Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1206
________________ प्रस्ताव ८ : जैन दर्शन की व्यापकता ४२५ __ अधिक क्या कहँ ? इस लोक में जितने भी प्राणी यथावस्थित दृष्टि वाले हैं, वे सभी इस तात्त्विक शुद्ध दर्शन के अन्तर्गत आ जाते हैं । ऐसे विशाल दर्शन में रहने वालों का तेरा-मेरा तो नष्ट ही हो जाता है, अतः वे किसी प्रकार का वाद-विवाद करते ही नहीं। कभी वाद करना भी पड़े तो वे सब को समानता प्रदान करते हैं, सब के अन्दर गहराई में रही हुई एकरूपता का भान कराते हैं । कुछ प्राणियों का कर्म-मल नष्ट नहीं होने से वे विपरीत दृष्टि वाले होते हैं, जिससे मात्सर्य और अभिमान में आकर वे अपने दर्शन को ही व्यापक बताते हैं, उसी को सर्वव्यापक कहलवाने का दावा करते हैं। ऐसे जन्मान्ध तुल्य मनुष्यों को तो उत्तर न देना ही अच्छा है, अथवा यदि संभव हो तो ऐसे लोगों को तत्त्वमार्ग पर लाने का प्रयत्न करना चाहिये । इस ससार में मोह को नष्ट करने के समान अन्य कोई महत्तम उपकार नहीं है। [६०८-६११] पुण्डरीक ! तूने पूछा कि अन्य दार्शनिक अपने दर्शन को व्यापक बताते हैं, उसका क्या उत्तर है ? उसी विषय में मैंने तुझे ऐसा उत्तर बताया है कि जिसका कोई प्रतिघात न हो, कोई काट न कर सके । बात ऐसी है कि जैन-दर्शन में दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग-शास्त्र है जो समुद्र के समान विशाल है, इस में सभी नयों (दृष्टियों) का समावेश है। इस सागर में कुदृष्टि रूपी नदियां भी आकर मिल जाती हैं, यह सब तू इससे स्पष्ट समझ सकेगा। जब तू इसका अभ्यास करेगा तब तेरे समस्त सन्देहों का विलय/नाश हो जायेगा और तुझे पूर्ण विश्वास हो जायगा कि सर्वज्ञ महाराज के वचनों से अधिक श्रेष्ठ कोई वचन नहीं है । [६१२-६१४] इस प्रकार समन्तभ्रद्राचार्य ने पुण्डरीक मुनि के प्रश्नों का विस्तारपूर्वक समाधान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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