Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ८ : चक्रवर्ती चोर के रूप में
३६१
लगा, अतःइसे देखने के लिये, मैं आगे बढ़ा । मेरे साथ के विनीत एवं चाटुकार राजपुत्र मुझे "देव ! देव" कहते हुए मधुर भाषा में उद्यान की शोभा दिखा रहे थे तभी मैंने दूर से महाभाग्यशालिनि महाभद्रा को साध्वी मण्डल के साथ आते देखा । उन्होंने गुरु महाराज से मुझे वधस्थल पर ले जाते हुए सुना था । करुणा से अोतप्रात होकर वे मेरे पास आ रही थीं, अतः मैं प्राकृतिक दृश्य देखना बन्द कर कीलित दृष्टि के समान निश्चल एकटक उनकी ओर देखने लगा । हे सुन्दरि ! यद्यपि साध्वी जी निःस्पृह, महाभाग्यशालि नि और महासत्वशालिनि थी, तथापि पूर्व काल के अभ्यास से मेरे प्रति प्रेमालु बनी, आकर्षित हुई। मुझे देखकर, गुरुदेव के वचनों पर विचार करती हुई मेरे निकट पाई और "मैं नरकगामी जीव हूँ" इस विचार से अत्यन्त करुणापूर्वक मुझे स्थिर दृष्टि से देखने लगी। [५४५-५५१]
जब में गुरगधारण के भव में था तब महाभद्रा का जीव कन्दमुनि के रूप में था और मेरा उनसे अच्छा सम्पर्क/परिचय था। उनके प्रति बहुमान करने का बारम्बार अभ्यास होने से, विनम्रता का नियन्त्रण होने से, हृदय में दृढ स्वीकृति होने से, गौरव से अत्यन्त भावित हृदय होने से तथा प्रेमभाव का अनुष्ठान होने से मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि 'अहा ! ये भगवति साध्वी कौन होंगी ? इन्हें देखते ही मेरा हृदय आह्लादित, नेत्र शीतल और शरीर शान्त हो गया है, मानो मैं अमृत कुण्ड में डुबकी लगा रहा हूँ।' इस विचार के साथ ही मैंने साध्वीजी को शिर झुकाकर प्रणाम किया और उन्होंने भी मुझे धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हुए कहा :
नरोत्तम ! यह मनुष्य जन्म मोक्ष प्राप्त करवा सकता है। उन्मार्ग के पथ पर चल कर आप इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को व्यर्थ गंवा रहे हैं, यह उचित नहीं है। आपको तो किसी अन्य मार्ग पर ही चलना चाहिये था। आपके स्वयं के कर्म/ अपराध के कारण आपने चोर की आकृति धारण की है और आपको वधस्थल पर ले जाया जा रहा है तथा प्रापको अनेक प्रकार की भाव-विडम्बनाएँ दी जा रही हैं । फिर कैसा राज्य ? कैसा विलास ? कैसे भोग और कैसी विभूतियाँ ? इनमें शान्ति और स्वस्थता कहाँ है ? महाराज ! मनमें तनिक सोचिये ! [५५२-५५४]
इतना कहते हुए महाभद्रा मुझे गौर से देखने लगी । देखते-देखते ही उनके मन में भी विचार उठने लगे। विचारों के फलस्वरूप उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया जिससे कन्दमुनि के समय से लेकर आज तक के सभी सम्बन्ध और अपने सभी पूर्व-भव याद आ गये । फिर शुभ अध्यवसायों के फलस्वरूप उन्हें उसी समय अवधिज्ञान भी उत्पन्न हो गया, जिससे मेरा पूर्व-चरित्र भी उन्होंने देख लिया । फिर वे प्रवर्तिनि महाभद्रा मुझे समझाने लगीं।
राजन् ! याद करो, जब तुम गुणधारण के भव में थे तब मेरे समक्ष उच्च प्रकार की धार्मिक क्रियाएँ/लीलायें करते थे, क्या भूल गये ? फिर क्षान्ति आदि अन्तरंग कन्याओं से लग्न कर सुख सुविधाओं से पूर्ण हो गये थे और अन्त में
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