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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
ही हैं। राज्य एक प्रकार का है और प्राणी अनेक प्रकार के हैं, अत: राज्य के प्रवाह को किसी भी प्रकार विभक्त किये बिना एक साथ सभी प्राणी अपनी-अपनी योग्यतानुसार राज्य भोगते हैं । अर्थात् नदी के प्रवाह की भांति अन्तरंग राज्य का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहता है और प्रत्येक प्राणी एक ही समय में एक ही साथ उसे भोगते रहते हैं । [६६८-६८३] हरि राजा की दीक्षा
प्राचार्य के वचनों के भावार्थ को हृदयंगम करते हुए हरि राजा ने पूछाभगवन् ! परमार्थ दृष्टि से संसार में भ्रमण करने वाले सभी देहधारी प्राणी कर्मपरिणाम राजा के पुत्र हैं और वह सभी को चित्तवृत्ति नामक अन्तरंग भूमि का राज्य सौंपता है। यद्यपि यह भूमि एक ही प्रकार की है फिर भी पात्र-विशेष के कारण अनेक रूपात्मक भिन्न-भिन्न आकार धारण करती है और पात्रानुसार सुख-दुःख का अनुभव होता है। यदि ऐसा ही है तब तो मैं स्वयं भी कर्मपरिणाम राजा का पुत्र हूँ और मैं भी उपरोक्त छः में से किसी एक प्रकार का राज्य इस समय भोग रहा हूं।
उत्तमसूरि-राजन् ! आपने वस्तुस्थिति को ठीक ही समझा है। यह अन्तरंग राज्य सभी को प्राप्त होता है और आप भी इस समय विमध्यम नामक राज्य का पालन कर रहे हैं, किन्तु आप इस राज्य के स्वरूप को पहचान नहीं पा रहे हैं। आप रात-दिन धर्म, अर्थ और काम की साधना कर रहे हैं, पर इनकी साधना इस प्रकार कर रहे हैं कि जिससे परस्पर कोई विरोध नहीं होता। विमध्यम के सभी लक्षण आप में घटित हो रहे हैं। पूर्व में मैंने विमध्यम राज्य के जो लक्षण बताये थे, क्या वे लक्षण अब आपके ध्यान में नहीं पा रहे हैं ? *
हरि राजा-मुझे यह विमध्यम राज्य नहीं चाहिये । भगवन् ! आपने जो प्रात्मीय उत्तम राज्य का वर्णन किया है, वही मुझे भी प्रदान कीजिये।
उत्तमसूरि-राजन् ! आपके विचार अत्युत्तम हैं। हे नरोत्तम ! जैसे इन साधुओं को यह राज्य प्राप्त हुआ है वैसे ही आपको भी हो सकता है । इस राज्य को प्राप्त करने का प्रव्रज्या के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है । जब इन साधुओं को पूर्व-वरिणत अत्यन्त मनोहारी स्वराज्य प्राप्त करने की आपके समान प्रबल स्पृहा/ अभिलाषा हुई थी तब मैंने इनके लाभ के लिये इन्हें बताया था कि भागवती दीक्षा लिये बिना अन्तरंग भूमि के उत्तम राज्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। तब इन्होंने सर्व पापहारी दीक्षा ग्रहण की । परिणामस्वरूप इन्होंने नि:शेष सुख के हेतुभूत इस उत्तम महाराज्य को प्राप्त किया। राजेन्द्र ! यदि आपको भी उत्तम राज्य प्राप्ति की इच्छा है तो आप भी भागवती दीक्षा ग्रहण करें। [६८४-६८८]
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