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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
निर्भागी उल्ल वृक्ष की कोटर के अन्धकार में छुपा रहता है। इसी प्रकार ज्ञान प्राप्त कर, वैराग्य का लाभ न उठाकर उल्ल जैसे प्राणी योग्य दृष्टि के अभाव में अज्ञानान्धकार से घिर कर संसार-वृक्ष की कोटर में छिपे रहते हैं। जब ज्ञान किरण से प्रदीप्त योग रूपी सूर्य हृदय में प्रज्जवलित हो तब अर्थ और काम का इच्छा रूपी अन्धकार कैसे विद्यमान रह सकता है ? अतः निर्मल चित्त वाले, वैराग्य और अभ्यास के रसिक जीवों के पालम्बन अनेक प्रकार के हो सकते हैं; क्योंकि ये पालम्बन ही अन्त में उसे माध्यस्थ भाव की तरफ ले जाते हैं। इसीलिये अन्य कुतीथिकों/दर्शन वालों ने जो ध्येय के अनेक भेद बताये हैं, वे जिन मत रूपी समुद्र से निकले बिन्दु के समान हैं । अन्य दर्शनों की श्रेणी ऊंट वैद्य की वैद्यशालाओं के समान स्वरूप से तो कर्मरोग को बढ़ाने वाली ही है, पर कभी-कभी जो उनका कर्मरोग घटता हुग्रा या नष्ट होता हुआ दिखाई देता है, उसका कारण भी वे सर्वज्ञ-वचन ही हैं जो कहीं-कहीं उनके शास्त्रों में गूथे हुए हैं, ऐसा समझो। [८३५-८४२]
सवैद्य की वैद्यशाला के समान ही सर्वज्ञ-मत की शाला है और इनकी द्वादशांगी रूपी संहिता ही कर्मरोग को नष्ट करने वाली है। लोगों में कोई-कोई सुन्दर वचन व्याधिनाशक भी प्रचलित होते हैं, पर वे समस्त गुरणों की खान द्वादशांगी में व्याप्त वचनों में से ही हैं, ऐसा समझना चाहिये । [८४३-८४४]
कुछ बुद्धिहीन दार्शनिक हिंसा के अच्छे परिणाम बतलाते हैं और देव-देवी के स्मरण मात्र से पाप का नाश होना बतलाते हैं,* वे सब तत्त्वरहित हैं और उनके वचन युक्तिरहित तथा विवेकी पुरुषों के लिए हास्यास्पद हैं। [८४५-८४६]
१६. जैन दर्शन की व्यापकता
तत्त्व-जिज्ञासा
केवली समन्तभद्राचार्य के मुख से ध्यानयोग का स्वरूप सुनकर पुण्डरीक मुनि ने तत्त्व को विशेष स्पष्ट करने की अभिलाषा से प्राचार्यश्री से पुनः प्रश्न किया :-भगवन् ! जैसे आप जैन दर्शन को व्यापक बताते हैं वैसे ही अन्य तीथिक दार्शनिक भी अपने-अपने दर्शन को व्यापक बताते हैं । इसका क्या उत्तर है ? जैसे सभी दार्शनिक अपने दर्शन की स्थापना करने वाले को सर्वज्ञ बताते हैं, दूसरे दर्शन का तिरस्कार करते हैं और अपने दर्शन की प्रशंसा करते हैं। स्वयं जिसे देव, धर्म, तत्त्व और मोक्ष मानते हैं, उसके प्रति दृढ़ अाग्रह रखते हैं। वे स्वप्न में भी स्वीकार
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