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प्रस्ताव ८ : मोक्ष-गमन
४२६ सद्धर्म) को ही सर्वोत्तम रूप से अंगीकार करता हूँ। भवभीरु (संसार से भयभीत) होकर मैं इन चारों की शरण ग्रहण करता हूँ [६५१-६५२ ]
____ मैं सभी कामनाओं से निवत होता है। मेरे मन के विकल्पजालों का मैं निरोध करता हूँ। अब मैं सभी प्राणियों का बन्धु हूँ और सभी स्त्रियों का पुत्र हूँ। सर्व प्रकार के मन, वचन काया के योगों का निरोध करने वाली शुद्ध सामायिक को अब मैंने ग्रहण कर लिया है। मैंने मन, वचन, काया की सभी चेष्टाओं का त्याग कर दिया है । हे परमेश्वर ! हे महान् उदार सिद्धों! आप अपनी कृपा-दृष्टि इधर कीजिये, अपनी करुणा-दृष्टि मुझ पर डालिये। अभी मुझ में प्रकर्ष संवेग उत्पन्न हुआ है, अत: हे प्रभो ! मेरे द्वारा इस भव में या अन्यत्र कभी भी कोई बुरा आचरण हुआ हो तो मैं उन सब की पुन:-पुन: निन्दा करता हूँ।
___मैं समस्त उपाधि से विशुद्ध हो गया हूँ, ऐसा मैं इस समय मानता हूँ । आगे सत्य-तत्त्व को तो केवली भगवान् ही जानते हैं। [९५३-६५६]
मैं संसार-प्रपञ्च से विलग हो गया है। इस समय मुझे एक मात्र मोक्ष की लगन लगी हुई है। जन्म-मरण का सर्वथा नाश करने वाले जिनेश्वर देव को मैंने मेरी आत्मा को समर्पित कर दिया है। इन महात्माओं को सदभाव पर्वक मेरा चित्त अर्पित है । अब वे इस समय अपनी शक्ति से मेरे समस्त शेष कर्मों का नाश करें। [६५७-६५८]
इस प्रकार प्रणिधान एवं आलोचना पूर्वक पुण्डरीक महात्मा ने शरीर के ममत्व का त्याग कर, निःसंग होकर एक शिला-खण्ड पर पादपोपगम (वृक्ष की तरह निश्चल होकर) अनशन धारण किया।
पादपोपगम की स्थिति में विराजमान पुण्डरीकाचार्य को उस समय देवों और असुरों की ओर से अनेक भीषण उपसर्ग हुए जिनको उन्होंने शान्तिपूर्वक अपने प्रांतरिक तेज से सहन किया । पशु-पक्षी और मनुष्यों के उपसर्ग भी उन्होंने उसी धैर्य से सहन किये।
___ इसके पश्चात् धर्म-ध्यान द्वारा उन्होंने अपने अनेक कर्मों का नाश किया और शुक्लध्यान धारण किया और अपने वीर्य (सत्त्व) रूपी अग्नि के बल से समग्र तथा कर्मजालों को भस्मीभूत कर दिया । शुभ ध्यान की वृद्धि होते-होते क्षपक श्रेणी पर प्रारूढ़ होकर चारों घाती कर्मों को नष्ट कर अनन्त वस्तुओं के दर्शक केवलज्ञान को प्राप्त किया। [६५६-६६३]
उस समय उनके गुणों से आकर्षित होकर उनकी पूजा करने के लिये चारों प्रकार के देवता वहाँ एकत्रित हुए। किन्नरगण मधुर स्वर में गाने लगे, आकाश में देव-दुन्दुभि बजाने लगे, देवांगनायें नृत्य करने लगीं, देवगणों ने चारों तरफ के रज (कचरे) को साफ कर सुगन्धित जल और मनोहर पुष्पों की वृष्टि की।
* पृष्ठ ७७० Jain Education International
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