Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1189
________________ ४०८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा क्षान्ति, दया, मृदुता, सत्यता, ऋजुता, अचौर्यता, ब्रह्मरति, मुक्तता, विद्या और निरीहता आदि उसकी अन्तरंग पत्नियाँ जो इतने समय तक प्रच्छन्न थीं, पुनः उसकी चित्तवृत्ति में प्रकट होंगी । इसके साथ ही चारित्रधर्मराज की सेना भी प्रकट होगी। तत्पश्चात् अन्तरंग राज्य में धृति, श्रद्धा, मेधा, विविदिषा, सुखा, मैत्री, प्रमुदिता, उपेक्षा, विज्ञप्ति, करुणा आदि अन्तरंग पत्नियाँ भी पहले की भाँति उसकी चित्तवृत्ति में आविर्भूत होकर अतिशय सुख-संदोह प्रदान करेंगी। इस प्रकार इस महात्मा को अत्यन्त आनन्द एवं आह्लाद से परिपूर्ण अन्तरंग राज्य प्राप्त होगा और इस राज्य का भोग करते हुए वह अपने अन्तरंग शत्रुओं का जड़-मूल से नाश कर देगा। तदनन्तर महाबली अमृतसार मुनि अन्तरंग राज्य को अधिकृत करता हुआ अन्त में क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होगा (सातवें गुणस्थान से सीधे १३वें गुरणस्थान की प्राप्ति) और चार घाती कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करेगा तथा विश्व पर अनेक प्रकार से अनुग्रह करता हुआ अन्त में केवली समुद्घात कर, समस्त योगों का निरोध कर, आयुष्य के अन्तिम भाग में शैलेशीकरण सत्क्रिया द्वारा शेष चार कर्मों (वेदनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र) का भी निर्दलन कर देगा । उस समय उसके सभी कार्य सिद्ध होंगे, सभी क्रियाओं का अन्त हो जायेगा, सुन्दर कार्यों का सुन्दर परिणाम प्राप्त होगा और अपने सभी अन्तरंग बन्धुओं सहित वह निवृत्ति नामक सुन्दर नगरी का सूराज्य प्राप्त कर उसके फलों का आस्वादन करेगा। तत्पश्चात् वह अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त दर्शन से युक्त बनेगा । उसकी सभी रुकावटों एवं पीड़ाओं का नाश होगा और उसके ये सर्वभाव उसे सर्वकाल के लिये प्राप्त होंगे । यही उसके अन्तरंग सत्कुटुम्ब का भविष्य है । [६६१-७०१] अब इसके दूसरे अन्तरंग कुटुम्ब का भविष्य भी सुनो । इधर राजर्षि अपनी कुभार्या भवितव्यता जो लम्बे समय से उसके साथ है, उसका त्याग कर देगा। महामोह राजा की शक्ति क्षीण हो जाने से वह भवितव्यता शोकमग्न हो जायगी और सोचेगी कि, अरे ! मैंने दुर्बुद्धि के कारण महामोह की सेना का पक्ष लेकर अच्छा नहीं किया, परिणामस्वरूप आज मेरे समस्त मनोरथ भंग /छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अरे रे ! मैं तो सब कुछ जानने का घमण्ड करती थी, परन्तु जो बात विश्व में सब लोग जानते हैं, जिसे बालवृन्द भी बोलते रहते हैं उस तात्त्विक बात को मैं नहीं जान सकी। सब लोग जानते हैं कि जो स्थिर पदार्थों को छोड़कर अस्थिर पदार्थों के पीछे दौड़ता है, उसके स्थिर पदार्थ नष्ट होते हैं और अस्थिर पदार्थ तो नष्ट होने वाले हैं ही। मैंने स्थिर भावों को नहीं पहचाना । इसमें मेरा भी क्या दोष? यह बात तो रूढ़ हो गई है कि लोग अपने वास्तविक प्रयोजन से प्रायः घबरा जाते हैं, अत: मैं भी घबरा गई तो क्या हुआ? ऐसा विचार और निश्चय करते हुए कुभार्या भवितव्यता अमृतसार को छोड़कर, शोक का त्याग कर चुप हो जायगी और अन्य लोगों के कार्य में जुट जायगी । [७०२-७०७] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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