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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
दृष्टि से इधर-उधर देख रही है, तो क्या तुझे अभी भी बोध प्राप्त नहीं हुआ ? ऐसा लगता है कि तुझे थोड़ा-थोड़ा भावार्थ तो समझ में आया है, पर अभी भी तेरा चित्त सत्य और बाह्य दृष्टि के बीच झूल रहा है । क्या तू ने अभी भी परमार्थ तत्त्व का निर्णय नहीं किया ? तुझे प्रतिबोधित करने के लिये ही मैंने अपने सम्पूर्ण भव-प्रपञ्च को तुझे सुनाया। यह चरित्र संसार से प्रकर्ष वैराग्य उत्पन्न करने वाला है, यह तो तेरी समझ में आया ही होगा? फिर भी क्या तुझे अनन्त दुःखों से परिपूर्ण इस संसार कैदखाने पर निर्वेद उत्पन्न नहीं होता? [५८१-५८६]
तू विचार कर असंव्यवहार नगर में जीवों को कैसी वेदना होती है, यह मैंने अपने अनुभव से उपमान/रूपक द्वारा तुझे विस्तारपूर्वक बताया। भोली! क्या तू अभी भी उस पीड़ा को नहीं समझी ? या तेरे हृदय में उसका महत्त्व पूर्णरूप से अंकित नहीं हुआ! तू चिन्तारहित होकर संसार कारागृह में क्या देखकर अनुरक्त हो रही है ? क्या यथार्थ वस्तुस्थिति और अपने वास्तविक स्वरूप का अभी भी तुझे भान नहीं हुआ ? [५८७-५८८]
__मैं एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि भवों में और तिर्यञ्च गति में दीर्घ काल तक भटका हूँ। उस समय मुझे कैसे-कैसे दुःख उठाने पड़े, उसका विशदरूप से स्पष्ट विवेचन तेरे सम्मुख किया, क्या उसका भावार्थ तेरे मानसपटल पर तनिक भी अंकित नहीं हुया ! हे मुग्धे ! फिर क्यों निश्चिन्त होकर विलम्ब कर रही है ? तुझे दुःखों के प्रति सच्चा त्रास क्यों नहीं होता ? [५८६-५६०]
हे बाले ! मोक्ष साधन के योग्य अतुलनीय मनुष्य जन्म प्राप्त कर भी मैंने हिंसा और क्रोध में आसक्त रहकर जिस दुःख-परम्परा का अनुभव किया है, क्या तूने अपने हृदय में उसके बारे में सोचा है ? क्या तूने उसके गढ़ रहस्य और भावार्थ को अपने मन में उतारा है ? या मात्र इसे कल्पित कथा ही समझी है ? तुझे कथा के भीतर रहा हुअा भाव भी कुछ समझ में आया है या काल्पनिक वार्ता (उप न्यास) पढ़ने जैसा आनन्दाश्चर्य ही हुआ है ? [५६१-५६२]
मुझे मान और मृषावाद से कैसी पीड़ा सहन करनी पड़ी, चोरी और माया से कितनी व्यथायें हुईं, लोभ और मैथुन में अन्धा बनकर * मैंने जिन यातनाओं को सहन किया, उन सब को सुनकर भी क्या तेरा मन नहीं पिघला ? हे मुग्धे ! यदि ऐसा ही है तो तेरा मन वज्र का बना हुआ और कालसर्प-ग्रसित होना चाहिये । [५६३-५९४]
____ मैंने अपने अनुभव से तुझे बताया था कि महामोह और परिग्रह महान अनर्थ के कारण हैं और ये सभी दोषों के प्राश्रय स्थान हैं । अनुभव-सिद्ध अपनी इतनी विस्तृत आत्मकथा सुनाने पर भी तू मात्र विस्मित नेत्रों से देख रही है और उससे कुछ भी बोध प्राप्त नहीं करती, उसके भीतरी प्राशय को भी नहीं
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