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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मुझे लगा कि, अरे ! कुलन्धर ने मेरे मन की बात जान ली है । ऐसा सोचकर मैंने कहा-मित्र ! अब परिहास छोड़ो, चलो हम फिर उद्यान में जाकर देखें कि वह कौन है ? किसकी पत्नी या पुत्री है ? हमें यह परीक्षा करनी है कि वह कन्या योग्य है या नहीं ? ऐसा मत सोच कि मैं परस्त्री को भी ग्रहण कर लगा । पर, यदि वह कुमारी कन्या होगी तो इन्द्र द्वारा पीछा किये जाने पर भी मैं उसे नहीं छोडूगा।
कुलन्धर ने आश्वासन दिया-भाई ! शीघ्रता मत कर । पहले उद्यान में चलकर उसे ढूढ़ते हैं, फिर तुझे जैसा अच्छा लगेगा वैसा ही करेंगे।
__ तदनन्तर हम दोनों उद्यान में गये और उस स्थान को देखा जहाँ कल उन दोनों स्त्रियों को देखा था। पर, वे वहाँ दिखाई नहीं दी, जिससे मेरे मन में उस मृगनयनी से मिलने और उसे प्राप्त करने की कामना से सहज उद्वेग भी हुआ और मन भी पीडित हुआ।* वन में चारों तरफ ढूंढते हुए हम दोनों एक आम्रवृक्ष के नीचे बैठे ही थे कि हमारे पीछे पत्तों की मर्मर ध्वनि से किसी के चलने का आभास हुआ। गर्दन घुमाते ही मैंने दो स्त्रियों को देखा। उनमें से एक तो मध्यम वय की सुशोभना सुन्दर स्त्री थी और दूसरी उसके साथ वाली सामान्य । [३८-५४]
हम दोनों खड़े हुए और गर्दन झकाकर नमन किया। मुझे गौर से देखकर मध्यमवय की स्त्री की आँखों में हर्ष के आँसू आ गये और वह बोली-वत्स ! तेरी उम्र मुझसे भी अधिक हो। फिर कुलन्धर से बोली-वत्स ! आयुष्मान हो। मुझे आप दोनों से एक आवश्यक बात कहनी है, थोड़ी देर बैठो।
कुलन्धर ने कहा-जैसी माताजी की आज्ञा । तत्पश्चात् उस प्रौढ़ा ने अपने हाथों से भूमि स्वच्छ की। हम सब स्वच्छ जमीन पर बैठ गये और उस स्त्री ने अपनी कथा प्रारम्भ करते हुए कहा-वत्स! सुनो
२. मदनमंजरी
विद्याधरी का कथन
विद्याधरों के निवास स्थान वैताढ्य नामक विशाल पर्वत पर एक गन्धसमृद्ध नगर है। विद्याधरों का चक्रवर्ती कनकोदर राजा यहाँ राज्य करता है । मैं उसी की पत्नी कामलता महादेवी हूँ। दिन, माह और वर्ष बीत गये पर मुझे एक भी संतान नहीं हुई । मेरे वन्ध्यापन से मैं और मेरे पति दोनों ही उद्विग्न एवं व्यथित थे । हमने पुत्र
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