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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अधिक हानि नहीं पहुँचा सका, पर वह मेरे पास खड़े-खड़े देखता रहा । कृष्ण, नील और कपोत लेश्यायें भी अपने स्वामी की सहायता करने लगीं, उनके कार्यों को गति देने लगी और मुझे अधम मार्ग पर धकेलने लगीं।
इधर चित्तवृत्ति में चित्तविक्षेष मण्डप और तृष्णावेदी निर्मित और सज्जित करली गई। उसके ऊपर विपर्यास सिंहासन लगा दिया गया। फलस्वरूप चारित्रधर्मराज आदि का समस्त परिवार चित्तवृत्ति महाटवी में छिप गया। इस समय मैं साधुवेष का धारक होकर भी मिथ्यादृष्टि हो गया। [४५३-४६४]
११. पनः भव-भ्रमण
मेरे शत्रुओं को अब पूरा अवकाश मिल गया। वे सब प्रबल हो गये और सब संगठित होकर मुझ से शत्रुता करने लगे। सब ने मेरी पत्नी भवितव्यता से विचार किया और आयुष्यराज को बुलाया ।
फिर भवितव्यता ने आयुष्यराज से कहा--भद्र ! मेरे आर्यपुत्र (पति) को किसी योग्य मनोहर स्थान पर भेजना है, अतः इनके जैसे कर्म वालों के निवास योग्य रमणीय स्थान मुझे बतलावें । [४६५-४६६]
आयुष्यराज-देवि ! इनका स्थान तो पहले से ही निर्णीत है। इसमें पूछना ही क्या है ? तुम्हारे पति के वर्तमान चरित्र से अप्रसन्न होकर कर्मपरिणाम महाराजा भी अभी महामोह के पक्ष में हो गये हैं। इन्होंने पापोदय सेनापति को अग्रसर कर दिया है । मुझे एकाक्षनिवास नगर में नियुक्त किया है और साथ में तीव्रमोहोदय तथा अत्यन्त अबोध सेनापति को भी बुलाया है। किसी कारण से कर्मपरिणाम महाराजा अभी सातावेदनीय पर भी अप्रसन्न हैं, अतः उसका सर्वस्व हरण कर उसे अकिचित्कर एवं शक्तिहीन बना दिया है। अन्तिम प्राज्ञा यह दी है कि हम दोनों (प्रायु और भवितव्यता) संसारी जीव को उसके अन्तरंग परिवार के साथ तीव्र मोहोदय और अत्यन्त अबोध को साथ लेकर एकाक्षनिवास नगर में निवास करें। मैं आपको क्या बतलाऊँ ? आप स्वयं तो सब-कुछ जानती हैं और मुझ से ही उनके निवास स्थान के बारे में पूछ रही हैं ? यह आपका प्रेम है कि आप
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