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प्रस्ताव ८ : अनुसुन्दर चक्रवर्ती
३७६ छठे दिन की रात्रि को मेरे पिता और सगे-सम्बन्धी एकत्रित हए और रात्रि-जागरण किया। जागरण महोत्सव इतना श्रेष्ठ था कि मर्त्यलोक में स्वर्ग का भ्रम होता था। महान प्रमोदपूर्वक एक माह पूर्ण होने पर शुभ दिन देखकर मेरा अनुसुन्दर नाम रखा गया । पाँच धात्रियों द्वारा मेरा पालन-पोषण होने लगा। दिन-प्रतिदिन मैं बड़ा होने लगा। माता-पिता की विशेष देखरेख में मेरा शरीर स्वस्थ रहा और क्रमशः बढ़ने लगा । कुमारावस्था पाने पर मेरे कलाभ्यास की सब व्यवस्था की गई और उसका लाभ उठाकर मैंने सकल कलाओं का अभ्यास किया तथा पुरुष के योग्य सभी कलाओं में निष्णात बना । युवावस्था प्राप्त होने पर मुझे युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया गया । हे भद्रे ! मेरे पिताजी एवं नागरिकों ने युवराज पद-महोत्सव अत्यन्त आनन्द और हर्षातिरेकपूर्वक मनाया । * थोड़े समय बाद सूर्याकारधारक पिताजी युगन्धर स्वर्गवासी हो गये ।। सूर्यास्त के साथ नलिनी का विकास भी अस्त हो गया, अर्थात् मेरी पूजनीय माताजी नलिनी महादेवी का भी देहान्त हो गया। [५१४-५१८]
। माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात मेरे राज्याभिषेक का प्रसंग चल ही रहा था कि मेरी शस्त्रशाला में अतुलनीय चक्र आदि चौदह रत्न और यक्षों द्वारा रक्षित नौ निधान प्रकट हुए । मुझे चक्रवर्ती मानकर सुकच्छविजय के सभी राजा मेरे वशीभूत हुए तथा स्वयं को अनुचर और मुझे स्वामी स्वीकार किया। प्रताप तेज से मैंने क्षेमपुरी में रहकर ही समस्त छःखण्ड पृथ्वी को जीत लिया और सम्पूर्ण विजय क्षेत्र में मेरी जीत का यश फैल गया। बत्तीस हजार मुकुट-बंध राजाओं ने एकत्रित होकर १२ वर्ष तक मेरा राज्याभिषेक महोत्सव मनाया। प्रफुल्लित कमल जैसे नेत्रों वाली ६४ हजार ललनाओं के साथ मैंने भोग भोगे । अपनी सम्पूर्ण प्रजा को अत्यन्त प्रसन्नता प्रदान करता हुया और महान संपत्तिशाली तथा चक्रवर्तित्व युक्त होकर मैंने बहुत समय आनन्दपूर्वक व्यतीत किया। समस्त स्थूल सुखों का सीमातिरेक चक्रवर्ती को प्राप्त होता है । वह मनुष्यों में सर्वोत्तम और राजाओं का राजाधिराज माना जाता है । मेरे सुखों और अनुकूलताओं का कितना वर्णन करूँ ! हे चारुलोचने ! संक्षेप में संसार के वर्णनातीत उत्कृष्ट स्थूल सुख और सभी प्रकार के प्रानन्दों का मैंने अनुभव किया । इस प्रकार मेंने ८४ लाख पूर्व तक सुख भोगे, राज्य किया और आनन्द भोगा। जीवन के अन्तिम भाग में अपने षट्-खण्ड राज्य का निरीक्षण करने मैं क्षेमपुरी से निकल पड़ा । मेरा राज्य कितना विशाल है और लोगों की स्थिति कैसी है, यह जानने के लिये मैं सुकच्छविजय के अनेक नगरों और गांवों में घूमा । घूमते हुए मैं शंख नामक नगर मैं आ पहुंचा। तत्पश्चात् सेना को पीछे छोड़कर अपने पुत्र राजवल्लभ को साथ लेकर में नन्दनवन जैसे चित्तरम उद्यान में आया। [५१६-५२६]
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