Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1204
________________ प्रस्ताव ८ : जैन दर्शन की व्यापकता ४२३ विशुद्धि की कोटियां (श्रेणियाँ) चार कही गई हैं-ऐश्वर्य, ज्ञान, वैराग्य और धर्म । जब सत्त्व, रजस् और तमस् से घिर जाता है तब प्रकाश अन्धकार में बदल जाता है और उपर्युक्त ऐश्वर्य प्रादि चारों गुण विपरीत हो जाते हैं। रजस् के आवरण से वैराग्य के स्थान पर अवैराग्य हो जाता है और तमस् के आवरण से ऐश्वर्य के स्थान पर अनैश्वर्य, ज्ञान के स्थान पर अज्ञान और धर्म के स्थान पर अधर्म हो जाता है । रजस् और तमस् दोनों साथ रहते हैं । जहाँ एक होता है वहाँ दूसरे का होना अवश्यंभावी है । रजस् और तमस् से घिरा हुआ मैल युक्त* सत्त्व सर्वथा संसार बढ़ाने वाला और दुःखों का कारण होता है । जबकि वही निर्मल सत्त्व शक्ति से परिपूर्ण तथा सुख एवं मोक्ष का कारण होता है । इस सत्त्व को निर्मल बनाने के लिये ही तप, ध्यान, व्रत आदि अनेक अनुष्ठान बताये गये हैं । यह शुद्ध सत्त्व ही परमदैवी / पारमेश्वरी तत्त्व भी है । सत्त्व-गोचर जो ज्ञान होता है वही यथार्थ ज्ञान है और इसके प्राश्रय में जिस श्रद्धा का पालन किया जाता है वही वास्तविक श्रद्धा है । इस श्रद्धा को बढ़ाने वाली क्रिया को ही सच्ची क्रिया कहा जाता है और उस सत्क्रिया के मार्ग पर चलने को ही सच्चा मोक्ष मार्ग। जिन महान् सत्त्वों ने शुद्ध बुद्धिपूर्वक सत् तत्त्व को पहचान लिया है, वे मेरु के समान निष्कम्प/निश्चल चित्त वाले हो जाते हैं, उनको किसी प्रकार की भ्राँति, शंका या घबराहट नहीं होती । जो मढ़ लोग शुद्ध-तत्त्व मार्ग से भ्रष्ट होकर जहाँ-तहाँ भ्रमरण कर रहे हैं, इधर-उधर भटक रहें हैं, उन पर महान कृपा कर शुद्ध बुद्धि वाले महान सत्त्व उन्हें सत्य मार्ग बताते हैं, और उन्हें भटकने से बार-बार रोकते/टोकते हैं । मैंने तुम्हारे समक्ष संक्षेप में अत्यन्त प्रशस्ततम सत्त्व का वर्णन किया । महान योगी इसी सत्तव का निर्णय कर अपने विशाल कार्यों को क्रियान्वित करते हैं । [८७८-८८८] __ जैसे शुद्ध सत्त्व अविचल, एक और प्रमाणसिद्ध है वैसे ही मोक्ष भी अविचल, एक और प्रमाणसिद्ध है । यह अत्यन्त आह्लादकारी, सुन्दर और सुसाध्य है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त वीर्य वाली, अमूर्त, एक ही रूप वाली आत्मा का निज स्वरूप में रहना ही मोक्ष है । यही मोक्ष का लक्षण है । फिर उसे संसिद्धि, निर्वत्ति, शान्ति, शिव, अक्षय, अव्यय, अमृत, ब्रह्म, निर्वाण या अन्य किसी भी नाम से पुकारा जाय, पर ये सब मोक्ष को ही ध्वनित करते हैं [८८६-८६१] ये सभी प्रकार के कर्त्तव्य लेश्याशुद्धि के लिए ही हैं, लेश्याशुद्धि मोक्ष के लिये है और मोक्ष उपर्य क्त वरिणत लक्षण वाला है । अर्थात् जिससे प्रात्मा निज-स्वरूप में स्थित हो वही मोक्ष है और आत्मा को निज-स्वरूप में स्थित करने वाली लेश्याशुद्धि मोक्ष का कारण है। लेश्याशुद्धि की विशेषता या अल्पता के कारण देवगति या मनुष्य जन्म में प्रानुषंगिक रूप से जिन सुखों की प्राप्ति होती है, उन्हें भी मोक्ष-प्राप्ति के लिये त्याग करने योग्य कहा गया है । [८६२-६३] * पृष्ठ ७६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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