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उपमिति भव-प्रपंच कथा
तो तुझे रखना ही नहीं चाहिये । इस व्यसन से परमार्थतः तू ठगा जाकर मुख्य लक्ष्य से भ्रष्ट ही होगा ।'
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चारु का मैत्री और सौजन्य पूर्ण हितकारी कथन सुनकर और चारु को विज्ञ रत्नपरीक्षक मानकर हितज्ञ ने उसकी शिक्षा को सहर्ष स्वीकार किया । मौजशौक का त्याग कर व्यापार करने का दृढ़ निश्चय किया और रत्न परीक्षा सीखनेकी कामना से चारु का शिष्यत्व भाव स्वीकार करने की मनोवांछा प्रकट की । चारु भीतिज्ञ के व्यवहार से प्रसन्न हुआ और उसने हितज्ञ को रत्न - लक्षण का सम्यक् प्रकार से शिक्षण प्रदान किया । शिक्षण प्राप्त कर हितज्ञ रत्नों के गुण-दोषों का विचक्षरण परीक्षक बन गया। तत्पश्चात् हितज्ञ संगृहीत कृत्रिम रत्नों का परिहार कर, विशिष्ट रत्नों का संग्रह करने में दत्तचित्त हो गया ।
हे भद्र घनवाहन ! इसी प्रकार मुनिसत्तम भी करुणापूरित मानस से भद्रक भव्य मिथ्यादृष्टि प्राणियों को इस प्रकार हितशिक्षा पूर्ण धर्मदेशना देते हैं
हे भद्रों ! यह सत्य है कि तुम धार्मिक हो, अपनी बुद्धि से सच्चा समझ कर ही धर्म करते हो, पर सच्चा धर्म किसमें है, उसकी विशेषता अभी तुम्हें ज्ञात नहीं है क्योंकि तुम बहुत भोले हो । तुम्हें कुधर्मशास्त्रकारों ने ठगा है । हिंसा के कार्यों से कभी धर्म-साधना नहीं होती । सब प्राणियों पर दया करने को ही भगवान् विशुद्ध धर्म कहा है । होम यज्ञ प्रादि तो इसके विरुद्ध हैं । इस प्रकार धर्मबुद्धि से अधर्म सेवन उचित नहीं है, फिर तुम्हारा यह कहना कि तुम * मांस-मदिरा का सेवन कर सुखी हो, यह भी तुम्हारे प्रज्ञान को ही प्रकट करता है । विवेकशील पुरुष तो तुम्हारी बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सकते । शरीर विविध पीड़ाओ से व्याप्त है, विभिन्न रोगों से भरा है, वृद्धावस्था शीघ्रता से आने वाली है, राज्यदण्ड का भय है जिससे शरीर और मन संतप्त रहता है | तरुणाई टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बीत जाने वाली है । सम्पत्तियां सभी प्रकार के दुःख उत्पन्न करने वाली है । स्नेहियों का वियोग मन को दग्ध कर देता है । अप्रिय संयोगों से मन व्याकुल होता है । मृत्यु भय प्रतिदिन निकट श्रा रहा है, शरीर ग्रपवित्र पदार्थों का भण्डार है । निःसार विषय वासनाएं पुद्गलों के परिणाम को प्रकट करती हैं । सारा संसार असंख्य दुःखों से भरा हुआ है, इसमें प्राणी को सुख कहाँ ? सुख का प्रश्न ही नहीं उठता । परमार्थ से यह सब एकान्त दुःख है, पर तुम्हें उसमें सुख का झूठा भ्रम होता है । यह भ्रम तुम्हारे कर्मों के फलस्वरूप होता है और यही संसार भ्रमण का कारण है । अतः हे भद्रों ! प्रति कठिनाई से प्राप्त ऐसा सुन्दर मनुष्य जन्म तुम्हें मिला है। धर्म करने योग्य सामग्री और अनुकूलता भी तुम्हें प्राप्त हुई है । हमारा उपदेश भी तुम्हें मिलता रहता है । गुण प्राप्त करना तुम्हारे हाथ में है । ज्ञानादि मोक्ष का मार्ग स्पष्ट है । जीव का वस्तु स्वभाव अनन्त आनन्द है । जीव को अपने
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