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प्रस्ताव ८ : सुललिता को प्रतिबोध
४०१ दीक्षा ली। फिर तुमने क्रिया-कलापों का अभ्यास किया और अनेक प्रकार के तप किये । उस समय तुम्हारे चित्त में एक दुर्बुद्धि पैदा हुई कि जो कुछ किया जाय उसके विषय में अधिक प्रचार/कोलाहल क्यों किया जाय? इसके फलस्वरूप तुम्हें स्वाध्याय की शब्दध्वनि भी अच्छी नहीं लगती, नयी वाचना लेने (पाठ सीखने) की रुचि नहीं होती, प्रश्न पूछना अच्छा नहीं लगता, परावर्तना/पुनरावृत्ति करना लक्ष्य में नहीं रहता, अनुप्रेक्षा/अभ्यास के विषय पर चर्चा करना भी अच्छा नहीं लगता और धर्मोपदेश देना या सुनना भी अच्छा नहीं लगता। फलतः तुम्हारा प्रचला (निद्रा) पर राग होने लगा, अभ्यास के प्रति उद्वेग होने लगा जिससे तुझे मौन रहना अच्छा लगने लगा। इतना अच्छा हुआ कि तुझे तीव्र अभिनिवेश (दुराग्रह) नहीं हुआ, जिससे तू ज्ञानाभ्यास करने वालों की विरोधिनी नहीं बनी । शास्त्राभ्यास करने वालों की बाधक या विघ्नकारक न बनी और उनके प्रति द्वष नहीं रखा। धर्मशिक्षक गुरुत्रों के नाम को नहीं छिपाया और कोई बड़ी आशातना नहीं की। फिर भी कुबुद्धि के कारण ज्ञान के प्रति तुझ में शिथिलता पाई और प्रवृत्ति में प्रमाद पाने से तूने ज्ञान की थोड़ी आशातना की। इसके परिणामस्वरूप तूने ऐसा कर्म बाँधा कि संसार-चक्र में असंख्य काल तक भटकती रही और जड़ बुद्धि वाली बनी। जैसेजैसे कर्म किये जाते हैं वैसे-वैसे ही कर्म बँधते हैं। उपेक्षा का भी फल प्राप्त होता है। हे सुललिता ! प्रायः प्राणी के भाव पूर्व-भव के अभ्यास से अनुसार ही बनते हैं। इस भव के भावों का पूर्व-भव के अभ्यास के साथ कितना गाढ सम्बन्ध होता है यह तू स्वयं अपने पूर्व-भव के अभ्यास से जान सकती है । जैसे मदनमंजरी के भव में तू पुरुषद्वेषिणी थी, अत: इस भव में भी तुम पुरुष षिणी बनी। तुम्हारी सखियों ने जब देखा कि तुम ब्रह्मचर्य पर अधिक प्रेम रखती हो तब वे तुम्हें ब्राह्मणी कहने लगीं। अब इन सब बातों से तुम्हारे मन में कुछ मेल-मिलाप हुआ या नहीं ?
सुललिता---'पार्य ! आपके वचनों में ऐसी कौनसी बात हो सकती है जिसका मिलन मन में न होता हो? आपका कथन सूर्य के प्रकाश के समान स्पष्ट होता है, फिर भी मैं निर्भागिनी उल्लू की तरह मूर्ख बनी खड़ी हूँ। आपका कथन इतना स्पष्ट होने पर भी मुझ दुर्भागिनी पर उसका कोई असर नहीं होता।'* कहते हुए उसके नेत्रों से स्थूल मुक्तामाल के समान अश्र ओं की झड़ी लग गई। उसके रुदन और पश्चात्ताप से ऐसा लगने लगा जैसे उसे धर्म के प्रति लागणी पैदा हो गई हो। सदागम की शरण
___ सुललिता की मनोदशा को समझ कर अनुसुन्दर चक्रवर्ती ने कहा-- राजकुमारी ! अब विषाद छोड़ो। तुमने ज्ञान की थोड़ी-सी आशातना कर जो कर्म
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