Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1200
________________ प्रस्ताव ८ : ऊंट वैद्य कथा ४१६ इसी प्रकार स्थिरता और निर्मलता पैदा करने वाले अहिंसात्मक अनुष्ठानों से मन में अच्छी विचार तरंगे उठती हैं। जैसे, पथ्यकारी थोड़ा भोजन स्वास्थ्यवर्धक होता है वैसे ही अहिंसामय अनुष्ठान अच्छी विचार तरंगें उत्पन्न करते हैं । तीसरा, उच्च ध्यान चित्त के सभी कर्मजालों का अन्त कर देता है । इस ध्यान में चित्त उपर्युक्त अच्छी-बुरी विचार तरंगों से मुक्त रहता है। यह माध्यस्थ भाव प्रात्मा के साथ लगे शुभ-अशुभ कर्मों को समाप्त करने में कर्म-निर्जरा का कारण बनता है । [८२५-८२७] जिस प्राणी को मोक्ष प्राप्त करना हो, कर्म से मुक्त होना हो उसे चित्त के संकल्प-विकल्प रूपी जालों का निरोध करना पड़ेगा और उसके लिए राग, द्वष आदि का विच्छेद करने वाले नाना प्रकार के उपायों का सतत प्रयोग करना होगा । [८२८] ऐसे उपाय चाहे अन्य तीथिकों/ दर्शन वालों ने बताये हों अथवा जिन शासन में कथित हों उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । वैसे उपाय भावतीर्थ में व्याप्त होने से ध्येय भाव को दूषित नहीं करते । अर्थात् ध्येय का कोई अाग्रह नहीं, मात्र उपाय भावतीर्थ में होना चाहिये। उपाय ऐसा होना चाहिये कि जिससे राग-द्वेष का विच्छेद हो और चित्त के संकल्प-विकल्प दब जायें ।। ऐसा कहा जाता है कि मुमुक्ष बाहर से विशुद्ध कर्त्तव्य करते हुए नाना प्रकार के ध्येयों का प्राश्रय लेकर भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, इसका कारण माध्यस्थ भाव ही है। इतना अवश्य है कि परमात्मा को ध्येय बनाने पर जैसा संवेग प्राणी के चित्त में उत्पन्न होता है, वैसा बिन्दु आदि को ध्येय बनाने पर नहीं हो सकता । चित्त को जैसा सुन्दर या असुन्दर आलम्बन मिलता है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है, यह अनुभव सिद्ध है। [८२६-८३२] भिन्न-भिन्न जीवों की रुचि भी भिन्न-भिन्न होती है, किसी के चित्त की शुद्धि किसी पालम्बन से होती है और किसी की अन्य पालम्बन से । इसीलिये अन्त:करण को विशुद्ध करने वाली मौनीन्द्रमार्ग की देशना अनेक प्रकार के प्राशयों से परिपूर्ण अनेक प्रकार की है। अतः शुद्ध माध्यस्थ भाव धारण करने वाले, विशुद्ध अन्त:करण वाले किसी पुण्यात्मा प्राणी को बिन्दु आदि ध्येयों से भी चित्त की शुद्धि हो जाय तो इसमें क्या आश्चर्य ? [८३३-८३४] कुछ मूर्ख प्राणी तत्त्व को जानकर भी विशुद्ध अन्तःकरण और मध्यस्थता के अभाव में विपरीत आचरण करते हैं जिससे वे अर्थ और काम में प्रवृत्ति करते हैं। जबकि हमारे जैसे योगी उसी तत्त्वज्ञान के परिणाम स्वरूप एकदम निर्विकल्प होकर भ्रमण करते हैं । अर्थात् ऐसे राग-द्वेष के वशीभूत और मलिन अन्त:करण वाले प्राणियों को ज्ञान भी विपरीत फल देता है। प्रखर सूर्योदय के समय भी * पृष्ठ ७६३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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