा । वि. छांश्च पएिमतश्चेति गाथार्थः ॥ ॥ तथा ॥ पवश्ए अणगारे, पासंडी चरग वनणे चेव ॥ परिवायगे श्र समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ प्रत्रजितः पापानिष्कान्तः । अनगारो अव्यनावागारशून्यः। पाखंडी पाशाड्डीनः । चरकः पूर्ववत् । त्राह्मणश्चैव विशुब्रह्मचारी चैव । परिव्राजकश्च पापवर्जकश्च । श्रमणः पूर्ववत् । नियंथः संयतो मुक्त इत्येतदपि पूर्ववदेवेति गाथार्थः ॥ ॥ तथा ॥ साह लूहे थ तहा, तीरही हो। चेव नाववो ॥ नामाणि एवमाणि, होंति तवसंजमरयाणं ॥ १४ ॥ व्याख्या ॥ साधूरू दश्च तथेति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः । स्वजनादिपु स्नेहविरहावृक्षः। तीरार्थी चैव लवति ज्ञातव्य इति । तीरार्थी नवार्णवस्य । नामान्येका Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. किन पर्यायानिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि भवन्ति । केषामित्याह । तपःसंयमरतानां जावसाधूनामिति गाथार्थः ॥ ॥ प्रतिपादितमेकार्थिकद्वार मिदानी लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराह ॥ संवेगो निवेगो, विसयविवेगो सुसीलसंसग्गो ॥ - राहणंतवो ना - दंसणचरितविण अ ॥ १५ ॥ व्याख्या ॥ संवेगो मोक्षसुखानिलाषः, निर्वेदः संसारविषयः, विषय विवेको विषयपरित्यागः, सुशीलसंसर्गः शीलवद्भिः संसर्गः, तथा आराधना चरमकाले निर्यापणरूपा, तपो यथाशक्त्यनशनाद्यासेवनम्, ज्ञानं यथावस्थित पदार्थ विषय मित्यादि । दर्शनं नैसर्गिकादि । चारित्रं सामायिकादि । विनयश्च ज्ञानादिविषय इति गाथार्थः ॥ ॥ तथा ॥ खंती अ मद्दवजव, विमुत्तया तद श्री तितिरका ॥ श्रवस्सगपरिसुद्धी, होंति निरकुलिंगाइ ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ क्षान्तिश्चाक्रोशा दिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च । मार्दवार्जव विमुक्ततेति । जात्या दिजावेऽपि मानत्यागान्मार्दवं, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवं, धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा विमुक्तता, तथाशनाद्यलाभेऽप्यदीनता । कुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि ति - तिक्षा, तथा आवश्यकपरिशुद्धिश्चावश्यं करणीययोग निरतिचारता च जवन्ति निकोनवसाधोर्लिङ्गान्यनन्तरोदितानि संवेगादीनीति गाथार्थः ॥ ॥ व्याख्यातं लिङ्गद्वारमवयवद्वारमाह ॥ श्रघ्नयणगुणी निक्कू, न सेस इइ णो पइन्न को देऊ ॥ गुणत्ता देऊ, को दितो सुवन्नमिव ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ अध्ययनगुणी प्रक्रान्ताध्यनोक्त गुणवान् निर्भावसाधुर्भवतीति । तत्स्वरूपमेतत् । न शेषस्तङ्गुणरहित इति नः प्रतिज्ञास्माकं पक्षः । को हेतुः कोऽत्र पक्षधर्म इत्याशंक्याह । अगुणत्वादिति हेतुः । विद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं हेतुरध्ययनगुणशून्यस्य नि त्वप्रतिषेधः साध्य इति । को दृष्टान्तः किंपुनरत्र निदर्शन मित्याशंक्याह । सुवर्णमिव यथा सुवर्णं स्वगुणरहितं सुवर्णं न जवति तद्वदिति गार्यार्थः ॥ ॥ सुवर्णगुणानाह ॥ विसघाइरसायण मंगलच विणिए पयादिणावत्ते ॥ गुरुए अडन कुबे, सुन्ने गुणा जाि ॥ १८ ॥ व्याख्या ॥ विषघाति विषघातनसमर्थ, रसायनं वयस्तम्जनकर्तृ, मंगलार्थं मंगल प्रयोजनं, विनीतं यथेष्टकटकादिप्रकारसंपादनेन । प्रदक्षिणावर्त्तं तप्यमानं प्राद दियेनावर्त्तते, गुरु सारोपेतं यदाह्यं नाग्निना दह्यते । कुथनीयं न कदाचिदपि कुथतीत्येते ऽष्टावनन्तरोदिताः सुवर्णे सुवर्ण विषया गुणा गणितास्तत्स्वरूपकैरिति गा॥ उक्ताः सुवर्णगुणाः सांप्रतमुपनयमाद ॥ चजकारणपरिसुद्ध, कसबेअसतावतालणाए अ ॥ जं तं विसघाइरसायलाई गुणसंजु होइ ॥ १८५ ॥ ॥ व्याख्या ॥ चतुःकारण परिशुद्धं चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः । कथमित्याह । कषबेपानाचे । कषेण बेदेन तापेन ताडनया च यदेवंविधं तद्विषघाति थार्थः ॥ I Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६१७ ॥ यच्चैवं रसायनादिगुणसंयुक्तं जवति । जावसुवर्णं स्वकार्यसाधकमिति गाथार्थः ॥ नूतम् ॥ तं कसिणगुणोवेयं, होइ सुवन्नं न सेसयं जुत्ती ॥ नहि नामरूवमेते - ण एवमगुणो हव निरकू ॥ २० ॥ ॥ व्याख्या ॥ तदनन्तरो दितं कृत्स्नगुणोपेतं संपूर्णगुसमन्वितं जवति सुवर्णं यथार्थं न शेषं कपाद्यशुद्धम् । युक्तिरिति वर्णादिगुणसाम्येऽपि युक्तिसुवर्णमित्यर्थः । प्रकृते योजयति । यथैतत्सुवर्णं न जवति । एवं नहि नामरूपमात्रेण रजोहरणादिसंधारणादिनागुणोऽविद्यमानप्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो जबति निक्षुः । निक्षामन्नपि न जवतीति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह ॥ जुत्ती सुवन्नगं पुण, सुवन्नवन्नं तु जइ वि की रिङ्गा ॥ न हु होइ तं सुवन्नं, सेसेहिं गुणेहिंसंतेहिं ॥ ४२१ ॥ व्याख्या ॥ युक्तिसुवर्णं कृत्रिम सुवर्ण महलोके सुवर्णवर्णं तु जात्यसुवर्णवर्णमपि यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन । तथापि नैव जवति तत् सुवर्णं परमायेन शेपैर्गुणैः कपादि निरस झिरविद्यमानैरिति गाथार्थः ॥ ॥ एवमेव किमित्याह । जे पिया, निकुगुणा तेहि होइ सो निकू ॥ वन्ने जच्चसुवन्नगं व संते गुनिहिंमि || व्याख्या ॥ येऽध्ययने जणिता निकुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्तसमाध्यादयः । तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ निकुर्नामस्थापनाद्रव्य निकुव्यपोहेन जावनिः परिशुद्ध निकावृत्तित्त्वात् । किमिवेत्याह । वर्णेन पीतलक्षणेन जात्यसुवर्णमित्र परमार्थसुवर्ण मित्र सति गुणनिधौ विद्यमानेऽन्यस्मिन् कपादौ गुणसंघाते । एतडुक्तं जवति । यथान्यगुणयुक्तं शोजनवर्णं सुवर्णं नवति तथा चित्तसमाध्या - दिगुणयुक्तो निक्षणशीलो निक्कुर्भवतीति गाथार्थः ॥ ॥ व्यतिरेकतः स्पष्टयति । जो जिरक गुणरहिन, निरकं गिरहइ न होइ सो निरकु ॥ वन्ने जच्चसुवन्नगं व थ स गुण निहिंमि ॥ ४२३ ॥ व्याख्या ॥ यो हि निदुर्गुणरहितः चित्तसमाध्या दिशून्यः सन् मिति । न जवत्यसौ निकुर्भिक्षाटनमात्रेणैवापरिशुद्ध निकावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह । वर्णेन युक्तिसुवर्णमिव । यथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्णं न भवत्यसति गुणनिधौ कपादिक इति गाथार्थः ॥ किंच ॥ उद्दिष्ठकयं मुंजइ, ठक्काय पमद्द घर कुइ ॥ पञ्चकं च जलगए, जो पियइ कहं नु सो निक्कू ॥ ४२४ ॥ व्याख्या ॥ उद्दिश्य कृतं इत्यौदेशिक मित्यर्थः । पट्कायप्रमर्दकः यत्र क्वचन पृथिव्याद्युपमर्दकः गृहं करोति संवत्येवैपणीयालये मूठया वसतिर्नाटकगृहं वा । तथा प्रत्यक्षं चोपलच्यमान एव जलगतानष्कायादीन् यः पिवति तत्त्वतो विनालम्बनेन कथं न्वसौ निकुनैव नाव निक्कु रिति गाथार्थः ॥ ॥ उक्त उपनयः सांप्रतं निगमनमाह ॥ तम्हा जे थप्प्रयणे, निरकुगुतेहिं होइ सो रिकू ॥ तेहिं य सउत्तरगुणेहि होइ सो नावित्र्यतरो ज ॥ ४२५ ॥ व्याख्या ॥ यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव नि ७८ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ शय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-४३-मा. हुगुणा मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणनूतैः सनिनवत्यसो निकुस्तैश्च पुनः सोत्तरगुणैः पिएमविशुद्ध्याद्युत्तरगुणसमन्वितैर्जवत्यसौ नाविततरश्चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ॥क्तो नामनिदेपः । सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । निरकम्म इ. त्यादि । अस्य व्याख्या। निष्क्रम्य अव्यजावग्रहात्प्रवज्यां गृहीत्वेत्यर्थः। याझ्या तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्यां निष्क्रम्य । कि मित्याह ।बुद्धवचने अवगततत्त्वतीर्थकरगणधरवचने नित्यं सर्वकालं चित्तसमाहितश्चित्तेनातिप्रसन्नो नवेत्।प्रवचन एवानियुक्त इति गर्नः । व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह । स्त्रीणां सर्वासत्कार्य निवन्धननूता नां वशं तदायत्ततारूपं नचापि गछेत् । तशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापिवति । . अतो बुधवचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागादनेनैवोपायेनान्योपायासंज वात् । वान्तं परित्यक्तं सहिषयजम्बालं न प्रत्यापिवति न मनागप्यानोगतोऽनाजोगतश्च तत्सेवते यः। स निकुर्नावनिकुरिति सूत्रार्थः ॥ १॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीनदगं न पिए न पित्रावए । अगणि सबंजदा सुनिसिश्र, तं न जले न जलावए जे स निस्कू ॥२॥ (श्रवचूरिः) पृथ्वी सचेतनादिरूपां स्वयं न खनति न खानयत्ति परैरेकग्रहणे तजातीयग्रहणमिति खनन्तमप्यन्यं नानुजानातीत्येवं सर्वत्र योज्यम्। शीतोदकं सचित्तजलं न पिबति स्वयं न पाययति परान् । अग्निः षड्जीवघातकः । किंवदित्याह । शस्त्रं खगादि । तद्यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं तहत् । तं न ज्वालयति स्वयं न ज्वालयति परैर्यः स निकुः । आह । षड्जीव निकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽनिहितः । किं पुनरुच्यते । तमुक्तार्थानुष्ठानपर एव निकुरिति ज्ञापनाय । ततो न दोषः ॥२॥ . (अर्थ.) तेमज पुढवि इत्यादि सूत्र. (जे के ) यः एटले जे ( पुढवि के) पृथिवीं एटले नूमिने पोते (न खणे के) न खनति एटले खोदे नहि.( न ख. णावए के) न खानयति एटले बीजा पासे खोदावे नहि, तथा खोदनारने अनुमोदे नहि. ( सीउदगं के) शीतोदकं एटले सचित्त जल प्रत्ये पोते ( न पिए के ) न पिबति एटले पिये नहि. ( न पियावए के) न पाययति एटले बीजाने पिवरावे नहि, तथा पोते पिनारने अनुमोदे नहि. (सुनिलियं के) सुनिशितं एटले तीक्ष्ण एवा (सहं जहा के) शस्त्रं यथा एटले खङ्गादिशस्त्रसमान एवा (अगणि के ) अग्निं एटले अग्निकाय प्रत्ये पोते (न जले के ) न ज्वालयति एटले Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६२ए सलगावे नहि, ( न जलावए के) न ज्वालयति एटले वीजा पासे सलगावे नहि, तथा सलगावनारने अनुमोदे नहि. (स के०) सः एटले ते ( निस्कू के) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥५॥ (दीपिका.) तथा साधुः पृथ्वीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयम् । नच खानयति परैः । एकग्रहणे तजातीयानामपि ग्रहणात् खनन्तमन्यं नानुजानातीत्येवं सर्वत्र वेदितव्यम् । तथा यः साधुः सचित्तं पानीयं स्वयं न पिवति । नच पाययति परान् । तथा अग्निः षड्जीवनिकायघातकः । किंवत् । यथा सुनिशितमुज्ज्वालितं शस्त्रं जीवघातकं नवेत् । ततस्तमग्निं यः स्वयं न ज्वालयति । परैर्न ज्वालयति । स नूतो निकुर्नवेत् । ननु पड्जीवनिकायादिष्वध्ययनेषु पूर्वोक्तेपु सर्वत्रायमेवाथः कथितः । किमर्थं पुनरपि सनिकुनामाध्ययनेऽपि स एवार्थः प्ररूप्यते । पुनरुक्तिदोषप्रसंगो जायते । अत्रोत्तरमाह । षड्जीवनिकायपालनापर एव निकुरुच्यते ना. न्य इति ज्ञापनार्थं ततो न दोषः ॥२॥ (टीका.) तथा पुढवि ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। पृथिवीं सचेतनादिरूपां न खनति स्वयम्।न खानयति परैः । एकग्रहणेतत्तजातीयग्रहणमिति खनन्तमन्यं न समनुजानात्येवं सर्वत्र वेदितव्यम् । शीतोदकं सचित्तं पानीयं न पिबति स्वयम् । न पाययति परानिति । अग्निः षड्जीवघातकः । किंवदित्याह । शस्त्रं खड्गादि यथा सुनिशित. मुज्ज्वालितं तत् । तं न ज्वालयति स्वयम् । न ज्वालयति परैर्य श्छंनूतः स निकुः। थाह । पड्जीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽनिहितः। किमर्थं पुनरुक्त इत्युच्यते। तमुक्तार्थानुष्ठानपर एव निकुरिति ज्ञापनार्थम् । ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः ॥२॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न विंदे न विंदावए॥ बीआणि सया विवजयंतो, सच्चित्तं नादारए जे स भिकू ॥३॥ (अवचूरिः) शनिलेनानिलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयम् । न वीजयति परैः । हरितानि न छिनत्ति स्वयं न ठेदयति परैः। वीजानि बीह्यादी नि संघटनादिना वर्जयेत् । सचित्तं नाहारयति यः कदाचिदपुष्टासम्बने स निकुः ॥ ३ ॥ (थर्थ.) तेम थनिल इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (थनिलेण ) अनिलेन एटले पवन जेथी उत्पन्न थाय एवा व्यजन ( पंखो), वन्ननो उडो इत्या. दिवडे पोते पोताने (न वीए के ) न वीजयति एटले वीजावे नहि, ( न वीयावए के०) न वीजयति एटले वीजा पाते पोताने वीजावे नहि, तथा बीजारनारने अनु Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३)-मा. मोदे नहि. जे ( हरियाणि के० ) हरितानि पटले हरितकाय प्रये ( न शिंदे ho) न नित्ति एटले कापे नहि, ( न छिंदाबए के० ) न वेदयति एटले बीजा पासे कपावे नहि, तथा पोते कापनारने अनुमोदे नहि. तथा जे ( बीयाणि के० ) बीजानि एटले शालि, गोधूम प्रमुख वीज प्रत्ये (सया के० ) सदा एटले निरंतर ( विवतो के० ) विवर्जयन् एटले संघट्टन, मर्दन प्रमुख न थाय तेवी रीते वर्ज - तो तो ( सचित्तं के० ) सचित्तं एटले सचित्त वस्तु प्रत्ये ( नाहारए के० ) नाहायति एटले आहार करे नहि. ( स के० ) सः एटले ते ( निस्कू के० ) निदुः एटले साधु कवाय बे. ॥ ३ ॥ ( दीपिका . ) तथा योऽनिलेन वायुना वायुहेतुना चेलकर्णादिनात्मादि न स्वयं वीजयति । नापि परैवजयति । तथा हरितानि बालतृणादीनि यः स्वयं न विनत्ति । नच परैबेदयति । तथा यः बीजानि हरितफलरूपाणि व्रीह्यादीनि सदा सर्वकालं विवर्जयेत् संघट्टनादिक्रियया । तथा यः सचित्तं नाहारयति कदाचिदपि सवले कारणेऽपि । स निकुः ॥ ३॥ ( टीका. ) तथा निलेप त्ति सूत्रम् । श्रनिलेना निलहेतुना चेलकर्णादिना न वीजयत्यात्मादि स्वयम् । न वीजयति परैः । हरितानि तृणादीनि न छिनत्ति स्वयम् । न वेदयति परैर्बीजानि हरितफलरूपाणि त्रीह्मादीनि सदा सर्वकालं विवर्जयन् संघटनादिक्रिया सचित्तं नाहारयति । यः कदाचिदप्यपुष्टालम्बनः स निक्कुरिति सूत्रार्थः ॥३॥ वहणं तस्थावराण होइ, पुढवीत एकड निस्सियां ॥ तम्दा देसि न मुंजे, नो वि पर न पयावए जे स निस्कू ॥ ४ ॥ ( अवचूरिः) औ शिका दिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । वधनं त्रसस्थावराणां पृथिवी तृणकाष्ठादिनिश्रितानां जवति तथा समारम्नात् । तस्मादौदेशिकं न मुङ्क्ते । न केवलमेतत् । न पचति स्वयं ब्रीह्यादीनि । न पाचयति परैः । पचन्तमन्यं नानुजानाति स निक्कुः ॥ ४ ॥ (अर्थ) देशिक प्रमुख आहार वर्जवाथी त्रस तथा स्थावर जीवोनी रक्षा कहे . वहणं इत्यादि सूत्र. जे माटे आहार तैयार करता ( पुढवीत एक निस्सि आणं के० ) पृथिवीतृणकाष्ठनिःसृतानां पृथिवी एटले भूमि, तृण एटले घास काष्ठ एटले लाकडां एने आश्रय करी रहेला एवा ( तस्थावराणं के० ) त्रसस्थावराणां एटले त्रस ते बेरिंडी प्रमुख ने स्थावर ते एकेंद्रिय जीव तेमनी ( वहणं Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६२१ के० ) वधनं एटले हिंसा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते माटे ( जे के० ) यः एटले जे साधु ( उदेसियं के० ) हे शिकं एटले साधुने पानी श्वाथी करेला श्राहारादिकने ( न गुंजे के० ) न मुझे एटले क्षण करे नहि. तथा ( नो वि पए के० ) नापि पचति एटले पोते रांधे पण नहि, तेमज ( न पयावर के० ) न पाचयति एटले रंधावे पण नहि. तेमज रांधनारने अनुमोदे नहि. ( स के० ) सः एटले ते (निरकू के० ) निक्कुः एटले साधु कहेवाय ठे. ॥४॥ (दीपिका) देशिका दिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । यस्मात् कृतौtaarat सस्थावराणां त्रसानां द्वीन्द्रियादीनां स्थावराणां च पृथिव्यादीनां जीवानां वनं हननं जवति । किं० त्रसस्थावराणाम् । पृथिवीतृणकाष्ठ निःसृतानाम् । तथा समारम्नात् । यस्मादेवं तस्मात्कारणादौदेशिकं कृतादि । श्रन्यच्च सावद्यं यो न मुझे । न केवलमेतत् । किंतु । यः स्वयं न पचति । नाप्यन्यैः पाचयति । नाप्यन्यं पाचयन्तं समनुजानाति । स निक्षुः ॥ ४ ॥ ( टीका. ) ौदेशिका दिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह । वहणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । वधनं हननं त्रसस्थावराणां द्वीन्द्रियादिपृथिव्यादीनां नवति कृतौद्देशिके । किं विशिष्टानाम् । पृथिवी तृणकाष्ठनिःसृतानां तथा समारम्नात् । यस्मादेवं तस्मादौदेशिकं कृताद्यन्यच्च सावद्यं न भुङ्क्ते । न केवलमेतत् । किंतु । नापि पचति स्वयम् । न पाचयति परैर्न पचन्तमनुजानाति यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ रोइ नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्नि वप्पि काए ॥ पंच य फासे महवयाई, पंचासवसंवरे जे स निकू ॥ ५ ॥ ( यवचूरिः ) रोचयित्वा विधिग्रहणजावनाच्यां प्रियं कृत्वा ज्ञातपुत्रवचनमात्मसमानान्मन्यते पडपि कायान् पृथिव्यादीन् । चशब्दोऽप्यर्थः । पञ्चापि स्पृशति सेवते महाव्रतानि पञ्चाश्रवसंवृतश्च यः स निकुरिति ॥ ५ ॥ ( अर्थ. ) वली रोश्य इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( नायपुत्तत्रयणे के० ) ज्ञातपुत्रवचनं एटले श्री महावीर खामीना वचन प्रत्ये ( रोश्थ के० ) रोच यित्वा एटले विधिपूर्वक ग्रहण प्रमुख करवायी पोताने प्रिय एवं करीने ( पंचासवसंवरे के० ) पञ्चावसंवृतः एटले पांच द्रव्यंद्रियोने वशमां राखनारा एवाथया उता (उप्पि के० ) पडपि एटले ठए ( काए के० ) कायान् एटले जीवनिकाय प्रत्ये ( यत्तसमे के० ) श्रात्मसमान् एटले पोताना जीव सरखा एवा (मन्निक Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ राय धनपतसिंघ बहाएरका जैनागमसंग्रद्, नाग तेतालीस (४३) - मा. के० ) मन्यते एटले माने, ( य के० ) च एटले वली ( पंच के० ) पञ्च एटले प्राणातिपातविरमण प्रमुख पांच ( महवयाई के० ) महात्रतानि एटले महाव्रत प्रत्ये ( फासे के० ) स्पृशति एटले सेवे. ( स के० ) सः एटले ते ( निस्कू के० ) निदुः एटले साधु कवाय . ॥ ५ ॥ ( दीपिका. ) यः साधुः पडपि ष्टथिव्यादिजीवनिकायानात्मसमान् मन्यते । किं कृत्वा । ज्ञातपुत्रवचनं रोचयित्वा । ज्ञातपुत्रो महावीरदेवस्तस्य वचनं विधिग्रहणासेवनाच्यां प्रियं कृत्वा । पुनर्यः पञ्चापि महात्रतानि स्पृशति सेवते । पुनर्यः पञ्चाश्रवसंवृतो जवेत् । स निक्कुः ॥ ५ ॥ ( टीका. ) किंच | रोइ त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । रोचयित्वा विधिग्रहणनावप्रियं कृत्वा । किं तदित्याह । ज्ञातपुत्रवचनं जगवन्महावीरवर्धमानवचनम् । श्रात्मसमानात्मतुल्यान्मन्यते षडपि कायान् पृथिव्यादीन् । पञ्च चेति च शब्दोऽप्यर्थः पञ्चापि स्पृशति सेवते महाव्रतानि । पञ्चास्रवसंवृतश्च द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स निक्कुरिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी दविऊ बुध्वयले ॥ प्रदणे निकायरूवरयए, गिदिजोगं परिवकए जे स निकू ॥ ६ ॥ ( अवचूरिः ) चतुरः क्रोधादीन् कषायान् वमति तत्प्रतिपक्षसेवनेन । ध्रुवयोगी चोचितयोगair wala । बुद्धवचन इति तृतीयार्थे सप्तमी । धनश्चतुष्पदादिरहितः । निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्यः । गृहियोगं मूर्खया गृहस्थसंबन्धं परिवजयति यः । स निक्कुरिति ॥ ६ ॥ ( अर्थ. ) वली चत्तारि इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( चत्तारि के० ) चतुरः एटले क्रोध प्रमुख चार ( कसाए के० ) कषायान् एटले कषाय प्रत्ये (सया ० ) सदा एटले सर्व काल ( वमे के० ) वमति एटले त्याग करे. वली जे (बुवय के० ) बुद्धवचने एटले तीर्थकरना वचनने निषे ( धुवजोगी के० ) ध्रुवयोगी एटले निश्चल योगवाला अर्थात् आगम वचनने अनुसरीने मन वचन कायाना योग स्थिर राखनारा, ( अह के० ) अधनः एटले चोपगा जानवर प्रमुख धनवडे रहित एवा, ( निकायरूवरयए के० ) निर्जातरूपरजतः एटले सोनुं तथा रूपुं विगेरेनो त्याग करनारा एवा ( दविज के० ) जवति एटले होय बे. तेमज जे ( गिहिजोगं के० ) गृहियोगं एटले मूथी गृहस्थनी साथे जे परिचय तेने ( परिवऊए Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशमाध्ययनम् । ६२३ के ) परिवर्जयति एटले सर्व प्रकारे बोडे. ( स के ) सः एटले ते ( जिस्कू के ) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥ ६ ॥ (दीपिका.) किंच । यः साधुश्चतुरः क्रोधादीन् कषायान सदा सर्वकालं वमति यजति । पुनर्यो ध्रुवयोगी जवति। नचितनित्ययोगवान् स्यात् । केन । बुद्धवचनेन तीर्थकरवचनेन करणजूतेन । तृतीयार्थे सप्तम्यत्र । किंचूतः साधुः । अधनः । चतुष्पदादिरहितः। पुनः किंनूतः साधुः । निर्जातरूपरजतः । निर्गतवर्णरूप्य इति नावः । पुनर्यो गृहियोगं मूर्बया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः । स निकुः ॥६॥ (टीका.) किं च चत्तारि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । चतुरः क्रोधादीन् वम. ति तत्प्रतिपदाच्यासेन सदा सर्वकालं कषायान् । ध्रुवयोगी चोचितनित्ययोगवांश्च नवति । बुझ्वचन इति तृतीयार्थे सप्तमी । तीर्थकरवचनेन करणनूतेन ध्रुवयोगी जवति यथागममेवेति जावः । अधनश्चतुष्पदादिरहितः। निर्जातरूपरजतो निर्गतसुवर्णरूप्य इति नावः। गृहियोगं मूर्बया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ सम्मदिछी सया अमूढे, अबिदु नाणे तवे संजमे अ॥ तवसा धुण पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुमे जे स निकू ॥ ७ ॥ (श्रवचूरिः ) सम्यग्दृष्टिः सदाविप्लुतः सन्नेवं मन्यते । अस्ति ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्छियेष्वपि । तपश्च बाह्यान्यन्तररूपम् । संयमो नवकर्मानुपादानरूपः। श्वं च दृढनावस्तपसा धुनोति पुराणं पापं मनोवाकायसुसंवृतो यः । स निकुरिति ॥ ७॥ (अर्थ.) तेमज सम्मदिही इत्यादि सूत्र. (जे के ) यः एटले जे (सम्मदिछी के) सम्यग्दृष्टिः एटले नावसम्यक्त्वदृष्टि एवा तथा ( सया के०) सदा एटले निरंतर (अमूढे के०) अमूढः एटले को प्रकारनो पण चित्तमां विदेप न राखनारा एवा थया बता एम माने. शुं माने ते कहे . (हु के०) निश्चये (नाणे के०) झानं एटले हेय तथा उपादेय वस्तु संबंधी ज्ञान, (तवे के) तपः एटले कर्मरूप मल धो नाखवाने शुद्ध जलसमान एवं तप (अ के ) च एटले वली ( संजमे के ) संयमः एटले जेथी नवं कर्मबंधन न थाय एवो संयम (अनि के) श्रस्ति एटले जे. एम जे माने. तथा ( मणवयकायसुसंवुमे के०) मनोवचनकायसुसंवृतः एटले मनोगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रणे गुप्तिने बरावर साचवनारा Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. एवा जे ( तवसा के) तपसा एटले तपस्या वडे ( पुराणपावगं के०) पुराणपापकं एटले पूर्व उपार्जन करेला पाप कर्मने (धुण के०) धुनोति एटले यात्मप्रदेशमाथी खंखेरी नाखे, ( स के०) सः एटले ते (जिस्कू के) निकुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥७॥ . (दीपिका.) पुनराह । यः साधुः सम्यग्दृष्टिः नावसम्यग्दर्शनी । पुनः सदामूढः सदाविप्लुतः सन्नेवं मन्यते । अस्त्येव झानं हेयोपादेय विषयमतीन्डियेष्वपि । तथा तपश्च अस्त्येव बाह्यान्यन्तरकर्ममलापयने पानीयसदृशम् । तथा संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः । श्वं च दृढनावो यस्तपसा धुनोति पुराणं पापं नावसारया प्रवृत्या । पुनर्यो मनोवचनकायेषु संवृतः। कोऽर्थः। तिस्मृनिर्गुप्तिनिर्गुप्तः । स निकुः ॥७॥ (टीका.) तथा सम्म दिहि त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । सम्यग्दृष्टिविसम्यगदर्शनी सदा अमूढोऽविप्लुतः सन्नेवं मन्यते। अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेय विषयमतीन्छियेष्वपि । तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पम् । संयमश्च नवकर्मानुपादानलदणः । श्वं च दृढनावस्तपसा धुनोति पुराणपापं नावसारया प्रवृत्त्या मनोवाकायसंवृतस्तिमृनिमुतिनिर्गुप्तो यः। स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ तदेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लनित्ता ॥ दोदी अहो सुए परे वा, तं न निदे न निदावएजे स निरकू ॥७॥ (अवचूरिः) तथैवेति पूर्वर्षि विधानेन । अशनं पानं वा। विविधमनेकप्रकार खाद्यं खायं लब्ध्वा प्राप्य नविष्यत्यर्थः कार्य श्वःपरश्वो वेति तदशनादि न निधत्ते न स्थापयति । न निधापयत्यन्यैः। स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा सन्निधिपरित्यागवान् । स निकुरिति ॥ ७ ॥ (अर्थ.) वली तहेव इत्यादि सूत्र. ( तहेव के ) तथैव एटले तेमज (जे के) यः एटले जे ( असणं के०) अशनं एटले अशन, (पाणगं के) पानकं एटले पीवाय एवी जल प्रमुख वस्तु, (वा वि के०) वापि एटले तेमज (विविहं के०) विविधं एटले विविध प्रकारचें (खाश्म के०) खाद्यं एटले खाद्य वस्तुप्रत्ये अने (साश्मं के०) स्वायं एटले स्वादिम प्रत्ये (ललित्ता के०)लब्ध्वा एटले पामीने (सुए के०) श्वः एटले आवती काले (वा के० ) अथवा (परे के ) परश्वः एटले परम दिवसे (अहो के ) अर्थः एटले प्रयोजन (खप) ( होही के०) नविष्यति एटले थशे. एम विचारी (तं के ) तत् एटले ते अशन प्रमुख चार प्रकारना आहार प्रत्य Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. कान् । मुङ्क्ते स्वात्मतुल्यत्वात् वात्सल्य सिद्धेः । मुक्त्वा च स्वाध्यायरतश्च जवेत् । चशव्दाष्ठेषानुष्ठानपरश्च स्यात् । स निक्षुः ॥ ए ॥ ( टीका.) किंच । तदेव त्ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । तथैवाशनं पानं च विविधं खाद्य स्वाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत् । लब्ध्वा किमित्याह । बन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून ते स्वात्मतुल्यतया तद्वात्सल्य सिद्धेः । तथा मुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः । चशब्दाच्छेषानुष्ठानपरश्च यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ ए ॥ न य बुग्गदि करूं कहिका, न य कुप्पे निदुईदिए पसंते ॥ संजमधुवजोगजुत्ते, नवसंते नवदेडए जे स निकू ॥ १० ॥ ( श्रवचूरिः ) न च वैग्रहिकीं कलहसंबद्धां कथां कथयति । सद्वादकथादिध्वपि न कुप्यति परस्य । श्रपितु निनृतेन्द्रियोऽनुद्धतेन्द्रियः । प्रशान्तोऽस्तरागादिः । संयमे ध्रुवं योगेन मनोवाग्योगलक्षणेन युक्तः । उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः । श्रविदेवको न क्वचिदौचित्येऽनादरवान् यः स निकुरिति ॥ १० ॥ यः एटले जे ( दुग्गहि ( अर्थ. ) वली साधुना अधिकारमांज कहे बे. एय के० ) वैग्रहिकीं एटले कल दवा कथा प्रत्ये ( न य क हिसा के० ) नच वात करता पण जे (नय कुप्पे के० ) नच कुट दुईदिए के० ) निचृतेन्द्रियः एटले जेमना इंडि शान्तः एटले राग द्वेषादिवडे रहित एवा, (सं गयुक्तः एटले संयमने विषे सर्वकाल मन वचन वा, ( उवसंते के० ) उपशान्तः एटले आकुलता विदेवकः एटले उचित कार्यो अनादर न क टले ते ( रिकू के० ) निक्षुः एटले साधु कव ( दीपिका . ) श्रथ निकुल क्षणाधिकार एवाद वहां कथां न कथयति । पुनर्यः समादकया दिष्व निनृतेन्द्रियोऽनुद्धतेन्द्रियो नवे मे पूर्वोक्तस्वरूपे भुवं सर्वकालं मौचित्येन प्रवृत्तः । तथा य सूत्र. (जे के० ) ) कथां ए सारी ( नि ०) प्र Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .............. दशवकालिके दशममध्ययनम्। . . ६२५ (न निदे के०) न निधत्ते एटले राखी मूके नहि. तेमज (न निहावए के०) न निधापयति एटले बीजा पासे रखावे नहि. ( स के ) सः एटले ते (जिस्कू के) निनुः एटले साधु कहेवाय .॥७॥ (दीपिका.) किंच। तथैव पूर्वसाधुवत ।अशनं पानकं च पूर्वोक्तस्वरूपम्। तथा विविधमनेकप्रकारं खाद्यं स्वायं च पूर्वोक्तस्वरूपमेव । लब्ध्वा प्राप्य । किमित्याह । ज... विष्यत्यर्थः प्रयोजनमनेनेति श्वः परश्वो वेति तदशनादि न निधत्ते न स्थापयति स्वयम् । तथा न निधापयति न स्थापयति अन्यैः । तथा स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स नितुः ॥ ७ ॥ (टीका.) तहेव असणं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तथैवेति पूर्वर्षिविधानेन । अशनं पानं च प्रायुक्तस्वरूपम् । तथा विविधमनेकप्रकारं खाद्यं खाद्यं च प्रागुंक्तस्वरूपमेव लब्ध्वा प्राप्य । किमित्याह ।नविष्यत्यर्थःप्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तदश:: नादि न निधत्ते न स्थापयति खयम् । तथा न निधापयति न स्थापयत्यन्यैः। स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स निकुरिति सूत्रार्थः॥७॥ : .. तदेव असणं पाणगं वा, विविहं खाश्मसाइमं लनित्ता॥ बंदिअ सादम्मिआण मुंजे, नुच्चा सप्लायरए जे स निस्कू ॥॥ . (अवचूरिः) तथैवासनादिकं लन्नेत प्राप्नुयात् । बन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून् जुते । जुक्त्वा च स्वाध्यायरतश्च यः स निकुरिति ॥ ए॥ . . (अर्थ.) वली तहेव इत्यादि सूत्र. (तहेव के०) तथैव एटले तेमज (जे के) यः एटले जे (असणं के) अशनं एटले अशन, (पाणगं के) पानकं एटले पान,' . (वावि के०) वापि एटले तेमज (विविहं के०) विविधं एटले अनेक प्रकारनुं (खाश्म के०) खाद्यं एटले खादिम अने (साश्मं के०) वाद्यं एटले खादिम प्रत्ये: (लनित्ता के) लब्ध्वा एटले पामीने (साहम्मिाण के) समानधार्मिकान् एटले बीजा साधु प्रत्ये (दिश के०) बंदित्वा एटले बुलावीने पढ़ी (झुंजे के०) जुते ए. टते. जोजन करे. अने (जुच्चा के०) जुक्त्वा एटले जोजन करीने (सप्लायरए के) खाध्यायरतः एटले स्वाध्याय करवामां तत्पर थाय, (स के०) सः एटले ते ( जि-. स्कू के०) निकुः एटले. साधु कहेवाय जे. ॥ ए॥. (दीपिका.) किंच। तथैव यः साधुः अशनं पानं च विविधं खाद्यं वाद्यं च सब्ध्वा इत्या दिव्याख्या पूर्ववत् । लब्ध्वाः किमित्याह । वन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मि-: Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... : दशवकालिके दशममध्ययनम्।.. . २ ऽविहेठकः न कचिडचितेऽनादरवान् । न क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये। नूतः स निनुः ॥१०॥ (टीका.) निनुलक्षणाधिकार एवाह । नय त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। न च वैग्रहिकी कलहप्रतिबद्धां कथां कथयति ।सबादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्यापितु निजृतेन्जियोऽनुसतेन्द्रियः प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्ते ध्रुवं सर्वकालं योगेन वाङ्मनःकायलक्षणेन योगेन युक्तो योगयुक्तः प्रतिन्नेदमौचित्येन प्रवृत्तेः । तथा उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः। अविहेठकः न कचिपचितेऽनादरवान् । क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । य श्वंभूतः स निहुरिति सूत्रार्थः ॥१॥ जो सहरहु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणा अ॥ जयनेरवसहसप्पदासे, समसुददुकसदे अ जे स निस्कू ॥ ११ ॥ . (श्रवचूरिः) यः सहते ग्रामा इन्द्रियाणि तदुःखहेतून् कंटकान् । तानेवाह । .. आक्रोशान् जकारादिनिः ।प्रहारान् कशादिनिः। तर्जनामसूयादिभिः । नैरवनया अत्यन्तजयानकाः शब्दाः सप्रहासा यत्र स्थान इति गम्यम् । वेतालादिकृतार्तनादाहहास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखपुःखसहश्च योऽचादितसामायिकनावः स निकुरिति ॥ ११॥ . __ (अर्थ.) वली जो सहश् श्त्यादि सूत्र. (जो के०) यः एटले जे ( गामकंटए के०) ग्रामकंटकान् एटले जियोने कंटक समान फुःखना आपनार एवा (अकोसपहारतजणा के०) श्राक्रोशप्रहारतर्जनाः एटले आक्रोश ते तुकारी वचन, प्र. हार ते कशा ( चाबक) प्रमुख वडे ताडना अने तर्जना ते मत्सरना वचन प्रत्ये (श्र के०) च एटले वली (नयनेरवसदसप्पहासे के० ) नैरवनयशब्दप्रहासे एटले अतिशय श्राकरा नयने उपजावनारा, अट्टहास सहित एवा वेतालादिकना शब्द ज्यां एवा स्थानकने विषे ( जे के०) यः एटले जे (समसुहपुरकसहे के) संमसुखपुःखसहः एटले समताथी सुखपुःखने समान गणनारा एवा होय. (स के) सः एटले ते ( जिस्कू के) निकुः एटले साधु कहेवाय जे. ॥ ११॥ . - (दीपिका.) किंच । यः साधुः सम्यक् ग्रामकंटकान् सहते । ग्रामा इन्द्रियाणि तेषां उःखहेतवः कंटकास्तान्।खरूपत एवाह।थाक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्र आक्रोशा जकारादिनिः। प्रहाराः कशादिनिः। तर्जना असूयादिनिः । तथा लेरवजया अत्यन्त जनयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६श राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कान् । जुते खात्मतुल्यत्वात् वात्सल्य सिद्धेः । जुक्त्वा च स्वाध्यायरतश्च भवेत् । चश: ब्दाछेषानुष्ठानपरश्च स्यात् । स निकुः ॥ ए॥ (टीका.) किंच।तहेव त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या। तथैवाशनं पानं च विविधं खायं खाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत् । लब्ध्वा किमित्याह । नन्दित्वा निमन्त्र्य समानधामिकान् साधून नुक्ते खात्मतुल्यतया तहात्सल्य सिद्धेः । तथा नुक्त्वा खाध्यायरतश्च यः। चशब्दालेषानुष्ठानपरश्च यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥५॥ न य वुग्गदिअं कहं कदिजा, न य कुप्पे निदुईदिए पसंते॥ .. संजमधुवजोगजुत्ते, जवसंते नवंदेडए जे स निकू ॥१०॥ (श्रवचूरिः) न च वैग्रहिकी कलहसंबछां कथां कथयति । समादकथादिवपि न कुप्यति परस्य । अपितु निजूतेन्जियोऽनुकतेन्जियः । प्रशान्तोऽस्तरागादिः। संयमे ध्रुवं योगेन मनोवाग्योगलक्षणेन युक्तः । उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः। अविदेठको न कचिदौचित्येऽनादरवान् यः स निकुरिति ॥१०॥ (अर्थ.) वली साधुना अधिकारमांज कहे बे. णय इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे (वुग्गहिरं के०) वैग्रहिकी एटले कलहवाली (कहं के०) कथां एटले कथा प्रत्ये (न य कहिजा के०) नच कथयति एटले कहे नहि. तेमज सारी वात करता पण जे (नय कुप्पे के०) नच कुप्यति एटले कोप न करे. पण जे (नि. हुइंदिए के) निवृतेन्जियः एटले जेमना इंजियो उहत नथी एवा, (पसंते के०) प्र. शान्तः एटले राग केषादिवडे रहित एवा, (संजमधुवजोगजुत्ते के०) संयमध्वयोगयुक्तः एटले संयमने विषे सर्वकाल मन वचन कायाए उचित प्रवृत्ति करनारा ए. वा, (उवसंते के) उपशान्तः एटले आकुलतारहित एवा तथा (अविहेडए के०) अविहेठकः एटले उचित कार्यनो अनादर न करनार एवा होय. ( स के) सः एटले ते ( जिस्कू के ) निनुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥१०॥ __ (दीपिका.) अथ निनुलक्षणाधिकार एवाह । यः साधुग्रहिकी कलहप्रतिवहां कथां न कथयति । पुनर्यः सहादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्य । अपितु यो निनृतेन्जियोऽनुकतेन्जियो नवेत् । पुनर्यःप्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्तस्वरूपे ध्रुवं सर्वकालं योगेन कायवाग्मनःकर्मलक्षणेन युक्तः प्रतिजेदमोचित्येन प्रवृत्तः । तथा य उपशान्तः श्रनाकुलः कायचापलादिरहितः। पुनयो। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६०७ ऽ विदेवकः न कचिडुचितेऽनादरवान् । न क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । इतंभूसः स निक्षुः ॥ १० ॥ ( टीका. ) निक्कुल क्षणाधिकार एवाह । नयति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । न च वैदिक कलप्रतिबद्धां कथां कथयति । सद्वादकयादिष्वपि न कुप्यति परस्यापितु निनृतेन्द्रियो ऽनुद्धतेन्द्रियः प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्ते भुवं सर्वकालं योगेन वाङ्मनः कायलक्षणेन योगेन युक्तो योगयुक्तः प्रतिनेदमौचित्येन प्रवृत्तेः । तथा उपशान्तोऽनाकुखः कायचापला दिरहितः । श्रविदेवकः न कचिपुचितेनादरवान् । क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । य इयंभूतः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ जो सदा हु गामकंटए, अक्कोस पहारतजणा ॥ नयनेरवसद्दसप्पहासे, समसुददुरकसदे या जे स निस्कू ॥ ११ ॥ ( श्रवचूरिः ) यः सहते ग्रामा इन्द्रियाणि तद्दुःखहेतून् कंटकान् । तानेवाद | क्रोशान् जकारादिनिः । प्रहारान् कशादिनिः । तर्जनामसूयादिनिः । नैरवजया अत्यन्तजयानकाः शब्दाः सप्रहासा यत्र स्थान इति गम्यम् । वेताला दिकृतार्त्तनादाहदास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखदुःखसदश्च योऽचालितसामायिकनावः स निक्षुरिति ॥ ११ ॥ ( श्रर्थ. ) वली जो सहर इत्यादि सूत्र ( जो के० ) यः एटले जे ( गामकंटए ho ) ग्रामकंटकान् एटले इंडियाने कंटक समान दुःखना थापनार एवा ( कोसपहारतऊणार्ड के० ) श्राक्रोशप्रहारतर्जना: एटले याक्रोश ते तुतकारी वचन, प्र दार ते कशा ( चावक ) प्रमुख वडे ताडना थने तर्जना ते मत्सरना वचन प्रत्ये ( व के० ) च एटले वली ( जय नेरवसदसप्पहासे के० ) नैरवजयशब्दप्रहासे पटले अतिशय चाकरा जयने उपजावनारा, अहदास सहित एवा वेतालादिकना शब्द ज्यां के एवा स्थानकने विषे ( जे के० ) यः एटले जे ( समसुकसदे के० ) समसुख दुःखसद्ः एटले समताथी सुखदुःखने समान गणनारा एवा होय. ( स के० ) सः एटले ते ( चिरकृ के० ) निक्षुः एटले साधु कद्देवाय ते ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) किंच । यः साधुः सम्यक् ग्रामकंटकान् सहते । याना इन्द्रियाणि तेषां दुःखहेतवः कंटकास्तान् । खरूपत एवात् । याक्रोशान् प्रदारान् वर्जनाचेति । तत्र थाक्रोशा जकारादिनिः । प्रदाराः कशादिनिः । तर्जना यस्यादिनिः । तथा रवजया थत्यन्तरौऽजयजनकाः शब्दाः सप्रदासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । ! Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहराय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कान् । जुङ्क्ते खात्मतुल्यत्वात् वात्सल्य सिझेः । चुक्त्वा च खाध्यायरतश्च जवेत् । चशब्दाछेषानुष्ठानपरश्च स्यात् । स निकुः ॥ ए॥ (टीका.) किंच।तहेव त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या। तथैवाशनं पानं च विविधं खायं खाद्यं च लब्ध्वेति पूर्ववत् । लब्ध्वा कि मित्याह । ठन्दित्वा निमन्त्र्य समानधार्मिकान् साधून जुङ्क्ते खात्मतुल्यतया तहात्सल्यसिझेः । तथा जुक्त्वा खाध्यायरतश्च यः। चशब्दाछेषानुष्ठानपरश्च यः । स निकुरिति सूत्रार्थः॥ए॥ न य बुग्गदिश्र कहं कहिका, न य कुप्पे निदुईदिए पसंते॥ . .. संजमधुवजोगजुत्ते, उवसंते नवंदेडए जे स निरकू ॥१०॥ (श्रवचूरिः) न च वैग्रहिकी कलहसंबझां कथां कथयति । समादकथादिध्वपि न कुप्यति परस्य । अपितु निनृतेन्जियोऽनुकतेन्जियः। प्रशान्तोऽस्तरागादिः। संयमे ध्रुवं योगेन मनोवाग्योगलक्षणेन युक्तः । उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः । अविहेठको न कचिदौचित्येऽनादरवान् यः स निकुरिति ॥१०॥ - (अर्थ.) वली साधुना अधिकारमांज कहे बे. णय इत्यादि सूत्र. (जे के) यः एटले जे (बुग्ग हिअं के०) वैग्रहिकी एटले कलहवाली (कहं के०) कथां ए. टले कथा प्रत्ये (न य कहिजा के०) नच कथयति एटले कहे नहि. तेमज सारी वात करता पण जे (नय कुप्पे के०) नच कुप्यति एटले कोप न करे. पण जे (निहुईदिए के०) निवृतेन्जियः एटले जेमना इंजियो उहत नथी एवा, (पसंते के०) प्र. शान्तः एटले राग द्वेषादिवडे रहित एवा, ( संजमधुवजोगजुत्ते के०) संयमध्रुवयोगयुक्तः एटले संयमने विषे सर्वकाल मन वचन कायाए उचित प्रवृत्ति करनारा एवा, (जवसंते के०) उपशान्तः एटले आकुलतारहित एवा तथा (अविदेडए के) अविहेठकः एटले उचित कार्यनो अनादर न करनार एवा होय. (स के०) सः एटले ते ( जिस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥ १० ॥ (दीपिका.) श्रथ निकुलदणाधिकार एवाह । यः साधुग्रहिकी कलहप्रतिबजा कथां न कथयति । पुनर्यः सहादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्य । अपितु यो निनृतेन्छियोऽनुछतेन्जियो नवेत् । पुनर्यःप्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्तस्वरूपे ध्रुवं सर्वकालं योगेन कायवाग्मनःकर्मलक्षणेन युक्तः प्रतिजेदमौचित्येन प्रवृत्तः । तथा य उपशान्तः अनाकुलः कायचापलादिरहितः। पुनया। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दशवकालिके दशममध्ययनम्।.. विदेठकः न कचिडचितेऽनादरवान् । न क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये। श्छन्नूसः स निनुः ॥१०॥ .. (टीका.) निनुलक्षणाधिकार एवाह । नय त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। न च वैग्रहिकी कलहप्रतिबछा कथां कथयति । सहादकथादिष्वपि न कुप्यति परस्यापितु निजूतेन्जियोऽनुकतेन्जियः प्रशान्तो रागादिरहित एवास्ते । तथा संयमे पूर्वोक्ते ध्रुवं सर्वकालं योगेन वाङ्मनःकायलक्षणेन योगेन युक्तो योगयुक्तः प्रतिन्नेदमौचित्येन प्रवृत्तेः । तथा उपशान्तोऽनाकुलः कायचापलादिरहितः। अविहेठकः न कचिकुचितेऽनादरवान् । क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये । य श्वंचूतः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥१॥ जो सहरहु गामकंटए, अकोसपदारतज्जणा ॥ .... जयनेरवसदसप्पदासे, समसुददुरकसदे अ जे स निकू ॥ ११ ॥ . (श्रवचूरिः) यः सहते ग्रामा इन्द्रियाणि तदुःखदेतून् कंटकान् । तानेवाह । आक्रोशान् जकारादिभिः ।प्रहारान् कशादिनिः। तर्जनामसूया दिनिः । नैरवनया अत्यन्तनयानकाः शब्दाः सप्रहासा यत्र स्थान इति गम्यम् । वेतालादिकृतार्तनादाहहास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखःखसहश्च योऽचालितसामायिकनावः स निकुरिति ॥ ११॥ . (श्रर्थ.) वली जो सहश् इत्यादि सूत्र. (जो के० ) यः एटले जे ( गामकंटए के ) ग्रामकंटकान् एटले इंजियोने कंटक समान फुःखना आपनार एवा (श्रको सपहारतजणा के०) आक्रोशप्रहारतर्जनाः एटले आक्रोश ते तुकारी वचन, प्र. हार ते कशा (चाबक) प्रमुख वडे ताडना अने तर्जना ते मत्सरना वचन प्रत्ये (श्र के०) च एटले वली (जयन्नेरवसदसप्पहासे के ) जैरवनयशब्दप्रहासे एटले अतिशय श्राकरा नयने उपजावनारा, अट्टहास सहित एवा वेतालादिकना शब्द ज्यां डे एवा स्थानकने विषे (जे के०) यः एटले जे (समसुहजुरकसहे के०) स. मसुखफुःखसहः एटले समताथी सुखःखने समान गणनारा एवा होय. (स के०) सः एटले ते ( निस्कू के०) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥ ११ ॥ . - (दीपिका.) किंच । यः साधुः सम्यक् ग्रामकंटकान् सहते । ग्रामा इन्द्रियाणि तेषां पुःखहेतवः कंटकास्तान्।खरूपत एवाह। थाक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्र श्राक्रोशा जकारादिनिः । प्रहाराः कशादिनिः । तर्जना असूयादिनिः । तथा जैरवजया अत्यन्तरौअजयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तथा तस्मिन् । वेतालादिकृतार्तनादाहहास इत्यर्थः । अत्र उपसर्गेषु सत्सुः समसुखमुःखसहश्च योऽचलितसमताजावः स निकुः ॥ ११ ॥ “(टीका.) किंच । जो सहश् ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। यः खलु महात्मा सहते सम्यग्ग्रामकंटकान् । ग्रामा इन्द्रियाणि तदुःखहेतवः कंटकास्तान् । स्वरूपंत एवाह । आक्रोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्राकोशो यकारादिनिः । प्रहाराः कशादिनिः। तर्जना असूया दिनिः। तथा जैरवनया अत्यन्तरोनयजनकाः शब्दाः संप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते । तत्तथा तस्मिन् । वेतालादिकृतार्तनादाहहास इत्यर्थः । अत्रोपसर्गेषु सत्सु समसुखकुःखसहश्च यः अचलितसामायिकनावःस निकुरिति सूत्रार्थः ॥११॥ पडिमं पडिवकिआ मसाणे, नो नायए जयनेरवाई दिअस्स ॥ विविदगुणतवोरए अनिच्चं, न सरीरं चानिकंखए जे स निस्कू ॥१२॥ (अवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य स्मशानेऽपि। न बिति जयं न याति । जैरवजयानि दृष्ट्वा विविधगुणतपोरतः। नित्यं मूलगुणाघनशनादिसक्तश्च न शरीरमनिकालते निःस्पृहतया वार्त्तमानिकं नावि च य छनूतः स निकुरिति ॥१५॥ . . (अर्थ.) एज स्पष्ट करे . पडिमं इत्यादि सूत्र. (जे के) यः एटले जे (मसाणे के ) स्मशाने एटले स्मशानने विषे (पडिमं के०) प्रतिमां एटले मास प्रमुख अवधिवाली प्रतिमा प्रत्ये (पडिवडिया के प्रतिपद्य एटले विधि माफक अंगीकार करी रह्या पबी ( जयन्नेरवाई के०) नयनैरवानि एटले घणा नयने उत्पन्न करनार एवा वेताल प्रमुखना रूपादिक प्रत्ये ( दिअस्स के०) दृष्ट्वा एटले जोश्ने (नो नायए के) नो बिनेति एटले जय न पामे. (श्र के) च एटले वली ( निचं के) नित्यं एटले नित्य (विविहगुणतवोरए के) विविधगुणतपोरतः एटले मूलगुण प्रमुख विविध प्रकारना गुण अने उपवास प्रमुख तपस्याने विषे रत ए. वा जे (सरीरं के०) शरीरं एटले शरीरनी पण (न अनिकंखए के) नानिकाइते एटले आकांदा, श्वा, स्पृहा राखे नहि, अर्थात् शरीर उपर बिलकूल ममता राखे नहि. ( स के) सः एटले ते (जिस्कू के) निकुः एटले साधु कहेवाय १५ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । यः साधुः श्मशाने प्रतिमां मासादिरूपां प्रतिपद्य विधिनाङ्गीकृत्य न विनेति न नयं प्राप्नोति । किं कृत्वा । जैरवजयानि दृष्ट्वा । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . ... दशवैकालिके दशममध्ययनम् । दशए रौषनयहेतूनुपलच्य वेतालादिशब्दादीनि । किंजूतः साधुः । विविधगुणतपोरतः । नित्यं मूलोत्तरगुणेषु अनशनादितपसि च सक्तः सर्वकालं न शरीरमनिकाहते । निस्पृहतया वार्त्तमानिकं नावि च । य खंनूतः स निकुः ॥ १५ ॥ ___ (टीका.) एतदेव स्पष्टयति । पडिमं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । प्रतिमा मासादिरूपां प्रतिपद्य विधिनाङ्गीकृत्य स्मशाने पितृवने न बिन्नेति न जयं याति । नैरवजयानि दृष्ट्वा रौनयहेतूनुपलज्य वेतालादिरूपशब्दादीनि । विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणायनशनादिसक्तश्च सर्वकालं न शरीरमनिकांदते निःस्पृहतया वार्तमानिक नावि च । य श्छनूतः स निकुरिति सूत्रार्थः॥ १२ ॥ असई वोसच्चत्तदेदे, अकुठे व दए लूसिए वा॥ पुढविसमे मुणी दविजा, अनिआणे अकोउहखे जे स निकू ॥१३॥ (अवचूरिः) न सकृदसकृत् सर्वदैवेत्यर्थः । किमित्याह । व्युत्सृष्टो अव्यनावप्रतिबन्धाभ्यां त्यक्तो विषाकरणेन देहो येन स तथाविधः । आक्रुष्टो वा जकाराद्यैः । हतो वा दएकाद्यैः । बूषितः खड्गादिभिः । नदितोवा श्वशृगालादिना । ट. . .थिवीसमः सर्वसहो नवति मुनिरनिदानो नावफलाशारहितः । अकुतूहलो नटादि.षु । य एवंनूतः स जिनुरिति ॥ १३॥ . ... (थर्थ.) वली असई इत्यादि सूत्र. एटले जे (असई के०) असकृत् एटले सव कालने विषे (वोसच्चत्तदेहे के० ) व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः एटले व्युत्सृष्ट ते जेना उपर राग द्वेष नयी एवो तथा त्यक्त ते जेनाउपर आजूषण पहेरवानुं वज्यु ले एवो .देह जेमनो एवा (जे के०) यः एटले जे ( मुणी के) मुनिः एटले मुनि जे. ते (अकुठे के) आक्रुष्टः एटले कगेर तुबकारी एवा वचनधी हणायला एवा, (.व के) व. एटले अथवा ( हए के) हतः एटले दंडादिकवडे ताडना पामेला एवा, ( व के) वा एटले अथवा ( लूसिए के०) खूषितः एटले खड्गादिक वडे कपायला एवा होय तो पण ( पुढविसमे के०). पृथ्वीसमः एटले पृथिवी जेभ सर्व सहन करे ने तेम सर्वे दुःखने समताथी सहन करनारा. एवा ( हविजा के) नवति ए. टले होय. तथा जे (अनिश्राणे के० ) अनिदानः एटले निया' न करनार एवा, तेमज (अकोउहढे के०) अकौतूहलः एटले नृत्य नाटक प्रमुख जोवानी जेमने श्ठानथी एवा होय, (स के०) सः एटले ते (जिस्कू के०) निनुः एटले साधु कहेवाय . ॥१३॥ (दीपिका.) पुनराह । यो मुनिः पृथिवीसमो जवेत् । पृथिवीवत् सर्वसहः स्यात् । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. 'न पुनारागादिना पीड्यते । किंनूतो मुनिः । असकृत् व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः । असकृत् सर्वदा व्युत्सृष्टो नावप्रतिबन्धानावेन त्यक्तो विजूषाया अकरणेन देहः शरीरं येन स तथाविधः । पुनः आकुष्टो वा जकारादिना । हतो वा दएका दिना । लूषितो वा खगादिना । नक्षितो वा शृगालादिना । किंनूतो मुनिः। अनिदानः नाविफलस्य वाञ्चारहितः। पुनः अकुतूहलश्च नटादिषु य एवंनूतः स निकुः ॥ १३ ॥ (टीका.) अस त्ति सूत्रम् । न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः । किमित्याह । व्यु सृष्टः त्यक्तदेहः । व्युत्सृष्टो नावप्रतिबन्धानावेन त्यक्तो विषाकरणेन देहः शरीरं येन स तथाविधः । आक्रुष्टो वा यकारादिना हतो वा दएमा दिना लूषितो वा खगादिना जक्षितो वा श्वशृगालादिना पृथिवीसमः सर्वसहो मुनिर्भवति। न रागादिना पी. ड्यते । तथा अनिदानो नाविफलाशंसारहितः । अकुतूहलश्च नटादिषु । य एवं. नूतः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ ' अभिनूअ काएण परीसदाई, समुधरे जाइपदाज अप्पयं ॥ . विश्त्तु जाईमरणं महानयं, तवे रए सामणिए जे स निकू ॥१४॥ (श्रवचूरिः) अनिनूय पराजित्य परीषहान् समुघरत्युत्तारयति जातिपथात्संसारादात्मानं विदित्वा जातिमरणं संसारमूलं महानयं तपसि च रतः श्रामण्ये श्रमएसंबन्धिनि ॥ १४ ॥ (अर्थ.) साधुनुं खरूप कहेवाना अधिकारमांज कहे .अनिन्नूथ इत्यादि सू. त्र. (जे के) यः एटले जे (कारण के०) कायेन एटले शरीर वडे ( परीसहा के) परीषहान् एटले परीषद प्रत्ये (अनिश के०) अनिन्नूय एटले जीतीने (अप्पयं के०) श्रात्मानं एटले पोताने (जापहाज के०) जातिपथात् एटले संसारमार्गथी ( समुहरे केप) समुद्धरेत् एटले उकार करे. तथा (जाश्मरणं के०) जातिमरणं एटले जन्ममरण रूप संसारमूलने (महपयं के) महालयं एटसे महाजयकारी एवाने ( विश्त्तु के) विदित्वा एटले जाणीने ( सामणिए के) श्रामण्ये एटले साधुने योग्य एवा ( तवे के०) तपसि एटले तपस्याने विषे (रए के०) रतः एटले थासक्त थाय. ( स के०) सः एटले ते ( जिस्कू के०) निकुः एटले सा. धु कहेवाय . १४ ॥ (दीपिका.) निकुस्वरूपानिधानाधिकार एवाह । यो मुनिः कायेन शरीरेण न मनोवचनाच्यामेव सिझान्तनीत्या परीषहाननिय पराजित्य आत्मानं जाति Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । : ६३१ पथात् संसारमार्गात् समुद्धरत्युत्तारयति । किं कृत्वा । जातिमरणं संसारमूलं विदित्वा । किं० जातिमरणम् | महाजयं महाजयकारणम् । किंभूतो मुनिः । तपसि रतः । तपःकरणतत्परः । किंभूते तपसि । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि शुद्धे । स निक्षुः ॥ १४ ॥ 1 ( टीका. ) निक्षुस्वरूपा निधानाधिकार एवाद । अनि ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या | अभिनूय पराजित्य कायेन शरीरेणापि न निकुसिद्धान्तनीत्या मनोवाज्यामेव । कायेनानजिनवे तत्त्वतस्तदन निजवात् । परीषहान् मुद्रादीन् । समुद्धर - त्युत्तारयति । जातिपथात्संसारमार्गादात्मानम् । कथमित्याह । विदित्वा विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं महाजयं महाजयकारणं तपसि रतः सक्तः । किंभूत इत्याह । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि । शुद्ध इति भावः । य एवंभूतः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ संजर पायसंजए, वायसंजए संजईदिए ॥ अप्पर सुसमाहिप्पा, सुत्तत्वं च विच्याइ जे स निरखू ॥ १५॥ ( श्रवचूरिः ) हस्तसंयतः पादसंयतः कारणं विना कूर्मवलीन श्रास्ते । कारणे चं यतनया प्रयुङ्क्ते । वाक्संयतोऽकुशलवा निरोधात् । संयतेन्द्रियो निवृत्तविषयप्रसरः । अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः । सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु सूत्रार्थं च ययावस्थितं जानाति यः । स निक्षुः ॥ १५ ॥ : ( अर्थ. ) तेमज ह इत्यादि सूत्र. (जे के० ) यः एटले जे ( हबसंजए के० ) इस्तसंयतः एटले कारण विना हाथ हलावे चलावे नहि एवा, (पायसंजए के० ) पादसंयतः एटले कारण विना पगने पण हलावे चलावे नहि एवा, (वायसंजए के० ) वाक्संयतः एटले कारण पडे निर्दोष वाणी बोले, नहि तो मौन राखे एवा, ( संजईदिए के० ) संयतेन्द्रियः एटले सर्वे इंद्रियोने वशमां राखनार एवा, ( अप्परए के० ) अध्यात्मरतः एटले शुनध्यानने चिंतवनार एवा अने ( सुसमाहिप्पा के० ) सुसमाहितात्मा एटले गुणोने विषे दृढ वे आत्मा जेमनो एवा होय बे. ( च के० ) अ ( सुत्त के० ) सूत्रार्थं एटले सूत्रने तथा अर्थने यथार्थपणे ( विश्रपइ के० ) विजानाति एटले जाणे. ( स के० ) सः एटले ते ( निरकू के० ) निकुः एटले - साधु कहेवाय बे ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) पुनराह । यः साधुर्हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कूर्म - aala स् । कारणे च सम्यग्गछति । तथा यो वाक्संयतः अकुशलवचन Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३शराय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. निरोधात् । कुशलवचनस्य चोदीरणेन । किंनूतः साधुः। संयतेन्डियः निवृत्तविषयप्रसरः । पुनः किंनूतः साधुः । अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः । पुनः किनृतः साधुः। सुसमाहितात्मा । ध्यानापादकगुणेषु सुतरां स्थापितात्मा। पुनर्यः सूत्रार्थ यथाव स्थितं विधिग्रहणशुलं विजानाति । एवंचूतः स निकुः ॥ १५ ॥ ... (टीका.) तथा हब ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या.। हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विनाः कूर्मवहीन आस्ते। कारणे च सम्यग्गठति । तथा वाक्संयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवायुदीरणेन । संयतेन्जियो निवृत्तविषयप्रसरः । अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानासक्तः। सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु । तथा सूत्रार्थ च यथाव स्थितं विधिनहणशुक्र विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥. जवदिमि अमुछिए अगिहे, अन्नायजंबं पुलनिप्पुलाए॥ कयविक्कयसंनिदिन विरए, सवसंगावगए अ जे स निकू ॥१६॥ (श्रवचूरिः) उपधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्बितस्तहिषयमोहत्यागेन अगृद्धः प्रतिबन्धानावेन अज्ञातोञ्खं चरति । पुल निप्पुलाकः संयमासास्तापादकदोषरहितः । क्रय विक्रयसन्निधिज्यो विरतः । अव्यत्नावन्नेद निन्नक्रय विक्रयपर्युषितस्थापनेच्यो निवृत्तः। सर्वसंगापगतश्च गतव्यजावसंगश्च यः स निकुः ॥ १६॥ . (अर्थ.) तेमज उवहिं इत्यादि सूत्र. (जे के) यः एटले जे ( उवहिं मि के०) उपधौ एटले वस्त्र, पात्र प्रमुख उपधिने विषे ( अमुलिए के) अमूर्डितः एटले मूा न राखनारा एवा, (अगिके के०) अकः एटले कोइ पण ठेकाणे प्रतिबंध न होवाथी आसक्तिरहित एवा, (अन्नायबं के०) अज्ञातोंबं एटले परिचय न होय त्यां नावथी शुभ एवा आहारादिकने स्तोकमात्र ग्रहण करनारा एवा, ( पुलनिप्पुलाए के) पुलाकनिःपुलाकः एटले चारित्रने असारता उत्पन्न करनार दोषथी. रहित एवा, ( कयविकयसंनिहि विरए के) क्रय विक्रयसंनिधिविरतः एटले.खरीदर्बु, वेचq अने संग्रह करवो एवडे रहित एवा तथा ( सवसंगावगए के) सर्वसंगापगतः एटले व्यसंग तथा नावसंगनो परित्याग करनारा एवा होय . (स के ) सः एटले ते ( निकू के.) निकुः एटले साधु कहेवाय . ॥ १६ ॥ . . . (दीपिका.) पुनराह । यः साधुरझातोञ् चरति । जावशुद्धं स्तोकं स्तोकमित्यर्थः। स निकुः । किंनूतः साधुः । उपधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्जितः तहिषयमोहत्यागेन। पुनः किंनूतः साधुः। अगृक्षः प्रतिबन्धानावेन पुलकः। पुल समुठ्ठये। पुलतीति पुलका Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६३३ सारतोत्पा चारित्रगृद्धत्वात् । समुङ्घ्रितः । पुनः किं० साधुः । निःपुलाकः । संयमस्य का ये दोषास्तै रहितः । पुनः किंभूतः साधुः । क्रयविक्रयसंनिधिज्यो विरतः । द्रव्यावभेद जिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेच्यो निवृत्तः । पुनः किंभूतः साधुः । सर्वव्यावसंगरहितः ॥ १६ ॥ ( टीका. ) तथा वहिंमि त्ति सूत्रम् । उपधौ वस्त्रादिलक्षणेऽमूर्जितस्तद्विषयमोह त्यागेनागृद्धः प्रतिबन्धाभावेन । थज्ञातोयं चरति जावपरिशुद्धम् । स्तोक मित्यर्थः । पुलाक निःपुलाक इति संयमासारतापादकदोषरहितः । क्रयविक्रयसंनिधियो विरतः । द्रव्यजावभेद निन्नक्रय विक्रय पर्युषितस्थापनेच्यो निवृत्तः । सर्वसंगापगतश्च यः अ पगतद्रव्य नाव संगश्च यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ लोलनिकू न रसेसु गिप्ने, जंबं चरे जीविच्प्रनानिकखी ॥ इहिं च सक्कारणपूप्रणं च चए ठिय्यप्पा प्रणिदे जे स निकू ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) किं । लोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थकः । निकुः साधुर्न रसेषु गृद्ध उर्ध्वं चरति । पूर्वमुपधिमाश्रित्योक्तम् । इहत्वाहारविषयमिति न पौनरुक्त्यम् । असंयमजीवितं ना निकाङ्क्षते । रुद्धिमामर्षोषध्यादिम् । सत्कारं वस्त्रादिनिः । पूजनं स्तवनादिना । त्यजति । नैतदर्थमेव यतते । स्थितात्मा ज्ञानादिषु । निनोऽमायो यः ॥ १७ ॥ ( अर्थ. ) वली अलोल इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे ( अलोल के ० ) अलोलः एटले प्राप्त वस्तुनी प्राप्तिने अर्थे लोलुपता न राखनारा, ( जिरकू के० ) निक्कुः एटले चमरनी पेठे मण करी निक्षावृत्तियी पोतानो निर्वाह करनारा तथा ( रसेसु के०) रसेषु एटले मलेली अशन प्रमुख वस्तुने विषे पण ( न गिद्धे के० ) न गृद्धः एटले आसक्ति राखता नथी. तेमज ज़े ( ढं के० ) उञ्छं एटले अपरिचित गृहस्थाने घरे किंचित् मात्र आहार प्रमुख ग्रहण करवा रूप जंब प्रत्ये ( चरे के० ) चरति ले करे. तथा ( जीविश्र के० ) जीवितं एटले संयमरहित जीवितने (नाकिंखे के० ) नाजिकाङ्क्षते एटले इछे नहि. तेमज ( हिप्पा के० ) स्थितात्मा एटले ज्ञानादिकने विषे पोतानुं मन लयलीन राखनारा तथा ( अणि हे के० ) निजः एटले माया ( कपट ) रहित एवा जे ( इट्ठि के० ) रुद्धिं एटले लब्धि प्रमुख रुद्धि प्रत्ये ( च के० ) पुनः (सक्कारण के० ) सत्कारं एटले वस्त्र, पात्र प्रमुखनी प्रातिरूप सत्कार प्रत्ये ( च के० ) अने (पूयणं के० ) पूजनं एटले स्तुति करवा प्रमुख पूजन ८० ' i 1 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. प्रत्ये (चए के० ) त्यजति एरले त्याग करे, अर्थात् एनी अपेक्षा न राखे, (स के०) सः एटले ते ( जिस्कू के ) निकुः एटले साधु कहेवाय ठे. ॥ १७ ॥ (दीपिका.) पुनः किंच। यो निकुरुळ चरति नावोञ्छं सेवत इति पूर्ववत्। नवरम् । तत्रोपधिमाश्रित्योक्तम् । इह त्वाहारमाश्रित्येति न पुनरुक्तिदोषः । तथा यो जीवितमसंयमजीवितं न अनिकासते न वाञ्छति । य झम् िचामर्षोपध्या दिरूपां तथा सत्कारं वस्त्रादिनिः। तथा पूजनं च स्तवादिना त्यजति । न एतदर्थमेव यतते । स्थितास्मा ज्ञानादिषु।पुनः किंनूतो निकुः।अनिनो मायारहितः। पुनः किं निकुः। अलोलो. ऽप्राप्तप्रार्थनातत्परो न । पुनर्यों रसेषु न गृहो न प्रतिवद्धः । स निकुर्नवति ॥ १७ ॥ ( टीका.) किंच।अलोल त्ति सूत्रम्।अस्य व्याख्या। अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो निकुः साधुन रसेषु गृहः।प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति नावः। उञ्चं चरति । नावोबमेवेति पूर्ववत् । नवरम्। तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुक्त्यम् । तथा जीवितं नानिकाहतेऽसंयमजीवितम् । तथा शर्षि चामर्षोषध्यादिरूपां सत्कारं वस्त्रादिभिः पूजनं च स्तवा दिना त्यजति । नैतदर्थमेव यतते । स्थितात्मा ज्ञानादिषु । अनिल श्त्यमायो यः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ न परं वश्कासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिऊ न तं वइजा॥ जाणिअ पत्तेअं पुन्नपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स निकू ॥१७॥ _ (श्रवचूरिः) न परं स्वव्यतिरिक्तं वदत्ययं कुशीलस्तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । खविनेयं तु शिवाग्रहणबुड्या वदत्यपि । येनान्यः कुप्यति न तहदेदोषसनावेऽपि । कथम् । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसम्बन्ध्यन्यस्य नवति अग्निदाहवेदनावत । एवं सत्खपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति। न स्वगुणैर्गर्वमायाति यः । स निदुः॥ १७ ॥ ___(अर्थ.) वली न परं इत्यादि सूत्र. (जे के०) यः एटले जे ( परं के ) परं एटले आपणा शिष्यवर्गयी अथवा आपणा संघाडाथी निन्न एवा को साधु प्रमुखने (अयं के०) अयं एटले आ (कुसीले के० ) कुशीलः एटले कुशीलियो डे एम (न वजा के) न वदति एटले कहे नहि. तथा (अन्न के०) अन्यः एटले आपणा शिष्यसमुदायथी अथवा आपणा संघाडाथी जूदा एवा को साधु प्रमुख जे ते (जेण के० ) येन एटले जेवडे (कुप्पिज के०) कुप्यति एटले कोप करे, (तं के ) तत् एटले ते वचन प्रत्ये ( न वजा के) न वदति एटले कहे नहि. उता पारका दोष केम न बोलवा ए शंका दूर करे . ( पुन्नपावं के० ) पुण्यपाव Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६३५ एटले जीवे करेलुं पुण्य तथा पाप ( पत्ते के० ) प्रत्येकं एटले जे करे तेनेज जोग - aj पडे बे. बीजाने जोगववुं पडतुं नथी. ए वात ( जाणि के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने कोइने क्रोध याय एवं वचन न बोले. तथा पोतामां गुण बतां पण (पाणं के० ) श्रात्मानं एटले पोताने ( न समुक्कसे के० ) न समुत्कर्षति एटले श्रेष्ठ न माने. अर्थात् " हुं केवो गुणी बुं " एवो गर्व न करे. ( स के० ) सः एटले ते ( निस्कू ho ) निक्कुः एटले साधु कद्देवाय बे. ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) तथा यः परं स्वपक्षशिष्येन्यो व्यतिरिक्तमयं कुशील इति न वदति । तद्वदने च प्रीतिदोष उत्पद्यते । स्वपक्ष शिष्यं तु शिक्षाग्रहणबुद्ध्या वदत्यपि । पुनर्येनान्यः कश्चित् कुप्यति । न तद् यो ब्रवीति दोषसङ्गावेऽपि । किमित्याह । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसंबन्ध्यन्यस्य जवति । अग्निदाहवेदनावत् । एवं सत्स्वपि गुणेषु श्रात्मानं यो न समुत्कर्षति । न स्वगुणैर्गर्वमायाति स निक्षुः ॥ १८ ॥ 1 ( टीका. ) तथा न परं ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । न परं स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदत्ययं कुशीलस्तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् । खपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुडला वदत्यपि । सर्वथा येनान्यः कश्चित् कुप्यति । न तद् ब्रवीति दोषसङ्गावेऽपि । किमित्यत आह । ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसंबन्ध्यन्यस्य जवति । अग्निदाहवेदनावत् । एवं सत्खपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति । न खगुणैर्गर्वमायाति यः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लानमत्ते न सुए मत्ते ॥ जयाणि सवाणि विवइत्ता, धम्मप्राणरए जे सनि ॥ १९ ॥ ( अवचूरिः ) मदप्रतिषेधमाह । न जातिमत्तो यथाहं ब्राह्मण इत्यादि । न रूपमतोऽहं रूपवान् । न लाजमत्तोऽहं लाजवान् । न श्रुतमत्तोऽहं परितः । अनेन कुलमदादिपरिग्रहः । एतदेवाह । मदान् सर्वान् विवर्ज्य परित्यज्य धर्मध्यानरतो यो यथायोगं तत्र सक्तः स निकुः ॥ १९ ॥ ( अर्थ. ) साधुए मद न करवो एज कहे ठे. न जाइ इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे (जाइमत्ते के० ) जातिमत्तः एटले ' हुं जातिवंत तुं' एवो गर्व धारण करनारा ( न के० ) नयी होता. ( रूवमत्ते के० ) रूपमत्तः एटले ' हुं सारो रूपवंत बुं ' एवो गर्व धारण करनारा ( न के० ) नयी होता. ( वानमत्ते के० ) लानमत्तः Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. एटले ' मने लान सारो थाय बे एवो गर्व धारण करनारा ( न के० ) नथी होता. ( के० ) च एटले वली जे ( सुश्रमत्ते के० ) श्रुतमत्तः एटले ' हुं पंडित तुं ' एवो गर्व धारण करनारा ( न के० ) नयी होता. तथा जे ( सव्वाणि के० ) सर्वान् एटले सर्वे ( मया के० ) मदान एटले मदने ( विवशता के० ) विवर्ज्य एटले वजने ( धम्मप्राणरए के० ) धर्मध्यानरतः एटले धर्मध्यानने विषे यासक्त थाय ठे. ( स ho ) सः एटले ते ( निस्कू के० ) निकुः एटले साधु कहेवाय वे ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) थ मदप्रतिषेधार्थमाह । यः साधुर्जातिमत्तो न भवति । यथाहं ब्राह्मणः । पुनर्यो रूपमत्तो न जवति । यथाहं रूपवानादेयः । पुनर्यो लाजमत्तो न जवति । यथाहं लाजवान् । पुनयों न श्रुतमत्तो जवति । यथाहं परिमतः । अन कुल मदादिपरिग्रहः । तदेवाह । मदान् सर्वानपि कुलादिविषयान् विवर्ज्य परि त्यज्य धर्मध्यानरतो जवेत् । स निकुः ॥ १५ ॥ ( टीका. ) मदप्रतिषेधार्थमाह । ए जाइ ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । न जातिमत्तो यथाहं ब्राह्मणः क्षत्रियो वा । न च रूपमत्तो यथाहं रूपवानादेयः । न लामत्तो यथाहं लब्धिमान् । न श्रुतमत्तो यथाहं पतिः । अनेन कुलमदादिपरिग्रहः । प्रतएवाह । मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि परिवर्ज्य परित्यज्य धर्मरतो हि यो यथागमं तत्र सक्तः स निकुरिति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ पवे प्रपयं मदामुणी, धम्मे हिन गवयई परं पि ॥ निकम्म वजिक कुसीललिंगं, न व्यावि दासंकुहए जे स निकू ॥२०॥ ( अवचूरिः ) मदप्रतिषेधमाह । प्रवेदयति कथयति खार्यपदं शुद्धधर्मं महामुनिः । धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि श्रोतारम् । निष्क्रम्य आरम्नादि कुशील लिङ्गं कुशीलचेष्टितं वर्जयेत् । न चापि हास्यकुदको न हास्यकारीन्द्रजालयुक्तः ॥ २० ॥ ( अर्थ. ) वली पवेद इत्यादि सूत्र. ( जे के० ) यः एटले जे ( महामुखी के० ) महामुनिः एटले मुनिराज जे ते ( श्रपयं के० ) श्रापदं एटले शुद्धधर्म प्रत्ये परोपकारने अर्थे (पवे के० ) प्रवेदयति एटले कहे. तथा पोते ( धम्मे के० ) धर्मे एटले धर्मने विषे ( विर्ड के० ) स्थितः एटले रह्या बता ( परं पिके० ) परमपि एटले धर्मने श्रवण करनार बीजाने पण ( गवयई के० ) स्थापयति एटले स्थापन करे, अर्थात् धर्मनेमाडे. तेमज जे ( निरकम्म के० ) निष्क्रम्य एटले संसारमांधी नीकलीने (कुसील लिंग के० ) कुशील लिङ्गं एटले आरंभ समारंभ करनार गृहस्थनी Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवैकालिके दशममध्ययनम् । ६३० चेष्टा ते विविध प्रकारना आरंन समारंन प्रत्ये (वजिज के०) वर्जयति एटले वर्जे. वली जे (हासंकुहए के) हास्यकुहकः एटले हास्य उत्पन्न करनार एवी चेष्टा करनार एवा (न आवि के०) नचापि एटले होता नथी. (स के०) सः सटले ते ( निस्कू के०) निनुः एटले साधु कहेवाय बे. ॥२०॥ (दीपिका.) यो महामुनिरार्यपदं शुक्रधर्मपदं परोपकाराय प्रवेदयति कथयति । पुनर्यो धर्मे स्थितः परमपि श्रोतारं धर्मे स्थापयति । पुनर्यो निष्क्रम्य गृहान्निःसृत्य कुशील लिङ्गमारम्नादिना कुशीलचेष्टितं वर्जयति । पुर्नयो हास्यकुहको न भवति । हास्यकारिकुहकयुक्तो न स्यात् । स निः ॥२०॥ (टीका.) किंच । पवेअए त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । प्रवेदयति कथयत्यार्यपदं शुधर्मपदं परोपकाराय महामुनिः शीलवान् ज्ञाता एवंचूत एव वस्तुतो नान्यः। किमित्येतदेवमित्यत आह । धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि श्रोतारं तत्रादेयनावप्रवृत्तेः । तथा निष्क्रम्य वर्जयति कुशीललिङ्गमारम्नादिकुशीलचेष्टितम् । तथा न चापि हास्यकुहको न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः । स निकुरिति सूत्रार्थः ॥२०॥ तं देदवासं असुइं असासयं, सया चए निचदिअहिअप्पा ॥ बिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं उवेश निस्कू अपुणागमं गइंति बेमि ॥२१॥ सनिकुअप्नयणं दसमं संमत्तं ॥१०॥ (अवचूरिः) निकुन्नावफलमाह । एतं देहवासं चारकप्रायमशुचिं शुक्रशोणितोनवत्वादिनाशाश्वतं प्रतिकणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वत्यागेन नित्यहिते मोदसाधने सम्यग्दर्शनादौ स्थितात्मा अत्यन्तं सुस्थितः । स एवंनूतश्वित्त्वा जातिमरणस्य संसारस्य कारणमुपैति सामीप्येन गति । निकुर्यतिरपुनरागमा नित्यां जन्मादिरहितामित्यर्थः । गति सिद्धिगतिं ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२१॥ इत्यवचूरिकायां व्याख्यातं निवध्ययनम् ॥ १० ॥ (अर्थ.) हवे साधुपणानुं फल कहे . तं देहवासं इत्यादि सूत्र. (निच्चहियहिथप्पा के) नित्यहितस्थितात्मा नित्यहित एटले मोदना कारणचूत जे सम. कित प्रमुख तेने विपे जेनो आत्मा दृढ रह्यो ठे एवा ( निस्कू के ) निकुः एटले पूर्वोक्त प्रकारना साधु जे ते (असुई के०) अशुचिं एटले शुक्र शोणितथी उत्पन्न थवा प्रमुख कारणथी अपवित्र एवा, तथा (असासयं के०) यशाश्वतं एटले जेने विणसता वार न लागे एवा, ( तं के०) एतं एटले सर्वने प्रत्यद देखाता एवा (दे Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. हवासं के० ) देहवासं एटले शरीर रूप बंदीखानाने ( सया के० ) सदा एटले निरंतर (चए के० ) त्यजति एटले त्याग करे बे. अर्थात् शरीर उपरनो राग ठोडे ठे. तथा (जाइमरणस्स के० ) जातिमरणस्य एटले जन्म मरणना ( वंधणं के० ) वन्धनं एटले बंधन प्रत्ये ( बिंदित्तु के० ) वित्त्वा एटले वेदीने ( अपुणागमं के० ) पुनरागमां एटले जेथी पाहुं वकुं नथी एवी ( गई के० ) गतिं एटले गति प्र ये (वेश के० ) उपैति पटले पामे बे. ( तिवेमि के० ) इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर गणधरना उपदेशयी हुं एम कहुं बुं. ॥२१॥ इति श्रीदशवैका लिकबालावबोधे सचिक्कु नामक दसमुं अध्ययन संपूर्ण. ॥ १० ॥ ( दीपिका . ) निकुभावस्य फलमाह । निकुरेवंविधो गतिं सिद्धिगतिमुपैति गछति । किंभूतां गतिम् । अपुनरागमां पुनर्जन्मादिरहिताम् । किं कृत्वा । जातिजरामरणस्य बन्धनं वा । पुनर्निर्देहवासं सदा त्यजति ममतात्यागेनैतं प्रत्यदेणोपलज्यमानम् । किंभूतं देवासम् । श्रशुचिं शुक्रशोणितमयत्वात् । किंभूतं देवासम् । श्रशाश्वतं प्रतिक्षणं कीयमाणत्वात् । किंभूतो निदुः । नित्यहिते मोक्षसाधने सम्यग्दर्श नादौ स्थितात्मा अत्यन्तं सुस्थितः । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २१ ॥ इति श्रीदशवेकालिकशब्दार्थवृत्तौ समिक्षुनामकं दशममध्ययनं समाप्तम् ॥ १० ॥ ( टीका. ) निक्षुनाव फलमाह । तं देह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तं देहवासमित्येनं प्रत्योपलभ्यमानं चारकरूपं शरीरावासमशुचिं शुक्रशोणितोद्भवत्वादिना । अशाश्वतं प्रतिक्षण परिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुबन्धत्यागेन । क इत्याह । नित्यहिते मोक्षसाधने सम्कदर्शनादौ स्थितात्मात्यन्तसु स्थितः । स चैवंभूत भित्त्वा जातिमरणस्य संसारस्य बन्धनं कारणमुपैति सामीप्येन गछति निक्षुर्य तिरपुनरागमां पुनर्जन्मादिरहितामित्यर्थः । गतिमिति सिद्धिगतिम् । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववत् । इति व्याख्यातं सनिवध्ययनम् ॥ १० ॥ इति श्रीहरिनद्रसूरिविरचितायां श्रीदशवैका लिकबृहद्वृत्तौ दशममध्ययनम् ॥ १० ॥ अथ चूलिके । इह खलु जो पari नप्पन्न डरकेणं संजमे रइसमावन्नचित्तेणं उहापुणे दिला असोदाइ एणं चैव दयरस्सिगयंकुस पोयपडागानूचाई इमाई हारस गणाई सम्मं संपडिले दियवाई नवंति ॥ (श्रवचूरिः) अथ चूले चारज्येते । अनयोः संबन्धः पूर्वाध्ययने निक्कु गुणयुक्तो निक्षुरि Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६३ए त्युक्तम् । स चैवंचूतोऽपि कदाचित्कर्मणो बलवत्त्वात् सीदेत्। तत्स्थिरीकरणार्थमाह।ह प्रवचने।खबुशब्दोऽवधारणे।स चात्र ज्ञेयः।नो आमन्त्रणे। प्रबजितेन साधुना उत्पन्नपुःखेन संजातशीतादिशारीरस्त्रीनिषद्यादिमानसःखेन संयमे प्रायुक्ते अरतिसमापन्नचित्तेन उगगतानिप्रायेण अवधानोत्प्रेक्षिणा। अनवधावितेनैवानुत्प्रनजितेनैवामूनि वक्ष्यमाणानि अष्टादश स्थानानि सम्यग्रजावसारं सम्यक् प्रत्युपेदितव्यानि सुष्टु अष्टव्यानि । नवन्तीति योगः। तान्येव अष्टादश स्थानानि विशेष्यन्ते । हयर शिमगजाङ्कुशपोतपताकातुल्यानि । यथाश्वादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रश्म्याद्या नियमनहेतवः। तथैतान्यपि संयमान्मार्गप्रवृत्तिकामानां जव्यसत्त्वानामिति । यतश्चैवमतः सम्यक् संप्रत्युपेदितव्यानि नवन्ति ॥ (अर्थ.) हवे चूलिका शरु थाय जे. एनो पूर्वोक्त अध्ययननी साथे संबंध श्रा रीते जे. दशमा अध्ययनमा 'साधुना गुण जेमां होय तेज साधु कहेवाय डे' एम कह्यु. हवे ते साधु एवा होय तो पण जीव कर्मना अधीन होवाथी तथा कर्म घणुंज बलिष्ठ होवाथी कदाच शिथिलचारित्री थाय, तो तेने धर्मने विषे स्थिर करवो, माटे ए बे चूलिका कहेवाय . श्ह खलु नो इत्यादि सूत्र. (जो के०) नोः एटले हे शिष्यो ! ( उप्पणपुरकेण के०) उत्पन्नफुःखेन एटले उत्पन्न थयु के शरीर संबंधी अथवा मन संबंधी फुःख जेने एवा, तेथीज (संजमे के०) संयमे एटले सत्तर प्र. कारना संयमने विषे (अरश्समावन्नचित्तणं के० ) अरतिसमापन्नचित्तेन एटले कंटाती गयु चित्त जेनुं एवा, माटेज (हाणुप्पेहिणा के०) अवधानोत्प्रेक्षिणा एटले संयमनो त्याग करवानी श्छा करनार एवा पण (अणोहाइएणं चेव के०) अनवधावितेन चैव एटसे हजी सुधी दीक्षानो त्याग कस्यो नथी एवाज (इह के०)श्ह एटले श्रा जैनशासनने विषे (पवश्एणं के ) प्रव्रजितेन एटले दीदा लीधेल साधुए (हयरस्सिगयंकुसपोयपडागार के) हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकानूतानि एटले अश्वने जेम लगाम, गजने जेम अंकुश अथवा जहाजने जेम पताका (डोलकाठी) ते सरखा (श्माश् के०) श्मानि एटले आ (अहारस के ) अष्टादश एटले अढार (गणा के०) स्थानानि एटले स्थानकोने (सम्म खलु के०) सम्यक् खलु एटले सम्यक् प्रकारेज (संपडिलेहिश्रवा के०) संप्रत्युपेदितव्यानि एटले विचार करवा योग्य एवा (नवंति के ) नवन्ति एटले . ॥ (दीपिका.) व्याख्यातं सनिकुनामकं दशममध्ययनम् । श्रथ चूमाख्यमारच्यते । अस्य चायमनिसंवन्धः । पूर्वाध्ययने निकुगुणा उक्ताः। स च निकुरेवंचूतो Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. कदाचित्कर्मवशात्कर्मबलाच्च सीदेत्ततस्तस्य निकोः स्थिरीकरणं कर्त्तव्यम् । तदर्थं चूडाइयं कथ्यते । इह खलु जोः प्रत्रजितेन साधुना । इह खलु प्रवचने निश्चयेन जो इति श्रामन्त्रणे । श्रमूनि वक्ष्यमाणानि अष्टादश स्थानानि सम्यक् प्रकारेण संप्रत्युपेदितव्यानि सुष्ठु आलोचनीयानि जवन्तीत्युक्तिः । किंनूतान्यष्टादश स्था नानि । दयरश्मिगजाङ्कुशपोतपताकाभूतानि । श्रश्वख लिनगजाङ्कुशवो हिच सितपटतुल्यानि । अयं परमार्थः । यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिं वाञ्छतां रश्म्यादयो नियमनहेतवस्तथैतान्यपि संयमान्मार्गप्रवृत्तिं वाञ्छतां जव्यजीवानामपि नियमनहेतवः । यतश्चैवमतः सम्यक् प्रत्युपेदितव्यानि जवन्ति । किंनूतेन साधुना । उत्पन्न दुःखेन संजातशीता दिशारीरस्त्री निषद्यादिमानसडुः खेन । पुनः किंभूतेन । संयमे पूर्ववर्णितस्वरूपे अरतिसमापन्न चित्तेन उद्वेगगतानिप्रयेण संयमान्निर्वि सज्ञावेन इत्यर्थः । पुनः किंनूतेन । श्रवधानोत्प्रेक्षिणा । अवधानमपसरणं संयमाप्राबल्येन प्रेदितुं शीलं यस्य स तेन अवधानोत्प्रेदिणा उत्प्रत्रजितुकामेनेत्यर्थः । पुनः किंभूतेन । नवधावितेनैव अनुस्प्रय जितेनैव ॥ (टीका.) नौघडे वारज्येते । अनयोश्चायम निसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने निकुगुणयुक्त एव निरुक्तः । स चैवंभूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेदत एतत्स्थरीकरणं कर्त्तव्यमिति तदर्थाधिकारवच्चूडाइयम निधीयते । तत्र चूडाशब्दार्थमेवा निधातुकाम याह || दवे खेत्ते काले, जावम्मि अ चूलिश्राय निरके - वो ॥ तं पुण उत्तरतंतं, सुगहिरं तु संगहणी ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ नामस्थापने कुमत्वादनादृत्याह । द्रव्ये देत्रे काले नावे च द्रव्यादिविषयश्चडाया निदेपो न्यास इति । तत्पुनश्श्रूडाद्वयमुत्तरतन्त्रमुत्तरसूत्रम् । दशवैका लिकस्याचारपञ्चचूडावत् । एतच्चोत्तरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव । दशवैकालिकाख्यश्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः । - पार्थमिदम् । नेत्याह । संग्रहणी तक्तानुक्तार्थसंदेप इति गाथार्थः ॥ द्रव्यचूडा दिव्या चिख्यासयाह ॥ दधे सच्चित्ताई, कुक्कुडचूडामणी मऊराइ ॥ खेत्तं मि लोग निकुड - मंदरचूडा का कूडाइ ॥ २७ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्य इति । द्रव्यचूडा गमनोश्रागमज्ञशरीरेतरादिव्यतिरिक्ता त्रिविधा सचित्ताया । सचित्ता चित्ता मिश्रा च । यथासंख्यमाह । कुक्कुटचूडा सचित्ता । मणिचूडा चित्ता । मयूर - शिखा मिश्रा | क्षेत्र इति । त्रचूडा लोक निष्कुटा उपरिवर्तिनः । मन्दरचूडा व पाएमुकम्बला । चूडादयश्च तदन्यपर्वतानां देवप्राधान्यात् । श्रादिशब्दादधोलोक - स्य सीमन्तकः । तिर्यग् लोकस्य मन्दर ऊर्ध्वलोकस्येषत्प्राग्नार इति गायार्थः ॥ 1: Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका | ६४१ इरित्त श्रहिगमासा, यहिगा संवारा अ कालंमि ॥ जावे खर्जवसमिए, इमा उ चूमा मुअवा ॥ २८ ॥ व्याख्या || अतिरिक्ता उचितकालात् समधिका अधिकमासकाः प्रतीताः । अधिकाः संवत्सराश्च षष्ट्यादाद्यपेक्षया काल इति कालचूडा । नाव इति जावचूडा कायोपशमिके जावे । इयमेव द्विप्रकारा चूडा मन्तव्या विज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाछूतस्येति गाथार्थः ॥ तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यचूडा । श्रस्याश्चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्ने निदेषे रतिवाक्येति द्विपदं नाम तत्र रतिनिक्षेप उच्यते । तत्रापि नामस्थापने श्रनादृत्य द्रव्यनावरत्यनिधित्सयाह । दवे हा उ कम्मे, नोकम्मरई श्र सद्ददवाइ ॥ जावरई तस्सेव उ, उदए एमेव रई वि ॥ २ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्यरतिरागमनोश्रागमज्ञशरीरेतरातिरिक्ता द्विधा कर्मद्रव्यर तिनकर्मद्रव्यरतिश्च । तत्र द्रव्यकर्मरती रतिवेदनीयं कर्म । एतच्च वद्धमनुदयावस्थं गृह्यते । नोकर्मद्रव्यर तिस्तु शब्दादिद्रिव्याणि । श्रादिशब्दात् स्पर्शादिपरिग्रहः । रतिजनकानि रतिकारणानि । जावर तिस्तस्यैव तु रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये वति । एवमेवातिरपि द्रव्यजावनेद जिन्ना यथोक्तरतिप्रतिपतो विज्ञेयेति गाथार्थः ॥ उदाहृता र तिरिदानीं वाक्यमतिदिशन्नाह ॥ वक्कं तु पुत्रजािं, धम्मेरकारगाणि वक्ाणि ॥ जेणं मिमीए तेल, रश्वक्के सा हवइ चूमा ॥ ३० ॥ व्याख्या ॥ वाक्यं तु पूर्वज पितं वाक्यशुद्धलध्यध्यनेऽनेकप्रकारमुक्तं धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि च वाक्यानि येन कारणेनास्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैपा चूडा रतिकर्तृणि वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्येति गाथार्थः ॥ इह च रत्य निधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम् । श्राह च ॥ जह नाम आउर सिह, सीवबेसु कीरमाणेसु ॥ जंतणमपछकुछा - मदोसविरई हिकरी न ॥ ३१ ॥ व्याख्या ॥ यथा नामेति प्रसिद्धमेतत् । श्रातुरस्य शरीरसमुछेन आगन्तुकेन वा त्रणेन ग्लानस्य इह लोके सीवनछेदेषु सीवनछेदकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु । किमित्याह । यन्त्रणं गयन्त्रादिना अपथ्यकुत्सा अपथ्यप्रतिषेध श्रामदोष विर तिरजीर्णदोष निवृत्तिः । हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ॥ दाष्टन्तिकयोजनामा ॥ विदकम्मरोगा - उरस्त जीअस्स तह तिगिठाए ॥ धम्मे रई धम्मे, रई गुणकारिणी होई ॥३२॥ व्याख्या ॥ श्रष्टविधकर्मरोगातुरस्य ज्ञानावरणीयादिरोगेण जावग्लानस्य जीवस्यात्मनः । तथा तेनैव प्रकारेण चिकित्सायां संयमरूपायां प्रक्रान्तायामस्नानलो - चादिना पीडाजावेऽपि धर्मे श्रुतादिरूपे रतिरासक्तिरधर्मे तद्विपरीतेऽर तिरनासक्तिर्गुणकारिणी नवति निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयति ॥ सप्राय ८१ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ राय धनपतसिंघ बदाडुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. संजमतवे, वेच्यावच्चे अ जाणजोगे अ ॥ जो रमई नो रमई, श्रसंजमम्मि सो वच्चई सिद्धिं ॥ ३३ ॥ व्याख्या || स्वाध्याये वाचनादौ संयमे पृथिवीकायसंयमादौ तपसि अनशनादौ वैयावृत्त्ये चाचार्यादिविषये ध्यानयोगे च धर्मध्यानादौ यो रमते स्वाध्यायादिषु सक्त ते । तथा न रमते न सक्त यास्तेऽसंयमे प्राणातिपातादौ । सव्रजति सिद्धिं गच्छति मोक्षम् ॥ इह च संयमतपोग्रहणे सति स्वाध्यायादिग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह ॥ तम्हा धम्मे रश्का - रगाणि श्ररकारगाणि हम्मे ॥ गणापि ताणि जाणे, जाई जपियाई श्रप्रयणे ॥३४॥ व्याख्या ॥ तस्माद्धर्मे चारित्ररूपे रतिकारकाणि रतिजनकानि । रतिकारकाणि चारतिजकान चाधर्मे संयमे स्थानानि तानि वक्ष्यमाणानि जानीयात् । यानि जणितानि प्र तिपादितानि इहाध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ उक्तो नाम निष्पन्नो निदेपः । सांप्रतं सूत्रालापक निष्पन्नस्यावसर इत्यादि पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्स्वलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम् । इह खलु जो इत्यादि । श्रस्य व्याख्या । इद खलु प्रत्र जितेन । इहेति जिनप्रवचने । खलुशब्दोऽवधारणे । स च निन्नक्रम इति दर्श यिष्यामः । जो इत्यामन्त्रणे । प्रव्रजितेन साधुना । किंविशिष्टेनेत्याह । उत्पन्न दुःखेन संजातशीता दिशारीरस्त्री निषद्यादिमानस डुःखेन । संयमे व्यावर्णितस्वरूपे र तिसमापन्न चित्तेन उद्वेगगतानिप्रायेण । संयम निर्विसनावेनेत्यर्थः । स एव विशेष्यते । श्रवधानोत्प्रेक्षिणा । श्रवधानंमपसरणं संयमात्प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन उत्प्रव्रजितुकामेनेति भावः । अनवधा वितेनैवानुत्प्रत्र जितेनैवामूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि सम्यग्र जावसारं संप्रत्युपेदितव्यानि सुष्वालोचनीया नि जवन्तीति योगः । श्रवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थक मिति । तान्येव विशेष्यन्ते । हयरश्मि गजाङ्कुशपोतपताकानूतानि । अश्वख लिनगजाङ्कुशबोधिस्थ सितपटतुल्यानि । एतडुक्तं नवति । यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रश्म्यादयो नियमन हे तवस्तथैतान्यपि संयमान्मार्ग प्रवृत्तिकामानां जावसत्त्वानामिति । यतश्चैवमतः सम्यक् संप्रत्युपेदितव्यानि वन्ति । खलुशब्दावधारणयोगात्सम्यगेव संप्रत्युपेक्षितव्यान्येवेत्यर्थः । तं जहा ॥ हं जो इस्समाई डुप्पजीवी ॥२॥ लदुसगा गिदी कामजोगा ॥ २ ॥ को सायबदुला मगुस्सा ॥३॥ इमे मे दुरके न चिरकालोवठाई नविस्सई ॥ ४ ॥ उमजणपुरकारे ॥ ५ ॥ वंतस्स य पडियायां ॥ ६ ॥ अदरगश्वासोवसंपया ॥ ७ ॥ दुल्लदे खलु नो गिदी धम्मे गिहिवासमने Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६४३ वसंताणं ॥॥ आयके से वदाय हो ॥ ए॥ संकप्पे से वहाय हो॥२॥ सोवकेसे गिहवासे। निरुवकेसे परिभाए ॥११॥ बंधे गिदवासे । सुरके परिआए ॥१२॥सावले गिहवासे । अणवले परिआए ॥ १३ ॥ बहुसादारणा गिहीणं कामनोगा ॥१४॥ पत्तेनं पुन्नपावं ॥ १५॥ अणिचे खलु नो मणुरकाण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले ॥१६॥ बढुं च खलु नो पावं कम्मं पगडं ॥१७॥ पावाणं च खलु नो कडाणं कम्माणं पुविं . चिन्नाणं उप्पडिकंताणं वेश्त्ता मुकोनबि अवश्त्ता तवसा वा को सश्त्ता ॥२॥ अहारसमं पयं नव॥नव अश्च सिलोगो। (श्रवचूरिः ) तद्यथाहं नो इति शिष्यामन्त्रणे । कुःखमायां उःप्रजीविनः प्राणिनः । ॐःखेन कृर्ण प्रकर्षेण जीवितुं शीलाः । अथ किं गृहाश्रमेणेति । प्रथम स्थानम् ॥१॥ तथा लघवस्तुषमुष्टिवदसारा इत्वरा अल्पकालीना गृहिणां गृहस्थानां कामनोगा मदनकामप्रधानाः । विपाककटवश्चातः किं गृहाश्रमेणेति हितीयं स्थानम् ॥२॥ नूयश्च शातबहुला मनुष्याः। नुक्तेष्वपि जोगेषु पुनरपि सुखानिलाषिणः । श्रतः किं कामनोगैरिति तृतीय स्थानम् ॥३॥ इदं च मे दुःखं शारीरमानसं कर्मफलजनितं न चिरकालोपस्थायि नविष्यति न वहुकालावस्थायि नावीत्यतः किं गृहाश्रमेण । चतुर्थं स्थानम् ॥४॥ न्यूनजनपूजा। प्रत्रजितो हि धर्मप्रनावाजाजादिनिरन्युठानासनाञ्जलिनिःपूज्यते । उत्प्रन जितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽन्युठानादि कार्यम् । श्रतः किं गृहाश्रमेण । पञ्चमं स्थानम् ॥५॥ वान्तस्य प्रत्यापानम् । नुक्कोनितपरिजोग इत्यर्थः । षष्ठं स्थानम् ॥ ६॥ अधोगतिवासोपसंपत् । अधोगतिर्नरक. तिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः । एतन्निमित्तनूतं कर्म गृह्यते । तस्योपसंपत् सामीप्येनाङ्गीकरणम् । सप्तमं स्थानम् ॥७॥ पुर्लनः खलु नो गृहिणां गृहपाशमध्ये वसतां धर्मः।पाशाः पुत्रकलनाद्याः ॥ श्रष्टमं स्थानम् ॥॥ श्रातङ्कः सद्योघाती विपूचिकादिरोगः । तस्य गृहिणोऽस्तधर्मवन्धोधाय नवति । नवमं स्थानम् ॥ ए॥ संकल्पः से तस्य गृहिण इष्टानिष्ट वियोगप्राप्तिच्यां वधाय नवतीति चिन्त्यम् । दशमं स्थानम् ॥ १० ॥ सोपक्लेश इति । उपक्लेशाः कृपिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्टानगताः शी. तोष्णश्रमादयः। घृतलवणचिन्ताद्या ति एकादशं स्थानम् ॥ ११ ॥ एलिरवक्तेश. - रहितः प्रव्रज्यापर्याय इति चिन्त्यम् ॥ द्वादशं स्थानम् ॥ १२ ॥ बन्धो गृहवासः स. Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. दा तत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३ ॥ मोक्षः पर्याaisaarतं कर्म निगडापगमान्मुक्तवदिति चिन्त्यम् । चतुर्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ साaur गृहवासः । प्राणातिपातादिप्रवृत्तेरिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५ ॥ अनवद्यः पर्यायः । पाप इत्यर्थः । श्रहिंसादिपालनात्मकत्वात् । पोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ बहुसाधारणा रहिणां कामजोगाः । चौरराजकुलादिसामान्या इति चिन्त्यम् । सप्तदर्श स्थानम् ॥ १७ ॥ प्रत्येकं पुण्यपापमिति मातापितृकलत्रादिनिमित्तमनुष्ठितं यद्येन तत्तस्यैवानुष्ठातुर्नान्यस्येत्यष्टादशं स्थानम् ॥ १८ ॥ एतदन्तर्गतो वृद्धाजिप्रायेण शेषग्रन्थः । अन्ये तु व्याचक्षते । लोपक्लेशो गृहवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपदेषु स्थानत्रयम् । एवं च बहुसाधारणेति चतुर्दशम् ॥ १४ ॥ प्रत्येक मिति पञ्चदशम् ॥ १५ ॥ नित्यमेव मनुष्याणामप्यायुः कुशाग्रजल विन्दुवच्चञ्चलं सोपक्रमत्वादल्पसारं तदलं गृहाश्रमेणेति षोडशम् ॥ १६ ॥ बहु खलु पापं कर्म । चशब्दाविष्टं चः । बह्वेव च पापकर्म चारित्रमोहनीयादि निर्वर्त्तितं मयेति गम्यम् । श्रामण्यप्राप्तावप्येवं कुबुद्धिप्रवृत्तेर्न किंचिगृहाश्रमेणेति सप्तदशम् ॥ १७ ॥ पापानां पुण्यानां च कृतानां खलुशब्दः कारितानुमत विशेषणार्थः । योगैस्त्रिभिः पूर्वमन्यनवे दुश्चरितानां प्रमादतश्चरितानाम् । दुःपराक्रान्तानां मिथ्यात्वाविरतिकषायज डुः परिक्रान्तजनितानां डुः पराक्रान्तानामिह दुश्चरितं मद्यपानानृतभाषणादि । दुःपरिक्रान्तानि वधबन्धादीनि । तदेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वा मोदो नास्त्यवेदयित्वा । अनेन सकर्मकमोकव्यवच्छेदः : । तपसा पयित्वा । अनशनप्रायश्चित्तादिना तपसा प्रलयं नीत्वा । इह वेदनमुदप्रातस्य व्याधेरिव । अनारब्धस्य क्रमशोऽनन्यनिबन्धन परिक्लेशेन तपः । ऋपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदी पोंदी रणक्षपणवत् । अतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेयो न किंचिहवासेनेत्यष्टादशम् ॥ १८ ॥ अत्राष्टादशस्थानव्यतिकर उक्तानुक्तार्थसंग्रह परः श्लोक इति जातिपरो निर्देश इत्येकवचनम् ॥ 1 ( अर्थ. ) तं जहा इत्यादि सूत्र. ( तं जहा के० ) तद्यथा एटले ते अढार स्थानका रीते - ( हंजो के० ) हे शिष्यो ! ( दुस्समाइ के० ) दुःखमायां एटले श्रा अधम दुःखमा कालमां जीवो जे ते ( डुप्पजीवी के० ) दुःप्रजीविनः एटले घणा दुःखथी पोताना जीवित राखनारा एवा बे. अर्थात् हमणां कालदोषथी मोटा राजादिकने पण घणा दुःख जोगववा पडे बे, छाने सुखोपभोग जोइये तेवा मलता नथी. माटे माठी गतिमां लइ जनार एवो गृहस्थाश्रम था समयमां शुं कामनो ? एवो विचार करो. ए प्रथम स्थान युं. ( १ ) श्रा दुःखमा कालने विषे ( गिहिणं के० ) Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६४५ ग्रहिणां एटले गृहस्थना ( कामजोगा के० ) कामजोगा: एटले कामजोग जे ते (लदुसगा के० ) लघवः एटले फोतरानी पेठे तुछ असार बे. अने ( इत्तरिया के० ) इत्वराः एटले क्षणिक बे. तथा परिणामे कडवा ठे. माटे श्री कालमां गृहस्थाश्रम शुं कामनो ? एवो विचार करवो. ए वीजुं स्थान थयुं. ( २ ) तेमज ( - जो अ के०) नूयश्च एटले फेर वली दुःखमा कालने विषे ( मणुस्सा के० ) मनुष्याः एटले मनुष्य जे ते (सायबहुला के० ) खातिवहुलाः एटले घणी माया ( कपट ) करनारा बे, अर्थात् मायाथी घणोज याकरो कर्मबंध थाय बे. माटे गृहस्थाश्रम शा कामनो ? एवो विचार करवो. या त्रीजुं स्थान थयुं. ( ३ ) तेमज (इमे ा के० ) इदं 'च एटले श्रा ( मे के० ) मे एटले मारुं ( के के०) दुःखं एटले दुःख जे ते ( चिकालो वा के० ) चिरकालोपस्थायि एटले घणा काल सुधी रहेवावालुं एवं (न विस्सर के० ) न जविष्यति पटले नथी. अर्थात् नरकादि गतिमां जे मे दुःख साबे, तेना प्रमाणमां या संयम पालतां मने जे दुःख याय बे ते कशी गणतिमां नयी वी या संयमडुःख खमवायी कर्म निर्जरा थाय बे. माटे ए मूकीने गृहस्थाश्रममां शुं सुख बे ? गृहस्थाश्रममां आरंभ समारंभ होवाथी नरक प्राप्ति थाय दे. rat विचार करवो. था चतुर्थ स्थान थयुं. (४) तेमज (उमजणपुरकारे के०) श्रवमजनपुरस्कारः एटले हलका माणसने पण मान आपवो पडे ठे. अर्थात् चारित्री साधुनी तो राजा, मंत्री, श्रेष्ठी प्रमुख लोको वंदनादिक वडे पूजा करे ठे, अने चारित्रयी चष्ट यएल पुरुषने तो पोतानुं कार्य साधवा माटे हलका माणसनी पण हाजी करवी पडे, तेमज राजा अधर्मी होय तो चष्टचारित्रीने वेठ प्रमुख दुःख पण खमवुं पडे. माटे गृहस्थाश्रममां शुं सुख के ? एवो विचार करवो. ए पांचमुं स्थान युं. (५) तेमज (वंतस्स के० ) वान्तस्य एटले पूर्वे वमेला, त्याग करेला एवा विषयनुं (पडिश्रायणं के० ) प्रत्यापानं एटले फरिथी पान करवुं ए निंद्य वे. अर्थात् एतुं arg श्वानादि नीच प्राणिनो स्वभाव वे, सत्पुरषो या वातनी निंदा करे ठे, तेमज एथी दुःख तथा रोग थाय ठे. मे दीक्षाने थावसरे सर्वे कामनोग वम्या ठे, वे जो एनुं पातुं ग्रहण करीश तो ते एवं खावा समान ठे. माटे गृहस्थाश्रम वडे शुंप्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए बहुं स्थान थयुं. ( ६ ) तेमज ( यहरगश्वासोवसंपया के० ) श्रधरगतिवासोपसंपत् एटले संयमनो त्याग करवायी नीच गतिने विषे जेथी स्थिति थाय एवा कर्मनुं बंधन याय के, के जेथी नारकी तिर्यंच प्रमुख नीच गतिमां जतुं पडे ठे. माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए सातमुं स्थान थयुं . (1) तेमज (गिढ़वासमपे के०) गृहपाशमध्ये एटले घरमा पासा सरखा स्त्री पुत्र Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. वगेरे परिवारमां ( वसंताणं के० ) वसतां एटले रहेता एवा ( गिहिणं के० ) गृहि यां एटले गृहस्थोने प्रमाद घणा होवाथी ( धम्मे के० ) धर्मः एटले धर्म जे ते ( o ) दुर्लन: एटले फुर्लन वे. ( खलु के० ) निश्चये जो ए शिष्यना आमंत्रणने अर्थे . अर्थात् गृहस्थो वगर कारणे एवा स्नेहबंधनमां पडे ठे, माटे एवा गृहस्थाश्रमवडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए श्रावसुं स्थान श्रयुं. (८) तेमज ( के के० ) यातङ्कः एटले शीघ्र मृत्यु थापे एवो विपूचिका प्रमुख रोग जे ते ( से के०) तस्य एटले ते धर्मबंधुर हित एवा गृहस्थना ( बहाय के० ) व( होइ के० ) जवति एटले थाय ते. माटे गृहस्थाश्रमवडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए नवमं स्थान थयुं. (ए) तेमज ( संकप्पे के० ) संकल्पः एटले इष्ट वस्तुना वियोगी ने अनिष्ट वस्तुनी प्रातिथी मनमां रोग सर खोजे संकल्प विकल्प थाय बे ते ( से के० ) तस्य एटले ते गृहस्थना ( वहाय के० ) वधाय एटले वधने यर्थे ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. अर्थात् मिथ्या संकल्प विकल्पथी गृहस्थ पोताना घरनो नाश करे बे, माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए दशमं स्थान थयुं. ( १० ) तेमज ( गिहिवासे के ० ) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते ( सोवक्के से के० ) सोपक्लेशः एटले क्लेशवालो बे. अर्थात् गृहस्थाश्रममां खेती, व्यापार प्रमुख सर्वे साधनो घणा दुःखदायी होवाथी तथा घृत लवण विगेरे वस्तुनी चिंता गृहस्थने राखवी पडे बे, तेथी सत्पुरुषो गृहस्थाश्रमने क्लेशवालो गणे बे. माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए अग्यारमुं स्थान थयुं. ( ११ ) तेमज ( परिआए के० ) पर्याय: एटले चारित्र पर्याय जे ते ( निरुवक्के से के० ) निरुपक्लेशः एटले गृहस्थाश्रममां कहेल क्लेश एमां नयी. माटे एवं चारित्र मूकी गृहस्थाश्रम स्वीकारवामां शुं लाज ? एवो विचार करवो. या बारमुं स्थान थयुं. (१२) तेमज ( गिहिवासे के० ) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते ( बंधे के० ) बन्धः एटले कर्मबन्धन रूप बे. अर्थात् कर्मबन्धन करनारा व्यापार जेमां करवा पडे बे. एवा गृहस्थाश्रम वडे मने शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए तेरमुं स्थान ययुं . ( १३ ) तेमज ( परिश्राए ho ) पर्याय: एटले चारित्र पर्याय जे ते ( मुरके के० ) मोक्षः एटले कर्मबंधनथी बुडावनार होवाथी मोक्षरूप बे. माटे गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन ? एवो विचार 'करवो. ए चउदमुं स्थान थयुं. (१४) तेमज ( गिहिवासे के० ) गृहिवासः एटले गृहस्थाश्रम जे ते ( सावजे के० ) सावद्यः एटले प्राणातिपात प्रमुख पापस्थानक - वालों से. माटे ए गृहस्थाश्रमवडे मने शुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. जल । मंदलग्ग तव महिला धुत्ते लग्गा । ताए तव एयं कयं ण पत्तियं ति । मूलदेवेण नमः । एहि वचामो जा ते दरिसेमि । जदि ण पत्तियसि ताहे गया अन्नाए खेसाए वियाले उवासो मग्गिर्छ । ताए दिलो तब एगंमि पएसे छिया । सो धुत्तो आगर्छ । श्यरी वि धुत्तेण सह पिबेजमाढत्ता । श्मं च गायश् ॥ इरिमंदिरपत्तहार्ड महु कंतु गतो वणिजार ॥ वरिसाण सयं च जीवन सा जीवंतु घरं कयाइ एज ॥ मूलदेवो जण । कयलीवणपत्तवेढिया पश् नणामि । देव जं मद्दलएण गळती मु. णज तं मुहुत्तमेव पड़ा मूलदेवेण नमति । किं धुत्ते तर्ज पनाए निग्गंतूणं पुणरवि श्रागर्ड तीय पुर हिसा सहसा संनंता अप्नुहिया। तले खाण पिवणे वदंते तेण वाणिएणं सवं तीए गीयपछत्तयं संचारियं । एसो लोड हेजालोउत्तरे विचरणकरणाणुयोगे एवं सीसो वि केश पय असदहंतो कालेण विद्यादीहिं देवतं आयं पश्त्ता सद्दहावे. यहो। तहा दवाणुगे वि पडिवाइं नाऊण तहा विसेसणवहुलो हेऊ कायबो । जहा कालजावणा हव । तर्ज सो णावगड एगयं कुत्तियावणचच्चरी वा कद्यश् । जहा सिरिगुत्तेण ब्लुए कया।उक्तो यापकहेतुः । सांप्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याह । लोगस्स अनजाणण थावगहेक उदाहरणं ॥ ७ ॥ अस्य व्याख्या॥ लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम् । किम् । स्थापकहेतावुदाहरणमित्यदरार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । एगो परिचायगो हिंडछ । सो य परूवेश। खेत्ते दाणाई सफलं ति कटु समखेत्ते कायदं । अहं लोअस्स मनं जाणामिण पुण अन्नो। तो लोगो तमाढाति । पुनि य संतो चउसु वि दिसासु खीलए णिहणिकण रझाए पमाणं काऊण माश्छाणि जण । एयं लोयमतं ति । त लोउँ विम्हयं गड । अहो नट्टारएण जा. णियं ति । एगो य सावर्ड तेण नायं । कहं धुत्तो लोयं पयारेशत्ति । तो अहं पि वचामित्ति।कविऊण नणियं । ण एस लोयमलो जुझो तुमं ति।त सावएण पुणो मर्वजण अग्लो देसो कहि जस लोयमलो ति।लोगो तुझो।असे नणंति।अणेगहाणेसु अन्न अन्नं मतं परूवंतयं दहण विरोधो चोश्यत्ति। एवं सो तेण परिवायगो णिप्पिपसिणवागरणो की एसोलोल थावगहेऊ लोउत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतीसु असंनावपिलासग्गाहर सीसो एवं चेव पालवेयचोदवाणुजोगेण साहंणा तारिसं नाणियव ता. रिसोय परको गेण्हियहो । जस्स पुरोउत्तरं चेव दान तीर। पुवावर विरुको दोसो यण हव।उक्तः स्थापकः सांत्रतं व्यंसकमाह । सा सगडतित्तिरी वं-सगंसि हेडम्मि हार नायवा व्याख्या॥ सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ नवति ज्ञातव्येत्यदरार्थः। नावाथः कथानकादवसेयस्तच्चेदम् । जहा एगो गामेझगो सगडं कहाण नरेऊण णगरं गल। तेण गचंतेण अंतरा एगा तित्तिरी मश्या दिहा।सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवरि प.. Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६५७ पंदरमुं स्थानक थयु. ( १५ ) तेमज ( परिआए के) पर्यायः एटले चारित्रपर्याय (अणवले के०) अवनद्यः एटले पापरहित . माटे गृहस्थाश्रम वडे शुं प्रयोजन? एवो विचार करवो, ए सोलमुं स्थानक थयु. (१६) तेमज (गिहिणं के०) गृहिणां एटले गृहस्थना ( कामनोगा के०) कामनोगाः एटले कामनोग जे ते ( वहुसाहा. रणा के) वहुसाधारणाः एटले चोर, जार, राजा विगेरेने सरखा ज . माटे एवा गृहस्थाश्रम वडे झुं प्रयोजन ? एवो विचार करवो. ए सत्तरमुं स्थानक थयु. (१७) तेमज गृहस्थाश्रममां (पुन्नपावं के० ) पुण्यपापं एटले पुण्य पाप जे ते ( पत्ते के०) प्रत्येक एटले जे करे तेने बे. अर्थात् माता, पिता स्त्री इत्यादिकने अर्थे करेलु पाप जे करे बेतेनेज लागे . (नो के० ) अरे ( मणुआण के० ) मनुजानां एटले मनुप्योर्नु ( जीविए के) जीवितं एटले श्रायुष्य जे ते (अणिच्चे के०) अनित्यं एटले अनित्य एवं ( खलु के० ) निश्चये ने. कारण के, ते आयुष्य ( कुसग्गजलविधुचंचले के०) कुशाग्रजलविंडुचंचलं एटले दर्जनी अणी उपर रहेला जलविंषु समान ठे. श्रर्थात् उपक्रम घणा होवायी आउ जलविंसमान चंचल . (च के०) पुनः (जो के) अरे! मे (बहुं के) बहु एटले घणुं (पावं के०) पापं एटले पाप अर्थात् संक्लेशवालुं एवं ( कम्म खलु के) कर्म खलु एटले चारित्र मोहनीय प्रमुख कर्म जे ते ज (पंगडं के०) प्रकृतं एटले कयुं . जेथी चारित्र लीधा पठी पण मने एवी कुछ बुझि उत्पन्न थाय ने. (च के० ) पुनः ( नो के०) अरे (पुष्विं के०) पूर्व एटले पूर्वे ( कडाणं के०) कृतानां एटले करेला एवा ( पावाणं कम्माणं के०) पापानां कर्मणाम् एटले ज्ञानावरणीयादि तथा अशातावेदनीयादि पापकर्मोनुं तथा (सुचिमाणं के०) पुश्चरितानां एटले पूर्वनवे प्रमादकपायादिकना वशथी मद्यपान प्रमुख जे दुष्टकर्म करेला होय तेमनुं तथा (पुप्पडिकंताणं के०) ःपराकान्तानां एटले मिथ्यात्व, अविरति विगेरेयी प्राणिवध प्रमुख जे कर्म कस्या होय तेमनुं फल (वेश्त्ता खलु के०) वेदयित्वा खलु एटले नोगव्या पठीज (मुरको के०) मोदः एटले मोक्ष थाय ठे. पण ( अवेश्त्ता के ) अवेदयित्वा एटले पूर्वोक्त कर्म लो. गव्या विना मोद (नधि के०) नास्ति एटले नथी. (वा के०) अथवा पूर्वोक्त कमोंने (तवसा के ) तपसा एटले अनशन प्रमुख तपस्या बडे (जोसश्त्ता के०) दापयित्वा एटसे खपावीनेज मोक्ष याय , ते विना यतो नश्री. ए (थहारसमं के० ) श्रष्टादशं एटले श्रढारमुं ( पयं के०) पदं एटले पद (नव के०) नवति एटसे थाय ठे. ॥१॥(च के०) पुनः (अत्र के०) था अढार स्थानकमां कद्देस बात उपर ( सिलोगो के०) लोकः एटले लोक जे ते (नव के०) नवति एटसे चे. Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ राय धनपतसिंघ वहाउरका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस-४३-मा. अर्थात् अढार स्थानमां कहेली तथा न कहेली वातनो संग्रह करनार श्लोक श्रागल कहीशुं ते . ॥ (दीपिका.) तत्र प्रथम स्थानकमाह। तद्यथेत्युदाहरणे । हं नो दुःखमायां पु.प्र. जीविन इति । हंनो शिष्यामन्त्रणे।मुःखमायामधमकालरूपायां कालदोपादेव फुःखेन कृलेण प्रकर्षेण उदारजोगापेक्ष्या जीवितुं शीला उपजीविनः । प्राणिन इति गम्यते । नरेन्द्रादीनामप्यनेकःखप्रयोगदर्शनात् । उदारजोगरहितेन विटम्बनाप्रा. येण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति प्रथमं स्थानम् ॥१॥ अथ द्वितीयस्थानमाह । तथा लघव इत्वरा गृहिणां कामनोगाः । कुःखमाया मिति व. तते । सन्तोऽपि लघवस्तुलाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसारा इत्वरा अल्पकाला गृहिणां गृहस्थानां कामनोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च न देवानामिव विपरीताः। अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति द्वितीय स्थानम् ॥२॥ अथ तृतीयस्थानमाह। तथा नूयश्च शातबहुला मनुष्याः। नुक्तेष्वपि कामलोगेषु पुनरपि सुखानिलाषिण एव मनुष्याः। अतः किं कामनोगैः। संप्रत्युपेदितव्यमिति तृतीय स्थानम् ॥३॥ अथ चतुर्थस्थानमाह । तथा श्दं च मे कुःखं न चिरकालोपस्थायि नवि. ष्यति । इदं च अनुन्नूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो फुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषहजनितं चिरकालमुपस्थातुं शीलं न नविष्यति । श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकरणात् कर्मनिर्जरणात् संयमराज्यस्य प्राप्तिः । इतरथा महानरकादौ विपर्ययः। अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् ॥ ४॥ अथ पञ्चमस्थानमाह । उमजणपुरस्कार इति । न्यूनजनपूजा। प्रव्रजितो हि धर्मप्रजावात् राजामात्यादिनिरन्युबानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते । उत्प्रव्रजितेन तु न्यूनजनस्यापि स्वव्यसनगुप्तयेऽन्युबानादि कार्यम् । अधार्मिकराज विषये वा वेष्टिप्रायात् कुखरकर्मणो नियमत एव इहैव चेदमधर्मफलम् । अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् । एवं सर्वत्र योजनीयम् ॥ ५ ॥ श्रथ षष्ठं स्थानमाह । वान्तस्य प्रत्यापानं जुक्तोनितपरिजोग इत्यर्थः। अयं च श्वशृगालादिनुप्राणिजिराचरितः सतां निन्द्यः पुनर्व्याधिःखजनकः। वान्ताश्च जोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेन । एतत्प्रत्यापानमेवंचूतमेवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ॥६॥ श्रथ सप्तमस्थानमाह । तथा अधोगतिवासोपसंपत् । अधोगतिर्नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्वा तस्यां वसनमधोगतिवासः। एतन्निमित्तनूतं कर्म गृह्यते । तस्योपसंपत् । सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतत्प्रव्रजनमेवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् ॥ ७ ॥ श्र Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६४ थाष्टमं स्थानमाह । जो इत्यामन्त्रणे । गृहिणां गृहस्थानां धर्मः परम निर्वृतिजनको डुन एव । किं कुर्वतां गृहिणाम् | गृहपाशमध्ये वसताम् । अत्र गृहशब्देन पाशकस्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । तन्मध्ये वसतामना दिजवान्यासादकारणं स्नेहवन्धनमेतच्चिन्तनीय मित्यष्टमं स्थानम् ॥ ८ ॥ अथ नवमस्थानमाह । तथा प्रातः सद्योघात विषूचिकादिरोगः । से इति तस्य गृहिणी धर्मवन्धुरहितस्य वधाय विनाशाय नवति । तथाविधवधश्चानेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम् |||| sar दशमं स्थानमाह । तथा संकल्प इष्टानिष्टविप्रयोगप्राप्तेयों मनः सवन्धी श्रातङ्कः स तस्य गृहिणः तथाचेष्टायोगात् मिथ्या विकल्पान्यासेन प्रग्रहादिप्राप्तेर्वधाय नवत्येतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् ॥ १० ॥ श्रथैकादशं स्थानमाह । गृहवासो गृहाश्रमः सोपक्लेशः सह उपक्लेशेन वर्त्तते यः स सोपक्लेशः । उपक्लेशाः कृपिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानगताः परिमतजनगर्हिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवण चिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानम् ॥ ११ ॥ अथ द्वादशं स्थानमाह । पर्याय एनिरेवोपक्लेशै रहितः । दीक्षापर्यायोऽनारस्त्री चिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो वि पामिति चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानम् ॥ १२ ॥ श्रथ त्रयोदशं स्थानमाह । तथा वन्धो गृहवासः । सदा तद्धेत्वनुष्ठानात् कोशकारकीटवदित्येवं चिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३ ॥ श्रथ चतुर्द्दशं स्थानमाह । तथा पर्यायो मोदो निरन्तरं कनिगडानामपगमनेन मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्द्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ अथ पञ्चदशं स्थानमाह । श्रत एव गृहवासः सावयः सपापः प्राणातिपातमृपावादादीनां पञ्चानामाश्रवाणां सेवनादिति चिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५ ॥ श्रव षोडशं स्थानमाह । पर्याय एवमनवद्योऽपापोऽहिंसा दिपालनात्मकत्वादेत चिन्तनीयमिति षोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ अथ सप्तदशं स्थानमाह । बहुसाधारणा गृहिणां कामजोगा इति । गृहिणां गृहस्थानां कामजोगाः साधारणाश्चोरराजकुला दिसामान्याः । पूर्ववदेत चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् ॥ १७ ॥ श्रथाष्टादशं स्थानमाद् । तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति । मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्टितं पुण्यपापं प्रत्येकं पृथक् पृथक् येनानुष्टितं तस्य कर्तुरेव तदिति नावार्थः । एवमष्टादशं स्थानम् ॥ १८ ॥ नव व सिलोगो । जवति चात्र श्लोकः । यत्रेति श्रष्टादशस्थानानां संबन्धे । उक्तानुक्तसंग्रहपर इत्यर्थः । श्लोक इति च जातिपरो निर्देशस्ततच लोकजातिरनेकदानवतीति प्रभूत लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ॥ ( टीका. ) तद्ययेत्यादि । तद्यचेत्युपन्यासार्थः । दंनो दुःखमायां दुःप्रजीविन ८२ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० राय धनपतसिंघ बनाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तालीस (४३) मा.. शति । हंनो शिष्यामन्त्राणे । दुःखमायामधमकालान्यायां कालदोपादेव खेन कृbण प्रकर्पणोदारनोगापेक्षया जीवितुं शीलं येषां ते दुःप्रजीवनः । प्राणिन इति गम्यते। नरेन्द्रादीनामप्यनेकदुःखप्रयोगदर्शनात । उदारनोगरहितेन च विडम्बनाप्रा. येण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति प्रथमं न्यानम् ॥१॥ तथा ख. घव इत्वरा गृहिणां कामनोगाः।पुःखमाया मिति वर्तते । सन्तोऽपि लघवस्तुत्राः प्रकृत्येव तुषमुष्टिवदसाराः। इत्वरा अल्पकालाः। गृहिणां गृहस्थानां कामनोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च न देवाना मित्र विपरीताः। अतः किं गृहाश्रमेणेति सं. प्रत्युपेक्षितव्यमिति हितीयं स्थानम् ॥२॥ तथा नूयश्च खातिबदुला मनुप्या मुखमायामितिवर्त्तत एव । पुनश्च स्वातिवहुला मायाप्रचुरा मनुष्याइति प्राणिनो न कदाचिहिय. म्नहेतवोऽमी।तजहितानां च कीहक्सुखम्।तथा मायावन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति तृतीय स्थानम् ॥३॥ तथा इदं च मे उःखं न चिरकालोपस्थायि नविष्यति।दं चानुनूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो छःखं शारीरमा नसं कर्मफलं परीषहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शीलं नविष्यति । श्रामाण्यपालनेन परीषह निराकृतेः। कर्म निर्जरणात्संयमराज्यप्राप्तेः।इतरथा महानरकादो विपर्ययोऽतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानम् ॥४॥तथा उमजण त्ति न्यूनजनपूजा। प्रव्रजितो हि धर्मप्रनावाखाजामात्यादिनिरन्युनानासनाञ्जलिप्रग्रहादिनिः पूज्यते । उत्प्रव्रजितेन तु न्यूनजनस्यापि खव्यसनगुप्तयेऽन्युठानादि कार्यमधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तुः खरकर्मणो नियमत एव इहैवेदमधर्मफलमतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेदितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ॥ ५ ॥एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया। तथा वान्तस्य प्रत्यापानं नुक्तोनितपरिजोग इत्यर्थः। अयं च श्वशृगालादिकुमसत्त्वाचरितः सतां निन्द्यो व्याधिःखजनकः । वान्ताश्च जोगाः प्रव्रज्याङ्गीकरणेनैतत्प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ॥६॥तथाधरगतिवासोपसंपत्। अधोगतिर्नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः। एतन्निमित्तन्नूतं कर्म गृह्यते। तस्योपसंपत् सामीप्येनाङ्गीकरणम्। यदेतउत्प्रव्रजनमेवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानम् ॥७॥ तथा उर्लनः खलु नो गृहिणां धर्म इति।प्रमादबहुलत्वादुर्लन एव। जो इत्यामन्त्रणे। गृहस्थानां परमनिवृतिजनको धर्मः। किंविशिष्टानामित्याह । गृहपाशमध्ये वसतामित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते । तन्मध्ये वसतामनादिनवान्यासादकारणं स्नेहबन्धनमेत चिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानम्॥णा तथा आतङ्कास्तस्य वधायनवति।आतङ्कः सद्योघाती विचिकादिरोगः। तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य वधाय विनाशाय नवति । तथावधश्चानेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम्॥ए॥तथा संकल्पस्तस्य वधाय नवति । संकल्प श्ष्टानिष्टः Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६५१ वियोगप्राप्तिजो मानस आतङ्कः । तस्य गृहिणस्तथाचेष्टायोगान्मिथ्या विकल्पान्यासेन ग्रहादिप्राप्तेर्वधाय नवत्येतच्चिन्तनीयमिति दशमं स्थानम् ॥१॥ तथा सोपक्लेशो गृहिवास इति।सहोपक्वेशैः सोपक्लेशो गृहाश्रमः । उपक्केशाः। कृपिपाशुपाल्यवाणिज्याउनुटानानुगताःपएिकतजनगर्हिताः शीतोसश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानम् ॥१९॥ तथा निरुपक्वेशः पर्याय इति। एतिरेवोपक्लेशेरहितः प्रत्रज्यापर्यायः। श्रनारम्नी कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विछुपामित्येवं चिन्तनीयमिति छादशं स्थानम्॥१॥ तथा वन्धो गृहिवासस्तक्षेत्वनुष्टानात् कोशकारकीटवदित्येतचिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् ॥ १३ ॥ ॥ तथा मोक्षः पर्यायोऽनवरतं कर्म निगड विगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनीयमिति चतुर्दशं स्थानम् ॥ १४ ॥ ॥ अतएव सावयो गृहवास इति । सावद्यः सपापः प्राणातिपातमृषावादादिप्रवृत्तेरेतचिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥ १५ ॥ एवमनवद्यः पर्याय इत्यपाप इत्यर्थः । अहिंसा दिपालनात्मकत्वादेतच्चिन्तनीय मिति पोडशं स्थानम् ॥ १६ ॥ तथा वहुसाधारणा गृहिणां कामनोगा इति । वहुसाधारणाश्चीरजारराजकुलादिसामान्या गृहिणां गृहस्थानां कामनोगाः। पूर्ववदित्येतच्चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् ॥ १७ ॥ तथा प्रत्येक पुण्यपापमिति । मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं प्रत्येकं पृथक् पृथक् येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति नावार्थः । एवमष्टादशं स्थानम् ॥ १० ।। एतदन्तर्गतो वृद्धानिप्रायेण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव । अन्ये तु व्याचक्षते । सोपवेशो गृहिवास इत्यादिषु पट्सु स्थानेषु सप्रतिपदेषु स्थानत्रयं गृह्यते । एवं च । बदुसाधारणा गृहिणां कामनोगा इति चतुर्दशं स्थानम् ॥१४॥ प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशं स्थानम् ॥१५॥शेपाण्यनिधीयन्ते। तथा अनित्यं खलुथनित्यमेव नियमतःोनोइत्यामन्त्रणे।मनुष्याणां पुंसां जीवितमायुः। एतदेव विशेष्यते । कुशाग्रजल विन्डचञ्चलं सोपक्रमत्वादनेकोपज्वविषयत्वादत्यन्तासारम् । तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पोडशं स्थानम् ॥१६॥ तथा वहु च खलु लो पापं कर्म प्रकृतम् । बहु च । चशब्दात शिष्टम् । खलुशब्दोऽवधारणे । वदेव पापं कर्म चारित्रमोहनीयादि प्रकृतं निर्मितं मयेति गम्यते । श्रामण्यप्राप्तावप्येवं कुपवुछिप्रवृत्तेः । नहि प्रनृतविष्टकर्मरहितानामेवमकुशसा बुझिर्नवत्यतो न किंचित् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सतदर्श म्यानम् । तथा पापानां चेत्यादि । पापानां चापुण्यरूपाणां चशदात्पुण्यरूपाणां च बल नो कृतानां कर्मणाम् । खलुशब्दः कारितानुमतविशेषणार्थः । लो इति शिष्यामन्त्रगे। कृतानां मनोवाकाययोगेरोघतो निर्तितानां कर्मणां ज्ञानावरणीयाद्यशानवंदनीयादीनां प्राक् पूर्वमन्यजन्मसु पुश्चरितानाम् । प्रमादकपायजपुश्चरितजनितानि ऽश्व Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. रितानि । कारणे कार्योपचारात् । इश्वरिततूनि वा अरितानि । कार्य कारणोपचारात् । एवं दुःपराक्रान्तानां मिथ्यादर्शनाविर तिजहुः पराक्रान्तजनितानि दुः पराक्रान्तानि । देतो फलोपचारात् । दुःपराक्रान्तहेतू नि वा दुःपराक्रान्तानि फसे हेतूपचारात् । इह च दुश्चरितानि मद्यपानाश्ली लानृतजापणादी नि । दुःपराक्रान्तानि बधबन्धनादीनि । तदमीषामेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वानुभूय । फलमिति वाक्यशेषः। किम् । मोको जवति प्रधानपुरुषार्थी जवति । नास्त्यवेदयित्वा न जवत्यननुभूय । श्रनेन सकर्मकमोक्षव्यवछेदमाद । इष्यते च खल्पकर्मोपेतानां कैश्चित्सहकारि निरोधतस्तत्फलादानवादि निस्तत्तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोक्षस्तथारूपत्वात् । कर्मणः खफलादाने कर्मत्वायोगात् । तपसा वा पत्वा अनशन प्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुननावरूपेण तपसा प्रलयं नीत्वा । इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशोऽनन्य निबन्धन परिक्लेशेन तपः । रूपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदी रणदोषरूपणवदन्यनिमित्तमक्रमेणापरिक्लेश मित्यतस्तपोऽनुष्टानमेव श्रेय इति न किंचिद्दाश्रमेऐति संप्रत्युपेदितव्यमित्यष्टादशं पदं भवत्यष्टादशं स्थानं जवति । नवति चात्रश्लोकः । श्रत्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकर उक्तानुक्तार्थसंग्रहपर इत्यर्थः । श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः । ततः श्लोकजातिरनेकनेदा जवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ॥ जया य चयई धम्मं, प्रणको नोगकारणा ॥ से तब मुनि बाले, प्राय नावबुनाइ ॥ १ ॥ ( श्रवचूरिः ) यदा चैवमष्टादशव्यावर्त्तनकारणनावेऽपि त्यजति चारित्रधर्मम नार्यो म्लेच्छचेष्टितः स तेषु जोगेषु मूर्तितो बालोऽज्ञ श्रागामिकालं नावबुध्यते ॥ १ ॥ (अर्थ. ) ते या रीते. जया च इत्यादिसूत्र उपर कहेल अढार स्थानक विचार करवा योग्य बता पण ( को के० ) अनार्यः एटले म्लेब नथी पण म्लेब सरखा जे साधु ( जोगकारणा के० ) जोगकारणात् एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख विषय जोगववाना हेतुथी ( धम्मं के० ) धर्मं एटले चारित्र धर्म प्रत्ये ( जया के० ) यदा. ए. टये ज्यारे ( चयइ के० ) त्यजति एटले त्याग करे. त्यारे ( बाले के० ) बालः एटले अज्ञ एवा ( से के० ) सः एटले ते साधु ( तब के० ) तत्र एटले ते शब्द प्रमुख विषयाने विषे ( मुछिए के० ) मूर्जितः एटले मूर्छा करता बता ( श्रय के० ) - यति एटले आवता काल प्रत्ये ( नावबुन के० ) नावबुध्यते एटले सम्यकू प्रकारे जाणे नहिः ॥ १ ॥ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमा चुलिका । ६८३ ( दीपिका.) यदा चैवमष्टादशसु स्थानेषु व्यावर्त्तनकारणेषु सत्खपि यो बालोऽझो धर्मं चारित्रलक्षणं जहाति त्यजति । स श्रायतिमागामिकालं नावबुद्ध्यते सम्यग् नावगछति । किंभूतो वालः । श्रनार्य इव अनार्यो म्लेटचेष्टितः । किमर्थं धर्मं त्यजती - त्या | vोगकारणाय शब्दा दिजोग निमित्तम् । किंभूतो वालः । तत्र मूर्तितः । तेषु' जोगेषु मूर्तितो द्धः ॥ १ ॥ ( टीका. ) जया अत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा चैवमप्यष्टादशसु व्यावर्त्त - कारणेषु सत्स्वपि जहाति त्यजति धर्मं चारित्रलक्षणम् । अनार्य इत्यनार्य श्वानायो म्लेटचेष्टितः। किमर्थमित्याह । जोगकारणाच्छब्दा दिनोगनिमित्तं स धर्मत्यागी तत्र तेषु जोगेषु मूर्तितो गृद्धो बालोऽज्ञ श्रायतिमागामिकालं नावबुद्ध्यते न सम्यगवगच्छतीति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ जया नाविन दो, दो वा पनि बमं ॥ सवधम्मपरिनो, स पच्चा परितप्पड़ ॥ २ ॥ ( श्रवचूरिः ) यदावधावितोऽपसृतो जवति संयम सुख विभूतेः । उत्प्रनजित इत्यर्थः । इन्द्रवत्पतितः क्ष्मां स्वविजवज्रंशात् । सर्वधर्मेभ्यः परिभ्रष्टः स पश्चाष्टो मूत्वा मनाग्मोहावसाने परितप्यते ॥ २ ॥ ( . ) तेज कहे . जया इत्यादि सूत्र. ( ठमं के० ) मां एटले भूमिने विषे ( प डि के० ) पतितः एटले पडेला एवा (इंदो वा के० ) इंद्रो वा एटले देवराज इंद्रनी पेठे अर्थात् इंद्र जेम पोताना इंद्रपदथी भ्रष्ट थने या मृत्युलोकमां पतन पामे, तेम ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे पूर्वोक्त साधु जे ते ( उदाविर्ड के० ) श्र वधावितः एटले नीकली गएला, अर्थात् चारित्रयी ऋष्ट एवा ( होड़ के० ) जवति एटसे थाय ठे. त्यारे ( स के० ) सः एटले ते साधु ( सहधम्मपरिग्रहो के० ) सधर्मपरिष्टः एटले खंति, प्रसव, मद्दव प्रमुख पूर्वे याचरेला सर्व धर्मय परिष्ट या बता ( पछा के० ) पश्चात् एटले पाठलची ( परितप्पड़ के० ) परितप्यते एट' या मे शुं कस्युं एवी रीते पस्तावो करे ठे. ॥ २ ॥ : ( दीपिका. ) एतदेव दर्शयति । यदा चावधावितोऽपतो जवति यः । कोऽर्थः । संयम सुख विभूतेः सकाशात्प्रत्रजित इत्यर्थः । तदा इन्द्रो वा देवराज एव शर्मा पतितः । स्वविमान विनववंशेन नमो पतित इति भावः । किं० वः । सर्वधर्मपरिष्टः । सर्वधर्मन्यः क्षान्त्यादिज्य याने वितेज्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् । लोकिकन्यो Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. वा गौरवादिन्यः परिज्रष्टः सर्वतश्श्युतः। पतितो नूत्वा पश्चात् मनान मोदस्यान्ते स परितप्यते । किमिदं मया कार्यं कृतमित्यनुतापं करोति ॥२॥ (टीका.) एतदेव दर्शयति । जय त्ति सूत्रम् । व्याख्या । यदा चावधावितोऽपसृतो जवति संयमसुखविनूतेः । उत्प्रव्रजित इत्यर्थः । इन्डो वेति देवराज श्व पतितः क्ष्मां गतः स्वविजवज्रशेन नूमौ पतित इति जावः । दमा नूमिः । सर्वधर्मपरिचष्टः सर्वधर्मेन्यः दान्त्यादिन्य आसे वितेच्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेच्योऽपि वा गौरवादिन्यः परिज्रष्टः सर्वतश्श्युतः स पतितो नूत्वा पश्चान्मनाग् मोहावसाने परितप्यते। किमिदमकार्य मयानुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ जया अवंदिमो दोश, पत्ता हो अवंदिमो॥ देवया व चुआ गणा, स पचा परितप्पश्॥३॥ (श्रवचूरिः) यदा च वन्यो नवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्मादीनां पश्चानवत्युनिष्क्रान्तः सन्नवन्धः । तदा च देवतेव स्थानच्युता सती पश्चात्परितप्यत शति पूर्ववत् ॥३॥ (अर्थ.) जे साधु (जया के०) यदा एटले ज्यारे चारित्र रूडी रीते पालता होय त्यारे प्रथम तो (वंदिउँ के०) वन्द्यः एटले वंदना करवाने योग्य एवा (होश के०) नवति एटले थाय. ( य के०) च एटले अने (पला के०) पश्चात् एटले पाउलथी अर्थात् चारित्रनो त्याग करे त्यारे ( अवंदिमो के०) अवन्द्यः एटले वन्दना करवा योग्य नहि एवा ( होइ के) नवति एटले थाय. ( स के०) सः एटले ते साधु (गणा के) स्थानात् एटले पोताना स्थानकथी (चुश्रा के०) च्युता एटले ज्रष्ट थएल एवी (देवया व के०) देवतेव एटले देवतानी पेठे (पलाके) पश्चात् एटले पाउलथी (परितप्पर के.) परितप्यते एटले पस्तावो करे जे. ॥३॥ (दीपिका.) यदा च यः संयमवान् सन् नरेन्द्रादीनां वन्द्यो जवति । स पश्चासुन्निष्क्रान्तः संयमरहितः सन्नवन्द्यो नवति । पश्चात् स परितप्यते च । किंवत् । स्थानच्युता सती इन्वर्जा देवतेव । परितापार्थः पूर्ववत् ॥३॥ . . (टीका.) जया अत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा च वन्द्यो नवति । श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चानवत्युनिष्क्रान्तः सन्नवन्धस्तदा देवतेव का चिाद, न्व र्जा स्थानच्युता सती। स पश्चात्परितप्यत इत्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥३॥. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६५५ जया अ पूश्मो होइ, पना होश अपूश्मो॥ राया व रजपप्नहो, स पना परितप्पश्॥४॥ (श्रवचूरिः ) यदा च पूज्यो वस्त्रन्नक्ताद्यैर्लोकानामिति शेपः । पश्चानवत्युत्पत्र जितः सन्नपूज्यः । राजेव राज्यप्रन्रष्टो महतो नोगाछिपमुक्तः। स पश्चात्परितप्यते॥४॥ - (अर्थ.) तेमज जया इत्यादि सूत्र. (श्र के०) च एटले वली जे साधु चारिचना प्रनावथी प्रथम ( जया के ) यदा एटले ज्यारे (पूश्मो के०) पूज्यः एटले पूजा करवा योग्य एवा (होश के) नवति एटले थाय ठे. अने (पठा के०) पश्चात् एटले चारित्रयी घ्रष्ट यया पठी (अपूश्मो के०) अपूज्यः एटले पूजा करवा योग्य नहि एवा ( हो के०) नवति एटले थाय . ( स के०) सः एटले ते साधु (रजापतको के० ) राज्यप्रचष्टः एटले राज्यथी व्रष्ट थएल एवा (राया व के) राजेव एटले राजानी पेठे (पहा के० ) पश्चात् एटले पाउलथी (परितप्पश् के) परितप्यते एटले पस्ताय . ॥४॥ (दीपिका.) यदा चपूज्यो नवति लोकानां वस्त्रपात्रादितिः। कुतः । साधुधर्ममाहा. त्म्यात् । स उत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो नवति लोकानामेव । क श्व । राज्यप्रन्रष्टो महतो जोगाठियुक्तो राजेवापूज्यो नवति । पुनः स पश्चात् परितप्यते च पूर्ववत् ॥ ४ ॥ (टीका. ) तथा जय त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। यदा च पूज्यो नवनि वस्त्रजक्तादितिः श्रामण्यसामर्थ्यालोकानां पश्चानवत्युत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो लोकानामेव । तदा राजेव राज्यप्रनष्टः । महतो नोगाछिप्रमुक्तः स पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥४॥ जया अमाणिमो होइ, पता हो अमाणिमो॥ सिहि व कब्बडे बूढो, स पना परितप्पः ॥५॥ (श्रवचूरिः) यदा च मान्योऽन्युठानाझाकरणादिना । पश्चान्नवत्यमान्यन्तत्परित्यागेन । तदा श्रेष्टीव कर्वटे छुप्रसन्निवेशे क्षिप्तः सन्परितप्यते ॥ ५ ॥ (अर्थ.) तेमज जया इत्यादि सूत्र. (श्र के०) च एटले बली जे साधु शीलना प्रजावधी प्रथम (जया के०) यदा एटले ज्यारे (माणिमा के०) मान्यः पटले थासन थापवं, याझा मानवी इत्यादि प्रकार बडे मान श्रापवा योग्य थाय ठे. अने ( पछा के0 ) पश्चात् एटले झीलची ब्रष्ट या पठी (यमाणिमो के०) यमान्यः एटले मान यापवा योग्य नहि एवा (होइ०) नवति पटले याय . Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. वा गौरवादिन्यः परिघ्रष्टः सर्वतश्युतः । पतितो जूत्वा पथात् मनागू मोहस्यान्ते स परितप्यते । किमिदं मया कार्यं कृतमित्यनुतापं करोति ॥२॥ (टीका.) एतदेव दर्शयति । जय त्ति सूत्रम् । व्याख्या । यदा चावधावितोऽपसृ. तो नवति संयमसुखविनूतेः । उत्प्रव्रजित इत्यर्थः । इन्डो वेति देवराज व पतितः मां गतः ख विनवबंशेन नूमौ पतित इति नावः । दमा नूमिः । सर्वधर्मपरिचष्टः सर्वधर्मेन्यः दान्त्यादिन्य आसेवितेच्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेच्योऽपि वा गौरवादिन्यः परिज्रष्टः सर्वतश्च्युतः स पतितो नूत्वा पश्चान्मनाग मोहावसाने परितप्यते। किमिदमकार्य मयानुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः ॥२॥ जया अवंदिमो होइ, पना होइ अवंदिमो॥ देवया व चुआ गणा, स पना परितप्पा ॥३॥ (श्रवचूरिः) यदा च वन्द्यो जवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चानवत्युनिष्क्रान्तः सन्नवन्धः । तदा च देवतेव स्थानच्युता सती पश्चात्परितप्यत शति पूर्ववत् ॥३॥ (अर्थ.) जे साधु (जया के०) यदा एटले ज्यारे चारित्र रूडी रीते पालता होय त्यारे प्रथम तो (वंदिउँ के) वन्द्यः एटले वंदना करवाने योग्य एवा (होश के०) नवति एटले थाय. ( य के) च एटले अने (पला के०) पश्चात् एटले पालथी अर्थात् चारित्रनो त्याग करे त्यारे (अवंदिमो के०) अवन्द्यः एटले वन्दना करवा योग्य नहि एवा ( हो के) नवति एटले थाय. ( स के) सः एटले ते साधु (गणा के ) स्थानात् एटले पोताना स्थानकथी (चुश्रा के) च्युता एटले ज्रष्ट थएल एवी (देवया व केम्) देवतेव एटले देवतानी पेठे (पहाके) पश्चात् एटले पालथी (परितप्प के०.) परितप्यते एटले पस्तावो करे बे. ॥३॥ (दीपिका.) यदा च यः संयमवान् सन् नरेन्मादीनां वन्द्यो जवति । स पश्चामुन्निष्क्रान्तः संयमरहितः सन्नवन्यो नवति । पश्चात् स परितप्यते च । किंवत् । स्थानच्युता सती इन्वर्जा देवतेव । परितापार्थः पूर्ववत् ॥ ३ ॥ (टीका.) जया अत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा च वन्द्यो नवति । श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनां पश्चानवत्युनिष्क्रान्तः सन्नवन्धस्तदा देवतेव का चिदि.. न्जवर्जा स्थानच्युता सती। स पश्चात्परितप्यत इत्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमाध्ययनम् । ԱԱ I 1 किविण गरं पो । सो एगेण नगरघुत्ते पुछि कहं सगडतित्तिरी लन । | तेण गामेल्लएण नम । तप्पा डुयालियाए लनति । तर्ज ते सरिक आहशित्ता । सगडं तित्तिरीए सह गहियं । एत्तिलगो चैव किल एस वंसगो त्ति । गुरवो जति । त सो गामेगो दीएमएस | तब य एगो मूलदेवसरिखो मणुसो आग ते सो दिो | तेण पुत्रि । किं प्रियायसि अरे देवाप्पिया । ते जयिं श्रहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण बलिउँ । तेण नणियं । मा बीहिह तप्पाडुयालियं तुमं सोवयारं मग्ग । माश्वाणं सिरकाविर्ड एवं नवजत्ति जणिऊण तस्स सगासं गर्ज न॒णियं चणेण मम जइ सगडे हियंतो मे श्याणिं तपणा यात्रियं सोवयारं दवावे हि । एवं हो ति | घरणी महिला संदिठा । अलंकिय विनूसिया परमेण विषएष एस्स तपाया लियं देहि । सा वणसमं उवहिया । तर्ज सो सागडि जति । मम अंगुली बिन्ना । इमा चीरेण वेढिया ण सक्केमि उडुयालेनं तुमं अयालिनं देहि । मग्गे आलिया तेहत्रेण गहिया । गामं तेण संपछि लोगस्स य कहे । जहा मए सतित्तिरीगेण सगडे गहिया तप्पाणाडुयालिया । ताहे ते धुत्ते सगडं विस-ियं । तं च पसाएऊण जद्या यित्तिया । एस पुण लूस चैव कहाण्यवसेण जर्जि । एस लोर्ड लोगुतरे विचरणकरणाणुयोगे कुस्तुतिनावियस्स तस्स तहा वंसगो पद्यति । जहा संमं पडिवs | दवाउगे पुण कुप्पावयणि चोइया । जहा ज‍ जिपवो घिडो वित्तं जीवेवि घडेवि दोसुविसेसे वहइति । ते अत्तलत्तणेण जीवघडाणं गतं नवति । हावा वतिरित्तो जीवो तेण जीवस्स नावो नवइति । एस किल एद्दहमेत्तो चेव वंसगो । लूसगेण पुण एक इमं उत्तरं जातिवं । जइ जीवघडा वित्ते वति । तम्हा तेसिमेगत्तं संज्ञावेहि । एवं ते सबजावाणं गतं जवति । कहं घडो पो पिरमाणू पिसिए खंधे एवं सबनावेसु विवो वह त्ति काउं किं सवजावा एगी - तु । सीसो कहं पुण एवं जाणियां सबनावेसु विवो वह नय ते ए-गीजवंति । श्रयरि याद | गंता एवं सिझर एक दितो । खवणस्स व-एसई पुणखदिरो पलासो वा एवं जीवो वि पियमा विवो पुए जीवो होद्यन्न वा धमाधम्मागासादीणं ति । उक्तो व्यंसकः । सांप्रतं लूषकमधिकृत्याह । तउसगवंसगलूसग हेउम्मि य मोय य पुणो ॥ ८८ ॥ व्याख्या ॥ त्रपुषव्यंसकप्रयोगे पुनर्लुषके देतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथादरार्थः । नावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम्। जहा एगो मणुसो तडसाएं जरिए सगडेण नयरं पविस३ । सो पंवितो धुत्ते जसइ । जो एयं तजसाए सगडं खाइया तस्स तुमं किं Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । इमो ॥ जया इमो दोइ, पच्चा दो राया व रकपनो, स पच्चा परितप्प ॥ ४ ॥ ६य्य ( अवचूरिः ) यदा च पूज्यो वस्त्रक्ताद्यैर्लोकानामिति शेषः । पश्चाद्भवत्युत्प्रत्र जितः सन्नपूज्यः । राजेव राज्यप्रष्टो महतो जोगाद्विप्रमुक्तः । स पश्चात्परितप्यते ॥ ४ ॥ ( अर्थ. ) तेमज जया इत्यादि सूत्र. ( अ के० ) च एटले वली जे साधु चारिचना प्रजावथी प्रथम ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( पूइमो के० ) पूज्यः एटले पूजा करवा योग्य एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. अने (पछा के० ) पश्चात् एटले चारित्रयी ऋष्ट थया पढी ( अश्मो के० ) अपूज्यः एटले पूजा करवा योग्य नहि एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. ( स के० ) सः एटले साधु (-रो के० ) राज्यप्रनष्टः एटले राज्यथी ऋष्ट यएल एवा ( राया व के० ) राजेव एटले राजानी पेठे ( पछा के० ) पश्चात् एटले पालथी ( परितप्प के० ) परितप्यते एटले पस्ताय बे ॥ ४ ॥ (दीपिका.) यदा च पूज्यो जवति लोकानां वस्त्रपात्रादिनिः । कुतः । साधुधर्ममाहात्म्यात् । स उत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो जवति लोकानामेव । क इव । राज्यप्रचष्टो महतो जोगाद्वियुक्तो राजेवापूज्यो जवति । पुनः स पश्चात् परितप्यते च पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ( टीका. ) तथा जयत्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा च पूज्यो जवति वस्त्रज़क्तादिनिः श्रामण्यसामर्थ्यालोकानां पश्चाद्भवत्युत्प्रव्रजितः सन्नपूज्यो लोकानामेव । तदा राजेव राज्यप्रचष्टः । महतो जोगाद्विप्रमुक्तः स पश्चात्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ जया माणिमो होइ, पचा होइ प्रमाणिमो ॥ सिद्धि व कब्बडे बूढो, सपा परितप्पं ॥ ५ ॥ . ( अवचूरिः ) यदा च मान्योऽन्युठानाज्ञाकरणादिना । पश्चाद्भवत्यमान्यस्तत्परिंत्यागेन । तदा श्रेष्ठ कर्बटे कुद्रसन्निवेशे दिप्तः सन्परितप्यते ॥ ५ ॥ ( . ) तेमज जया इत्यादि सूत्र. ( अ के० ) च एटले वली जे साधु शीलना प्रजावथी प्रथम ( जया के० ) यदा एटले ज्यारे ( माणिमो के० ) मान्यः एटले श्रासन आप, आज्ञा मानवी इत्यादि प्रकार वडे मान आपवा योग्य थाय बे, अने ( पछा के० ) पश्चात् एटले शीलथी ॠष्ट थया पढी ( अमाणिमो के० ) • अमान्यः एटले मान आपवा योग्य नहि एवा ( होइ के० ) जवति एटले थाय बे. 1 1 1 i Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. (स के.) सः एटले ते साधु ( कवडे के ) कर्वटे एटले घणा ज कुछ एवा गामडामां (बूढो के) दिप्तः एटले पडेलो एवा (सिहि व के) श्रेष्ठीव एटले श्रेष्ठिनी पेठे ( पछा के०) पश्चात् एटले पाठलथी ( परितप्पर के) परितप्यते एटले पस्ताय ॥५॥ .. (दीपिका.) यदा च मान्यो नवत्यज्युबानाझाकरणादिना माननीयः स्याठी. लादिप्रजावेन । पश्चाहीलादिपरित्यागेनामान्यः स्यात् । किंवत् । श्रेष्टिवत् । श्रेष्ठीव । यथा श्रेष्ठी कर्वटे क्षिप्तो महाकुषसं निवेशे दिप्तोऽमान्यो जवति । पुनः पश्चात् परित. प्यते । तम्चीलादिपरित्याग्यपि ॥ ५॥ - (टीका.) तथा जय तिं सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा च मान्यो जवत्यच्युबानाशाकरणादिना माननीयः शीलप्रनावेण, पश्चान्नवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीव कर्बटे महानुअसंनिवेशे क्षिप्तः सन् पश्चात्परितप्यत इत्येतत्समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥५॥ जया अथेर होश, समश्कंतजुवणो॥ मनु व गलिं गलित्ता, स पडा परितप्प ॥६॥ (अवचूरिः ) यदा च स्थविरो नवति स त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन । एतद्विशेषदर्शनायाह । समतिक्रान्तयौवन एकान्तस्थ विरजावस्तदा विपाककटुत्वान्मत्स्य श्व गलं गिलित्वानिगृह्य तथाविधकर्मलोहकंटकविकः सन् स पश्चात्परितप्यते । गाथेयं बृहकृत्तौ लघुवृत्तौ च नोक्ता ॥६॥ (अर्थ.) जया इत्यादि सूत्र. ( अ के) च एटले वली जे साधु ( जया के०) यदा एटले ज्यारे (समकंतजुव्वणो के०) समतिक्रान्तयौवनः एटले नीकली ग डे जुवान अवस्था जेमनी एवा अने माटेज (थेर के) स्थविरः एटले सर्वथा वृक थया बता संयमनो त्याग करे . ( स के०) सः एटले ते साधु (गलिं के०) गलं एटले लोहडाना कांटा उपर राखेल मांसने (गवित्ता के०) गिलित्वा एटले गलीने (व के) श्व एटले जेम ( मब के०) मत्स्यः एटले मन पस्ताय , तेम विषय जोगनो परिणाम कडवो होवाथी ( पछा के०) पश्चात् एटले पालथी (प. रितप्पर के.) परितप्यते एटले पस्ताय . ॥६॥ - (दीपिका. ) यदा च स्थविरो नवति मुक्तसंयमो वयसः परिणामेन । एतद्विशेषप्रदर्शनायाह । किंनूतः स्थ विरः । समतिकान्तयौवन एकान्तस्थ विरजावः । तदा Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। ६५७ जोगानां विपाकटुकत्वात् परितप्यते । क श्व । मत्स्य श्व । यथा मत्स्यो बमिशं गिलित्वा अनिगृह्य तथाविधकर्मदोहकंटकविधः सन् पश्चात् परितप्यत इति । एतदपि पूर्वेण समानम् ॥ ६॥ (टीका.) जय ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यदा च स्थविरो जवति. सं त्यक्तसंयमो वयःपरिणामेन । एतहिशेषप्रतिपादनायाह । समतिक्रान्तयौवन एकान्तस्थविर शति जावः। तदा विपाककटुकत्वानोगानां मत्स्य व गलं बडिशं गिलित्त्वानिगृह्य तथाविधकर्मलोहकंटकविकः सन्पश्चात्परितप्यत इत्येतदपि समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः॥६॥ जया अ कुकुमुंबस्स, कुतत्तीदिं विदम्म॥ हबी व बंधणे बछो, सपना परितप्प ॥७॥ (अर्थ.) एज प्रकट कहे . जया इत्यादि सूत्र. संयमनो त्याग करनार साधु (जया के) यदा एटले ज्यारे (कुकुहुँबस्स के०) कुकुटुम्बस्य एटले माग कुटुंबना परिवारनी ( कुतत्तीहिं के) कुततिनिः एटले माठी चिंताउँथी (विहम्म के) विहन्यते एटले हणाय . त्यारे (स के०) सः एटले ते साधु (बंधणे के०) बन्धने एटले विषयनी लालचथी बन्धनमां (बको के०) बकः एटले सपडा गएल एवा ( हबी व के० ) हस्तीव एटले हाथीनी पेठे ( पछा के०) पश्चात् एटले पाबलथी (परितप्पर के) परितप्यते एटले पस्ताय . ॥७॥ (दीपिका.) एतदेव स्पष्टयति । यदा च कुकुटुम्बस्य कुत्सितकुटुम्बस्य कुत: प्तितिः कुत्सितचिन्ताजिरात्मनः संतापकारिणीनिर्विहन्यते विषयजोगान् प्रति विघातं नीयते । तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात् । क श्व । यथा इस्ती कुकुटुम्बबन्धनबद्धः परितप्यते ॥७॥ पुत्तदारपरीकिन्नो, मोदसंताणसंत॥ पंकोसन्नो जदा नागो, स पडा परितप्पा ॥७॥ (अवचूरिः) एतदेव स्पष्टयति । पुत्रदारपरिकीणों विषयसेवनात् पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । मोहसंतानसंततो मोहनीयकर्मप्रवाहेण व्याप्तः। पङ्कावसन्नो यथा नागः कर्दम निमग्नो वनगज श्व । स पश्चात्परितप्यते । हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति ॥ ७॥ .... १:- आ गाथा बृहकृत्तिमां तथा अवचूरिमां देखाती नथी. ... . . . . . . . . . Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. : (.) पुत्तदार इत्यादि सूत्र. संयमनो त्याग करनार ( स के० ) सः एटले ते साधु जे ते ( पुत्तदारपरी किन्नो के० ) पुत्रदारपरिकीर्णः एटले पुत्र तथा स्त्रीवडे परिवरेलो ने ( मोहसंतान संत के० ) मोहसंतानसंततः एटले दर्शनमोहिनी प्रमुख कर्मप्रवाहमां पडेलो एवो थयो बतो ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( पंकोसन्नो के० ) पङ्कावसन्नः एटले कादवमां खुती गएल एवो ( नागो के० ) नागः एटले हाथी पस्ताय बे, तेम (पछा के० ) पश्चात् एटले पाठलथी ( परितप्पर के० ) परितप्यते एटले पस्ताय बे ॥ ८ ॥ ( दीपिका. ) पुनराह । मुक्तसंयमः पश्चात्परितप्यते । हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितम् । किं० । पुत्रदारपरिकीर्णः । विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । पुनः किंभूतः । मोहसंतानसंततो दर्शनमोहनीयादिकर्मप्रवाहेण संतप्तः । क श्व परितप्यते । यथा नागो हस्ती पङ्कावसन्नः कर्दममनः सन् परितप्यते ८ ॥ ( टीका. ) एतदेव स्पष्टयति । पुत्तदार ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । पुत्रदारपरिकीर्णो विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिनिः सर्वतो विक्षिप्तः । मोहसंतान संततो दर्शनादि - मोहनीय कर्मप्रवाहेण व्याप्तः । क इव । पङ्कावसन्नो नागो यथा कर्दमावमग्नो वनगज श्व । स पश्चात्परितप्यते । हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ या गणी ढुंतो, नाविणा बहुस्सु ॥ जइ दं रमंतो परिचाए, सामन्ने जिपदेसिए ॥ ए॥ ( श्रवचूरिः ) कश्चित्सचेतन एवं तप्यत इत्याह । यास्मिन् दिवसेऽहमाचायो जवेयं जावितात्मा प्रशस्तयोगभावना निः बहुश्रुत उजयलोक हितबहागमयुतो यद्यहमर मिष्यं रतिमकरिष्यम् । पर्याये प्रव्रज्यारूपे श्रामण्ये श्रमणसंबन्धिनि जिनदेशिते ॥ ए ॥ (अ.) को सचेतन वली एवी रीते पस्ताय एम कहे बे. अऊ इत्यादि सूत्र. ( अहं के० ) अहं एटले हुं ( श्रश्रा के० ) अद्य तावत् एटले आजसुधी तो ( गणी के० ) गणिः एटले आचार्य ( ढुंतो के० ) स्यां एटले यात. शुं कस्युं होत तो ते कहे बे. ( ज ० ) यदि एटले जो ( श्रहं के० ) अहं एटले हुं ( जाविष्ठाप्पा के ० . ) जावितात्मा एटले शुभयोगनी जावना वडे श्रात्माने विषे जावना करनारो एवो अने ( बहुस्सु के० ) ) बहुश्रुतः एटले या लोक परलोकने विषे हितकारी एवा अग्यार अंग प्रमुख बहु श्रागमने धारण करतो बतो ( जिएदेसिए के० ) Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके प्रथमा चूलिका । ६५ 1. जिनदेशिते एटले जिनजगवाने उपदेश करेल एवा, ( सामने के० ) श्रामण्ये एटले श्रमण संबंधी (परिश्राए के० ) पर्याये एटले चारित्र पर्यायने विषे ( रमंतो के० ) अरमिष्यं एटले रमी रहत, अर्थात् रूडी रीते चारित्र पालत तो आचार्य यात. ॥ ॥ ( दीपिका.) कश्चित् सचेतनो नर एवं च परितप्यत इत्याह । श्रहमद्य तावद - स्मिन् दिवसे गणी स्यामाचार्यो नवेयम् । यदि पर्याये प्रव्रज्यारूपे श्ररमिष्यं रतिमकरिष्यम् । किंविशिष्ठे पर्याये । श्रामये श्रमणसंबन्धिनि । पुनः किंभूते | जिनदेशिते तीर्थकर प्ररूपिते । न शाक्यादिरूपे । किंभूतोऽहम् । जावितात्मा । प्रशस्तयोगनावनात आत्मा यस्य सः । पुनः किंभूतः । बहुश्रुतः । उजयलोक हितबहा मयुक्त इति ॥ ॥ (टीका.) कश्चित् सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याह । श्रति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रद्य तावदहमद्यास्मिन् दिवसे । श्रहमित्यात्म निर्देशे | गणी स्यामाचार्यो नवेयम् । जावितात्मा प्रशस्तयोगभावना जिः । बहुश्रुत जनयलोक हितबह्रागमयुक्तः । यदि किं स्यादित्यत आह । यद्यहमर मिष्यं रतिमकरिष्यं पर्याये प्रव्रज्यारूपे । सोऽनेकद इत्याह । श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि । सोऽपि शाक्या दिनेद जिन्न इत्याह । जिनदेशिते निर्ग्रन्थसंबन्धिनीति सूत्रार्थः ॥ एए ॥ I देवलोगस माणो, परियान मदेसि ॥ रयाणं प्ररयाणं चं, महानरयसारियो ॥ १० ॥ ( श्रवचूरिः ) एतत्स्थिरीकरणार्थमाह । देवलोकसदृश एव पर्यायः प्रव्रज्यारूपो महर्षीणां रतानां सक्तानाम् । पर्याय एवेति गम्यते । यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता स्तिष्ठन्ति तथा प्रत्युपेक्षणादौ साधवः । अरतानां च जावतः सामाचार्या - मसक्तानां चशब्दाद्विषयेहूनां च जिन लिङ्गविम्बकानां महानरकसदृशः । तत्कारणत्वात् मानसडुःखातिरेकात् ॥ १० ॥ ( अर्थ. ) साधुना चित्तनी स्थिरताने अर्थ कहे बे. देवलोग इत्यादि सूत्र. ( अ के० ) च एटले वली ( रयाणं के० ) रतानां एटले सामाचारीने विषे प्रीति राखनारा (महे सिणं के० ) महर्षीणां एटले रूडी रीते चारित्र पालनार मुनिराजोनें ( परिश्राए के० ) पर्यायः एटले चारित्रपर्याय जे ते ( देवलोगसमाणो के० ) देवलोक सरखो . तात्पर्य ए बे के, जेम देवलोकमां देवता नाटक प्रमुख जोवामां मन निरंतर आनंदमां रहे बे, दीनपएं पामता नयी. तेम जला सांधुर्ज प Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६६० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद नाग तेतालीस ४३- मा. जावी पडिले प्रमुख क्रियाने विषे आसक्त रही श्रानंदमां कालनिर्गमन करे ठे. माटे मुनिराजनो चारित्र पर्याय स्वर्गसुखसमान ठे. तेमज ( श्ररयाणं के० ) अर तानां एटले सामाचारीने विषे प्रीति न राखनार एवा ( अ के० ) च एटले अने विषयने विषेयासक्त थएल एवा साधुर्जने चारित्र पर्याय जे ते ( महानरयसा रिसो के० ) महानरकसदृशः एटले रौरव प्रमुख नरकसमान दुःखदायी . ॥ १० ॥ ( दीपिका. ) अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह । महर्षीणां सुसाधूनां पर्याये संयमे रतानामासक्तानां पर्यायो देवलोकसमानः । श्रयमर्थः । यथा देवलोके देवा नाटकादिव्यापृताः सन्तोऽदीनमनस स्तिष्ठन्ति । तथा सुसाधवोऽपि ततोऽधिकजावतः प्र स्युपेक्षणादिक्रियाव्यापृता श्रदीनमनस स्तिष्ठन्ति । कथम् । उपादेय विशेषत्वात् प्र स्युपेक्षणादेः । तथा पर्यायेऽरतानां च जावतः सामाचार्यामसक्तानाम् । चशब्दाद् विषयाभिलाषिणां च । जगवलिङ्गविरुम्बकानां कुद्रप्राणिनां पर्यायो महानरकसदृशो रौरवादितुल्यः । तत्कारणत्वाद् मानसडुःखातिरेकात्, तथा विरुम्वनाच्चेति ॥१०॥ ( टीका.) श्रवधानोत्प्रेत्क्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह । देवलोग ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश एव पर्यायः प्रव्रज्यारूपः । महर्षीणां सुसाधूनां रतानां सक्तानाम् । पर्याय एवेति गम्यते । एतडुक्तं नवति । यथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता अदीनमनस स्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं जावतः प्रत्युपेक्षपादिक्रियायां व्यापृता उपादेयविशेषत्वात् प्रत्युपेक्षणादेरिति । देवलोकसमान एव पर्याय महर्षीणां रतानामिति । श्ररतानां च जावतः सामाचार्यामसक्तानां च । चशब्दा द्विपया जिला षिषां च । जगवलिङ्गविरुम्बकानां कुद्रसत्त्वानां महानरकसदृशो रौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसडुःखातिरेकात्, तथा विमम्बनाच्चेति सूत्रार्थः ॥ १०॥ प्रमरोवमं जाणि सुकमुत्तमं रयाण परियाई तहारयाणं ॥ कमुत्तमं रमिक तम्दा परियाई पंमिए ॥ ११ ॥ > निरdai जाणि ( श्रवचूरि : ) तदुपसंहारेणैव निगमयन्नाह । श्रमरोपममुक्तन्यायाद्देवसदृशं सौख्यं ज्ञात्वा प्रशमसारं रतानां पर्यायसक्तानां तथारतानां तस्मिन्नेव निरयोपमं दुःखम् । रमेत तस्मात्पर्याये पतिः शास्त्रज्ञः ॥ ११ ॥ (अर्थ. ) एज वात प्रकट कहे बे. श्रमरोवमं इत्यादि सूत्र ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते कारणमाटे ( पंमिए के० ) परितः एटले शास्त्रार्थना जाए एवो पुरुष जे ते ( परिश्राइ के० ) पर्याये एटले चारित्र पर्यायने विषे ( रयाण के० ) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६२ रतानां एटले जावथी श्रासक्त एवा मुनिराजोने ( अमरोवमं के० ) अमरोपमं एटले देवतासरखं ( उत्तमं के० ) उत्तमं एटले उत्कृष्टुं ( सुरकं के० ) सुखं एटले सुखप्रत्ये ( जाणि के० ) ज्ञात्वा एटले जाणीने ( तहा के० ) तथा एटले तेमज ( अरयाणं के० ) अरतानां एटले सामाचारी पालवामां कंटालो करनार एवा साधुर्जने ( निरJai के० ) निरयोपमं एटले नरकसमान ( उत्तमं के० ) उत्तमं एटले याकरुं (डुकं के०) दुःखं एटले दुःख प्रत्ये (जाणिा के०) ज्ञात्वा एटले जाणीने (परिश्राइ ho) पर्याये एटले चारित्रपर्यायने विषे ( रमिता के० ) रमेत एटले रमी रहे. ॥ ११ ॥ ( दीपिका . ) एतच्चोपसंहारेणैव निगमयन्नाह । परितः शास्त्रज्ञः पर्याय उक्तरूपे संयमे रमेत सक्तिं कुर्यात् । किं कृत्वा । अमरोपमं देवसदृशं सौख्यं प्रशमसौख्यं प्रशस्तं ज्ञात्वा विज्ञाय । केषामित्याह । पर्याये रतानां दीक्षायां सक्तानाम् । सम्यक्प्रत्युपेणादिक्रियाद्यङ्गे । पुनः किं कृत्वा । पर्याय एवारतानाम् नरकोपमं नरकतुल्यमुत्तमं प्रधानं दुःखं च ज्ञात्वा ॥ ११ ॥ ( टीका. ) एतडुपसंहारेणैव निगमयन्नाह । अमर ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रमरोपममुक्तन्यायादेवसदृशं ज्ञात्वा विज्ञाय सौख्यमुत्तमं प्रशमसौख्यम् । केषामि - यह । तानां पर्यासक्तानां सम्यक्प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्य श्रामण्ये । तथा धरतानां पर्याय एव । किमित्याह । नरकोपमं नरकतुल्यं ज्ञात्वा दुःखमुत्तमं प्रधानमुक्तन्यायात् । यस्मादेवं रतारत विपाकस्तस्माद्रमेत सक्तिं कुर्यात् । क्केत्याह । पर्याय उक्तखरूपे पतिः शास्त्रार्थ इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ धम्मान नहं सिरिन ववेयं, जन्नग्गि विनामिवप्पतेयं ॥ विदियं कुसीला, दादुहि घोरविसं व नागं ॥ १२ ॥ हीति ( अवचूरिः) पर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाह । धर्मामधर्मावं च्युतं श्रियोपेतं तपोदया श्रपेतम् । यज्ञाग्निं विध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम् । अपशब्दोऽनावे । तेजःशून्यं जस्मकल्प मित्यर्थः । हीलयन्ति पतितस्त्वमिति पङ्कयपसरणादिना । एनमस्तत्रतं दुर्विहितं दुष्टानुष्ठानं तत्सङ्गो चितलोका तदंष्ट्रं रोड, विषमित्र नागं सर्पम् ॥ १२ ॥ ( अर्थ. ) हवे चारित्रयी भ्रष्ट थएल पुरुषने या लोकने विषे शुं दोष थाय ते कहे . धम्मा इत्यादि सूत्र. ( कुसीला के० ) कुशीलाः एटले जे लोकोनी साथे रहेवुं पडे ते कुशीलिया एवा लोकों जे ते ( धम्मान के० ) धर्मात् एटले चारित्ररूप Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ राय धनपतसिंघ वदाउरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस-(४३) मा. धर्मथी (नहं के०) व्रष्टं एटले नष्ट थएल एवा, (सिरि के) श्रियः एटले तपस्यारूप लक्ष्मीथी ( ववेअं के ) अपेतं एटले रहित एवा माटेज (विहिथं के०) पुर्विहितं एटले पुष्ट व्यापार करनार एवा ( णं के०) एनं एटले था चारित्रयी नष्ट थएल पुरुषने ( विनाय के) विध्यातं एटले उलवार गएल जेवो थएल एवा माटेज (अप्पते के ) अस्पतेजसं एटले दीण अयुं ठे तेज जेनुं एवा (जन्नग्गिमिव के) यज्ञाग्निमिव एटले यज्ञने माटे सिद्ध करेल अग्निने जेम यज्ञ यश् रह्या पबी तिरस्कार करे , अथवा ( घोर विसं के०) घोर विषं एटले घणा श्राकरा लयकारि विषने धारण करनार एवो ( सप्पं के ) सपं एटले सर्प ( दाढद्वियं के०) उमृतदंष्ट्रम् एटले जेनी जहेरी दाढ उखेडी नाखी एवो थाय त्यारे ( व के०) जेम तेनो सर्व लोको तिरस्कार करे , तेम ( हीलंति के०) हीलयन्ति एटले तिरस्कार करे . ॥ १५ ॥ (दीपिका.) अथ चारित्रज्रष्टस्य इहलोकसंबन्धिदोषमाह । कुशीलास्तत्सगोचि. ता लोका एनमुन्निष्क्रान्तं हीलयन्ति पतितस्त्वमिति पतितोऽपसारणा दिना कदर्थयन्ति । किंजूतमेनं । धर्मात् साधुधर्मादू चष्टं च्युतम् । पुनः किंनूतमेनम् । श्रिया अपेतं लदम्या वर्जितम्। कमिव हीलयन्ति । यज्ञानिमग्निष्टोमाद्यनलम् । विध्यातमिव यागप्रान्ते। अस्पतेजसम् । अल्पशब्दस्य अन्नाववाचित्वात् । तेजःशून्यं जस्मसदृश मित्यर्थः। किंन्नूतमेनम् । पुर्वि हितम् । ननिष्क्रमणादेव पुष्टानुष्ठायिनम् । पुनः कमिव हीलयन्ति । उहतदंष्ट्रमुत्खातदाढं घोर विषमिव रौषविषमिव नागं सर्पम् ॥ १५ ॥ (टीका.) पर्यायच्युतस्यै हिकं दोषमाह । धम्माल त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। धर्माबमणधर्माअष्टं च्युतं श्रियोऽपेतं तपोलदम्या अपगतं यज्ञाग्निमग्निष्टोमायनलं विध्यातमिव यागावसानेऽल्पतेजसम् । अपशब्दोऽनावे।तेजःशून्यं नस्मकल्पमित्यर्थः । हीलयन्ति कदर्थयन्ति । पतितस्त्वमिति पदयपसारणादिना। एनमुन्निष्क्रान्तं पुर्विहितमुनिष्क्रमणादेव उष्टानुष्ठायिनं कुशीलास्तत्सङ्गोचिता लोकाः स एव विशेष्यते। दाढहिअंति।प्राकृतशैल्या उमृतदंष्ट्रमुत्खातदंष्ट्र घोर विषमिव रौ विषमिव नागं सर्पम्। यज्ञाग्निसर्पोपमानं लोकनीत्या प्रधाननावादप्रधाननावाख्यापनार्थ मिति सूत्रार्थः ॥१२॥ देवधम्मो अयसो अकित्ती, उन्नामधिकं च पिहजमि॥ चुअस्स धम्मान अदम्मसेविणो, संनिन्नचित्तस्स य दिन गइ ॥१३॥ (अवचूरिः ) ऐहिकदोषमुक्त्वोजयलोकदोषमाह । इहैव इहलोक एवाधर्म इत्य Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका। यमधर्मः। अयशोऽपराक्रमकृतं न्यूनत्वम् । अकीर्तिरदानपुण्यफलप्रवादरूपा । उर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितं नामधेयं नवति। पृथग्जने नीचजन आस्तां शिष्टलोके । कस्येत्याह । च्युतस्य धर्मात्प्रनजितस्य अधर्मसेविनः । कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमर्दकारिणः । संनिन्नवृत्तस्य खएितचारित्रस्य । क्लिष्टकर्मबन्धादधस्तान्नरकेषूपपातो नवति ॥ १३ ॥ (अर्थ.) आ रीते चारित्रन्त्रष्ट पुरुषनी था लोकमां थती विटंबना कही. हवे श्रा लोकमां तथा परलोकमां जे विटंबना थाय डे ते कहे . श्व इत्यादि सूत्र. (धम्माज केः) धर्मात् एटले धर्मथी (चुअस्ल के) च्युतस्य एटले ब्रष्ट थएल एवा माटे (अहम्मसेविणो के) अधर्मसेविनः एटले स्त्रीपुत्रादिकने अर्थे हिंसादिक करनार एवा ( य के०) च एटले वली (संनिन्नवित्तस्स के) संनिन्नवृत्तस्य एटले नहि खंमित करवायोग्य एवा चारित्रने खंडित करनार एवा पुरुषने (श्हेव के०) इहैव एटले आ लोकने विषेज (अधम्मो के०) अधर्मः एटले अधर्म थाय डे. अर्थात् ए अधर्मी डे एम ब्रष्टचारित्री कवाय . तेमज (अयसो के) अयशः एटले पराक्रमना अन्नावथी न्यूनपणुं श्रावे . ( अकित्ती के०) अकीर्तिः एटले दानपुण्यना अन्नावथी न्यूनपणुं आवे . तेमज ( पिहुजणं मि के०) पृथग्जने एटले प्राकृतजनने विषे अर्थात् हलका लोकोमा (उन्नामधिऊं के) पुर्नामधेयं एटले 'फलाणो जुनो चारित्री पतित थयो' एवी रीते नाम निंदाय . तथा अंते (हि. जे गश् के ) अधस्तामतिः एटले नीचे नरकने विषे गति थाय . ॥ १३ ॥ (दीपिका. ) एवमस्य चष्टशीलस्य सामान्यत इहलोकसंबन्धिनं दोषं कथयित्वेहलोकपरलोकसंबन्धिनं दोषमाह । धर्मात् च्युतस्य धर्मात्प्रत्रजितस्य एतानि नवन्ति । कानीत्याह । इह लोक एवाधर्मों नवति । अयमधर्म इति । पुनः अयशः अपराक्रमेण कृतं न्यूनत्वं नवति । तथा अकीर्तिः अदानपुण्यफलप्रवादरूपा । तथा उर्नामधेयं च कुत्सितनामधेयं जवति । केत्याह । पृथग्जने सामान्यलोकेऽपि । आस्तां विशिष्टलोके । किंविशिष्टस्य । धर्माच्युस्य । अधर्मसे विनः कलत्रादीनां निमितं षड्जीवनिकायस्योदपमर्दकारिणः । पुनः किं । संनिन्नवृत्तस्य खमितचारित्रस्य क्लिष्टकर्मवन्धादधस्ताजतिर्नरकेषूपपातो जवति ॥ १३ ॥ ( टीका.) एवमस्य व्रष्टशीलस्यौधत ऐहिकं दोषमनिधायैहिकामुष्मिकमाह । श्हेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्हैवेहलोक एवाधर्म इत्ययमधर्मः फलेन दर्श Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह,नाग तेतालीस-(४३)-मा. यति । यतायशः अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं तथा अकीर्तिरदानपुण्यफलप्रवादरूपा तथा पुर्नामधेयं च पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च नवति । केल्याह । पृथग्जने सा. मान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके । कस्येत्याह । च्युतस्य धर्मात्प्रत्र जितस्येत्यर्थः । तथा अधर्मसेविनः कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमईकारिणः । तथा संनिन्नवृत्तस्य चाखण्मनीयख कितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मवन्धाद् अधस्तानतिर्नरकेपूपपात इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ मुंजित्तु नोगाई पसनचेअसा, तहाविदं कटु असंजमं वढुं॥ गई च गडे अणिदिजिअं उहं, वोही असे नो सुलहा पुणो पुणो॥१४॥ (अवचूरिः) अस्यैव विशेषोपायमाहः । स उत्प्रनजितो जुक्त्वा नोगान् शब्दादीन् प्रसह्य चेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटचित्तेन तथा विधमझोचितं कृत्वा संयमं कृष्याद्यारम्नं बहुमसन्तोषात्मनूतं स छन्नूतो मृतः सन् गति गतिमननिध्यातामनिष्टाम् । काचित्सुखाप्येवंचूता स्यादतो पुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां फुःखजननीम् । बोधिश्चास्यैवोनिष्क्रान्तस्य जिनधर्मप्राप्तिन सुलना । पुनः पुनः प्रजूतेष्वपि जन्मसु प्रवचनविराधकत्वात् ॥ १४ ॥ __ (अर्थ.) एनेज विशेष अनिष्टनी प्राप्ति थाय जे ते कहे जे. चुंजित्तु इत्यादि सूत्र. ते दीदानो त्याग करनार साधु जे ते (जोगाई के०) नोगान् एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख नोगप्रत्ये ( पसलचेअसा के०) प्रसह्यचेतसा एटले धर्मनी अपेक्षा न राखतां पोतानी श्छाए चालनार मनवडे (मुंजित्तु के०) जुक्त्वा एटले नोगवीने तथा (तहाविहं के) तथाविधं एटले ते प्रकारनो अर्थात् खेती, व्यापारप्रमुख (बहुँ के) बहुं एटले घणो ( असंजमं के० ) असंयम एटले असंयत व्यापार प्रत्ये (कटु के०) कृत्वा एटले करीने मरण पामे त्यारे (मुहं के०) दुःखां एटले दुःख श्रापनार एवी ( अणहि जिरं के०) अननिध्यातां एटले नहि धारेली एवी (गई के) गति एटले नरकादि गति प्रत्ये (गडे के०) गति एटले गमन करे . ( अ के) च एटले वली ( से के ) तस्य एटले ते चारित्रथी ब्रष्ट थएल साधुने (बोही केण) बोधिः एटले जिनधर्मनी प्राप्ति ( पुणो पुणो के ) पुनः पुनः एटले वारेवारे घणा नव करे तो पण (नो सुलहा के ) नो सुसजा एटले सुखे मले तेवी नथी. ॥ १४ ॥ (दीपिका.) अथास्यैवोत्प्रव्रजितस्य विशेषतः कष्टमाह । स उत्प्रवजित एवं विधां गतिं गति । किं कृत्वा । नोगान् जुक्त्वा । केन । प्रसह्यचेतसा धर्म निरपेक्षा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसग्रह नाग तेतालीस-(५३)-मा. देसि । तो ताहेसगडत्तेण सो धुत्तो नणि तस्साहं तं मोयगं देमि । जो नगरदारेण ण णिफिडधुत्तेण नन्नति तो हं एयं तउससगडं खयामि तुमं पुण तं मोयगं देद्यासि । जो नगरदारेण णनीसरति।पणे सागडिएण अप्नुवगए धुत्तेण सरिकणो कया। सगडं अहि हित्ता तेसिं तजसाणं एकेकयं खंडं अवणित्ता । पछा तं सागभियं मोदकं मग्गति। ताहे सागडि नणति । श्मे तसा ण खाश्या तुमे । धुत्तेण नन्नति जश् न खाश्या तसा अग्घवेह तुमंत अग्घविएसु कश्या आगया पासंति खंमिया तजसा ताहे कश्या नणंति । को एए खरए तउसे किण तर्ड करणे ववहारो जार्ड खश्यत्ति । जिउँ सागडि एस वंसगो चेव चूसगनिमित्तमुवमबो ताहे धुत्तेण मोदगं मन्गियति । अचाळ सागडि जूतिकरा लग्गिया। ते तुझा पुर्वति । तेसिं जहावत्तं सवं कहेति एवं कहिते तेहिं उत्तरं सिरका विजे।जहा तुमं खुड्यं मोदगं णगरदारे उवित्ता जण एस सो मोदगो ण णीसर णगरदारेण गिहाहि । जिउँ धुत्तो एस लोल। लोगुत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिन्जावितस्स तहा खूसगो पलंज । जहा सम्म पडिवज। दवाणुंजोगे पुण पुजा जणंति । पुवं दरिसिजे चेव । असे पुण जएंति पुवं संयमेव सबनिचारं हेलं उच्चारेजण परविसंजणाणिमित्तं . सहसा वा जणितो होचा । पछा तमेव हे अमेणं निरुत्तवयणेणं गवेश् । उक्तो खूषकस्तदनिधानाच हेतुरपि । सांप्रतं यमुक्तं वचित्पञ्चावयवमिति । तदधिकृतमेव सूत्रम् । धम्मो मंगल मित्यादि लक्षणमधिकृत्य निर्दिश्यते । अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मः मङ्गलमुत्कृष्ट मिति प्रतिज्ञा । इह च धर्म इति धर्मि निर्देशः । अहिसा संयमतपोरूप इति धर्मि विशेषणं उत्कृष्टमंगल मिति साध्यो धर्मः धर्मिधर्मसमुदायः प्रतिज्ञा । श्यं श्लोकार्बेनोक्ता इति । देवाधिदेवपूजितत्वादिति हेतुः । आदिशब्दासिझविद्याधरनरपरिग्रहः । अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः । अर्हदादिवदिति दृष्टान्तः । अत्रापि चादिशब्दाजणधरा दिपरिग्रहः। अयं च श्लोके चरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति । न च नावमनोऽधिकृत्यादृष्टान्तेऽस्ति कश्चिहिरोध इति । शह यो यो देवादिपूजितः स स उत्कृष्टं मंगलं यथाईदादयस्तथाच देवादिपूजितों धर्म इत्युपनयः । तस्मादेवादिपूजितत्वात्कृष्टं मङ्गल मिति निगमनम् । इदं चावयवघ्यं सूत्रोक्तावयवत्रयाविनानूतमिति कृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यलं विस्तरेण । सांप्रतमेतानेवावयवान् सूत्रस्पर्शकनियुक्त्या प्रतिपादयन्नाह । धम्मो गुणा अहिंसाश्या उ ते परम मंगलपन्ना ॥ देवा वि लोटपुद्या, पणमंति सुधम्म मिश् हेऊ ॥ नए ॥ व्याख्या ॥ धर्मः प्राग्निरूपितशब्दार्थः । स च क इत्याह । गुणा अहिंसादयः। आदिशब्दात्संयमतपःपरिग्रहः । तुरेवकारार्थः । अहिंसादय एव ते परममङ्गलमिति Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६५ तया प्रकटेन चित्तेन । पुनः किं कृत्वा । तथाविधमज्ञानो चितफलं बहुमसंतोषात् प्रभूतमसंयमं कृष्याद्यारम्नरूपं कृत्वा । किंभूतां गतिम् । प्रननिध्याताम निष्टाम् । पुनः दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दराम् । दुःखजननीम् । पुनः अस्य उत्प्रव्रजितस्य बोधिर्जिनधर्मप्राप्तिसुला जवेत् । पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु डुर्लना एव स्यात् । कथम् । प्रवचनविराधकत्वात् ॥ १४ ॥ ( टीका. ) स्यैव विशेषप्रत्यपायमाह । जुंजित्नु त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । स उत्प्रव्रजितो मुक्त्वा जोगान् शब्दादीन् प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधमज्ञोचितमधर्मफलं कृत्वा जिनिर्वयसंयमं कृष्याद्यारम्नरूपं बहुमसंतोषात्प्रनूतं स भूतो मृतः सन् गतिं च गच्छत्यननिध्याताम् । श्रनिध्याता इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः । काचित्सुखाप्येवंभूता नवत्यत श्राह । दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखज| बोधवाजिनधर्मप्राप्तिश्चास्यो निष्क्रान्तस्य न सुलना । पुनः पुनः प्रभूतेष्वपि जन्मसु डुर्लनैव । प्रवचन विराधकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ इमस्स ता नेरइप्रस्स जंतुणो, उदोवणीप्रस्स किलेसवत्तिणो ॥ पलिनवमं किन्नर सागरोवमं, किमंग पुणे मन इमं मणोऽहं ॥ १५ ॥ 1 ( श्रवचूरिः ) यस्मादेवं तस्मात्पन्नः खोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह । यस्य तावदात्मनो नारकस्य नरके प्राप्तस्य दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्त दुःखस्य क्लेशवृत्तेरेकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं दीयते सागरोपमं च । यथा कर्मप्रत्ययं च किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिजं मनो दुःखमेवं विचिन्त्य नोत्प्रव्रजेत् ॥ १५ ॥ (अर्थ. ) एम माटे गमे एटलुं दुःख जोगववुं पडे तो पण चारित्रनो त्याग न करवो एम कहे बे. इमस्स इत्यादि सूत्र. ( ता के० ) तावत् एटले प्रथम ( इमस्स ho ) अस्य एटले श्रा ( जंतुणो के० ) जन्तोः एटले मारो जीव (नेरास्स के० ) नारकस्य एटले नारकी थाय बे त्यारे ते ( होवणी अस्स के० ) दुःखोपनी तस्य एटले घणुं दुःख जेने माथे यावी पड्युं बे एवो तथा ( किलेस त्तिणो के० ) क्लेशतेः एटले एकांतथी क्लेशवालाज जेना सर्व व्यापार बे एवो थाय बे. ते समये ते नरकजीवनुं ( पविमं के० ) पल्योपमं एटले पल्योपम प्रमाणवालुं अथवा ( सागरोवमं के० ) सागरोपमं एटले सागरोपम प्रमाणवालुं आयुष्य पण ( किन‍ ho ) क्षीयते एटले जोगववाथी नाश पामे ठे. ( पुए के० ) पुनः एटले तो पठी ( अंग के० ) अरे जीव ( मन के० ) मम एटले मारुं ( इमं के० ) इदं एटले या मां A * Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद्, नाग तेतालीस (४३) -मा. ( मोहं के० ) मनोःखं एटले चारित्रने विषे रति उत्पन्न वार्थी मनमां नारुं दुःख ( किं के० ) किं एटले केटलुं वे ? अर्थात् कांश्ज नथी ॥ १५ ॥ ( दीपिका. ) यस्मादेवं तस्मात्पन्नः खोऽपि एतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह । एतच्चिन्तनेन साधुना नोत्प्रत्रजितव्यम् । एतत्किमित्याह । श्रस्य तावदित्यात्म निर्देशे । श्रात्मनो नरकस्य जन्तोर्नरकप्राप्तस्य पल्योपमं सागरोपमं च कीयते । यथाकर्मप्रत्ययं पूर्ण जवति । किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोडुःखं तथाविधप्रव लवृत्तिरहितमेतत् क्षीयत एव । किंभूतस्य यस्य जन्तोः । दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्त दुःखक्लेशवृत्तेः एकान्तक्लेशचेष्टितस्य ॥ १५ ॥ (टीका.) यस्मादेवं तस्मात्पन्न दुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रव्रजेदित्याह । इमस्स ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अस्य तावदित्यात्मन एव निर्देशः । नारकस्य जन्तोर्न रकमप्रातस्येत्यर्थः । दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तडुःखस्य क्लेशवृत्तेरेकान्तक्लेशचेष्टितस्य सतो नरक एव पल्योपमं दीयते सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययं । किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारति निष्पन्नं मनोडुःखं तथाविधक्लेशदोषरहितम् । एतत्कीयत एवैतच्चि - न्तनेन नोत्प्रत्र जितव्यमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ न मे चिरं डुकमिणं नविस्सर, प्रसासयां जोगपिवास जंतुणो ॥ न चे सरीरेण इमेणविस्सा, प्रविस्सई जीविप्रपवेण मे ॥ १६ ॥ ( अवचूरिः ) एतदेवाह । न मम चिरं प्रभूतकालं संयमारतिलक्षणं दुःखं नवियति । अशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायिनी जोगपिपासा विषयतृमा जन्तोः प्राशिनः । न चेष्वरीरेणानेनापयास्यति वृद्धस्य सतोऽपयास्यति । तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति । जीवितपर्यायेण जीवितपरित्यागेन ॥ १६ ॥ ( अर्थ. ) उपर कहेलीज वात विस्तारथी कहे बे. न मे इत्यादि सूत्र. संयमने विषे रति थल साधु या रीते चिंतवे. ( मे के० ) मम एटले मारुं ( इमं के० ) इदं एटले आ (डुकं के० ) दुःखं एटले दुःख जे ते ( चिरं के० ) चिरं एटले घणा काल सुधी (न नविस्सर के० ) न जविष्यति एटले रहेशे नहि. कारण के, ( जंतुणो के० ) जन्तोः एटले जीवनी ( जोगपिवास के० ) जोग पिपासा एटले विषय जोगववानी इछा ( असासया के० ) अशाश्वता एटले चिरकाल न रहेनारी अर्थात् यौवनदशा होय त्यासुधी रहेनारी एवी बे. ( चे के० ) चेत् एटले जो कदाच विषयनी तृष्णा ( इमेण के० ) अनेन एटले या ( सरीरेण के० ) शरीरेण एटले शरीर Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६७ वडे (न विस्स के० ) नापयास्यति एटले नहि जाय. अर्थात् श्रा शरीर बे त्यासुधी पण जो कदाच विषय जोगववानी इछा जाय नहि, तो पण ( मे के० ) मम एटले मारा ( जी विपवेण के० ) जीवितपर्ययेण एटले आयुष्यना अंतवडे (विस्सs ho) अपास्यति एटले जशे. अर्थात् आयुष्य पूरुं श्रवाथी मरण श्रावे अवश्य विषयतृष्णानो नाश यशेज एम चिंतवकुं ॥ १६ ॥ ( दीपिका . ) विशेषेणैतदेवाह । मे मम चिरं प्रभूतकालमिदं दुःखं संयम विषयेSर तिलक्षणं न जविष्यति । किमितीत्याह । प्रायो यौवनकालावस्थायिनी जोगपिपासा विषयतृष्णा जन्तोः प्राणिनोऽशाश्वती। अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह । न चेरीरेणानेन विषयतृष्णा श्रपयास्यति । यदि शरीरेण श्रनेन कारणभूतेन वृद्धस्यापि सतो विषयेष्ठा नापयास्यति । तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति जीवितस्य पगमेन मरणेनेत्येवं निश्चितं स्यात् ॥ १६ ॥ ( टीका. ) विशेषेणैतदेवाह । न म ति सूत्रम् । यस्य व्याख्या । न मम चिरं प्रभूतकालं दुःखमिदं संयमार तिलक्षणं भविष्यति । किमित्यत श्राह । अशाश्वती प्राय यौवनकालावस्थायिनी जोग पिपासा विषयतृमा जन्तोः प्राणिनः । श्रशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह । न चेच्छरीरेणानेनापयास्यति न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति । तथापि किमाकुलत्वम् । यतोऽपयास्यति जीवितपर्ययेण जीवितस्यापगमेन मरणेनेत्येवं निश्चिन्तः स्यादिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा न विक निच्चिन, चक देहं न दु धम्मसासणं ॥ तं तारिस नो पति इंदिया, उर्विति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १७ ॥ ( अवचूरिः ) अस्यैव फलमाह । यस्य साधोरेवमुक्तप्रकारेण श्रात्मा । तुरेवार्थे । श्रात्मैव नवेन्निश्चितो दृढः । स त्यजेत् देहं विघ्न उपस्थिते न पुनर्धर्मशासनम् । तं तादृशम् । धर्मे निश्चितं न प्रचालयन्ति संयमादिन्द्रियाणि उत्पतद्वाता इव सुदर्शनं मेरुगिरिम् । यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति । तथा तमपी न्द्रियाणीत्यर्थः ॥ १ ॥ ( .) एनुंज फल कहे बे. जस्स इत्यादि सूत्र. ( जस्स के० ) यस्य एटले जेनो ( अप्पा उ के० ) श्रात्मा तु एटले आत्मा जे तेज ( एवं के० ) एवं एटले उपर कला प्रकारे (निर्ज के० ) निश्चितः एटले दृढ एवो ( हवित के० ) नवेत् एटले होय. ते साधु ( देहं के० ) देहं एटले शरीरप्रत्ये ( च के० ) त्यजेत् एटले त्याग करे. ( उ के० ) तु एटले पण ( धस्मसासणं के० ) धर्मशासनं एटले धर्मनी Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. श्रज्ञा प्रत्ये ( न के० ) न एटले त्याग न करे. ( व के० ) व एटले जेम ( उप्पायवाया के० ) उत्पातवाताः एटले तोफानी पवन जे ते ( सुदंसणं गिरिं के० ) सुदर्शनं गिरिं एटले मेरु पर्वतने चलावी शकता नथी. तेम ( इंदिया के० ) इंडियाणि पटले इंडियो जे ते (तारिसं के०) तादृशं एटले उपर कडेल प्रकारे दृढ एवा ( तं के० ) तं एटले ते साधुने (नोपइति के० ) न प्रचालयन्ति एटले चलावी शकता नथी. ॥१७॥ (दीपिका) स्यैव साधोः फलमाह । इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि तं पूर्वोक्तं तादृशं धर्मे निश्चितं साधुं संयमस्थानात् न प्रचालयन्ति न प्रकम्पयन्ति । दृष्टान्तमाह । के कमिव । यथोत्पातवाताः सुदर्शनं गिरिं मेरुपर्वतं न कम्पयन्ति । तं साधुं कम् । यस्य साधोरेवमुक्तप्रकारेण आत्मा एव निश्चितो दृढः स कचिद् विघ्न उत्पन्ने देहं त्यजेत् । परं नतु शासनं न पुनर्धर्माज्ञाम् ॥ १७ ॥ 1 ( टीका . ) अस्यैव फलमाह । जस्सेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । तस्येति सा - धोरेवमुक्तेन प्रकारेण । श्रात्मा तु । तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । श्रात्मैव नवेन्निश्चितो दृढः । स त्यजेद्देहं क्वचिद्विघ्न उपस्थिते न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्माज्ञामिति । तं ताहशं धर्म निश्चितं न प्रचालयन्ति संयमस्थानान्न कम्पयन्तीन्द्रियाणि चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह । उत्पतद्वाता इव संपतत्पवना व सुदर्शनं गिरिं मेरुम् । एतडुक्तं नवति । यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति । तथा तमपीन्द्रियाणीति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ इचैव संपस्सि बुद्धिमं नरो, आयं नवायं विविदं विप्राणिया ॥ कारण वाया 5 माणसेणं, तियुत्तिरात्तो जिणवयणमदिठिकासि त्ति बेमि ॥ १८ ॥ || श्वक्का पढमा चला सम्मत्ता ॥ १ ॥ ( अवचूरिः ) उपसंहरन्नाह । इच्चेवत्ति सूत्रम् । इत्येवमध्ययनोक्तं दुःप्रजी वित्वादि संप्रेक्ष्यादित रम्य यथावद्दृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः न श्रयं ज्ञानादेः उपायं तत्साधनप्रकारं कालविनयादिं विविधं विज्ञाय । कायेन वाचा छाथ मानसेन त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तेः त्रिचिरपि गुप्तोऽई डुपदेशमधितिष्ठेत् । तदुक्तपालनपरो नूयात् । भावाय सिद्ध मुक्ति सिद्धेरिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १८ ॥ इति प्रथमचूला व्याख्याता ॥ प्रकरणनो उपसंहार करता बता कहे बे. इच्चेव इत्यादि सूत्र. (अर्थ. ) हवे Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमा चूलिका । ६६ ( बुद्धिमं के० ) बुद्धिमान् एटले बुद्धिशाली एवो ( नरो के० ) नरः एटले मनुष्य जे ते ( इच्चेव के० ) इत्येवं एटले आ प्रथम चूलिकामां कहेल सर्व वस्तुनो ( संपसि के० ) दृष्ट्वा एटले विचार करीने तथा ( विविहं के० ) विविधं एटले अनेक प्र कारना ( o ) श्रयं एटले सम्यग् ज्ञान प्रसुख लाभ प्रत्ये अने (वायं के० ) उपायं एटले सम्यग् ज्ञानादिकना उपायभूत एवा विनयादिकने ( विद्यापिठा ho ) विज्ञाय एटले जाणीने ( कारण के० ) कायेन एटले कायावडे, ( वाया के० ) वाचा एटले वाणीवडे (अडु के ० ) अथ एटले अथवा ( माणसेणं के० ) मानसेन एटले मनवडे ( तितिगुत्तो के० ) त्रिगुप्तिगुप्तः एटले अनुक्रमे कायगुप्ति, वचन ि मनोति वडे गुप्त एवो थयो बतो ( जिणवयणं के० ) जिनवचनं एटले जिने - श्वर भगवानना जाषित आगम प्रत्ये ( यहि हिकासि के० ) अधितिष्ठेत् एटले आश्रय करे. अर्थात् जिन जाषित आगममां कहेल विधिमाफक यथाशक्ति आचार पाले. तेथी जावथी लान रूप जे सम्यग्ज्ञानादिक तेनी प्राप्ति थाय बे, छाने पी अनु क्रमे मुक्ति मले बे ॥ १८ ॥ इति श्रीदशवैकालिक बालावबोधमां रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका संपूर्ण ॥१॥ ( दीपिका. ) थोपसंहारमाह । बुद्धिमान्नरः सम्यग्बुद्ध्या सहितो मानवः कायेन वाचा वचनेन श्रथ मनसा त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तै स्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनं तीर्थकरस्योपदेशमधितिष्ठेत् । यथाशक्ति तयुक्तैक क्रियापालने तत्परो नूया - त् । जावाय सिद्धौ तत्त्वतो मुक्तिसिद्धेः । किं कृत्वा । इत्येवमध्ययने कथितं दुःप्रजी वित्वादि संप्रेक्ष्य श्रादित रज्य यथावद्दृष्ट्वा । पुनः किं कृत्वा । श्रायं सम्यग्ज्ञानादेर्लानमुपायं च ज्ञानादिसाधनप्रकारं विविधमनेकप्रकारं ज्ञात्वा । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १८॥ इति श्री दशवेकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमय सुन्दरोपाध्यायविरचितायां प्रथमचूलिका समाप्ता ॥ १ ॥ ( टीका. ) उपसंहरन्नाह । इच्चेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । इत्येवमध्ययनोक्तं पुःप्रजीवित्वादि संप्रेक्ष्यादित आरभ्य यथावद्दृष्ट्वा बुद्धिमान्नरः स्वम्यग् बुलुपे - तः । श्रयमुपायं विविधं विज्ञाय । श्रायः सम्यग्ज्ञानादेः । उपायस्तत्साधन प्रकारः कालविनयादिर्विविधोऽनेकप्रकारस्तज्ज्ञात्वा । किमित्याह । कायेन वाचा मनसा त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तै स्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् जिनवचनमर्ह डुपदेशमधितिष्ठेत् । यथाशक्ति Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद् नाग तेतालीस (४३) - मा. तटुक्तक क्रियापालन परो नूयात् जावाय सिकौ तत्त्वतो मुक्तिसिः । ब्रवीमीति पूर्वव दिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति व्याख्यातं प्रथमचूडाध्ययनम् ॥ इति श्रीदशवैकालिके श्रीहरिनद्रसूरिविरचित बृहद्वृत्त्यां प्रथमा चूलिका ॥ अथ द्वितीया चूलिका । चूलियं तु पवरकामि, त्र्यं केवलिनासित्र्यं ॥ जं सुणित्त सुपुमा, धम्मे नृप्पक्कए मई ॥ १ ॥ ( अवचूरिः ) अथ द्वितीयारज्यते । अस्य चौघतः सवन्ध उक्त एव । विशेषतः पूर्वाध्ययने सीदतः स्थिरीकरणार्थमुक्तम् । अत्र तु विविक्तचर्या उच्यते । चूडा नामादिनिः षोढा । जावचूलां । तुशब्दात्प्रवक्ष्यामि । इयं चूडा श्रुतं वर्त्तते । श्रुतज्ञानं । कारणे कार्योपचा रात् । ततश्च केवलजाषितमनन्तरमेव केवलिनोक्तम् । इति सफलं विशेषणम् । एवं वृद्धोक्तिः । कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कूरगमुकप्रायः साधुश्चातुर्मासकाद्युपवासं कारितः । स तदाराधनया मृत एव । कृषिघातिका मित्युद्विग्ना सा जिनं पृछामीति गुणावर्जि तदेवतया नीता श्रीसीमन्धरान्ते । पृष्ठो जगवान् । श्रष्टचित्ता श्रघातिकेत्युक्ता । इमे चूके ग्राहिते । श्यमेव विशेष्यते । यछ्रुत्वा सुपुण्यानां पूर्वावर्जितपुण्ययुक्तानां । चारित्रधर्म उत्पद्यते मतिः जावतः श्रद्धा ॥ १॥ ( अर्थ. ) प्रथम चूलिका थ. हवे बीजीनो श्ररंज थाय बे. एनो संबंध श्र रीते बे. प्रथम चूलिकामां चारित्रने विषे शिथिलपरिणामी थएल साधुने स्थिर क रवानो उपाय को हवे श्रा चूलिकामां साधुए आसक्तिरहित विहार करवो एम कहे बे. चूलि इत्यादि सूत्र हवे ( चूलि के० ) चूलिकां एटले चूलिका प्रत्ये (पवरकाम के० ) प्रवक्ष्यामि एटले कहीश. ते चूलिका केवी बे ते कड़े बे. (केवलिजासि के० ) केवलिनाषितम् एटले केवली जगवाने जाखेलुं (सुखं के०) श्रुतं एटले श्रुतरूप बे. तेमज ( जं के० ) यां एटले जे केवलिनाषित श्रुतरूप चूलिका प्रत्ये (सुपितु के०) श्रुत्वा एटले सांजलीने (सपुन्नाणं के० ) सपुण्यानाम् एटले पुण्यानुबंधि पुएयवाला जीवोने ( धम्मे के० ) धर्मे एटले चारित्ररूप धर्मने विषे ( मई के ० ) मतिः एटले बुद्धी अर्थात् श्रद्धा ( उप्पऊए के० ) उत्पद्यते एटले उत्पन्न थाय बे. हिं वृद्ध संप्रदायथी चालती आवेल कथा या प्रकारे बे. कोइ साध्वीए उपवास प्रमुख Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६७१ तपस्या खमी न शके एवा को साधु पासे चोमासी प्रमुख पर्वने दिवसे उपवास क. राव्यो. ते साधु ते तपस्यानी आराधनावडे काल करी गया. 'हुं मुनिनो घात करनारी थ' एम विचारी उछिन्न थएली साध्वीए सीमंधर स्वामीने आ वातनी आलोयणा पूबवानो विचार कस्यो. पठी साध्वीना गुणथी वश थएल को देवता साध्वीने सीमंधर खामी पासे लगयो. साध्वीए नगवानने या वात पूबी. त्यारे "जेना मनमांमाग परिणाम नथीते हिंसक पण नथी." एम कही लगवाने आ चूलिका साध्वीने श्रापी.॥१॥ (दीपिका.) व्याख्याता प्रथमचूलिका अथ द्वितीया श्रारज्यते । पूर्वचूलिकायां सीदतः साधोः स्थिरीकरणमुक्तम् । इह तु अवसरप्राप्ता विविक्ता चर्या उच्यत इत्ययं संबन्धः। अहं चूलिकां प्रवदयामि । तुशब्द विशेषितां नावचूडां प्रकर्षेण श्रवसरप्राप्तानिधानलक्षणेन कथयिष्यामि।किंनूतां चूलिकाम्।श्रुतं श्रुतज्ञानम्। चूडा हि श्रुतज्ञानं वर्तते । कारणे कार्यस्य उपचारात्। एतच्च केवलिना नाषितम्। अनन्तर एव केवबिना प्ररूपितमिति विशेषणं सफलम् ।यत एवं वृद्धवादः श्रूयते। कयाचित् श्रार्यया श्रसहिष्णुः कूरगडुकप्रायः साधुः चातुर्मासकादौ उपवासं कारितः । स तदाराधनया मृतः। मृते च तस्मिन् साध्व्या ज्ञातम् । अहमृषिघातिका जाता । तत उछिन्ना सती तीर्थकरं पृलामि शति जातबुद्धिस्ततस्तस्या गुणावर्जितया देवतया साध्वी सीमंधरखामिसमीपे मुक्ता । तया च नगवान् श्रआलोचनामाश्रित्य पृष्टः । नगवान् श्राद । त्वं तु न पुष्टचित्ता ततोऽघातिका । ततो जगवता चूलाघ्यं तस्यै दत्तम् । देवतया च ततः स्वस्थानमानीता साध्वी । अत श्दमेव विशेष्यते । तद्रूत्वा आकर्ण्य सपुण्यानां कु. शलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे धर्मे चारित्रधर्मे मतिः उत्पद्यते नावतः श्रद्धा जायते । अनेन चारित्रं चारित्रवीजं च उपजायत इति । एतमुक्तं नवति ॥१॥ (टीका.) अधुना द्वितीयमारज्यते । अस्य चौघतः संवन्धः प्रतिपादित एव । विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदतः स्थिरीकरणमुक्त मिह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमनिसंबन्धः । एतदेवाह नाष्यकारः॥ अहिगारो पुवुत्तो, चउबिहोविश्यचूलिश्रनयणे ॥ सेसाणं दाराणं अहकमं फासणा हो ॥ ३५ ॥ व्याख्या ॥ अधिकार उघतः प्रपञ्चप्रस्तावरूपः पूर्वोक्तो रतिवाक्यचूडायां प्रतिपादितश्चतुर्विधो नामचूडास्थापनाचू. मेत्यादिरूपो यथा द्वितीयचूडाध्ययने श्रादानपदेन चूलिकाख्येन । सोऽनुयोगहारोपन्यासस्तथैव वक्तव्य इति वाक्यशेषः । शेषाणां धाराणां सूत्रालापकगतनिदेपा Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रद, नाग तेतालीस (४३) - मा. दीनां यथाक्रमं यथाप्रस्ताव स्पर्शना पड्व्याख्यादिरूपा जवतीति गाथार्थः ॥ यत्र च व्यतिकरे सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । चूलियं तु इत्यादि । अस्य व्याख्या । चूडां तु प्रवक्ष्यामि । चूडां प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थाम् । तुशब्द विशेषितां जावचूडां प्रवक्ष्यामीति । प्रकर्पेणावसरप्राप्ता निधानलक्षणेन कथयामि । श्रुतं वाषित मितीयं हि चूडा श्रुतज्ञानं वर्त्तते । कारणे कार्योपचारात् । एतच्च केवलिनापितमनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृद्धवादः । कया चिदार्ययासहिष्णुः कुरगडुकप्रायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः । स तदाराधनया मृत एव । कृषिघातिकाहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृष्ठामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमंधरखा मिसमीपे । पृष्टो भगवानडुष्टचित्ताघातिकेत्यनिधाय जगवतेमां चूडां प्राहितेति । इदमेव विशेष्यते । यत्वेति । यच्छ्रुत्वाकर्ण्य सपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुष्ययुक्तानां प्राणिनां धर्मेऽचिन्त्य चिन्तामणिकल्पे चारित्रधर्म उत्पद्यते मतिः । संजायते जावतः श्रद्धा । अनेन चारित्रं चारित्रवीजं चोपजायत इत्येतडुक्तं जवतीति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ 1 प्रणुसोच्यपठिप्रबहुजमि, पडिसोल इलकेणं ॥ पडिसोयमेव पप्पा, दायवो दोडकामेणं ॥ २ ॥ ( श्रवचूरिः ) एतद्धिप्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणा वक्तव्यास्तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह । अनुश्रोतः प्रस्थिते नदी प्रवाहपतितकाष्ठवत् विषयकुमा गव्य क्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथाप्रस्थानेऽधिगामिनि प्रतिश्रोतो लब्धलकेण द्रव्यतो नयां देवतानियोगात् प्रतीपश्रोतः प्राप्तल देण जावतो विषयवैपरीत्यात्कथं चिदवाप्तसंयम देण अपाकृते विषयादिप्रतिश्रोत एव संयमलक्ष्या निमुख मात्मा दातव्यः प्रवर्त्तितव्यः । मुक्ततया नवितुकामेन ॥ २ ॥ (अ) अध्ययनमां चर्याना गुण कहेवाना बे. तेमां मूलभूत प्रथम सूत्र कहे . असो इत्यादि सूत्र एटले नदीना प्रवाहमां पडेलं काष्ठ जेम प्रवादना वेगथी समुद्रतरफ जाय बे. तेम ( बहुजणम्मि के० ) बहुजने एटले घणो लोक सो पहिए के० ) अनुस्रोतः स्थिते एटले विषयरूप प्रवाहना वेगथी संसार समुद्र तरफ गमन करते बते ( पडिसोललरकेण के० ) प्रतिस्रोतोलब्धल देण एटले विषय प्रवाहथी उलटा जागने विषे रहेल संयम तरफ जेनुं लक्ष्य पदोच्युं एवा ( दोडकामेणं के० ) नवितुकामेन एटले मुक्त यवानी इछा करनार पुरुषे Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७३ दशवैकालिके दितीया चूलिका । (थप्पा के०) श्रात्मा एटले पोतानो आत्मा (पडिसोअमेव के०) प्रतिस्रोत एव एटले विषय प्रवाह जे तरफ चाल्यो बे.तेथी उलटोज ( दायहो के) दातव्यः एटले देवो. अर्थात् संयमानिमुख करवो. ॥२॥ (दीपिका.) एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणा अनिधेयास्तस्य प्रवृत्ती मूलपादनूतमिदमाह। एवं विधेन साधुना आत्मा जीवःप्रतिस्रोतएव पुरपाकरणीयमप्पपाकृत्य विषयादिसंयमलयानिमुखमेव दातव्यः प्रवर्तितव्यः।न दुचरितान्युदाहरणीकृत्य असन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम् । अपि त्वागमैकप्रवणेनैव नवितव्यम् । किं साधुना । नवितुकामेन संसारसमुअपरिहारेण मुक्ततया नवितुकामेन । किंतूतेन साधुना। प्रतिस्रोतोलब्धलक्षण अव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथंचित् देवतासांनिध्यात्प्र. तीपस्रोतःप्राप्तलक्षण । जावतस्तु विषया दिवैपरीत्यात् कथंचित् प्राप्तसंयमलक्षण । क्क सति । बहुजने तथा विधादच्यासात् प्रजूतलोकेऽनुस्रोतःप्रस्थिते सति नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवत्। विषयकुमार्गअव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते सति तथाप्रस्थानेनोदधिगामिनि सति ॥२॥ (टीका.) एतकि प्रतिज्ञासूत्रम् । इह चाध्ययने चर्यागुणा अनिधेयास्तत्प्रवृत्ती मूलपादनूतमिदमाहाश्रणुसोश त्ति सूत्रम्। अस्य व्याख्या । अनुस्रोतःप्रस्थिते नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवद् विषयकुमार्गअव्य क्रियानुकूट्येन प्रवृत्ते बहुजने तथा विधाच्यासात् प्रजूतलोके तथा प्रस्थानेनोदधिगामिनि । किमित्याह । प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्येण। अव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथंचिदेवतानियोगात्प्रतीपस्रोतःप्राप्तलयेण । नावतस्तु विषयादिवैपरीत्यात्कथंचिदवाप्तसंयमलयेण प्रतिस्रोत एव पुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादिसंयमलक्ष्यानिमुखमेवात्मा जीवो दातव्यः प्रवर्त्तयितव्यो नवितुकामेन संसारसमुअपरिहारेण मुक्ततया जवितुकामेन साधुना । न कुछजनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम्। श्रपित्वागमैकप्रवणेनैव नवितव्यमिति । उक्तं च। निमित्तमासाद्य यदेव किंचन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति वालिशाः ॥ तपःश्रुतज्ञानधनास्तु साधवो न यान्ति कृले परमेऽपि विक्रियाम् ॥१॥ ॥ तथा कपालमादाय विषमवाससा, वरं हिषश्मसमृघिरी दिता ॥ विहाय लजां न तु धर्मवैशसे, सुरेन्छसार्थेऽपि समाहितं मनः॥२॥ तथा ॥ पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं सघृण एव विमध्यबुद्धिः ॥ प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजनः खवृत्तं, वेलां समुख श्व लयितुं समर्थः ॥३॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः॥२॥ . Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . . .. . .. ६७४ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. अणुसोअसुदो लोन, पडिसो आसवो सुविदिआणं ॥ अणुसो संसारो, पडिसो तस्स उत्तारो॥३॥ __(अवचूरिः) अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह।अनुस्रोतःसुखो विषयादिसुखो लोकः।प्रति स्रोतस्तस्माछिपरीत श्राश्रव इन्जियजयादिरूपः । आश्रमो वा व्रतरूपः । अनुस्रोतः संसारो विषयानुकूल्यम्।कारणे कार्योपचारात् । यथा विपं मृत्युः। प्रतिस्रोतस्तस्माउत्तारः। पञ्चम्यर्थे षष्ठी। हेतौ फलोपचारात् । यथायुघृतम् ॥३॥ ... (अर्थ.) एज वात स्पष्ट कहे जे. अणुसोश इत्यादि सूत्र. (लोगो के० ) लोकः एटले लोक जेते(अणुसोअसुहो के०) अनुस्रोतःसुखः एटले जल जेम नीचाणमां सुखे जाय, तेम विषय प्रवाहमां वही जवामांसुख माननारो . (सुविहिाणं के०) सुविहितानां एटले साधुऊनो (आसवो के०) आश्रमः एटले दीदारूप आश्रम जे ते (प. डिसो के०) प्रतिस्रोतः एटले समुडतरफ जती नदीना प्रवाहमांथी नदीना मूल आगल जवा समान बे, अर्थात् विषयानिमुख लोकोने साधुनां व्रत एवा कठण . जीवोने ( संसारो के ) संसारः एटले शब्द, स्पर्श प्रमुख विषयरूप संसार जे ते (अणुसो के०) अनुस्रोतः एटले पाणीनो वेग जे तरफ होय ते तरफ जवा समान ने. अने ( तस्स के) तस्य एटले ते संसारनो ( उत्तारो के) उत्तारः एटले उतरq ते ( पडिसोर्ड के० ) प्रतिस्रोतः एटले पाणी जे तरफथी वहेतुं होय ते तरफ उलटुं जवा समान . ॥३॥ . (दीपिका.)अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह।अनुस्रोतःसुखो लोक उदकनिम्नानिसर्पणवत् । कथम्।यतो लोकःप्रवृत्त्यानुकूल विषयादिसुखः गुरुकर्मत्वात्। श्रेथ प्रतिस्रोत एतस्माधिपरीतः।आश्रव इन्जियजयादिरूपः परमार्थपेशलः कायवाङ्मनोव्यापारः। श्राश्रमो वा व्रतग्रहणादिरूपः । सुविहितानाम् साधूनाम् । अथो जयफलमाह। अनुस्रोतः संसारः। शब्दादि विषयानुकूल्यं संसार एव।कारणे कार्योपचारात्। यथा विषं मृत्युः । दधित्रपुसी प्रत्यको ज्वरः। प्रतिस्रोत उक्तलक्षणः। तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। सुपां सुपो जवन्तीति वचनात् । तस्मात्संसाराउत्तारः । उत्तरणमुत्तारः। हेतौ फलोपचारात् । यथायुघृतम् । तन्मुलान् वर्षति पर्जन्यः ॥३॥ (टीका. ) अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह । अणुसोअ ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । अनुस्रोतःसुखो लोक उदकनिम्नानिसर्पणवत प्रवृत्त्यानुकूल विषयादिसुखो लोकः कर्मगुरुत्वात् प्रतिस्रोत एव तस्माछिपरीत आश्रव इन्जियजयादिरूपः । परमार्थपेशलः Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ५७ प्रतिज्ञा।तथा देवा अपि।अपिशब्दासिझविद्याधरनरपतिपरिग्रहः। लोकपूज्या लोकपूजनीयाः प्रणमन्ति नमस्कुर्वन्ति।कम्।सुधर्माणं शोजनधर्मव्यवस्थितमित्ययं हेत्वर्थसूचकत्वा तुरिति गाथार्थः॥ दिहंतो अरहंता,अणगारा य बहवो उ जिणसीसा॥ वत्तणुवत्ते नवश्,जं नरवश्णो वि पणमंति ॥एव्याख्या ॥ दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः। स चाशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तथानगाराश्च बहव एव जिनशिष्या इति। न गन्तीत्यगा वृक्षास्तैः कृतमगारं गृहं तयेषां विद्यत इति अर्शआदेराकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः। अगारा गृहस्थाः न अगारा अनगाराश्चशब्दः समुच्चयार्थः। तुरेवकारार्थस्ततश्च बहव एव नाल्पा रागादिजेतृत्वाजिनास्तविष्यास्तहिनेया गौतमादयः। आहाअर्हदादीनां परोक्षत्वादृष्टान्तत्वमेवायुक्तम्।कथं चैतहिनिश्चीयते। यथा ते देवादिपूजिता श्त्युच्यते । यत्तावमुक्तं परोदत्वादिति । तदुष्टम्।सूत्रस्य त्रिकालगोचरार्थत्वात्कदाचित्प्रत्यदत्वादेवादिपूजिता इति चैतहिनिश्चयायाह । वृत्तमतिकान्तमनुवर्तमानेन सांप्रतकालनाविना ज्ञायते । कथमित्यत आह । यद्यस्मान्नरपतयोऽपि राजानोऽपि प्रणमन्तीदानीमपि जावसाधु ज्ञानादिगुणयुक्तमिति गम्यते।अनेन गुणानां पूज्यत्वमावेदितं नवतीति गाथार्थः॥उवसंहारो देवा,जह तह राया विपणम सुधम्मं ॥ तम्हा धम्मो मंगल-मुकिक मिश्अ निगमंति ॥१॥ व्याख्या ॥ उपसंहार उपनयः। स चायम्। देवा यथा तीर्थकरादींस्तथा राजाप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति।यस्मादेवं तस्माद्देवादिपूजितत्वाधर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमनम्। प्रतिझाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमनमिति गाथार्थः॥१॥ उक्तं पञ्चावयवमेतदनिधानात्वर्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा । सांप्रतं. दशावयवं तथा स चेहैव जिनशासन इत्यधिकारं चोपदर्शयति । इह च दशावयवाः प्रतिज्ञादय एव प्रतिज्ञादिशुफिसहिता नवन्ति । अवयवत्वं च तबुद्धीनामधिकृतवाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञादीनामिव नावनीयमित्यत्र बहु वक्तव्यम् । तर्नु नोच्यते गमनिकामात्रत्वात् प्रारम्जस्येति । सांप्रतमधिकृतदशावयवप्रतिपादनायाह ॥ बिश्यपन्ना जिणसा-सणंमि साहेति साहवो धम्मं ॥ हेऊ जम्हा सब्ना-विएसु हिंसा सुजयंति ॥ ए॥ व्याख्या ॥ द्वितीया पञ्चावयवोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया प्रतिज्ञा पूर्ववत् । द्वितीया चासौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा ।सा चेयम्। जिनशासने जिनप्रवचने। किम्। साधयंति निष्पादयन्ति । साधवःप्रव्रजिताः धर्म प्रानिरूपितशब्दार्थम् । इह च साधव इति धर्मिनिर्देशः। शेषस्तु साध्यधर्म इत्ययं प्रतिझानिर्देशः । हेतुनिर्देशमाह । हेतुर्यस्मात्सानाविकेषु पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्वथेष्वित्यर्थः । अहिंसादिष्वादिशब्दान्मृषावादादिविरतिपरिग्रहः । अन्ये तु व्याचदते, सनाविएहिंति । सजावेन निरुपचरितसकलपुःखदयायैवेत्यर्थः। यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालके वितीया चूलिका। ६५ कायवाङ्मनोव्यापारः। श्राश्रमो वा व्रतग्रहणादिरूपः । सुविहितानां साधूनामुन्जयफ- - समाह । श्रनुस्रोतः संसारः।शब्दादिविषयानुकूट्यं संसार एव।कारणे कार्योपचारात्। यथा विषं मृत्युः । दधित्रपुसी प्रत्यदो ज्वरः।प्रतिस्रोत उक्तलक्षणस्तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी । सुपां सुपो जवन्तीति वचनात् । तस्मात्संसारात्तार उत्तरणमुत्तारः। हेतौ फलोपचारात् । यथायुर्घतम् । तन्लान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः ॥३॥ तम्दा आयारपरकमेणं, संवरसमादिबहुलेणं॥ चरित्रा गुणा अनियमा, अदुति साढूण दवा ॥ ४॥ ' (श्रवचूरिः ) तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे ज्ञानादौ पराक्रमो बलं यस्य तेन सं. वर इन्डियादि विषये समाधिरनाकुलत्वं प्रनूतंबहुलं यस्य तेन। चर्या निकुन्नावसाधनी बाह्या नियतवासादिरूपा । गुणाश्च मूलोत्तरायाः। नियमाश्चोत्तरगुणानां पिएमविशुद्ध्यादीनां खकालासेवन नियोगा अष्टव्याः साधूनां सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणया ॥ ४ ॥ (श्रर्थ.) जे माटे एम जे ( तम्हा के० ) तस्मात् एटले ते माटे (आयारपरकमेणं के०) श्राचारपराक्रमेण एटले ज्ञानादि आचारने विषे पराक्रम जेनो ने एवा (संवरसमाहिबहुलेणं के०) संवरसमाधिबहुलेन एटले संवर ते इंडियादिकनो जय अने समाधि ते श्राकुलतानो अन्नाव ए बन्ने जेमां घणा बे एवा ( साहूण के०), साधुना एटले साधु जे तेणे (चरिथा के०) चर्या एटले एक ठेकाणे न रहे इत्यादि बाह्य आचाररूप चर्या, (गुणा के ) गुणाः एटले मूलगुण तथा उत्तरगुण (थ के०) च एटले वली ( नियमा के) नियमाः एटले पिंड विशुछि प्रमुख; जेनो जे थवसर होय तेनुं ते अवसरे श्राचरण करवारूप नियम (दवा के ) अष्टव्याः एटले जाणवा, सेववा तथा प्ररूपवा योग्य एवा (हुंति के०) नवन्ति एटले ठे.॥४॥ (दीपिका.) यस्मादेतदेवं पूर्वोक्तं तस्मात् साधुनैवं विधेन अप्रतिपाताय विशुकये च साधूनां चर्या निकुन्जावसाधना वाह्या अनियतवासादिरूपा गुणाश्च मू. लगुणोत्तरगुणा नियमाश्च उत्तरगुणादीनामेव पिएमविशुध्यादीनां वकालासेवननियोगा अष्टव्या नवन्ति । एते चर्यादयः साधूनां अष्टव्या जवन्ति । सम्यरज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेण । किंजूतेन साधुना । श्राचारपराक्रमेण। आचारे झानादी पराक्रमः प्रवृत्तिर्वलं यस्य स तेन । पुनःकिंजूतेन साधुना । संवरसमाधिवहु Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६द राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. बेन । संवर इन्द्रियादिविषये समाधिरनाकुलत्वं वहुलं प्रभूतं यस्य स संवरसमाधिबहुलस्तेन ॥४॥ . (टीका.) तम्ह त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मादाचारपराक्रमेणेत्याचारे ज्ञानादौ पराक्रमः प्रवृत्तिर्वलं यस्य स तथाविध इति गमकत्वाद्वहुव्रीहिस्तेनैवंचूतेन साधुना संवरसमाधिवहुलेनेति । संवर इन्द्रियादिविषये समाधिरनाकुलत्वं बहुलं अनूतं यस्य स इति समासः पूर्ववत् । तेनैवंनूतेन सता अ. प्रतिपाताय विशुद्धये च । किमित्याह । चर्या निकुन्जाबसाधनी बाह्या नियतवासादिरूपा ।गुणाश्च मूलगुणोत्तरगुणरूपाः। नियमाश्चोत्तरगुणानामेव पिएमविशुध्यादीनां वकालासेवन नियोगा जवन्ति साधूनां अष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां इष्टव्या नवन्ति। सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ अनिएअ वासो समुआणचरिआ, अन्नाय पयरिकया अ॥ अप्पोवदी कलहविवळाणा अ, विहारचरिआ इसिणं पसना॥५॥ (श्रवचूरिः) चर्यामाह । अनियतवासो मासकल्पादिना । समुदानचर्या अनेकत्र याचितनिदाचरणम्। अज्ञातोज्जं विशुद्धोपकरणग्रहणम् । विषयपरिक्षयाय विजनैकान्तसेविता च । अल्पोपधित्वं स्तोकोपधिसे वित्वम्।कलह विवर्जना च । विहारचर्या विहरण स्थितिरियमेवंचूता झषीणां साधूनां प्रशस्ता व्यादेपानावात् । आझापालनेन नावचरणसाधनाद् विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेत्युक्तम् । ॥५॥ (अर्थ.) हवे साधुउनी अनियतवास रूप चर्या कहे . अनिए इत्यादि सूत्र. (अनिएअवासो के०). अनियतवासः एटले एकज ठेकाणे एक सरखं न रहेवू ते अनियत वास, (समुआणचरिथा के०) समुदानचर्या एटले अनेक ठेकाणेथी गोचरीनी विधि माफक लावेल निदानो आहार करवो, ( अन्नायबं के०) अज्ञातोश्चं एटले शुद्ध उपकरण ग्रहण करवा होय तो ते अपरिचित गृहस्थना घरथी लेवा ते रूप अज्ञात ऊंड (श्र के) च एटले वली ( परिकया के०) प्रतिरिक्तता एटले ज्यां नीड न होय एवा एकांत स्थलने विषे वास करवो ते रूप प्रतिरिक्तता, (अप्पोवही के ) अल्पोपधिः एटले उनटपणुं न देखाय एवी स्तोकमात्र उपधि, (श्र के० ) च एटले वली (कलहविवझणा के०) कलहविवर्जना एटले कलहनुं वर्जq ते, ए (इसिणं के०) झषीणां एटले साधुऊनी ( विहारचरित्रा के.) विहारचर्या एटले विहारनी मर्यादा (पसबा के) प्रशस्ता एटले पवित्र बे॥५॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६ (दीपिका.) श्रथ चर्यामाह । झषीणामेवंजूता विहारचर्या विहरण स्थितिर्विहारमर्यादा प्रशस्ता जवति । व्यादेपस्य बजावात्, आज्ञापालनेन नावचारित्रपालनाच पवित्रा । एवंनूता कथमित्याह । अनियतवासः मासकल्पादिना । अनिकेतवासोवा अगृह उद्यानादौ वासः । तथा समुदानचर्या अनेकत्र याचितनिक्षाचरणम् । तथा श्रझाते उचं विशुद्धोपकरणग्रहण विषयम् । परिकया य विजनैकान्तसेविता च अल्पोपधित्वमनुब्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वम् । कलहविवर्जना च। तहासिजननएमन विवर्जनं श्रवणकथादिनापि वर्जनमित्यर्थः । बिहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता इत्युक्तम् ॥५॥ (टीका.) चर्यामाह । अनिए ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। थनियतवासो मासकल्पादिना । अनिकेतवासो वा अगृह उद्यानादौ वासः। तथा समुदानचर्यानेकत्र याचितनिदाचरणम्।अज्ञातोञ्छ विशुद्धोपकरणग्रहणविषयम्।परिकया य विजनैकान्तसेविता च । अल्पोपधित्वमनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वम् । कलह विवऊना च तथा तहासिना नएन विवर्जना । विवर्जनं विवर्जना। श्रवणकथनादिना विवर्जनमित्यर्थः । विहारचर्या विहरण स्थितिर्विहरणमर्यादा। श्यमेवंजूता ऋषीणां साधूनां प्रशस्ता। व्यादेपाजावात् । श्राझापालनेन नावचरणसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थः ॥५॥ आइन्न माणविवजणा असन्नदिहाहडनत्तपाणे॥ संसहकप्पेण चरिङ निस्कू, तळायसंसह जई जश्का ॥६॥ (श्रवचूरिः) तहिशेषोपदर्शनायाह । आकीर्णं राजकुलसंखड्यादि। अवमानं स्वपरूपरपदजलोककृतं वा। थाकीर्णे हस्तेन्द्रियादिबूषणा।थाकीर्णे थलानाधाकर्मादिदोषसम्नवात् ।उत्सन्नं दृष्टाहृतम्। उत्सन्नशब्दःप्रायोऽर्थे। यत्रोपयोगः शुष्यति विग्रहान्तरादारत इति । नक्तपानमेवंनूतमृषीणां प्रशस्तम् । तथा संस्कृष्टकल्पेन हस्तमात्रादिसंसृष्टविधिनाचरेनिवरित्युपदेशः। अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात् । संसृष्टमेव विशिनष्टि। तजातिसंस्कृष्ट आमगोरसादिसमानजातिसंसृष्टे हस्तादौ यतिर्यतेत यत्नं कुर्यात् । थतजातसंस्कृष्टे संसर्जनादिदोषात् । अनेन संसठे मत्ते सावसेसे दवे इत्यादयोऽष्टौ नङ्गाः । श्राद्यः शुधः । शेषास्तु चिन्त्याः॥६॥ (अर्थ.) साधुउने (श्रायन्नमाण विवङाणा के०) थाकीर्णावमान विवर्जना एटले थाकीर्ण ते राजकुल संखडी प्रमुख श्रने यवमान ते स्वपक्ष परपक्षयी थएल अपमान तेने वर्ज, ते तथा ( उसन्न दिहाडजत्तपाणे के०) उत्सन्नदष्टाहृतनक्तपानं. Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) -मा. एटले प्राये उपयोगथी जोईने लावेल एवं जक्तपान प्रशस्त छे तेमज (जिरकु के० ) निकुः एटले साधु जे ते ( संसघकप्पेण के० ) संसृष्टकल्पेन एटले खरडेल पात्र, कडी विगेरे वडे आहार ग्रहण करवानी विधिवडे ( चरि के० ) चरेत् एटले विचरे. तथा ( जई के० ) यतिः एटले साधु जे ते ( तायसंसह के० ) तातसंसृष्ट एटले तात संसृष्ट विषे ( जश्ा के० ) यतेत एटले यत्न करे. ॥ ६ ॥ ( दीपिका. ) अथ तद्विशेषस्योपदर्शनायाह । श्रकीर्णात्रमानविर्वजना च विहारचर्या कृषीणां प्रशस्ता इति । श्राकीणं च श्रवमान विवर्जना च विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता । तत्राकीर्ण राजकुल संखड्यादि । श्रवमानं स्वपकपर पक्षप्राजत्यजं लोक बहुमानादि । अस्य विवर्जनम् । आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषो जवेत् । श्रवमानेऽलाजाधाकर्मादिदोषो जवेत् । तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमु पनीतम् । उत्सन्नशब्दः प्रायोवृत्तौ वर्तते । यथा देवा उसन्नं सायं वेयणं वेयंति । किमेतदित्याह । जक्तपानमोदनारनालादि । इदं च उत्सन्नदृष्टाहृतं यत्र उपयोगः शुद्ध्यति । त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः । एवंभूतमुत्सन्नदृष्टाहृतं जक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः । तथा निक्षुः साधुः संसृष्टकल्पेन हस्तमात्रकादिसंसृष्ट विधिना चरेदिति उपदेशः । अन्यथा पुरःकर्मादिदोषः स्यात् । संसृष्टमेव विशिनष्टि । तजातसंसृष्ट इति । श्रमगोरसादिसमानजातीय संसृष्टे मात्रकादौ यतिर्यतेत यत्नं कुर्यात् । तातसंसृष्टे संमार्जनादिदोषः स्यादित्यनेनाष्टङ्गसूचनम् । तद्यथा संसठे हवे संसठे मत्ते सावसेसे दवे । अत्र प्रथमो नङ्गाः श्रेयान् शेषाः स्वयं चिन्त्याः ॥ ६ ॥ (टीका.) इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाह ॥ दवे सरीर जवि, नावे संज तस्स ॥ उग्गहिया पग्ग हिश्रा, विहारचरिश्रा मुणे श्रवा ॥ ३९॥ व्याख्या ॥ साधूनां विहारचर्या धिकृतेति साधुरुच्यते । स च द्रव्यतो जावतश्च तत्र द्रव्य इति द्वारपरामर्शः । शरीरंजव्य इति मध्यमने दत्वादागमनोश्रागमज्ञशरीरजव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तद्रव्यसाधू पलक्षणमेतत् । जावेन चेति द्वारपरामर्शः । स एव संयत इति संयत गुणसंवेदको जावसाधुः । इदाध्ययने तस्य जावसाधोरवगृहीता उद्यानारामादिनिवासाद्य नियता । प्रगृहीता तत्रापि विशिष्टा निग्रहरूपा उत्कट कासनादिविहारचर्या मन्तव्या बोद्धव्येति गाथार्थः सा चेयमिति सूत्रस्पर्शेनाह ॥ अपिए परिक्कं ठासायं सामुयाणिअं उं ॥ पो• वही कलहो, विहारचरिश्रा इसिपसवा ॥ ३८ ॥ अस्या व्याख्या सूत्रवदवसेया । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... दशवैकालिके वितीया चूलिका। जए अवयवाक्रमस्तु गाथानङ्गजयादर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवदृष्टव्य इति। विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेत्युक्तम् । तहिशेषोपदर्शनायाह । आश्न ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। थाकीर्णावमान विवर्जना च विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेति । तत्राकीण राजकुलसंखड्यादि । अवमानं खपक्षपरपक्षप्रानृत्यजं लोकाबहुमानादि । अस्य विवर्जना। श्रकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषात् । अवमाने अलानाधाकर्मा दिदोषादिति । तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम् । उत्सन्नशब्दः प्रायोवृत्तौ वर्त्तते । यथा देवा उसन्नं सायं वेयणं वेएंति । किमेतदित्याह । नक्तपानमोदनारनालादि । इदं चोसन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुष्यति । गृहान्तरादारत इत्यर्थः । निरकग्गाही एगठ कुणबी श्र दोसुमुवगर्जगमिति वचनात् । इत्येवंचूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं जक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः। तथा संस्दृष्टकट्पेन हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेनिकुरित्युपदेशः। अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात् । संस्कृष्टमेव विशिनष्टि । तजातसंसृष्ट इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंस्कृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिर्यतेत यत्तं कुर्यात् । अतजातसंस्कृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यनेनाष्टनङ्गसूचनम् । तद्यथा संसहे हवे संसठे मत्ते सावसेसे दवे इत्यादि । अत्र प्रथमनङ्गः श्रेयान् । शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः॥६॥ अमऊमंसासि अमरीश्रा, अनिकणं निविगॉगया अ॥ अनिकणं कानसग्गकारी, सप्नायजोगे पय दविजा ॥७॥ (श्रवचूरिः) उपदेशाधिकार एवाह । अमद्यमांसाशी नवेदिति योगः। श्रमसरी च न परोषी स्यात् । शनीदणं निर्विकृतिकश्च । निर्गतविकृतिकश्च निर्गतविकृतिजोगश्च पुष्टालम्बनानावे । गमनागमनादिषु कायोत्सर्गकारी स्यात् । र्यामप्रतिक्रम्य न किंचित्कुर्यात् । स्वाध्याययोगे वाचनादिव्यापारे अतिशयप्रयत्नवान् प्रयतो नवेत् । अन्यथाशुद्धतादोषात् ॥ ७॥ (अर्थ.) उपदेशना अधिकारमांज कहे . श्रमजा इत्यादि सूत्र | साधु जेते (श्र. मङमंसासि के०) श्रमद्यमांसाशी एटले मद्यनुं पान अने मांसनुं नक्षण न करनार एवा, (श्रमहरी के०) श्रमत्सरी एटले को पण जीवनी साये मत्सर न करनार एवा (च के०), च एटले वली (अजिरकणं के०) अन्नीक्ष्णं एटले वारंवार (निविगश् के) निर्विकृतिकः एटले नीवी प्रत्ये (गया के०) गता एटले अंगीकार करनार एवा अर्थात् तेवू कां पुष्ट कारण होय तोज उचित विगश्नो थाहार करे, नहि तो प्राये विगश्नो त्याग करे एवा (श्र के) च एटले वली (अनिरकणं केव) थनी Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(१३)-मा. दणं एटले वारंवार (काउस्सग्गकारी के०) कायोत्सर्गकारी एटले गमनागमनादि कारणथी प्रतिक्रमण रूप कायोत्सर्ग करनार एवा. कारण, ते विना क्रियानी शु. छता नथी. तेमज ( सनायजोगे के०) स्वाध्याययोगे एटले वाचना प्रमुख स्वा. ध्याय व्यापारने विषे ( पयर्ड के०) प्रयतः एटले यतनावान एवा ( दविजा के०) जवेत् एटले थाय. ॥७॥ __(दीपिका.) उपदेशाधिकार एवेदमाह । साधुः थमद्यमांसाशी नवेदित्युक्तिः। कोऽर्थः।अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात् । एते च मद्यमांसे लोकागमप्रसिझे एव । ततश्च यत् केचन कथयन्ति । श्रारनालादिष्वपि संधानदोषादोदनायपि प्राण्यङ्गत्वात्त्याज्य मि. ति । तदसत् । अमीषां मांसमद्यत्वस्य श्रयोगात् । लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात् । सन्धा. नप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वचोदनं तु असाधु अतिप्रसंगदोषात्। अव्यत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपा• नमातृगमनादिप्रसंगात् श्त्यलं प्रसंगेन। श्रदरगमनिकामात्रप्रक्रमात् । पुनः साधुः श्रमत्सरी चस्यात्।न परसंपदाषी स्यात् । तथा अनीदणं वारंवारं पुष्टकारणस्य अजावे निर्विकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिनोगश्च जवेत् । अनेन परिनोगोचितविकृतीनामपि अकारणे प्रतिषेधमाह । तथा अनीदणं वारंवारं गमनागमनादिषु । विकृतिपरिजोगे वेत्यन्ये । किमित्याह । कायोत्सर्गकारी नवेत् । र्यापथप्रतिक्रमणमकृत्वा न किंचिदन्यत् कुर्यात् । तदशुद्धतापत्तेरिति नावः। तथा स्वाध्याययोगे वाचनादीनां उपचारव्यापारे आचामाम्लादौ प्रयतोऽतिशयेन यत्नवान् नवेत् । तथैव तस्य सफलत्वात् । विपर्ययेतून्मादादिदोषप्रसंगादिति ॥ ७॥ ( टीका.) उपदेशाधिकार एवेदमाह ।अमजा त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या। श्रमद्यमांसाशी नवेदिति योगः। श्रमद्यपोऽमांसाशी च स्यात् । एते चमद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव। ततश्च यत्केचनानिदधत्यारनालारिष्टाद्यपि संधानादोदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्याज्यमिति । तदसत् ।अमीषां मद्यमांसत्वायोगात् । लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात् । संधानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी । अतिप्रसङ्गदोषात् । अवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसंगादित्यलं प्रसङ्गेनादरगमनिकामात्रप्रक्रमात् । तथा श्रमत्सरी च न परसंपवेषी च स्यात् । तथा अनीदणं पुनः पुनः पुष्टकारणानावे निविकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिजोगश्च भवेत् । अनेन परिलोगोचितविकृतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाह । तथा अन्नीदणं गमनागमनादिषु विकृतिपरिजोगेऽपि चान्ये किमि त्याह। कायोत्सर्गकारी नवेत् । र्यापथप्रतिक्रमणमकृत्वा न किंचिदन्यत् कुर्यादशुझता Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mani.Charmire दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६२ पत्तेरिति जावः। तथा स्वाध्याययोगे वाचनाद्युपचारव्यापार आचामाम्लादौ प्रयतोऽतिशययनपरो नवेत्तथैव तस्य फलवत्त्वाविपर्यय उन्मादादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः॥७॥ ण पडिन्नविज्जा सयणासणाई, सिङ निसिज तह नत्तपाणं ॥ गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तनावं न कहिं पि कुजा ॥७॥ (अवचूरिः) न प्रतिज्ञापयेत् मासादिकल्पपरिसमाप्तौ गठन् नूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति प्रतिज्ञांन कारयेत् गृहिणम् । किमाश्रित्येत्याह । शयनासने शय्यां निषद्यांतथाजक्तपानमिति तत्र शयनं संस्तारकादि । श्रासनं पीठकादि । शय्या वसतिर्निषद्या स्वाध्याया दिनूमिः। तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थानौचित्येन नक्तपानं खएखाद्यनादापानादि न तत्प्रतिज्ञापयेत् ममत्वदोषात् । सर्वत्रैव निषेधमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ । कुले वा श्रावकादौ । नगरे वा साकेतादौ । देशे वा मध्यदेशादौ । ममत्वनावं ममेदमिति स्नेहमोहं न क्वचिउपकरणादिष्वपि कुर्यात्तन्मूल. स्वादुःखानाम् ॥ ॥ ७ ॥ (अर्थ.) वली ण पडिन्नविजा इत्यादि सूत्र, साधु जे ते मासकल्प विगेरे पूरो करीने विहार करवाने वखते ( सयणासणा के) शयनासने एटले संस्तारक प्रमुख शयन अने पीठक प्रमुख आसन प्रत्ये, (सिङ के०) शय्यां एटले वसति प्रत्ये, (निसिद्धां के०) निषद्यां एटले खाध्याय विगेरे करवानी नूमि प्रत्ये, (तह के०) तथा एटले तेमज (नत्तपाणं के०) नक्तपानं एटले अन्नपान प्रत्ये (ण पडिन्नविजा के०) न प्रतिज्ञापयेत् एटले श्रावक पासे कबूल करावे नहि. अर्थात् हुँ फरिथी श्रावीश त्यारे शयन, शासन प्रमुख मने आपवा. एवं विहार करती वखते श्रावकपासे नकी करावे नहि. कारण, तेम करवाथी ते वस्तुने विषे ममता उत्पन्न थाय ते.थने ममता सर्व अनर्थवें मूल . माटे (गामे के०) ग्रामे एटले शालिग्राम प्रमुख गामने विपे, (कुले के०) कुले एटले श्रावककुलादिकने विपे, (वा के०) अथवा (नगरे के०) नगरे एटले अयोध्या प्रमुख नगरने विपे, (व के०) अथवा (देसे के०) देशे एटले मध्यदेशादिकने विपे ( कहिं वि के) कचिदपि एटले कोइ ठेकाणे पण (ममत्तनावं के) ममत्वनावं एटले था मारूं ठे एवा परिणाम प्रत्ये (न कुजा के०) न कुर्यात् एटले न करे. ॥ ॥ - (दीपिका.)किंच साधुर्मासादिकटपसमाप्तावन्यत्र गठन् सन्निति गृहस्थं न प्रतिज्ञापयेत् नप्रतिज्ञा कारयेत् ।श्तीति किम्।पुनरागतस्य मम एतानि दातव्यानि। एतानि कानीत्या. Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस (४३) - मा. ह | शयनं संस्तारकादि, आसनं पीठकादि, शय्या वसतिः, निषद्या स्वाध्यायादिनूमिः । तथा तेन प्रकारेण तत्काले अवस्थाया औचित्येन नक्तं खएखाद्यादि, पानं चप्रादादि न प्रतिज्ञापयेत् ममत्वदोषात् । श्रथ सर्वत्र ममतादोषपरिहारमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ कुले वा श्रावककुले, नगरे अयोध्यादौ देशे च मध्यदेशादी ममेदमिति वा स्नेहमोहं न क्वचिडुपकरणादिष्वपि कुर्यात् । कुतो न स्नेहं कुर्यात् । स्नेह मूलत्वाद्दुःखादीनामिति ॥ ८ ॥ ( टीका. ) किंच ए पनि विज ति सूत्रम् । श्रस्य व्याख्या । न प्रतिज्ञापयेन्मासादिकल्प परिसमाप्तौ गछन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवेतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञां कार हस्थम् । किमाश्रित्येत्याह । शयनासने, शय्यां निषद्यां । तथा जक्तपानमिति । तत्र शयनं संस्तारका दि । आसनं पीठकादि । शय्या वसतिः । निषद्या स्वाध्यायादिभूमिः । तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थौचित्येन जक्तपानं खमखाद्यकद्राक्षापानकादि न प्रतिज्ञापयेन्ममत्वदोषात् । सर्वत्रैतन्निषेधमाह । ग्रामे शालिग्रामादौ कुले वा श्रावककुलादौ नगरे साकेतादौ देशे वा मध्यदेशादौ, ममत्वजावं ममेदमिति स्नेहमोहं न चिपकरणादिष्वपि कुर्यात्तन्मूलत्वाद्दुःखादीनामिति ॥ ८ ॥ गिहिणो वेच्या वडिच्यं न कुका, अनिवायणवंदपूर्ण वा ॥ असं किलिहिं समं वसिका, मुणी चरित्तस्स जन न हाणी ॥ ए ॥ ( श्रवचूरिः) उपदेशाधिकार एवैतदाह । गृहिणो वैयावृत्त्यं न कुर्यात् । श्रनिवादनं वाचिक नमस्काररूपं, वन्दनं कायप्रणामरूपं, पूजनं च वस्त्रादिनिः । असं क्लिष्ट - गृहिवैयावृत्त्यादिकरणसंक्लेशरहितैः साधुनिः समं वसेत् । चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य यतो येभ्यः साधुत्र्यः सकाशान्न हानिः । श्रनागतकालविषयं चेदं सूत्रम् । प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वजावात् ॥ ५ ॥ (अर्थ) उपदेशना अधिकारमांज कहे ठे. गिदियो इत्यादि सूत्र ( गिहिणो ho ) गृहिणः एटले गृहस्थना ( वेयावडियं के० ) वैयावृत्त्यं एटले जेथी गृहस्थ उपर उपकार थाय एवा कांइ पण तेना कामकाज प्रत्ये ( न कुजा के० ) न कुर्यात् एटले न करे. ( वा के० ) अथवा (अनिवायणवंदपूर्ण के० ) अभिवादनवन्दनपूजनं एटले निवादन ते वाणीवडे नमस्कार शब्द उच्चारवो, वंदन ते कायावडे नमकुं अने पूजन ते वस्त्रादिकवडे सत्कार करवो ते प्रत्ये न करे. ( जर्ज के० ) यतः एटले जेना समागममां रहेवाथी ( चरित्तस्स के० ) चारित्रस्य एटले मूलगुण प्रमुख चारि Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालके वितीया चूलिका। ६३ प्रनी (हाणी के) हानिः एटले हानि (न के) न थाय. तेवा (असं किलिहिं के०) असंक्लिष्टैः एटले गृहस्थनुं वेयावच करवा प्रमुख संक्लेशवडे रहित एवा साधुऊनी (समं के) साये (मुणी के०) मुनिः एटले साधु जे ते (वसिजा के०) वसेत् एटले रहे. ॥ ए॥ (दीपिका.) पुनरुपदेशाधिकार एवमाह। मुनिः गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिजावस्य उपकाराय तत्कर्मखात्मनो व्यापृतनावं न कुर्यात् । स्वपरोनयाश्रेयःसमायोजनदोषात् । शनिवादनं, वाचा नमस्काररूपं, वन्दनं कायप्रणामलदाणं, पूजनं वा वस्त्रादिनिः समन्यर्चनं गृहिणो न कुर्याउक्तदोषप्रसङ्गादेव । तथा एतदोषपरिहाराय एवमसंक्लिष्टैः गृहिवैयावृत्त्यादिकारणसंक्वेशरहितैः साधुनिः समं वसेत् मुनिः। यतो येन्यः साधुन्यः सकाशात् चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य हानिर्न स्यात् ॥ ए॥ (टीका.) उपदेशाधिकार एवाह । गिहिणो ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिनावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तनावं न कुर्यात् स्वपरोजयाश्रेयःसमायोजनदोषात् । तथा अनिवादनं वाङमस्काररूपं वन्दनं कायप्रणामलक्षणं पूजनं वा वस्त्रादिनिः समन्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्याउक्तदोपप्रसङ्गादेव । तथैतदोषपरिहारायैवासंक्लिष्टै हिवैयावृत्त्यकरणसंक्वेशरहितः साधुनिः समं वसेन्मुनिः । चारित्रस्य मूलगुणादिलक्षणस्य यतो येज्यः साधुन्यः सकाशान्न हानिः । संवासतस्तदकृत्यानुमोदनादिनेत्यनागतविषयं चेदं सूत्रम् । प्रणयनका संक्लिष्टसाध्वनावादिति सूत्रार्थः ॥ ए॥ पण या लनेका निजणं सहायं, गुणादिअं वा गुण समं वा ॥ को वि पावा विवजयंतो, वितरित कामसु असऊमाणो॥१०॥ (श्रवचूरिः) असंक्लिप्टैः समं वसेदित्युक्तम् । अत्र विशेषमाह । कालदोपान यदि लनेत निपुणं सहायं संयमानुष्ठानकुशलं परत्रसाधनहितीयं ज्ञानादिगुणोत्कटं गुणाधिकं वा, गुणैः समं वा । तृतीयाथै पञ्चमी । एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन्विहरेकुचितविहारेण । कामे विद्याकामादिष्वपि सङ्गमगठन् ॥ १० ॥ (श्रर्थ.) असं विष्ट साधुनी साये रहेg एम कडं तेमां विशेष कहेठे. णया इत्यादि सूत्र. साधु जे ते (या के०) यदि एटले जो कदाच ( गुणा हियं के०) गुणाधिक Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. एटले पोताना करता अधिक गुणशाली एवा ( वा के० ) अथवा ( गुण के० ) गुणतः एटले गुणवडे ( समं के० ) समं एटले समान एवा ( वा के० ) वली ( निज ho ) निपुणं एटले संयम पालवामां कुशल एवा ( सहायं के० ) सहायं एटले पर लोक साधन करवामां साहाय्य करनार एवा अन्य साधु प्रत्ये ( न लनिका के ० ) नलनेत एटले न पामे, तो ( पावाई के० ) पापानि एटले पापकर्म प्रत्ये ( विवजयंतो के० ) विवर्जयन् एटले वर्ज करता तथा ( कामेसु के० ) कामेषु एटले इछा कामादिकने विषे ( माणो के० ) असमानः एटले श्रासक्त नहि यता एवा (एगोवि० ) एकोऽपि एटले एकला पण ( विहरि के० ) विहरेत् एटले विचरे. पण शिथिलचारित्रियानी साथे विचरे नहि. ॥ १० ॥ (दीपिका) अत्र संक्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तं पुनर्विधिविशेषमाह । साधुः कालदोषात् यदि कथंचित् निपुणं संयमानुष्ठान कुशलं सहायं परलोकसाधने द्वितीयं न लनेत । किंनूतं सहायम् । गुणाधिकं वा ज्ञानादिगुणैरधिकं वा । गुणैः समं वा । वाशब्दात् गुणहीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा । तदा किं कुर्यादित्याह । तदा एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणानि श्रासदनुष्ठानानि विवर्जयेत् । विविधमनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परिहरन् सन् विहरेत् उचित विहारेण । किं कुर्वन् । कामे विछाकामादिषु श्रसमानः सङ्गमगच्छन् एकोऽपि विहरेत् । परं नतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात् । तस्य दुष्टत्वात् । तथा श्रन्यैरप्युक्तम् । वरं विहन्तुं सह पन्नगैर्जवेशिवात्मनिर्वा रिपुनिः सहोषितुम् अधर्मयुक्तैश्च परैरप कितैर्नपापमित्रैः सह वर्त्तितुं कमम् १ ॥ इहैव हन्युर्भुजगा हि रोषिता धृतासयश्विमवेक्ष्य चारयः ॥ अस वृत्तेन जनेन संगतः परत्र चैवेह विहन्यते जनः ॥ २॥ तथा ॥ परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् ॥ आत्मानं योऽतिसंघते सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ॥ ३ ॥ तथा ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ॥ महान्ति पातकान्याहुरे निश्च सह संगतम् ॥ इत्यत्तं प्रसङ्गेन । अथ सूत्रार्थावसर ॥ १० ॥ 1 ( टीका. ) असं क्लिष्टैः समें वसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह । णय त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । कालदोषान्न यदि लनेत । न यदि कथंचित् प्राप्नुयात् । निपुणं संयमानुष्ठानकुशलं सहायं परलोकसाधन द्वितीयम् । किं विशिष्टमित्याह । गुणाधिकं वा ज्ञानादिगुणोत्कटं वा । गुणतः समं वा । तृतीयार्थे पञ्चमी । गुणैस्तुल्यं वा । वाशब्दाद्धीनमपि जात्यकाञ्चनकल्पं विनीतं वा । ततः किमित्याह । एकोऽपि संहननादियुक्तः पापानि पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन् विविधमनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परि Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(१ इति गाथार्थः । सांप्रतं प्रतिज्ञाशुकिमनिधातुकाम आह् ॥ जह जिणसास धम्मं पाति साहवो सुई ॥ न कुतिचिएसु एवं, दीसइ परिपालणोबा ॥ व्याख्या ॥ यथा येन प्रकारेण जिनशासन निरता निश्चयेन रता धर्म प्रानिक ब्दार्थ पालयन्ति रक्षन्ति । साधवःप्रबजिताः पड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारि दिपरिवर्जनेन च शुझमकलङ्क नैवं तन्त्रान्तरीयाः। यस्मान्न कुतीथिकेवेवं यथा सा दृश्यते परिपालनोपायः । षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यन्नावात् । उपायग्रहणं व सानि प्रायकम् । शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते । न पुरुषानुटारर । कापुरुषा हि वित थकारिणोऽपि नवन्त्येवेति गाथार्थः । अत्राह ॥ तेसु वि य धम्मसहो, धम्म नियंत्र ते पसंसंतिः । नणु नणि सावधो कुतिनिधम्मो जिणवरेहिं ॥४॥ व्याख्यातेपनि च तन्त्रान्तरीयधर्मेषु। किम्।धर्मशब्दो लोके रूढः। तथा धर्म निज चात्मीयमेव यथातथं ते प्रशंसन्ति स्तुवन्ति । ततश्च कथमेतदित्यत्रोच्यते । नन्वित्यदमायां जणित उक्तः। पूर्वं सावधः सपापः कुतीर्थिकधर्मः चरकादिधर्मः।कैः। जिनवरैःतीर्थकर व जिलेडि उ पसबो" इति वचनात्। षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यन्नावादेवेत्यापि वह वक्तव्यं तन नोच्यते ग्रन्थ विस्तरजयादिति गाथार्थः तथा॥जो तेसु धम्मसोमो वयारेण नि. छएण हं ॥ जह सीहसढुसीहे,पाहमुवयारर्जमन ॥५॥ व्याा यस्तेष तन्त्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः स उपचारेणापरमार्थेन, निश्चयेनात्र जिममा यथा सिंदशब्दः सिंहे व्यवस्थितः प्राधान्येनोपचारत उपचारेणापा सिंहो माणवकः । उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः। धर्मे ल पति गाथार्थः ॥ एस पश्नासुकी, हेज अहिंसाएसु पंचसु वि॥ वेण जयंती, हेडकि सुखी मा तब ए६॥ व्याख्या॥ एषा उक्तखरूपा प्रतिज्ञायत हेतुरहिंसादिषु पञ्चस्वपि सन्नावेन यतन्त इत्ययं च प्राग्व्या धातुकामेन च जाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इत्यत एवाह । है । विषयविनाषावस्थापनं विशुद्धिः। श्मा श्यं तत्र प्रयोग शतिव उवगरण-वस हिसयणासणासु जयंति ॥ फासुयअकयअर गाया नोईय ॥ ए७ ॥ व्याख्या ॥ यद्यस्मानक्तं च पानं चोपकरणारयदय श्चेति समासस्तेषु । किम् । यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति च वसात यस्मात्प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्टं च।। कथमा विधाः । तत्रासवः प्राणाः। प्रगता असवः प्राणा यस्मादिनक्तुं शाम स्वकृतमपि नवत्यत आह अकृतम् । तदपि कारितमपि प्रासुर तदप्यनुमतमपि. नवत्यत आह अननुमतम् । तदप्युद्दिष्टवत्यताका प्रतिज्ञाशुद्धिः। श्त्यत एवापत एव । शुधिमकि त्र प्रयोग इतिगोविशुहिंतुविशुधिः। उपअकयअगायार्थः ॥ ज जत्तपा चोपकरणारिय-अण्णुमयारि न कुर्वन्ति च वसतिश्च शयनासनादष्ट च।। कयमेतदेवमित्यत्राह। स्मादिततं शीर्ष येषां ते तर माप प्रा निर्जीवम् ।। अत्यत पाह श्रकारिता Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके द्वितीया चूलिका । ६न्य हरन् विरेषुचित विहारेण कामे विछाकामा दिष्वसमानः संगमगठन्ने कोऽपि विहरेनतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात्तस्य दुष्टत्वात्तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ वरं विहर्तुं सहपनवे वात्मनर्वा रिपुनिः सहोषितुम् ॥ धर्मयुक्तैश्च पलैरप एकतैर्न पापमित्रैः सह वर्त्तितुं मम् ॥ १ ॥ इहैव हन्युर्भुजगा हि रोषिताः, धृतासयश्विमवेक्ष्य चारयः ॥ असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवेह च हन्यते जनः ॥ २ ॥ तथा ॥ परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्यजेत् ॥ श्रात्मानं योऽतिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्थात्कथं हितः ॥ १ ॥ तथा ॥ ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ॥ महान्ति पातकान्याहुरेनिश्च सह संगतम् ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ संवचरं वा वि परं पमाणं, बीयं च वासं न तहिं वसिका ॥ सुत्तस्स मग्गेण चरिक निकू, सुत्तस्स हो जह आणवे ॥ ११ ॥ ( वचूरिः ) विहारकालमाह । संवत्सरं वापि । संवत्सरो वर्षासु चतुर्मासकम् । श्रपिशब्दान्मासमपि । परं प्रमाणं वर्षातुबद्धयोरुत्कष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । द्वितीयं वर्ष वर्षासु चतुबद्धे न तत्र वसेत् । तत्र सङ्गदोषात् । द्वितीयं तृतीयं परिहृत्य वसेदिति । किंबहुना । सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गणैव । यागमोद्देशेन प्रवर्त्तत इति जावः । सूत्रस्यार्थ उत्सर्गापवादगर्भो यथाज्ञापयति नियुङ्गे प्रवर्त्तेत तथा ॥ ११ ॥ ( . ) हवे विहार कालनुं प्रमाण कहे बे. संवधरं इत्यादि सूत्र. (संवधरं के० ) संवत्सरं एटले वर्षाकालना चार महिना तथा ( वावि के० ) वापि एटले वली ऋतुबद्ध कलमां एक मास ए साधुर्जना एक ठेकाणे रहेवानुं ( परं के० ) परं एटले उत्कृष्ट (प्रमाणं के० ) प्रमाणं एटले प्रमाण वे. जे ठेकाणे वर्षाकालनुं चोमासुं श्रथवा शतुबद्ध कालमां मासकल्प कस्यो . ( तहिं के० ) तत्र एटले त्यांलागट (वीयं के० ) द्वितीयं एटले बीजुं (वासं के०) वर्षम् एटले चोमासुं अथवा मासकल्प प्रत्ये (नव सिद्धा के ० ) नवसेत् एटले रहे नहि. ( सुत्तस्स के० ) सूत्रस्य एटले सूत्रनो (ठो के० ) अर्थ: एटले अर्थ (जह के० ) यथा एटले जेम ( श्राणवे के० ) श्राज्ञापयति पटले या झा करे. तेम ( रिकू ० ) निक्षुः एटले साधु ( सुत्तस्स के० ) सूत्रस्थ एटले सूचना ( मग्गेण के० ) मार्गेण एटले मार्गवडे (चरिता के० ) चरेत् एटले चाले. ॥ ११ ॥ ( दीपिका. ) साधोः संवत्सरं वर्षासु चातुर्मासिकं ज्येष्टावग्रहं विहारकालमाह । द्वितीयं नेकत्र देने वसेत् । श्रपिशब्दात् मालमपि परं प्रमाणमृतुबद्धकाले द्वितीय तत्र क्षेत्रे न वसेत् । यत्र एको वर्षाकल्पः कृतस्तत्रोत्कृष्टतो द्वितीयो वकल्प न Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कार्यः । एवं मासकल्पोऽपि द्वितीय एकदेत्रे उत्सर्गतो न कार्य ऋतुबके काले। कुतः। गृहस्थादिसंगदोषात्। द्वितीयं तृतीयं वा वर्षमासं वा परिहृत्य तत्र क्षेत्रे वसेदपि । किं बहना सर्वत्रैव सूत्रमार्गेण चरेत् । निकुरागमादेशे वर्ततेति नावः । तथापि न उघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् । अपितु सूत्रस्य अर्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगों यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत न अन्यथा। यह अपवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुझापवादायोगादित्येवं वन्दनप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेदणेन अनुष्ठानेन वर्तेत । नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्।आशातनाप्रसङ्गात् ॥११॥ (टीका.) विहारकालमाह । संवबरं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । संवत्सरं वापि । अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते । तमपि। अपिशब्दान्मासमपि परं प्रमाणम् ।वर्षाऋतुबझयोरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । वि. तीयं च वर्षम् । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासं च ऋतुबके न तत्र क्षेत्रे वसेत् । यत्रैको वर्षाकल्पोमासकल्पश्च कृतः । अपितु सङ्गदोषाद हितीयं तृतीयं च परिहत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः । सर्वथा किं बहुना सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गेण चरेनिङः । आगमादेशेन वर्त्ततेति नावः । तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात्। अपि तु सूत्रस्यार्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादग! यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत नान्यथा। यहापवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासा दिसाधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुद्धापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थ प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्तेत । नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ जो पुवरत्तावररत्तकाले, संपिकई अप्पगमप्पगेणं॥ किं मे कम किच्चमकिच्चसेस, किं सक्वणिऊं न समायरामि ॥१२॥ (श्रवचूरिः) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिप्रथमचरमप्रहरयोरित्यर्थः । संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानमात्मनैव । कथमित्याह । किं मे कृतमिति । गन्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि । किं च मम कृत्यशेषं कर्त्तव्यशेषमुचितम् । किं वा शक्य वैयावृत्त्यादि न समाचरामि न करोमी- ॥ १२ ॥ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका । ६७ (अर्थ.) एवी रीते विचरनार साधु न सीदाय तेनो उपाय कहे . जो इत्यादि सूत्र. (जो के) यः एटले जे साधु (पुत्वरत्तावररत्तकाले के) पूर्वरात्रापररात्रकाले एटले रात्रिना प्रथम अने चरम प्रहरने विषे (अप्पगं के) श्रात्मानं एटले पोताने (अप्पएणं के०) आत्मना एटले पोते (संपिरकए के) संप्रेक्षते एटले सूत्रोक्त प्रकारवडे तपासे. तेयारीते (मे के०) मया एटले में (कि के) किं एटले कयु (किच के) कृत्यं एटले करवायोग्य एवं तपस्या प्रमुख कृत्य (कडं के०) कृतं एटले कस्तूं. तेमज (कि के) कयु (म के) मम एटले मारा (किच्चसेसं के०) कृत्य शेषं एटले करवायोग्य कार्य वाकी , तथा (किं के० ) किं एटले कयुं ( सकणिऊं के) शक्यं एटले माराथी वनी शके एवं वेयावच प्रमुख कार्य ( न समायरामि के०) न समाचरामि एटले आचरतो नथी ॥ १५ ॥ (दीपिका.) एवं विशुद्धविविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधु वेत् स पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमप्रहरयोरित्यर्थः। संप्रेदते सूत्रोपयोगनीत्यात्मानं कर्मनूतमात्मनैव करणनूतेन प्रेदते।कथं प्रेदतश्त्याह। किं मे कृतमिति। गन्दसिकत्वातृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्तेरनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेपं कर्तव्यात शेषमुचितम् । पुनः किंच शक्यं वयोऽवस्थाऽनुरूपं वैयावृत्त्यादि श्रहं न समाचरामीति । तस्याकरणे हि तत्कालनाश इति ॥ १२ ॥ (टीका.) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । जो त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थः । संप्रेदते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानं कर्मनूतमात्मनैव करणनूतेन । कथमित्याह । किं मे कृतमिति गन्दसत्वात्तृतीयार्थे पष्ठी । किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेष कर्तव्यशेषमुचितम् । किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं वेयात्यादि न समाचरामि न करोमि । तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ किं मे परो पास किंच अप्पा, किं वाहं खलिअंन विवङयामि॥ श्चेव सम्म अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुना ॥१॥ (श्रवचूरिः ) किं मम स्खलितं परः पश्यति । किं वात्मा मनाकुसंवेगापन्नः । किंवाहमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि । इत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननागतं प्रतिवन्धं न कुर्यादागामिकाल विषयं संयमप्रतिवन्धं न करोतीति ॥ १३ ॥ (अर्थ. ) वली (परो के० ) परः एटले खपक्ष श्रथवा परपद संबंधी को वीजो Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. कार्यः । एवं मासकल्पोऽपि द्वितीय एकक्षेत्रे उत्सर्गतो न कार्य ऋतुबके काले। कुतः। गृहस्थादिसंगदोषात्। द्वितीयं तृतीयं वा वर्षमासं वा परिहत्य तत्र क्षेत्रे वसेदपि । किं बहुना सर्वत्रैव सूत्रमार्गेण चरेत् । निकुरागमादेशे वर्ततेति नावः । तथापि न उघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् । अपितु सूत्रस्य अर्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगों यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत न अन्यथा। यह अपवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुकापवादायोगादित्येवं वन्दनप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेदाणेन अनुष्ठानेन वर्तेत । नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्।आशातनाप्रसङ्गात् ॥११॥ (टीका.) विहारकालमाह । संवबरं ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । संवत्सरं वापि । अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते । तमपि। अपि शब्दान्मासमपि परं प्रमाणम् ।वर्षाऋतुबद्ध्योरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् । छि। तीयं च वर्षम् । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। द्वितीय वर्ष वर्षासु चशब्दान्मासं च शतुबके न तत्र क्षेत्रे वसेत् । यत्रैको वर्षाकल्पोमासकल्पश्च कृतः । अपितु सङ्गदोषाद् द्वितीयं तृतीयं च परिहृत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः । सर्वथा किं बहुना सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गेण चरेनिकुः । आगमादेशेन वर्त्ततेति जावः । तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात्। अपि तु सूत्रस्यार्थः पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगों यथाज्ञापयति नियुङ्क्ते तथा वर्तेत नान्यथा।यहापवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादिसाधूनां संस्तारगोचरादि परिवर्तेत नान्यथा शुजापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्तेत। नतु तथाविधलोकेहायातं परित्यजेत्तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः॥ ११ ॥ जो पुत्वरत्तावररत्तकाले, संपिकई अप्पगमप्पगेणं॥ किं मे कम किञ्चमकिच्चसेस, किं सक्वणिऊं न समायरामि॥१२॥ (श्रवचूरिः) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रिप्रथमचरमप्रहरयोरित्यर्थः। संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानमा त्मनैव । कथमित्याह । किं मे कृतमिति । गन्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि । किं च मम कृत्यशेष कर्त्तव्यशेषमुचितम् । किं वा शक्यं वैयावृत्त्यादि न समाचरामि न करोमीति ॥ १२ ॥ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका । តូចៗ (अर्थ. ) एवी रीते विचरनार साधु न सीदाय तेनो उपाय कहे . जो इत्यादि सूत्र. ( जो के ) यः एटले जे साधु (पुवरत्तावररत्तकाले के) पूर्वरात्रापररात्रकाले एटले रात्रिना प्रथम अने चरम प्रहरने विषे ( अप्पगं के) श्रात्मानं एटले पोताने (अप्पएणं के० ) आत्मना एटले पोते ( संपिकए के) संप्रेक्षते एटले सू- ... त्रोक्त प्रकारवडे तपासे. ते आ रीते (मे के०) मया एटले में (किं के०) किं एटले कयुं (किच्च के) कृत्यं एटले करवायोग्य एवं तपस्या प्रमुख कृत्य (कडं के०) कृतं एटले कडे. तेमज (किं के ) कयु (म के ) मम एटले मारा (किच्चसेसं के) कृत्य शेषं एटले करवायोग्य कार्य बाकी , तथा (किं के) किं एटले कयुं ( सकणिऊं के) शक्यं एटले माराथी बनी शके एवं वेयावच प्रमुख कार्य ( न समायरामि के०) न समाचरामि एटले आचरतो नथी ॥ १२ ॥ (दीपिका. ) एवं विशुझविविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । यः साधुर्नवेत् स पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमप्रहरयोरित्यर्थः । संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्यात्मानं कर्मजूतमात्मनैव करणजूतेन प्रेदते।कथं प्रेदत इत्याह।किं मे कृतमिति। बान्दसिकत्वातृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्तेरनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेषं कर्तव्यात् शेषमुचितम् । पुनः किंच शक्यं वयोऽवस्थाऽनुरूपं वैयावृत्त्यादि अहं न समाचरामीति । तस्याकरणे हि तत्कालनाश इति ॥ १५ ॥ (टीका.) एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह । जो त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयो रित्यर्थः । संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानं कर्मन्नूतमात्मनैव करणनूतेन । कथमित्याह । किं मे कृतमिति बन्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी । किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादि योगस्य । किंच मम कृत्यशेषं कर्तव्यशेषमुचितम् । किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं वैयात्यादि न समाचरामि न करोमि । तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥१२॥ किं मे परो पास किंच अप्पा, किं वाहं खलिअं न विवऊयामि॥ .. इच्चेव सम्मं अणुपासमायो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥१॥ (श्रवचूरिः) किं मम स्खलितं परः पश्यति । किं वात्मा मनाक्संवेगापन्नः । किंवाहमोघत एव स्खलितं न विवर्जयामि । इत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननागतं प्रतिबन्धं न कुर्यादागामिकालविषयं संयमप्रतिबन्धं न करोतीति ॥ १३ ॥ . . (अर्थ. ) वली (परो के ) परः एटले खपद अथवा परपक्ष संबंधी को बीजो Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हज रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. पुरुष ( मे के० ) मे एटले मारा ( किं के ) किं एटले कया ( खलिग्रं के ) स्खवितं एटले प्रमाद प्रत्ये (पास के ) पश्यति एटले जुवे ठे, (च के० ) वली (अप्पा के०) आत्मा एटले हुं पोते (किं के० ) किं एटले कया मारा प्रमादप्रत्ये जोवू लु (वा के०) अथवा ( अहं के०) अहं एटले हुँ (किं के) किं एटले कया (खविधे के० ) स्खलितं एटले प्रमादप्रत्ये (न विवजयामि के ) न विवर्जयामि एटले वर्जतो नथी. (श्चेव के०) इत्येवं एटले उपर कहेल प्रकारे ( सम्मं के) सम्यक् एटले उत्तम प्रकारे (अणुपासमाणो के०) अनुपश्यन् एटले विचार करता रहे ते साधु ( अणागयं के0) अनागतं एटले जावी (पडिबंध के ) प्रतिबंधं एटले प्रतिबंध प्रत्ये (नो कुजा के०) नो कुर्यात् एटले न करे. अर्थात् फरीथी तेवो दोष न आचरे. ॥ १३ ॥ (दीपिका.) तथा किं मम स्खलितं परः स्वपक्षपरपदलक्षणः पश्यति । किंवा आत्मा क्वचित् मनाक् संवेगं प्राप्तः। किं वा अहमोधत एव स्खलितं न विवर्जयामीत्येवं सम्यगनुपश्यन्ननेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा आगमोक्तेन विधिना नूयः पश्यन्ननागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् साधुः। य आगामिकाल विषयं न असंयमप्रतिवन्धं करोतीति ॥१३॥ (टीका.) तथा किं मे ति सूत्रम् । किं मम स्खलितं परः स्वपदपरपदलक्षणः पश्यति । किं वात्मा क्वचिन्मनाक संवेगापन्नः। किंवाहमोघत एव स्खलितं न विवजयामि । इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा सम्यगागमोक्तेन विधिना नूयः पश्यन्ननागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात् । श्रागामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्धं करोतीति सूत्रार्थः ॥ १३॥ जबेव पासे का उप्पजत्तं, कारण वाया अड माणसेणं ॥ तबेव धीरो पडिसादरिका, आश्नःखिप्पमिव कलीणं ॥२४॥ (अवचूरिः) कथमित्याह । यत्रैव पश्येत् । यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनहारेण । क्वचित्संयमस्थानावसरे। दुःप्रयुक्तं कुर्व्यवस्थितम् । आत्मानमिति गम्यते । कायेन, वाचा अथ मानसेन । तत्रैव संयमस्थानावसरे धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेदात्मानमिति शेषः। निदर्शनमाह । आकीर्णो जात्याश्वः क्षिप्रं शीघ्रं यथा खालनं कविकं नियमितगमननिमित्तं प्रतिपद्यते। एवं यो दुःप्रयोगत्यागेन खलिनकल्प सम्यग्विधि प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीया चूलिका । ६८‍ (अर्थ. ) शी रीते अनागत प्रतिबंध न करे ते कहे बे. जबे व इत्यादि सूत्र. साधु जे ते ( कय के० ) कदा एटले पमिलेहण प्रमुख क्रियाना कोइ पण वखते ( जव के० ) यत्रैव एटले जे ठेकाणेज ( कारण के० ) कायेन एटले कायावडे, ( वाया के० ) वाचा एटले वाणीवडे, (अडु के० ) अथवा ( माणसे के० ) मानसेन एटले मनवडे पोताने ( दुप्पउत्तं के० ) दुःप्रयुक्तं एटले प्रमादी एवाने ( पासे ho ) पश्येत् एटले जुवे . ( धीरो के०) धीरः एटले धीर एवा साधु जे ते (तवेव के० ) तत्रैव एटले तेज ठेकाणे तथा तेज समये पोताने ( प मिसाहरिका के० ) प्रतिसंह - रेत् एटले ठेकाणे लावे. एना उपर दृष्टांत कहे बे. ( श्व के० ) इव एटले जेम ( श्रन्न के० ) प्रकीर्णकः एटले जातिवंत अश्व जे ते ( खिष्पं के० ) क्षिप्रं एटले शीघ्र (कलीणं के० ) खलीनं एटले लगाम ग्रहण करे तेम; अर्थात् जेम सारों अश्व नियमित गमनने श्रर्थे शीघ्र लगाम ले बे, तेम ते साधु पण विधिनो त्याग करी लगाम सरखा सम्यग् विधिनो अंगीकार करे. ॥ १४ ॥ ( दीपिका. ) कथमित्याह । साधुर्यत्रैव क्वचित् संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षपादौ दुःप्रयुक्तं दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते । पश्येत् पश्यति उक्तवत्परमात्मदर्शनद्वारेण । केन इत्याह । कायेन वाचा अथ मानसेन । मन एव मानसम् । करणत्रयेणेत्यर्थः । तत्रैव तस्मिन्नेव संयमस्थाने धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति यः स्वात्मानं सम्यग् विधिं प्रतिपद्यत इत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तमाह । यथा जवादिनिर्गुणैराकीर्णो व्याप्तो जात्योऽश्व इति गम्यते । असाधारण विशेषणात् । तच्चेदम् । प्रिमिव खलिनं शीघ्रं । कविकमिव । यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यत एवं यो दुःप्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यग्विधिम् । एतावतां - शेन दृष्टान्तः ॥ १४ ॥ 1 ( टीका. ) कथमित्याह । जवेव त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । यत्रैव पश्येत् यच्चैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शन द्वारेण कचित्संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ दुःप्रयुक्तं दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते । केनेत्याह । कायेन वाचा श्रथ मानसेनेति । मन एवं मानसम् । करणत्रयेणेत्यर्थः । तत्रैव तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे धीरो बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति य श्रात्मानं सम्यग् विधिं प्रतिपद्यत इत्यर्थः । निदर्शमाह । श्राकर्णो जवादि निर्गुणैर्जात्योऽश्व इति गम्यते । असाधारण विशेषणात् । तचेदम् । प्रिमिव खखिनं शीघ्रं कविकमिव । यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं ८७ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)मा. शीघ्र खलिनं प्रतिपद्यत एवं यो प्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यविधिमेताव तांशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥१४॥ जस्सेरिसा जोग जिदिअस्स, धिईम सप्पुरिसस्स निचं ॥ तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीअई संजमजीविएणं ॥ १५॥ (अवचूरिः ) यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह। यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोकनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाकायव्यापारा जितेन्जियस्य धृतिमतः संयमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्य प्रमादजयात् । नित्यं सर्वकालं तमेवंनूतमाहुर निदधति । लोके विबांसः प्रतिबुद्धजीविनं प्रमाद निखारहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेनेति ॥ १५ ॥ (अर्थ.) हवे प्रस्तुत प्रकरणनो उपसंहार करे . जस्स इत्यादि सूत्र. ( जि. दिवस के०) जितेन्द्रियस्य एटसे चक्षुरादि इंजियोने जितनार एवा (धिश्म के०) धृतिमतः एटले संयमने विषे धृतिवाला एवा (सप्पुरिसस्स के०) सत्पुरुषस्य एटले सत्पुरुष एवा ( जस्स के०) यस्य एटले जे साधुना ( जोग के०) योगाः एटले मन वचन कायाना योग जे ते (एरिसा के०) दृशाः एटले एवा (निचं के०) नित्यं एटले दीदाथी मांडीने मरण सूधी रहे बे. (तं के० ) तं एटले ते साधुने विछान लोको ( लोए के०) लोके एटले सर्व जीवोमां (पडिबुद्धजीवी के) प्रतिबुद्धजीविनं एटले प्रमादादि रहित जीवितवालाने (शाहु के) श्राहुः एटले कहे बे. कारण, ( सो के० ) सः एटले ते साधु ( संजमजीविएणं के०) संयमजीवितेन एटले संयमजीवितवडे ( जीव के०) जीवति एटले जीवे . ॥ १५ ॥ (दीपिका.) यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह । विद्वांसस्तं साधुमेवंजूते लोके प्राणिसंघाते नित्यं सर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारच्य आमरणं प्रतिबुद्धजीविनमाहुः कथयन्ति । कोऽर्थः। प्रतिबुद्धजीविनं प्रमादरहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशलाजिसंधिनावात् सर्वथा संयमः प्रधानजी वितेन । तं साधु कम् । यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाकायव्यापारा नवन्ति । किंनूतस्य साधोः । जितेन्जियस्य वशीकृतस्पर्शनादोन्जियसमूहस्य । पुनः किंनूतस्य यस्य । धृतिमतः संयमे धैर्यसहितस्य । पुनः किंग यस्य । सत्पुरुषस्य प्रमादजयान्हापुरुषस्य ॥१५॥ (टीका.) यः पूर्वरात्रेत्याद्यधिकारोपसंहारायाह । जस्स त्ति सूत्रम् । अस्य Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ६१ व्याख्या । यस्य साधोरीदृशाः स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगा मनोवाकायव्यापारा जितेन्जियस्य वशीकृतस्पर्शनादीन्जियकलापस्य धृतिमतः संयमे सकृत्तिकस्य सत्पुरुषस्य प्रमादजयान्महापुरुषस्य नित्यं सर्वकादं सामायिकप्रतिपत्तेरारज्यामरणान्तम् । तमाहर्लोके प्रतिबुद्धजीविनं तमेवंचूतं साधुमाहुर निदधति विद्वांसः । लोके प्रा. णिसंघाते प्रतिबुद्धजी विनं प्रमादनिझारहितजीवितशीलम् । स एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशलानिसंधिनावात् सर्वथा संयमप्रधानेन जीवितेने ति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ अप्पा खलु सर पर रकिबो, सविदिएहिं सुसमाहिएहिं॥ अररिक जाश्पदं जवे, सुरकि सबज्दाण मुच्चरत्ति बेमि ॥१६॥ . विवित्तचरिआ चूला सम्मता॥२॥ ३३ दसवेलिअं सुत्तं संमत्तं ॥ शुनम् ॥ (श्रवचूरिः) शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह । श्रात्मा।खलुशब्दो विशेषणार्थः। शक्तो सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः पारलौकिकापायेन्यः। कथम् । सन्धियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः । अरक्षणरक्षणयोः फलमाद । अरक्षितः सन् जातिपन्थानं जन्ममार्गमुपैति । सुरक्षितो यथागममप्रमादेन सर्वपुःखेच्यः शारीरमानसेच्यो विमुच्यते । इति ब्रविमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ इति छितीयचूला व्याख्याता ॥२॥ (अर्थ.) हवे शास्त्रनो उपसंहार करता उपदेशनो सार कहे . (हु खलु के०) खलु एटले निश्चये (अप्पा के०) श्रात्मा एटले पोतानो आत्मा जे ते (सययं के) सततं एटले निरंतर (सुसमाहिएहिं के०) सुसमाहितः एटले सारा समाधिमा राखेल एवा ( सविदिएहिं के०) सर्वेजियः एटले सर्व इंजियोवडे (रस्कियो के) रक्षितव्यः एटले रक्षण करवो. कारण के, श्रात्मा जे ते (थरकि के) अरक्षितः एटले बराबर संयमवडे रक्षण कख्यो न होय तो (जापहं के) जातिपथं एटले संसारप्रत्ये ( उवेश के०) उपैति एटले पामे बे. अने (सुरकिर्ड के ) सुरक्षितः एटले सम्यक् प्रकारे संयमवडे रक्षण कस्यो होय तो ( सवडहाण के०) सर्वपुःखेच्या एटले सर्व उःखथी (मुच्चर के०)मुच्यते एटसे मुक्त थाय बे. (त्ति बेमि के ) इति ब्रवीमि एटले तीर्थकर गणधरना उपदेशथी हुँ एम कहुं हुं. ॥ १६ ॥ इति श्री दशवैकालिकनी बीजी चूलिकानो बालावबोध संपूर्ण. ॥॥ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. ( दीपिका . ) थ शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह । एवंविधेन साधुना श्रा त्मा । खलुशब्दो विशेषणार्थः । शक्तौ सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः। परलोकसंबन्धिकष्टेन्यः । कथमित्युपायमाह । यतः किं० साधुना । सर्वेन्द्रियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्त विषयव्यापारेण । श्ररक्षणरक्षणयोः फलमाह । रक्षितः सन्नात्मा पन्थानं जन्ममार्ग संसारमुपैति सामीप्येन गच्छति । श्रथ सुरक्षितः पुनरात्मा यथागममप्रमादेन सुष्ठु रक्षितः सन् सर्वदुः खेन्यः शारीरमानसेच्यो विमुच्यते । विविधमनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते विभुः च्यते । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ इति चूलिकाद्वयं व्याख्यातम् ॥ ( टीका.) शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह । अप्प त्ति सूत्रम् । अस्य व्याख्या । श्रात्मा खल्विति । खलुशब्दो विशेषणार्थः । शक्तौ सत्यां परोऽपि सततं सर्वकालं रक्षितव्यः पालनीयः । पारलौकिकापायेभ्यः । कथमित्युपायमाह । सर्वेन्द्रियैः स्पर्शनादिनिः सुसमाहितेन निवृत्त विषयव्यापारेणेत्यर्थः । श्ररक्षणरक्षणयोः फलमाह । अरक्षितः सन् जातिपन्थानं जन्ममार्ग संसारमुपैति सामीप्येन गच्छति । सुरक्षितः पुनर्यथागममप्रमादेन सर्वदुःखेन्यः शारीरमानसेच्यो विमुच्यते विविधमनेकैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ श्रथावचूरिकोपसंहारः । अथ शास्त्रकर्तुः स्तवमाह नियुक्तिकारः ॥ सिद्धनवं गणधरं जिप पडिमा - दंसणेण पनिबुद्धं ॥ मणगपिठारं दसका - विश्रस्स निजुहगं वंदे ॥ १ ॥ अर्थः । अनुत्तरज्ञानादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तम् । प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वा विरत्यज्ञानापगमेन सम्यक्त्व विकाशं प्राप्तम् । निर्यूहकं पूर्वगतोद्धृतार्थ विरचनाकर्त्तारं वन्दे इति गांथारार्थः । जावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्चेदम् । श्रीसुधर्म शिष्यो जम्बूस्तस्य प्रजवः । तस्य कदाचिन्निशीथे को मे गणधर इति चिन्ता । श्रात्मनः सङ्के गछे चोपयोगेना सद्भावं ज्ञात्वा तीर्थान्तरीयेषु राजगृहे शिजवं यजमानं दृष्ट्वा तत्र यज्ञवाटे धर्मलानपूर्वम् 'हो कष्ट हो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते पुनः' इति पठनाय शिष्यवृन्दं प्रेषितम् । तेन तत्कृतम् । तच्च शय्यंजवो द्वार्मूल स्थितो निशम्य चिन्तयति । एते शान्तास्तपखिनोऽसत्यं न वदन्तीति । उपाध्यायान्ते गत्वा तत्त्वं किमिति पृष्ठे वेदास्तत्त्वमित्युक्तौ : अ सिमाकृष्य वदति 'शीर्ष ते बेत्स्यामि यदि तत्त्वं न कथयसि । शीर्षच्छेदे तत्त्वं वाच्यमिति ध्यात्वा यूपस्याधस्तात्सर्वरत्नमयीपार्श्वप्रतिमां दर्शयित्वेदमन्त्र तत्त्वम् । श्रद्धर्मस्तत्त्वं Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । Ա न च तदिष्यत इत्यत आहानुद्दिष्टमिति । एतत्परिज्ञानोपायश्चोपन्यस्तसकलप्रदानादिलक्षणस्तत्रावगन्तव्य इति गाथार्थः । तदन्ये पुनः किमित्यत आह ॥ फांसुयकयकारिय-प्रणुमय दिनोइणो हंदि ॥ तस्थावर हिंसाए, जणा अकुसला उलिप्पंति ॥ए८॥व्याख्या ॥ प्रासुककृतकारितानुमोदितो द्दिष्टनो जिनश्चरकादयः । हंदीत्युपप्रदर्शने । किमुपप्रदर्शयति । त्रसन्तीति सा द्वीन्द्रियादयः । तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यादयः । तेषां हिंसा प्राणव्यपरोपणलक्षणा तथा जनाः प्राणिनः कुशलाः श्रनिपुणा स्थूलमतयश्वरकादयो लिप्यन्ते संबध्यन्त इत्यर्थः । इह च हिंसा क्रियाज नितेन कर्मणा लिप्यन्त इति जावनीयम् । कारणे कार्योपचारात्ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका न नवन्ति । साधव एव जवन्तीति गाथार्थः ॥ एसा हे विसुद्धी, दिहंतो तस्स चैव यः विसुद्धी ॥ सुत्ते जलिया उ फुडा, सुत्तफासे उ इयमन्ना ॥ एए ॥ व्याख्या ॥ एषानन्तरोक्ता हेतु विशुद्धिः प्रानिरूपितशब्दार्था । अधुना दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थस्तथा तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशुद्धिः । किम् । सूत्रे नणितोक्तैव स्फुटा स्पष्टा । तच्चेदं सूत्रम् । जदा दुमस्स पुप्फेसु, नमरो आवियइ रसं ॥ ण य पुष्कं किलामेइ, सोपी अप्पयं ॥ २ ॥ एमेऐ समणा बुत्ता, जे लोए संति सादुणो ॥ विहंगमा व पुप्फेसु, दानत्तेसणे रया ॥ ३ ॥ अवचूरिः । असमस्तपदा निधानमनुमेये गृहिडुमाणामाहारादिषु पुष्पाण्यधिकृत्य प्रतिपादनार्थमिति । तथा यन्यायोपात्त वित्तदाने ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव । पिबति नच नैव क्वामयति प्रीणाति तर्पयति ॥२॥ एवमनेन प्रकारेण एते श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः । ते च तापसादयोऽपि स्युः । त ह । मुक्ताः सबाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन अर्धतृतीय द्वीपसमुद्रमाने । आह, ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम् । उच्यते । रह व्यवहारेण निवापि मुक्ता जवन्त्येव नच ते साधव इति व्यवच्छेदार्थत्वाददोषः । अथवा शान्तिः सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्ति साधवः । दाननक्तैषणासु रताः । दानग्रहणाद्दत्तं गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्तग्रहणात्प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि । एषणाग्रहणामवेषणात्रयं साधूनां भ्रमरेज्यो विशेष इति ॥ ३ ॥ अर्थ। हवे एवा उत्कृष्ट मंगलरूप धर्मने पोतें अन तिचार पर्णे पालन करनारा एवा साधु हारनी शुद्धि जोइये, माटे ते दृष्टांतपूर्वक कहे बे. ( जहा के० ) यथा एटले जेम ( मरो के०) चमरः एटले चमर (दुमस्स पुप्फेसु के० ) डुमस्य पुष्पेषु ए टले वृना फूलने विषे ( रसं के० ) पुष्पमांदेला मकरंदने ( वियर के० ) पि बति, या एटले मर्यादायें करी थोडे थोडे पिवति एटले पीये बे, आस्वादे बे. पण Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए३ दशवैकालिके वितीया चूलिका। ततस्तस्य पादौ नत्वा यज्ञवाटोपस्करं दत्वा तान् साधून् गवेषयन्नाचार्यान्ते गत्वा धर्ममाकर्ण्य व्रतमादाय चतुर्दशपूर्वी जातः । त। तस्य नार्या तरुणीयमिति कृत्वा स्वजनैरस्ति तव जठरे किञ्चिदिति पृष्टा मणयमित्यूचे । ततः पुत्रे जाते. सति तदेव नाम कृतम् । तेनाष्टवार्षिकेण मातृतः पितरं धृतवतं ज्ञात्वा नंष्ट्वा जनकान्ते गन्तुमिता चम्पायां गतम् । श्राचार्य हि मिगतैदृष्टः सः। तेन च दीदितः। योः स्नेहो जातः।पृछायाः स्वसुतं ज्ञात्वा चतुर्दशपूर्वी कारणे नियूहति।अन्तिमस्तु अवश्यं नियूदति । ममापीदं कारणं संजातम् । इति निश्चित्येदं निर्मूढम् ॥ दशवैकालिकाद- . रार्थमाह ॥ मणगं पमुच्च सऊ-नवेण निहिया दसतयणा ॥ वेश्रालिआइ उविश्रा तम्हा दसकातिअंनाम ॥२॥ मनकं प्रतीत्याश्रित्य निर्मूढानि पूर्वगतापुसत्य विरचितानि दशाध्ययनानि सुमपुष्पिकादीनि सजिवध्ययनप्रान्तानि । विगतः कालो विकालो विकलनं वा विकालः । असकलः खएकमश्चेति तस्मिन्विकाले अपराह्नेऽतिक्रान्ते तृतीयपौरुषीरूपे स्थापितानि न्यस्तानि तस्मादकशालिकं नाम । विकाले निवृत्तं वैकालिकं दशवकालिकं वा॥२॥ यं प्रतीत्य कृतं तहक्तव्यतामाह । बहिंमासे हिं यहीअं, अनयणमिणं तु अजमणगेण ॥ बम्मासा परिमार्ज, यह कालग समाहीए ॥३॥ षद्भिर्मासैरधीतमध्ययनमिदम् ।आर्यश्चासौ मनकश्च आर्यमनकस्तेन षएमासा एव पर्यायकालः । अथ कालगतः समाधितः शुजलेश्यायोगेन । अत्रायंजावः । तेनैतावता श्रुतमाराधितमेवेत्यन्येऽप्येतदनुष्ठानत थाराधका नवन्ति ॥ ३ ॥ आणंदसुपायं, श्रासी सिजवा तहिं थेरा ॥ जसजस्स य पुछा, कहणा अ विचालपा. संघे ॥ ४ ॥ आनन्दाश्रुपातमहो श्राराधितमनेनेति हर्षाश्रुमोचनमकार्षुः शय्यंनवास्तत्र तस्मिन् काले स्थविरः श्रुतपर्यायधृतो यशोनमस्तस्य च शय्यम्जवशिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य पृठा किमेतदकृत पूर्वमित्येवम् । शय्यंजवकथिताच हक् सुतोऽयं मे इत्येवंरूपाबब्दादनुतापो यशोनादीनां गुराविव गुरुपुत्रेऽपि वर्तितव्यमिति न कृतमिदमस्मनिरेवम्नूतः । तत श्राचार्यः संघं प्रत्याहं । एतउपकाराय मयाल्पायुषमेनमधिकृत्येदं शास्त्रं निए किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संघे कालहासदोषादिदमेव प्रजूतसत्वानामुपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंजूता स्थापना चेति ॥ ४ ॥ इति दशवैकालिकावचूरिः समाप्ता ॥ शुनम् ॥ ... बालावबोधनो नपसंहार. ... हवे दशवैकालिकना कर्ता श्री शय्यंजव मुनि तथा तेमना शिष्य मनकमुनि ए. Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा मनो संबंध नियुक्तिकार कहे . " सिजनवं गणहरं, जिणपडि मादसणेण पडि बुद्धं ॥ मणगपिअरं, दसकालिअस्स निज्जूहगं वंदे ॥१॥” अर्थ-जिन प्रतिमा देखीने प्रतिबोध पामेला, मनकमुनिना पिता, श्री दशवकालिक सूत्रनो सिहांतमांथी उद्धार करनार एवा गणधर श्री सङनव आचार्यने हुं वांउं हुं ॥१॥ मणगं पमुच्च सिज्ज-नवेण निज्जूहिआ दसप्तयणा ॥ वेश्रालिया विश्वा, तम्हा दसकालिथं नाम ॥२॥अर्थ-श्री सनव सूरिए मनकने अर्थे सिद्धांतमांथी दस अध्ययन उमस्यां, अने ते विकाले स्थापन कस्यां माटे दशवैकालिक नामथी कहेवाय . ॥२॥ हवे जेने अर्थे उकार कस्यो ते वात कहे बे, “उहि मासेहि अहीरं, अप्रथणमिणंतु अजमणगेण ॥ बम्मासा परिश्रा, श्रह कालगर्ल समाहीए ॥३॥ अर्थ-श्रार्यमनके छ महिनामां ए अध्ययन ( सूत्र ) पठन कह्यु. ए मनकमुनिनो चारित्र पर्याय ब महिनानोज हतो. महिना पूरा थये ते मनकमुनि समाधिमां कालधर्म पाम्या. ॥ आणंदअंसुपाषयं, कासी सिजनवा तहिं थेरा ॥ जसजदस्स य पुडा, कहणा श्र विश्रालणा संधे ॥४॥अर्थ-श्रीमनकमुनि काल करी गया त्यारे एणे धर्मनी आराधना सम्यकू प्रकारे करी एम जाणी श्री सांजव सूरिना नेत्रमाथी आनंदनां अश्रुश्राव्यां. श्री यशोना सूरिए अश्रु, कारण पूबवाथी श्रीसज्जनव सूरिए यथार्थ वात कही. पली संघना विचारथी श्रीदशवैकालिक सूत्रनी मंदबुधि शिष्यना उपर उपकारने अर्थे स्थापना यश् ॥ ४॥ हवे ए चारे गाथानो नावार्थ आ रीते-ज्यारे सज्जनव सूरिए दीक्षा लीधी, त्यारे तेमनी स्त्री गर्जिणी हती. तरुणवय होवाथी तेना स्वजनोए पूब्यु के, तारा उदरमां कां बे, त्यारे ते स्त्रीए प्राकृत भाषामां कडं के, 'मणयं' एटले किंचित् मात्र , अनुक्रमे तेने पुत्र थयो. तेनुं नाम मनक राख्युं. ते आठ वरसनो थयो, एकदिवसे तेणे पोतानी माने पूज्युं के, 'मारा पिताजी क्या जे.' माए कह्यु के, 'तेमणे चारित्र आदस्यां जे.' एम सांजली पितानीपासे जवानुं मनकनामनमां आव्युं. 'चंपानगरीमां पिताजी डे' एवी खबर मलवाथी ते त्यां गयो. डिल नूमिए जता आचार्य श्री सऊंनवसूरिए मनकने देख्यो त्यारे पूज्यु के, 'तुं कोण बे.' मनके आ. चार्यने वांद्या. दृष्टिनो मेलाप थतांज परस्पर स्नेह बंधाणो. आचार्य पूब्युं, तारो पिता कोण ? मनके कह्यु, 'सज्जनव.' श्राचार्ये कडं, 'तुं अहिं कया कार्यने अर्थे श्राव्यो.' मनके कह्यं 'दीक्षा लेवाने अर्थे.' वली मनके का के, 'श्राप जाणता होय तो कहो के, 'मारा पिताजी क्या बे.' आचार्ये का के, ते अने हुँ जिन्न नथीमाटे तुं मा रीपासे दीक्षा ले. मनकने ते वात कबूल थवाथी आचार्ये तेने त्यांज दीदा थापा. Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके वितीया चूलिका । ६ए पड़ी श्राचार्य तेनी साथे उपासरे श्राव्या. उपयोग दीधो के, 'एनुं आयुष्य केटलुं जे.' झानबलथीश्राचार्ये जाण्यु के, एनुं आयुष्य ब मास बाकी जे. पठी विचार कस्यो के, एटला थोडा समयमां ए.मनक कृतार्थ शीरीते थशे चउदपूर्वी कारण पडे पूर्वमांधी सूत्रनो उद्धार कहे, मनेपण या कारण प्राप्त थयुं बे, माटे उकार करूं. एवो विचार करी आचार्यजीए पूर्वमांथी दस अध्ययननो जहार कस्यो. मनकने ते दस अध्ययन नणावतां मास लाग्या. ब मास पूर्ण थतांज मनके समाधिमां काल कस्यो. त्यारे श्राचार्यना नेत्रमा श्रानंदाश्रु श्राव्यां. जसजनविगेरे साधुए आ श्रुनुं कारण पूबवायी मनकनुं वृत्तांत श्राचार्यजीए कह्यु. ते सांजली 'गुरुपुत्र एवा मनकनी सेवा आपणाश्री बनी नहि' एवो ते साधुऊने पस्तावो थयो. पठी संघना आग्रहथी सज्जंजव सूरिए उद्धरेला अध्ययन प्रकट राख्या. तेज दस अध्ययन दशवैकालिकना नामथी प्रसिद्ध बे. बे चूलिक तो श्रीसंघने श्रीसीमंधर खामीए नेट मोकलेली ए वात प्रसिक . माटे अहिं विस्तार करता नथी. इति श्री दशवैकालिकनो बालावबोध संपूर्ण..॥ श्रथ प्रशस्तिमाह ॥ . हरिजमकृता टीका वर्तते विषमा परम् ॥ मया तु शीघ्रबोधाय शिष्यार्थं सुगमा कृता ॥१॥ चंकुले श्रीखरतर-गडे जिनचन्प्रसूरिनामानः ॥ जाता युगप्रधानास्तविष्यः सकलचन्छगणिः ॥२॥ तविष्यसमयसुन्दर-गणिना च स्तम्जतीर्थपुरे चक्रे॥ दशवैकालिकटीका शशिनिधिशृङ्गार ( १६९१) मितवर्षे ॥३॥ अर्थस्थानवबोधेन मतिमान्द्यान्मतित्रमात् ॥ जिनाज्ञा विपरीतं य-त्तन्मिथ्यापुष्कृतं मम ॥ ४ ॥ ममोपरि कृपां कृत्वा शोधयन्तु बुधा श्माम् ॥ परोपकरणे यस्मात्तत्परा उत्तमानराः ॥ ५॥ टीका करणतः पुण्यं, यन्मयोपार्जितं नवेत् ॥ तेनाहमिदमिछामि, बोधिरत्र परत्र मे ॥ ६॥ शब्दार्थवृत्तिटीकायाः श्लोकमानमिदंस्मृतं ॥ सहस्रत्रयमग्रेच पुनः सार्धचतुःशतम् ॥ ७ ॥ इति श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितश्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तिप्रशस्तिः संपूर्णा । . अथ दीपिकोपसंहारः।। - अत्र दशवैकालिककारकशय्यं नवसूरेस्तत्पुत्रमनकमुनेश्च संबन्धसूचकं सुमपुष्पिकाध्ययन नियुक्तिगाथाहिकं यथा ॥ सेज्जनवं गणहरं, जिणपमिमादसणेण पडिबुकं ॥ मणगपिअरं दसका-लिअस्स निजूहगं वंदे ॥ १॥ मणगं पमुच्च सेज्जन Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. du निज्जूहिया दसप्रयणा ॥ वेश्रालिश्राइ वविथा, तम्हा दसकालियं नाम ॥ २ ॥ तद्वेषसंबन्ध सूचकं चूलिकाय निर्युक्तिगाथा किमिदम् ॥ वहि मासेहिं यहीथं, अनयणमीणं तु अक्रमणगेणं ॥ बम्मासा परियार्ज, यह कालगर्ड समाहीए ॥ ३ ॥ आणंदांसुपार्य, काही सिकनवा तहिं येरा ॥ जसनदस् य पुछा, कहणा य विचालणा संघे ॥ ४ ॥ एतनाथाचतुष्कार्थः श्रीहरिजसूरिविरचितवृत्तेरवसेयः ॥ • यत्र किंचित्कथानकमुच्यते ॥ यदा शय्यंजवाचार्यः प्रत्रजितस्तदा तस्य गृहिणी गुर्विण्यासीत् । जातश्चा तस्याः पुत्रः क्रमेण । नामास्य कृतं मनक इति । यदा च सोऽष्टवार्षिको जातस्तदा मातरं पृछाति । क मम पिता । सा जयति । तत्र पिता प्रत्रजितः। ततः स पितृसकाशे गन्तुमना लब्धवृत्तान्तश्चम्पायां गतः । आचार्येण संज्ञाभूमिं गतेन स दृष्टः । तेन च वन्दित प्राचार्यः । उजयोश्च मिथः प्रेक्षमाणयोः स्नेहो जातः। आचार्यः पृष्ठति । कस्तव पिता । स जति शय्यंनव इति । ततः सूरिणा नणितम् । किमर्थमत्रागतोऽसि । तेनोक्तम् । प्रत्र जिष्यामि । यदि यूयं जानीथ तदा कथयत का कास्ति मम पितेति । सूरिणोक्तम् । स मम मित्रमेकशरीरीभूतः । ततः प्रत्रज त्वं मत्पार्श्वे । प्रतिपन्नं च तेन । ततः स प्रब्राजितस्तत्रैव सूरिणा । श्रागतस्तेन सहोपाश्रये । उपयोगं दत्तवानाचार्यः । कियदायुरस्येति । ज्ञातं चातः परं षण्मासा श्रायुरस्येति । उत्पन्ना च बुद्धिराचार्यस्य । अस्य स्तोकायुषः किं कर्त्तव्यमिति । विममर्श च " चउदसपुर्वी कम्हि व कारणे समुप्पन्ने निज्जूह | पश्चिमो पुण चउदसपुर्वी छावस्तमेव निज्जूद । ममवि इमं कारणं समुप्पलं । तर्ज श्रमवि निज्जूहामि । तादे श्रादत्तो निज्जू हिनं । जाव योवावसेसे दिवसे इमे दुसया निघूढा । उघृतानि विकालवे - लायां पाश्चात्यचतुर्घ टिकारूपायां स्थापितान्येकत्र कृतानीति । ततः षनिर्मासैरधी तमध्ययनमिदं दशवैकालिकाख्यः श्रुतस्कन्धो मनकेन । ततः समाधिना स कालं गतः । तस्मिन्खर्गतेाराधितमनेन इति शय्यंजवा यानन्दाश्रुपातमकार्षुः । ततस्तत्प्रधान शि ये यशोद्रेण कारणे पृष्ट प्रोक्तं जगवता संसारस्वरूपम् । ततो यशोनद्रादयो गुस्वरुपुत्रे वर्त्तितव्यमिति न्यायमार्गः सचास्मानिर्नाचरित इति पश्चात्तापं चक्रुः अथ शय्यंजवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रमुकृतं किमन्त्र युक्तमिति संघाय निवेदिते विचारणा कृता । यत कालदोषात्प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदिति नोपसंहृतं प्रवचन गुरुणेति । 1 इति श्री समय सुन्दरोपाध्यायविरचिता श्री दशवैकासिकशब्दार्थवृत्त्युपसंहारः संपूर्ण ॥ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशवकालिके वितीया चूलिका। --- ६ए. श्री हरिजप्रसूरि विरचित टीकोपसंहारः॥ .. यमुक्तं नियुक्तिकृता प्राक् । येन वा यंवा प्रतीत्येति । तत्र येन कृतं तमतवक्तव्यतामाह ॥ सेङनवं गणहरं जिणपडिमादसणेण पडिबुझं ॥ मणगपिअरं दसका-लिअस्स निकाहगं वंदे ॥ १॥ ॥ अस्या व्याख्या ॥ शय्यंजवमनुत्तरझानादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्तं प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाविरत्यज्ञाननितापगमेन सम्यक्त्व विकाशं प्राप्तं पूर्वगतोकृतार्थ विरचनाकर्तारं वन्दे स्तौमीति गाथादारार्थः । जावार्थस्तु कथानकादवसेयः । श्रीसुधर्म शिष्यो हि जम्बूस्तस्य श्रीप्रनवस्तस्य शय्यंजवः । मनकपितरं दशवैकालिकळतं तं वन्दे चेति ॥ १॥ ॥ मणगं पडुच्च सिडनवेण निलू-हियाद सतयणा ॥ वेआलिया विश्रा तम्हा दसकालिअं णाम ॥२॥म्याख्या॥ मनकं प्रतीत्य मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यंजवेन नियूंढानि पूर्वगतामुत्य विरचितानि दश अध्ययनानि सुमपुष्पिकादीनि सनिवध्ययनप्रा. न्तानि । विगतः कालो विकालः । विकलनं वा विकालः । सकलः खण्मश्चेति तस्मिन् विकाले निर्वृत्तं दशाध्ययननिर्माणं च इदं वैकालिकम् ॥२॥ ॥ प्रतीत्य कृतं तक्तव्यतामाह ॥ बहिं मासेहिं अहीअं, अनयणमिणं तु अजमणगेण ॥ उम्मासा परिश्रा, श्रह कालगसमाहीए ॥३॥ ॥ अस्या व्याख्या ॥ षड्भिर्मासैरधीतं पवितमध्ययन मिदं त्वधीयत इत्यध्ययनम् । इदमेव दशवैकालिकाख्यं शास्त्रम् । केनाधीतमित्याह । आर्यमणकेन । नावाराधनयोगात् श्राराद्यातः सर्वहेयधमैन्य इत्यार्यः । आर्यश्चासौ मणकश्चेति विग्रहस्तेन । षएमासाः पर्याय इति । तस्यार्यमणकस्य षएमासा एव प्रव्रज्याकालः अल्पजीवितत्वात् । अत एवाह । श्रथ कालगतः समाधिनेति । यथोक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत आगमोक्तेन विधिना मृतः । समाधिना शुजलेश्याध्यानयोगेनेति गाथार्थः ॥३॥ ॥ अत्र चैवं वृद्धवादः । यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितमेवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत आराधका नवन्त्विति ॥ आणंदशंसुपाय, कासी सिर्जनवा तहिं थेरा ॥ जसजस्स य पुछा, कहणाअ विश्रालणा संघे ॥४॥ ॥अस्या व्याख्या ।आनन्दाश्रुपातमहो श्राराधितमनेनेति हर्षाश्रुमोदणमकार्षः कृतवन्तः शय्यंजवाः प्राग्व्याख्यातस्वरूपास्तत्र तस्मिन् कालगते स्थविराः श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः । पूजार्थं बहुवचन मिति । यशोनजस्य च शय्यंजवप्रधान शिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृडा। जगवन् किमेतदकृतपूर्वमित्येवंजूता। कथना च जगवतः संसारस्नेह ईदृशः।सुतोममायमित्येवंरूपा। चशब्दादनुतापश्च यशोजजादीनाम् । श्रहो गुराविव गुरुपुत्रके वर्तितव्यमिति। ८८ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हए राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. न तत्कृतमस्मानिरित्येवंचूतप्रतिवन्धदोषपरिहारार्थ न मया कथितं नात्र जवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च । विचारणा संघ इति । शय्यंजवेनादपायुपमेनमवेत्य मयेदं शास्त्र निर्मूढं किमत्र युक्त मिति निवेदिते विचारणा संघे। कालन्हासदोषात् प्रजूतसत्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्वेतदित्येवंचूता स्थापना चेति गाथार्थः ॥ ४॥ उक्तोऽनुगमः सांप्रतं नयास्ते च नैगमसंग्रव्यवहारज्ञजुसूत्रशब्दसमनिरूद्वैवंजूतन्नेदनिन्नाः खल्वोघतः सप्त नवन्ति । स्वरूपं चैतेषामथ आवश्यक सामायिकाध्यय. नेऽन्यदणे प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते । इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञान क्रियानयान्त वारेण समासतः प्रोच्यन्ते । ज्ञाननयः क्रियानयश्च । तत्र ज्ञाननयदर्शन मिदम् । ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथाचाह ॥णायं मि गिहिवे, अगिण्डिशवे अ तहय अबम्मि ॥ जश्व मेव २२ जो, उवएसो सोन नाम ॥ णायंमित्ति। अस्या व्याख्या । झाते सम्यक्परिछिन्ने गिहि. अवेत्ति ग्रहीतव्य उपादेये। श्रगिहिअवत्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः । चश ब्दः खलूनयोग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ उपेक्षणीयसमुच्चयार्थों वा। एवकारस्त्ववधारणार्थः । तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो अष्टव्यः । ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाझाते। अम्मि त्ति । अर्थे ऐहिकामुष्मिके । तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गरागादिः। श्रग्रहीतव्यो विषशस्त्रकएटका दिः । उपेक्षणीयस्तृणादिः । आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सदर्शनादिरग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेरणीयो विवक्षया अभ्युदयादिरिति । तस्मिन्नर्थे यति. तव्यमेवेति । अनुस्वारलोपायतितव्यमेवमनेन प्रकारेणैहिकामुष्मिकफलप्राध्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः। श्वं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । सम्य. गज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फलाविसंवाददर्शनात् । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता ॥ मिथ्याझानात्प्रवृत्तस्य फलप्राप्तेरदर्शनात् ॥ १॥ त. थामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनापि झात एवयतितव्यम् । तथा चागमोऽप्येवमेव स्थितः । यत उक्तम् ॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिश्सवसंजए॥श्रमाणी किं काही किंवा पाहीश्रोपावगं ॥१॥श्तश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम् । यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलाना विहार क्रियापि निषिद्धा। तथा चागमः॥गीश्रबोअ विहारो, बिजे गीअबमी सिर्जना पि॥ एत्तो तश्यविहारो, णाणुमा जिणवरेहिं॥ न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्कायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्। दायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् । यस्मादहतोऽपि जवाः ।। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - -- - - -- - -- --- -- - .... . दशवकालिके वितीया चूलिका। म्जोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिर्जायते । यावजीवाजीवाय खिलवस्तुपरिछेदरूपं केवलझानं नोत्पन्न मिति । तस्माज्झानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितमिति । जो उवएसो सो प णाम ति। इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यस्थापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः। श्रयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिछति । ज्ञानात्मकत्वादस्य । वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेउतीति गाथार्थः ॥ ॥ उक्तो ज्ञाननयः। श्रधुना क्रियानयावसरः। तदर्शनं चेदम् । क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात् । तथाचायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपद सिझये गाथामाह । णायंमि गेव्हिअवे इत्यादि । अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या । ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थना यतितव्यमेवेति । न यस्मात्प्रवृत्त्या दिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यनिलषितार्थावाप्तिदश्यते । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ॥ यतः स्त्रीजयनोगो, न ज्ञानात्सुखितो जवेत् ॥ १॥ तथामुष्मिकफलप्रात्यर्थिनापि क्रियैव कर्तव्या। तथा च मौनीन्जवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् ॥यत उक्तम्।चेश्यकुलगणसंघे, आयरिश्राणं च पवयणसुए थ॥सवेसु एतेण कयं, तवसंजममुजामंतेणं॥श्तश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्।यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम् । तथा चागमः। सुबहुं पि सुश्रमहीथ, किं काही चरण विप्पमुक्कस्स ॥ अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोमी वि॥ ॥शिक्रिया विकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्दायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् । चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । दायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृ. . ष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं यस्मादहतो लगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवातिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलनूता इस्वपञ्चाकरोमिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवरणरूपा चारित्रक्रिया नावातेति। तस्माक्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण मितिस्थितमिति। जो उवएसो सो पर्छ णामं ति इत्येवमुक्तेन न्याये.. न य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम क्रियानय इत्यर्थः। श्रयं च ज्ञानव चनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिति । तदात्मकत्वादस्य । ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेहति गुणनूते चेतीति गाथार्थः॥ ॥ उक्तः क्रियानयः । श्वं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वा विदिततदनिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह । किमत्र तत्त्वम् । पदयेऽपि युक्तिसंजवात् । श्राचार्यः पुनराह ॥ सवेसिं पि नयाणं बहुविदवत्तवयं निसामेत्ता ॥ तं सवनय विसुद्धं जंचरणगुणहिर्ज साद॥श्र Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 900 राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. स्या व्याख्या । अथवा ज्ञान क्रिया नयमतं प्रत्येकमनिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयनाह । सवे सिं गाढ़ा । सर्वेषामपि मूलनयानाम् । श्रपिशब्दात्तद्भेदानां च नयानां द्रव्या स्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एवमुजयमेव वानपेक्ष्यमित्यादिरूपाम् । अथवा नामादिनयानां कः कं साधु मिछतीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत्सर्वनय विशुद्धं सर्वनयसंमतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुर्यस्मात्सर्वनया एव जावविषयं निदेपमिहन्तीति गाथार्थः ॥ ॥ नमो वर्द्धमानाय जगवते । व्याख्यातं चूडाध्ययनम् । तव्याख्यानाच्च समाप्ता दशवैका लिकीका ॥ समाप्तं दशवैकालिकं चूलिकासहितं नियुक्तिटीकासहितं च ॥ इत्याचार्य श्री हरिजसूरिविरचिता दशवैकालिकटीका समाप्ता ॥ महत्तराया या कन्या धर्मपुत्रेण चिन्तिता ॥ आचार्य रिज टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥ १ ॥ दशवैकालिके टीकां विधाय यत्पुण्यमर्जितं तेन ॥ मात्सर्य डुःख विरहा- हुणानुरागी जवतु लोकः ॥ २ ॥ 0 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ अथ दशवैकालिकसूत्रपाठः। परिशिष्टम्। अथ दशवैकानिकसूत्रपाठः। दुमपुष्पिकाध्ययनम् ॥१॥ धम्मो मंगलमुक्कि, अहिंसा संजमो तवो ॥ देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ .. जहा उमस्स पुप्फेसु, नमरो आविअ रसं ॥णय पुष्फ किलामेश्, सो अ पीणे अप्पयं ॥२॥ एमए समपा वुत्ता, जे लोए संति साहुणो ॥ विहंगमाव पुप्फेसु, दाणजत्तेसणे रया ॥३॥ वयं च वित्तिं लनामो, नय कोश उवहम्मश्॥ अहांगडेसु रीयंते, पुप्फेसु नमरा जहा ॥४॥ महुगारसमा बुझा, जे नवंति अणिस्सिा ॥ नाणापिंझरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥ त्ति बेमि ॥५॥ उमपुस्फिअनयणं संमत्तं ॥१॥ ___ अथ श्रामण्य पूर्विकाध्ययनम् ॥२॥ कहं नु कुजा सामणं, जो कामे न निवारए ॥ पण पए निसीदंतो, संकप्पस्स वसं ग ॥१॥ क्वगंधमलंकार, श्वी सयणाणि अ॥ अचंदा जे न जुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्च॥२॥ जे अ कंते पिए नोए, लछे वि पि कुवर ॥ साहीणे चयई नोए, से हु चाइ त्ति वुच्च॥३॥ समाश् पेहार परिवयंतो, सिआ मणो निस्सरई बहिचा ॥ न सा महं नावि अयं वि तीसे, श्च्चेव ता विणक रागं ॥४॥ आयावयाही चय सोगमवं, कामे कमाही कमिअं खु उरकं ॥ जिंदाहि दोसं विणएक रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥ ५॥ परकंदे जलिरं जोई, धूमकेचं पुरासयं ॥ नेति वंतयं नोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ धिरनु ते जसो कामी, जो तं विसयकारणा ॥ वंतं श्चमि आवेजं, सेझं ते मरणं नवे ॥ ७॥ अहं च लोगराअस्स, तं च सि अंधणविहिणो ॥ मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहु चर ॥ ७ ॥ जश् तं काहिसी नावं, जा जा दिबसि नारि ॥ वायाविध हडो, अच्अिप्पा नविस्ससि ॥ ए॥ तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुनासि ॥ अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइल ॥ १० ॥ एवं करंति जे बुझा, पंमिश्रा पविअरकणा ॥ विणिअति जोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ त्ति वेमि ॥११॥ ___ सामन्नपुविअज्जयणा संमत्ता ॥२॥ अथ क्षुल्लकाचाराध्ययनम् ॥ ३॥ संजमे सुच्अिप्पाणं, विप्पमुक्काण ताणं ॥ तेसिमेअमणान्नं, निग्गंयाण महेसिणं ॥१॥ ज़द्देसिझं कीअगडं, नियागमनिहडाणि अ॥ राश्नत्ते सिणाणे अ, गंधमद्धे अ वीअणे ॥२॥ संनिही गिहि मत्ते अ, राअपि किमिवए ॥ सेवाहणदंतपहोअणा अ, संपुचणे देहपलोअणा अ॥३॥ अवए अ नालीए, बत्तस्स य धारणहाए ॥ तेगिळं पाहणा पाए, समारंनं च जोहो ॥४॥ सिजाअरपिंम च, आसंदी पलिअंकए ॥ गिहतरनिसिङा अ, गायस्सुबट्टणाणि अ॥ ५॥ गिहिणो वेआवडिअं, जा अ आजीववत्तिा ॥ तत्तानिबुडनोत्तं, आजरस्सरणाणि अ॥६॥ मूलए सिंगवेरे अ, उबुखंडे अनिबुझे ॥ कंदे मूले अ सच्चित्ते, फले वीए अ आमए ॥ ७॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे अ आमए ॥ सामुद्दे पंसुखारे अ, काललोणे अ आमए ॥॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. धुवणे त्ति वमणे अ, वळीकम्मविरेअणे ॥ अंजणे दंतवणे अ, गायाजंगविजूसणे ॥ ए॥ सबमेयमणाइन्नं, निग्गंयाण महेसिणं ॥ संजमंमि अ जुत्ताणं, लहुनुअविहारिणं ॥ १० ॥ . पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता बसु संजया ॥ पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उजुदंसिणो ॥११॥ यावयंति गिटेसु, हेमंतेसु अवाजडा ॥ वासासु पडिसलीणा, संजया सुसमाहिआ ॥१२॥ परीसहरिदंता, धूअमोहा जिइंदिआ ॥ सवारकपहीण, पक्कमति महेसिणो ॥ १३ ॥ मुक्कराई करित्ता णं, उस्सहाइ सहेतु अ॥ केश्च देवलोएसु, केश सिकंति नीरया ॥ १४ ॥ खवित्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेणय ॥ सिधिमग्गमणुप्पत्ता, ताणो प्ररिनिबुडे ॥त्ति बेमि ॥ १५ ॥ खुड्डआयारकहज्जयणा संमत्ता ॥३॥ अथ षड्जीवनिकाध्ययनम् ॥४॥ सुझं मे आजसंतेणं जगवया एवमरकायं, इह खलु बजीवणिआ नाम ज्जयणं समणेणं जगवयामहावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुपन्नत्ता सेअंमे अहि जिलं अज्जयणं पन्नत्ती ॥ ___ कयरा खलु उजीवणिआ नामज्जयणं समणेणं जगवया महावी रेणं य कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुपनत्ता सेयं मे अहिजिलं धम्मपन्नत्ती ॥श्मा खलु बजीवणिआ नामज्जयणं समणेणं जगवया महावीरेणं कासवेणं पवेश्या सुअरकाया सुपन्नत्ता ॥ सेअं मे अहिझिालं धम्मपन्नत्ती ॥ तं जहा । पुढविकाआ आजकाश्ा तेनकाश्या वाजकाश्या वणस्सश्काश्या तसकाश्ा । पुढवि चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सपरिणएणं । आज चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्न सत्रपरिणएणं । तेउ चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नब सबपरिणएणं । वाउ चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नच सन्मपरिणएणं। वणस्स चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नन सपरिणएणं ॥ तं जहा । अग्गवीआ मूलबीआ पोरवीआ खंधवीआ बीअरुहा समुचिमा तणलया वणस्सश्काश्यासवी चित्तमंतमरकाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्न सन्चपरिणएणं ॥ से जे पुण इमे अणेगे वहवे तसा पाणातं जहा। अंडया पोययाजराजा रसया संसेश्मा समुचिमा उनिया उववाश्या । जेसिं केसिं चि पाणाणं अजित पडिकंतं संकुचिरं पसारिश्र रूअंनंतं तसिअं पलाझं आगगाविनाया । जे अकीडपयंगा । जा य कुंथुपिपीलिआ । सो बेइंदिया सबे तेइंदिया सवे चीरें दिव्या सर्व पंचिंदिया सबै तिरिरकजोणिया सबे नेरा सवें मणुआ सवे देवा सबे पाणा परमाहम्मिश्रा एसो खलु चो जीवनिका तसकाल त्ति पवुच्च॥ इञ्चेसि गण्डं जीवनिकायाणं नेव सयं दं समारंजिका । नेवन्नेहिं दं समारंजाविता । दमं समारंजते वि अन्ने न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि। करतं वि अन्ने न समणुजाणामि । निंदामि । गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ___ पढमे ते महबए पाणावाया वेरमणं । सबं नंते पाणावायं पञ्चरकामि । से सुहुमं वा बायरं वा नवायावरं वा नव सयं पाणे अश्वाजा । नेवन्नेदि पाणे अश्वायाविका पाणे अश्वायंते वि अन्ने न मसाजापानि । जावजीवाए तिविद तिविदेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं वि अन्न माणुनाणानि तस्मते पडिकमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । पढमे नंत महवए मापामाश्यायाचं वरनएं ॥१॥ __ हारे चुचे ते मदयण मुमावाया वेरमणं । सब नंते मुसावायं पच्चरकामि । से कोहा वा, सोहा 1., . , दाना बा. नेव मयं । मुमं वश्झा । नेवन्नेहिं मुसं वायाविझा । मुसं वयंते विश्रन्ने न सम. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. ते त्रमर ( पुप्फ के०) पुष्पं एटले ते फूलने (न य किलामे के० ) नच क्लामयति एटले पीडा आपतो नथी. अहीं चकार जे , ते पादपूरणार्थ , अने वली (सो य के०) स च एटले ते ब्रमर (अप्पयं के०) आत्मानं एटले पोताना आत्माने (पीणे३ के.) प्रीणयति एटले तृप्त करे बे.॥२॥ हवे दार्टीतिक कहे. (एमए के०) एवमेते एटले एवीरीतें ए (मुत्ता के०) मुक्ताः एटले धनधान्यादिक नवविध बाह्यपरिग्रह अने चउद प्रकारनो अन्यंतर परिग्रह जेमणे मूक्या बे, एवा (समणा के०) श्रमणाः एटले अनेरा तपस्वी पण (जे के) ये एटले जे ( लोए के०) लोके एटले अढीछीपमां ( साहुणो के ) साधवः एटले साधु चारित्रिया . ते सर्व (विहंगमा व पुप्फेसु के) विहंगमा श्व पुष्पेषु एटले पुष्पनेविषे जेम जमर वर्ते बे, तेवीरीतें (दाणनत्तेसणेरया के० ) दाननतैषणे रताः एटले दाताए दीधेला अने प्रासुक एवाज आहारादिकनी गवेषणाने विषे रत एवा . अहीं वृदपुष्पसरखा गृहस्थ जाणवा, अने चमरसरखा साधु जाणवा. तो पण साधु जे बे, ते अदत्त अने अनेष. रणीय पदार्थ लेता नथी ए जमरथी साधुनुं विशेषपणुं ॥३॥ दीपिका । अथ यतीनामाहारग्रहणे विधिमाह। यथा येन प्रकारेण अमस्य वृदस्य पुप्पेषु मरः रसं मकरन्दमापिबति । परं नच नैव पुष्पं क्वामयति पीडयति । स च चमरः आत्मानं प्रीणयति रसेनात्मानं संतोषयति ॥२॥ अयं दृष्टान्त उक्तः । दा. न्तिकमाह । एवमनेन प्रकारेण एते श्रमणास्तपस्विनः । ते च न तापसादयः । अत आह । कीदृशाः श्रमणाः । मुक्ता बाह्यपरिग्रहेण आभ्यन्तरपरिग्रहेण च मुक्ताः। तत्र वाह्यपरिग्रहो धनधान्यादिरूपो नव विधः। आन्यन्तरपरिग्रहश्च “मित्त वेअतिगं, हासाशं उकगं च नायवं ॥ कोहाईण चउक्, चउदस अप्रिंतरा गंठी ॥१॥" इत्यादिरूपस्तान्यां रहितः । एते के । ये श्रमणा लोके अतृतीयद्वीपसमुपारमाणे सन्ति विद्यन्ते । पुनः कीदृशाः श्रमणाः । साधवो ज्ञानादिसाधकाः । पुनः कीदृशाः। विहंगमा श्व भ्रमरा श्व पुष्पेषु दाननक्तैषणे रताः। दानग्रहणात् गृहस्थदत्त गृहन्ति । परं न अदत्तं । नक्तग्रहणात् तदपि दत्तं प्रासुकं गृह्णन्ति न आधाकमादि । एपणाग्रहणेन गवेपणादित्रयपरिग्रहः । एषु त्रिषु स्थानेषु रताः सक्ताः ॥३॥ टीका। अस्य व्याख्या।अत्राह अथ कस्मादशावयव निरूपणायां प्रतिझादीन्विहायसू ऋकृता दृष्टान्त एवोक्त इत्युच्यते दृष्टान्तादेव हेतुप्रति अन्यूह्ये इति न्यायप्रदर्शनाचा कृतं प्रसन्न प्रकृतं प्रस्तुमः।तत्र यथा येन प्रकारेण उमस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य पु3 प्राग्निरूपितशब्दार्थप्नेव । असमस्तपदानिधानमनुमेये गृहिमाणामाहारादिषु पुन Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवेकालिकसूत्रपाठः । १०३ 'जाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पिन्नं नस मणुजाणामि । तस्स जंते पडिक्कमामि । निंदामि । गरिहामि पाएं वो सिरामि । फुच्चे जंते महाए जव मि . सार्ज मुसावाया वेरमणं ॥ २ ॥ *. अहावरे तच्चे जंते महबर दिन्नादाना वेरमणं । सबं ते अदिन्नादाणं पच्चरका मि । से गामे वा नगरे वारणे वा पं वा बहुं वा अणुं वा शूलं वा चित्तमंतं वा चित्तमंतं वा नेव सयं दिनं गिरिहा । नेवन्नेहिं दन्नं गिरहाविका । दिन्नं गिरहंते वि ने न समजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पिन्नं न समणुजाणामि । तस्स जंते पडिक्कमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वो सिरामि । तच्चे जंते महबए उवविजेमि सवार्ड दिन्नादाणा वेरमणं ॥३॥ · प्रहावरे चछे ते महत्वए मेहुणा वेरमणं । सबं ते मेहुणं पञ्चरकामि । से दिवं वा माणुस वा तिरिरकजोणिं वा । नेव सयं मेहुणं सेविका । नेवन्नेहिं मेदुणं सेवाविका । मेदुणं सेवते वि अन्ने न समजामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वावाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतं पिन्नं न समणुजाणामि । तस्स ते पडिक्कमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वो सिरामि । चछे अंते महबए उवहि मि सवार्ड मेदुणार्ज वेरमणं ॥ ४ ॥ 1 हावरे पंच ते मए परिग्गहा वेरमणं । सबं अंते परिग्गहं पञ्चरकामि । सेप्पं वा बहुं वा वा थूलं वा चित्तमतं वा चित्तमंतं वा नेव सयं परिगिरिहा । नेवन्नेहिं परिगिएहा विका । परिग्गहं परिगिएहंते वि छान्ने न समणुजाणिका । जावजीवाए तिविहं तिविदेणं मणेणं वाया कायेणं न करेमि न कारवेम करतं पिन्नं न समणुजाणामि । तस्स जंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाएं वो सिरामि । पंचमे ते महए व विमि सघाउ परिग्गहार्ड वेरमणं ॥ ५ ॥ हावरे अंते व राइनो अवार्ड वेरमणं । सबं जंते राइजोणं पञ्चरकामि । से असणं वा पाएं वा खाइमं वा साइमं वा । नेव सयं सई मुंजेा । नेवन्नेहिं राई मुंजाविका । राई मुंजते विन्ने न समजाणेा । जावजीवाए तिविहेणं मणेांवायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि ने न समणुजाणामि । तस्स जंते पडिक्कमामि । निंदामि । गरिहामि । अप्पाणं वोसिरामि । ब अंते वए - aa मि । सा राइनोपार्ड वेरमणं ॥ ६॥ इच्याई | पंच महवयाई राइनो वेरमणबाई अत्तहिविचाए उवसंपत्तिा णं विहरामि ॥ ७ ॥ . से निरकु वा रिकुणी वा संजय विरयप डिहयपच्चरकायपावकम्मो दिया वा रार्ज वा एगर्छ वा परिसागर्छ वा सुत्वा जागरमाणे वा । से पुढविं वा नित्तिं वा सिलं वा लेलुं वा ससररकं वा कार्य ससररकं वा वछं हब्वेण वा पाएण वा कठेण वा किंलिंचे वा अंगुलिआए वा सिलागए वा सिलागहोण वा न आलिहिजा न विलिहिता न घट्टिका न जिंदिका अन्नं न लिहाविद्या न विलिहाविका न घट्टाविका न जिंदाविका । अन्नं लिहतं वा विलितं वा घट्टं तं वा जिंदंतं वा न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविणं मणे वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं वि अन्नेन समणुजाणामि । तस्स नंते पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वो सिरामि ॥ १ ॥ सेकुवा कुणी वा संजय विरयप डिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा राजे वा एगर्नु वा परिसागर्छ वा सुते वा जागरमाणे वा से उदगं वा उसं वा हिमं वा महित्रां वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा उदजनं वा कार्यं उदनं वा वचं ससिद्धिं वा कार्यं ससिद्धिं वा वनं न मुसिका न संफुसिका । विलिकान पविलिका नारकोमिका न परको मिान आयाविज्ञान पयाविज्ञा अन्नं न मुसाविका न सं फुसा विज्ञान यावीलाविका न पवीलाविज्ञा न अरकोका विका न परकोडाविका नायाविज्ञान पया Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०४ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. विजा अन्नं आमुसंतं वा संफुसंतं वा आविलंतं वा पविलंतं वा अरकोमंतं वा परकोळंतं वा अायावतं वा पयावंतं वा न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्वमामि । निंदामि गरिहामि । अप्पाणं वोसिरासि ॥२॥ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपमिहयपच्चरकायपावकम्मे दिआ वा राठ वा एग वा परिसागर्ने वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अच्चिं वा जालं वा अलार्य वा सुधागणिं वा उक्कं वा न जंजेजा न घटेजा न निंदा न उजालेजा न पजालेजा न निघावेजा अन्नं जंजंतं वा घट्टतं वा निंदंतं वा उजालंतं वा पळालंतं वा निघावंतं वा न समणुजाणामि । जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ३॥ से लिख्नु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिआ वा राठ वा एग वा परिसागर्ने वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तनंगेण वा साहाए वा साहानंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहलेण वा चेलेण वा चेलकन्नेण वा होण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमेजा न वीएका अन्नं न फुमावेजा न वीआवेजा अन्नं फुमंतं वा वीअंतं वा न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पिअन्नं न समणुजाणामि तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ से निरकु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिया वा राउँ वा एगर्ने वा परिसागउँ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीअपश्सु वा रूढे सु वा रूढपश्च्सु वा जाएसु वा जायपश्च्सु वा हरिएसु वा हरिअपश्छेसु वा जिन्नेसु वा चिन्नपश्च्सु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिएसु वा न गळेजा न चिजा न निसीइजा न तुअद्देजा अन्नं न गमावेजा न चिचवेजा न निसीआवेजा न तुअट्टावेजा । अन्नं गवंतं वा चितं निसीअंतं वा तुअद्भुतं वा न समणुजाणामि । तस्स नंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ए॥ से जिस्कु वा निरकुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चरकायपावकम्मे दिआ वा राज वा एगर्छ वा परिसागडे वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीड वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हसि वा पायंसि वा वाढुसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वचसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुसणंसिवा रयहरणंसि वा गोगं सि वा उंडगंसि वा दंमगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेङगसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे नवगरणजाए त संजयामेव पडिलेहि पडिलेहि पमजिथ पमजिअ एगंतमवणेजा नोणं संघायमावोजा ॥ ६॥ अजयं चरमाणो अ, पाणनूआइ हिं सइ ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होश का अं फलं ॥१॥ अजयं चिन्माणो अ, पाणआइ हिंस ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुझं फलं ॥२॥ अजयं आसमाणो अ, पाणआइ हिंसा ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुरं फलं ॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणनूआई हिंसा ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से हो कमुश्र फलम् ॥४॥ अजयं तुंजमाणो अ, पाणजूआइ हिंसर ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुझं फलं ॥५॥ अजयं लासमाणो अ, पाणआइ हिंसा ॥ बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कमुझं फलं ॥६॥ कहं चरे कहं चिठे, कहमासे कहं सए ॥ कहं तुंजतो नासंतो पावं कम्मं न बंधश् ॥ ॥ जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए ॥ जयं नुंजतो लासंतो, पावं कम्मं न बंधश् ॥ ७ ॥ सबनूअप्पास्स, सम्मं नूआइ पास ॥ पिहिआसवस्स दंतस्स, पावं न कम्मं बंधश् ॥ ए॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिरा संबसंजए ॥ अन्नाणी किं काही, किंवा नाही अ पावगं ॥ १०॥ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i göy ___अथ दशवकालिकसूत्रपाठः । सोच्चा जाणइ कहाणं, सोच्चा जाण पावगं ॥ उन्नयं पि जाण सोच्चा, जं सेअं तं समायरे ॥११॥ जो जीवे वि न आणेश, अजीवे वि न आण ॥ जीवाजीवे अयाणंतो, कह सो नाई सेजमं ॥ १ ॥ जो जीवे वि वि आणेहि, अजीवे वि वि आणइ ॥ जीवाजीवे वित्राएंतो, सो हु नाहीइ सयमं ॥१३॥ जया जीवमजीऐ अ, दो वि एणं विण ॥ तया गई बहुविहं, सबजीआण जाण ॥१४॥ जया गई बहुविहं, सबजीआण जाण ॥ तया पुणं च पावं च, बंधं मुरकं च जाण ॥ १५॥ . . जया पुणं च, पावं च बंधं मोरकं च जाण ॥ तया निबिंदए नोए, जे दिवे जे अ माणुसे ॥ १६॥ . जया निबिंदए नोए, जे दिवे जे अ माणुसे ॥ तया चयश् संजोगं, सप्रिंतरवाहिरं ॥ १७ ॥ जया चयश् संजोगं, सप्निंतर बाहिरं ॥ तया मुंडे नवित्ता णं, पवश्ए अणगारिशं ॥१७॥ जया मुंझे नवित्ता णं, पवश्ए अणगारिश्र ॥ तया संवरमुक्किलं, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ १५ ॥ जया संवरमुकिवं, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ तया धुण कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥ २० ॥ जया धुण कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं ॥ तया सबत्तगं नाणं, दंसणं.चालिगव॥२१॥ जया सबत्तगं नाणं, दसणं चालिग ॥ तया लोगमलोगं च, जिणो जाण केवली ॥ २२॥ . जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ तया जोगे निलंन्नित्ता, सेलसिं पमिवजाइ ॥ २३॥ . जया जोगे निलंनित्ता, सेलोसि पडिवज ॥ तया क़म्म खवित्ता णं, सिधिं गवद नीरजे ॥ २४ ॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गब नीर ॥ तया लोगम मचयनो, सियो हवइ सास ॥२५॥ सुहसावगस्स समणस्स, साया लग्गस्स निगामसाइस ॥ . उबोलणापहोअस्स, उबहा सुगइ तारिसगस्स ॥ २६॥ तवोगुणपहाणस्स, उमर खंतिसंजमरयस्स ॥ परीसहे जिणंतस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स ॥ २७ ।। पहा वि ते पयाया, खिप्पं गचंति अमरजवणाशाजेसि पिउँ तवो सं-जमो अखंती अवंजचेरं च ॥२॥ इच्चेअं उजीवणि, सम्मदिठी सया जए॥उबहं लहित्तु सामन्नं, कम्मुणा न विराहिलासि॥त्तिबेमि॥२॥ चननं जीवणि आ णामनयणं संमत्तं ॥४॥ अथ पिण्डेषणाध्ययनम् ॥५॥ संपत्ते निरककालंमि, असंनंतो अमुचित ॥ इमेण कम्मजोगेण, लत्तपाणं गवेसए ॥१॥ से गामे वा, नगरे वा गोअरग्गगर्ड मुणी ॥ चरे मंदमणुविग्गो, अबस्कित्तेण चेअसा ॥२॥ पुर जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे ॥ वजंतो बीअहरिआइ, पाणे अ दगमट्टिकं ॥३॥ उवायं विसमं खाएं, विजलं परिवजए ॥ संकमण न गमिजा, विऊमाणे परक्कमे ॥४॥ पवझते व से तब, परकलंते व संजए ॥ हिंसेज पाणनूआइ, तसे अवथावरे ॥५॥ तम्हा तेण न गळिजा, संजए सुसमाहिए ॥ सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥६॥ इंगालं गरि रासिं, तुसरासिं च गोमयं ॥ ससररकेहिं, पाएहिं संजः तं नक्कमे ॥ ७॥ . न चरेज वासे वासंते, महिआए पतिए ॥ महावाए व वायंते, तिरिसंपाश्मेसु वा ॥ ७ ॥ न चरेज वेससामंते, बंजचेरवसाणुए ॥ वलयारिस्स दंतस्स, हुजा तवविसुत्तिया ॥ ए॥ . अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अनिरकणं ॥ दुङ क्याणं पीला, सामन्नंमि अ संस॥१०॥ तह्मा एवं विश्राणित्ता, दोसं उग्गवडणं ॥ वहाए वेससामंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११॥ .. साणं सूश्वे गावि, दित्तं गोणं हयं गयं ॥ संडिप्नं कलहं जुळ, उर परिवजए ॥ १२॥ ... अणुन्नए नावणए, अप्पहिछे अणाजले ॥ इंदिआणि जहानागं, दमत्ता मुणी चरे ॥ १३॥ . . . दवदवस्स न गछेडा, नासमाणो अ गोअरे ॥ हसंतो नानिगडिजा, कुलं उच्चावयं सया ॥ १४ ॥ ८९ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ०६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. आलो थिग्गलं दारं, संधिं दगलवणाणि अ॥ चरंतो न विनिपाए, संकगणं विवाए ॥१५॥ रन्नो गिहवईणं च, रहस्साररिक आण य ॥ संकिलेसकरं गणं, घर परिवार ॥१६॥ पमिकुठं कुलं न पविसे, मामगं परिवऊए ॥ अचियत्तं कुलं न पविसे, चिअत्तं पविसे कुलं ॥ १७ ॥ साणीपाचारपिहिरं, अप्पणा नावपंगुरे ॥ कवाडं नो पणुविजा, जग्गहंसि अजाश्या ॥ १७ ॥ गोअरग्गपविजो अ, वञ्चमुत्तं न धारए ॥ ओगासं फासुझं नच्चा, अणुन्नविय बोसिरे ॥ १५ ॥ एणीअवारं तमसं, कुगं परिवाए ॥ अचरकुविस ज→, पाणा उप्पडिलेहगा ॥ २० ॥ जबपुप्फाइ बीआइ, विप्पन्नाइ कुछए । अहुणोवलित्तं नवं, दतूणं परिवजाए ॥२१॥ एलगं दारगं साणं, वगं वा वि कुठए ॥ उघिया न पविसे, विउहित्ताण व संजए ॥ २२॥ असंसत्तं पलोइजा, नाश्दूरा वलोअए ॥ चप्फुहं न विनिपाए, नियट्टिक अयंपिरो ॥ २३ ॥ अश्लूमिं न गन्छेजा, गोअरग्गगर्ड मुणी ॥ कुलस्स लूमिं जाणित्ता, मिश्र नृमि परक्कमे ॥ २४॥ त व पमिलेहिजा, नूमिनागं विअरकणो ॥ सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवऊए ॥ २५॥ दगमट्टियआयाणे, ब्रीआणि हरिआणि अ॥ परिवडतो चिडिजा, सबिंदिअ समाहिए ॥२६॥ तह से चिन्माणस्स, आहारे पाणनोअणं ॥ अकप्पिन गेण्हिडा, पडिगाहिक कप्पिरं ॥ २७ ॥ आहारती सिया तळ, परिसाडिऊ लोअणं ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ २७ ॥ संमद्दमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि अ॥ असंजमकरि नच्चा, तारिसिं परिवऊए । ए॥ साहट्ट निस्किवित्ताणं, सचित्तं घट्टिआणि अ॥ तहेव समणमए, उदगं सपणुविआ ॥ ३० ॥ आगहश्त्ता चलश्त्ता, आहारे पाणलोअणं ॥ दितिअं पडिआइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ ३१॥ पुरेकम्मेण हलेण, दबीए नाणेण वा ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्पर तारिसं ॥ ३ ॥ (एवं) उदलवे ससिणिणे, ससररके मट्टिआउँसे ॥ हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥३३॥ गेरुअवन्निअसेढिअ-सोरशिपिच्कुकुसकए ॥ उकिच्मसंस, संसठे चेव बोधवे ॥ ३४ ॥ असंसरण होण, दबीए नायणेण वा ॥ दिङमाणं न इबिजा, पञ्चा कम्मं जहिं नवे ॥ ३५॥ संसछेण य होण, दबीए जायणेण वा ॥ दिङमाणं पडिविजा, जं तलेसणि नवे ॥ ३६॥ पुण्हं तु मुंजमाणाणं एगो तब निमंतए ॥ दिङमाणं न इनिजा, बंदं से पडिलेहए ॥ ३७॥ पुण्हं तु मुंजमाणाणं, दो वि तब निमंतए ॥ दिजमाणं पडिविजा, जं तसणिअंजवे ॥ ३० ॥ गुविणीए उवणळ, विविहं पाणलोअणं ॥ तुंजमाणं विवजिजा, जुत्तसेसं पमिन्चए ॥ ३ए॥ सिआ अ समणमाए, गुषिणी कालमासिणी ॥ उघ्यिा वा निसीइजा, निसन्ना वा पुणुए ॥ ४ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिरं पडिआइरके, न मे कप्पश् तारिसं ॥१॥ श्रणगं पिऊमाणी, दारगं वा कुमारियं ॥ तं निस्किवित्तु रोअंतं, आहारे पाणलोअणं ॥ ४२ ॥ तं जवे जत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्पइ तारिसं ॥४३॥ जं नवे नत्तपाणं तु, कप्पाकप्पमि संकि ॥ दितिरं पडिआइके, न मे कप्पर तारिसं ॥४॥ दगवारेण पिहिरं, नीसाए पीढएण वा ॥ लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण वि केण ॥१५॥ तं च उनिंदिया दिजा, समणका एव दावण ॥ दिति पंडिआइरेक, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ४६॥ असणं पाणगंवा वि, खाइमं साइमं तदा ॥ जं जाणिक सुणिका वा, दाणा पगडं इमं ॥१७॥ तारिसं नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं । दितिरं पमियाश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ॥ जंजाणिक सुणिका वा, पुणा पगडं श्मं ॥४॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं॥ दितिअं पडिआइरकं, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ५० ॥ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपावः। .903 असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साश्मं तहा ॥ जं जाणिक सुणिजा वा, वणिमन पगमं श्मं ॥५१॥ तं नवे नत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिकं ॥ दितिअं पमित्राश्के, न मे कप्पर तारिसं ॥ ५॥ असणं पाणगं वा वि, खाश्मं साश्मं तहा ॥ जं जाणिक सुणिजा वा, समणा पगडं मं ॥ ५३॥ तं नवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ॥ दितिरं पमिश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ५५ ॥ उद्देसि कीअगडं, पूश्कम्मं च आह ॥ अनोअरपामिच्चं, मीसजाय विवजाए ॥ ५५॥ जग्गमं से अ पुलिजा, कस्सा पगडं कम ॥ सुच्चा निस्संकिअं सुधं, पमिगाहिज संजए ॥ २६॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ॥ फुप्फेसु हुज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥ १७ ॥ तं नवे लत्तपाणं तु संजयाण अकप्पिधे । दिति पमिआइरके, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ॥ असणं पाणगं वां वि, खाश्मं साइमं तहा ॥ उदगंमि हुऊ निरिकत्तं, उत्तिंगपणगे सु वा ॥ एए॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।। दितिरं पमिश्राइक, न मे कप्प३ तारिसं ॥ ६ ॥ असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ॥ तेजम्मि हुऊ निस्कित्तं, तं च संघट्टिया दए ॥ ६१॥ तं जवे लत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ॥ दितिशं पडिआइरके, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ६ ॥ एवं जस्सिकिआ, उस किया, उजालिआ, पजालिया, निवाविश्रा, ॥ उसिंचिआ, निस्सिचित्रा, उवत्तिा उयारिया दए ॥ ६३ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ॥ दितिरं पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ ६ ॥ हुक क सिलं वा वि, इट्टालं वा वि एकया ॥ विरं संकमाए, तं च होऊ चलाचलं ॥ ६५ ।। ण तेण निरकु गनिजा, दिो तव असंजमो ॥ गंजीरं मुसिरं चेव, सबिंदिअसमाहिए ॥ ६६ ॥ निस्सेणि फलगं पीढं, उस्सवित्ता मारुहे ॥ मंचं कोलं च पासायं, समण एव दावए ॥ ६७ ॥ उरूहमाणी पडिवजा, हवं पायं व लूसए ॥ पुढविजीवे वि हिंसिका, जे अतन्निस्सिा जगे ॥ ६ ॥ ए आरिसे महादोसे, जाणिकण महेसिणो ॥ तह्मा मालोहडं निरंकु, न पमिगिएहंति संजया ॥ ६ए॥ कंदं मूलं पलंब वा, आमं छिन्नं च सन्निरं ॥ तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवाए ॥ ७० ॥ तहेव सत्तुचुन्नाइ कोलचुनाइ आवणे ॥ सक्कुलिं फाणिवे पूलं, अन्नं वा वितहाविहं ॥ ७१ ॥ विकायमाणं पसढं. रएणं परिफासिवे॥दितिनं पडियारके, न मे कप्पा तारिसं ॥ ७॥ बहुअघ्रिं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकटयं ॥ अलिअंतिंडुरं विवं, नबुखंडं, व सिंवलिं ॥ ३ ॥ .अप्पो सिया नोअणजाए, बहु उज्य धम्मिए ॥ दंति पडिआख्खे, न मे कप्पश् तारिस ।। ४ ।। तहे वुच्चावयं पाणं, अवावारधोअणं ॥ संसेश्मं चाउलोदगं, अहुणाधोरं विवजए ॥ ५॥ जं जाणेज चिरा धोयं, मईए दंसणेण वा ॥ पडिपुचिमण सुच्चा वा, जं च निस्संकि नवे ॥ १६॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पमिगाहिक संजए ॥ अह संकियं नविजा, आसाश्त्ता ण रोअए ॥ ७ ॥ थोवमासायणाए, हत्थगंमि दलाहि मे ॥ मामे अचंबिलं पूरं, नालं तिन्हं विणित्तए ॥ ७ ॥ तं च अचंबिलं पूर्य, नालं तिन्हं विणित्तए ॥ दितिरं पमिआख्खे, न मे कप्पर तारिसं ॥ Jए ।। तं च होऊ अकामेणं, विमणेण पडिबिरं ॥ तं अप्पणा न पिवे, नो वि अन्नस्स दावए ॥ ७० ॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ ॥ जयं परिणविजा, परिठप्प पडिक्कमे ॥ १॥ सिया च गोयरग्गगडे, इनिजा परिनुत्तुरं ।। कुगं नित्तिमूलं वा, पमिलेहित्ता फासुझं ॥ ॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिन्छन्नंमि संवुडं , हत्थगं संपमङित्ता, तत्य तुंजिक संजए॥ ३ ॥ तत्थ से ढंजमाणस्स, अन्झिं कंटजे सि ॥ तणकच्सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥४॥ तं नरिकवित्तु न निरिकवे, आसएण न उडए । हत्येण तं गहेऊण, एगंतमवक्कमे ॥ ५॥ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागलसंग्रह जाग तेतालीस-(४३)-मा. एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया ॥ जयं परिविजा, परिठप्प पडिकमे ॥ ६॥ सिआ य निरकू इबिजा, सिङमागम्म नुत्तु ॥ सपिंडपायमागम्म, चंदुश्यं से पडिलहिया ॥७॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी ॥ रियावहियमायाय, आगठे का पडिक्रमे ॥ ७ ॥ आलोइत्ता ण नीसेसं, अश्आरं जक्कम ॥ गमणागमणे चेव, नत्ते पाणे च संजए ॥ ७ ॥ नझुप्पन्नो अणुविग्गो, अबखित्तेण चेअसा ॥ आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं लवे ॥ ए० ॥ न सम्ममालोश्शं कुजा, पुविं पञ्चाव जं कडं ॥ पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसो चिंतए इमं ॥ १ ॥ एहा जिणेहिं असावजा, वित्ती साहूण देसि ॥ मुरकसाहणहेजस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥ ए२ ॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करित्ता जिणसंश्रयं । सज्जायं पवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ३ ॥ वीसमंतो इमं चिंते, हियम लालमन्दि ॥ जश् मे अणुग्गई कुडा, साढू दुजामि तारि ॥ ए४ ॥ साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिज जहक्कम ॥ जश् तत्य के इविका, तेहिं सम्हिं तु तुंजए॥ ए५॥ अह कोई न इबिजा, तनुंजिऊ एक ॥ आलोए लायणे साहू, जयं अप्परिसामियं ॥ ए६॥ तित्तगं व कमुझं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा ॥ एअलक्ष्मन्नत्य पनत्तं, मदुघयं वसुंजिका संजए॥ अरसं विरसं वा वि, सूश्यं वा असूझं ॥ जयं वा जश् वा सुकं, मंथुकुम्मासनोअणं ॥ ए॥ नप्पएणं नाश् हीलिजा, अप्पं वा बहु फासुझं ॥ मुहाल मुहाजीवी, तुंजिका दोसवजिरं ॥ एए॥ मुखहा मुहादाइ, मुहाजीवी वि मुबहा ॥ मुहादा मुहाजीवी, दो वि गति सुग्ग; ॥ति वेमि ॥१०॥ ॥इति पिंडेसणाए पढसो उदेसो, सम्मत्तो ॥ पडिग्गहं संलिहित्ता णं, लेवमायाइ संजए ॥ गंधं वा, सुगंधंवा सबं मुंजे न उड्डए ॥१॥ सेजा निसीहियाए, समावन्नो अ गोअरे ॥ अयावयच तुच्चा एणं, जश् तेणं न संथरे ॥२॥ त कारणमुप्पएणे, लत्तपाणं गवेसए ॥ विहिणा पुवउत्तेण, श्मेणं उत्तरेण य ॥३॥ कालेण निरकमे लिरकू, कालेण य पडिक्कमे ॥ अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे ॥४॥ अकाले चरिसी निरकू , कालं न पमिलेहिसि ॥ अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥ ५ ॥ सऽ काले चरे निरकू, कुजा पुरिसकारियं ॥ अलानु त्ति न सोजा, तवुत्ति अहिआसए॥६॥ तहेवुच्चावया पाणा, लत्तकाए समागया ॥ तंजाअं न गबिजा, जयमेव परक्कमे ॥ ७॥ गोअरग्गपविो अ, न निसीज कब ॥ कहं च न पबंधिजा, चित्तिा ण व संजए ॥ ॥ . अग्गलं फलिहं दारं, कवा वा वि संजए ॥ अवलंबिआ न चिन्जिा ,गोअरग्गग मुणी ॥ ए॥ . समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं ॥ उवसंकमंतं लत्ता, पाणा एव संजए ॥१०॥ तमश्क्कमित्तु न विसे, न वि चि चरकुगोअरे ॥ एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिज्जि संजए ॥ ११॥ वणी मगरस वा तस्स, दायगस्सुजयस्स वा ॥ अप्पत्तिरं सिआ हुजा, लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ १२॥ पमिसेहिए व दिन्ने वा, त तम्मि नियत्तिए । जवसंकमिज लत्ता , पाणचाए व संजए ॥ १३ ॥ नप्पल पलमं वा वि, कुमुझं वा मगदंतिरं ॥ अन्नं वा पुप्फसञ्चित्तं, तं च संतूंचिया दए ॥ १४ ॥ तं नवे नत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ॥ दितिरं पआिश्के, न मे कप्प३ तारिसं ॥१५॥ उप्पलं पमं वा वि, कुमुझं वा मगदंतिरं ॥ अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संमद्दिा दए ॥ १६॥ . तं नवे नत्तपाणं तु, सजयाण अकप्पिरं ॥ दितियं पडिआश्के, न मे कप्पश् तारिसं ॥ १७ ॥ सालुओं वा विरालियं, कुमुझं नप्पलनालिअं॥ मुणालि सासवनाविधे, उबुखं अनिवुडं ॥ १७ ॥ तरुणगं वा पवालं, रुरकस्स तणगस्स वा ॥ अन्नस्स वा वि हरिअस्स, आमगं परिवाए ॥१५॥ तरुणिशं वा ग्विामि, आमिश्र नजिअंसई ॥ दितिशं पडिआइके, न मे कप्पश् तारिसं ॥२०॥ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैका लिकसूत्रपाठः तहा कोलमपुस्सिन्नं, वेलु कासवनालिकां ॥ तिलपप्परुगं नीमं, आमगं परिवए ॥ २१ ॥ तव चाखलं पिछं, विकामं वा तित्तनिबुडं ॥ तिलपिपूर पिन्नागं, मगं परिवए ॥ २२ ॥ कवि मालिंगं च, मूलगं मूलगत्ति ॥ मंत्र सत्यपरिणयं, मासा वि न पच ॥ २३ ॥ तदेव फलमंथू, बीमंथूणि जाणि ॥ बिहेलगं पियालं मं परिवऊए ॥ २४ ॥ समुत्राणं चरे चिकू, कुलमुच्चावयं सया ॥ नीयं कुलमइक्कम्मं, उसढुं नानिधारए ॥ २५ ॥ दीप वित्तिमेसिका, न विसी पंडिए ॥ अमुवि जोसि, मायणे एसणारए ॥ २६ ॥ बहु पर, विविदं खाइमसाइमं ॥ न तत्थ पंमि कुप्पे, या दिऊ परो न वा ॥ २७ ॥ सयणासणवत्थं वा, नत्तं पाएं व संजए ॥ दितस्स न कुप्पिका, पच्चरके वि दीस ॥ २८ ॥ इत्थ पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं ॥ वंदमाणं न जाइका, नो फरुसं वए ॥ २९ ॥ जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिर्ज न समुक्कसे ॥ एवमन्नेसमाणस्स, सामणमणुचि ॥ ३० ॥ सिग लडु, लोनेए विणिगूहइ ॥ मामेयं दाइयं संतं, दहुणं सयमायए ॥ ३१ ॥ त्ता गुरु लुक, बहुं पावं पकुवइ ॥ उत्तोस सो होइ, निवाणं च न ग ॥ ३२ ॥ सिया एगइ लड्डु, विविहं पानोणं ॥ द्दगं जुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ जाणं तुता इमे समणा, आययही अयं मुणी ॥ संतुको सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोस ॥ ३४ ॥ जसोकामी, माणसम्माणकामए ॥ बहु पसाई पावं, मायासनं च कुबइ ॥ ३५ ॥ सुरं वा मेरगंवावि, अन्नं वा मगं रसं ॥ ससरकं न पिबे निरकू, जसं साररकमप्पणो ॥ ३६ ॥ पिre एग तेो न मे कोइ विचार || तस्स पस्सह दोसाइ, निडिं च सुह मे ॥ ३७ ॥ वढ्ढ सुमिया तस्स, मायामोसं च निरकुणो ॥ यसो निवाएं, सययं च सा ॥ ३८ ॥ निच्चुविग्गो जहा तेणो, कम्मेहिं कुम्मइ ॥ ता रिसो मरणंते वि, न राहेहि संवरं ॥ ३ए ॥ आयरिए नारादेश, समावि तारिसी || गिहत्थाविणं गरिहंति, जेण जाति तारिसं ॥ ४० ॥ एवं तु गुप्पेही, गुणाणं श्र विवजए | तारिसी मरणंते वि, ण राहेहि संवरं ॥ ४१ ॥ तवं कु मेहावी, पणीचं वजए रसं ॥ मऊप्पमायविर, तवस्सी कसो ॥ ४२ ॥ तस्स पस्सह कलाएं, अगसाहुपू || विजलं अत्यसंत्तं, कित्तइस्सं सुह मे ॥ ४३ ॥ एवं तु गुप्पेही, गुणाएं च विवकए । तारिसी मरणंते वि, आदेश संवरं ॥ ४४ ॥ आयरिए आराहेइ; समवि तारिसी ॥ गिहत्था वि संपूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४५ ॥ तवतेणे वयतेणे, रुवते जे नरे ॥ यारजावतेणे का, कुछ देव किचिसं ॥ ४६ ॥ द्दगं वि देवदत्तं जवन्नो देवकिब्बिसे | तत्था वि से न यागाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ॥ ४७ ॥ तत्तो वि से चत्ताणं, लनिही एलमूयं ॥ नरगं तिरिरकयोणिं वा, वोही जत्थ सुल्लहा ॥ ४८ ॥ एच दोसं दणं, नायपुत्ते नासि ॥ श्रणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवए ॥ ४९ ॥ सिरिकऊण ‘निरकेसणसोहिं, संजयाण बुझाए समासे ॥ तत्थ भिकू सुप्पणिहिदिए, तिबलजगुणवं विहरितासि ॥ त्तिवेमि ॥ ५० ॥ ॥ संमत्तंपिंडेपणानामयणं पंचमं ॥ १०. ॥ अथ महाचारकथाख्यं षष्टमध्ययनम् ||६|| नाणदंसणसंपन्नं, संजमे तवे रयं ॥ गणिमागमसंपन्नं, उाणम्मि समोसढुं ॥ १ ॥ रायण रायमच्चाय, माहणा अवखत्तिया । पुत्रंति निदुप्पाणो, कहं ने यायारगोयरो ॥ २ ॥ सिं सो निहु दंतो, सब सुहावहो । सिरकाए सुसमाउत्तो, आय रक विरको ॥ ३ ॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस-(४३)-मा. हंदि धम्मत्थकामाण, निग्गंथाएं सुणेह मे आयारगोअरं नीम, सयलं उरहिड्व्यिं ॥४॥ नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जं लोए परमउच्चरं ॥ विजलपाणलाइस्स, न जूयं न विस्सा ॥५॥ अखुड्डगविअत्ताणं, वाहिकाणं च जे गुणा ॥ अखंडफुडिया कायबा, तं सुणेह जहा तहा ॥ ६॥ दस अ य गणाई, जाइं बालो वरन ॥ तत्थ अन्नयरे गणे, निग्गंयत्ताउ जस्स ॥ ॥ वयनकं कायनकं, अकप्पो मिहिलायणं ॥ पलियंकनिसका य, सणाणं सोहवाणं ॥ ७ ॥ तस्थिमं पढमं गणं, महावीरेण देसिअं ॥ अहिंसा निजणा दिशा, सबलूएसु संजमो॥ ए॥ जावंति लोए पाणा, तसा अव थावरा ॥ ते जाणमजाणं वा, न हणे णो विघायए ॥ १० ॥ सबे जीवा वि वंति, जीविजं न मरिजिलं ॥ तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंया वजयंति णं ॥ ११ ॥ अप्पणा परमा वा, कोहा वा जश् वा जया ॥ हिंसगं न मुसं झा, नो वि अन्नं वयावए ॥ १२ ॥ मुसावा उ लोगम्मि, सबसाहूहि गरिहिर्ल ॥ अविस्सासो अनूआणं, तम्हा मोसं विवऊए ॥ १३ ॥ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जश् वा बढुं ॥ दंतसोहणमित्तं वि, जग्गहंसि अजाझ्या ॥ १४ ॥ तं अप्पणा न गिएहंति, नो वि गिण्हावए परं ॥ अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ १५ ॥ अबंजचरिअं घोरं, पमायं पुरहिरिं ॥ नायरंति मुणीलोए, नेाययणवकिणो ॥ १६ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ॥ तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति एवं ॥ १७ ॥ बिडमुनेश्मं लोणं, तिचं सप्पिं च फाणि ॥ न ते संनिहिमिति, नायपुत्तवर्जरया ॥ १७ ॥ लोहस्सेसणुफासे, मन्ने अन्नयरामवि ॥ जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पवश्ए न से ॥ १ए॥ जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंचणं ॥ तं पि संजमलऊग, धारंति परिहरति अ॥ २० ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण तारणा ॥ मुत्था परिग्गहो वुत्तो, श्अ वुत्तं महेसिणा ॥२१॥ सवत्थुवहिणा बुद्धा, संररकण परिग्गहे ॥ अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाश्यं ॥२॥ अहो निच्चं तवो कम्म, सबबुद्धेहिं वन्निरं ॥ जा य लजासमा वित्ती, एगनत्तं च लोअणं ॥ २३ ॥ संति मे सुहुमा पाणा, तसा अव थावरा ॥ जाइं रा अपासंतो, कहमेसणि चरे ॥ २ ॥ उदलवं बीअसंसत्तं, पाणा निवमिया महिं ॥ दिआ ताई विवजिजा, राड तत्य कहं चरे ॥ २५॥ . एरं च दोसं दछुणं, नायपुत्तेण नासि ॥ सबाहारं न तुंति, निग्गंथा राश्नोअणं ॥२६॥ पुढविकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥२७॥ पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसश्न तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥२०॥ तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं मुग्गश्वढ्ढणं ॥ पुढविकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥ ए॥ आजकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ ॥ ३० ॥ आजकायं विहिंसंतो, हिंसश् उ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥ ३१ ॥ तम्मा एवं विआणित्ता, दोसं उग्गा वढणं ॥ आउकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥३२॥ जायते न श्छति, पावगं जलिश्त्तए ॥ तिरकमन्नयरं सत्यं, सब वि मुरासयं ॥ ३३ ॥ पाहणं पडिणं वा वि, उ8 अणुदिसामवि ॥ अहे दाहिण वा वि, दहे उत्तर विअ॥ ३४ ॥ जूआणमेसमाघाउ, हववाहो न संस ॥ तं पश्वपयावा, संजया किंचि नारले ॥ ३५॥ तम्हा एरं विआणित्ता, दोसं उग्गवढणं ॥ तेनकायसमारंनं, जीवजीवाई वजए ॥ ३६॥ अणिलस्स समारंनं, वुद्धा मन्नंति तारिसं ॥ सावजबहुलं चेअं, नेअं ताहिं सेविसं ॥ ३७॥ तालिअंटेन पत्तेण, साहाविहुणेण वा ॥ न ते वीज मिळति, वेआवेऊण वो परं ॥ ३० ॥ जं पि वत्यं व पायं वा, कंवलं पायपुंजणं ॥ न ते वायमुईति, जयं परिहरंति अ॥३ए॥ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकसूत्रपात. 177 तम्हा एवं विश्राणित्ता, दोसं मुग्गवडणं ॥ वानकायसमारंनं, जावजीवाइं वजए ॥ ४० ॥ वणस्सइं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥४१॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंस अ तयस्सिए ॥ तसे अ विविहे पाणे, चरकुसे अ अचरकुसे ॥४॥ . तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं उग्गश्वढणं ॥ वणस्सइ समारंनं, जावजीवाई वजए ॥ ५३॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयसा कायसा ॥ तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिया ॥४॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंसज तयस्सिए ॥ तसे अविविहे पाणे, चरकुसे अ अंचरकुसे ॥४५॥ तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं उग्गवढणं ॥ तसकायसमारंनं, जावजीवाइं वजाए ॥ ३६॥ जाई चत्तारि जुझाइ, इसिणा हारमाणि ॥ ताई तु विवऊतो, संजमं अणुपालए ॥॥ पिंडं सिजं च वत्यं च, चनत्यं पायमेव य ॥ अकप्पिरं न इलिजा, पमिगाहिज कप्पियं ॥ ४ ॥ जे निआगं ममायंति, कीअमुद्देसिाहडं ॥ वहं ते समणुजाणंति, अ उत्तं महेसिणा ॥ ए॥ तम्हा असणपाणाई, कीअमुदै सिाहमं ॥ वजयंति गिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ५० ॥ कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो ॥ तुंजतो असणपाणाई, आयारा परित्नस्सइ ॥५१॥ सीदगसमारंने, मत्तधोअणणचडणे ॥ जाइं बंनंति नूआई, दिो तत्थ असंजमो ॥ ५५ ॥ पत्थाकम्मं करेकम्म, सिया तत्थ न कप्प३ ॥ एअमन नुंजंति, निग्गंथा गिहिलायणे ॥ २३ ॥ आसंदीपलिकेसु, मंचमासालएसु वा ॥ अणायरिअमजाणं, आसंत्तु सश्त्तु वा ॥ ५४॥ नासंदीपलिकेसु, न निसिजा न पीढए ॥ निग्गंथा पडिलेहाए, बुधवुत्तमहिगा ॥ ५५॥ गंलीरविजया एए, पाणा पुप्पडिलेहगा ॥ आसंदी पलिअंको अ, एअम विवजिआ ॥५६॥ गोअरग्ग पविस्स, निसिजा जस्स कप्पश् ॥ श्मे रिसमणायारं, आववजा अबोहि ॥ २७॥ विवत्ती बनचेस्स, पाणणं च वहे वहो ॥ वणीमगपमिग्घाट, पमिकोहो अगारिणं ॥ ५ ॥ अगुत्ती बंजचेरस्स, इत्थी वा वि संकणं ॥ कुसीलवढणं गणं, दूर परिवजाए ॥ एए॥ तिन्हमन्नयरागस्स, निसिङजा जस्स कप्पश् ॥ जराए अनिअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो ॥ ६ ॥ वाहिउँ वा अरोगी वा, सिणाणं जो पत्थए ॥ वुकंतो होश आयारो, जढो हव संजमो ॥ ६१ ॥ संति मे सुहुमा पाणा, घसासु निलगासु अ॥ जे अ निरकू सिणायंतो, विअडेणुप्पिलावए ॥ ६॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा ॥ जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिगा ॥ ३ ॥ सिणाणं अवा ककं, लुई पजमगाणि अ॥ गायस्सुबट्टणाए, नायरंति कया इ वि ॥ ६ ॥ नगिणस्स वा वि मुंमस्स, दीहरोमनहसिणो ॥ मेहुणा उवसंतस्स, किं विनूसाइ कारिअं॥ ६५ ॥ विनूसावत्तिअं निरकू, कम्मं बंधश् चिक्कणं ॥ संसारसायरे घोरे, जेणं पड पुरुत्तरे ॥६६॥ विनुसावत्तिरं चेअं, बुझा मन्नति तारिसं ॥ सावऊं बहुलं चेअं, नेयं ताहिं सेविअं ॥ ६७ ॥ खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमअजावे गुणे ॥ धुणंति पावाइं पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥ ६ ॥ . अवसंता अममाअकिंचणा, सविजविजाणुगया जसंसिणो ॥ उउप्पसन्नेविमलेवचं दिमा, सिर्किविमाणाजवंति ताणो ॥त्तिवेमि ॥ ६ए॥ ॥ति महाचारकथाख्यं पष्ठमजयनाएं सम्मत्तं ॥६॥ ॥ अथमुवाक्यशुद्ध्याख्यं सप्तममध्ययनम् ॥ ७ ॥ चउन्हं खलु नासाणं, परिसंखाय पन्नवं ॥ उन्हं तु विणयं सिरके, दो न नासिङ सबसो ॥१॥ जा श्र सच्चा अवत्तबा, सच्चामोसा अजा मुसा ॥ जा अ वुझेहिं नाइन्ना, न तं नासिक पन्नवं ॥२॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रद् जाग तेतालीस (४३) - मा. ८ ॥ ए ॥ १० ॥ ॥ असच्चमोसं सच्चं च, प्रणवऊमकक्कसं ॥ समुप्पेहमसंदिहं, गिरं नासि पन्नवं ॥ ३ ॥ एं च मन्नं वा, जं तु नामे सासयं ॥ स जासं सच्चमोसं च तं पि धीरो विवजए ॥ ४ ॥ विहं पि तहामुत्तिं, जं गिरं जासए नरो ॥ तम्हा सो पुो पावेणं, किं पुर्ण जो मुसं वए ॥ ५ ॥ तम्हा लामो वरकामो, मुंगं वा ऐ नविस्स ॥ श्रहं वाणं करिस्सामि, एसो वाणं करिस्स ॥ ६ ॥ एवमाइ उ जा जासा, एसकालंमि संकिया | संपयामहे वा, तंपि धीरो विवकए ॥ ७ ॥ कामि, पच्चुपलमा गए । जमहं तु न जाणिका, एवमेत्र् ति नो वए ॥ कामि, पचप्पलमणागए ॥ जत्थ संका जवे तं तु, एवमेत्र् ति नो वए ॥ मि कामि, पचुप्पमागए || निस्सं कि जवे जं तु, एवमेयं तु निद्दिसे ॥ तहेव फरुसा जासा, गुरुमूर्जवधाणी || सच्चा वि सा न वत्तवा, जर्ज पावस्स गमो ॥ तव का काण त्ति, पंडगं पंडग तिवा ॥ वाहियां वा वि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ एएन्ने, परो जेणुवहम्मद || यारनावदोसन्नू, न तं जासि पन्नवं ॥ १३ ॥ तव होले गोलित्ति, साखे वा वसुलित्ति कुम्मए 5हए वा वि, नेवं नासिक पन्नवं ॥ किए पएि वा वि, अम्मो मानसित्ति ॥ पिसिए जायणित्ति, धूए एचित्ति हले हलित्ति अन्नि त्ति, जट्टे सामिष गोमिया ॥ होले गोले वसुलित्ति, इचित्रां नेवमालवे ॥ १६ ॥ नामधि, बीगुत्तेण वा पुणो ॥ जहा रिहमनिगिनं, आलविका लवि वा ॥ १७ ॥ अपए वा वि, बप्पो चुम्लपित्त ॥ माडला जाइणिक त्ति, पुत्ते तु ति ॥ १८ ॥ हलित्तिन्नित्ति, नट्टे सामि गोमि । होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेव मालवे ॥ १५ ॥ नामधिऊण जं वूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो ॥ जहारिहमनिगिन, आल विज लवि वा ॥ २० ॥ पंचिंदिया पाणा, एस इत्थी यं पुमं ॥ जाव णं न विजाणिजा, ताव जाइ तिलवे ॥ २१ ॥ तहेव माणसुं पसुं, परिकं वा वि सरीसवं ॥ थूले पमेश्ले वने, पायमित्ति नो व ॥ २२ ॥ परिवृढत्ति वू, वू उवचित्र त्ति ॥ संजाए पीलिए वा वि, महाकाय तिलवे ॥ २३ ॥ तब गाउँ फुला, दम्मा गोरहगति ॥ वाहिमा रहजो गित्ति, नेवं नासिक पन्नवं ॥ २४ ॥ जीवं गवित्ति बू, धेणुं रसदयत्ति रहस्से महलए वा वि, वए संवह वित्तिय ॥ २५ ॥ तव तुमुाणं, पद्ययाणि वाणि रुरका महल पेहाए, नेवं नासिक पन्नवं ॥ २६ ॥ पासाय खंजाणं, तोरणाणि गिहाणि ॥ फलिहग्गलनावाएं, छालं उदगदोणिं ॥ २७ ॥ पीढए चंगबेरे, नंगले मध्यं सिया || जंतली व नाजी वा, गंमिश्रा व कालं सिया ॥ २८ ॥ घ्आसणं सवणं जाणं, ढुङ्गा वा किंचुवस्सए ॥ भूवघाइणिं जासं, नेवं जासिक पन्नवं ॥ २९ ॥ तदेव गंतुमुजाणं, पद्ययाणि वाणि ॥ रुरका महल पेहाए, एवं जासिक पन्नवं ॥ ३० ॥ जाता में रुका, दीवट्टा महालया ॥ पयायसाला वरिसा, वए दरिणित्ति ॥ ३१ ॥ तदा फलाई पक्काई, पायखका नो बए || बेलोड्याई टालाई, वेहिमाड़ त्ति नो वए ॥ ३२ ॥ इमे त्र्यंबा, बहुनिघडिमा फला ॥ वा बहु संया, नूरूवत्ति वा पुणो ॥ ३३ ॥ बसदि पकार्ट, नीलिया तवी || लाइमा नकिमान त्ति, पिडुखऊ त्ति नो वए ॥ ३४ ॥ साया घिरा उसढा वि ॥ गनिया पसू, संसाराजत्ति आवे || ३५ ॥ नवसं िनचा, कि कांति नो वए ॥ प्रेागं वाचि वलित्ति, सुतिचित्ति यावगा ॥ ३६ ॥ संपत्ति तेगं || बहुसमा णि तित्याणि, त्र्यावगाणं वियागरे ॥ ३७ ॥ नाना कायनिज्ञात्ति नो ए ॥ नात्राहिं तारिमानत्ति, पाणिपिऊ त्ति नो वए ॥ ३८ ॥ ॥ ॥ ११ ॥ १४ ॥ ॥ १५॥ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। . एयधिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनार्थ मिति । तथा चान्यायोपार्जितवित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिछमेव।मरश्चतुरिन्द्रियविशेषः। किम्।पिबति मर्यादया पिवत्यापिबति।कम्। रस्यत इति रसस्तं निर्यासं मकरन्दमित्यर्थः। एष दृष्टान्तः।अयं च तदेशोदाहरणमधिकृत्य वेदितव्य इत्येतच्च सूत्रस्पर्शकनियुक्तौदर्शयिष्यति।उक्तं च।सूत्रस्पर्श त्वियमन्येति। अधुना दृष्टान्त विशुछिमाह । नच नैव पुष्पं प्रानिरूपितस्वरूपं कामयति पीडयति। स च चमरः प्रीणाति तर्पयत्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः । अवयवार्थं तु नियुक्तिकारो महता प्रपञ्चेन व्याख्यास्यति । तथा चाह ॥ जह नमरोत्ति य एवं, दितो होश आहरणदेसे ॥ चंदमुहिदारिगेयं, सोमत्तवहारणं ण सेसं ॥ १० ॥ व्याख्या ॥ यथा चमर इति चात्र प्रमाणे दृष्टान्तो नवत्युदाहरणदेशमधिकृत्य । यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते । न शेषं कलङ्काङ्कितत्वानवस्थितत्वादीति गाथार्थः॥एवं नमराहरणे, अणियय वित्तित्तणं न सेसाणं ॥ गहणं दिसूतविसुकि, सुत्ते जणिया श्मा चन्ना ॥११॥ व्याख्या ॥ एवं जमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्वं गृह्यत इति शेषः। न शेषाणामविरत्यादीनां चमरधर्माणां ग्रहणं दृष्टान्त इति । एषा दृष्टान्तविशुद्धिः सूत्रे नणिता श्यं चान्या सूत्रस्पर्श निर्युक्ताविति गाथार्थः ॥ एक य नणिय कोई, समणाणं कीरए सुविहियाणं । पागोवजीविणो त्ति य, लिप्पंतारंजदोसेण ॥१०॥ ॥ व्याख्या ॥ अत्र चैवं व्यवस्थिते सति ब्रूयात्कश्चिद्यथा श्रमणाणां क्रियते सुविहितानामिति। एतदुक्तं नवति। यदिदं पाकनिर्वर्तनं गृहिनिः क्रियते। इदं पुण्योपादानसंकस्पेन श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति तपस्विनां । गृहन्ति च ते ततो निदामित्यतः पाकोपजीविन इति कृत्वा लिप्यन्ते आरम्नदोषेणाहारकरण क्रियाफलेनेत्यर्थः। तथा च लौकिका अप्याहुः ॥ क्रयेण क्रायको हन्ति, उपजोगेन खादकः ॥ घातको वधचित्तेन इत्येष त्रिविधो वधः॥इति गाथार्थः । सांप्रतमेतत्परिहरणाय गुरुराह ॥ वासश्न तणस्स कए, न तणं वहश्कए मयकुलाणं॥नय रुरका सयसाला, फुवंति कए महुयराणं ॥ १३ ॥ व्याख्या ॥ वर्षति न तृणस्य कृते न तृणार्थ मित्यर्थः। तथा न तृणं वर्धते कृते मृगकुलानामर्थाय । तथा न च वृदाः शतशाखाः पुष्प्यन्ति कृतेऽर्थाय मधुकराणामेवं गृहिणोऽपि न साध्वर्थं पार्क निर्वर्तयन्तीत्यतिप्राय इति गाथार्थः । अत्र पुनरप्याह ॥ अग्गिम्मि हवी इय, आश्चो तेण पीणि संतो॥वरिस पयाहियाए, तेणोसहिउँ परोहंति ॥ १०४ ॥ व्याख्या॥ इह यउक्तं वर्षति न तृणार्थमित्यादि । तदसाधु । यस्मादग्नौ हविडूयते । आदित्यस्तेन हविषा घृतेन प्रीणितः सन्वर्षति । किमर्थम्। प्रजाहितार्थ लोकहिताय। तेन वर्षितेन। किम्।ओषध्यः प्ररोहन्त्युजवन्ति। तथाचोक्तम् ॥ अन्नावाज्याहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ॥आदित्याजायते वृष्टिकृष्टेरन्नं Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिकसूत्रपाठः ७१३ बहुबाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा ॥ बहुवित्थमोदगावि, एवं नासिज पन्नवं ॥ ३५॥ तहेव सावऊं जोगं, परस्सा अनिशिं॥ कीरमाणं ति वा नच्चा, सावजं न लवे मुणी ॥४०॥ सुकमित्ति सुपक्कित्ति, सुचिन्ने सुहडे मडे ॥ सुनिछिए सुलहित्ति, सावऊ वजए मुणी ॥ १॥ पयत्तपक्क तिं व पक्कमालवे, पयत्तचिन्न त्ति व छिन्नमालवे ॥ पयत्तलहित्ति व कम्महेन, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे ॥४२॥ सबुक्कसं परग्धं वा, अजलं नस्थि एरिसं ॥ अविक्किमवत्तवं, अविअत्तं एव नो वए ॥ ३ ॥ सबमेअं वश्स्सामि, सबमेअंति नो वए ॥ अणुवी सबं सवत्य, एवं नासिक पन्नवं ॥४॥ सुक्की वा सुविक्की, अकिङ किकमेव वा ॥ इमं गिएह इमं मुंच, पणीनं नो विआगरे ॥ ४५ ॥ अप्पग्घे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा ॥ पणिअछे समुप्पन्ने, अणावजं विआगरे ॥ ४६॥ . तहेवासंजयं धीरो, आस एहि करेहि वा ॥ सयं चि वयाहि त्ति, नेवं जासिज पन्नवं ॥४॥ बहवे श्मे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो ॥ न लवे असाहु साहु त्ति, साहुँ साहु त्ति आलवे ॥४॥ नाणदसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं ॥ एवं गुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे ॥ ए॥ देवाणं मणुाणं च, तिरियाणं च वुग्गहे ॥ अमुगाणं जर्ड होज, मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५० ॥ वा वुठं च सीचन्हं, खेमं धायं सिवं ति वा ॥ कया णु हुज एआणि, मा वा होउ ति नो बए ॥५१॥ तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वा ॥ समुचिए उन्नए वा पर्जए, वजा वा वुझ वलाहय त्ति ॥ ५५ ॥ अंतलिरक त्ति एं वूछा, गुलाणुचरित्र त्ति अ॥ रिधिमंतं नरं दिस्स, रिधिमंत ति बालवे ॥ ५३ ॥ तहेव सावळाणुमोअणी गिरा, उहारिणी जा य परोवधाइणी । से कोह लोह लय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वजा ॥ ५४॥ सुवक्कसुधिं समुपेहि, मुणी गिरं च मुळं परिवऊए सया ॥ मिश्र अमुळे अणुवीइ नासए, सयाणवळे लहइ पसंसणं ॥ ५५ ॥ . नासा दोसे अ गुणे अ जाणिया, तीसे आ चुके परिवऊए सया ॥ बसु संजए सामणिए सया जए, वइज बुधे हिअमाणुलोमियं ॥५६॥ परिरकलासी सुसमाहिइदिए, चउकसायावगए अणिस्सिए ॥ स निझुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगनिणं तहा परं ॥ त्तिवेमि ॥ ५७ ॥ ॥ इति सुवक्कसुधीअनयणं सम्मत्तं ॥७॥ ॥ अथाचार प्रणिधिनामकमष्टममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ आयारप्पणिहिं लड़ें, जहा कायब निरकुणा ॥ तं ने उदाहरिस्सामि, आणुपुधिं सुणेह मे ॥१॥ पुढवीदगअगणिमारुस, तणरूरकस्स वीयगा ॥ तस्सा अ पाणा जीव त्ति, वुत्तं महेसिणा ॥२॥ तेसिं अत्थागजोएण. निच्चं होरवयं सिया ॥ मणसा कायवक्कएं, एवं हवा संजए ॥३॥ पुढवि नित्तिं सिलं लेलु, नेव निंदे न संलिहे ॥ तिविहेण करणजोएण, संजएसुसमाहिए ॥४॥ सुधपुढवीं न निसीए, ससरकंमि अ आसणे ॥ पमजित्तु निसीइजा, जाइत्ता जस्स नग्गरं ॥ ५॥ सीउँदगं न सेविजा, सिलावु हिमाणि अ॥ उसिणोदगं तत्तफासुग्रं, पमिगाहिक संजए ॥६॥ उदउझं अप्पणो कार्य, नेव पुंठे न संलिहे ॥ समुप्पेहं तहानूरं, नो णं संघट्टए मुणी ॥७॥ शंगालं अगणिं अचिं, अलायं वा स जोश्यं ॥ न जिज्ञा न घट्टिजा, नो णं निवावए मुणी ॥ ७॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विडणेण वा ॥ न वीज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं ॥ ए॥ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. तणरुरकं न बिंदिजा, फलं मूलं च कस्स ई ॥ आमगं विविहं वीरं, मणसा विण पत्रए ॥ १० ॥ गहणेसु न चिज्जिा , बीएसु हरिएसु वा ॥ उदगंमि तहा निच्चं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ११॥ तसे पाणे न हिंसिजा, वाया अव कम्मुणा ॥ जवर सबनूएसु, पासेज विविहं जगं ॥ १२॥ अ सुहुमाइ पेहाए, जाइं जाणिन्तु संजए ॥ दयाहिगारी नूएसु, आस चिफ सएहि वा ॥ १३ ॥ कयराइं अ० सुहुमाई, जाई पुनिज संजए ॥ इमाई ताई मेहावी, आइखिज विअरकणो ॥ १४ ॥ सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तहेव य ॥ पणगं वीअहरिअंच, अंडसुदुमं च अमं ॥ १५॥ एवमे आणि जाणित्ता, सबलावेण संजए ॥ अप्पमत्तो जए निच्चं, सबिंदिअसमाहिए ॥ १६॥ धुवं च पडिलेहिजा, जोगसापायकंबलं ॥ सिऊमुच्चारनूमिं च, संथारं अञ्वासणं ॥ १७॥ . . उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजहि ॥ फासुझं पडिलेहित्ता, परिगविज संजए ॥ १७ ॥ पविसित्तु परागारं, पाणघा नोअणस्स वा ॥ जयं चिठे मियां नासे, न य रूवेसु मणं करे ॥ १७॥ बहुं सुणेहि कन्नेहिं, बहुँ अबीहिं पिच ॥ नय दिई सुझं सबं, जिरकू डारकाउमरिहई ॥ २० ॥ सुकं वा जश् वा दिलं, न लविजोवघाश्यं ॥ न य केण उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥ २१॥ .. निजाणं रसनिझुढं, नदगं पावगं ति वा ॥ पुणे वा वि अपुणे वा, लाजालानं न निदिसे ॥ २॥ न य नोअणंमि गियो, चरे उंचं अयंपिरो ॥ अफासुझं न तुंजिजा, कीअमुद्देसिआहडं ॥ २३ ॥ सं निहिं च न कुबिजा, अणुमायं पि संजए ॥ मुहाजीवी असंवधे, हविक जगनिस्सिए ॥२४॥ लूहवित्ती सुसंतु, अप्पिचे सुहरे सिआ ॥ आसुरत्तं न गनिजा, सुच्चा णं जिणसासणं ॥ २५॥ कन्नसुरकेदि सद्देहिं, पेम नाजिनिवेसए ॥ दारुणं कक्कसं फासं, कारण अहिवासए ॥ २६॥ खुहं पिवासं पुस्सिङ, सीनन्हं अरइं जयं ॥अहिआसे अवहिन, देहरकं महाफलं ॥ २५ ॥ अत्यं गयंमि आश्च्चे, पुरत्या अ अणुगए ॥ आहारमाश्यं सवं, मणसा विणा पञ्चए ॥ २० ॥ अतिंतिणे अचवले, अप्पनासी मिश्रासणे ॥ हविजा उअरे दंते, श्रोवं लडुं न खिंसए ॥ ए॥ न बाहिरं परिनवे, अत्ताणं न समुक्कसे ॥ सुअलाजे न मजिजा, जच्चा तवस्सिबुधिए ॥ ३० ॥ से जाणमजाणं वा, कट्ट आहम्मियं पयं ॥ संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ॥३१॥ अणायारं परकम्म, नेव गूहे न निन्हवे ॥ सुई सया वियडजावे, असंसत्ते जिदिए ॥ ३॥ अमोहं वयणं कुजा, आयरिस्स महप्पणो ॥ तं परिगिन वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ३३ ॥ अधुवं जीवियं नच्चा, सिधिमग्गं वित्राणिश्रा ॥ विणिअहिज लोगेसु, आलं परिमिअप्पणो ॥ ३५ ॥ बलं थामं च पेहाए, सहामारुग्गमप्पणो ॥ खित्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ३५॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वढई॥ जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥३६॥ कोहं माणं च मायं च, लोनं च पाववढणं ॥ वमे चत्तारि दोसे ज, इच्छतो हिअमप्पणो ॥३७॥ कोहो पीई पणासेई, माणो विषयनासणो ॥ माया मित्ताणि नासेई, लोनो सबविणासणो ॥ ३ ॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे ॥ मायामजवनावेन, लोनं संतोस जिणे ॥३ए॥ कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोनो अ पवढमाणा॥ चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणप्नवस्स ॥४॥ रायणि एसु विणयं पलंजे, धुवसीलयं सययं न हावश्जा ॥ कुम्मुव अहीणपलीणगुत्तो, परकमिजा तवसंजमंमि ॥४१॥ . निदं च न वह मन्निका, सप्पहासं विवाए ॥ मिहो कहाहिं न रमे, सप्लायमि र सया ॥२॥ जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अनलसोधुवं । जुत्तो असमणधम्ममि, अळं लहइ अणुत्तरं ॥४३॥ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१५ ----- -- अथ दशवैकालिकसूत्रपातः । इहलोगपारत्तहिश्र, जेणं गच्छई सुग्गई ॥ बहुस्सुअं पङ्गुबासिजा, पुच्छिजलविणिच्छयं ॥ ४ ॥ हवं पायं च कायं च, पणिहाय जिदिए ॥ अहीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥१५॥ न परक न पुर, नेव किच्चाण पि ॥ न य जरुं समासिजा, चिब्जिा गुरुणं तिए ॥ ४६॥ अपुचि न नासिजा, नासमाणस्स अंतरा ॥ विधिमंसं न खाईजा, मायामोसं विवजए ॥ ७॥ अप्पति जेण सिआ, आसु कपिज वा परो ॥ सबसो तं न नासिजा, नासं अहिअगामिणिं ॥ ४ ॥ दि निलं असंदिवं, पडिपुन्नं विशं जिरं ॥ अयंपिरमणुबिग्गं, नासं निसिर अत्तवं ॥धए॥ आयारपन्नत्तिघरं, दिग्विायमहिजगं ॥ वायविरकलिशं नच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ नरकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिरिणो तं न आईके, नूआहिगरणं पयं ॥५१॥ अन्न पगडं लयणं, नई सयणासणं ॥ उच्चार जूमिसंपन्नं, ईबीपसुविवजिअं ॥ ॥ विवित्ता अ नवे सिजा, नारीणं न लवे कहं ॥ गिरिसंथवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं ॥ ५३ ॥ जहां कुक्कडपोअस्स, निच्चं कुलवनयं ॥ एवं ख बनयारिस्स, बीविग्गहनयं ॥ ५४॥ चित्तमित्तिं न निनाए, नारिं वा सुअलंकिअं ॥जरकर पिव दवूणं, दिहिं परिसमाहरे ॥ ५५॥ हबपायपलिच्छिन्नं, कन्ननास विगप्पियं॥ अवि वाससयं नारिं, बंजयारी विवजाए ॥५६॥ विनूसा इविसंसग्गो, पणीअं रसनोअणं ॥ नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं ताल जहा ॥ १७ ॥ अंगपञ्चंगसंगणं, आरुह्यविअपेहियं ॥श्लीएं तं न निनाए, कामरागविवqणं ॥ ५ ॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेम नानिनिवेसए ॥ अणिचं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा ॥ विणीअतिएहो विहरे, सीनूएण अप्पणा ॥ ६ ॥ जाइ सघाइ निरकंतो, परिआयाणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अहिहिए ॥ सुरे व सेणा समत्तमाउहे, अलमप्पणो होश् अलं परेसिं ॥ ६ ॥ सप्लायसनाणरयस्स ताणो, अपावन्नावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन जं सि मलं करे कडं, समीरिअं रुप्पमलं व जोणा ॥ ६३ ॥ से तारिसे उरकसदे जिदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ॥ विरायश् कम्मघणंमि अवगए, कसिणनपुडावगमे व चंदिमि ॥ तिमि ॥ ६ ॥ ॥इति आयारपणिही णाम अनयणं संमत्तं ॥७॥ ॥अथ विनयसमाधिनामकनवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः ।। थंना व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिरके ॥ सो चेव उ तस्स अजूझजावो, फलं व कीअस्स वहाय हो ॥१॥ जे आवि मंदित्ति गुरुं वश्त्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा ॥ हीलंति मित्यं पडिवङमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पग मंदा वि नवंति एगे, महरा वि अ जे सुअवुयोववेया ॥ आयारमंतो गुणसुध्अिप्पा, जे हीलिया सिहिरिव लास कुजा ॥ ३ ॥ जे आवि नागं महरं ति नच्चा, आसायए से अहियाय हो । एवायरिश्रपि दु हीलयंतो, नियत्र जाइपहं खु मंदो ॥४॥ आसिविसो वा वि परं सुरुको, किं जीवनासाउ परं नु कुजा ॥ आयरिअपाया पुण अणसन्ना, अवोहियासायण नस्थि मुरको ॥ ५ ॥ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - म जो पावगं जलश्रमवक्कमिका, सीविसं वा विदु कोवा ॥ जो वा विसं खाय जी विडी, एसोवमासायण्या गुरूणं ॥ ६ ॥ साहु से पावय नो डहिका, असीविसो वा कुविर्ड न नरके ॥ सिा विसं हालहलं न मारे, न वि मुरको गुरुहीला ॥ ७ ॥ stai सिरसा मिळे, सुत्तं व सीहं पडिवोहा ॥ जो वा दए सत्तिग्गे पहारं, एसोवमासायण्या गुरूणं ॥ ८ ॥ सियासी से गिरिं पि जिंदे, सिया हु सीहो कुवि न नरके ॥ सिचा न जिंदिक व सत्तिग्गं, न वि मुरको गुरुहीलाए ॥ ॥ ॥ चारपाया अप्पसन्ना, अबोहियासायण नत्थि मुरको || तम्हा अणाबाहसुहाजिकखी, गुरुप्पसायानिमुहो रमिता ॥ १० ॥ जाहाहिग्गी जलणं नमसे, नाणा हुईमंतपयानिमित्तं ॥ एवायरिकां वचिछा, अणंतनाणोवगर्ज वि संतो ॥ ११ ॥ जस्संति धम्मपयाइ सिरके, तस्संतिए वेइयं परंजे ॥ •सक्कारए सिरसा पंजली, कार्यग्गिरा जो मासा निच्चं ॥ १२ ॥ ला दया संजमबंजचेरं, कल्ला नागिस्स विसोहिगणं ॥ जे मे गुरू सययमा सयंति, तेहिं गुरू सययं पूयामि ॥ १३ ॥ जहा निसंते तवाच्चिमाली, पचास केवल चारहं तु ॥ वायरि सुसील बुद्धिए, विरायइ सुरमने व दो ॥ १४ ॥ जहा ससी कोमु जोगजुत्तो, नखत्ततारागणपरिवुडप्पा ॥ खे सोहई विमले प्रमुक्के, एवं गणी सोहइ निरकुमले ॥ १५ ॥ महारा या महेसी, समाहिजोगे सुासी लबुझिए ॥ संपाविका राई, राहए तोसइ धम्मकामी ॥ १६ ॥ सुच्चा मेहावि सुनासिचाई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो ॥ राहता ए गुणेारोगे, पाव सिद्धिमन्तरं ॥ त्तिबेमि ॥ १७ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ छा ॥ अथ विनयस माध्यध्ययने द्वितीय उद्देशः ॥ मूला खंधप्पो मस्स, खंधान पत्था समुविंति साहा ॥ साह पसाहा विरुति पत्ता, तर्ज सि पुष्पं फलं रसो ॥ १ ॥ एवं धम्मस्स विणर्ज, मूलं परमो से मुरको || जेण कित्तिं मुखं सिग्धं, नीसेस चानिगइ ॥ २ ॥ जे अ चंडे मिए थे, दुबाई नियडी सढे ॥ बुन से विप्पो, कहं सो गयं जहा ॥ ३ ॥ विण्यंमि जो उवाएं, चोइन कुप्पई नरो ॥ दिवं सो सिरिमितिं, दंडे पडिसेहए ॥ ४ ॥ तव विप्पा, जववना हया गया ॥ दीसंति मेहंता, निर्जगमुवा ॥ ९ ॥ तव सुविप्पा, ववप्ना दया गया ॥ दीसंति सुहमेहंता, इढि पत्ता महायसा ॥ ६ ॥ तव विणीअप्पा, लोगंमि नरनारी ॥ दीसंति हमेहंता, बाया ते विगलिंदिया ॥ ७ ॥ दंडसत्यपरितन्ना, असनवयहि च ॥ कलुणा विवन्नचंदा, खुप्पिवासपरिग्गया ॥ ८ ॥ नदेव सुविप्पा, लोगंति नरनारीजं ॥ दीसंति सुहमेहता, इद्धिं पत्ता महायसा ॥ ए ॥ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशवैकालिकसूत्रपातः । ७१७ तहेव अविणीअप्पा, देवा जरका अ गुनगा ॥ दीसंति सुहमेहंता, आलिगमुवडिआ॥ १० ॥ तहेव सुविणीअप्पा, देवा जरका आ गुनगाः ॥ दीसंति सुहमेहंता, इढि पत्ता महायसा ॥ ११॥ जे आयरिजवप्नायाणं, सुस्सूसावयणंकरे ॥ तेसिं सिरका पवटुंति, जलसित्ता इव पायवा ॥ १२॥ अप्पणन परजा वा, सिप्पा जणिआणि अ॥ गिहिणो जवानोगा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३॥ जेण बंधं वहं घोरं, परिआवं च दारुणं ॥ सिरकमाणा निबंति, जुत्ता ते ललिइंदिया ॥१४॥ ते वि तं गुरु पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा ॥ सक्कारंति नसंति, तुम निद्देसवत्तिणो ॥ १५ ॥ किं पुणं जे सुअग्गाही, अणंतहिअकामए ॥ आयरिआ जं वए निरकू, तम्हा तं नाश्वत्तए ॥ १६॥ नीअं सिऊं गई गणं, नीअं च आसणाणि अ॥ नीअं च पाए बंदिजा, नीअं कुजा अ अंजलिं॥१७॥ संघट्टश्त्ता काएणं, तहा उवहिणामवि ॥ खमेह आवराहं मे, वज न पुणुत्ति अ॥ १७ ॥ उग्गउँ वा पर्चएणं, चोळ वहई रहं ॥ एवं उबुद्धि किच्चाणं, बुत्तो वुत्तो पकुबई ॥ १५ ॥ “आलवंते लवंते वा, न निसिजाइ पकिस्सुणे ॥ मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणो" ॥ कालं बंदोवयारं च, पडिलेहित्ता ण हेजहिं ॥ तेण तेण उवाएणं, तं तं संपमिवायए ॥ २० ॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य ॥ जस्सेह उह नायं, सिरकं से अनिगवद ॥२१॥ जे आवि चंडे मशविगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे ॥ अदिधम्मे विणए अकोविए, असंविन्नागी न हु तस्स मुरको ॥२२॥ निदेसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्यधम्मा विणयंमि कोविया ॥ तरित्तु ते उघमिणं कुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गश्मुत्तमं गय ॥ त्तिवेमि ॥ २३ ॥ ॥ इति विणयसमाहिअनयणे वीउ उद्देसो सम्मत्तो ॥२॥ ॥ अथ विणयसाहिअष्भयणे तृतीय उद्देशः प्रारभ्यते ॥ आयरिश अग्निमिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पमिजागरिजा ॥ आलोयं इंगिअमेव नच्चा, जो बंदमाराहई स पुजो ॥१॥ आयारमा विणयं पठंजे, सुस्सूसमाणो परिगिल वकं ॥ जहोवश् अनिकंखमाणो, गुरुं च नासायई स पुजो ॥२॥ रायणिएसु विणयं पळजे, डहरा वि अ सुअ परियाय जिला ॥ नीचत्तणे वट्टर सञ्चवाई, उवायणं वककरे स पुजो ॥३॥ अनायजंबं चरई विसुद्ध, जवणच्या सुआणं च निच्चं ॥ अलपुरं नो परिदेवश्जा, लडुं न विकलई स पुजो ॥४॥ संथारसिजासणन्नत्तपाणे, अप्पिचया अश्वाने वि संते ॥ जो एवमप्पाणनितोसजा, संतोसपाहन्नरए स पुजो ॥ ५॥ सक्का सहेजें आसाश कंटया, अमया उन्हया नरेणं ॥ अणासए जो उ सहिज कंटए, वमए कन्नसरे स पुजो ॥६॥ मुहत्तपुरका उ हवंति कंटया, अउँमया ते वि तले सुनहरा ।। वायाऽरुत्ताणि उरुधराणि, वेराणुवंधीणि महप्पयाणि ॥2॥ समावयंता वयणानिघाया, कन्नंगया उम्मणियं जणंति ।। धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिदिए जो सहइ स पुजो ॥G!! अवन्नवायं च परम्मुहस्स, पञ्चरकर्ड पमिणीयं च नासं ।। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S2G राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस (४३) -मा. उहाररणं अप्पित्र्यकारणिं च, जासं न जासिक सया स पु ॥ ए ॥ अलोलु कुमाई, अपिसु यावि यदीए वित्ती ॥ मोजावr at विा जाविकाप्पा, कोहल्ले असया स पुको ॥ १० ॥ गुणेहिं साहू अगुणेहिं साहू, गिरहाहि साहू गुण मुंचसाहू || विप्पिंगमपणं, जो रागदोसेहिं समोस को ॥ ११ ॥ तदेव महरं च महागं वा, इत्थी पुमं पवइयां गिहिं वा ॥ नो ही नो वि खिंसा, यंनं च कोहं च चए सपुको ॥ १२ ॥ जे मासि माण्यंति, जात्तेण कन्नं व निवेशयति ॥ मा मारि वस्सी, जिईदिए सच्चरए सपुको ॥ १३ ॥ सिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चा ए मेहावि सुनासिचाई ॥ चरे मुणी पंचर तिगुत्तो, चक्कसायावगए स पुजो ॥ १४ ॥ गुरुमिह ययं परि मुणी, जिएमयनिज निगमकुसले || धुरियमलं पुरेकडं, जासुरमजलं गईं वइ ॥ त्ति वेमि ॥ १५ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए त उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ॥ अथ विणयसमाहिअज्झयणे चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते ॥ ४ ॥ सुमे जसं ते जगवया एवमरकायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं अत्तारि विण्यसमा हिगण पन्नत्ता, करे खलु ते येरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा पन्नत्ता, इमे खलु ते थेरेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिंगणा पन्नत्ता, तं जहा, विषयसमाही, सुसमाही, तवसमाही, यारसमाही ॥ विए सुए तवे, आयरे निच्च पंडिया || निरामयंतिप्पाणं, जे जवंति जिइंदिया ॥ १ ॥ चहा खलु विषयसमही, तंजहा, अणुसासितो सुस्सूसइ, सम्मं परिवजाइ, वयमाराहर, न व त्तसंपग्गहिए, चलत्थं पयं जवइ, नवइ का इत्थ सिलोगो ॥ हिसास, सुस्सूसइ तं च पुणो हिडिए ॥ न य माणमएण माइ, विषयसमाहित्राययहिए । विहा खलु समाही जवइ, तं जहा सुखं मे विस्सर ति अनाअवं नवइ, एगग्गचित्तो विसामि नायं नवइ, अप्पाणं वावइस्सामि त्ति अायं नवइ वि, परं वसामि ति नाश्वयं जवइ, चत्यं पयं जवइ, जव अ इत्थ सिलोगो ॥ नामेगग्गचित्तो वि वावइ परं ॥ सुखाणि हिकित्ता, र सुसमाहिए ॥ ३ ॥ चहा खलु तवसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगघ्याए तवमहिाि, नो पर लोगहमहिका, नो कित्तिवन्नसधं सिलोगग्याए तवमहिहिका, नन्नत्थ निकरव्याए तवम. हिहिका, चत्यं पयं जव जव इत्थ सिलोगो ॥ विविहगुणतवोरए, निच्चं नवइ निरासए निकरहिए ॥ तवसा बुइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए चहा खलु आयारसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगध्याए यारम हिधिका, नो परलोगया यारम हिहिका, नो कित्तिवन्नसध सिगोगहियाए श्रायारम हिंडिका, नन्नत्थ त्र्यारहंतेहिं हेउहिं श्रायारम हिडिजा, चलत्थ पयं जवइ, जवइ था इत्थ सिलोगो ॥ जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए ॥ श्रयारसमाहिसंवुडे, जव अ दंते जावसंधए ॥ ५ ॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशबैकालिकसूत्रपात. जए अनिगम चउरो समाहिङ, सुविसुञो सुससमाहिअप्पउँ ॥ विनलहिवे सुहावहं पुणो, कुवइ अ सोपयखेममप्पणो ॥६॥ जाइमरणा मुच्चइ, इत्यंभं च चएइ सघसो ॥ सिधे वा हवा सासणे, देवे वा अप्परए महहिए॥त्तिवेमि॥ ॥ चजत्यो उद्देसो सम्मत्तो ॥४॥ ॥विणयसमाहीणासन्नयणं सम्मत्तं ॥ ए॥ ॥ अथ दशमं सभिवध्ययनं भारभ्भते ॥ निरकम्म माणा अ बुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिजे हविजा ॥ इत्थीण वसं न आवि गडे, वंतं नो पमिआय जे स लिस्कू ॥१॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीउदगं न पिए न पियावए। अगणि सत्यं जहा सुनिसिठी, तं न जले न जलावए जे स निरकू ॥२॥ अनिलेण न वीए वीयावए, हरियाणि न विंदे न बिंदावए ॥ बीआणि सया विवजयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे सन्निरकू ॥३॥ वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकनिस्सियाणं ॥ तम्हा उद्देसि न लुजे, नो वि पंए न पयावए जे स निरकू ॥४॥ रोश्य नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मनिज प्पि काए । पयं च फासे महत्वयाई, पंचासवसंवरे जे स निरकू ॥ ५॥ अत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज बुद्धवयणे ॥ अहणे निजायरुपवरयए, गिहिजोगं परिवजाए जे स निरकू ॥६॥ सम्मद्दिकी सया अमूढे, अहि हु नाणे तवे संजमे थ॥ . तवसा धुण पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स जिरकू ॥ ७ ॥ तहेव असणं पाणगं वा, निविहं खाइमं सामं लजित्ता ॥ होही असो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स निरकू ॥ ७ ॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाश्मसाइमं लन्नित्ता ॥ बंदिश साहम्मिश्राण मुंजे, चुच्चा सनायरए जे स निरकू ॥ ए॥ न य बुग्गहिरं कहं कहिङ्गा, न य कुप्पे निदिए पसंते ॥ संजमधुवजोगजुत्ते, जवसंते उवहेडए जे स निरकू ॥ १० ॥ जो सह हु गामकंटए, अक्षोसपहारताणा या॥ नयरवसद्दसप्पहासे, समसुहरकसहे अ जे स निरकृ ॥११॥ पडिम पमिवजिया मसाणे, नो जायए लबजेरवाई दियस्स ॥ विविहगुणतवोरए य निच्चं, न सरीरं यानिकंखए जे स निरक ॥ १२ ॥ असई वोसच्चत्तदेहे, अकठे व हए लूसिए वा ।। पुढविसमे मुणी हविजा, अनियाणे अकोल्हढे जे स निरक ॥ १३ ॥ अभिजूला कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाज अप्पयं ।। विश्त्तु जाइमरणं महनयं, तवे रए सामणिए जे त निरक ॥ १४॥ हत्यसंजए पायसंजए, वायसंजए संजदिए । अलप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्यं च वियाण जे स निस्कृ ॥ १५ ॥ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा, उवहिमि अमुछिए अगिधे, अन्नायचंचं पुलनिप्पुलाए ॥ कयविकयसंनिहि विरए, सधसंगावगए अ जे स जिरकू ॥ १६॥ अलोलनिरकू न रसेसु गिले, उंचं टारे जीविअनानिकंखी ॥ इढिंच सकारणपूअणं च, चए रिअप्पा आणिहे जे स निरक ॥ १७ ॥ न परं वश्कासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज न तं वाजा ॥ जाणि पत्तेयं पुन्नपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स निरकू ॥ १७ ॥ न जाश्मत्ते न य रूवमत्ते, न लानमत्ते न सुएण मत्ते ॥ नयाणि सबाणि विवजाश्त्ता, धम्मनाणरए जे स निरकू ॥ १५॥ पवेअए अऊपयं महामुणी, धम्मे छि गवयश् परं पि॥ निरकम्म वजिज कुसीललिंगं, न आवि हासंकुहए जे स निरकू ॥ २० ॥ तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्चहिअन्अिप्पा ॥ बिंदित्तु जाइमरणस्स बंधणं, जवे जिरकू अपुणागमं गई ॥ त्तिवेमि ॥ २१॥ ॥ इति सनिरकूअनयणं दसमं संमत्तं ॥ १० ॥ ॥ अथ श्री दशवकालिके प्रथमा चूलिका॥ इह खलु जो पबश्एणं उप्पन्नपुरकेणं संजमे अरश्समावन्नचित्तेणं हाणुप्पेहिणा अयोहाइएणं एव हयरस्सिगयंकुसपोयपमागानूआई श्माई अचारस गणाई सम्मंसपमिलेहिठाबाई नवंति।। तं जहा लो उस्सलाई मुप्पजीवी ॥ १ ॥ लहुसगा इत्तरिया गिहीणं कामनोगा ॥२॥ नुको अ सायबहुला मणुस्सा ॥ ३ ॥ श्मे का मे पुरके न चिरकालोवजार नविस्स ॥४॥ उमजणपुरकारे ॥५॥ वंतस्स य पडिआयणं॥६॥ अहरगश्वासो-वसंपया॥७॥ उबहे खलु नो गिहीणं धम्मे गिहिवासमख्ने वसंताणं ॥॥आयके से वहाय होइए। संकप्पे से वहाय हो ॥१॥ सोवक्केसे गिहवासे, निरुवक्केसे परिआए ॥११॥ बंधे गिहवासे, मुरके परिआए ॥१॥ सावजे गिहवासे, अणव परिआए ॥१३॥ बहुसाहारणा गिहीणं कामनोगा ॥१५॥ पत्ते पुन्नपावं ॥१५॥ अणिच्चे खलु जो मणुरकाण जीविए कुसग्गजलबिंऽचंचले ॥१६॥ बहुं च खलु नो पावं कम्मं पगम् ॥ १७ ॥ पावाणं च खलु जो कमाणं कम्माणं कविं उच्चिन्नाणं उप्पमिकंताणं वेश्त्ता मुरको नत्थि अवेश्त्ता तवसा वा जोसश्त्ता ॥ १७ ॥ अचारसमं पयं नवश्॥ नवश् अ इत्थ सिलोगो. ॥ जया य चय धम्मं, अणजो लोगकारण ॥ से तत्थ मुछिए बाले, आयई न वबुनः॥१॥ जया जहाविउँ होइ, इंदो वा पनि उमं ॥ सवधम्मपरिन, स पञ्चा परितप्पश् ॥२॥ जया अ वंदिमो होश, पञ्छा होइ अवंदिमो ॥ देवया व चुआ गणा, स पन्छा परितप्प ॥३॥ जया अ पूश्मो होइ, पन्छा होइ अपूश्मो ॥ राया व रजापनको, स पञ्चा परितप्पश् ॥४॥ जया अ माणिमो होइ, पन्ना होइ अमाणिमो ॥ सिटिव कब्बमे बूढो, स पन्छा परितप्पश् ॥ ५॥ जया अ थेर होश, समश्कंतजुवणो ॥ मन्बु व गलिं गलित्ता, स पञ्चा परितप्पः ॥ ६॥ जया अ कुकुठंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्म ॥ हत्यी व बंधणे बयो, स पन्छा परितप्प ॥७॥ पुत्तदारंपरीकिन्नो, मोहसं ताणसंत ॥ पंकोसन्नो जहा नागो, स पञ्चा परितप्पश् ॥७॥ अऊ आहं गणी हुँतो, नाविअप्पा वहुस्सु ॥ जइ हं रमंतो परिआए, सामन्ने जिणदेसिए ॥ ए॥ देवलोगसमाणो अ, परिआउ महेसिंणं ॥ रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो ॥१०॥ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिकसूत्रपाठः । पंडिए ॥ ११ ॥ मरोवमं जाणि सुरकमुत्तमं ॥ रया परियाई तहारयाणं ॥ निरर्जवमं जाणि पुरकमुत्तमं, रमित तम्हा परि धम्मात जहं सिरिज ववेयं, जन्नग्गि विनामिवप्पते ॥ हीति विकुिसीला, दादुढां घोरविसं व नागं ॥ १२ ॥ धम्म कित्ती, पुन्नामधि च पिदुम ॥ . चुस्स धम्मान अहम्मसेवियो, संजिन्नचित्तस्स य दिन गइ ॥ १३ ॥ जोगाई पासा, तहाविहं कट्टु संजमं बहुं ॥ गई चहि दुहं, बोही से नो सुलहा पुणो पुणो ॥ १४ ॥ इमस्स तानेर अस्स जंतुणो, होवणी अस्स किलेसवत्तिणो ॥ पलिवमं ऊिन सागरोवमं, किमंग पुए मन इमं मणोऽहं ॥ १५ ॥ न मे चिरं रकम नविस्सर, असासया जोगपिवास जंतुणो ॥ न चे सरीरेण इमे विस्सइ, विस्सर जीविकावे मे ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा उ हवि निचि, चक देहं न हु धम्मसासणं ॥ तं तारिसं नो पति इंदिया, जविंति वाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १७ ॥ इच्छेव संपस बुद्धिमं नरो, श्रयं उवायं विविहं विप्राणि ॥ ate वाया 5 माणसेणं, तिगुत्ति गुत्तो जिवयण महिदिकासि ॥ तिबेमि ॥ १७ ॥ ॥ इति श्वक्का पढमा चूला सम्मत्ता ॥ 992 ॥ अथ द्वितीया चूलिका ॥ चूलिश्रं तु पवरकामि, सु केवलनासि ॥ जं सुणित्तु सुपुष्षाएं, धम्मे उप्पऊए मई ॥ १ ॥ सोपऋिबहुजणं मि, पडिसोललरकेणं ॥ परिसोत्रमेव अप्पा, दायवो दो कामेणं ॥ २ ॥ सो हो लोर्ड, परिसोर्ट सवो सुविदित्राणं ॥ अणुसो संसारोर्ज पडिसा तस्स उत्तारो ॥३॥ तम्हा आयारपरक्कमेणं, संवरसमा हिबदुलेां ॥ चरित्रा गुणा अ नियमा, अ डुंति साहूए दवा ॥ ४ ॥ निए वासो समुाणचरित्रा, अन्नायनंनं पय रिक्कया ॥ 11 पोवही कलहविवणा, विहारचरित्रा इसिणं पसत्था ॥ ५ ॥ श्रन्न माविवका अ, उसन्नदिवाहनत्तपाणे ॥ संसडकष्पेण चरिक निरकू, तकायसंसह जई जड़का ॥ ६ ॥ अममंसासि मछरीच्या, निरकणं निविगई गया ॥ नरक का सग्गकारी, सनायजोगे पय हविका ॥ ए पडिन्नविकासयासणाई, सिद्धं निसिक तह उत्तपाणं ॥ गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं पि कुका ॥ ८ ॥ गोवेव न कुजा, अनिवायणवंदपूणं वा ॥ असंकिलिहिं समं सविता, मुणी चरित्तस्स जर्ज न हाणी ॥ ए ॥ या वनेका निजणं सहायं, गुणाहि वा गुणजे समं वा ॥ इक्को वि पावा विवयंतो, विहरित कामेसु असऊमाणो ॥ १० ॥ ९१ 1 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्श् राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. संबन्चरं वा वि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिजा ॥ सुत्तस्स मग्गेण चरिङ निरकू, सुत्तस्स अत्यो जह आणवे ॥११॥ जो पुवरत्तावररत्तकाले, संपिरका अप्पगमप्पगेणं ॥ किं मे कडं किच्चमकिच्चसेस, किं सक्कणि न समायरामि ॥ १२ ॥ किं भे परो पास किंच अप्पा, किं वाहं खलिअं न विवजयामि ॥ इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥ १३ ॥ जत्येव पासे कर उप्पलत्तं, काएण वाया अ5 माणसेणं ॥ तत्थेव धीरो पमिसाहरिजा, आइन्न खिप्पमिव खलीणं ॥ १४ ॥ जस्से रिसा जोग जिइदिअस्स, धिश्म सप्पुरिसस्स निचं ॥ . तमाहु लोए पमिबुद्धजीवी, सो जीअ संजमजीविएणं ॥ १५ ॥ अप्पा खलु सर पर ररिकअबो, सविंदिएहिं सुसमाहिएहिं ॥ अररिक जाइपहं मवेश, सुररिकर्ड सबउहाण मुच्च॥ त्तिबेमि ॥ १६॥ ॥ इति विवित्तचरिआ बीआ चूला सम्मत्ता ॥२॥ ॥ दसवेआलियं मूलसुत्तं संमत्तं ॥ हीनपुण्या न पश्यंति, रागांधास्तत्वसंस्थितिम् ॥ लाजेऽलानफलं चैव, वनंते ते नराधमाः ॥ १॥ LOSARE 8066666000 9000000000000000000000000000000000 ॥समाप्तं चेदं श्री दशवैकालिकं सूत्रं टीका अवचूरि दीपिका नापा मूलसहितं गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् ॥ ॥श्रीरस्तु ॥ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ राय धनपतसिंघ बढाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. ततःप्रजाः॥ इति गाथार्थः । अधुनैतत्परिहारायेदमाह ॥ किं पुस्तिकं जायर, जय एवं अह नवे पुरिहं तु ॥ किं जायश् सबबा, उप्तिकं अह नवे दो ॥ १५ ॥ वास तो किं विग्धं, निग्घायाहिं जायए तस्स ॥ अहवा स उजसमए, न वासई उ तणहाए ॥ १६ ॥ व्याख्या ॥ मुनिदं जायते यद्येवंम् । कोऽनिप्रायः । तझविः सदा इयत एव । ततश्च कारणाविछेदे न कार्यविछेदो युक्त इति । अथ नवेदुरिष्टं तु उनदत्रं उर्यजनं वा ।अत्राप्युत्तरम्। किं जायते सर्वत्र मुर्निदं नदत्रस्य छरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्सदैव सद्यज्वनां नावात् । उक्तं च ॥ सदैव देवाः सजावो ब्राह्मणाश्च क्रियापराः।यतयः साधवश्चैव विद्यन्ते स्थितिदेतवः ॥ इत्यादि । अथ नवेदिन्द इति। किम् । वर्षति । ततः किं विनोऽन्तरायो निर्घातादिनिर्जायते । आदिशब्दादिग्दाहादिपरिग्रहः । तस्येन्द्रस्य परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विनानुपपत्तेरिति जावना । अथ वर्षतिशतसमये गर्नसंघात इति वाक्यशेषः । न वर्षति ततस्तृणार्थ तस्येवमजिसन्धेरनावादिति गाथाघ्यार्थः ॥ किं च उमा पुप्फंति, नमराणं कारणा अहासमयं ॥ मा जमरमहुयरिगणा, किलामएद्या अणाहारा ॥ १७ ॥ व्याख्या ॥ किंच सुमाः पुष्प्य.न्ति उमराणां कारणात्कारणेन यथासमयं यथाकालं मा ब्रमरमधुकरीगणाः क्लामन् ग्लानिं प्रतिपद्येरन् । अनाहारा अविद्यमानाहाराः सन्तः । काका नैवैतदिबमिति गाथार्थः । सांप्रतं परानिप्रायमाहाकस्स ३ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावश्णा॥ सत्ताणं तेण उमा, पुप्फंती महुयरिंगणहा ॥ १७॥ व्याख्या ॥ अथ कस्य चिहुद्धिः कस्य चिदनिप्रायः स्याघडत एषा वृत्तिरुपकल्पिता। केन।प्रजापतिना।केषाम्।सत्त्वानां प्राणिनां तेन कारणेन सुमाः पुष्प्यन्ति मधुकरीगणार्थमेवेति गाथार्थः। अत्रोत्तरमाह॥ तं न जव जेण कुमा, नामागोयस्स पुत्वविहियस्स॥उदयेणं पुप्फफलं, निवत्तती श्मं . चन्नं ॥१०॥ व्याख्या। यमुक्तं परेण तन्न नवति कुत इत्याह। येन दुमा नामगोत्रस्य . कर्मणः पूर्वविहितस्य जन्मान्तरोपात्तस्य उदयेन विपाकानुजवलक्षणेन पुष्पफलं निर्वतयन्ति कुर्वन्ति । अन्यथा सदैव तनावप्रसङ्ग इति नावनीयम्।इदं चान्यत्कारणं वदय- . माणमिति गाथार्थः।अनि बहू-वणसंडा, जमरा जब न उति न वसंति॥तब वि पुप्फंति उमा, पगई एसा उमगणाणं ॥ ११॥ व्याख्या ॥ सन्ति बदनि वनखण्मानि तेषु तेषु स्थानेषु.। चमरा यत्र नोपयान्ति । अन्यत् न वसन्ति । तेष्वेव तथापि पुष्प्यन्ति . पुमाः । अतः प्रकृतिरेषा स्वताव एषां सुमगणानामिति गाथार्थः । अत्राह ॥ जश्पगई कीस पुणो, सवं कालं न देंति पुप्फफलं ॥ जं काले पुप्फफलं, दियंति गुरुराह अह एवं ॥ १११॥ व्याख्या ॥ यदि प्रकृतिः। किमिति पुनः सर्वकालं न ददति न प्रयन्ति । किम् । पुष्पफलम् । एवमाशङ्कयाह । यद्यस्मात्काले नियत एव पुष्प. Page #749 --------------------------------------------------------------------------  Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ६.३. फलं ददति । गुरुराह । अतएवास्मादेव देतोः ॥ पगई एस डुमाएं, जं उउसमय म्मि गए संते ॥ पुष्ति पायवगणा, फलं च काले बंधति ॥ ११२ ॥ व्याख्या ॥ प्रकृतिरेषा द्रुमाणां यहतुसमये वसन्तादावागते सति पुष्पयन्ति पादपगणां वृक्षसंघातास्तथा फलं च कालेन बनन्ति । तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथा - द्वयार्थः । सांप्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्थयोजनां कुर्वन्नाह । किं नु गिही रंधंती, समणाणं कारणा अहासमयं ॥ मा समणा जगवंतो, किलामद्या अणाहारा ॥ ११३ ॥ व्याख्या ॥ किं नु गृहिणो राध्यन्ति पाकं निर्वर्तयन्ति श्रमणानां कारणेन यथाकालं मा श्रमणा जगवन्तः क्वामन्ननाहारा इति । पूर्ववदिति गाथार्थः । नचैतदिचमित्यनिप्रायः । अत्राह ॥ समणणुकंप निमित्तं पुष्ा निमित्तं च गिनिवासी ॥ कोइ नद्या पागं करेंति सो जन्नइ न जन्हा ॥ ११४ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तम् । न ह्येते हिरण्यग्रहणादिना श्रस्माकमनुकम्पां कुर्वन्तीति मत्वा निक्षादानार्थं पाकं निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तं तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव कश्चियात्पाकं कुर्वन्ति । स जयते नैतदेवम् । कुतः । यस्मात् ॥ कंतारे निरके, आयंके वा महइ समुप्पने ॥ रत्तिं समणसुविहिया, सव्वाहारं न जुंजंति ॥ ११५ ॥ व्याख्या ॥ कान्तारेऽरण्यादौ पुनिhsarai ने वा ज्वरादौ महति समुत्पन्ने सति रात्रौ श्रमणाः सुविहिताः शोजनानुष्ठानाः । किम् । सर्वाहारमोदनादि न भुञ्जते ॥ श्रह कीस पुण गिबा, रत्ति आयरतरेण रंधंति ॥ समणेहिं सुविहिएहिं चजविहाहारविरंएहिं ॥ ११६ ॥ व्याख्या ॥ • किमिति पुनर्गृहस्थाः तत्रापि रात्रौ आदरतरेणात्यादरेण राध्यन्ति श्रमणैः सुविहितैश्चतुर्विधाहारविरतैः सद्भिरिति गायात्रार्थः ॥ किं च । अवि बहुगामनगरा, समा जब नवेंति न वसंति ॥ तब वि रंधति गिही, पगई एसा गिबाणं ॥ ११७ ॥ व्याख्या ॥ सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु श्रमणाः साधवो यत्र नोपयान्ति अन्यतो न वसन्ति तत्रैव । अथ च तत्रापि राध्यन्ति गृहिणः । अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः । अमुमेवार्थं स्पष्टयन्नाह | पगई एस गिहीणं, जं गिहिणो गा: मनगर निगमेसु ॥ रंवंति अप्पो परि-यणस्स काले हाए ॥ ११ ॥ व्याख्या ॥ प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते । यमृहिणो ग्रामनगर निगमेषु । निगमः स्थानविशेषः । राध्यन्ति श्रात्मनः परिजनस्यार्थाय निमित्तं कालेनेति योग इति गाथार्थः ॥ तब सम णा तवस्सी, परकड पर निहियं विगयधूमं ॥ आहारं एसंती, जोगाणं साहपठाए ॥ ॥ ११९॥ व्याख्या ॥ तत्र श्रमणास्तपखिन इत्युद्यतविहारिणो नेतरे । परकृत पर निष्ठितमिति । कोऽर्थः परार्थं कृतमारब्धं परार्थं च निष्ठितमन्तं गतं विगतधूमं धूमर हिम् । ए 1 3 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ राय धनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. कग्रहणे तजातीयग्रहणमिति न्यायाद्विगताङ्गारं च रागद्वेषमन्तरेणेत्यर्थः। उक्तं च । रागेण सगालं दोसेण सधूमगं वियाणा हि ॥ श्राहारमोदना दिलक्षणमेषन्ते गवयन्ते । किमर्थमत्रा | योगानां मनोयोगादीनां संयमयोगानां वा साधनार्थं न तु वर्णाद्यर्थमिति गाथार्थः ॥ नवकोडी परिसुद्धं, उग्गमडप्पायणेसणासुद्धं । वहाणरकण्डा, अहिंसाणुपाल पठाए ॥१२०॥ व्याख्या ॥ इयं च किल निन्नकर्तृकी । अस्या व्याख्या । नवकोटिपरिशुद्धम् । तत्रैता नवकोट्यः । यत ए हाइ १ हणावे २ हणंतं ना जाएइ ३ एवं न. किणइ ३ एवं न पयइ ३ एतानिः परिशुद्धं तथा उगमोत्पादनैषणा शुद्ध मित्येतद्वस्तुतः सकलोपाधि विशुद्ध को टिख्यापनमेव । एवंभूतमपि किमर्थं जुञ्जते । पट्स्थानरक्षणार्थम् । तानि चामूनि ॥वेयवेयावच्चे, इरियहाए य संजमहाए ॥ तह पाए वित्तियाए, बहं पुष धम्मचिंताए ॥ मून्यपि च जवान्तरे प्रशस्तजावनाच्यासादहिं सानुपालनार्थम् । तथा चाह । नाहारत्यागतो जावितमतेर्देहत्यागो नवान्तरेऽप्यहिंसाये जवतीति गा थार्थः ॥ दितसुद्धि एसा, उवसंहारो य सुत्तनिदिधो ॥ संती विद्यति त्तिय, संतिं सिद्धिं च सार्हेति ॥ १२१ ॥ व्याख्या ॥ दृष्टान्तशुद्धिरेषा प्रतिपादिता । उपसंहारस्तु उपनयस्तु सूत्रनिर्दिष्टः सूत्रोक्तः । तच्चेदं सूत्रम् । 'एमेए समणा' इत्यादि अस्य व्याख्या ॥ एवमनेन प्रकारेण एते येऽधिकृताः प्रत्यदेष वा परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते । श्राम्यन्तीति श्रमणाः। तपस्यन्तीत्यर्थः । एते च तन्त्रान्तरीया अपि जवन्ति । यथोक्तम् ॥ निग्गंथसक्कतावस - गेरू य जीव पंचहा समणा ॥ त ह । मुक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन ये लोकेऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणे सन्ति विद्यन्ते । अनेन समयदेत्रे सदैव विद्यन्त इत्यत आह । साधयन्तीति साधवः । किं साधयन्ति । ज्ञानादीति गम्यते । अत्राह । ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम् । अत्रोच्यते । इह व्यवहारेण निहवा अपि मुक्ता जवन्त्येव । न च ते साधव इति तद्व्यवच्छेदार्थत्वान्न दोषः । यह । नच ते सदैव सन्तीत्यनेनैव व्यवच्छिन्ना इत्युच्यते । वर्तमानतीर्थापेक्षयैवेदं सू त्रमिति न दोषः । अथवान्यथा व्याख्यायते । ये लोके सन्ति साधव इत्यत्र य इत्युदेशः । लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र । किम् । शान्तिः सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति शान्तिसाधवः । तथा चोक्तं निर्युक्तिकारेण । संती विद्यतित्तिय, संतिं सिद्धिं च सार्हेति ॥ इदं व्याख्यातमेव । विहंगमा इव चमरा इव पुष्पेषु । किम्। दाननक्तैषणासुरताः दानग्रहणाद्दत्तं गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्तग्रहणेन तदपि नक्तं प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि । एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रहः । तेषु स्थानेषु सक्ता इति सूत्रसमासार्थः । अवयवार्थ सूत्रस्पर्शक नियुक्त्या प्रतिपादयति । यत्रापि च विहंगमं व्याचष्टे । सद्विविधः । द्रव्यविहंगमो नाव विहंगमश्च । तत्र तावद्द्रव्यविहंगमं प्रतिपादय Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ६५ I न्नाह ॥ धारे तं तु दवं, दव विहंगमं वियाणा हि ॥ जावे विहंगमो पुण, गुणसन्ना सिडि विहो ॥१२२॥ व्याख्या ॥ धारयत्यात्मनि लीनं धत्ते तत्तु द्रव्यमित्यनेन पूर्वोपात्तं कर्म निर्दिशति । येन हेतुभूतेन विहंगमेषूत्पत्स्यत इति । तुशब्द एवकारार्थः । अ स्थानप्रयुक्तश्चैवं तु द्रष्टव्यः । धारयत्येव । अनेन च धारयत्येव यदा तदा द्रव्यविहंगमो जवति । नोपभुङ्ग इत्येतदावेदितं जवति । द्रव्यमिति चात्र कर्मपुङ्गलद्रव्यं गृह्यते । न पुनराकाशादि तस्यामूर्तत्वेन धारणायोगात् । संसारिजीवस्य च कथं चिन्मूर्तत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगित्वात् । तथा हि यदसौ जवान्तरं नेतुमलं यच्च विहंगमहेतुतां प्रतिपद्यते । तदत्र प्रकृतं नचैवमन्यः संसारी जीव इति । तं द्रव्य विहंगम मित्यत्र यत्तदोर्नित्या जिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते । धारयत्येव तद्द्रव्यं यस्तं द्रव्य विहंगममिति । द्रव्यं च तद्विहंगमञ्च स इति द्रव्यविहंगमः । द्रव्यं जीवद्रव्यमेव । विहंगमपर्यायेणावर्तना विहंगमस्तु कारणे कार्योपचारादिति तं विजानीहि । श्रनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञातानुपयुक्त इत्येवमादि निर्जानीहि । नाव विहंगम इत्यत्रायं जावशब्दो बह्वर्थः । कचिद्द्रव्यवाचकस्तद्यथा ॥ नास मुवि जावस्स सद्दो हवइ केवलो ॥ जावस्य द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते । कचिबुक्कादिष्वपि वर्तते । "जं जं जे जे नावे परिणम" इत्यादि । यान् शुक्लादीन् जावान् इति गम्यते । क्वचिदौदयिका दिष्वपि वर्तते । यथा “उदश्वसमिए” इत्याद्युक्त्वा बविहो जावलोगो छ । औौद विकादय एव जावा लोक्य-मानत्वाङ्गावलोक इति । तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौद यिका दिष्वेव वर्तमान इह गृहीत इति । नवनं जावः । जवन्त्यस्मिन्निति वा जावः । तस्मिन् जावे कर्मविपाकलक्षणे । किम् | विहंगमो वक्ष्यमाणशब्दार्थः । पुनः शब्दो विशेषणे । न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः । किंतु स एव जीवस्त एव पुलास्तथाभूता इति विशेषयति । गुणश्च संज्ञा च गुणसंज्ञे । गुणोऽन्वर्थः । संज्ञा पारिभाषिकी । ताभ्यां सिद्धिः गुणसंज्ञा सिद्धिः । सिद्धिशब्दः संवन्धवाचकः । तथा च लोकेऽपि " सिद्धिर्भवतु ” इत्युक्ते इष्टार्थ संबन्ध एव प्रतीयत इति । तया गुणसंज्ञा सिद्ध्या हेतुभूतया । किम् । द्विविधो द्विप्रकारः । गुण सिद्ध्यान्वर्यसंबन्धे तथा संज्ञा सिया च यदृच्छा निधानयोगेन च । आह । यद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम् । गुणसंज्ञा सिद्धयेत्यनेनैव द्वैविध्यस्य च गतत्वात् । न । अनेनैव प्रकारेणेह द्वैविध्यमाग - मनोयागमा दिनेनेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः । तत्र यथोद्देशं निर्देश इत्यादिन्यायमाश्रित्य गुण सिख्या यो नाव विहंगमस्तमनिधित्सुराह ॥ विहमांगासं नन्न, गुणसिद्धी तप्प हि लोगो ॥ तेण जं विहंगमो सो, जावो वा गई दुविहा ॥ १२३ ॥ व्याख्या ॥ विजहाति विमुञ्चति जीवपुलानिति विदं ते हि स्थितिक्षयात्स्वयमेव तेज्य श्राकाशप्रदेशेभ्यश्चयवन्ते । तां यवमानान्विमुञ्चतीति । शरीरमपि च मलगएकोलका दि S Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३)- मा. विमुञ्चत्येव । मानूत्संदेह इत्यत आह । आकाशं जयते न शरीरादि संज्ञाशब्दत्वात् । 1 काशन्ते दीप्यन्ते स्वधर्मोपेता च्यात्मादयो यत्र तदाकाशम् । किम् । संतिष्ठत इत्यादि । क्रियाव्यपोहार्थमाह । जयते श्राख्यायते । गुण सिद्धिरित्येतत्पदं गाथानङ्गजयादस्थाने प्रयुक्तम्। संबन्धश्चास्य 'तेन तु विहंगमः स ' इत्यत्र तेन खित्यनेन सह वेदितव्य इति । ततश्चायं वाक्यार्थः । तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वाद्येन विहमाकारां जयते तेनैव कारणेन गुण सिळ्यान्वर्यसंबन्धेन विहंगमः । कोऽनिधीयत इत्याह । तत्प्रतिष्ठितो लोकः । तदित्यनेनाकाशपरामर्शः । तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितः प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः । अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते । कोऽसावित्थमित्यत श्राह । लोक्यत इति लोकः । केवलज्ञाननास्वता दृश्यत इत्यर्थः । इह च धर्मादिपञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्याधारत्वेन निर्दिष्टत्वाच्चत्वार वास्तिकाया गृह्यन्ते । यतो निर्युक्तिकारेणान्यधायि । तत्प्रतिष्ठितो लोक इति । विहंगमः स इत्यत्र विहे ननसि गतो गछति गमिष्यति चेति विहंगमः । गमिरयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्तते । ततश्च विहे स्थितवांस्तिष्ठति स्थास्यति चेति नावार्थः । स इति चतुरस्तिकायात्मकः । जावार्थ इति जावश्चासावर्थच जावार्थः । अयं जावविहंगम इत्यर्थः । उक्त एकेन प्रकारेण जावविहंगमः । पुनरपि सिद्धिमनेन प्रकारेणानिधातुकाम आह । वा गतिर्द्विविधेति । वा शब्दस्य व्यवहित उपन्यास एवं तु द्रष्टव्यः । गतिर्वा द्विविधेति । तत्र गमनं गछति वानयेति गतिः । द्वे विधेयस्याः सेयं द्विविधा | द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः । तथाचेदमेव हैविध्यमुपदर्शयन्नाह ॥ जावगई कम्मगई, जावगई पप्प अधिकाया ॥ विहंगमा खलु कम्मगईए इमे नेया ॥ १२४ ॥ व्याख्या ॥ जवन्ति जविष्यन्ति नूतवन्तश्चेति जावाः । श्रथवा जवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमनौव्याख्याः परिणाम विशेषा इति नावा अस्तिकायास्तेषां गतिस्तथा परिणामवृत्तिर्नावगतिः । तथा कगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्म ज्ञानावरणादि पारिभाषिकम् । क्रिया वा कर्म च ततिश्चासौ कर्मगतिः । गमनं गच्छत्यनया वेति गतिस्तत्र जावगतिं प्राप्य यस्तिका - या स्त्वित्यत्र जावगतिः पूर्ववत्तां प्राप्यान्युपगम्याश्रित्य । किम् । अस्तिकायास्तु धर्मादयः । तुशब्द एवकारार्थः । स चावधारणे । तस्य च व्यवहितः प्रयोगः । नावगतिमेव प्राप्य न पुनः कर्मगतिं सर्वे विहंगमाः खलु सर्वे चत्वारः नाकाशमाधारत्वात् । विहंगमा इति । विहं गढ़न्त्यत्यवतिष्ठन्ते सत्तां विचतीति विहंगमाः । खलुशब्दोऽवधारणे। विहूंगमा एव न कदाचिन्न विहंगमा इति । कर्मगतेः प्राग्निरूपितशब्दार्थायाः । किम् । इमौ दौ वदयमाणलक्षणाविति गाथार्थः । तावेवोपदर्शयन्नाह ॥ विहगगई चल गई, क 1 " Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। ६७ म्मगर्ल समास उविहा । तउदयवेययजीवा, विहंगमा पप्प विहगगई ॥ १२५ ॥ ॥ व्याख्या ॥ इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिनिरिति गतिः । विहायस्याकाशे गतिविहायोगतिः कर्मप्रकृतिरित्यर्थः । तथा चलनगतिरिति । चलिः रयं परिस्पन्दने वर्तते । चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः । चलनं च तमतिश्च सा चलनंगतिर्गमनक्रियेतिनावः। कर्मगतिस्तु समासतो हिविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः। स चावधारणे।कर्मगतिरेव द्विविधा न नावगतिस्तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात् । तत्र तउदयवेदकजीवा इत्यत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगतिं निर्दिशति। तस्या विहायोगतेरुदयस्तउदयो विपाक इत्यर्थः । तथा वेदयन्ति निर्जरयन्ति उपन्जुञ्जन्तीति वेदः कास्तमुदयस्य वेदकाश्च ते जीवाश्चेति समासः।आह । तदयवेदका जीवा एव नवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्। नाजीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफलत्वात्।अवेदकाश्च सिझा इति। विहंगमाः प्राप्यविहायोगतिमित्यत्र विहे विहायोगतरुदयाउनबन्तीति विहंगमाः। प्राप्याश्रित्योकिं प्राप्य। विहायोगतिम् । विहायोगतिरुक्ता ताम् । विपर्यस्तान्यवराण्येवं तु अष्टव्यानि । विहायोगति प्राप्य तऽदयवेदकजीवा विहंगमा इति गाथार्थः । अधुनाः द्वितीयकर्मगतिनेदमधिकृत्याह ॥ चलणंकम्मग : खलु, पमुच्च संसारिणो नवे जीवा ॥ पोग्गलदवाई वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी॥१६॥ व्याख्या। चलनं स्पंदनं तेन कर्मगतिर्विशेष्यते। कथम्। चलनाख्या या कर्मगतिः। सा चलनक मंगतिः। एतदुक्तं नवति।कर्मशब्देन क्रियानिधीयते। सैव गतिशब्देन। सैव चलनशब्देन च। तत्र गतेविशेषणं क्रिया। क्रियाविशेषणं चलनम्। कुतः व्यभिचारादिह गतिस्तावन्नरकादिका जवति।अतः क्रिया विशेष्यते। क्रियाप्यनेकरूपा जोजनादिका। ततश्चलनेन विशेष्यते। अतश्चलनाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्तामनुस्वारोऽलादणिकः। खबुशब्द एवकारार्थः । स चावधारणे । चलनकर्मगतिमेव न विहायोगतिं प्रतीत्याश्रित्य । किम्। संसरणं संसारः। संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं स एषामस्तीति संसारिणः । अनेन सिद्धानां व्युदासः । जवे इत्ययं शब्दो नवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्तः। जीवा उपयोगादिलक्षणाः । ततश्चायं वाक्यार्थः । चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो नवेयुर्जीवा विहंगमा इति। विहं गबन्ति चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशैरिति विहंगमाः । तथा पुजलऽध्याणि वेत्यादिपूरणगलनधर्माणः पुजलाः। पुजलाश्च ते अव्याणि च तानि पुजलजव्याणि । अव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम् । तथा चैते पुजलाः कैश्चिद व्याः सन्तोऽज्युपगम्यन्ते । 'सर्वे जावा निरात्मानः' इत्यादिवचनादतः पुजलानां परमार्थसडूपताख्यापनार्थ अव्यग्रहणम् । वाशब्दो विकल्पवाची । पुजलव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहंगमा इति। तत्र जीवानधिकृत्यान्वर्थो Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. निदर्शितः। पुजलास्तु विहं गबन्तीति विहंगमास्तत्र गमनमेषां स्वतः परतश्च संजवत्यत्र खतः परिगृह्यते । विहंगमा इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया चोक्तमन्यथा अव्यपदे विहंगमानीति वक्तव्यम् । एष नावविहंगमः । कथम् । गुण सिध्यान्वर्थसंबन्धेन । प्राकृतशैल्या चान्यथोपन्यास इति गाथार्थः । एवं गुण सिध्या नावविहंगम उक्तः। सांप्रतं संज्ञा सिध्या अनिधातुकाम आह ॥ सन्नासिकिं पप्पा, विहंगमा होति परिकणो सवे॥ श्हरं पुण अहिगारो, विहासगमणेहिं नमरेहिं ॥१२॥व्याख्या॥ संझानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः । तया सिद्धिः संझासिद्धिः संज्ञासंवन्ध इति यावत् । तां संज्ञा सिद्धिं प्राप्याश्रित्य । किम् । विहे गवन्तीति विहंगमा नवन्ति । के। पदा येषां सन्ति ते पक्षिणः । सर्वे समस्ता हंसादयः । पुजलादीनां विहंगमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात् । श्वमनेकप्रकारं विहंगममनिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति ।ह सूत्रे । पुनःशब्दोऽवधारणे । इहैव नान्यत्राधिकारः प्रस्तावः प्रयोजनम्।कैरित्याह । विहायोगमनैराकाशगमनैर्ऋमरैः षट्पदैरिति गाथार्थः॥ दाणेत्ति दत्तगिण्हण-नत्ते नज सेव फासुगेण्हणया॥ एसणतिगंमि निरया, जवसंहारस्स सुधि श्मा ॥ १० ॥ व्याख्या ॥ दानेति । सूत्रे दानग्रहणं दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम् । दत्तमेव गृह्णन्ति नादत्तम् । नक्त इति नक्तग्रहणं “जज सेवायाम्" इत्यस्य निष्ठान्तस्य नवति।अर्थश्चास्य प्रासुकग्रहणं प्रासुकमाधाकर्मादिरहितं गृह्णन्ति नेतरदिति। एसणत्ति । एषणाग्रहणम् । एषणात्रितये गवेषणादिलक्षणे निरताः सक्ताः। उपसंहारस्योपनयस्य शुकिरियं वक्ष्यमाणलक्षणे तिगाथार्थः॥अविनमरसहयरिगणा, अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं ॥ समणा पुण जगवंतो, नादिन्नं नोत्तु मिति ॥ श्ए ॥ व्याख्या ॥ अपि चमरमधुकरीग्रहण मिहापि स्त्रीसंग्रहणार्थं जातिसंग्रहार्थ मिति चान्ये । अविदत्तं संत। किम् । आपिबन्ति कुसुमरसं कुसुमासवम् । श्रमणाः पुनर्जगवन्तो नादत्तं लोक्तु मिलन्तीति विशेषः । इति गाथार्थः । सांप्रतं सूत्रेणैवोपसंहार विशुद्धिरुच्यते । कश्चिदाह । दाणनत्तेसणे रया इत्युक्तम् । यत एवमतएव लोको नत्याकृष्टमानसस्तेन्यः प्रयबत्याधाकर्मादि । अस्य ग्रहणे सत्वोपरोधः। अग्रहणे स्ववृत्त्यलान इत्यत्रोच्यते । वयं चेत्यादिसूत्रम्। वयं च वित्तिं लनामो, नय को नवदम्म॥ अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु नमरा जहा ॥४॥ (अवचूरिः।) लप्स्यामः प्राप्स्यामः । यथा न कश्चिउपहन्यते । यथाकृतेषु गृहस्थैः स्वार्थं कृतेषु रीयन्ते गडन्ति ॥ ४ ॥ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । (अर्थ.) अहिं को केहशे के, 'दाणजसणेरया' जो एमज ने तो श्रावकलोको नक्तिथी श्राकृष्टचित्त थश्ने ते साधुजने आधाकर्मादिदोषयुक्त दान आपे, अने जो साधुलीये तो जीवहिंसा थाय अने वली जो न लीये तो खदेहनुं धारण थाय नहीं, तो त्यां कहे . (वयं च के०) अमे अहीं चकार जे , ते पादपूरणार्थ . (वित्तिं के) वृत्तिं एटले आहारादिक वृत्तिने (लनामो के०) लप्स्यामः एटले तेवी रीतें पामशं. के जेम (को के०) कश्चित् एटले बकायजीवयोनिमांहे को पण जीव (ण य उवहम्मर के०) नच उपहन्यते एटले विराधित थाय नहीं, संघट्टनादि पीडा पामे नहीं. एम साधु चिंतवे. एतावता शुं सिद्ध ययुं के, साधु जे , ते (पुप्फेसु नमरा जहा के) पुष्पेषु चमरा यथा एटले पुष्पने विषे जेम उमरो वर्ने बे, तेम (अहा गडेसु के०) यथाकृतेषु एटले गृहस्थलोकोयें पोताने माटे करेला आहारादिकने विषे र्यासमिति आदि पाळता थका (रीयंते के०) गति एटले जाय विचरे ने इत्यर्थ ॥४॥ ___ (दीपिका) अत्र कोऽप्याह । ननु साधवो दाननतैषणे रता इत्युक्तम् । यतश्चैवं तत एव लोको नक्त्या आकृष्टचित्तः तेन्यः साधुन्यः आधाकर्मादि ददाति । तस्य ग्रहणे जीवानां हिंसा स्यात् । आहारस्य अग्रहणे तु स्ववृत्तेरलानेन स्वदेहधारणं न स्यात्। अत्रोच्यते । वयमिति । वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा । यथा न कोऽपि उपहन्यते । तथा यथाकृतेषु गृहस्थैः आत्मार्थं निष्पादितेषु आहारादिषु साधवः रीयन्ते गडन्ति पुष्पेषु यथा नमराः॥४॥ (टीका) अस्य व्याख्या । वयं च वृत्तिं लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा । यथा न कश्चि. उपहन्यते । वर्तमानैष्यत्कालोपन्यासस्त्रैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः । तथा चैते साधवः सर्वकालमेव यथाकृतेषु आत्मार्थमन्निनिर्वर्तितेष्वाहारादिषु रीयन्ते गडन्ति वर्तन्ते श्त्यर्थः। पुष्पेषु जमरा यथा । इत्येतब पूर्व नावितमेवेति सूत्रार्थः ॥४॥ यतश्चैवमतो . महुगारसमेत्यादि सूत्रम् ।। मदुगारसमा बुझा, जे नवंति अपिस्सिया ॥ नाणापिमरया दंता, तेण वुचंति साहुणो॥त्ति वेमि ॥५॥ पुफियतयणं संमत्तं ॥१॥ (श्रवचूरिः) मधुकरसमा अधिगततत्त्वा जवन्ति मन्ति वा अनिश्रिताः कुलादिप्वप्रतिवझा इत्यर्थः । अनिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमदपाल्पग्रहणाच नाना पिएडरताः । Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, जाग तेतालीस-(५३)-मा. दान्ता इन्द्रियदमनेनोच्यन्ते । श्तश्च मरसाधूनां नानात्वं ज्ञेयम् ॥५॥ इति परिसमाप्तौ । ब्रवीमि न स्वमनीषिकया। किंतु तीर्थकरगणधरोपदेशेनेति । इत्यवचूरिकायां सुमपुष्पिकाध्ययनं प्रथमम् ॥ १॥ :- (अर्थ.) पूर्वोक्तरीतें (महुगारसमा के०) मधुकारसमाः एटले जमरसरखा (बु का के ) धर्माधर्मादितत्त्वना जाण, तथा (जे के० ) ये एटले जे (अणि स्सिया के ) अनिश्रिताः एटले कुलादिकना प्रतिबंधयी रहित अर्थात् साधुए एम नहीं केह के, हुं अमुकनाज घरनो आहार लश्श. अथवा एज जातनो आहार लश्श. तथा ज्ञात कुलने विषे पण आहार लिये नहीं, अथवा शास्त्र नणावी, धर्मोपदेश करी तेने घेर आहार लिये नहीं. कारण के, एम करे तो ते गृहस्थ उपकारी जाणीने सरस मधुर आहार आपे, तेथी अप्राशुक, तथा आधाकर्मथी अने उपदेशकपणें आहार लेवानो दोष लागे,माटे जे ठेकाणे पोताने कोइ जाणे नहीं एवा अज्ञात कुलने विष नीरस, निस्तेज एवो आहार साधु लिये जे. तथा ( नानापिंगरया के) नानापिंकरताः एटले प्राशुक आहार जे लेवानो ते एक ठेकाणें न लेतां अनेक घरना जे नानापिंड ते विविधप्रकारना अन्नना ग्रासो तेने विषे रक्त एटले आसक्त अने (दंता के०) दांताः एटले जीत्यां ने पांच इंजियो जेमणे एवा साधु होय बे, (तेण के०) तेन एटले ते कारण माटेज ते (साहणो के०) साध्नवंति मुक्तिं अहिंसादिनिस्ते साधवः एटले अहिंसा दिलदण धर्मने निरतिचार पणे पालन करीने जे मुक्तिनुं साधन करे , तेमने साधु ए प्रकारें ( वुच्चंति के) उच्यते एटले केहवाय जे. (त्ति बेमि के०) इति ब्रवीमि एटले एम हुँ तीर्थकरना उपदेशथी कडं.. एम सांजवाचार्य पोताना पुत्र मनकने कहे ॥५॥ अहीं उमपुष्पिकानामक प्रथम अध्ययन पूरुं थयु. एमां अमपुष्प अने भ्रमरना दृष्टांतथी साधुनी आहारचर्याकथनपूर्वक धर्मप्रशंसा कही, ए कारणथी ए अध्ययनसुमपुष्पिका एq नाम पाडेलु जे. हवे आ इमपुष्पिका नामक प्रथमाध्ययनमां धर्मप्रशंसा जे , ते प्रतिपाद्यविषय बे, अने ए, दशवैकालिक शास्त्रनुं आदि मंगलरूप , तथा आ शास्त्रमा प्रतिपाद्य जे यतिचर्या ते सर्वधर्ममूल बे, माटे ए अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही. अने धर्म, जे लक्षण ते तो घणा विस्तारसहित शास्त्रमा अनेक स्थडे कयुं बे, तेथी अहिं कडं नथी जो ते अहिं कहियें तो घणो विस्तार थाय, माटे सामान्यथीज धर्मनुं लक्षण कबुंडे के ‘आप्तवचनं धर्मः' आप्त एटले रागादिकना अनावथी जे अप्रतारक तेनेज आप्त कहिये, अने एवा तो मात्र एक वीतरागज बे.. तेमनुं जे वचन Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम्। तेज धर्म जाणवो. कहेलु बे केः- "आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषदयाद्विः ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूया त्वन्नावतः॥१॥” इति. माटे धर्म जे जे ते जिनप्रणीत थाम्नायमांज जाणवो, कपिलादिप्रणीत शास्त्रमा नथी. कारण के, ते शास्त्रोना कर्ता श्राप्त नयी. एवा. केव विनाषित खधर्मना अनतिचारपणे पालन करनारा साधुऊनी निदाचर्या जे संक्षिप्त प्रकारें अध्ययनमां कही, ते पण धर्ममूल डे तेथी आ अध्ययनमां पण धर्मप्रशंसाज करी, एम जाणवू. इत्यलं विस्तरेण ॥५॥ · श्रा प्रकारे प्रथम अमपुष्पिकानामा अध्ययननो बालावबोध संपूर्ण थयो ॥१॥ (दीपिका) अथ येन कारणेन साधवस्तथा चाह । यतत्रैवमतस्ते मधुकरसमा ब्रमरतुव्याः साधवः।पुनः किंनूताः।बुद्धा ज्ञाततत्त्वाः। एवंजूता ये नवन्ति ब्रमन्ति वा। पुनः किंजूताः।अनिश्रिताःकुलादिष्वप्रतिबद्धाः।पुनःकिं नूताः । नानापिएकरताः। नाना नानाप्रकारोऽनिगृह विशेषात् प्रतिग्रहमब्याल्पग्रहणाच पिणा आहारादिः अन्तप्रान्तादि । तस्मिन् नानापिएमे रता उठेगं विना स्थिताः।पुनः किंजूताः। दान्ता इन्डियनोश्जियदमनेन उपलक्षणत्वात् श्या दिसमिताश्च । ततश्चायमर्थः। यथा चमरोपमया एषणासमितौ यतन्ते तथा र्यादिष्वपि त्रसस्थावरजूतहितं यतन्ते तेन साधवः पर मार्थतः साधव उच्यन्ते । इतिशब्दः समाप्तौ । ब्रवीमि अहं परं न स्वबुद्ध्या किंतु .. तीर्थकरगणधराणामुपदेशेन ॥५॥ .. इति श्रीदशवैकालिकशब्दार्थवृत्तौ श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायविरचितायां मुमपुष्पि. ___ काख्यं प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ १॥ ___ (टीका) अस्य व्याख्या। मधुकरसमा चमरतुल्या बुध्यन्ते स्म बुझा अधिगततत्त्वा इत्यर्थः । क एवंनूता इत्यत आह । ये नवन्ति चमन्ति वा अनिश्रिताः कुलादिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः । अत्राह ॥ असंजएहिं नमरेहिं, जर समा संजया खलु नवंति ॥ एवं उवमं किच्चा, नणं असंजया समणा ॥१३॥व्याख्या॥ असंयतैः कुतश्चिदप्यनितनमरैः षट्पदैः यदि समास्तुल्याः संयताः साधवः खस्विति समा एव नवन्ति । ततश्चासंझिनोऽपि ते अतएवैनामिप्रकारामुपमां कृत्वा श्दमापद्यते नूनमसंयताः श्रमणा इति गाथार्थः। एवमुक्ते सत्याहाचार्यः । एतच्चायुक्तं सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्तथाच बुद्धग्रहणादसंझिनो व्यवछेदः । अनिश्रितग्रहणाचासंयतत्वस्येति । नियुक्तिकारस्त्वाह ॥ उवमा खलु एस कया, पुवुत्ता देसलरकणोवणया ॥ अणिययवित्तिनिमित्तं, अहिंसअणुपालणहाए ॥ १३१ ।। व्याख्या ॥ उपमा खत्वेषा मधुकरसमेत्यादिरूपा कृता पूर्वोक्तात्पूर्वोक्तन देशलक्षणोपनयादेशलदणोपनयेन यथा चन्छ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. मुखी कन्येति । तृतीयार्था चेह पञ्चमी । श्यं चानियतवृत्तिनिमित्तं कृता अहिंसानुपालनार्थ मिदं च नावयत्येवेति गाथार्थः ॥ जह उमगणा उ तह नगर-जणवया पयणपायणसहावा ॥ जह जमरा तह मुणिणो, नवरि अदत्तं न मुंजंति ॥ १३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ यथा सुमगणा वृदसंघाताः खन्नावत एव पुष्पफलनवनावास्तथैव नगरजनपदा नगरादिलोकाः स्वयमेव पचनपाचनवनावा वर्तन्ते । यथा जमरा इति जावार्थं वदयति । तथा मुनयो नवरमेतावान्विशेषः । अदत्तं स्वामिनिन जुञ्जत इति गाथार्थः । अमुमेवार्थ स्पष्टयति ॥ कुसुमे सहावफुझे, आहारंति नमरा जह र सं तु ॥ नत्तं सहावसिहं, समणसुविहिया गवसंति ॥ १३३ ॥ व्याख्या ॥ कुसुमे पुष्पे स्वजावफुद्धे प्रकृतिविकसित आहारयन्ति कुसुमरसं पिबन्ति चभरा मधुकरा यथा येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पादयन्तः । तथा तेनैव प्रकारेण नक्तमोदनादि स्वनावसिझ आत्मार्थं कृतमुजमादिदोषरहितमित्यर्थः। श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहिताः शोजनानुष्ठानवन्त इत्यर्थः । गवेषयन्ति अन्वेषयन्तीति गाथार्थः । सांप्रतं पूर्वोक्तो यो दोषः मधुकरसमा इत्यत्र । तत्परिजिहीर्षयैव यावतोपसंहारः क्रियते। तमुपदर्शयन्नाह ॥ उवसंहारो नमरा,जह तह समणा वि वहं अजीवंति ॥ दंतत्ति पुणपयंमि, नायवं वकसेसमिणं ॥ १३४ ॥ व्याख्या ॥ उपसंहार उपनयः । ब्रमरा यथा अवधजीविनः तथा श्रमणा अपि साधवोऽप्येतावतैवांशेनेति गाथार्थः । श्तश्च चमरसाधूनां नानात्वमवसेयं यत आह सूत्रकारः। नानापिएकरया दंता इति । नानानेकप्रकारोऽनिग्रह विशेषात्प्रतिगृहमदपाल्पग्रहणाच्च पिएक आहारपिएकः । नाना चासौ पिएनश्च नानापिएमः।अन्तप्रान्तादिर्वा तस्मिन् रता अनुगवन्तः। दान्ता इन्डियनोन्डियदमनेनानयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्रतिपादितमेव।अत्र चोपन्यस्तगाथाचरमदलस्यावसरः। दांता इति पुनः पदे सौत्रे। किम्।ज्ञातव्यो वाक्यशेषोऽयमिति गाथार्थः। किंविशिष्टो वाक्यशेषः । दांता र्यादिसमिताश्च । तथा चाह॥जह श्व चेव शरिया-इएसु सबंमि दिरिकयपयारे ॥ तसथावरनूय हियं, जयंति सप्ना वियं साद ॥ १३५ ॥ व्याख्या ॥ ययात्रैवाधिकृताध्ययने जमरोपमयैषणासमितौ यतन्ते। तथा र्यादिष्वपि तथा सर्वस्मिन् दीदितप्रवारे साध्वाचरितव्य इत्यर्थः। किम्। त्रसस्थावरन्नूतहितं यतन्ते सानाविकं पारमार्थिकं साधव इति गाथार्थः । अन्ये पुनरिदं गाथादलं निगमने व्याख्यानयन्ति । नच तदातिचारु । यत आह ॥ जवसंहार विसुद्धी, एस समत्ताउ निगमणं ते: णं ॥ वुच्चंति साहुणो त्ति, जेणं ते महुयरसमाणा ॥ १३६ ॥ व्याख्या ॥ उपसंहारविशुछिरेषा समाप्ता तु अधुना निगमनावसरस्तच्च सौत्रमुपदर्शयति । निगमन मिति प्रा. रपरामर्शः। तेनोच्यन्ते साधव इति । येन प्रकारेण ते मधुकरसमाना उक्तन्यायेन Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । ७३ मरतुल्या इति गाथार्थः । निगमनार्थमेव स्पष्टयति ॥ तम्हा दयाइगुणसु - डिएहिं नमवह वित्तहिं ॥ साहूहिं साहित्ति, उक्कि मंगलं धम्मो ॥ १३७ ॥ व्याख्या ॥ तस्मादयादिगुणसुस्थितैः । यादिशब्दात्सत्यादिपरिग्रहः । चमर श्वावधवृत्तिनिः । कैः । साधुनिः साधितो निष्पादितः । उत्कृष्टं मङ्गलम् प्रधानं मङ्गलं । धर्मः प्राग्निरूपितशदार्थ इति गाथार्थः । इदानीं निगमनविशुद्धिमनिधातुकाम याह ॥ निगमणसुद्धी तिळं - तरी वि धम्ममुघुया विहरे || जन्नइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न करेंति ॥ १३८ ॥ व्याख्या ॥ निगमनशुद्धिः प्रतिपाद्यते । अत्राह । तीर्थान्तरीया अपि चरकपरिव्राजकादयः । किम् । धर्मार्थं धर्मायोद्यता उद्युक्ता विहरन्ति । अतस्तेऽपि साधव एवेत्यनिप्रायः। नयतेऽत्र प्रतिवचनम् । कायानां पृथिव्यादीनां ते चरकादयः । किम् । यतनां प्रयत्नकरणलक्षणां न मन्यन्ते न जानन्ति न मन्यते वा तथाविधागमाश्रवणान्न कुर्वन्ति परिज्ञानाजावाजावितमेवेदमधस्तादिति गाथार्थः । किं च ॥ न य जग्गमाइसुद्धं, जुंजंती महुयरा वणुवरोही ॥ नेव य तिगुत्तिगुत्ता, जह साहू निच्चकालं पि ॥ १३७ ॥ व्याख्या ॥ नचोकमा विशुद्धं भुञ्जते । च्यादिशब्दात्पादनादिपरिग्रहः । मधुकरा श्व चमरा इव सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो नैव च त्रिगुप्तिगुप्ता यथा साधवो नित्यकालमपि । एतडुक्तं नवति । यथा साधवो नित्यकालं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं ते न कदाचिदपि तत्परिज्ञानशुन्यत्वात्तस्मान्नैते साधव इति गाथार्थः । साधव एव तु साधवः । कथम् । यतः ॥ कायं वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति ॥ धारेंति बंजचेरं, संजमयंती कसाए य ॥ १४० ॥ व्याख्या ॥ कायं वाचं मनश्चेन्द्रियाणि च पञ्च दमयन्ति । तत्र कायेन सुसमाहितपाणिपादास्तिष्ठन्ति गच्छन्ति वा । वाचा निष्प्रयोजनं न ब्रुवते । प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्खानुपरोधेन मनसा अकुशलमनो निरोधं कुशलमनजदी रणं च कुर्वन्ति । इन्द्रियाणि पञ्च दमयन्ति । इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन । पञ्चेति साङ्ख्यपरिकल्पितैकादशेन्द्रियव्यवच्छेदार्थम् । तथा च । वाक्पाणिपादपायूपस्थमनांसीन्द्रियाणि तेषामिति । धारयन्ति ब्रह्मचर्यं सकलगुप्तिपरिपालनात्तथा संयमयन्ति कषायांश्चानुदयेनोदय विफलीकरणेन चेति गाथार्थः ॥ जं च तवे जद्युत्ता, तेथेसिं साहुलक्खणं पुन्नं ॥ तो साहुणो ति जन्नं-ति साहवो निगमणं चेयं ॥ १४१ ॥ व्याख्या ॥ यच्च तपसि प्राग्वर्णितस्वरूपे । किम् । उयुक्ता उयतास्तेन प्रकारेणैतेषां साधुलक्षणं पूर्णम विकलम् । कथम् । अनेन प्रकारेण साधयन्त्यपवर्गमिति साधवः । यतश्चैवं ततः साधव एव जयन्ते साधवो न चरकादय इति । निगमनं चैतदितिगाथार्थः । इवमुक्तं दशावयवम्। प्रयोगं त्वेवं वृद्धा दर्शयन्ति । अहिंसा दिल कणधर्मसाधकाः साधव एव स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहारित्वात् । तदन्यैवंविधपुरुषवत् । विपको दिगम्बर निक्कुनौता १० Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. दिवत् । इह ये स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिणस्ते उजयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिंसादिलक्षणधर्म साधका दृष्टास्तथाच साधवः स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः । तस्मात्स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्तेऽहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एवेति निगमनम् । पदा विशुद्धयस्तु निदर्शिता एवेति न प्रतन्यन्ते । एवमर्थाधिकारद्वयवशात्पञ्चावयवदशावयवाच्यां वाक्याच्यां व्याख्यातमिदमध्ययनम् । इदानीं भूयोऽपि नङ्गयन्तरजाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे निर्युक्तिकारः ॥ ते उप वित्ती, हे विजत्ती विवरकपडिसेहो ॥ दितो व्यासका, तप्पडिसेहो निगमणं च ॥ १४२ ॥ व्याख्या ॥ त इति अवयवाः । तुः पुनः शब्दार्थः । ते पुनरमी प्रतिज्ञादयः । तत्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा वक्ष्यमाणस्वरूपेत्येकोऽवयवः । तथा विजजनं विभक्तिः । तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः । तथा हिनोति गमयति जिज्ञासित - धर्मविशिष्टानर्थानिति हेतुस्तृतीयः । तथा विजजनं विनक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थकः । तथा विसदृशः पो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पञ्चमः । तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः । विपक्षस्येति गम्यते । इत्ययं षष्ठः । तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः । तथा शङ्कनमाशङ्का प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः । तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः । तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः । चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थं तु प्रत्यवयवं यति ग्रन्थकार एव । तथा चाह || धम्मो मंगलमुक्कि-हं ति पन्ना अत्तवयण निदेसो ॥ सो य इहेव जिएमए, नन्नव पन्नपविजत्ती ॥ १४३ ॥ व्याख्या ॥ धर्मो मङ्गलमुकुष्टमिति पूर्ववत् । इयं प्रतिज्ञा । यह । केयं प्रतिज्ञेत्युच्यते । आप्तवचननिर्देश इति तत्राप्तोऽप्रतारकः । अप्रतारकश्चाशेषरागादियाद्भवति । उक्तं च " ॥ आगमो ह्यातवचन - माझं दोषकयां द्विडुः ॥ वीतरागोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयात्वसंजवात् ॥ " तस्य वचनमाप्तवचनं तस्य निर्देश श्राप्तवचन निर्देशः । आह । यमागम इति । उच्यते विप्रतिपन्न संप्रतिपत्ति निबन्धनत्वेनैष एव प्रतिज्ञेति नैष दोषः । पाठान्तरं वा साध्यवचननिर्देश इति । साध्यत इति साध्यम्, उच्यत इति वचनमर्थः । यस्मात्स ratara | साध्यं च द्वचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थः । तस्य निर्देश: प्रतिज्ञेति । उक्तः प्रथमोऽवयवः । अधुना द्वितीय उच्यते । स चाधिकृतो धर्मः । किमिव जनमतेऽस्मिन्नेव मौनीन्द्र प्रवचने नान्यत्र कपिलादिमतेषु । तथाहि । प्रत्यक्ष एवोपलभ्यन्ते वस्त्रायतप्रभूतोदकाद्युपजोगेषु परिव्राट्प्रनृतयः प्राप्युपमर्दं कुर्वाणास्ततश्च कुतस्तेषु धर्म इत्यत्र बहु वक्तव्यम् । स्तरनयाना वितत्वाच्चेति । प्रतिज्ञाप्रविनक्तिरियं प्रतिज्ञा विषय विभागकथनमिति गा Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । • 1 प्रय थार्थः । उक्तो द्वितीयोऽवयवः । अधुना तृतीय उच्यते । तत्र ॥ सुरपूि देऊ, धम्मंहाणे हिया उ जं परमे ॥ हे विजत्ती निरुवहि- जियाण अवदे य जियंति ॥ १४४ ॥ व्याख्या ॥ सुरा देवास्तैः पूजितः सुरपूजितः । सुरग्रहणमिन्द्राद्युपलक्षणम् । इतिशब्द उपदर्शने । कोऽयं हेतुः । पूर्ववत् । हेत्वर्थसूचकं चेदं वाक्यम् । हेतुः सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति इष्टव्यः । यस्यैव सिद्धतां दर्शयति । धर्मः पूर्ववत् । तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम् । धर्मश्चासौ स्थानं च धर्मस्थानम् | स्थानमालयः । तस्मिन् स्थिताः । तुरयमेवकारार्थः । स चावधारणे । अयं चोपरिष्टात् क्रियया सह योदयते । यद्यस्मात् । किंनूते धर्मस्थाने | परमे प्रधाने । किम् | सुरेन्द्रादिभिः पूज्यन्त एवेति वा क्यशेषः । इति तृतीयोऽवयवः । अधुना चतुर्थ उच्यते । हेतु विनक्तिरियम् । हेतु विषयविभागकथनम् । अथक एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह । निरुपधयः । उपधि द्म मायेत्यनर्थान्तरम् । अयं च क्रोधाद्युपलक्षणम् । ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषायां येज्यस्ते निरुपधयो निष्कषाया जीवानां पृथ्वी कायादीनामवधेनापीडया चशब्दात्तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन जीवन्ति प्राणान् धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिता नान्य इति गाथार्थः । उक्तश्चतुर्थोऽवयवः । अधुना पञ्चममजिधित्सुराह ॥ जिवयण पडुडे वि हु, ससुराईए अधम्मरुणो वि ॥ मंगलबुद्धी इ. जो, पण आयविवरको ॥ १४५ ॥ व्याख्या ॥ इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम् । स चायं प्रतिज्ञाविजत्तयोरिति । जिनास्तीर्थकराः । तेषां वचनमागमलक्षणं तस्मिन् प्रद्विष्टा प्रीता इति समासस्तान् । अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि । हु इत्ययं निपातोऽवधारणार्थः । अस्थानप्रयुक्तश्च । स्थानं च दर्शयिष्यामः । श्वशुरादीन् । श्वशुरो लोकप्रसिद्धः । यादिशब्दा पित्रादिपरिग्रहः । न विद्यते धर्मे रुचिर्येषां तेऽधर्मरुचयस्तान् । यपिशब्दाद्धर्मरुचीन् । किम् । मङ्गलबुद्ध्या मङ्गलप्रधानया धिया मङ्गलबुद्ध्यैव नामङ्गलबुद्ध्येत्येवकारोऽवधारणार्थः । किम् । जनो लोकः प्रकर्षेण नमति प्रणमति । याययविपक्ष इति । अत्राद्यद्वयं प्रतिज्ञा तबुद्धिश्व तस्य विपक्षः साध्या दिविपर्यय इति श्रावयविपदः । तत्राधर्मरुचीनपि मङ्गलबुझ्या जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह । तेषामधर्माव्यतिरेका जिनवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तबुद्धेस्तत्रापि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्म सिद्धेरिति गाथार्थः ॥ विश्ययस्स विवरको, सुरेहिं पुद्यंति जलजाई वि ॥ बुद्धा वि. सुरनया, बुच्चंते पायपडिवरको ॥ १४६ ॥ व्याख्या ॥ द्वयोः पूरणं द्वितीयं द्वितीयं च तद्दयं च द्वितीयद्वयं हेतुस्तबुद्धिः । इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते । तस्यायं विपक्षः । इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञया जिनोऽपीति । इयमत्र जावना । यज्ञयाजिनो हि मङ्गलरूपा न जवन्त्यथ च सुरैः पूज्यन्ते । ततश्च सुरपूजितत्वमका Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह, नाग तेतालीस-(४३)-मा. रणमित्येष हेतुविपदस्तथा । अजितेन्द्रियाः सोपधयश्च यतस्ते वर्तन्ते । अतोऽनेनैव ग्रन्थेन धर्मस्थाने स्थिताः परम इत्यादिकाया हेतुविनक्तेरपि विपद उक्तो वेदितव्य इति । उदाहरण विपदमधिकृत्याह । बुद्धादयोऽप्यादिशब्दात्कापिलादिपरिग्रहः । ते। किम् । सुरनता देवपूजिता उच्यन्ते लण्यन्ते तबासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपद इति गाथार्थः। आह । ननु दृष्टान्तमुपरिष्टाध्यत्येवं ततश्च तत्वरूप उक्ते च तत्रैव विपदस्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः। तत्किमर्थ मिह विपदः तत्प्रतिषेधश्चानिधीयते। उच्यते। विपदसाम्यादधिकृत एव विपक्षद्वारे लाघवार्थमनिधीयते । अन्यथेदमपि पृथग्छारं स्यात् । तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि छारान्तरं प्राप्नोति।तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते। तस्माद्वाघवार्थमत्रैवोच्यत इत्यदोषः। आह "दितो आसंका तप्पडिसेहो" ति वचनाउत्तरत्र दृष्टान्तमनिधाय पुनराशङ्कां तत्प्रतिषेधं च वयत्येव । तदाशङ्का च तछिपद एव। तत् किमर्थ मिह पुनर्विपदप्रतिषेधाव निधीयेते।उच्यते । अनन्तरपरंपरानेदेन दृष्टान्तद्वैविध्यख्यापनार्थम्। यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोदत्वादागमगम्यत्वादाान्तिकार्थसाधनायालं न जवति तत्प्रसिझये विपद सिको योऽन्य उच्यते स परंपरादृष्टान्तः। तथा च तीर्थकरांस्तथा साधूंश्च छावपि निन्नावेवोत्तरत्र दृष्टान्तावनिधास्यते। तत्र तीर्थकृतक्षणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येह विपक्षप्रतिषेधौवुक्तौ । साधूंस्त्वधिकृत्य तत्र वाशङ्कातत्प्रतिषेधौ दर्शयिष्यते । इत्यदोषः । स्यान्मतं प्रायुक्तेन विधिना लाघवार्थमनुक्त एव दृष्टान्त उच्यतां काममिदैव दृष्टान्तविपदस्तत्प्रतिषेधश्च स एव दृष्टान्तः किमित्युत्तरत्रोपदिश्यते येन हेतुविनक्तेरनन्तरमिदैव न जण्यते। तथा पत्र दृष्टान्ते जण्यमाने प्रतिज्ञादीनामिव द्विरूपस्यापि दृष्टान्तस्याईत्साधुलक्षणस्य एतावेव विपक्षतत्प्रतिषेधावुपपद्यते।ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथय वक्तव्यौ नवतः। तथा च सति ग्रन्थलाघवं जायते । तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकास्त्रयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता नवन्तीत्यत्रोच्यते । हानिधीयमाने दृष्टान्त: स्येव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधौ वक्तव्यौ । तथा च सत्यवयवबहुत्व दृष्टान्तस्य वा प्रतिज्ञादीनामिव विपढ़तत्प्रतिषेधान्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ न वक्तव्यो स्यातामेवं सति दशावयवा न प्राप्नुवन्ति । दशावयवं चेदं वाक्यं जयन्तरेण. प्रतिपिपादयिषितमस्यापि न्यायस्य प्रदर्शनार्थमत एव यदुक्तं साधुलदणदृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग वक्तव्यौ स्यातामित्यादि तदपाकृतं वेदितव्यम् । ३ त्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपदोऽनिहितोऽधुनायमेव प्रतिज्ञा दावपदः पञ्चमोऽवयवो वर्तत इत्येतदर्शयन्निदमाह ॥ एवं तु अवयवाणं, चउह्न पाडवक्खु पंचमोऽवयवो ॥ एत्तो होवयवो, विवरकप डिसेह तं वोद्धं ॥ १४७ ॥ व्याख्या ॥ एका Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । 1 मित्ययमेवकार उपप्रदर्शने । तुरवधारणे । अयमेवावयवानां प्रमाणाङ्गलकणानां चतुर्णां प्रतिज्ञादीनां प्रतिपक्षो विपक्षः पञ्चमोऽवयव इति । आह । दृष्टान्तस्याप्यत्र विपक्ष उक्त एव तत्किमर्थं चतुर्णामित्युक्तम् । उच्यते । हेतोः सपक्ष विपक्षाच्यामनुवृत्तिव्यावृतिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात्तद्विपक्ष एव चास्यान्तर्जावाददोष इत्युक्तः पञ्चमोऽवयवः । षष्ठ उच्यते । तथा चाह । इत उत्तरत्र षष्ठोऽवयवो विपक्षप्रतिषेधस्तं वदयेऽनिधास्य इति गाथार्थः । इयं सामान्येनानिधायेदानी माद्यद्वय विपक्षप्रतिषेधमनिधातुकाम ह ॥ सायं संमत्तपुमं, हासरई आउनामगोयसुहं ॥ धम्मफलं आइपुगे, विवकप डिसेह मो एसो ॥ १४८ ॥ व्याख्या ॥ सायंति शातवेदनीयं कर्म । संम तं ति सम्यक्त्वं सम्यग्नावः सम्यक्त्वं सम्यक्त्वमोहनीयं कर्मैव । पुमंत पुंवेदमोहनीयं । हासंति हस्यतेऽनेनेति दासः । तद्भावो हास्यं हास्यमोहनीयम् । रम्यतेऽनयेति रतिः क्रीडाढेतुः रतिमोहनीयं कर्मैव । श्रायुः । नामगोयसुहं ति । अत्र शुभशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । अन्ते वचनात्ततश्च श्रायुः शुनं नामशुनं गोत्रशुभम् । तत्रायुः शुनं तीर्थकरा दिसंबन्धि । नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव जवतः । तथा हि यशो - नामादि शुनं तीर्थकरादीनामेव जवति । तथोच्चैर्गोत्रं तदपि शुनं तेषामेवेति । धर्मफलमिति । धर्मस्य फलं धर्मफलम् । धर्मेण वा फलं धर्मफलं एतदहिंसादेर्जिनोक्तस्यैव धर्मस्य फलम् । अहिंसादिना जिनोक्तेनैव च धर्मेणैव फलमवाप्यते । सर्वमेव चैतत्सुखहेतुत्वाद्धितम् । अतः स एव धर्मों मङ्गलं न श्वशुरादयः । तथाहि मयते • हितमनेनेति मङ्गलम् । तच्च यथोक्तधर्मेणैव मङ्गयते नान्येन तस्मादसावेव मङ्गलं न जिनवचनबाह्याः श्वशुरादय इति स्थितम् । श्राह । मङ्गलबुद्ध्यैव जनः प्रणमतीत्युक्तं तत्कथमित्युच्यते । मङ्गलबुद्ध्यापि गोपालाङ्गनादिर्मोह तिमिरोपलुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलत्वनिश्चयायालम् । तथाहि न तैमिरिक द्विचन्द्रोपदर्शनं सचेतसां चष्मतां द्विचन्द्राकारायाः प्रतीतेः प्रत्ययतां प्रतिपद्यते । तडूप एव तद्रूपाध्यारोपकारेण तत्प्रवृत्तेरिति । इडुगं ति । श्रायद्वयं प्रागुक्तं तस्मिन्नाद्ययविषये विपक्षप्रतिषेधः । मो इति निपातो वाक्यालंकारार्थः । एप इति यथा वर्णित इति गाथार्थः । श्वमाद्यद्वय विपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः । संप्रति हेतुतबुद्ध्योविपक्षप्रतिषेधप्रति पिपादविषयेदमाह ॥ श्रजिइंदिय सोब दिया, वहगा जड़ ते विनामद्यं ॥ गोद्य सीट, हेजविजत्तीण परिसेहो ॥ १४५ ॥ व्याख्या ॥ न जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते । उपधिश्वद्म मायेत्यनर्थान्तरम् । उपधिना सह वर्तन्त इति सोपधयो मायाविनः परव्यंसका इति यावत् । अथवा उपदधातीत्युपधिः वस्त्राद्यनेकरूपः परिग्रहः । तेन सह वर्तन्ते ये ते तथाविधा 66 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IG राय धनपतसिंघ बहादुरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस (४३) - मा. महापरिग्रहा इत्यर्थः । वधन्तीति वधकाः प्राण्युपमर्दकर्तारः । जर ते वि नाम पुतित्ति | यदीति पराज्युपगमसंसूचकः । त इति याज्ञिकाः । अपिः संजावने । नाम इति निपातो वाक्यालंकारार्थः । ये जितेन्द्रियादिदोषडुष्टा यज्ञयाजिनो वर्तन्ते । यदि ते नाम पूज्यन्ते । तर्ह्यग्निरपि नवेच्छीतः । न च कदाचिदप्यसौ शीतो जवति । तथा वियदिन्दीवरत्रजोऽपि वान्ध्येयोरस्थलशोनामादधीरन् । न चैतद्भवति । यथैवमादिरत्यन्तोऽनावस्तथेदमपीति मन्यतेऽथापि कालदौर्गुण्येन कथंचिदविवेकिना जनेन पूज्यन्ते । तथापि तेषां न मङ्गलत्वसंप्रसिद्धिरप्रेक्षावतामतडूपेsपि वस्तुनि तडूपाध्यारोपेण प्रवृत्तेस्तथा कलङ्कवियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत् गमयत्यतथाभूते वस्तुनि तद्दुद्ध्या तेषामप्रवृत्तेः । सुविशुद्धबुद्धयश्च दैत्यामरेन्द्रादयस्ते चाहिंसा दिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति न यज्ञयाजिनस्तस्मादै त्यामरेन्द्रा दिपूजितत्वाद्धर्म marrष्टं मङ्गलं न याज्ञिका इति स्थितम् । हे वित्तीणं ति । एष हेतु द्विजक्त्योः । पमिहोत्ति । विपक्षप्रतिषेधः । विपदशब्द इहानुक्तोऽपि प्रकरणाज्ज्ञातव्य इति गाथार्थः । एवं हेतुतयोर्विपदप्रतिषेधो दर्शितः । सांप्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाह ॥ बुझाईवयारे, पूयावाणं जिपान सप्तानं ॥ दिते पकिसे हो, बडो एसो अवयवो ॥ १५० ॥ व्याख्या || बुद्धादय श्रादिशब्दात्का पिलादिपरिग्रहः उपचार इति । सुपां सुपो जवन्तीति न्यायादुपचारेण । किंचिदतीन्द्रियं कथयन्तीति कृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् | जिनास्तु सद्भावं परमार्थमधिकृत्येति वाक्यशेषः । सर्वज्ञत्वाद्यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति भावना । दृष्टान्तप्रतिषेध इति विपदशब्दलोपाद् दृष्टान्तविपदप्रतिषेधः । किम् । षष्ठ एषोऽवयवः । तुर्विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि । सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक एवेति गाथार्थः । षष्ठमवयवमनिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमनिधातुकाम याह ॥ श्ररहंतमग्गगामी, दिहंतो साहुणो वि समचित्ता ॥ पागरएसु गिट्टीसु, एसंते अवहमाणा उ ॥ १५१ ॥ व्याख्या ॥ पूजामईतीत्यर्हन्तः । न रुहन्तीति वारुहन्तः । किम् । दृष्टान्त इति संबन्धः । तथा मार्गगामिन इति । प्रक्रमात्तडुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एव गृह्यन्ते । केच त इत्यत आह । साधवः । साधयति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः तेऽपि दृष्टान्त इति योगः । किंभूताः सम-चित्ता रागद्वेषरहित चित्ता इत्यर्थः । किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति । अहिंसा दिगुण्युक्तत्वात् । आह च । पाकरतेष्वात्मार्थमेव पाकसक्तेषु गृहेष्वगारेष्वेषन्ते गवेषयन्ति पिएकपातमित्यध्याहारः । किं कुर्वाणा इत्यत आह । श्रवहमाणा । न घ्नन्तोऽनन्तः । तु-रवधारणार्थः । ततश्चाघ्नन्त एव आरम्नाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थः । एवं ि Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिके प्रथमाध्ययनम् । विधोपि दृष्टान्त उक्तः । दृष्टान्तवाक्यं चेदं स तु संस्कृत्य कर्तव्योऽहंदादिवदिति गाथार्थः । उक्तः सप्तमोऽवयवः सांप्रतमष्टममनिधिसुराह ॥ तब नवे आसंका, जदिस्स जई वि कीरए पागो ॥ तेण र विसमं नायं, वासतणा तस्स पडिसेहे ॥ १५ ॥ ॥ व्याख्या ॥ तत्र तस्मिन् दृष्टान्ते जवेदाशङ्का जवत्यादेपः । यथोदियाङ्गीकृत्य यतीनपि संयतानपि । अपिशब्दादपत्यादीन्यपि। क्रियते निर्वय॑ते पाकः।कैः। गहिजिरिति गम्यते । ततः किमित्यत आह । तेन कारणेन । र इति निपातः किलशव्दार्थः। विषममतुल्यं ज्ञातमुदाहरणं वस्तुतः पाकोपजीवित्वेन साधूनामनवद्यवृत्यजावादिति नावितमेवैतत् पूर्वमित्यष्टमोऽवयवः । इदानीं नवममधिकृत्याह । वर्षातृणानि तस्य प्रतिषेध इत्येतच नाष्यकृता प्राक् प्रपञ्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः । उक्तो नवमोऽवयवः। सांप्रतं चरममनिधित्सुराह ॥ तम्हा उ सुरनराणं, पुद्यत्ता मंगलं सया धम्मो ॥ दसमो एस अवयवो, पश्नहेज पुणवयणं ॥ १५३ ॥ ॥ व्याख्या ॥ यस्मादेवं तस्मात्सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यस्तनावस्तस्मात्पूज्यत्वान्मङ्गलं प्राग्निरूपितशब्दार्थं सदा सर्वकालं धर्मः प्रागुक्तः। दशम एषोऽवयव इति संख्याकथनम् । किं विशिष्टोऽयमित्यत आह । प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं पुनर्हेतुप्रतिझावचनमिति गाथार्थः । उक्तं द्वितीयं दशावयवं ।साधनाङ्गता चावयवानां विनेयापेक्षया विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वेन नावनीयेत्युक्तोऽनुगमः।सांप्रतं नया उच्यन्ते । तेच नैगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दसमनिरूद्वैवंनूतन्नेदनिन्नाः खल्वोघतः सप्त नवन्ति। खरूपं चैतेषामेवावश्यके सामायिकाध्ययनेऽन्यदणे प्रदर्शितमेवातो नेह प्रतन्यते । श्ह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञान क्रियानयध्यान्त वकारेण समासतः प्रोच्यन्ते । ज्ञाननयः क्रियानयश्च । तत्र ज्ञाननयदर्शन मिदं ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलावाप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथा चाह ॥णायंमि गिहियवे, अगिण्डियत्वंमि चैव श्रमि ॥ जश्यत्वमेव जो, उवएसो सोन नामं ॥ १५५ ॥ व्याख्या ॥ णायमिति । ज्ञाते सम्यक्परिछिन्ने। गिरिहयवेत्ति । गृहीतव्य उपादेये। अगिहियवं मित्ति।अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः । चशब्दः खलूनयोर्यहीतव्याग्रहीतयोतित्वानुकपणाथः। उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा। एवकारस्त्ववधारणार्थः। तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो अष्टव्यः । ज्ञात एव गृहीतव्ये तथागृहीतव्ये तथोपेदणीये चार्थे तु ज्ञात एव नाझाते । अठंमि ति । अर्थेऽप्यहिकामुष्मिके तत्रैहिको गृहीतव्यः स्त्रक्चन्दनागनादिः । अगृहीतव्यो विपशस्त्रकएमकादिः । उपेक्षणीयः तृणादिः । यामुप्मिको गृहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः श्रगृहीतव्यो मिथ्यात्वादिः । उपेक्षणीयो विवक्षयान्युदयादिरिति । तस्मिन्नथे यतितव्यमेवेति । अनुस्वारलोपाद्यतितव्यमेवमनेन. क Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह भाग तेतालीस-(४३)-मा. मेणैहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलदणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः । शह चैवैतदङ्गीकर्तव्यम् । सम्यग्ज्ञाते प्रवर्तमानस्य फल विसंवाददर्शनात्तथाचान्यैरप्युक्तम् “॥ विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता ॥ मिथ्याझानात्प्रवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंचवात् ॥” तथामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनापि ज्ञात एव यतितव्यम् । तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः । यत उक्तम् “॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिर सवसंजये ॥ अन्नाणी किं काही, किंवा पाहितिबेयपावगं ॥” इतश्च तदेवाङ्गीकर्तव्यम् । यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहार क्रियापि निषिद्धा। तथा चागमः “॥ गीयो य विहारो, वी गीयबमीसि चेव ॥ श्त्तो तश्यविहारो, णाणुना जिणवरेहिं ।” यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्थानं न प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावदायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं दायिकमङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् । यस्मादहतोऽपि जवाम्बोधितटस्थस्य दीदा प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावजीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिछेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्न मिति । तस्माज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति ॥ जो जवएसो सो ण णामं ति। इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय श्त्यर्थः।अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिबति ज्ञानात्मकत्वादस्य वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेबति । गुणनूते चेति इति गाथार्थः । उक्तो ज्ञाननयः । अधुना क्रियानयावसरस्तदर्शनं चेदम् । क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात्तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपदसिद्धये गाथामाह ॥ णायंमि गिहियो, अगिहियवंमि चेव अबंमि ॥ जश्यत्वमेव जो, उवएसो सोनले नामं ॥ १५५ ॥ व्याख्या ॥ अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या । झाते गृहीतव्ये अगृहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थना यतितव्यमेव । न य स्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षण प्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यनिलषितार्थावाप्तिदृश्यते । तथा चान्यैरप्युक्तम् ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ॥ यतः स्त्रीजयनोंगझो तज्ज्ञानाहुःखितो नवेत् । तथामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना क्रियैव कर्तव्या । तथा च मौनीन्द्रप्रवचनमप्येवमेव स्थितम्।यत उक्तम् “॥चेश्यकुलगणसंघे, आयरियाण च पवयणसुए य ॥ सवेसु वि तेण कयं, तवसंजममुद्यम तेण ॥” इतश्चैतदेवमङ्गकित व्यम् । यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि अफलमेवोक्तम् । तथाचागमः “॥ सुवहुंपि सुयमहीयं, किं काहीचलणविप्पमुक्कस्स ॥अंधस्स जह पलित्ता, दो वसय सहस्स कोडीवि ॥" दृश्य क्रियाविकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्दायोपश Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीयाध्ययनम् । ८१ I मिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम् । चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । कायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैवं विज्ञेयम् । यस्मादर्हतोऽपि जगवतः समुत्पन्न केवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यस्मादखिलकर्मेन्धनानलभूता दूखपञ्चाक्षरोच्चारणमाकालावस्था यिनी सर्व संवररूपा चारित्रक्रिया नावातेति । तस्मात् क्रियैव प्रधानमै हिकामुष्मिक फलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । इति । जो उवएसो सो एवं पामं ति । इति एवमुक्तन्यायेन य उपदेशः । किम् । क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम क्रियानय इत्यर्थः । यं च ज्ञानवचन क्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति । तदात्मकत्वादस्य ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति । गुणनूते चेछतीति गाथार्थः । उक्तः क्रियान्य श्वं ज्ञाननय क्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाविदिततद निप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह । किमत्र तत्त्वं पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंजवादाचार्यः पुनराह ॥ ससि पि नयाणं, बहुविहवत्तवयं निसामेत्ता ॥ तं सवनयविसुद्धं, जं चरणगुण हर्ड साहू ॥ १५६ ॥ व्याख्या ॥ अथवा ज्ञान क्रियानयमतं प्रत्येकमनिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह । सबेसि पि गाहा । सर्वेषामिति मूलनयानामपिशब्दात्तङ्गेदानां च Sourस्तिकायादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एव उजयमेव वानपेक्ष्यमित्यादिरूपामथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुभितीत्यादिरूपां निशम्य श्रुत्वा तत्सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसंमतं वचनम् । यच्चरणगुण स्थितः साधुः । यस्मात् सर्वनया एव जावविषयं निदेपमिवन्तीति गाथार्थः । डुमपुष्किय निद्युक्त्ती, समास वन्निया विज्ञासाए || जिए चउदसपुर्वी विवरेण कहयंति से अहं ॥ १५६ ॥ डुमपुप्फयनिद्यत्ती संमत्ता । डुमपुष्पियगाहा सुगमा ॥ इत्याचार्य श्री हरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकटीकायां डुमपुष्पकाध्ययनं समाप्तम् ॥ १ ॥ व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया किंचित् ॥ सङ्घर्मलानमखिलं लतां नव्यो जनस्तेन ॥ १ ॥ अथ श्रामण्यपूर्वकाध्ययनम् ॥ २ ॥ कहं नु कुधा सामां, जो कामे न निवारए ॥ पर पर विसीदंतो, संकप्पस्स वसं ग ॥ १ ॥ ( अवचूरिः) ॥ अथ द्वितीयाध्ययनम् । नु देपे । यथा कथं नु स राजा यो न रक्षाति । एवं कथं नु कुर्याद्ब्रामण्यं यः कामान्न निवारयति । किमिति न करोति । तत्र हेतुमाद | पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः । कामानिवारणेनेन्द्रियाद्यपराधपदा ११ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ राय धनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. पेक्ष्या पदे पदे विषीदनात्संकल्पस्य वशंगतत्वात्।अप्रशस्तोऽध्यवसायः संकल्पः ॥१॥ (अर्थ) अथ द्वितीयाध्ययन।पूर्वोक्त अध्ययनमां धर्मप्रशंसा कही, तेथी धर्म जे ठे, ते जिनशासनमांज बे,एम सिद्ध थयु. एवा धर्मउपर सदहणा राखीने जेमणे चारित्र ली, बे, एवा नवा दीक्षा लीधेला अधीरा साधुओने जिनाम्नाय विषे मोह नहीं थवो जोश्ये, माटें साधुयें धृति (धैर्य) राखवी एम धैर्य राखवानोउपदेश अध्ययनमां कस्यो . कह्यु डे के:-"जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गई सुलहा ॥ जे अधिश्मंत पुरिसा, तवो वि खलु उवहो तेसिं ॥१॥” इति । एवा संबंधश्री प्राप्त थयेला आ अध्ययन, नाम 'श्रामण्यपूर्वक' एवं बे, तेनो अर्थः-'श्राम्यंतीति श्रमणाः, तेषां जावः श्रामण्यं तस्य पूर्वं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकम् जे तपादि श्रम करे बे, ते श्रमण अर्थात् साधु जाणवा. तेमनो जे धर्म ते श्रामण्य जाणवू. तेनुं जे पूर्व कारण ते धृति (धैर्य ) जाणवी. तेनुं प्रतिपादन जेमां करेधुंबे, ते अध्ययनने पण श्रामण्यपूर्वक अध्ययन कहियें. हवे अध्ययनना प्रथम सूत्रमा साधुयें वस्त्रादिक अव्यकाम तथा जोगेडारूप नावकाम अवश्य वर्जववा जोश्ये, ते कहे . (जो के०) यः एटले जे पुरुष (कामे के०) कामान् एटले जव्यत्नावरूप बे प्रकारना कामने (न निवारए के) न निवारयति । एटले त्याग करतो नथी. ते पुरुष, कामत्याग न कस्याथी (पए यए के ) पदे पदे एटले पगले पेगले (विसीअंतो के०) विषीदन् एटले विषयपरिग्रहथी विखवाद पामतो थको, अने ( संकप्पस्स के०) संकल्पस्य एटले अप्राप्तविषनी प्राप्तीने वास्ते अप्रशस्त अध्यवसायरूप संकल्पने ( वसं गङ के०) वसंगतः एटले वश थयो थको (सामन्नं के० ) श्रामण्यं एटले चारित्रने (कहं नु के०) कथं नु एटले कया प्रकारें (कुजा के०) कुर्यात् , पालयेत् एटले पालशे. शहां खाताना दृष्टांत जाणवो ॥१॥ ... ( दीपिका ) प्रथमाध्ययने धर्मप्रशंसा उक्ता सा च इहैव जिनशासने।श्ह तु अध्ययने जिनशासनेऽङ्गीकृते सति मा नूत् नवदीक्षितस्य संयमेऽधृतिरतो धृतिमता नाव्यमित्येतदुच्यते इत्यनेन संबन्धेन आयातमिदमध्ययनं व्याख्यायते । कथं कन प्रकारेण । नु इति देपे । यथा कथं नु स राजा यो न रदाति प्रजाम् । कथं नु सबै याकरणो योऽपशब्दं प्रयुते । कुर्यात् श्रामण्यं श्रमणनावम् । यः कामान् न निवारयात. कारणमाह । श्रामण्यस्याकरणे पदे पदे स्थाने स्थाने विषीदन विषादं प्राप्नुवन् संकल्पस्य वशं गतः । न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः यथोकश्रामण्याजावेन अ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिके द्वितीयाध्ययनम् । ८३ श्रमणः किंतु आजीविका दिनावेन प्रब्रजितः संक्लिष्टचित्तो द्रव्य क्रियां कुर्वन्नप्य भ्रमण एव ॥ १ ॥ ( टीका ) व्याख्यातं डुमपुष्पिकाध्ययनमधुना श्रामण्य पूर्वकाख्यमारभ्यते । स्य चायमनिसंबन्धः । इहानन्तराध्ययने धर्मप्रशंसोक्ता । सा चेहैव जिनशासन इति । इह तु तदभ्युपगमे सति मा भूद जिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता जवितव्यमित्येतदुच्यते । उक्तं च " ॥ जस्स थिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलना ॥ जे अधिश्मंत पुरिसा, तवो वि खलु डुल्लहो तेसिं ॥ " अनेनानसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववन्नवरं नामवदध्ययन विषयत्वामुपक्रमादिद्वार कलापस्य व्याप्तिप्राधान्यतो नाम निष्पन्नं निदेपमनिधित्सुराह निर्युक्तिकारः ॥ सामन्नपुंवगस्स उ, निरकेवो होइ नामनिफन्नो || सामन्नस्त चको, तेरसगो पुवयस्स जवे ॥ १५७ व्याख्या ॥ श्राम्यतीति श्रमणः । श्राम्यति तपस्यति । तद्भावः श्रामण्यं तस्य पूर्वं कारणं श्रामण्यपूर्वं तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति । संज्ञायां कन् । श्रामण्यकारणं च धृतिस्तन्मूलत्वात्तस्य । तत्प्रतिपादकं चेदमध्ययनमिति जावार्थः । अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निछेपो जवति नामनिष्पन्नः । कोऽसावन्यस्याश्रुतत्वान्नामष्यपूर्वक मित्ययमेव । तुशब्दः सामान्य विशेषवन्नाम विशेषणार्थः । श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम् । श्रामण्यं पूर्वं चेति विशेषः । तथा चाह । श्रामण्यस्य चतुtreaयोदशकः पूर्वकस्य नवेन्निदेप इति गाथार्थः । निक्षेपमेव विवृणोति ॥ समएस्स उ निरकेवो, चक्कर्ड होइ आणुपुवीए ॥ दवे सरीरजवि, जावेण उ संज समणो ॥ १५८ ॥ व्याख्या ॥ श्रमणस्य तु । तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेनाधिकार इति विशेषणार्थः । निदेपश्चतुर्विधो जवत्यानुपूर्व्या नामादिक्रमेण । नामस्थापने पूर्ववत् । द्रव्यश्रमणो द्विधा । आगमतो नोआगमतश्च । श्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तः । नोश्रागमतस्तु शरीरजव्यशरीरतद्वयतिरिक्तोऽनिलापनेदेन डुमवदवसेयस्तं चानेनोपलक्षयति । दवे सरीरनवि त्ति । नावश्रमणोऽपि द्विविध एव । श्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः । नोश्रागमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः । तथा चाह । नावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः । अस्यैव स्वरूपमाह ॥ जह मम न पियं डुकं, जालिय एमेव सवजीवाणं ॥ न हाइ न हणावश् य, सममणई ते सो समणो ॥ १५५ ॥ व्याख्या ॥ यथा मम न प्रियं दुःखं प्रतिकूलत्वाज्ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वम् न हन्ति स्वयं, न घातयत्यन्यैः । च शब्दाद् न्नन्तं च नानुमन्यते अन्यम् । इत्यनेन प्रकारेण समम् यति तुल्यं गछति यतस्ते Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)-मा. नासौ श्रमण इति * गाथार्थः // नहि य सि कोई वेसो, पिठ व सवेसु चेव जीवेसु // एएण होश समणो, एसो अन्नो वि पद्या // 160 // व्याख्या // नास्ति च सि तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु तुल्यमनस्त्वात् / एतेन जवति सममनाः / समं मनोऽस्येति सममनाः / एषोऽन्योपि पर्याय इति गाथार्थः // तो समणो जश् सुमणो, नावेण य ज न हो पावमणो॥ सयणे य जणे य समो, समो उ माणावमाणेसु // 161 // व्याख्या // ततः श्रमणो यदि सुमनाः / द्रव्यं मनः प्रतीत्य नावेन च यदि न लवति पापमनाः / एतत्फलमेव दर्शयति / स्वजने च जने च समः। समश्च मानापमानयोरिति गाथार्थः // जरगगिरिजलणसागर-नहयलतरुगणसमो य जो होई // नमरमिगधरणिजलरुह-रविपवणसमो य उ समणो // 16 // व्याख्या // उरगसमः परकृतविलनिवासिवादाहारानास्वादनात्संयमैकदृष्टित्वाच्च / गिरिसमः परीषहपवनाकम्प्यत्वात् / ज्वलनसमस्तपस्तेजःप्रधानत्वात् / तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृतेः / एषणीयाशनादौ वा विशेषप्रवृत्तेरिति / सागरसमो गम्नीरत्वाज्ज्ञानादिरत्नाकरत्वात्स्वमर्यादानतिक्रमाच / नजस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् / तरुगणसमः अपवर्गफलाथिसत्त्वशकुनालयत्वात् वासीचन्दनकल्पत्वाच्च / चमरसमः अनियतवृत्तित्वात् / मृगसमः संसारनयोहिन्नत्वात् / धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात् / जलरुहसमः कामनोगो झवत्वेऽपि पङ्कजलाच्यामिव तदूर्ववृत्तेः / रविसमः धर्मा स्तिकायादिलोकमाधकृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात् / पवनसमः अप्रतिवझविहारिवात / बमुरगादिसमश्च यतो नवति / ततः श्रमण इति गाथार्थः // विसतिणिसवायवंजुल-काणयारुपलसमेण समणेण // नमरुंऽरुनडकुकड-अदागसमेण होयवं // 163 // // व्याख्या // श्रमणेन विषसमेन नवितव्यं नावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य / तथा तिनिशसमेन मानपरित्यागतो नत्रेण / वातसमेनेति पूर्ववत् / वञ्जुला वेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषानिनूतजीवानां तदपनयनेन / एवं हि श्रूयते किल व. तसमवाप्य निर्विषा जवन्ति सर्पा इति / कर्णिकारसमेनेति / तत्पुष्पवत्प्रकटेन अ. शुचिगन्धापेक्या च निर्गन्धेनेति / उत्पलसदृशेन प्रकृतिधवलतया सुगन्धित्वन च / जमरसमेनेति पूर्ववत् / जन्पुरुसमेन उपयुक्त देशकालचारितया / नटसमन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तहेषकरणेन / कुछटसमेन संविनागशीलतया / स हि किला प्राप्तमाहारं पादेन विक्षिप्यान्यैः सह जुङ्ग इति / आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणा द्यनुवृत्तिप्रतिबिम्बनावेन च // उक्तं च // तरुणं मि होश तरुणो. थेरो थेरोह डहर डहरो // अदा विवः रूवं, अणुयत्त जस्स जं शीलं // " एवंनूतेन श्रमणेन जावत