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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
गृह त्याग जैसा महान कार्य * सफलता को प्राप्त हो । यदि तुम इनकी आज्ञा का उल्लंघन करोगे, या प्राज्ञा के प्रतिकूल चलोगे तो वह जगत्बन्धु तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन माना जावेगा । तुम जानते ही हो कि भगवान् की आज्ञा के उल्लंघन से इस भव तथा परभव में तुम्हें अनेक प्रकार की विडंबनायें प्राप्त होंगी, अतः सदा इनकी आज्ञा में और इनके अनुकूल ही रहना । 'कुलवधु न्याय' से अर्थात् जैसे कुलवधु किसी भी प्रकार की स्खलना के कारण सास, ससुर, पति आदि से तिरस्कृत होने पर भी ससुराल और पति के चरणों को नहीं छोड़ती वैसे ही तुम्हें नियंत्रण में रखने के लिये यदि गुरु कुछ कटूक्ति भी कह दें तब भी तुम्हें जीवनपर्यन्त इनके चरण-कमलों को नहीं छोड़ना चाहिये, कभी इनका अनादर नहीं करना चाहिये।
जो भाग्यशाली गुरु-चरणों की सर्वदा सेवा करते हैं वे ही वास्तव में सच्चे ज्ञान के पात्र हैं ! ऐसे मुनियों का दर्शन निर्मल और चारित्र निष्प्रकम्प/स्थिर होता है। [९३६-६४१]
शिष्यों ने सिर झुका कर सद्धर्माचार्य के वचन स्वीकार किये और पुनः पुनः गुरु महाराज को वन्दन किया । इस प्रकार अपने कर्त्तव्य को पूर्ण कर पुण्डरीकसूरि गरण का त्याग कर किसी श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चले गये। [६४२-६४३]
गुफा में पहुँच कर वे स्थिर हो गये । महान् तपस्या के अनुष्ठान से उनके शरीर का रक्त-मांस सूख गया और अस्थिपंजर मात्र रह गया । फिर भी धैर्यवान मनस्वी महर्षि ने परिषह सहन करने के लिये स्वयं को एक शुद्ध शिला पर स्थिर कर दिया । फिर उन्होंने भावपूर्वक पंच परमेष्ठी मंत्र का स्मरण प्रारम्भ किया। चित्त को नमस्कार मंत्र में एकाग्र कर, हृदय में सिद्धों की स्थापना कर, दृष्टि को इधर-उधर से हटाकर प्रणिधान धारण किया । धर्मध्यान और शुक्लध्यान के हेतुभूत इस प्रणिधान को इन महान भाग्यवान आचार्य ने अत्यन्त विशुद्ध बुद्धिपर्वक और तीव्र संवेग के साथ स्वीकार किया। इस प्रणिधान में उन्होंने निम्न चिन्तन कियाः
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य को प्राप्त करने में तत्पर मेरी अन्तरात्मा एक ही है, मात्र वही मेरी है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी का मैंने त्याग कर दिया है। राग, द्वष, मोह और कषाय रूपी मैल को धोकर मैं विशुद्ध हो गया हूँ । अब मैं सच्चा स्नातक हो गया है। सभी जीव मुझे क्षमा करें, मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ। मेरी आत्मा अब वैर-विरोध रहित होकर अत्यन्त शान्त और क्षेत्रज्ञ हो गई है । अभी तक मैंने किसी भी बाह्य वस्तु को अपनी समझ कर ग्रहण करने की भूल की हो, उसका अब मैं त्याग करता हूँ। [६४४-६५०]
महान् तीर्थंकर भगवान् (अरिहन्त), पापरहित सिद्ध भगवान्, विशुद्ध सद्धर्म और साधु मेरा मंगल करें । त्रैलोक्य में मैं इन चारों (अरिहन्त, सिद्ध, साधु और
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