Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ८ : ऊंट वैद्य कथा
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जैन दर्शन
हे आर्य पुण्डरीक ! अन्य तीर्थ (दर्शन) तीर्थंकर महाराज के वचन में से ही निकले हुए हैं । इसी कारण जैन-दर्शन व्यापक है, सब से ऊपर है और सब में व्याप्त है। यही कारण है कि राग, द्वष, महामोह के प्रतिपक्षी सत्य, जीव दया, ब्रह्मचर्य, पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, प्रौदार्य, शोभन वीर्य, अकिंचनता (धनत्याग), लोभत्याग, गुरुभक्ति, तप, ज्ञान, ध्यान और अन्य इसी प्रकार के आस्तिक दर्शनों के अनुष्ठान स्वरूपत: सुन्दर और अच्छे तो लगते हैं, पर वे माँगे हुए आभूषणों के समान होने से सुशोभित नहीं होते। इसका कारण यह है कि वे सत्य, प्राणीदया, ब्रह्मचर्य आदि को अपनी कल्पना से गढे हुए अन्य वचनों के साथ मिला देते हैं और यज्ञ, होम आदि से जोड़ देते हैं। क्योंकि, वे सर्वज्ञ-वचन के अतिरिक्त अन्य वचनों से उनका मिश्रण कर देते हैं, इसलिये वे उन आभूषणों से सुशोभित नहीं होते । सर्व प्रकार की उपाधियों से रहित, मात्र गुणों का ही प्रतिपादन करने वाला सर्वज्ञ-दर्शन सभी तीर्थों/ दर्शनों में कतिपय अंशों में विद्यमान है। इस प्रकार सद्भावयुक्त सर्वगुणसम्पन्न जैनदर्शन सर्वत्र व्याप्त है। मात्र बाह्य लिंग (वेष) ही धर्म का कारण नहीं है ऐसा समझो । [८०१-८०७]
तुमने पूछा था कि भिन्न-भिन्न प्रकार के ध्यान-योग के बल पर क्या ये अन्य दर्शन वाले भी मोक्ष के साधक हैं या नहीं ? इस प्रश्न का अब मैं स्पष्टीकरण करता हूँ। [८०८]* बाह्य लिंग : वेष
कुछ प्राणियों का आचरण दुष्ट होता है वे स्वयं शुद्ध अनुष्ठान-रहित होते हैं । ऐसे लोग यदि ध्यान करते हैं तो वह दिखावा मात्र होता है। विवेकी लोगों को ऐसे दिखावे पर तनिक भी विश्वास नहीं करना चाहिये। जैसे धान का छिलका निकाले बिना चावल का मैल नहीं धुल सकता वैसे ही जीवन में पहले प्रारम्भ-समारम्भादि छिलकों को सदाचार और ध्यान के माध्यम से निकाले बिना अन्य कर्म-मल की शुद्धि नहीं हो सकती है। मलिन-पारम्भी लोगों की शुद्धि मात्र बाह्य ध्यान से नहीं हो सकती । जो तुच्छ सांसारिक प्रारम्भ-समारम्भ करते रहते हैं, उनकी शुद्धि मात्र बाह्य ध्यान से नहीं हो सकती । आचरण और अनुष्ठानरहित लोगों को छिलके वाले चावल जैसा ही समझना चाहिये। [८०९-८११]
जो प्राणी समस्त प्रकार की उपाधियों से रहित होते हैं वे मोक्ष प्राप्ति के योग्य उच्चतम और श्रेष्ठ ध्यानयोग की साधना करते हैं, जिससे वे मोक्ष के साधक बनते हैं। उपाधिरहित होकर ध्यानयोग की साधना करने वाली निर्मल आत्मा चाहे किसी भी तीर्थ/दर्शन को मानने वाली हो, उसे भावत: जैन शासन के अन्तर्गत ही समझना चाहिये।
* पृष्ठ ७६२
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