Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
३६५
प्रस्ताव ८ : सुललिता को प्रतिबोध अनुसुन्दर का दीक्षा-महोत्सव
अपनी चित्तवृत्ति की अलौकिक आन्तरिक स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए चक्रवर्ती ने अपनी वैक्रिय लब्धि को वापस खींचना प्रारम्भ किया और देखते ही देखते चोर का रूप एवं उसे दण्डित करने के सब साधन यिलुप्त हो गये • तथा चकवर्ती के सब स्वाभाविक चिह्न प्रकट हो गये। उसी समय मंत्री, सेनापति आदि भी उनके सन्मुख उपस्थित हो गये। उनके मन-मन्दिर में चारित्रधर्मराज की स्थापना हो चुकी थी और वे दीक्षा के माध्यम से उन्हीं का पोषण करना चाहते थे । उसने अपने विचार अपने मन्त्री, सामन्त और सेनापति को बताये । सब को उनका कथन अवसरोचित प्रतीत हुआ।
उसी समय अनुसुन्दर चक्रवर्ती ने अपने पुत्र पुरन्दर को सभी राज्य-चिह्न सौंप दिये और सभी राजानों, सामन्तों, श्रेष्ठियों, मंत्रियों और सेनापतियों को बता दिया कि अब से उनका राजा पुरन्दर है। सभी ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। सभी ने उस समय भगवान् की अभिषेकपूजा आदि समस्त करणीय धर्मक्रियायें की।
श्रीगर्भ राजा भी उसी समय अपने अन्तःपुर से निकले और वहाँ आ पहुँचे। उन सभी का यथायोग्य विनय किया, सभी को प्रणाम किया। पुनः धर्म परिषद 'कत्रित हुई और सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा गया।
२. सुललिता को प्रतिबोध
__ इस अत्युत्तम घटना से मुग्धा सुललिता का चित्त चमत्कृत हुआ। उसे अत्यधिक नवीनता लगी । कुमार पुण्डरीक को भी अत्यन्त संतोष हुआ और विस्मय से उसके नेत्र आनन्द से स्फुरित होने लगे । अनुसुन्दर जैसे चक्रवर्ती सम्राट् का अपनी अतुल राज्य-ऋद्धि का त्याग कर दीक्षा ग्रहण को तत्पर होना, सुललिता और पुण्डरीक के लिये आश्चर्यजनक और संतोषकारक ही था। [५७६-५८०] सुललिता को उद्बोधन
चक्रवर्ती अनुसुन्दर ने समन्तभद्राचार्य से दीक्षा प्रदान करने का अनुरोध किया जिससे प्राचार्य उन्हें दीक्षा देने को तैयार हुए । उस समय अनुसुन्दर के मन में सहसा राजपुत्री सुललिता के प्रति करुणा उत्पन्न हुई और उसने उसे समझाने का अन्तिम प्रयत्न किया। वह बोला-मुग्धा सुललिता ! तू अभी भी आश्चर्यान्वित * पृष्ठ ७४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org