Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1190
________________ प्रस्ताव ८ : द्वादशांगी का सार ४०६ हे पुण्डरीक मुनि ! अनुसुन्दर राजर्षि के अन्तरंग राज्य के लोगों के भविष्य के विषय में मैंने तुझे संक्षेप में बता दिया है ।* समन्तभद्राचार्य से विस्तृत वृत्तान्त सुनकर पुण्डरीक आदि साधु बहुत प्रसन्न हुए और सुललिता का शोक दूर हुअा। [७०८-७०६] १७. द्वादशांगी का सार इसके पश्चात् सुललिता का मन अत्यधिक संवेग रंग में रंग गया । वह सोचने लगी कि, उसे बोध होने में बहुत कठिनाई हुई, अत: वह अवश्य ही गुरुकर्मी/भारी कर्मी तो है ही। ऐसा गुरुकर्मी जीवरत्न संवेग के पवन मात्र से शुद्ध नहीं हो सकता, उसे शुद्ध करने के लिये तो तीव्र तप रूपी प्रचण्ड अग्नि की महती आवश्यकता है। इस विचार से वह धन्या सुललिता गुरु महाराज की आज्ञा लेकर उनके आदेशानुसार प्रयत्न पूर्वक महाकष्टदायक तप से अपने आत्मरत्न को शुद्ध करने लगी । अर्थात् जो बालिका एक समय धर्म के स्वरूप को समझती भी नहीं थी, वही अब अपनी आत्मा की शुद्धि का मार्ग ढूँढ़ने लगी और प्रत्येक प्रसंग पर गुरु महाराज की आज्ञा लेकर महातप करने लगी। [७१०-७१२] सुललिता का महातप उसने जो महान तपस्या की उसका सहज ध्यान दिलाने के लिये संक्षेप में वर्णन करते हैं : एक, दो, चार, पाँच आदि उपवास रूपी अनेक प्रकार के रत्नों की माला वाले रत्नावली तप से वह रागमुक्त सुललिता साध्वी सुशोभित होने लगी। फिर अनेक प्रकार की चर्यायुक्त सुवर्ण की चार लड़ियों वाले हार के समान रमणीय कनकावली तप से वह विभूषित हुई। फिर वह महाभाग्यशालिनी उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला आदि तप रूपी मोतियों की लड़ियों वाले मुक्तावली तप से अलंकृत हुई। * पृष्ठ ७५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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