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S2G राय धनपतसिंघ बहारका जैनागमसंग्रह जाग तेतालीस (४३) -मा.
उहाररणं अप्पित्र्यकारणिं च, जासं न जासिक सया स पु ॥ ए ॥ अलोलु कुमाई, अपिसु यावि यदीए वित्ती ॥ मोजावr at विा जाविकाप्पा, कोहल्ले असया स पुको ॥ १० ॥ गुणेहिं साहू अगुणेहिं साहू, गिरहाहि साहू गुण मुंचसाहू || विप्पिंगमपणं, जो रागदोसेहिं समोस को ॥ ११ ॥ तदेव महरं च महागं वा, इत्थी पुमं पवइयां गिहिं वा ॥ नो ही नो वि खिंसा, यंनं च कोहं च चए सपुको ॥ १२ ॥ जे मासि माण्यंति, जात्तेण कन्नं व निवेशयति ॥
मा मारि वस्सी, जिईदिए सच्चरए सपुको ॥ १३ ॥ सिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चा ए मेहावि सुनासिचाई ॥ चरे मुणी पंचर तिगुत्तो, चक्कसायावगए स पुजो ॥ १४ ॥ गुरुमिह ययं परि मुणी, जिएमयनिज निगमकुसले || धुरियमलं पुरेकडं, जासुरमजलं गईं वइ ॥ त्ति वेमि ॥ १५ ॥ ॥ इति विषयसमाहीए त उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥
॥ अथ विणयसमाहिअज्झयणे चतुर्थ उद्देशः प्रारभ्यते ॥ ४ ॥ सुमे जसं ते जगवया एवमरकायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं अत्तारि विण्यसमा हिगण पन्नत्ता, करे खलु ते येरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिगणा पन्नत्ता, इमे खलु ते थेरेहिं जगवंतेहिं चत्तारि विण्यसमा हिंगणा पन्नत्ता, तं जहा, विषयसमाही, सुसमाही, तवसमाही, यारसमाही ॥
विए सुए तवे, आयरे निच्च पंडिया || निरामयंतिप्पाणं, जे जवंति जिइंदिया ॥ १ ॥ चहा खलु विषयसमही, तंजहा, अणुसासितो सुस्सूसइ, सम्मं परिवजाइ, वयमाराहर, न व त्तसंपग्गहिए, चलत्थं पयं जवइ, नवइ का इत्थ सिलोगो ॥
हिसास, सुस्सूसइ तं च पुणो हिडिए ॥ न य माणमएण माइ, विषयसमाहित्राययहिए । विहा खलु समाही जवइ, तं जहा सुखं मे विस्सर ति अनाअवं नवइ, एगग्गचित्तो विसामि नायं नवइ, अप्पाणं वावइस्सामि त्ति अायं नवइ वि, परं वसामि ति नाश्वयं जवइ, चत्यं पयं जवइ, जव अ इत्थ सिलोगो ॥ नामेगग्गचित्तो वि वावइ परं ॥ सुखाणि हिकित्ता, र सुसमाहिए ॥ ३ ॥ चहा खलु तवसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगघ्याए तवमहिाि, नो पर लोगहमहिका, नो कित्तिवन्नसधं सिलोगग्याए तवमहिहिका, नन्नत्थ निकरव्याए तवम. हिहिका, चत्यं पयं जव जव इत्थ सिलोगो ॥
विविहगुणतवोरए, निच्चं नवइ निरासए निकरहिए ॥ तवसा बुइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए
चहा खलु आयारसमाही जवइ, तं जहा नो इहलोगध्याए यारम हिधिका, नो परलोगया यारम हिहिका, नो कित्तिवन्नसध सिगोगहियाए श्रायारम हिंडिका, नन्नत्थ त्र्यारहंतेहिं हेउहिं श्रायारम हिडिजा, चलत्थ पयं जवइ, जवइ था इत्थ सिलोगो ॥ जिणवयणरए अतिंतिणे, पडिपुन्नाय माययहिए ॥ श्रयारसमाहिसंवुडे, जव अ दंते जावसंधए ॥ ५ ॥