Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव-प्रपंच कथा
आर्य ! इस समय आपकी चित्तवृत्ति में कैसी भावना हो रही है ? आपकी चित्तवृत्ति का प्रवाह अभी किस दिशा में बह रहा है ?
अनुसुन्दर की चित्तवृत्ति : दीक्षा - ग्रहरण की इच्छा
कुमार का प्रश्न और जिज्ञासा समयोचित ही थी । चक्रवर्ती की अन्तरंग चित्तवृत्ति पर इन सब घटनाओं का क्या प्रभाव हो रहा था, यह जानने योग्य ही था । उत्तर में अनुसुन्दर ने अपनी चित्तवृत्ति का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया । वह बोला :
भद्र ! सुनो-- जब अत्यन्त संवेग में आकर मैंने तुम्हारे समक्ष अपनी कथा सुनानी प्रारम्भ की थी तब चारित्रधर्मराज ने अपने मन में सोचा कि अब योग्य अवसर आ गया है, अतः वे अपनी सेना को लेकर मेरे निकट श्राये । मार्ग में सात्विकमानस नगर आया उसे अपने पराक्रम से आनन्दित कर दिया, विवेक पर्वत को प्रत्युज्ज्वल बनाया, पर्वत के शिखर पर स्थित अप्रमत्तत्व क्षेत्र को देदीप्यमान बनाया और जैनपुर को फिर से बसाया । चित्तसमाधान मण्डप को फिर से स्वच्छ किया, निःस्पृहता वेदी की मरम्मत कर सुसज्जित की और वेदी पर जाज्वल्यमान किरणों से सुशोभित जीववीर्य सिंहासन को पुनः प्रतिष्ठित किया । अपनी सेना को पूर्णरूपेण संतोष हो ऐसी व्यवस्था की । सेना को तैयार कर, दुर्गों को सुदृढ बनाकर चारित्रधर्मराज मेरे पास आये । मेरे पास आते हुए महामोह राजा की सेना से उनकी टक्कर हो गयी । [ ५६५–७१ ]
मेरी चित्तवृत्ति के एक रमणीय किनारे पर दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ । मैंने वह महायुद्ध आँखों से देखा, वह अवर्णनीय महायुद्ध था । उस समय मैंने सेनापति सम्यग्दर्शन, सद्बोध मंत्री और चारित्रधर्मराज का पक्ष लिया, जिससे अन्त में चारित्र धर्मराज की जीत हुई। देखते ही देखते क्षरणमात्र में विपक्षी सेना के कई योद्धाओं को मार कर चारित्रधर्मराज ने जय लक्ष्मी प्राप्त की । शत्रुसमूह का निष्पीडन कर उन्होंने मेरे चिरन्तन प्रन्तःपुर को अपने अधीन किया, अपना राज्य स्थापित किया और मेरे निकट आये ।
महामोह राजा के सेवकों का सब तैसे जीवित थे, तदपि निर्बल और क्षीण होने गये थे ।
कुछ लुट गया । यद्यपि वे बेचारे जैसे - पर भी वे चोरी से इधर-उधर छिप
प्रिय पुण्डरीक ! मेरी चित्तवृत्ति की वर्तमान में यह अवस्था है । शत्रु भाग गये हैं जिससे मेरे श्रेष्ठ बन्धु हर्षित हैं । अब मेरी यह इच्छा हो रही है कि सर्वज्ञ प्ररूपित और त्रिजगद् - वन्द्य मुनिलिंग / मुनिवेष को ग्रहण कर महान् ग्रात्मदान करूँ और मेरे अन्तरंग बन्धुनों का भली प्रकार पालन-पोषण करूँ । [ ५७२-५७८ ]
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