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उपमिति भव-प्रपंच कथा
एकत्रित करने में प्रयत्नशील रहने लगा । अर्थात् वह अपने मित्र धारण को प्रसन्न करने के लिये अनेक कष्ट सहन करके भी सुगन्धित पदार्थ प्राप्त करने के अवसर को हाथ से नहीं जाने देता था । [ ६०५ ]
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हे राजन् ! इसी धरातल नगर में देवराज नामक राजा था जिसके लीलावती नामक पत्नी थी जो मन्द कुमार की बहिन थी । एक दिन मन्द कुमार अपनी बहन के यहाँ गया । संयोगवश उसी समय लीलावती ने अपनी सौत के पुत्र को मारने के लिये एक डूम्ब से हलाहल तेज विष को सुगन्धित पदार्थ में मिलवाकर पुड़िया बनवाई और उस पुड़िया को घर के दरवाजे के बाहर रख दी, जिससे कि उससे आकर्षित होकर सौत का लड़का उसे सूंघे और मर जाय । विष-मिश्रित सुगन्धी द्रव्य की पुड़िया द्वार पर रख कर वह घर के भीतर चली गई । उसके थोड़ी देर पश्चात् ही मन्द कुमार वहाँ श्राया और उसने द्वार पर पड़ी हुई पुड़िया को देखा, जिसमें से उत्कट तीव्र सुगन्ध निकल रही थी । उसके अन्तर में प्रविष्ट भुजंगता ने उसे उसी समय उस सुगन्ध को धारण तक पहुँचाने का आदेश दिया । फलस्वरूप दुरात्मा मन्द ने उस कागज की पुड़िया को खोला और उसे नाक के पास ले गया । अन्तर में बैठे हुए घ्राण ने ज्योंही उस तीव्र सुगन्ध को सूंघा त्योंही तत्क्षण उसके सारे शरीर में मूर्छा व्याप्त हो गई और मन्द वहीं जमीन पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
धारण की आसक्ति में रक्त मन्दकुमार की मृत्यु की इस घटना से बुध कुमार कारण के प्रति अत्यधिक विरक्ति उत्पन्न हो गई । [ ६०६-६११]
बुध को दीक्षा
तत्पश्चात् बुध कुमार ने अपनी साली मार्गानुसारिता से पूछा- भद्रे ! इस घ्राण से अब मैं पूर्णरूपेण विरक्त हो गया हूँ । अब यह मेरे से सर्वदा दूर ही रहे, इससे मेरा किसी प्रकार का सम्बन्ध न रहे, ऐसा कोई उपाय बतलाइये | [ ६१२] मार्गानुसारिता – देव ! भुजंगता का त्याग कर श्राप सदाचारी बन जाइये और सदाचार-परायण साधुयों के समुदाय में रहिये । साधुओं के मध्य में रहते हुए सदाचारी जीवन बिताने पर घ्राण आपके पास रहते हुए भी प्रापका कुछ बिगाड़ नहीं सकेगा । दोष और संक्लेश का कारण नहीं बन सकेगा । इसकी छाया भी आप पर नहीं पड़ेगी और धीरे-धीरे स्वतः ही इसका सर्वथा त्याग हो जायेगा । [६१३-६१४]
बुध कुमार को मार्गानुसारिता का कथन श्रात्म-हितकारी लगा, अतः उसने वैसा ही करने का निश्चय कर लिया । सद्गुरु का योग मिलने पर उसने गुरु महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की और साधुओं के बीच रहकर सदाचार का पालन करने लगा तथा सद्गुरु की उपासना सेवा में दत्तचित्त हो गया । धीरे-धीरे आगमोक्त शुद्ध भावों का ज्ञान होने पर उसे कुछ लब्धियों की प्राप्ति भी हुई और प्राचार्य ने
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