Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1178
________________ प्रस्ताव : सुललिता को प्रतिबोध ३६७ समझती ? इससे ऐसा लगता है कि सचमुच तू श्रगृहीतसंकेता ही है ! तूने अपना नाम सार्थक कर दिया है । ऐसा मैंने पुन: पुन: कहा । [ ५६५-५६६] हे भद्रे ! याद कर, स्पर्शन आदि इन्द्रियों का परिणाम कैसा प्रतिदारुण होता है ? यह मैंने क्रमश: बाल, मन्द, जड़, अधम, बालिश आदि के चरित्रों में तु विस्तारपूर्वक बताया है, तब भी तेरे हृदय में यह बात नहीं चुभी ? यदि तू इतनी स्पष्ट बात भी नहीं समझ सकती तो हे सुन्दरि ! तू एकदम मूर्ख, अज्ञानी और लकड़ी की मूर्ति जैसी ही है । [५६७ - ५६८ ] इन्द्रियों को वश में करने के लिये मनीषी ने जैसा आचरण किया, विचक्षणाचार्य ने जैसे वचन कहे, बुधसूरि ने जो उपदेश दिया, उत्तमकुमार ने जैसा आचरण किया और कोविदाचार्य ने जो विज्ञान बताया, यह सब जान सुनकर किसे संसार से वैराग्य नहीं होगा ? कौन इससे दूर भागने को तत्पर नहीं होगा ? [५६६-६०० ] भद्रे ! तुझे प्रतिबोधित करने के लिये ही मैंने चित्तवृत्ति में स्थित अन्तरंग दोनों सेनाओं का स्वरूप बताया । एक सेना तेरी शत्रु है तो दूसरी तेरी बन्धु । इन दोनों सेनाओं में निरन्तर लड़ाई होती रहती है, यह सब सुनकर भी तुझे बोध नहीं होता, फिर तो तुझे समझाने का कोई उपाय ही शेष नहीं है । [६०१-६०२] हे बाले ! कनकशेखर और नरवाहन की सज्जनता, विमलकुमार का निर्मल शुद्ध चरित्र, हरिकुमार राजा का विस्मयकारक त्याग, अकलंक का प्रशस्त विवेक और मुनियों के वैराग्योत्पादक अनेक रूप जानकर भी यदि तेरे हृदय पर असर नहीं होता तो वह कोरड़ा ( कठोर मूंग ) जैसा ही है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं । अतः यदि तुझे कोई मेरे जैसा पुनः पुनः प्रगृहीतसंकेता कहे तो हे मुग्धे ! तुझे रोष नहीं करना चाहिये, नाराज नहीं होना चाहिये । सचमुच तू उस नाम के योग्य ही है, ऐसा तेरे आचरण से ज्ञात हो रहा है । [ ६०३ - ६०७] बाले ! जब तू स्वयं मदनमंजरी थी तब पुण्योदय प्रादि तुझे मेरे पास ले आये थे । उस समय पुण्योदय ने तुझे कितना लाभ पहुँचाया, क्या तू वह भी भूल गई ? स्वयं तेरे द्वारा अनुभूत और समझाये गये सभी सन्दर्भ / प्रसंग क्या तुझे याद नहीं ? उस समय के राज्य-सुख, मनोहर विलास और आनन्द को तू स्मरण तो कर । कन्दमुनि के सम्पर्क / प्रसंग से कुलन्धर के साथ तुझे जिन - शासन के प्रति अभिरुचि उत्पन्न हुई, तू प्रबुद्ध हुई और तेरा उत्थान प्रारम्भ हुआ । फिर केवलज्ञानी निर्मलाचार्य ने * हम दोनों के सन्मुख संसार के प्रपञ्च को स्पष्ट शब्दों में समझाया था, क्या यह भी तू भूल गई ? क्या उस समय तुझे कुछ भी बोध नहीं हुआ था ? यह सब तुझे फिर से याद दिला रहा हूँ तब भी तू शून्यचित्त होकर चुपचाप कैसे बैठी है ? हे बाले ! तुझे प्रतिबोधित करने, जागृत करने और सत्य स्वरूप को समझाने के लिये मैंने पुनः इस भव-प्रपञ्च को तुझे सुनाया है । मैंने तुझे बताया है * पृष्ठ ७४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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