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प्रस्ताव ८ : जैन दर्शन की व्यापकता
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नहीं करते कि अपने अतिरिक्त अन्य दर्शन भी सत्य दर्शन हो सकता है। अतः जैसे अन्य दार्शनिक अपने दर्शन का गर्व करते हैं वैसे ही हम भी अपने दर्शन का गर्व करते हैं। फिर हममें और उनमें क्या अन्तर है ? हे नाथ ! कृपया इसका स्पष्टीकरग करिये, ताकि मेरा मन सुमेरु शिखर के समान उन्नत हो जाये । [८४७-८५२] जिज्ञासा का समाधान
स्वच्छ दन्तपंक्ति से प्रस्फुटित किरणों के समान शोभित अधर वाले गुरु महाराज ने पुण्डरीक का मन आश्वस्थ हो सके ऐसा संदेह-रहित निम्न स्पष्टीकरण किया :देव एक है
मैंने अभी जो जैन दर्शन को व्यापक बताया वह सम्यकदृष्टि का, सत्य दृष्टि से देखने वालों का और गहन विचार तथा तत्त्वचिन्तन के परिणामस्वरूप किया गया निश्चय है । भेद-बुद्धि, तुच्छ-दृष्टि का परिणाम है । वह अपवित्रता से उत्पन्न होती है और प्राणी को मोहाभिभूत कर देती है। जो प्राणी तत्त्व को जानते हैं वे इस व्यापक दर्शन के अन्तर्गत आ जाते हैं। उनमें से ऐसी घबराहट पैदा करने वाली भेद-बुद्धि स्वतः ही चली जाती है। ऐसे भेद-बुद्धि-रहित प्राणी को एक ही देव दिखाई देता है। वह देव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग, द्वेषरहित, महामोहादि का नाशक, सशरीरी होने पर सम्पूर्ण लोक का भर्ता तथा अशरीरी होने पर मोक्ष-प्राप्त परमात्मा ही हो सकता है। [८५३-८५७]
जब प्राणी अपने मन में देव का उपयुक्त स्वरूप निश्चित करता है तब उसके चित्त में नाना प्रकार के शब्द कोई भेद-बुद्धि उत्पन्न नहीं कर सकते । वह तो स्वरूप पर ही दृष्टि रखता है, उसे नाम का मोह नहीं होता। फिर चाहे लोग ऐसे देव को बुद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जिनेश्वर या अन्य किसी भी नाम से सम्बोधित करें । यथार्थ दृष्टि वाला इनकी कोई अपेक्षा नहीं करता, उसके लिए शाब्दिक-भेदों से कोई अर्थ-भेद नहीं होता। [८५८-८५६]
___ जो देव के उपर्युक्त स्वरूप को पहचान कर उसका भजन करते हैं, उनके लिए तेरे-मेरे का प्रश्न ही नहीं उठता । 'यह देव मेरे हैं, तेरे नहीं' यह सब तो मत्सर भाव/झूठा भ्रम है । जो कोई भी भाव से उसकी साधना करता है, भाव से उसकी कामना करता है, उसका वह शिव कल्याण करता है । सींग के भय से चांडाल को पानी पीने से नहीं रोका जा सकता। जिसके समग्र प्रकार के क्लेश नष्ट हो गये हैं, वही देव है, अत: उसके लिए तो सभी प्राणी समान हैं । जो भी उसे पहचानता है, उसकी मुक्ति होती है । गंगा किसी की बपौती है ? संसारी आत्मायें तो कर्मभेद से भिन्नभिन्न प्रकार की ऊँच-नीच आदि भेद वाली होती हैं, किन्तु परमात्मा तो कर्म-प्रपंच से रहित है, अत: उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं हो सकता। [८६०-८६३] *
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