Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव १ : पीठबन्ध
कम हो गईं वैसे ही सम्यग् दर्शन प्राप्त करने से इस जीव की कर्मरूपी व्याधियाँ क्षीण हो गई। कर्म कमजोर पड़ने से चर (त्रस) अचर (स्थावर) समस्त प्राणियों को दुःख देने वाला दाह भी दलित हो जाता है, शान्त हो जाता है । इसी कारण सम्यग् दर्शन को अत्यन्त शीतल कहा गया है । जैसे तत्त्व प्रीतिकर जलपान से निष्पुण्यक की जलन ठण्डी पड़ गई और अन्तरात्मा स्वस्थ हुई वैसे ही सम्यग् दर्शन प्राप्ति के परिणाम स्वरूप इस जीव की कर्म-दु:ख स्वरूप जलन शीतल पड़ गई और उसका मानस स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया ।
[ २१ 1 कथा प्रसंग में कह चुके हैं कि स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने पर निष्पुण्यक सोचने लगाः . "अोह ! इन अत्यन्त कृपालु महापुरुष को मैंने महामोह के वश होकर मूर्खता से ठग और पापी समझा और कल्पना की थी कि ये मेरा भोजन छीन लेंगे, अतएव कुत्सित विचार करने वाले मुझको धिक्कार है। इन महापुरुष ने मुझ पर बड़ी कृपा कर, मेरी आँखों पर सुरमे का प्रयोग कर मेरी आँखों को बिल्कुल ठीक कर दिया, जिससे मेरी दृष्टि-व्याधि दूर हो गई। फिर मुझे पानी पिलाकर स्वस्थ बना दिया। वास्तव में इन्होंने मुझ पर बड़ा उपकार किया है । मैंने इन पर क्या उपकार किया है ? फिर भी इन्होंने मेरा इतना उपकार किया है । यह इनकी महानता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है।" इसी प्रकार सम्यग् दर्शन प्राप्त होने पर यह जीव भी धर्माचार्य के सम्बन्ध में ऐसे ही विचार करता है। वस्तु का यथावस्थित स्वरूप ज्ञात होने से वह रौद्र भावों का त्याग करता है, मदान्धता की प्रवृत्ति छोड़ देता है, कूटिलता का त्याग करता है. प्रगाढ़ लोभवृत्ति को छोड़ देता है, राग के वेग को शिथिल करता है, द्वेष की प्रबलता को बढ़ने नहीं देता और महामोहजनित दोषों को काट फैकता है। इन प्रवृत्तियों से इस जीव का मानस प्रफुल्लित हो जाता है, अन्तःकरण निर्मल हो जाता है, बुद्धि-चातुर्य बढ़ने लगता है, धन-स्वर्ण-कलत्रादि के प्रति मूर्छाभाव नहीं रहता, जीवादि तत्त्वों के स्वरूप जानने का आकर्षण और आग्रह होता है और समस्त प्रकार के दोष क्षीण हो जाते हैं । फलस्वरूप यह जीव दूसरे जीवों के गुण-विशेषों को समझता है, स्वकीय दोषों को लक्ष्य में लेता है, अपनी पुरानी अवस्था का स्मरण करता है और उस दशा में सद्गुरु ने मेरे लिये क्या-क्या प्रयत्न किो उनको स्मृतिपथ में लाता है तथा यह समझता है कि आज मैं जिस स्थिति में पहुँवा हूँ वह सब इन धर्माचार्य का प्रयत्न और प्रताप ही है। पुनश्च, मेरा यह जीव जो उस पूर्व की दशा में तुच्छ विचारों के कारण धर्म और गुरु आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के कुतर्क एवं कुविकल्प करता रहता था, उसे आज विवेक बुद्धि प्राप्त हुई है । विवेक दृष्टि प्राप्त होने पर वह चिन्तन करने लगा -अहो मेरी पापिष्ठता ! अहो मेरी महामोहान्धता । ॐ अहो मेरी निर्भाग्यता ! अहो मेरी * पृष्ठ ७५
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