Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव : अनुसुन्दर चक्रवर्ती
३७७
चित्तवृत्ति को निर्मल बनाकर अपने शत्रुनों का नाश कर दिया होता तो मेरी प्रगति निश्चित रूप से हुई होती और मैं अपने राज्य पर आसीन होकर कभी का निर्वृत्ति नगर पहुँच गया होता। मेरा यह भव-भ्रमण मेरी स्वयं की दुश्चेष्टाओं के फलस्वरूप हुआ, अन्य किसी का इसमें कोई दोष नहीं । [४८१-४९१ ]
इतना कहकर संसारी जीव मौन हो गया |
संसारी जीव श्रात्मकथा सम्पूर्ण ।
१२. अनुसुन्दर चक्रवर्ती
संकेत - दर्शन
संसारी जीव के सिंहाचार्य के उच्चतम पद से गिरकर वनस्पति में उत्पन्न होने और फिर अनन्त संसार भ्रमण को सुनकर अगृहीतसंकेता ने कहा- भाई संसारी जीव ! अभी तुमने भव-भ्रमण का कारण अपनी दुश्चेष्टायें बताईं, किन्तु इस विषय में मुझे लगता है कि अन्य और भी कारण हैं । यदि तुमने महाराजाधिराज सुस्थितराज
आज्ञा का सर्वदा स्थिर बुद्धि से पालन किया होता तो ऐसी तीव्र अनर्थ - परम्परा नहीं भुगतनी पड़ती । तुम्हें जो प्रति दारुण दुःख उठाने पड़े वे इतने भयंकर हैं कि उन्हें सुनकर ही त्रास होता है । मेरी दृष्टि में महाराजा की आज्ञा का उल्लंघन भी तेरे भव-भ्रमरण का प्रबल कारण है । [४६२-४ε४]
1
इस सुन्दर विचार को सुनकर संसारी जीव आश्चर्यचकित रह गया और उसके मन में प्रगृहीतसंकेता के प्रति सन्मान पैदा हुआ । वह बोला - बहिन सुभ्रु ! तुमने वास्तविक बात कह दी है; अभी तक तू बात का भावार्थ नहीं जानती थी, पर अब तो गूढार्थ बताकर सचमुच तू विचक्षणा हो गई है ।
हे सुन्दरांग ! अब मैं यह बताता हूँ कि मैंने चोर का रूप क्यों धारण किया । यह सुनकर अगृहीतसंकेता ने प्रसन्न होकर कहा कि, भद्र ! सुनाओ । मैं तो स्वयं यह बात सुनना ही चाहती थी । [४६५-४६६]
अनुसुन्दर का परिचय
गृहीत संकेता की इच्छा को जानकर संसारी जीव ने कहा- मेरी पत्नी भवितव्यता मुझे नौंवें ग्रैवेयक से मनुजगति में स्थित क्षेमपुरी नगरी में लाई । हे सुन्दरि ! यह तो तुम्हारे ध्यान में ही होगा कि इस मनुजगति में महाविदेह नामक अति सुन्दर और विस्तृत बाजार है । इस लम्बे-चौड़े बाजार में पंक्तिबद्ध अनेक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org