Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ८ : सात दीक्षायें
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हआ, इससे घबराना नहीं चाहिये । चित्त में हीन भावना या मैं मन्दभाग्या हूँ ऐसा नहीं सोचना चाहिये । पहले मैं जब विपरीत मार्ग पर चल रहा था और अकलंक
आदि मुझे सीधे मार्ग पर लाने का प्रयत्न कर रहे थे तब प्रबल पापाधिक्य के कारण मुझ पर कोई प्रभाव नहीं हुआ था । जब मेरे पाप कर्म कम हुए और मैं अपनी योग्यता को प्राप्त हुआ तब जिनशासन में प्रतिबोधित हुआ। इसमें मुझे तो तुझ से भी अधिक कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ी। संक्षेप में, काल आदि हेतुओं के प्राप्त होने पर जब प्राणी के पाप नष्ट होते हैं तभी उसे बोध होता है और वह सन्मार्ग पर आता है । गुरु तो मात्र * सहकारी कारण और निमित्त बनते हैं ।
[६४५-६५०] सुललिसा-आर्य ! आपका कथन सत्य है। मेरे मन में जो दुर्भावना और शंका पैदा हुई थी उन सब का अब नाश हो गया है । पर, मैंने पहले ऐसा निश्चय किया था कि 'माता-पिता की आज्ञा बिना दीक्षा नहीं लगी' उस विषय में अब मैं क्या करू ?
अनुसुन्दर-आर्ये ! घबराने की आवश्यकता नहीं । देख, तेरे माता-पिता भी यहाँ आ पहुँचे हैं।
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४. सात दीक्षायें
मगधसेन-सुमंगला का प्रागमन
अनुसुन्दर की बात समाप्त होते-होते उद्यान के बाहर प्रबल कोलाहल होने लगा। थोड़े ही समय में मनोनन्दन जिन मन्दिर में सुललिता के पिता राजा मगधसेन और उसकी माता सुमंगला ने परिवार के साथ प्रवेश किया। सब ने जिनेश्वर भगवान्, प्राचार्य एवं साधुओं को नमस्कार किया । सुललिता ने भी उठकर अपने माता-पिता को नमन किया। फिर मगधसेन राजा ने अनुसुन्दर चक्रवर्ती को प्रणाम किया और सभी अनुसुन्दर के समीप बैठ गये । सुमंगला ने भी सब को प्रणाम किया अपनी पुत्री सुललिता से मिलकर उसका मस्तक चूमा और उसके पास ही बैठ गयी। फिर हर्षावेग से गद्गद् होकर पुत्री से कहा
* पृष्ठ ७५२
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