________________
४१०
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
क्रीड़ा की इच्छा से निवृत्त होने पर भी सिहिनी के समान पराक्रमी इस राजकन्या ने लीलापूर्वक लघु सिंहविक्रीडित एवं बृहत् सिंहविक्रीडित तप किया ।
· फिर उसने शरीर के भूषण स्वरूप भद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोत्तरा प्रतिमाएँ ग्रहण की।
फिर विनष्ट पाप वाली महादेवी सुललिता वर्धमान आयंबिल तप द्वारा प्रतिक्षरण बढ़ती रही और अपने ज्ञान में वृद्धि करती रही।
चन्द्रायण तप द्वारा इसने अपने कुल रूपी आकाश को चन्द्रलेखा के समान उद्योतित किया।
फिर निष्पापा सुललिता ने यवमध्य और वज्रमध्य की प्रासेवना की जिसकी वजह से वह देवी संसार बन्दीगृह के प्रति एकदम नि:स्पृहवृत्ति वाली हो गई । तपस्या से वह महान शक्तिशालिनी बन गई और उपर्युक्त तथा अन्य अनेक प्रकार के तपों से उसने अपने सब पाप धो डाले जिससे उसकी उत्थान-प्रगति निरन्तर बढ़ती गई।
[७१३-७२१] द्वादशांगी का सार : ध्यानयोग
इधर पुण्डरीक मुनि भी इतने ज्ञानाभ्यास-परायण हो गये कि कुछ ही समय में वे शास्त्र के गहन अर्थ और सूत्र को समझने वाले गीतार्थ एवं जितेन्द्रिय बन गये ।
अन्यदा सम्पूर्ण अागम के विशुद्ध सार/ आन्तरिक प्राशय को जानने की इच्छा से उन्होंने विनय पूर्वक गुरु महाराज से पूछा- भगवन् ! बारह अंग सूत्र रूपी द्वादशांगी जो भगवान् द्वारा प्ररूपित है, वह तो समुद्र के समान अत्यन्त विशाल है. संक्षेप में इसका सार क्या है ? यह बताने की कृपा करें। [७२२-७२४]
प्राचार्य-आर्य ! सम्पूर्ण जैन आगम का सार सनिर्मल ध्यानयोग है। सभी बातों का रहस्य इसी एक शब्द में आ जाता है। इसका कारण यह है कि जैन शास्त्रों के नीति विभाग में श्रावकों और साधुनों के लिये जो मूल और उत्तर गुणों का एवं बाह्य क्रियाओं का वर्णन है उन सब का अन्तिम लक्ष्य ध्यानयोग ही कहा गया है। इन सभी गुणों और क्रियाओं का हेतु ध्यान-योग की साधना है । शास्त्र में कहा गया है कि मुक्ति के लिये ध्यान-सिद्धि आवश्यक है और ध्यान-सिद्धि के लिये मानसिक चंचलता को दूर करना परमावश्यक है,* जो अहिंसा आदि विशुद्ध अनुष्ठानों से ही साधी जा सकती है । अतः सर्व अनुष्ठानों का अन्तिम साध्य मानसिक स्थिरता है, अर्थात् चित्त-शुद्धि ही अन्तिम लक्ष्य है । विशुद्ध एकाग्र मन ही सब से उत्तम प्रकार का ध्यान है । हे मुने ! द्वादशांगी का सार शुद्ध ध्यानयोग है, अत: जिस प्राणी की इच्छा मोक्ष प्राप्त करने की हो उसे ध्यानयोग को सिद्ध करना चाहिये । शेष सभी मूल और उत्तरगुण रूपी अनुष्ठान ध्यानयोग के अंग रूप में ही स्थित हैं, इसीलिये इस ध्यानयोग को सब का सार कहा है। [७२५-७३०]
• पृष्ठ ७५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org