Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1208
________________ प्रस्ताव ८ : मोक्ष-गमन ४२७ अन्तिम पाराधना के समय को निकट जानकर पहले उन्होंने अपने शिष्यरत्न धनेश्वर को स्वकीय स्थान पर प्राचार्य पद पर स्थापित किया। धनेश्वर मुनि उच्च क्रियाओं के अभ्यासी थे । योग-क्रियाओं के पालक थे और सभी आगमों के गीतार्थ/निष्णात थे। क्रिया और ज्ञान में पारंगत शिष्यरत्न को प्राचार्य पद पर स्थापित कर प्राचार्य पुण्डरीक कृतकृत्य हुए। [६२६] ___ फिर प्राचार्य ने धनेश्वर को अनुज्ञा प्रदान कर, अपने सामने सब से आगे बिठाकर गच्छ का भार सौंपा और अनुशासनात्मक निर्देश दिया हे महाभाग्यशालिन् ! यह जिनागम संसार रूपी महापर्वतों को भेदने में वज्र के समान है, पर वह बड़ी कठिनाई से सीखा जाता है । तुमने इसे सीखा है, अतः तुम धन्यवाद के पात्र हो । आज तुम्हें जिस पद का भार सौंपा गया है वह संसार में सब से उत्तम सत्सम्पदाओं का पद है, महास्थान है । यह आत्मसंपत्तियों का सर्वोच्चतम पवित्र स्थान है और पहले भी कई महासत्त्वधारी धीर-वीर-पुरुष इसको सुशोभित कर चुके हैं । हे वत्स ! यह पद भाग्यशाली को ही दिया जाता है । जो महासत्त्व इस पद-भार को संभालता है, वह धन्य है। ऐसे भाग्यवान प्रारणी इस पद को प्राप्त कर संसार से भी पार उतर जाते हैं। [६२७-६३०] यह समस्त मुनिपुंगवों का समूह संसार-अटवी से घबराकर अब से तेरी शरण में है। तू इतना सक्षम है कि तू इन्हें संसार-अटवी से पार उतार सकता है, इसीलिये ये मुनि तेरी शरण में आये हैं। [३१] भाग्यशाली प्राणी स्वयं परमैश्वर्य युक्त निर्मल गुणपुञ्जों को प्राप्त कर संसार से त्रस्त प्राणियों की रक्षा करते हैं । उन्हें संसार-भय से मुक्त करते हैं । ये संसारी जीव सचमुच भाव-रोग से पीड़ित हैं और तू यथार्थ भाववैद्य/भिषग्वर है, अतः तुझे इन उत्तम संसारी जीवों को भाव-व्याधि के दु:ख से प्रयत्नपूर्वक छड़ाना चाहिये । जो गुरु स्वयं चारित्र और क्रिया में अप्रमादी होता है, परोपकार में उद्यमी होता है, मोक्ष पर दृढ़ लक्ष्य वाला होता है और संसार-बन्दीगृह से निःस्पृह होता है वही अन्य प्राणियों को दु:ख और व्याधि से छुड़ा सकता है। तू इस स्थान/पद के सर्वथा योग्य है और तुझे ऐसी प्रेरणा करना कल्प है| शास्त्र की प्राज्ञा है । इसीलिये मैंने तुझे इतना प्रेरित किया है। संक्षेप में तुझे अपने गच्छाधिपति पद के योग्य सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये । [६३२-६३५] आचार्य पुण्डरीक के उपर्युक्त अनुशासनात्मक निर्देश को धनेश्वरसूरि नतमस्तक होकर विनयपूर्वक सुनते रहे । तत्पश्चात् पुण्डरीकाचार्य ने अपनी दृष्टि अपने शिष्यों की तरफ घुमाई और कहा हे शिष्यों! तुम सब को यह ध्यान रखना चाहिये कि धनेश्वरसूरि तुम्हें संसार-सागर से पार उतारने के लिये सचमुच एक सुदृढ़ जहाज के समान है । यदि तुम्हें सागर से पार उतरना है तो इस जहाज को कभी भी मत छोड़ना। तुम्हें सदा इनके अनुकूल बनकर रहना चाहिये, कभी भी इनके प्रतिकूल कोई कार्य नहीं करना चाहिये । सदा इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये, जिससे कि तुम्हारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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