Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
था। उस विजय को राजधानी क्षेमपुरी नामक नगरी थी। इस नगर में सुकच्छ विजय के स्वामी अनुसुन्दर नामक चक्रवर्ती हुए। ॐ अायुष्य के अन्तिम भाग में अनुसुन्दर चक्रवर्ती को अपने देश को देखने की इच्छा हुई और वे अानन्द पूर्वक यात्रा पर निकल पड़े । घूमते-घूमते वे शंखपुर नगर पहुंचे। नगर के बाहर मन को पालादित करने वाला चितरम नाम का उद्यान था। उस सुन्दर उद्यान के मध्य में मनोनन्दन नामक एक सुन्दर जिन मन्दिर था। किसी समय इस उद्यान के मन्दिर में समन्तभद्र नामक प्राचार्य पधारे। उनके सन्मुख महाभद्रा नामक प्रवतिनी साध्वी, सूललिता नामक सरल स्वभाव वाली राजकुमारी, पुण्डरीक नामक राजपुत्र एवं अन्य अनेक लोगों की सभा जुड़ी हुई थी। प्राचार्य समन्तभद्रसूरि ने ज्ञान-दृष्टि से यह जानकर कि अनुसुन्दर चक्रवर्ती ने महापाप किये हैं, उस समय इस प्रकार कहाबाहर लोगों में अभी जो भारी कोलाहल सुनने में पा रहा है, वह संसारी-जीव नामक चोर को वध्य-स्थल पर ले जाने के कारण है। प्राचार्यदेव के इस प्रकार के वचन सुनकर महाभद्रा साध्वी ने सोचा कि, जिस जीव का प्राचार्यश्री ने वर्णन किया है, वह अवश्य ही कोई नरकगामी जीव होना चाहिये। इस विचार से साध्वी को उस जीव पर करुणाभाव उत्पन्न हुना और वह वध-स्थान को ले जाने वाले जीव के पास गई। साध्वी के दर्शन से जीव को स्वगोचर (जाति स्मरण, ज्ञान हो गया। फिर उसने साध्वी से आचार्यश्री द्वारा कथित बात सुनी और वैक्रिप-लब्धि द्वारा चोर का वेश धारण कर, साध्वीजी के साथ प्राचार्य के सन्मख उपस्थित हुनाक राजपूत्री सुललिता ने जो प्राचार्य के पास ही बैठी थी, इस नवागन्तुक चार से चोरी के विषय में पूछा। प्राचार्य ने उसे निर्देश दिया कि, तुम अपना वृत्तान्त सुनायो। एतएव चोर ने राजपुत्री को प्रतिबोधित करने के लिये तीन संवेग उत्पन्न करने वाली स्वयं की भव-प्रपञ्च रूप आत्मकथा उपमाओं के माध्यम से कह सुनाई। इसी अवसर पर राजपुत्र पुण्डरीक भी जो पास में बैठा हुअा संसारी-जीव की कथा सुन रहा था, लघुकर्मी जीव होने से तुरन्त ही प्रतिबोधित हो गया। राजपुत्री सुललिता में पूर्वजन्मों का कर्म-दोष अधिक था, अतः बारम्बार उसे उद्देश्य कर कथा कहने पर भी वह प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हो रही थी। अन्त में विशिष्ट प्रेरणा द्वारा इसे भी बड़ी कठिनाई से बोध प्राप्त हुन । पश्चात् सभी ने अपना प्रात्म-हित क्रिया और मोक्ष को प्राप्त हुए। इस बहिरंग कथा-शरीर को अपने हृदय में अच्छी तरह धारण करें-- लक्ष्य में रखें । पाठवें प्रस्ताव में इन सव का स्पष्टीकरण किया जायेगा [८५-१००]
१. स्वगोचर ज्ञान को ही जातिस्मरण ज्ञान कहते हैं । यह शान मतिज्ञान का एक भेद है। इस
ज्ञान से पूर्वजन्म का वृत्तान्त स्मृति में प्राता है । २. यह एक प्रकार की लब्धि है । इस लब्धि से मनुष्य मन चाहा रूप धारण कर सकता है। .३ चोर का रूप धारण कर गुरु के सन्मुख आने वाला चक्रवर्ती स्वयं है, ऐसा समझे।
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