Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1174
________________ प्रस्ताव ८ : चक्रवर्ती का उत्थान ३६३ चोर का रूप धारण कर यहाँ आना पड़ा । अन्तरंग में जो विडम्बनायें चल रही थीं उन्हें ही बाह्य रूप में प्रकट करते हुए मैं महाभद्रा के साथ यहाँ पाया। हे सुललिता ! उसके पश्चात् मेरा क्या हमा? यह तो तु स्वयं ही जानती है । तूने मुझे जो-जो प्रश्न पूछे उन सबका उत्तर मैंने दे दिया है । भद्र सुललिता ! तुम स्वयं ही मदमंजरी हो जिससे मेरे मन में स्नेहतन्तु अधिक दृढ हुआ है। तुम अभी भी परमार्थ के रहस्य को नहीं समझ सकी हो, अत्यन्त भोली हो, इस विचार से मेरे मन में करुणा उत्पन्न हुई है । सदागम सर्वज्ञ देव के आगमों के प्रति सन्मान उत्पन्न होने से तेरे कठिन कर्मों का नाश होगा और तू भी प्रतिबोधित होगी, इसी विचार से इन महात्मा सदागम के चरण-कमलों की कृपा से मैंने मेरी विस्तृत आत्मकथा को संक्षेप में तुम्हें सुनाया। तेरे हृदय में सदागम के प्रति बहुमान उत्पन्न हो इस पद्धति से संक्षेप में कहते हुए भी यह अनन्त कथा छः माह में भी बड़ी कठिनाई से पूरी हो सकती है, जिसे मैंने सदागम की कृपा से तीन प्रहर में (नौ घंटे में) सुनाई और पूरी कथा में मैंने तुम्हें अगृहीतसंकेता के नाम से संबोधित किया । इस प्रकार संवेग को उत्पन्न करने वाले मेरे सम्पूर्ण भवप्रपञ्च को तेरे कुतूहल को शांत करने के लिये कहते-कहते मेरे मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया है। हे भद्रे ! ऐसी* मेरी अन्तरंग चोरी और विडम्बनायें थीं। मेरा और मझ से सम्बन्धित अन्य लोगों का जैसा वृत्तान्त मैंने जाना और अनुभव किया, वैसा तुझे कह सुनाया। १६. प्रमुख पात्रों की सम्पूर्ण प्रगति १. अनुसुन्दर चक्रवर्ती का उत्थान सुललिता सरल स्वभावी और सहृदया थी । उसके हृदय पर संसारी जीव की आत्म-कथा का, विशेषकर अनुसुन्दर चक्रवर्ती की कथा का प्रचुर असर हुआ और उसके हृदय में प्रशस्त शुभ भावनायें उठने लगीं। कुमार पुण्डरीक भी कथा के भावार्थ को थोड़ा- थोड़ा समझ गया था और वह अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था। अभी तक वह मौन था। अब उसने चोर की आकृति में उपस्थित अनुसुन्दर चक्रवर्ती से पूछा * पृष्ठ ७४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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