Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हे भद्र! इस प्रकार सोचकर भवितव्यता ने पापोदय आदि सभी को कह दिया कि अब तुम्हारा कार्य सिद्ध करने का समय आ गया है । 'घर की फूट से घर नष्ट' होने की कहावत मुझ पर चरितार्थ हुई। फिर उसने कर्मपरिणाम आदि जो निर्दोष बन्धुत्व से मेरे अनुकूल हो गये थे तथा जिसने अपनी शक्ति से उन्हें निर्बल, चेष्टारहित और मूढ जैसा बना दिया उन्हें पुनः प्रेरित किया। [४३३-४३८] मोह की प्रबलता : विषयाभिलाष का परामर्श
___ महामोह ने पापोदय को मुख्य सेनापति बना कर फिर व्यह रचना की और मेरे सम्मुख पाने के लिये निकल पड़े । मेरी पत्नी के कहने से वे लोग निकल तो पड़े, पर पूर्व की विपदाओं को स्मरण कर मन ही मन भयभीत हो रहे थे और अपनी विजय के प्रति आशंकित हो रहे थे। विजय प्राप्त करने के लिये वे परस्पर विचार-विमर्श करने लगे। [४३६-४४०]
मन्त्रणा के समय विषयाभिलाष मंत्री बोला-भाइयों! आज के अवसर को देखकर अपनी कार्यसिद्धि के लिये ज्ञानसंवरण राजा मिथ्यादर्शन को अपने साथ लेकर संसारी जीव के पास जाय, फिर शैलराज ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातागौरव को अपने साथ लेकर उसके समीप पहुँच जाय,* उसके तुरन्त बाद प्रार्ताशय और रौद्राभिसन्धि को भेजना उपयुक्त रहेगा । इनके साथ ही तीनों परिचारिकायें कृष्ण, नील और कपोत लेश्यायें भी स्वयं ही जायेंगी। हम सब अप्रमत्तता नदी के तीर पर पड़ाव डालें। इस नदी की मरम्मत कर इसमें पानी का प्रवाह एकत्रित करें। इसमें मण्डप आदि जो टूट गये हैं उनकी मरम्मत कर सुदृढ़ करें। इस प्रकार हमारी सेना नदी के तीर पर शिविर में रहेगी। सभी अपना कार्य सम्भाल लेंगे तो बिना परिश्रम के हमारा प्रभाव जम जायेगा और हम अवश्य ही विजयी होंगे।
___ मंत्री की बात मोहराजा और सारी सभा को रुचिकर लगी। सबने उसका समर्थन एवं अनुमोदन किया और तुरन्त ही उसे कार्यान्वित करना प्रारम्भ कर दिया। गौरव-गजारूढ
हे अगृहीतसंकेता ! ये सब जब मेरे निकट आये तब मेरी क्या स्थिति हुई ? वह भी सुन । मेरे अत्यन्त गौरव, यश, सन्मान और पूजा को देखकर मेरे मन में इस प्रकार तरंगे उठने लगीं-अहा! मेरा अतुल तेज, गौरव और पांडित्य जगत में अद्वितीय और असाधारण है । वास्तव में मैं युगप्रधान हूँ। मेरे जैसा पुरुष न भूत काल में कोई हुआ है, न भविष्य में होने वाला है । सम्पूर्ण विद्यानों,कलाओं और अतिशयों ने स्वर्ग एवं मर्त्य आदि लोकों को छोड़कर मुझ में आश्रय लिया है । जब मैं राजा था तब मनुष्यों में श्रेष्ठ था, सुन्दर स्वरूपवान था और भोगों में पाला-पोषा गया था, अब मैं श्रेष्ठतम आचार्य हँ, कोई साधारण व्यक्ति नहीं ।
* पृष्ठ ७३०
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